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। शान्तिमुनिन्धु )
अर्थ- समाधिमरण धारण करनेके लिए सबसे पहले कषायोंका त्याग किया जाता है। तदनन्तर कायका त्याग करने के लिए सबसे पहले सचिक्कण अन्नका त्याग किया जाता है, और सचिक्कण पान वा दुधका त्याग करके केवल गर्म जलका सेवन किया जाता है,
और फिर गर्म जलकाभी त्याग कर, निर्मल और निर्दोष उपवास किया जाता है । यह सब समाधिमरणका साधन केवल आत्मामही शांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है । यदि समाधिमरणका यह सब साधन करते हुएभी आत्मामें शांति प्राप्त न हो, तो फिर दरिद्र पुरुषोंके लंघनके समान, उन सब साधनको लंघनही समझना चाहिए। जिनकार दारद्रोका लंघन निष्फल और दुःख देनेवाला होता है, उसीप्रकार शांति के विना उन समाधिमरणके साधनको निष्फल और दुःख देनेवाला लंघन समझना चाहिए। ऐसा आचार्य कुंथुसागरने समस्त संसारके हितके लिए निरूपण किया है।
भावार्थ- ध्यानपूर्वक शरीरका त्याग वारनेको समाधिमरण कहते हैं । यह समाधिमरण शरीरके अन्त होने पहले धारण किया जाता है, जब श्रावक वा साधु यह समझ लेते हैं, कि अब यह शरीर टिक नहीं सकता, तब वे समाधिमरण धारण करनेका प्रयत्न करते हैं । यदि कोई ऐसा समय आ जाता है कि, जिसमें प्राण जानेका सन्देह रहता है, तो उस समय वे समयकी मर्यादा नियत कर, आहारादिकका त्याग करते हैं । जिस प्रकार किसी घर में अग्नि लग जानेपर, उस अग्निको बुझनेका प्रयत्न किया जाता है, और जहांतक बनता है, वह अग्नि बुझादी जाती है। यदि वह अग्नि बुझती दिखाई नहीं देती, तो फिर उससे बहुमूल्य पदार्थ निकाल लिए जाते हैं, और उस घरको छोड दिया जाता है. उमीप्रकार जब श्रावक वा साव इस शरीरमें कुछ उपद्रव देखते हैं, कोई रोग देखते हैं, तो उसके शमन करने का उपाय करते हैं । रोगोंको शमन करनेके लिए धावक लोग प्रयत्न करते हैं, और साध लोग विशेष प्रयत्न नहीं करते । वे शरीरका ममत्व भी छोड़ देते हैं, इसलिए बे उसको हेय ही समझते हैं । श्रावक लोक जब यह निश्चय कर लेते है, वा साधु लोगोंकोभी जव यह निश्चय हो जाता है कि, अब यह शरीर टिक नहीं सकता, तब वे अपने रत्नत्रय आदि निधियोंको लेकर उस शरीरका त्याग कर देते हैं।