Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003470/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि सूत्रकृताङ्ग सूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिरीटाभट युक्त) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M HERE EMAIL सा सिरि सूयगडंग सुत्त Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ॐअर्ह जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक[परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] पंचम गणधर भगवत् सुधर्मस्वामि-प्रणीत : द्वितीय अंग सूत्रकृतांगसूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध) [मूल पाठ, हिन्दी अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट युक्त] सन्निधि। उपप्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलाल जी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक / श्री स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी महाराज 'मधुकर' सम्पादक-अनुवादक-विवेचक / श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक / सम्पादक मण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्री रतन मुनि पंडित श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' - संप्रेरक मुनि श्री विनयकूमार 'भीम' श्री महेन्द्र मुनि 'दिनकर' / अर्थसौजन्य श्रीमान गुमानमल जी चौरड़िया प्रकाशन तिथि वीर निर्वाण संवत् 2508 फाल्गुन, वि० सं० 2038 ई० सन् 1982 मार्च - प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति जैन स्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन 305601 मुद्रक श्रीचन्द सुराना के निर्देशन में सुनील प्रिंटिंग वर्स एवं संजय प्रिंटिंग प्रेस, फाटक सूरजभान, बेलनगंज, आगरा में मुद्रित पैतालीस रुपया सिर्फ : 45) रु० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj FIFTH GANADHARA SUDHARMA SWAMI COMPILED Second Anga SUTRAKRTANGA [Part 1] Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Sri Vardhamana Sthanakvasi Jain Sramana Sanghiya Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar Editor, Translator & Annotator Srichand Surana 'Saras' Publishers SRI AGAMA PRAKASHAN SAMITI Beawar (Raj.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o Jinagam Granthmala : Publication No. 9 Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Board of Editors Anuyoga Pravartaka Munisri Kanhaiyalal Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandraji Bharilla Managing Editor Srichand Surana 'Saras' Promoter Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dinakar' o Financial Assistance Sri Gumanmalji Chauradiya O Publishers Sri Agama Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipalia Bazar, Beawar (Kaj ) [India] Pin. 305901 O Printers Sunil Printing Works, & Sanjay Printing Press, Agra. under the supervision of Srichand Surana 'Saras' O Price Rs. Forty Five Only : Rs. 45/ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण 'अप्पमत्ते सदा जये' की आगम वाणी जिनके जीवन में प्रतिपद चरितार्थ हुई जो दृढ़संकल्प के धनी थे जो उच्चकोटि के साधक थे, विरक्ति की प्रतिमूर्ति थे, कवि-मनीषी आप्तवाणी के अनन्यतमश्रद्धालु तथा उपदेशक थे, उन स्व० आचार्य प्रवर जी श्री जयमल्ल जी महाराज की पावन स्मृति में, सादर, सविनय समर्पित, __ -युवाचार्य, मधुकर मुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय सूत्रकृतांग सूत्र का प्रथम भाग पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए हमें परम सन्तोष का अनुभव हो रहा है। प्रस्तुत सूत्र के दो श्रु तस्कन्ध है। उनमें से यह प्रथम श्रु तस्कन्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्ध के मुद्रण का कार्य भी चालू है। वह अजमेर में मुद्रित हो रहा है। आशा है अल्प समय में ही वह भी तैयार हो जाएगा और आपके पास पहुँच सकेगा। इसके पूर्व स्थानांग सूत्र मुद्रित हो चुका है और समवायांग का मुद्रण समाप्ति के निकट है। हमारा संकल्प है, अनुचित शीघ्रता से बचते हुए भी यथासंभव शीघ्र से शीघ्र सम्पूर्ण बत्तीसी पाठकों को सुलभ करा दी जाए। सूत्रकृतांग का सम्पादन और अनुवाद जैन समाज के प्रख्यात साहित्यकार श्रीयुत श्रीचंद जी सुराणा 'सरस' ने किया है। उनकी ही देखरेख में इसका मुद्रण हुआ है। - समग्र देश में और विशेषतः राजस्थान में जो विद्य त-संकट चल रहा है, उसके कारण मुद्रणकार्य में भी व्याघात उत्पन्न हो रहा है, इस संकट के आशिक प्रतीकार के लिए अजमेर और आगरा--दो स्थानों पर मुद्रण करनी पड़ी है। यह सब होते हए भी जिस वेग के साथ काम हो रहा है, उससे आशा है, हमारे शास्त्र-प्रेमी पाठक और ग्राहक अवश्य ही सन्तुष्ट