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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) ही आत्मा अपने आत्माको सिद्ध करनेवाला साधक कहलाता है, परंतु यह आत्मा शुद्ध है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है । इसलिए यह आत्मा न तो साध्य है, और न साधक है। इसी प्रकार जो आत्मा कर्मसहित होता है, वही आत्मा ध्यान कर सकता है, अथवा अपने आत्माके स्वरूपका भी चितवन कर सकता है । इस प्रकार कर्म विशिष्ट आत्मा ही ध्याता वा ध्येयरूप अथवा ध्यानरूप हो सकता है । शुद्ध निरंजन आत्माम ध्याता ध्येय वा ध्यानकी कल्पना कभी हो ही नहीं सकती हैं । इसलिए यह आत्मा न ध्याता है, न ध्येय है, और न ध्यानरूप है । इस प्रकार यह आत्मा समस्त संकल्प-बिकल्पोंसे सर्वथा रहित है। केवल ज्ञाता दृष्टा है, ज्ञाता दृष्टा होनेपर भी राग द्वेषके न होनेसे यह आत्मा किसी भी परपदार्थ से किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता । न तो उनम ममत्व-बुद्धि करता है, न इष्ट अनिष्टकी कल्पना करता है, न कर्ताः भोक्ता, ध्याता, ध्यान, ध्येय आदिकी कल्पना करता है । बिना किसी प्रकारके संकल्प-विकल्पके केवल ज्ञाता दृष्टा बना रहता है । यह जीव जब तक परपदार्थो के साथ अभेदबुद्धि रखता है । तब तक ही सब प्रकारके संकल्प-विकल्प कर सकता हैं । जब इस आत्माको भदज्ञान प्रगट हो जाता, और उस भेदज्ञानसे अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको समस्त परपदाथोंसे सर्वथा भिन्न मान लेता है, उस समय यह आत्मा अपने शुद्ध आत्माको सब संकल्प-विकल्पोंसे रहित, ज्ञाता, दृष्टा, अत्यंत शुद्ध और साक्षात् सिद्धोंके समान मान लेता है। यही भेद ज्ञानीका चिन्ह है ऐसा ही भेदज्ञान प्रगट करनेके लिए प्रत्येक भव्य जीवको सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिये प्रश्न - मो कुटुम्बादिसंयोगादात्महानिर्भवेन्न वा ? अर्थ-हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस कुटुंब आदिके संयोगसे आत्माकी कुछ हानि होती है बा नहीं ? उत्तर - संयोगतः पुत्रकलत्रबन्धोः, क्रोधादिकालुष्यविवर्द्धकस्य। चित्ते विकारो विषयाभिलाषा, स्वानन्वहर्षी विविधापि चिता ॥ १४५ ॥
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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