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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) दुःख देनेवाला मान लेता है ) जब यह अज्ञानी मनुष्य उनको सुख दुःख देनेवाला मान लेता तब वह फिर उनमें इष्ट और अनिष्टकी कल्पना करता है। तदनंतर अपने आत्माक हित करने में अत्यत प्रमाद करनेवाले वह पुरुष जरा इाट और अनिष्ट कल्पनाके कारण उन पदार्थीमें ही अपनी अज्ञानतासे सुख मान लेता है और अपने ही अजानसे दुःखों को भोगता हुआ दुःखी मान लेता है । आचार्य कहते हैं ऐसे अज्ञानी पुरषकी गति भी अत्यन्त विचित्र है। भावार्थ- इस संसारमें समस्त पदार्थ अपने अपने स्वरूपको लिए हुए रहते है । इन में से कोई भी पदार्थ किसीको भी सुस्त्र बा दुःख देने वाला नहीं है। अपने मोहसे जिसको यह जीव इष्ट समझ लेता है उसको सुखका कारण मान लेता है और जिसको अनिष्ट समझ लेता है उसको दुःख का कारण मान लेता है । इस प्रकार उन पदार्थोंको मुख देनेवाला वा दुःख देनेवाला मान लेता है। परन्तु यह सब उसकी कल्पना है । जो पदार्थ किमी मनुष्यको इष्ट होता है वही पदार्थ दूसरेको अनिष्ट होता है। किमीको दुध अच्छा लगता है, किसीको दूधसे बहुत ही अभत्रि होती है । दुध ज्योंका त्यों है । उसके पीनेमें कोई दुःख मान लेता है और कोई सुख मान लेता है । यह केवल अपनी-अपनी कल्पना है। तथा यह कल्पना अपने मोह बा अज्ञानके कारण हुई है । इसलिये सबसे पहले इस जीवको मोह और अज्ञानका त्याग कर देना चाहिए । मोह और अज्ञानका त्याग कर देनेसे ही यह जीव समस्त पदार्थों में इष्ट अनिष्ट कल्पनाका त्याग कर समता धारण कर सकता है और समतासे शुद्धोपयोगको प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। प्रश्न - सति प्रिये पदार्थेपि दुःखी भवति कि जनः ? अर्थ - हे भगवान् ! प्रिय वा इष्ट पदार्थोके रहते हुए भी यह मनुष्य दुःखी क्यों होता है ? उत्तर:- सर्वः पदार्थः प्रियबांधयोपि, प्रातः प्रियस्तोषकरो यथेष्टम् । नीरोगजन्तो भवतीह योग्यः, सरोगिनो देव स एव हेयः ॥ १७ ॥
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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