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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु) चक्रवर्ती महाराज भरतके समान वह सदा सिद्धोंका चिन्तवन करता रहता है अथवा नरकम पडे हुए श्रेणिकके जीबके समान घोर दुःखम भी आत्म-चिन्तवन करता रहता है । आत्माक चिन्तवन करने में ना आत्माके स्वरूपका चितवन करता है, आत्माके गुणाका चिनबन करता है, आत्माके निवासस्थानका चितवन करता है । आत्माकं धर्मका चितवन करता है, आत्माके कर्तव्योंका चितवन करता है, हेय उपादेयका चितवन करता है और मोक्ष प्राप्त होने का उपाय वा साधन चितवन करता है । इस प्रकार चितवन करता हुआ वह अपनं मोक्ष प्राप्त करनेके कार्य में लग जाता है और इस प्रकार वह स्वर्गादिकक मुख भोगता हु। मोक्ष प्राप्त कर लेता है। प्रश्न- किमर्थं संचिनोतीह धनं धर्मप्रभावकः ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि धर्मको प्रभावना करनेवाले सज्जन पुरुष धनका संचय किस लिए करते हैं ? उत्तर - श्रीजनधर्मादिविकासनार्थ, विद्यालयादेः स्थितिवृद्धिहेतोः। स्थर्मोक्षमार्गायतनप्रवृद्ध्य, सत्पात्रदानाय शिवप्रदाय ॥ ४२ ॥ जैनागभावः परिरक्षणार्थ, व्याध्यादिदुःखथ्यपनोवनार्थम् । धर्मप्रचारी च धनं चिनोति, न चेन्द्रियार्थं व्यसनादिवृद्ध्यं ॥ ४३ ॥ अर्थ- धर्मको प्रभावना करनेवाला धर्मात्मा पुरुष चारों ओर जन धर्मका प्रचार करने के लिए, धार्मिक ग्रंथोंका पठन पाठन करनेके लिए, स्वाध्यायशाला वा विद्यालय स्थापन करने के लिए वा उनकी वृद्धि करने के लिए, स्वर्ग मोक्षके मार्ग के आयतनोंकी वृद्धिक लिए, मोक्ष देनेवाले सत्पात्र दानके लिए, जैन आगम आदिकी रक्षा करने के लिए और किसी भी रोगसे उत्पन्न हुए दुःखोंको दूर करने के लिए धनका मंचय करना है ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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