होंगे। प्रस्तुत आगम श्रीमान् सेठ गुमानमल जी सा० चोरड़िया की विशिष्ट आर्थिक सहायता से प्रकाशित हो रहा है, अतएव समिति उनके प्रति कृतज्ञता और आभार प्रदर्शित करती है। यों श्री चोरडिया जी का आगम प्रकाशन के इस महान् अनुष्ठान में प्रारम्भ से ही उत्साहपूर्ण सक्रिय सहयोग रहा है। समिति के आप मद्रास क्षेत्रीय कोषाध्यक्ष भी हैं। आपका संक्षिप्त जीवन परिचय अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। श्रमणमंघ के युवाचार्य पण्डितप्रवर श्रीमधुकर मुनिजी महाराज के श्री चरणों में कृतज्ञता प्रकाशित करने के लिए किन शब्दों का प्रयोग किया जाय, जिनकी श्रुतप्रीति एवं शासन-प्रभावना की प्रखर भावना की बदौलत हो हमें श्रत-सेवा का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ है। साहित्यवाचस्पति विश्र त विबुध श्री देवेन्द्र मुनिजी म० शास्त्री ने समिति द्वारा पूर्व प्रकाशित आगमों की भाँति प्रस्तुत आगम की भी विस्तृत और विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखने का दायित्व लिया था, किन्तु स्वास्थ्य की प्रतिकूलता के कारण यह सम्भव नहीं हो सका, तथा हमारे अनुरोध पर पं० रत्न श्री विजय मुनि जी शास्त्री ने विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखी है, तदर्थ हम विनम्र भाव से मुनिश्री के प्रति आभारी हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमान् श्रीचंदजी सुराणा ने इस आगम का सम्पादन एवं अनुवाद किया है। पूज्य युवाचार्य श्रीजी ने तथा पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने अनुवाद आदि का अवलोकन किया है। तत्पश्चात् मुद्रणार्थ प्रेस में दिया गया है। तथापि कहीं कोई त्रुटि दृष्टिगोचर हो तो विद्वान् पाठक कृपा कर सूचित करें जिससे अगले संस्करण में संशोधन किया जा सके। हमारी हार्दिक कामना है कि जिस श्र तभक्ति से प्रेरित होकर आगम प्रकाशन समिति आगमों का प्रकाशन कर रही है उसी भावना से समाज के आगम प्रेमी बन्धु इनके अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार में उत्साह दिखलाएँगे जिससे समिति का लक्ष्य सिद्ध हो सके / अन्त में हम उन सब अर्थसहायकों एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करना अपना कर्तव्य समझते हैं जिनके मूल्यवान् सहयोग से ही हम अपने कर्तव्य पालन में सफल हो सके हैं। रतनचंद मोदी चांदमल विनायकिया जतनराज मूथा (कार्यवाहक अध्यक्ष) (मंत्री) (महामंत्री) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी-सत्कार एक आदर्श श्रावक : श्रीमान गुमानमल जी सा0 चोरडिया : जीवन-परिचय भगवान महावीर ने श्रावक के आदर्श जीवन की ओर इंगित करके एक वचन कहा है-गिहिवासे वि सुव्ययावे गृहस्थावास में रहते हुए भी व्रतों की सम्यग् आराधना करते हैं / श्रीमान गुमानमल जी सा० चोरडिया--स्थानकवासी जैन समाज में एक आदर्श सद्गृहस्थ के प्रतीक रूप है। प्रकृति से अतिभद्र, सरल, छोटे-बड़े सभी के समक्ष विनम्र, किन्तु स्पष्ट और सत्यवक्ता, अपने नियम व मर्यादाओं के प्रति दृढ़निष्ठा सम्पन्न. गुरुजनों के प्रति विवेकवती आस्था से युक्त, सेवा कार्यों में स्वयं अग्रणी तथा प्रेरणा के दूत रूप में सर्वत्र विश्रुत है। आपने बहुत वर्ष पूर्व श्रावक व्रत धारण किये थे / अन्य अनेक प्रकार की मर्यादाएँ भी की थीं, आज इस वृद्ध अवस्था तथा शारीरिक अस्वस्थता के समय भी आप उन पर पूर्ण दृढ़ है / इच्छा-परिमाण व्रत पर तो आपकी दृढ़ता तथा कार्यविधि सबके लिए ही प्रेरणाप्रद है। अपनी की हुई मर्यादा से अधिक जो भी वार्षिक आमदनी होती है वह सब तुरन्त ही शुभ कार्यों में--जैसे जीवदया, असहाय-सहायता, बुक बैंक, गरीब व रुग्णजन सेवा तथा साहित्य प्रसार में वितरित कर देते हैं। राजस्थान तथा मद्रास में आपकी दानशीलता से अनेक संस्थाएँ लाभान्वित हो रही है। आप स्था० जैन समाज के अग्रगण्य धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी श्री मोहनमल जी सा० चोरडिया के अत्यन्त विश्वास-पात्र, सूदक्ष तथा प्रधान मुनीम रहे। सेठ साहब प्रायः हर एक कार्य में आपकी सलाह लेते हैं / मद्रास में आपका अपना निजी व्यवसाय भी है। प्रायः सभी सामाजिक-धार्मिक कार्यों में आपका सहयोग वांछित रहता है। आपकी जन्म भूमि---नोखा (चान्दावतों का) है, आपके स्व० पिता श्रीमान राजमलजी चोरडिया भी धार्मिक वत्ति के थे। आपके पाँच सहोदर अनुजभ्राता हैं--श्री मांगीलाल जी, चम्पालाल जी, दीपचन्द जी, चन्दनमल जी तथा फूलचन्द जी / सभी का व्यवसाय मद्रास में चल रहा है। तथा आप एवं सभी बंधु स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री हजारीलाल म० के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति रखते हैं / स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. सा० एवं युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. के प्रति आप सब की गहरी श्रद्धा है। युवाचार्य श्री के निदेशन में चलने