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रिपरा
( शान्तिसुधासिन्धु)
प. पू. अनिन्य प्रज्ञापन हए धर्मकी रक्षा करता है, और प्रायश्चित्तादिके द्वारा व्रतोंकी शुद्धि ... करता कराता रहता है। वह पुरुष आत्मज्ञान होने के कारण तथा परपदार्थोंके यथार्थ बपको भी जानने के कारण, विधायक माह सागछोड़ देता है, तथा कषाय और इंद्रियोंके विषयोंका भी सर्वथा त्याग कर देता है. इसीलिए वह अन्य किसी भी कार्यमें नहीं लग सकता । इससे सिद्ध हो जाता है कि आत्मरसका आस्वादन करनेवाला पुरुष परपदार्थोंका कर्ता नहीं होता। जो पुरुष आत्माक स्वरूपको तथा परपदार्थोक स्वरूपको नहीं जानता और इसीलिए जो इंद्रियोंके विषयों के कषायोंका और मोहका त्याग नहीं करता, ऐसा पुरुषही अपने तीन मोहके कारण अपने आत्माको उन परपदार्थोका का मान लेता है । यह उसकी भूल है । अतएव भव्यजीवोंको मोहका त्याग कर, आत्मरसका आस्वादन करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे कि शीघ्र ही इस आत्माको मोक्ष सुत्रकी प्राप्ति हो जाय ।
प्रश्न - गुरो ! सदृष्टिमाहात्म्यं कीदृग्मे विद्यते बद ! ___अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह व्रतलाइये कि इस संसार में सम्यग्दृष्टिका महात्म्य कैसा है ? . उत्तर - सवृष्टिरेव विमलःसदसद्विचारी,
बाह्यादिसंगविरतः स्वपदे सुरक्तः । पश्यन्न पश्यति विशन् विशतीति तस्मात्, गच्छन्न गच्छति नयनयतोह नैव ॥ २१४ ।। वावन्न चानि सततं स्वपिति स्वपन्न, कुर्वन् करोति न भवन् भवति हो न । कोपि ह्यचिन्त्यमहिमा सुखदः सुदृष्टः, लोके स्थितोपि जिन एव सदा विलेपः ॥ २१५ ।। अर्थ- इस संसारमें सम्यग्दृष्टी पुरुष अत्यंत निर्मल होता है, अपने आत्मामें लीन रहता है, अन्तरंग और बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्यागी होता है, और अपने आत्माके कल्याण तथा अकल्याणका विचार करनेवाला होता है । ऐसा पुरुष इन्द्रियोंसे देखता हुआ भी कुछ नहीं