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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर- अज्ञानतो मूढजनश्च भीमे,
श्वभ्रे सदा भेदनछेदनोत्थम् । तिर्भागसौ वा याच प्रमोद मानानलोत्थं च नृजन्मनीह ॥ ९ ॥ स्वर्ग तथा लोभकषायजातं, ह्यागन्तुकं वा सहजादिकं च । प्राप्नोति दुःखं विषवव्यथावं, नाहो खलो वेधि करोति किं किम् ॥ १० ॥
अर्थ - इस संसार में अज्ञानी पुरुष अपने अज्ञानके कारण भयानक नरक में छेदन भेदन मारण ताडन आदिके महा दुःख भोगता रहता है, तिर्यच गतीमें वध बंधन आदिके महादुःख भोगता है, मनुष्यगतीमें अभिमानरूपी अग्निसे उत्पन्न हुए महा दुःख भोगता रहता है और स्वर्गमें लोभकषायसे उत्पन्न हुए महादुःखोंको भोगता रहता है। इन चारों गतियोमें स्वभावसे होनेवाले महादुःख तथा अकस्मात् आनेवाले महादूःख वा अन्य अनेक प्रकारके महादुःख वा विषके समान महादुःख देनेवाले महादुःख भोगने पडते हैं । आचार्य कहते हैं कि दुष्ट पुरुष क्या क्या करते हैं और कैसे कसे दुःस्त्र भोगते हैं यह हम भी नहीं जान सकते।
भावार्थ - चारों गतियोंमें जो दुःख भोगने पड़ते हैं उनका वर्णन भी कोई नहीं कर सकता। नरकतिमें नारकी लोग परस्पर एक दूसरेको दुःख दिया करते हैं, कोई किमीको मारता है, कोई किसीको सिंह बनकर खा लेता है, कोई वैतरणीमें पटक देता है और कोई शरीरके टुकडे टुकड़े कर देता है । उनका शरीर पारेके समान टुकड़े टुकडे होकर भी फिर ज्योंका त्यों मिलकर एक हो जाता है। वहां पर कुछ नरकोंमें गर्मी है और इतनी गर्मी है कि मेरु पर्वतके समान लोहेका गोला भी जाते जाते गल जाय तथा जिन नरकोंमें ठंडक है वहां इतनी ठंडी है कि इतना ही बड़ा लोहेका गोला ठंडकसे क्षार क्षार हो जाय । वहांके पत्ते तलवारकी धारके समान पैने होते हैं जो शरीरपर पडते ही टुकडे टुकडे कर देते हैं । कहां तक कहा जाय वहांके दुःखोंको सर्वज्ञ ही जानते हैं,