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( शान्तिसुधासिन्धु )
करता है, यह सब मोहनीय कर्मके उदयका तीव्र फल समझना चाहिए । जब यह आत्मा उस मोहनीय कर्मको शान्त कर लेता है, वा उसको नष्ट कर देता है, तब यह आत्मा अपने स्वरूपको पहचानने लगता है। अपने आत्माके स्वरूपको पहचानकर यह आत्मा उन इंद्रियोंको अपने आत्मकल्याणका शत्रु समझने लगता है, और धीरे-धीरे प्रयत्न करता हुआ सुन इंद्रियोंके विषयोंको रोकता है, जब वह इंद्रियोंके विषयों का निरोध कर लेता है, तब उसके कषायोंकी तीव्रताभी हट जाती है, और मानअपमानका ध्यान भी हट जाता है। उस समय उस आत्माको पूर्ण शान्ति प्राप्त हो जाती है । कपायोंकी तीव्रता ही शांतिको बाधक होती है, वह कषायोंकी तीव्रता इंद्रियों का निरोध करने से अपनेआप हट जाती है । यदि इन्द्रियोंका निरोध करते हुएभी शांति प्राप्त नहीं होती, तो समझना चाहिए कि उस पुरुषकी लालसाएही नही घटी हैं। लालसाओंके न घटनेमेही शांति प्राप्त नहीं होती । अतएव जो पुरुष इंद्रियोंका निरोध करता हुआ भी लालसाओंको नहीं घटाता, और शांति धारण नहीं करता तबतक उसका सब प्रयत्न निष्फल समझना चाहिए । इसलिए प्रत्येक मध्यजीवको अपनी लालसाएं घटाकरही इंद्रियोंका निरोच करना चाहिए, जिससे कि आत्मामें पूर्ण शांति प्राप्त हो।
प्रश्न- स्नेहादित्यागत: स्वामिन् को लाभो वद मे भुवि ? ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में स्नेहादिका त्याग करनेसे क्या-क्या लाभ होता है ? उ.-स्नेहप्रसंगादिविवर्जनेन प्रीतिप्रमोदादिविसर्जनेन ।
द्वेषप्रदोषादिविमोचनेन निजान्यजन्तोर्ममताद्य भावात् ॥ निजात्मरूपा सुखदातिशुद्धा सर्वात्मदेशे शशिनि प्रभेव । शान्तिर्भवेत्सर्वविकारहवीं ज्ञात्वेति कार्यः कथितः प्रयोगः॥
अर्थ- जिसप्रकार बादलोंके हट जानेसे समस्त मतापोंको दूर करनेवाली चंद्रमाकी चांदनी फैल कर, चंद्रमाकी शोभा बढाती है. तथा संसारमें शांति उत्पन्न करती है, उमीप्रकार समस्त स्नेहका त्याग कर देने से, प्रीति वा प्रमोदका त्याग कर देने से, रागद्वेष आदि दोषोंका त्याग कर देनेसे, तथा अपने ऋटम्बी लोगोंसे, तथा अन्य समस्त जीवोंमे