________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
भी उसका अनुभव नहीं कर सकती । इसी प्रकार मुनि लोग भी सदाकाल अपने आत्मकायम लगे रहते हैं। कभी तो वे आत्माके गुणोका अनुभव करते हुए परम संतोष धारण करते हैं, कभी आत्माको परम शांतिका अनुभव किया करते हैं. कभी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्थिर हो जाते हैं, कभी स्याद्वाद सिद्धांतकी अपेक्षाओंका वा नयोंका अनुभव किया करते हैं, कभी प्रमाणरूप अखंडसिद्धांतका अनुभव करते हैं, कभी आत्माकी पारमार्थिक अवस्था बा शुद्ध अवस्थाका अनुभव करते हैं, कमी समतारूपी महासागरमें डूब जाते हैं, कभी संसारी जीवोंका उद्धार करनेरूप अपायविचय नामके धर्मध्यानका चितवन करने लग जाते हैं, कभी आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करने लगते है, कभी आत्माकी पवित्रता और उत्कृष्टताका चितवन करते हैं, कभी अपने आत्मजन्य अत्यंत सुखं का स्वाद लेते हैं, और कभी शुद्धोपयोगमें लीन हो जाते हैं । इस प्रकार के मुनि सदाकाल अपने आत्मकार्य में लगे रहते हैं। उनके पास न तो परिग्रह है, और न उनके विषयोंकी लालसा है। यदि उनके पास परिग्रह हो तो भी उनका मन उस परिग्रहकी रक्षा करने में, वा बदलने में, वा नवीन उपार्जन करने में लग सकता है । यदि उस परिग्रहकी रक्षा आदिमें कोई बाधा डालता है तो फिर उमका मन उसके विरोध करने में लग सकता है । इसी प्रकार विषयों की लालसासे भी अनेक कामोंमें मन लग जाता है, परंतु आत्मकल्याणमें तत्पर रहनेवाले उन मनिराजोंके ये दोनो नहीं होते । न तो उनके परिग्रह होता है और न विषयोंकी लालसा होती है। इसलिए उनका मन सिवाय आत्मचितवनक वा स्वाध्यायादिक अन्य आत्मकार्योके अन्यत्र कहीं नहीं जाता, सदाकाल आत्मकार्य में ही लगा रहता है । ऐमी अवस्थामें यदि कोई दुष्ट पशु अथवा कोई दुष्ट भूत-प्रेत आदि व्यंतरदेव उनपर कोई उपसर्ग करता है, या उनको मारता है, ताडन करता है, अथवा अन्य किसी प्रकारसे दुःख देता है, तो वे मुनिराज अपने उसी आत्मकार्य में लगे रहते हैं। उनका मन आत्मकार्य में लगे रहने के कारण अथवा आत्मामें लीन होनेके कारण उन्हें उस दुःखका किंचितमात्र भी अनुभव नहीं होता है । यही कारण है कि वे मुनिराज अपने ही ध्यान में लगे रहते हैं बा अपने शांतिसुख में निमग्न बने रहते हैं अथवा रत्नत्ररूप आत्मधर्म में मग्न रहते हैं।