SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्ति सुधासिन्धु ) स्वरुपको भी नहीं जान सकता और अंधेरे में पड़े रहने के समान चारों गतियों में परिभ्रमण किया करता है। इसलिए अपनी शोभा बढ़ाने के लिए और अपना गौरव प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, तथा सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेपर सम्यग्ज्ञान बढानेका प्रयत्न करना चाहिए और सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि कर सम्यक् चारित्रको बढाना चाहिए। क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनोंही मोक्षके कारण है। मोक्ष प्राप्त कर नाही इनकी शोभा है, और यही जीवका सर्वोत्कृष्ट परम कर्तव्य है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको रत्नत्रय धारण कर, मोक्ष प्राप्त कर लेने को सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए, यही भव्य जीवका कर्तव्य है । वर्धते साधुतादिः का कस्य संगेन मे वद ? प्रश्न अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में साधुता वा दुष्टता आदि गुण वा अवगुण किस-किसकी संगति से बढते हैं ? उत्तर दुष्टता दुष्टसंगाद्धि नीचता नोचसंगतः । पापिता पापिसंगाच्च क्रूरता क्रूरसंगतः ॥ ३४३ ॥ साधुता साधुसंगात् स्याद्दातुत्वं दानिसंगत वक्तृता वक्तृसंगाच्च ध्यानिता ध्यानिसंगतः ।। ३४४ ॥ वीरता वीरसंगाद्धि धीरता धोरसंगतः । यथार्हन्नामसंस्काराच्छिलापि देवतायते ।। ३४५ ॥ संसर्गाज्जायते कि कि न वेद्मि भुवनत्रये । ज्ञात्वेति योग्यसंगश्च कार्यो मोक्षाथिभिस्ततः ॥ ३४६ ॥ २३६ - अर्थ संसार में दुष्टता दुष्ट पुरुषोंकी संगति में बैठनेसे आ जाती है, नीचता नीच लोगोंकी संगतिमें बैठनेसे आ जाती हूँ, पापीपता पापी लोगों के संसर्गमे आ जाती है, क्रूरता क्रूर लोगोंकी संगतिसे आ जाती है, साधुपना साधुओंकी संगति से आता है, दानीपत्रा दानी - योंके संगसे आ जाता है, वक्तृत्त्वता वक्तृत्त्ववालोंके संगति से आ जाती है, ध्यानकी प्राप्ति ध्यान करनेवालोंकी संगतिसे होती है, वीरता वीर पुरुषों की संगति से आती है, और धीरता धीर-वीर पुरुषोंकी संगतिसे आती है । जिस प्रकार किसी पाषाणकी मूर्ति बनाकर उसका नाम
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy