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( शान्ति सुधासिन्धु )
समान गिना जाता है । कहां तक कहा जाय, सम्यग्दृष्टिकी महिमाको कोई चितवन भी नहीं कर सकता । उसकी महिमा अतुल है। वह संसारमें रहता है, तथापि जिन कहलाता है, और भोजन-पान आदि संसारके समस्त कार्य करता हुआ भी कर्मबंधनसे लिप्त नहीं होता । ऐसी यह विचित्र महिमा सम्यग्दृष्टिके सिवाय और किसीकी नहीं हो सकती । इसलिए भव्य जीवोंको सबसे पहले अपने मिथ्यास्वका त्याग कर, सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । यही इस संसारमें सार है।
प्रश्न- कि कार्यमथवा दृश्यं शर्मदं बद मे गुरो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि इस संसारमं सूख देनेवाला, वा कल्याण करने वाला कौनसा कार्य करना चाहिए, और क्या देखना चाहिए ? उत्तर- निजात्मबाह्यं बहुदोष युक्तं
भ्रान्तिप्रदं शान्तिहरं कुकर्म । कृतं त्वया कारितमेवचान्य रनन्तवारं विषमं कुबुद्धया ॥ २१६ ॥ तत्कर्मभिर्वत्स तथापि चात्मा तृप्तः कदाचिन्न बभूव लोके । विचिन्त्य कार्य सुखदं स्वकृत्यं दृश्यं तदेवं न कृतं न दृष्टम् ॥ २१७ ॥
अर्थ- हे वत्स ! अनादिकालसे इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए तूने अपनी कुबुद्धिसे अत्यन्त विषम, अनेक दोषोंसे परिपूर्ण, शान्तिको हरण करनेवाले, करानेवाले, भ्रांतिको उत्पन्न करनेवाला, और अपने आत्मासे भिन्न ऐसे, अनेक कुकर्म अनन्तवार किए हैं, तथा अनन्तवार ही दूसरोंसे कराये हैं । तथापि यह तेरा आत्मा इस संसारमें आज-तक कभी तृप्त नहीं हुआ है, यही समझकर अब तुझे सुख देनेवाला वही देखना चाहिए जो आजतक न किया हो और न देखा हो ।