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________________ { शान्तिमुधासिन्धु उन साधुओं का समता गण सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। राम्ही साध इस संसारमें धन्य माने जाते हैं, और अपने आत्माका यथार्थ कल्याण कर लेते हैं । परंतु जिस प्रकार गद्ध दर्गणमें कोई संदर मनुष्य देखता है, तो उसको उस दर्पणमें सुन्दरता दिखलाई पड़ती है. और यदि कोई कुरूप देखता है, तो उसको कारूपता दिखाई पड़ती है, यह स्वभाव ही ऐसा है। इसी प्रकार जो मनुष्य उन साधुओंकी निंदा करना है, बा उनको दुःख देता है, वह नरक-निगोदका पात्र होता है, और जो उनकी स्तुति वा सेवा-भक्ति करता है, वह स्वर्गका पात्र होता है । यद्यपि दोनोंके लिए वे मुनिराज समान दृष्टि रखते हैं, तथापि निंदा करनेवाला पाप कर्मोंका बंध कर नरकादिकके दुःख भोगता है. और स्तुति करनेवाला पुण्य कर्मोका बंध कर स्वर्गादिकके सुन्दरमुख भोगता है । यह उनकी बुद्धिका फल है । बद्धि अच्छे कार्योंमें लगती है और बुरी बुद्धि पाप कर्मोंमें लगती हैं । यही समझकर बुद्धिमानोंको कषायोंका त्याग कर देना चाहिए और अपने आत्मामे लीन होकर आत्माको निर्मल बना लेना चाहिए । ऐसा करनेसे वद्धि निर्मल हो जाती है और फिर वह मोक्षमार्ग में लग कर, इस आत्माको अनन्तसुख प्राप्त करा देती है । ऐसा आचार्यवर्य कुंथसागरका उपदेश है । इति श्री आचार्यवर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिमुधासिधुग्रंथे जिनागम रहस्य वर्णनो नाम द्वितीयोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रीशान्तिसुधासिन्ध ग्रन्थमें । धर्मरत्न पं. लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें जिनागमके रहस्यको वर्णन करनेवाला यह दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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