________________
( शान्तिसुधा सिन्धु )
न ज्ञायते स्वात्मनिवासभूमि रन्विष्यते बाह्यमहीति तावत् । निजान्यभेदः क्रियते न यावत् तावत्परे स्यात् खलु मोहमाया ॥ १९२॥
ज्ञात्वेति तत्त्यागविधेविधानं
काय यतः स्यात्स्वपदे निवासः । प्रीतिः सदा स्यात्स्वरसे सुमिष्टे दुःखप्रदे स्थान परे प्रमोहः ।। १९३ ।।
१२.७
अर्थ - यह मनुष्य जबतक जन्म और बुढापेको दूर करनेवाला तथा अत्यन्त मिष्ट ऐसे आत्मजन्य आनंदरसका पान नहीं करता है, जबतक समस्त संताप और विकारोंको उत्पन्न करनेवाली इंद्रियजन्य बाह्यरसकी अभिलाषाका त्याग नहीं करता है, और जबतक अपने आत्माके निवासस्थान मोक्षको नहीं पहचानता है, सत्रतकही यह जीव बाह्य भुमिकी तलाश करता रहता है। इसी प्रकार जबतक यह मनुष्य स्वपरभेदविज्ञान प्रगट नहीं कर लेता, अर्थात् आत्मा और परपदार्थोंके यथार्थ स्वरूप को नहीं जान लेता, तबतक ही यह जी परपदार्थों में मोह और माया वा ममकार करता रहता है। यही समझकर बाह्यसकी अभिलाषाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, जिससे कि यह जीव अपने आत्मपदमें निवास करने लग जाय, अत्यन्त सुमधूर ऐसे आत्मरसमें प्रेम उत्पन्न हो जाय, और महादुःख देनेवाले परपदार्थों में कभी मोह उत्पन्न न हो ।
भावार्थ - इंद्रियजन्य विषयोंकी अभिलाषाको बाह्यरसकी अभिलाषा कहते हैं । यह विषयोंकी अभिलाषा मोहनीयकर्मके उदयसे होती है । और नरकनिगोदादिके महा दुःख देनेवाली है जबतक मोहनीय कर्मका उदय रहता है तबतक यह जीव अपने आत्माके स्वरूपको नहीं पहिचान सकता, और जबतक आत्माके स्वरूपको नहीं पहचानता है, तबतक विषयोंकी अभिलाषाका त्याग नहीं कर सकता, तथा जबतक विषयोंकी अभिलाषाका त्याग नहीं करता, तबतक आत्मजन्य महामिष्ट अनंत मुखरूपी रसका पान नहीं कर सकता, और जबतक अपने आत्मरमका