वाले विविध धार्मिक एवं सांस्कृतिक उपक्रमों में आप समय-समय पर तन-मन-धन से सहयोग करते रहे हैं; कर रहे हैं। आगमों के प्रति आपकी गहरी निष्ठा है। प्रारम्भ से ही आप आगम-साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु उत्साहवर्धक प्रेरणाएं देते रहे हैं। जब युवाचार्य श्री के निदेशन में आगमों के हिन्दी अनुवाद एवं विवेचन-प्रकाशित करने की योजना बनी तो, आपश्री ने स्वतः की प्रेरणा से ही एक बड़ी धन राशि देने की उत्साहपूर्ण घोषणा की, साथ ही अन्य मित्रों एवं स्वजन-स्नेहियों को प्रेरणा भी दी। आपकी सहयोगात्मक भावना तथा उदारता हम सबके लिये प्रेरणा प्रदीप का काम कर रही है। प्रस्तुत आगम के प्रकाशन का व्यय-भार आपने वहन किया है। हम शासन देव से प्रार्थना करते हैं कि ऐसे समाजरत्न आदर्श श्रावक चिरकाल तक जिनशासन की सेवा करते हुए हमारा मार्गदर्शन एवं उत्साह संवर्धन करते रहें। . श्री चोरड़िया जी ने अपनी स्वर्गीया धर्मपत्नी श्रीमती आशादेवी की स्मृति में यह आगम प्रकाशित करवाया है। -मंत्री i Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टाओं चिन्तकों ने "आत्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है / आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन आज आगम/पिटक/वेद/उपनिषद आदि विभिन्न नामों से विश्रत है। जैन दर्शन की यह धारण है कि आत्मा के विकारों-राग द्वेष आदि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो आत्मा की शक्तियाँ ज्ञान /सुख वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित उद्भासित हो जाती है। शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/आप्त-पुरुष की वाणी; वचन/कथन प्ररूपणा-"आगम" के नाम से अभिहित होती है। आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, आत्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र/आप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्म प्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं / तीर्थंकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशय सम्पन्न विद्वान शिष्य गणधर संकलित कर "आगम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में प्रथित होती है तो वह "आगम' का रूप धारण करती है। वही आगम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए आत्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "आगम" को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक' कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्र-द्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/आचारोग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भदोपभेद विकसित हए है। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है / द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्रश्रत ज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी ओर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब आगमों/शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसीलिए आगम ज्ञान को श्रु तज्ञान कहा गया और इसीलिए श्र ति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया / भगवान महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक आगमों का ज्ञान स्मृति/श्र ति परम्परा पर ही आधारित रहा / पश्चात परम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया / मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहां चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी. वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु। तभी महान श्रतपारगामी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने विद्वान श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्वसम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध किया गया। जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुत: आज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हुआ। संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 180 या 163 वर्ष पश्चात प्राचीन नगरी बलभी (सौराष्ट्र) में आचार्य श्री देर्वाद्धगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हआ। वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ़ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संघों के आन्तरिक मतभेद, स्मृति दुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान भण्डारों का विध्वंश आदि अनेकानेक कारणों से आगम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। आगमों के अनेक महत्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्न-विच्छि चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते / इस प्रकार अनेक कारणों से आगम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद उस में भी