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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) सन्ताडिता अपि सदा परिपीडिताः को ध्यानाच्चलन्ति न च शान्तिसुखात् स्वधर्मात् । वातैर्यथा न गिरयश्च चलन्ति मूलात् म्लेच्छाविसंगमलिनैविधवाः सुशीलः ॥ १२३ ।। अर्थ -- जिस प्रकार पर्वत वायुके चलनेपर भी जडमूलसे नहीं उखडते हैं तथा जिस प्रकार म्लेच्छोंकी संगतिसे, मलिन हृदयको धारण करनेवाले लोगोंसे मशीला विधवाएं कभी चलायमान नही होती हैं, उसी प्रकार जो मुनि संतोष और शांतिके जनक हैं, सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित है, स्वर्ग वा मोक्षके मार्गमें सदा लीन रहते हैं, इंद्रियों के विषयोंसे सदा विरक्त रहते हैं, स्याद्वाद-सिद्धांतके रसिक होते हैं, पारमार्थिक भावनाओंसे सदा पुष्ट रहते हैं, जो घोर उपसर्गा को जीतनेवाले है, समतारूपी अमृत के समुद्र हैं, संसारके समस्त संतापोंको दूर करनेवाले हैं. अपने आत्मामें लीन रहते हैं, संसारसे पार कर देने वाले हैं, सब जीवोंको सुख देनेवाले हैं, परम उत्कृष्ट हैं, अत्यत पवित्र हैं, और अपने आत्माके शुद्धभावोंमें सदाकाल लीन रहनेवाले हैं, ऐसे अपने आनंदमें तृप्त रहनेवाले मुनिराज सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट पशुओंके द्वारा वा दुष्ट धूर्तोके द्वारा ताडन किये जानेपर भी, वा अत्यंत दुःख देनेपर भी न तो अपने ध्यानमे चलायमान होते हैं न शांतिरूप सूखसे चलायमान होते हैं और न अपने आत्मधर्मसे चलायमान होते हैं। भावार्थ-- यदि हम लोग किसी विशेष काममें लग जाते हैं । वा हमारा मन किसी विशेष काममें लग जाता है, तो उस समय सामनेसे निकलते हुए लोगोंको भी हम लोग नहीं देख सकते, वा समीपमें ही बजते हए बाजोंको नहीं सुन सकते । इसी प्रकार जब विचारमें मग्न हो जाते हैं, तो उस समय भोजन करते हुए भी नमक-मिरचका स्वाद नहीं जान सकते । इसका कारण यही है कि उस समय हमारा मन किसी और काममें लगा है तथा सेनी जीवोंको इंद्रियां बिना मनके सहयोगके अपना अनुभव नहीं कर सकती । यही कारण है, कि मन जब दूसरे काममें लग जाता है तब वे इंद्रियां अपने विषयोंका संपर्क होनेपर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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