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( शान्तिसुधासिन्धु)
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उ. मान्यता वस्तुतो लोके जिनाज्ञापालनात्सदा ।
अधीता स्मरणाद्विधा शुचिता लोभनाशतः ॥ २७४ ।। स्थिरताक्षसुखत्यागाच्छान्तिः स्यात्मान्यबोधतः स्वरसास्वादनान्मुक्ति पार्वे दासीव सा वसेत् ॥ २७५ ।।
अर्थ- वास्तवम देखा जाय तो इस मंसार में भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका पालन करनेसे. अपनी मान्यता बढ़ती हूँ, अध्ययन की हुई विद्या स्मरण करनेसेही स्थिर ठहरतो है, इंद्रियोंके सुखोंका त्यागकर देनेसे स्थिरता, वा निश्चलता, निराकुलता बनी रहती है, अपने आत्माका ज्ञान होनेसे तथा अन्य पदार्थोंका ज्ञान होनेसे आत्मामे शांति बनी रहती है, और अपने आत्माका शुद्ध स्वरूप चितवन करनेसे वा उस शुद्ध स्वरुपका अनुभव करनेसे यह मुक्ति दासीके समाम अपने समीम बनी रहती है।
भावार्थ - बडप्पन प्राप्त होनेको मान्यता कहते है। यह मान्यता पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होती है, तथा पुण्यकर्मका बंध भगवान अरहंतदेवकी आज्ञाका पालन करनेसे होता है। भगवान अरहन्तदेव सर्वोत्कृष्ट परमात्मा हैं, इसलिए उनकी आज्ञाभी आत्माका सर्वोत्कृष्ट कल्याण करनेवाली कही जाती है। जो मनुष्य भगवान जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका पालन करता है वह अवश्य सर्वोत्कृष्ट पुण्यका बंध करता है, तथा उस पुण्यके उदयसे वह मनुष्य जगतमान्य और उत्कृष्ट बन जाता है। यहां तक कि वह स्वयं वीतराग सर्वश हो जाता है । इससे बढकर मान्यता और कहीं नही हो सकती । इस प्रकार अध्ययन की हुई विद्या स्मरण करनेसेही ठहरती है, यदि उस विद्याका बार-बार स्मरण न किया जाय तो वह विद्या नष्ट हो जाती है, इसलिए विद्याको स्थिर रखने के लिए बार-बार स्मरण करते रहना चाहिए तथा लोभके नाश होनेसेही पवित्रता ठहरती है। यहांपर पवित्रताका अर्थ आत्माकी पवित्रता है । यह आत्मा लोभके कारणही अनेक पापोंको उत्पन्न करता हुआ, अपने आत्माको मलिन और अपवित्र बना लेता है,
जब यह आत्मा 'अपने लोभको नष्ट कर देता है, तब उस लोभके नाश * होनेमे पापोंका अभाव हो जाता है, पापोंका अभाव होनेसे आत्माम