व्यवधान उपस्थित हो गये / साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया / आगम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियाँ मिलना भी दुर्लभ हो गया / उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई / धीरे-धीरे विद्वद्-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चूणियाँ, नियुक्तियाँ, टीकायें आदि प्रकाश में आई और उनके आधार पर आगमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इससे आगम स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासुजनों को सुविधा हुई / फलतः आगमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में आगमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है / इस रुचि जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जनेतर विद्वानों की आगम-श्रु त-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईट की तरह आज भले ही अदृश्य हो, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्टआगम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहूँगा / __ आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज ने जैन आगमों--३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर एक अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ़ लगनशीलता, साहस एवं आगम ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वत: परिलक्षित होती है। वे 32 ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे आगम पठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हुआ। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातः स्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म० के सानिध्य में आगमों का अध्ययन-अनुशीलन करता था तब आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित आचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेव थी ने कई बार अनुभव किया-यद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट है, मूलपाठों में व वृत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरूह तो है ही। चूंकि गुरुदेव श्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरू-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अतः वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञान वाले श्रमण श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें। उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया / इसी अन्तराल में आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री आत्माराम जी म. विवदरत्न श्री घासीलालजी म. आदि मनीषी मुनिवरों ने जैन आगमों की हिन्दी, संस्कृत, ती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के विद्वान श्रमण परमथ तसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम सम्पा. दन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा / किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि आगमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्वावधान में आगम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य आज भी चल रहा है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में आगम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो आगम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठ-निर्णय में काफी मतभेद की गुजाइश है। परम्परा-प्राप्त या पूर्वाचार्य-सम्मत पाठों में परिवर्तन व एक-पक्षीय निर्णय भी तो कुछ स्पष्ट व ठोस आधार चाहता है / तथापि उनके श्रम का महत्व है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. "कमल" आगमों योगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील है। उनके द्वारा सम्पादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। आगम साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान पं० श्री बेचरदास जी दोशी, विश्रत-मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष आगमों के आधुनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का माग दर्शन कर रहे हैं / यह प्रसन्नता का विषय है। इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा / आज प्रायः सभी विद्वानों की कार्य शैली काफी भिन्नता लिये हुए हैं। कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं आगमों की विशाल व्याख्यायें की जा रही है / एक पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक आगम ज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यम मार्ग का अनुसरण आवश्यक है / आगमों का एक ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो / मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही आगम-संस्करण चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की थी, सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ़ निश्चय घोषित कर दिया Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) और आगम बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सद्गृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा। आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म० "कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री, आचार्य श्री मात्मारामजी म० के प्रशिष्य भंडारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वदल श्री ज्ञान मुनिजी म०; स्व० विदुषी महासती श्री उज्जवल कुवरजी म० की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी एम. ए. पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजो तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म० 'अर्चना', विश्रुत विद्वान श्री दलसुखभाई मालवणिया सुख्यात विद्वान पं० श्री शोभाचन्द जी भारिल्ल, स्व. पं० श्री हीरालालजी शास्त्री, डा० छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा "सरस" आदि मनीषियों का सहयोग आगम सम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है / इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुंवरजी, महासती श्री झणकारकुंवरजी का सेवा भाव सदा प्रेरणा देता रहा है / इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा स्रोत स्व० श्रावक चिमनसिंहजी लोढ़ा, स्व० श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहज रूप में हो आता है जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से आगम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है। दो वर्ष के इस अल्पकाल में ही दस आगम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 आगमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मझे सुदृढ़ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमल जी महाराज आदि तपोपत आत्माओं के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म. आदि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ....... -मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आचारांग सूत्र का सम्पादन करते समय यह अनुभव होता था कि यह आगम आचार-प्रधान होते हाए भी इसकी वचनावली में दर्शन की अतल गहराईयाँ व चिन्तन की असीमता छिपी हुई है। छोटे-छोटे आर्ष-वचनों में द्रष्टा की असीम अनुभूति का स्पन्दन तथा ध्यान-योग की आत्म-संवेदना का गहरा 'नाद' उनमें गुंजायमान है, जिसे सुनने-समझने के लिए 'साधक' की भूमिका अत्यन्त अपेक्षित है। वह अपेक्षा कब पूरी होगी, नहीं कह सकता, पर लगे हाथ आचाराँग के बाद द्वितीय अंग-सूत्रकृतांग के पारायण में, मैं लग गया। सूत्रकृतांग प्रथम श्र तस्कन्ध, आचारांग की शैली का पूर्ण नहीं तो बहुलांश में अनुसरण करता है। उसके आचार में दर्शन था तो इसके दर्शन में 'आचार' है। विचार की भूमिका का परिष्कार करते हए आचार की भूमिका पर आसीन करना सूत्रकृतांग का मूल स्वर है-ऐसा मुझे अनुभव हुआ है। __ 'सूत्रकृत' नाम ही अपने आप में गंभीर अर्थसूचना लिये हैं / आर्यसुधर्मा के अनुसार यह स्व-समय (स्व-सिद्धान्त) और पर-समय (पर-सिद्धान्त) की सूचना (सत्यासत्य-दर्शन) कराने वाला शास्त्र है।' नंदीसूत्र (मूल-हरिभद्रीयवृत्ति एवं चूणि) का आशय है कि यह आगम स-सूत्र (धागे वाली सुई) की भांति लोक एवं आत्मा आदि तत्वों का अनुसंधान कराने वाला (अनुसंधान में सहायक) शास्त्र है / ' श्रतपारगामी आचार्य भद्रबाह ने इसके विविध अर्थों पर चिन्तन करके शब्द शास्त्र की दृष्टि से इसे-श्रत्वा कृतं ='सूतकर्ड' कहा है-अर्थात तीर्थंकर प्रभु की वाणी से सुनकर फिर इस चिन्तन को गणधरों ने ग्रन्थ का, शास्त्र का रूप-प्रदान किया है। भाव की दृष्टि से यह सूचनाकृत्-'सूतकडं'–अर्थात्-निर्वाण या मोक्षमार्ग की सूचना-अनुसन्धान कराने वाला है। 'सूतकडं' शब्द से जो गंभीर भाव-बोध होता है वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है, बल्कि सम्पूर्ण आगम का सार सिर्फ चार शब्दों में सन्निहित माना जा सकता है। सूत्रकृतांग की पहली गाथा भी इसी भाव का बोध कराती है। बुज्झिन्झ त्तिउज्जा-समझो, और तोडो (क्या) बंधणं परिजाणिया-बंधन को जानकर / / किमाह बंधणं वीरो-भगवान ने बंधन किसे बताया है ? कि वा जाणं तिउट्टइ-और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? इस एक ही गाथा में सूत्रकृत का संपूर्ण तत्वचिन्तन समाविष्ट हो गया है। दर्शन और धर्म, विचार और आचार यहां अपनी सम्पूर्ण सचेतनता और संपूर्ण क्रियाशीलता के साथ एकासनासीन हो गये हैं। 1. सूयगडे णं ससमया सूइज्जति --समवायांग सूत्र 2. नंदीसूत्र मूल वृत्ति पृ० 77, चूणि पृ० 63. 