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(शान्तिसुधासिन्धु )
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स्वामी होनेसे स्वराज्यकर्ता कहलाता है । इसप्रकार यह मेरा आत्मा तीनों लोकोंमें सर्वोत्कृष्ट माना जाता है ।
आगे अपने आत्माका स्वरूप और भी दिलाते हैं। योगी कृतार्थी च जगत्प्रसिद्धः स्वानंदकंदः कृतकृत्य एव । प्रजापतिः सौख्यशिखामणिश्च चारित्रचूडामणिरेव शुद्धः ॥ स्वानन्दसाम्राज्यपदाधिकारी ह्याद्यन्तमध्यादिविवजितश्च । गुणाकरो धर्मशिरोमणिश्च त्रिरत्नधारी त्रिविकारहारी ||
अर्थ - - यह मेरा आत्मा योग वा ध्यान धारण करनेके कारण योगी कहलाता है, चारों पुरुषार्थीको वा सर्वोत्कृष्ट मोक्षपुरुषार्थको सिद्ध कर लेनेके कारण कृतार्थी कहा जाता है, अरहंत वा सिद्ध होनेपर तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो जाता है, इसलिए जगत्प्रसिद्ध कहलाता है, अपने आत्मजन्य आनन्दस्वरूप होनेके कारण स्वानन्दकन्द माना जाता है, आत्माको अत्यंत शुद्धरूप कृत्यको कर लेने के कारण कृतकृत्य कहलाता है, तीनों लोकोंका स्वामी होनेके कारण प्रजापति कहा जाता है, अनंत सुख और अनंतशांतिको धारण करनेके कारण सौख्य शिखामणि कहलाता है, पूर्ण चारित्रको धारण करनेके कारण वा समस्त पापोंका नाश कर देनेके कारण चारित्रचूडामणि कहा जाता है, अत्यंत शुद्ध होनेके कारण शुद्ध है, अपने आत्मजन्य आनंदके साम्राज्यके सिहासनपर बिराजमान होने के कारण अथवा अनंतसुखके सिंहासनपर विराजमान होने के कारण रवानन्द साम्राज्य पदाधिकारी कहलाता है, यह मेरा आत्मा अनादिकालसे विद्यमान है और अनन्तानन्तकालतक रहेगा, अतएव न इसका कही आदि है, न मध्य है, और न आदि मध्य अन्त तीनोंसे रहित है यह आत्मा गुणों का अनंत गुणों का भंडार है, इसीलिए गुणाकर कहलाता है, सर्वोत्कृष्ट आत्मधर्म में लीन रहता है, वा सर्वोत्कृष्ट धर्म स्वरूप है, इस - लिए धर्मशिरोमणि कहलाता है, इसीप्रकार यह आत्मा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्रारित्ररूपी रत्नत्रयधारी कहा जाता है, और समस्त विकारोंसे रहित है, अथवा मानसिक, वाचनिक, और शारीरिक तीनों विकारसे रहित है, अथवा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म इन तीनों
अन्त हैं,
सागर है,
यह आत्मा