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( गान्तिसुधासिन्धु )
जन्मृत्युजरादुःखमन्यदुःख प्रमुच्यते।। शान्त्यर्थमेव हर्षोपि ख्यातिपूजादिलाभजः ॥ ४३६॥ तहिना केवलं मन्ये नटवद् वेषमोचनम् । ज्ञात्वेत्यात्महि वास्त्याज्याः शांतिर्भवेद् यथा॥४३७॥
अर्थ- इस संसारमें अनेक दुःख हैं, कितनेही दुःख अभिमानसे होते हैं, कितनेही दुःख गर्वसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख क्रोधसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मानभंग होनेसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मायाचारिसे होते है, कितनेही दुःख लोभसे होते हैं, कितनेही घोर दुःख भ्रांतिसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मर्मच्छेदनसे होते हैं, कितनेही दुःख जन्मसे होते हैं, कितनेही दुःख मरणसे होते हैं, कितनेही दुःस्ल बुढापेसे होते हैं, और कितनेही दुःख अन्य अनेक प्रकारसे उत्पन्न होते हैं। इन सब दुःखोंका त्याग केबल आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है। इसके सिवाय अपनी प्रसिद्धता, तथा पूजा प्रतिष्ठा, आदिसे उत्पन्न होनेवाले हर्षोंका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है। यदि इन समस्त दुःखोका त्याग करनेपरभी आत्मामें शांति उत्पन्न न हो तो, फिर उन सब दुःखोंके त्यागको, नटके वेषके त्यागके समान समझना चाहिए। अतएव अपने आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए अपने आत्माके शुद्धस्वरूपसे भिन्न जितने विभावभाव है, उन सबका त्याग करना चाहिए।
भावार्थ- संसारमें जितने दुःख हैं, चाहे वे ऊपर लिखे हुए हो, वा इनसे मिन्न अन्य अनेक प्रकारचे दु:ख हो, उन सब दुःखोसे आकुलता उत्पन्न होती है। जहां आकूलता होती है वहां कभी शांति नहीं हो सकती। शांति आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति होने में होती है, तथा आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति इन समस्त दुःनोंके त्यागसे होती हैं, तथा राग, द्वेष, क्रोध, काम, आदि समस्त विकारोका त्याग करनेसे होता है। अतएवं समस्त भव्यजीवोंको दुःखोका त्याग कर, शांति प्राप्त करनी चाहिए। दुःखोंका त्याग समता धारण करनेसे होता है। जिसके हृदयमें सुख-दुःख दोनोमें समता होती है, वह पुरुष कभीभी किसीभी दुःखमें संक्लेश परिणाम धारण नहीं करता, तथा संक्लेश परिणामोंके न होनेसे शांति प्राप्त होती है । शांति प्राप्त करने का यह सबसे उत्तम उपाय है।