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{ शान्तिसुधासिन्धु )
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उ. सद्धर्मसंस्कारकलादिकयरिहान्यलोके सुखशांतिदंश्च ।
संस्कारिता न प्रकृतिः प्रजा च येन स्वपुत्रो विमलक्रियाभिः ।। स एव पापी च पितापि माता राजापि पापी प्रमुखः प्रयोरः मात्वेति तद्दोषविनाशनार्थ संस्कारणीयस्तनयः प्रजापि २६२
अर्थ- जो माता पिता इस लोक और परलोक दोनों लोकोंम सुख और शांति देनेवाले धार्मिक संस्कारोंसे तथा अनेक प्रकारको कलाओंमे और निर्मल क्रियाओंसे अपने पुत्र-पौत्रोंका संस्कार नहीं करते, वे माता पिता महा पापी समझने चाहिए । इस प्रकार जो शूर-वीर और मुख्य राजा होकरभी इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें सुख और शांति देनेवाले धार्मिक संस्कारों तथा अनेक प्रकारकी विद्या वा कलाओंसे और निर्मल क्रियाओंसे अपनी स्वाभाविक प्रजाका संस्कार नहीं करता, वह राजाभी पापी समझना चाहिए । यही समझ कर संस्कार न होनेके दोषों को नाश करने के लिए माता पिताको अपने पुत्रका संस्कार करना चाहिए, और राजाको प्रजाका संस्कार करना चाहिए।
भावार्थ- जिस प्रकार हीरा आदि रत्नोंका संस्कार शाणपर रस्त्रकर किया जाता है, और संस्कार होनेपर उनका मल्य बढ़ जाता है, और चमक-दमक वा प्रभाव बढ़ जाता है, उस प्रकार मंतान वा प्रजाका संस्कार करनेसे उसकी योग्यता बढ़ जाती हैं, तथा जिस प्रकार अग्निके द्वारा कच्चे घडेका संस्कार किया जाता है, और संस्कार करनेलेही उसमें जलधारण आदि किया हो सकती है । यदि घडंका अग्निसंस्कार नहीं किया जाय तो फिर उसमें न तो जल भरा जा सकता है. और न वह किसी और काममें आ सकता है. इसी प्रकार प्रजा वा संतानभी संस्कारोंके होनेपरही चारों पुरुषार्थीका सेवन करने में तत्पर हो सकती है। यदि उनका संस्कार न किया जाय तो फिर उनसे कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं हो सकता। यह निश्चित सिद्धान्त है, कि जिसके संस्कार होते हैं, वही पुरुष चारों पुरुषार्थोका वा विशेष कर मोक्षपुरुषार्थका पात्र होता है । जिसके संस्कार नहीं होते वह किसीभी पुरुषार्थको सिद्ध नहीं कर सकता । देखो ! शूद्रोंके संस्कार नहीं होने, तथा स्त्रियोंके संस्कार नहीं होते, इसलिए उनमें कोईभी पुरुषार्थ सिद्ध