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( शान्तिसुधामिन्धु )
नाहं त्यागी तथा भोगी साध्यश्च साधकोपि न । ध्याता ध्यानं न च ध्येयं वस्तुतोहं निरंजनः ।। १४३॥ ज्ञाता वृष्टा जगत्साक्षी शुद्धचिपचिन्मयः ।
प्रतिभातीव मोक्षस्थो ज्ञान्येवं चितयन् सदा ॥ १४४ ॥
अर्थ- जिन जीवोंके स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, वे सदाकाल यही चितवन किया करते हैं कि मैं इन कर्मोंमे सर्वथा भिन्न हूं ये कर्म भी मुझसे सर्वथा भिन्न हैं, मैं न तो इन कर्मोका कर्ता हुँ, न परपदार्थोका भोक्ता हूं, मैं न त्यागी हूँ, न भोग करनेवाला हूं, न साधक हूं, न सिद्ध करने योग्य साध्य हूं, न ध्याता हूं, न ध्येय हूं और न ध्यान हूं । वास्तवमें देखा जाय तो में निरंजन हूं, ज्ञाता हूं, दृष्टा हूं, जगतको प्रत्यक्ष देखनेवाला हं, शुद्ध चैतन्यस्वरूप हं, और मोक्षमें विराजमान होने के समान प्रतिभासित हो रहा हु ।
भावार्थ--- यह आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, और कर्म जड हं. पोद्गलिक हैं। इसलिए यह मानना ही पड़ता है, कि कर्म भिन्न है, और आत्मा भिन्न है, अथवा कसि आरमा भिन्न है, और आत्मासे कमें भिन्न है । इस प्रकार रागद्वेषको धारण करनेवाले जीत्र ही कर्मोका बंध करते हैं, और वे ही उन कोंके उदयसे होनेवाले फलको भोगते हैं । जो आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप है वह न तो कर्मोका बंध कर सकता है, और न उन कर्मोक फलको भोग सकता है । इसलिए यह आत्मा न तो कर्ता है, और न भोक्ता है । इसी प्रकार जो आत्मा परिग्रहको धारण करता है, वा रागद्वेषको धारण करता है वही आत्मा उस परिग्रहका रागद्वेषका त्याग कर सकता है, अथवा वही पुरुष उस परिग्रहादिकको भोगनेवाला कहा जा सकता है । जो आत्मा परिग्नहादिकसे या रागद्वेषसे सर्वथा रहित हूँ, वह न तो त्यागी बन सकता है, और न भोगनेवाला कहा जा सकता है । त्याग परपदार्थका होता है। शुद्ध आत्मा किसी भी परपदार्थको ग्रहण नहीं करता। इसलिए वह किसीका त्याग भी नहीं कर सकता और भोग भी नहीं कर सकता ।इस प्रकार त्याग और भोगसे भी यह आत्मा सर्वथा रहित है, तथा यह आत्मा साध्यसाधक भी नहीं है। जो आत्मा अशुद्ध होता है वही आत्मा शुद्ध होने के लिए साध्य था सिद्ध करने योग्य गिना जाता है तथा ऐसा