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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) प्रयन पाश्चात्य वायुना स्पृष्टः कीदृशो विद्यते नरः । अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जिस मनुष्यको पश्चिमी वायुका स्पर्श हो जाता है, वह कैसा होता है । उत्तर १७९ — पाश्चात्ययुक्तः स्पृष्टाः सारणात्मक्षेत्रवारकः । पाश्चात्यकमकीर्णाश्च पाश्चात्यज्ञानयंचिताः ॥ २६३ ॥ प्रारम्भे भांति मूर्खास्तेऽन्ते निस्तेजाश्च दुःखिनः । ज्ञात्वेति बुद्धिर्वेषादिः कार्यो धर्मानुकूलकः ॥ २६४ ॥ अर्थ- जिन लोगोंको पश्चिमी वायुने स्पर्श कर लिया है, जिन्होंने पश्चिमी वेष धारण कर लिया है, जो पद-पदपर पश्चिमी लोगोंक अनुसार चलते हैं । और जो पश्चिमी ज्ञानसे ठगे गये हैं, ऐसे मूर्ख लोग प्रारम्भ में तो अच्छे जान पडते हैं, परंतु अंतमें जाकर प्रभाव रहित और दुखी हो जाते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि और अपना वेष सब धर्मानुकूलही रखना चाहिए । भावार्थ - वर्तमान में परिचमके लोग किसी धर्मपर श्रद्धा नहीं रखते । वे लोग खाना-पीना और मौज उडानाही मनुष्यता समझते हैं, यही कारण है कि उनमें न तो किसी प्रकारका इंद्रिय दमन है, और न किसी प्रकारका विषयोंका त्याग है । वे लोग खाने-पीनेमें निरंकुश होते हैं, और सदाचारकी वासनातक उनके हृदय में नहीं रहती, विधवा-विवाहही इस बातका प्रत्यक्ष साक्षी है। उनके विवाहादिक संस्कारभी धर्मानुकूल नहीं होते, और ये सब उनके अधार्मिक होनेके कारण हैं । शौच शुद्धि, दंतधावन, स्नान आदि कोई भी क्रियाएं वहां नियमानुकूल नहीं होती। इसलिए देश धर्महीन कहलाता है । वहांका वेष, वहांके शीतपूर्ण देशके योग्य भलेही हो, परंतु उस वेषसे धार्मिक क्रियाएं कोई नहीं हो सकती । इसीलिए उस बेषको अधार्मिक कहा जाता है, उनका ज्ञान इतना मिथ्या है कि वह अपने आत्माका भी अनुभव नहीं कर सकता । यही कारण है कि वे लोग आत्मतत्वको भी नहीं मानते हैं । उनका लौकिकज्ञानभी इतना विपरीत है कि, वे मनुष्यों को भी परम्परासे बंदरोंकी संतान मानते हैं। मनुष्योंकी संतान मनुष्यही होती है, और बंदरोंकी संतान बंदरही होती है। इस अत्यंत
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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