3. देखिए नियुक्ति-गाथा 18, 19, 20 तथा उनकी शीलांकवृत्ति 4. सूत्रकृतांग गाथा 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन शास्त्र का लक्ष्य है--जीव और जगत के विषय में विचार एवं विवेचना करना। भारतीय दर्शनों का; चाहे वे वैदिक दर्शन (सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसक और वेदान्त) है या अवैदिक दर्शन (जैन, बौद्ध, चार्वाक) है, मुख्य आधार तीन तत्व है - 1. आत्म-स्वरूप की विचारणा 2. ईश्वर सत्ता विषयक धारणा 3. लोक-सत्ता (जगत स्वरूप) की विचारणा जब आत्म-स्वरूप की विचारण। होती है तो आत्मा के दुख-सुख, बंधन-मुक्ति की विचारणा अवश्य होती है। आत्मा स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? परतन्त्र है तो क्यों? किसके अधीन ? कर्म या ईश्वर ? आत्मा जहाँ, जिस लोक में हैं उस लोक सत्ता का संचालन नियमन/व्यवस्था कैसे चलती है ? इस प्रकार आत्मा (जीव) और लोक (जगत) के साथ ईश्वर सत्ता पर भी स्वयं विचार-चर्चा केन्द्रित हो जाती है और इन तत्वों की चिन्तना/चर्चा करना ही दर्शनशास्त्र का प्रयोजन है। धर्म का क्षेत्र--दर्शन शास्त्र द्वारा विवेचित तत्वों पर आचरण करना है / आत्मा के दुख-सुख, बन्धन-मुक्ति के कारणों की खोज दर्शन करता है, पर उन कारणों पर विचार कर दुख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना धर्म क्षेत्र का कार्य है। आत्मा के बन्धन कारक तत्वों पर विवेचन करना दर्शन शास्त्र की सीमा में है और फिर उन बन्धनों से मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होना धर्म की सीमा में आ जाता है। अब मैं कहना चाहूँगा कि सूत्रकृत को सबसे पहली गाथा, आदि वचन, जिसमें आगमकार अपने समग्र प्रतिपाद्य का नवनीत प्रस्तुत कर रहे हैं-दर्शन और धर्म का संगम-स्थल है। बन्धन के कारणों की समग्न परिचर्चा के बाद या इसी के साथ-साथ बन्धन-मुक्ति की प्रक्रिया, पद्धति और साधना पर विशद चिन्तन प्रस्तुत करने का संकल्प पहले ही पद में व्यक्त हो गया है / अत: कहा जा सकता है कि सूत्रकृत का संपूर्ण कलेवर अर्थात लगभग 36 हजार पद परिमाण विस्तार, पहली गाथा का हो महाभाष्य है। इस दृष्टि से मैं कहना चाहूँगा कि सूत्रकृत न केवल जैन तत्वदर्शन का सूचक शास्त्र है, बल्कि आत्मा को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला मोक्ष-शास्त्र है। आस्तिक या आत्मवादी दर्शनों के चरम बिन्दु-मोक्ष/निर्वाण/परम पद का स्वरूप एवं सिद्धि का उपाय बताने वाला आगम है-सूत्रकृत / सूत्रकृत के सम्बन्ध में अधिक विस्तार पूर्वक पं० श्री विजय मुनिजी म. ने प्रस्तावना में लिखा है, अतः यहाँ अधिक नहीं कहना चाहता, किन्तु सुचना मात्र के लिए यह कहना चाहता हूँ कि इसके प्रथम 'समय' अध्ययन, बारहवें 'समवसरण'; द्वितीय श्रतस्कंध के द्वितीय अध्ययन 'पुण्डरीक' में अन्य मतों, दर्शन एवं उनकी मान्यताओं की स्फुट चर्चा है, उनकी युक्तिरहित अयथार्थ मान्यताओं की सूचना तथा निरसन भी इसी हेतु से किया गया है कि वे मिथ्या व अयथार्थ धारणाएं भी मन व मस्तिष्क का बन्धन है। अज्ञान बहुत बड़ा बन्धन है। मिथ्यात्व की बेड़ी सबसे भयानक है, अतः उसे समझना और फिर तोड़ना तभी संभव है जब उसका यथार्थ परिज्ञान हो / साधक को सत्य का यथार्थ परिबोध देने हेतु ही शास्त्रकार ने बिना किसी धर्म-गुरु या मतप्रवर्तक का नाम लिए सिर्फ उनके सिद्धान्तों की युक्ति-रहितता बताने का प्रयास किया है। सूत्रकृत में वर्णित पर-सिद्धान्त आज भी दीघनिकाय, सामञ्जफलसुत्तं, सुत्तनिपात, मज्झिमनिकाय, संयुक्त निकाय, महाभारत तथा अनेक उपनिषदों में विकीर्ण रूप से विद्यमान हैं, जिससे 2500 वर्ष पूर्व की उस दार्शनिक चर्चा का पता चलता है। यद्यपि 2500 वर्ष के दीर्घ अन्तराल में भारतीय दर्शनों की विचारधाराओं में, सिद्धान्तों में भी काल क्रमानुसारी परिवर्तन व कई मोड़ आये हैं, आजीवक जैसे व्यापक सम्प्रदाय तो लुप्त भी हो गये हैं, फिर भी आत्मअकर्तृत्ववादी सांख्य, कर्मचयवादी बौद्ध, पंच महाभूतवादी-चार्वाक् (नास्तिक) आदि दर्शनों की सत्ता आज भी है / सुखवाद एवं अज्ञानवाद के बीज पाश्चात्य दर्शन में महासुखवाद, अज्ञेयवाद एवं संशयवाद के रूप में आज परिलक्षित होते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। इन दर्शनों की आज प्रासंगिकता कितनी है यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, पर मिथ्या धारणाओं के बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य तो सर्वत्र सर्वदा प्रासंगिक रहा है, आज के युग में भी चिन्तन की सर्वागता और सत्यानुगामिता, साथ ही पूर्व-ग्रह मुक्तता नितान्त आपेक्षिक है। सूत्रकृत का लक्ष्य भी मुक्ति तथा साधना की सम्यग-पद्धति है। इस लिए इसका अनुशीलन-परिशीलन आज भी उतना ही उपयोगी तथा प्रासंगिक है। सूत्रकृत का प्रथम श्रुतस्कंध पद्यमय है, (१६वां अध्ययन भी गद्य-गीति समुद्र छन्द में है) इसकी गाथाएँ बहत सारपूर्ण सुभाषित जैसी है। कहीं-कहीं तो एक गाथा के चार पद, चारों ही चार सुभाषित जैसे लगते हैं / गाथाओं को शब्दावली बड़ी सशक्त, अर्थ पूर्ण तथा श्रुति-मधुर है / कुछ सुभाषित तो ऐसे लगते हैं मानो गागर में सागर ही भर दिया है। जैसे :मा पच्छा