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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) अनुभव करता है और फिर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसमें किसी प्रकारका मंदेह नहीं है क्यों कि शुभ क्रियाओंकी महिमा अचिननीय है। भावार्थ - समस्त क्रियाओंमें सर्वोत्तम शुभक्रिया सम्यक्त्व क्रिया कहलाती है । इस मंसारमें सम्यग्दर्शनकी महिमा अद्भुत है उसका कोई चितवन भी नहीं कर सकता । सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे यह जीव स्वर्गाके सुख भोगता है, सम्यक्त्वके ही प्रभावसे चक्रवर्तीकी विभूती प्राप्त करता है सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे अनेक ऋद्धियां प्राप्त करता है और सम्यग्दर्शन के ही प्रभावसे तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। प्रश्न – कथं स्वात्मसुखं भुक्ते स्वामिन् कथय मानवः । अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि यह मनुष्य आत्मसुखका अनुभव किस प्रकार करता है ? उत्तर - शुभाशुभं दुःखमयं स्पाति. त्यक्त्वाऽक्षसौख्यं च कषायकाण्डम् । यः स्वात्मना स्वात्मनि स्वात्मनेवात्मानं सदा पश्यति वेत्ति लोके ॥ १३ ॥ स एव चानन्दरसं पि.द्धि, भुंजीत साम्राज्यसुखं निजे छ । शुद्धोपयोगस्य बलेन स स्यात्, समस्तसंकल्पविकल्पमुक्तः ॥ १४ ॥ अर्थ – जो पुरुष अपने समस्त शुभाशुभ परिणामोंका त्याग कर देता है, अनंत दुःख देनेवाली समस्त इच्छाओंका त्याग कर देता है, समस्त इन्द्रियोंके सुखोंका त्याग कर देता है और समस्त कषायोंके समूहका त्याग कर देता है। इन सबका त्याग कर जो अपने आत्मामें अपने ही आत्माके लिये अपने ही आत्माके द्वारा अपने ही आत्माको सदाकाल देखता वा जानता रहता है वही पुरुष इस संसारमें अपने शुद्धोपयोगके बलसे आत्मजन्य अनंत आनंद-रसका पान करता रहता है तथा शुद्ध आत्माके साम्राज्यसुखका अनुभव करता रहता है और
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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