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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब पाकर यह बतलाइये कि इस संसार में जैनधर्मकी महत्ताही क्यों दिखाई पडती है ?
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उ. निर्दोष योगा निरपेक्षबुध्या लोके पदार्थाश्च यथैव सन्ति । जिनेन भव्याय तथा हि चोक्ताः निश्चीयते ह्येव ततस्त्रिलोके ॥ जिनेन्द्रधर्मोस्ति सदा पवित्रः सर्वैश्च सर्वोपरिमाननीयः । ततः स एवं हृदि धारणीयः सत्यार्थ शान्त्यं सकलैश्च विश्वैः ||
अर्थ - इस संसार में जो पदार्थ जिस स्वरूप में विद्यमान है, भगवान् जिनेंद्रदेवने अपनी निर्दोष, और वीतराग तथा सर्वज्ञ अवस्था होने के कारण अपनी निरपेक्ष वा समता बुद्धिसे भव्यजीवोंके लिए उसीप्रकार निरूपण किए हैं, और इसीलिए तीनों लोकोंमें उसीप्रकार उनका निश्चय किया जाता है । इसके सिवाय यह जंनधर्म अत्यंत पवित्र है, और समस्त जीव इसको सर्वोत्कृष्ट मानते हैं । अतएव समस्त संसारको यथार्थ शांति प्राप्त करने के लिए यह जैन ने हमें धारण करना चाहिए ।
भावार्थ - भगवान् अरहंतदेव राग द्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित, बीतराग होते हैं, तथा सर्वज्ञ होते हैं । सर्वज्ञ और वीतराग होने के कारण वे जो कुछ निरूपण करते हैं, वह सर्वथा यथार्थही होता है । पदार्थोंका अयथार्थ स्वरूप या तो अजानकारीके कारण कहा जाता है, अथवा किसी राग वा द्वेषसे कहा जाता है । भगवान् अरहंत देव सर्वज्ञ होने के कारण न तो किसी पदार्थकी अजानकारी है, और न वीतराम होनेके कारण किसीसे राग वा द्वेष है। इसलिए वे जो कुछ कहते हैं, वह सब यथार्थही होता है, उसमें किसी प्रकारका अन्तर नहीं पड सकता । जिस महापुरुषके हृदय में समस्त जीवोंको कल्याण करनेकी भावना सतत बनी रहती है, ये ही जीव दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चितवन कर, तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं, तथा वे ही तीर्थकर परमदेव वीतराग सर्वज्ञ होनेपर तत्त्वोंका उपदेश देते हैं । इसलिए वह तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थ होता है, जीवोंका कल्याण करनेवाला होता है, और तीनों लोकोंमें वही निश्चित तत्त्व माना जाता है । उन भगवान् तीर्थंकर सर्वज्ञ परमदेवने जो अहिंसामय