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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) सदाकाल दयारूप धर्मका पालन करते रहते हैं । दुष्ट वा मिथ्यादृष्टी पुरुषों की बुद्धि अपने तीन मिथ्यात्वकर्मके उदयसे सदाकाल विपरीतरूप रहती है । मिथ्यात्वरूपी अन्धकार देव शास्त्र गुरुका वा रत्नत्रयरूप मोमा यथार्थ जान नहीं होने देता। इसीलिए इन सबमें उनकी बुद्धि विपरीत ही रहती हैं। वे कुदेवको ही देव मानते हैं, कुशास्त्रोंको ही शास्त्र मानते हैं और कुगुरुओं को ही गुरु मानते हैं । तथा जो संसारके मार्ग हैं उन्हीं को मोक्षका मार्ग मानते हैं। इस प्रकार वे अपनी सब प्रवृत्तियां विपरीत ही करते हैं । हे भगवन् ! कृपाकर उनका मिथ्यात्व दूर कीजिये। जिससे कि उनको सुबुद्धि उत्पन्न हो और aava fart कर्तव्यों को छोडकर सुमार्ग में लगे और उनके आत्माका कल्याण हो । प्रश्न- कर्तुं योग्य गुरोः कृत्यं यः करोति स कीदृश: ? अर्थ- हे गुरो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो पुरुष अपने करने योग्य कार्योंका पालन करता है वह मनुष्य कैसा है ? उत्तर- कियत्कृतं वांछितदं क्षमादं, पुण्यं मया क्लेशकलंकमुक्तम् । लोकप्रिय प्राणिदयाप्रधानं, लोकद्वये शांतिकरं यथेष्टम् ॥ ५५ ॥ ३७ कियत्कृतं घोरतरं कुकृत्यं, लोकद्वये क्लेशकरं नितान्तम् एवं करोत्येव सदा विचार, स एव धीमान् नरकृत्यवेदी ॥ ५६ ॥ अर्थ- इस संसारमें जो विचारशील मनुष्य प्रतिदिन यह विचार करता रहता है कि जो पुण्यकार्य समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है, क्षमा आदि आत्माके गुणों को प्रगट करनेवाला है, क्लेश और कलंक से जो सर्वथा रहित है, जो समस्त लोक प्रिय है, प्राणियोंकी दया करना हो जिसमें प्रधान कार्य है और जो इच्छानुसार दोनों लोकोंमें शांति उत्पन्न करनेवाला है ऐसा पुण्यकार्य मैंने कितना किया हैं । तथा जो दुष्कृत्य ...
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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