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(बादामा
सूर्यके बिना दिन में ही अंधेरा रहता है, उसी प्रकार बिना निग्रंथ गुरुके यह मनुष्यजीवनभी अंध:कारमय हो जाता है । वे वीन गग निग्रंथगरु इस संसार में अपना कोई स्वार्थ नहीं रखते, उनका तो समस्त जीवन अपने आत्माका कल्याण करने में तथा अन्य जीवोंके कल्याण करने में ही व्यतीत होता है। ऐसे परम गुरुओंका दर्शन भी बडे पुण्योदयसे होता है, और आत्माका कल्याण करनेवाला होता है। इसलिए प्रत्येक भव्य-जीवको इन वीतराग गुरुओंकी भक्ति करना चाहिए, और उनकी सेवा-सुश्रूषा करनी चाहिए । यही मनुष्य जीवनका कर्तव्य है ।
प्रश्न- स्वात्मैवात्मगुरुः प्रोक्तः कथं संबद मे प्रभो ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि आचार्योंने जो अपने आत्माको ही, अपने आत्माका गुरु बतलाया है, मो कैसे बतलाया है ? उत्तर - श्रेणिप्ररूढश्च यतिनं यावत्
स्यादेव तावद् गुरुशिष्यभेदः । पश्चान्न चोक्तः परमार्थदृष्टया, स्वात्मस्थितित्वात् स्वसुखाश्रितत्वात् ॥ १८३॥ कुकर्ममग्नोपि सदास्मि शुद्धो मूर्योपि बुद्धोस्मि सदेति मत्वा । न मन्यतेहंदगुरुशिष्यभेदं स रंध्रगामी निजधर्मलोपी ।। १८४ ॥
अर्थ- ये निग्रंथ वीतराग मुनि जबत्तक श्रेणी आरोहण नहीं होते अर्थात् आठवें गुणस्थानमें नहीं पहुंचते, तबतक उनमें गुरु और शिष्यका भेद बना रहता है। परंतु जब वे मुनि आठवें गुणस्थानमें पहुंच जाते हैं, तब यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो उनमें फिर कोई किसी प्रकारका भेद नहीं रहता, क्योंकि आठवें गुणस्थानमें वा ऊपरके गुणस्थानोंमें रहनेवाले मुनि अपने आत्मामें लीन रहते हैं । और आत्मजन्य सुखमें लीन रहते हैं । जो पुरुष सदाकाल कुकर्म करने में लगा रहता है, फिर भी अपने आत्माको शुद्ध बतलाता है, और जो मूर्ख