असाहया भवे सूत्रांक 146 तवेसु aa उत्तमबंभचेरं 374 आहेसु बिज्जा-चरणं पमोक्खो जे छए विपमायं न कुज्जा अकम्मुणा कम्म सवेति धीरा अगर स्वाध्यायी साधक इन श्रत बाक्यों को कण्ठस्थ कर इन पर चिन्तन-मनन-आचरण करता रहे तो जीवन में एक नया प्रकाश, नया विकास और नया विश्वास स्वतः आने लगेगा। प्रस्तुत आगम में पर-दर्शनों के लिए कहीं-कहीं 'मंदा', मूढा "तमाओ ते तमं जति" जैसी कठोर प्रतीत होने वाली शब्दावली का प्रयोग कुछ जिज्ञासुओं को खटकता है / आर्ष-वाणी में रूक्ष या आक्षेपात्मक प्रयोग नहीं होने चाहिए ऐसा उनका मन्तव्य है, पर वास्तविकता में जाने पर यह आक्षेप उचित नहीं लगता। क्योंकि ये शब्द-प्रयोग किसी ब्यक्ति विशेष के प्रति नहीं है, किन्तु उन मूढ़ या अहितकर धारणाओं के प्रति है, जिनके चक्कर में फंसकर प्राणी सत्यश्रद्धा व सत्य-आचार से पतित हो सकता है। असत्य की भर्त्सना और असत्य के कट-परिणाम को जताने के लिए शास्त्र कार बड़ी दृढ़ता के साथ साधक को चेताते हैं / ज्वरात के लिए कटु औषधि के समान कटु प्रतीत होने वाले शब्द कहींकहीं अनिवार्य भी होते हैं। फिर आज के सभ्य युग में जिन शब्दों को कटु माना जाता है, वे शब्द उस युग में आम भाषा में सहजतया प्रयुक्त होते थे ऐसा भी लगता है, अत: उन शब्दों की संयोजना के प्रति शास्त्रकार की सहज-सत्यनिष्ठा के अतिरिक्त अन्यथा कुछ नहीं है। सूत्रकृत में दर्शन के साथ जीवन-व्यवहार का उच्च आदर्श भी प्रस्तुत हुआ है। कपट, अहंकार, जातिमद, ज्ञानमद आदि पर भी कठोर प्रहार किये गये हैं। और सरल-सात्विक जीवन-दृष्टि को विकसित करने की प्रेरणाएँ दी हैं। कुल मिलाकर इसे गृहस्थ और श्रमण के लिए मुक्ति का मार्ग दर्शक शास्त्र कहा जा सकता है। प्रस्तुत संपादन : सुत्रकृत के प्रस्तुत संपादन में अब तक प्रकाशित अनेक संस्करणों को लक्ष्य में रखकर संपादन/विवेचन किया गया है। मुनि श्री जम्बूविजयजी द्वारा संपादित मूल पाठ हमारा आदर्श रहा है, किन्तु उसमें भी यत्र-तत्र चूणि सम्मत कुछ संशोधन हमने किये हैं। आचार्य भद्रबाहकृत निर्य क्ति, प्राचीनतम संस्कृतमिश्रित-प्राकृतव्याख्या-चणि, तथा आचार्य शीलांक कृत बत्तिइन तीनों के आधार पर हमने मूल का हिन्दी भावार्थ व विवेचन करने का प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं चूर्णिकार तथा वृत्तिकार के पाठों में पाठ-भेद तथा अर्थ-भेद भी हैं / यथाप्रसंग उसका भी उल्लेख करने का Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयास मैंने किया है, ताकि पाठक उन दोनों के अनुशीलन से स्वयं की वृद्धि-कसौटी पर उसे कसकर निर्णय करे। चूणि एवं वृत्ति के विशिष्ट अर्थों को मूल संस्कृत के साथ हिन्दी में भी दिया गया है। जहाँ तक मेरा अध्ययन है, अब तक के विवेचनकर्ता संस्कृत को ही महत्व देकर चले हैं, चूर्णिगत तथा वृत्ति-गत पाठों को मूल रूप में अंकित करके ही इति करते रहे हैं, किन्तु इससे हिन्दी-पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता, जबकि आज का पाठक अधिकांशतः हिन्दी के माध्यम से ही जान पाता है। मैंने उन पाठों का हिन्दी अनुवाद भी प्रायशः देने का प्रयत्न किया है यह संभवतः नया प्रयास ही माना जायेगा। आगम पाठों से मिलते-जुलते अनेक पाठ, शब्द बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलते हैं जिनकी तुलना अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है, पाद-टिप्पण में स्थान-स्थान पर बौद्ध ग्रन्थों के वे स्थल देकर पाठकों को तुलनात्मक अध्ययन के लिए इंगित किया गया है, आशा है इससे प्रबुद्ध पाठक लाभान्वित होंगे / अन्त में चार परिशिष्ट हैं, जिनमें गाथाओं की अकारादि सूची; तथा विशिष्ट पाब्द सूची भी है। इनके सहारे आगम गाथा व पाठों का अनुसंधान करना बहुत सरल हो जाता है / अनुसंधाताओं के लिए इस प्रकार की सूची बहुत उपयोगी होती है। पं० श्री विजय मुनि जी शास्त्री ने विद्वत्तापूर्ण भूमिका में भारतीय दर्शनों की पृष्ठभूमि पर सुन्दर प्रकाश डालकर पाठकों को अनुग्रहीत किया है। इस संपादन में युवाचार्य श्री मधुकरजी महाराज का विद्वत्ता पूर्ण मार्ग-दर्शन बहुत बड़ा सम्बल बना है। साथ ही विश्रुत विद्वान परम सौहार्दशील पंडित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का गंभीर-निरीक्षण-परीक्षण, पं० मुनि श्री नेमी चन्द्रजी महाराज का आत्मीय भावपूर्ण सहयोग-मुझे कृतकार्य बनाने में बहुत उपकारक रहा है, मैं विनय एवं कृतज्ञता के साथ उन सबका आभार मानता हूँ और आशा करता हूँ श्रुत-सेवा के इस महान कार्य में मुझे भविष्य में इसी प्रकार का सौभाग्य मिलता रहेगा। 