________________
( शान्तिसुघासिन्धु )
प्रश्न- मुमुक्षुर्विपदाकीर्णे वा सुखे चिन्तयतीह किम् ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुष किसी पनि समयम अथवा सुखके समयम क्या क्या चिन्तवन करते हैं ?
२६
उत्तर - कोहं ममात्मा स्वपदं च किं मे, जैनोस्म्यजैनः सुजनश्च पापी ।
धर्मोपि मे कः स्वगुणः स्ववासः, कि मे स्वकृत्यं स्वगृह च किं मे ॥ ४० ॥
ग्राह्यस्तथाग्राह्यविधिश्च मे कः,
किं साधनीयं च विवर्जनीयम् ।
इत्थं मुमुक्षु निजराज्यहेतोः,
सा विचारं सुखदं करोति ॥ ४१ ॥
अर्थ - मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुष चाहे तो बड़ी भारी विपत्ति में फंसे हों अथवा चक्रवर्तीका सुख भोग रहे हों दोनों ही अवस्थाओं में वे सदाकाल यही सुख देनेवाला चितवन करते रहते हैं कि मैं कीन हूं, मेरे आत्माकी क्या अवस्था है अथवा मेरे आत्माका क्या स्वरूप है, मेरा अपना निवासस्थान वा मेरा पद कौनसा है, में जैनधर्मको धारण करता हुं अथवा अन्य किसी धर्मको धारण करता हूं में सज्जन हूँ अथवा पापी हूं, मेरा धर्म क्या है, मेरे निजके गुण क्या है, मेरा निजका निवसस्थान कहां है. इस संसार में मेरा कर्तव्य क्या है मेरा घर कौनसा है: इस संसार में मेरे लिए ग्रहण करने योग्य पदार्थ कौन से हैं और त्याग करने योग्य पदार्थ कौनसे हैं, त्याग करने को विधी बना है, हमें क्या ग्रहग करना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार मोक्षको इच्छा करनेवाला पुरुष मोक्षरूपी स्वराज्यके लिए सदाकाल ऐसा ही सुख देनेवाला चितवन किया करता है ।
भावार्थ- मोक्ष की इच्छा करनेवाला आत्मा सदाकाल अपने आत्मामें ही लीन रहता है, तथा आत्मामें लीन रहनेके कारण वह न तो किसी दुःखसे दुःखी होता है और न किसी सुखमें सुख मानता है