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दूसरा अध्याय
अब जिनागमरहस्यं प्रतिपाद्यते-- अब आगे जिनागम रहस्य नामका दूसरा अधिकार प्रारम्भ करते हैं
मिथ्यात्वमूढस्य परात्मबुद्धः, स्वर्मोक्षमार्गादिनिषेधकस्य । स्वच्छन्दवृत्तः सुखशान्तिहाः, प्रचारकस्यैव पशुक्रियायाः ॥ १०१ ॥ कलंककीविषयान्धजन्तो, स्तृष्णाग्निदग्धस्य च पापमूर्तः । गावातिगाढोऽचिरभेद्य एषास्रवच्च बन्धोपि भवेद् व्यथावः ॥ १०२ ॥
अर्थ - जो जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयसे अत्यन्त मूल हो रहा है, जिसकी बुद्धि परपदार्थमय हो रही है, जो स्वर्ग और मोक्षके मार्गका सदा निषेध करता रहता है, जिसकी प्रवृत्ति सदा स्वतंत्र रहती है, जो सुख और शांतिको हरण करनेवाली पशुओंके समान क्रियाओंका प्रचार करता रहता है, जिसकी कीति कलंकरूप है, जो विषयोंसे अन्धा हो रहा है, तृष्णारूपी अग्निसे जल रहा है और जो पापकी मूर्ति है, उसका गाढसे गाढ़ कर्मोका बन्ध, अथवा अत्यन्त शीन नष्ट होनेवाला कर्मोका बन्ध अस्त्रशस्त्रके समान दुःख देनेवाला ही होता है।
भावार्थ - यों तो कर्मोकर बंध सदा ही दुःख देनेवाला होता है, परन्तु मिथ्यात्वके निमित्तसे होनेवाले कमोंका बंध अत्यन्त दुःख देनेवाला होता है । जिसप्रकार अस्त्र शस्त्र चाहे चिरकाल टिकनेवाले हों और चाहे शीत्र ही नष्ट होनेवाले हों, परन्तु उन दोनोंका घात