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( शान्तिसुधासिन्धु)
राजाभी धर्मात्मा हो। जहांपर धर्म के ये साधन न हों, वहांपर न तो कभी जाना चाहिए और न कभी रहना चाहिए । अधार्मिक देशसे तो बहुत दूर रहनाही अच्छा है । स्वग्न भी ऐसे देशमें रहने की लालसा नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न- कस्य समागमः स्वामिन् न कार्यों मे बद प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि किसकी संगति नहीं करनी चाहिए ? उ.-यस्मिन् हि जीये सुखदोन धर्मो, न्यायनीतिः परलोकचर्चा ।
न लोकलज्जा न च फर्मभीति, न त्यागभावो न कुलाविरक्षा ।। शास्त्रज्ञता वीर्घविचारता न, विज्ञानता नैव गुणज्ञतास्ति । समागमस्तस्य नराधमस्य, कार्यो न भव्यनिजसाधकश्च २५८
अर्थ - जो मनुष्य न ता सुख देनेबाले वर्भका पालन करता हो, न न्याय - नीतीका पालन करत हो, न परलोककी चर्चा करता हो, जिसको न तो लोकलज्जा हो, न कर्मों का डर हो, न पाप कार्यों के त्याग करनेके भाव हो, न अपने श्रेष्ठकुलकी, अथवा सज्जातित्वकी रक्षा करने के भाव हो, जो मनुष्य न तो जैन शास्त्रोका जानकार हो, न आगे-पीछे का विचार करनेवाला दूरदर्शी हो, न किसी विज्ञानको वा स्वपरभेदविज्ञानको धारण करता हो, और जो गुणोंका जानकार भी न हो, ऐसा मनुष्य नीचमनुष्य कहलाता है । अपने आत्माकी सिद्धि करनेवार भव्यपुरुषोंको ऐसे नोच मनुष्योंकी मंगति कभी नहीं करनी चाहिए।
भावार्थ - यह मनुष्य, जसे मनुष्योंकी संगति करता है वैसे ही इसके भाव हो जाते हैं। यदि यह मनुष्य, धर्मात्मा मनुष्योंकी संगतिम रहता है, तो धर्मात्मा बन जाता है, यदि जुवारियोंकी संगतिमें रहता है तो जुआ खेलना सीख जाता है, यदि चोरोंकी संगतिमें रहता है तो चोरी करना सीख जाता है, यदि मुनियोंके निवासमें रहता है तो संसारसे विरक्त होनेका प्रयत्न करता है, यदि कुटुबमें रहता है तो उनसे मोह बढ़ा लेता है, कहां तक कहा जाय ? यह अनुभूत निश्चित सिद्धात