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( शान्तिसुधासिन्धु )
शोध मिथ्यादष्टियोंको होता है, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध अबनी श्रावकोंको होता है, प्रत्याख्यानावरण क्रोध व्रती श्रावकोंको होता है, और मंज्वलन क्रोध मुनियों को होता हैं । अनंतानुबंधी क्रोध पत्थरकी रेखाके समान बहुत दिन तक रहनेवाला होता है । अप्रत्याग्थ्यानाबरण श्रोध हलकी रेखाके समान ह महीने बक रहनेवाला होता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध गाडीकी लकीरके समान पन्द्रह दिन तक रहनेवाला होता है, और संज्वलन क्रोध पानीकी लकीरके समान क्षणमें नष्ट हो जानेवाला होता है। मुनि लोग कभी क्रोध नहीं करते। यदि किमी विशेष कारणसे उन्हें क्रोध आ जाता है, तो वह क्षणभरही ठहरता है । क्षणभरके बाद अवश्य नष्ट हो जाता है, क्योंकि वह संज्वलन क्रोधही होता है । उसकी स्थिति भी पानी की लकीरके समान क्षणभर है । इसप्रकार प्रती श्रावकोंका झोध पन्द्रह दिन ठहरता है, अव्रती सम्यग्दृष्टीका क्रोध छह महीने तक ठहरता है, और मिथ्यादृष्टीका क्रोध अनंतकाल तक ठहरता है । यही सब समझकर क्रोधका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यह क्रोध परजीवोंका तो घात करताही है, किंतु अपने आत्माका भी घात करता है। यही समझकर इसका त्याग करना कल्याणकारी है।
प्रश्न- कस्यास्तित्वाद् गुगे ब्रूहि सर्व विश्वो बशीभवेत् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किसके होनेसे यह समस्त संसार अपने बशमें हो जाता है ? उत्तर - करुणा शांतिदा शक्तिः भक्तिश्च भवनाशिनी ।
धीरता चोद्यमः शांतिः शौर्य च दक्षता शुचिः॥३६४॥ तत्त्वज्ञतात्मबुद्धिः स्यान्मिथः मैत्री सुखप्रदा। इत्यादि भावना यत्र तत्र विश्वो वशी भवेत् ॥ ३६५॥
अर्थ- करुणा, शांति देनेवाली शक्ति, संसारका नाश करनेवाली भक्ति, धीरता, उद्यम, शांति, शूरता. चतुरता, पवित्रता, तत्त्वज्ञता, आत्मबुद्धि, सुख देनेवाली परम्परकी मित्रता आदि भावनाएं जहां-जहां रहती हैं, वहांपर यह समस्त संसार अपने वश में हो जाता है।
भावार्थ- करुणा दयाको कहते हैं । जहां पर समस्त जीवोंपर दया धारण की जाती है, वहांपर समस्त जीव अपने वश में हो जाते हैं । यह