________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
यथार्थ स्वार्थ है । संसारी जीव जो क्षणभरके स्वार्थके लिए महापापके उत्पन्न कर नरक-निगोदादिकके दुःस्न भोगते हैं, इसको स्वार्थ नहीं कहते हैं । बास्तविक स्वार्थ वही है, जिससे यह आत्मा सदाकालके लिए अनंत सुखी हो जाय । इसलिए भव्य जीवाको अपना ऐसा ही यथार्थ स्वार्थ सिद्ध कर लेना चाहिए । वा उसके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
प्रश्न- अखण्डं वस्तु खण्डं कि कृल्प्यते बद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें अखंड पदार्थों में भी खंडरूप कल्पना क्यों करते हैं ?
उत्तर - ज्ञानं व्याप्यमिति स्वात्मा व्यापकस्तत्त्ववेदिभिः
क्रियतेऽपि तयोभवोऽबोधानां बोधहेतवे ॥ १६२ ।। यथान्यष्णादिभेदोपि संज्ञासंख्याप्रयोजनात् ।। क्रियते न तयोः पश्चाच्छुद्धचिद्रूपवस्तुनः ॥ १६३ ।।
अर्थ- जिस प्रकार अग्नि और उष्णता दोनों ही अखंड पदार्थ हैं, तथापि अज्ञानी जीवोंको वा बालकोंको समझाने के लिये संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उस अग्नि और उष्णतामें अनेक भेद सिद्ध किये जाते हैं । इसी प्रकार यद्यपि ज्ञान और आत्मा दोनों एक हैं, अखंड पदार्थ हैं तथापि अज्ञानी वा वालकोंको समझानेके लिये व्याप्यध्यापकके भेदसे, बा गुण-गुणीके भेदसे उसके अनेक भेद सिद्ध किये जाते हैं । परंतु जब वह समझानेवाला आत्माका यथार्थ स्वरूप समझ लेता है, और उस आत्माको शुद्ध चैतन्यमय मान लेता है तब फिर वह उसमें भेद कल्पना नहीं करता।
भावार्थ- यद्यपि अग्नि और उष्णता दोनों एक ही अखंड पदार्थ हैं । न तो उष्णता अग्निसे कभी भिन्न हो सकती है, और न अग्नि ही उष्णतासे भिन्न हो सकती है, जहाँ अग्नि है, वहां उष्णता है, और जहां उष्णता है, वहां अग्नि है, तथापि समझानेक लिये उसमें भिन्न - भिन्न कल्पना करते है । अग्नि एक