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________________ (शान्ति सुधासिन्धु ) नष्ट कर देता है। इस प्रकार धर्म धारण करनेसे इस आत्माको सर्वोत्कृष्ट परमपद प्राप्त हो जाता है । १४० प्रश्न- सुजन्य वस्तुकर्ता स्यान्न वा मे वद सिद्धये ? अर्थ - हे भगवन् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिये यह बतलाइए कि ज्ञानी मनुष्य अन्य पदार्थोंका कर्ता होता है या नहीं ? उत्तर - येनात्मसाम्राज्यपदे प्रविष्टं स्वात्मस्वरूपं स्वसुखादि दृष्टम् । तेनान्यकार्यं क्रियते न किंचित् करोति किंचिद् यदि वान्यकार्यम् ।। २१२ ।। शिष्टार्थ पुष्टयं खलु केवलं च नास्त्यन्यहेतुर्भुवि कोपि तत्र । यावत्स्वरूपं न च येन दृष्ट परतुः स्यःत् ११३ अर्थ - जिस महापुरुषने अपने आत्माकी शुद्धतारूप साम्राज्यमें प्रवेश कर लिया है, जिसने अपने आत्माका स्वरूप देख लिया है, तथा आत्मजन्य अनंत सुखका दर्शन कर लिया है, वह पुरुष इस संसार में अन्य कोई कार्य नहीं कर सकता। यदि ऐसा मनुष्य अन्य कोई कार्य करता है, तो केवल भव्यजीवोंके कल्याणकी पुष्टी करनेके लिए ही करता है । उस महापुरुषके लिए आत्मकार्य के सिवाय अन्य किसी कार्यके करनेमें जीवों के कल्याणके सिवाय अन्य कोई हेतु नहीं हो सकता। इससे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है, कि यह आत्मा जबतक अपने आत्मा के स्वरूपको नही देख लेता, तबतक ही यह आत्मा अपनेको परपदार्थों का कर्ता मान लेता है । भावार्थ आत्मरसका आस्वादन करनेवाला महापुरुष अपने आत्माकोही शुद्ध करनेका प्रयत्न किया करता है । आत्मकल्याणके सिवाय वह कोई अन्य कार्य नहीं करता । यदि करता है तो अपायविच धर्मध्यानका कार्य स्वरूप परजीवोंका कल्याण करता रहता है उनके लिए यह धर्मोपदेश देता है, धर्म धारण करता है, धारण किए 1 — a
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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