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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु) महा दुःख देनेवाला होता है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि पुरुष सदा तीन कर्मोका ही बंध करता है, वह मोक्षमार्गका निषेध करता हुआ महापाप उत्पन्न करता है. पशुओंके समान अनेक निदनीय क्रियाओंको करता हुआ महापाप उत्पन्न करता है, इंद्रियोंके विषयोंमें तल्लीन हो कर अंधा बन जाता है, और महापाप उत्पन्न करता रहता है । तृष्णारूपी अग्निमें जलता हुआ महापाप उत्पन्न करता रहता है । इस प्रकार वह मिथ्यादृष्टि पुरुष सदाकाल अनेक प्रकारके महापाप उत्पन्न करता रहता है । इन पापोंके कारण वह सदाकाल तीन और गादसे गाढ महा अशुभ कर्मोका बंध करता रहता है, और उन कर्मोंका उदय होनेपर नरक निगोदके महादुःख भोगता रहता है । इस प्रकार वह घोर पापोंका ही बंध करता है, तथापि कभी-कभी उस मिथ्यात्वकी मंदता होनेपर अल्प स्थितिको धारण करनेवाला कर्मबंध भी कर लेता है। वह मिथ्यादष्टि पुरुष जो तीन कर्मोका बंध करता है, वह तो महा दुःखदायी होता ही है परंतु वह मिथ्यादृष्टि जो अल्पस्थितिवाला कर्मबंध करता है, वह भी महादुःखदायी होता है । छरी अत्यंत छोटी होती है, वा बंदूककी गोली अत्यंत छोटी होती है, अथवा विष बहुत थोडा होता है, तथापि वह प्राणोंको हरण करता ही है, इससे यह सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिका बंध कसा ही हो वह दुःखदायी ही होता है । यही समझकर समस्त भव्य जीवोंको सबसे पहले इस मिथ्यत्वकर्मका नाश करना चाहिए । मिथ्यात्वकर्मका नाश हो जानेसे सम्यग्दर्शनगुण प्रकट हो जाता है, सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होनेसे आत्मज्ञान हो जाता है तथा स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है । इन दोनोंके प्रगट होनेसे वह कषायादिक परपदार्थोका त्याग कर देता है और आत्मामें लीन होकर अपने आत्माको शुद्ध पवित्र बना लेता है। इस प्रकार वह मिथ्यात्वकर्म के नाश होनेसे वह आत्मा शीघ्रही समस्त कार्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यही आत्माका कल्याण है । प्रश्न- निबन्धो वा संबन्धः कः कर्मणा मुच्यते वद ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि कर्मोके बन्धनोंसे बन्धा हुआ जीव कर्मोसे मुक्त होता है अथवा कर्मों के बन्धनोंसे रहित आत्मा
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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