30 जनवरी 1982 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्राचीन भारतीय दर्शन और सूत्रकृतांग) भारतीय-दर्शन फिर भले ही वह किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न रहा हो उसका मूल स्वर अध्यात्मवाद रहा है। भारत का एक भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं है जिसके दर्शन-शास्त्र में आत्मा, ईश्वर और जगत के सम्बन्ध में विचारणा न की गई हो। आत्मा का स्वरूप क्या है? ईश्वर का स्वरूप क्या है ? और जगत की व्यवस्था किस प्रकार होती है ? इन विषयों पर भारत की प्रत्येक दर्शन-परम्परा ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किया है। जब आत्मा की विचारणा होती है, तब स्वाभाविक रूप से ईश्वर की विचारणा हो ही जाती है। इन दोनों विचारणा के साथ-साथ जगत की विचारणा भी आवश्यक हो जाती है। दर्शन-शास्त्र के ये तीन ही विषय मुख्य माने गये हैं। आत्मा चेतन है, ज्ञान उसका स्वभाव या गुण है, इस सत्य को सभी ने स्वीकार किया है। उसकी अमरता के सम्बन्ध में भी किसी को सन्देह नहीं है / भारतीय दर्शनों में एक मात्र चार्वाक दर्शन हो इस प्रकार का है जो आत्मा को शरीर से भिम नहीं मानता / वह आत्मा को भौतिक मानता है। अभौतिक नहीं। जबकि अन्य समस्त दार्शनिक आत्मा को एक स्वर से अभौतिक स्वीकार करते हैं। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में और उसकी अमरता के सम्बन्ध में किसी भी भारतीय दार्शनिक परम्परा को संशय नहीं रहा है। आत्मा के स्वरूप और लक्षण के सम्बन्ध में भेद रहा है परन्तु उसके अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। ईश्वर के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में सभी दार्शनिकों ने उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। परन्तु ईश्वर के स्वरूप और लक्षण के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद रहा है। जगत के अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी भी दर्शन परम्परा को सन्देह नहीं रहा / चार्वाक भी जगत के अस्तित्व को स्वीकार करता है। अन्य सभी दर्शन परम्पराओं ने जगत् के अस्तित्व को स्वीकार किया है, और उसकी उत्पत्ति तथा रचना के सम्बन्ध में अपनी-अपनी पद्धति से विचार किया है। किसी ने उसका आदि और अन्त स्वीकार किया है और किसी ने उसे अनादि और अनन्त माना है। दर्शन-शास्त्र सम्पूर्ण सत्ता के विषय में कोई धारणा बनाने का प्रयत्न करता है। उसका उद्देश्य विश्व को समझना है / सत्ता का स्वरूप क्या है ? प्रकृति क्या है ? आत्मा क्या है ? और ईश्वर क्या है ? दर्शन-शास्त्र इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयत्न करता है। दर्शन-शास्त्र में यह भी समझने का प्रयत्न किया जाता है कि मानवजीबन का प्रयोजन और उसका मूल्य क्या है ? तथा जगत के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि दर्शन-शास्त्र जीवन और अनुभव की समालोचना है / दर्शन-शास्त्र का निर्माण मनुष्य के विचार और अनुभव के आधार पर होता है / तर्कनिष्ठ विचार ज्ञान का साधन रहा है / दर्शन तर्कनिष्ठ विचार के द्वारा सत्ता के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है / पाश्चात्य-दर्शन में सैद्धान्तिक प्रयोजन की प्रधानता रहती है वह स्वतन्त्र चिन्तन पर आधा प्रभाव की उपेक्षा करता है / नीति और धर्म की व्यावहारिक बातों से वह प्रेरणा नहीं लेता। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबकि भारतीय दर्शन आध्यात्मिक चिन्तन से प्रेरणा पाता है। वास्तव में भारतीय दर्शन एक आध्यात्मिक शोध एवं खोज है। भारतीय-दर्शन सत्ता के स्वरूप की जो खोज करता है, उसके पीछे उसका उद्देश्य मानव जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त करना है / सत्ता के स्वरूप का ज्ञान इसलिये आवश्यक है, कि वह निःश्रेयस् एवं परम साध्य को प्राप्त करने का एक साधन है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि भारतीय-दर्शन अपने मूल स्वरूप में एक आध्यात्मिक-दर्शन है, भौतिक-दर्शन नहीं। यद्यपि भारतीय-दर्शन में भौतिक तत्त्वों की व्याख्या की गई है फिर भी उसका मूल स्वभाव आध्यात्मिक ही रहा है। इसका सर्वप्रथम प्रमाण तो यह है, कि भारत में धर्म और दर्शन को परस्पर एक दूसरे पर 3 है। परन्तु धर्म का अर्थ अन्ध विश्वास नहीं, बल्कि तर्क पूर्ण आत्म अनुभवी माना गया है। भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करने का एक व्यावहारिक उपाय एवं साधन है। दर्शन-शास्त्र सत्ता की मीमांसा करता है, और उसके स्वरूप को विचार के द्वारा प्रकट करता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः स्पष्ट है, कि भारतीय-दर्शन बौद्धिक विलास नहीं है, बल्कि वह एक आध्यात्मिक खोज है। भारतीय-दर्शन चिन्तन एवं मनन के आधार पर प्रतिष्ठित है, लेकिन उसमें चिन्तन एवं मनन का स्थान आगम-पिटक और वेदों की अपेक्षा गौण है। भारतीय-दर्शन की प्रत्येक परम्परा आप्तवचन अथवा शब्द-प्रमाण पर अधिक आधारित रही है। जैन अपने आगम पर अधिक विश्वास करते हैं, वौद्ध अपने पिटक पर अधिक श्रद्धा रखी हैं और वैदिक परम्परा के सभी सम्प्रदाय वेदों के वचनों पर ही एक मात्र आधार रखते हैं / इस प्रकार भारतीय-दर्शन में प्रत्यक्ष अनुभूति की अपेक्षा परोक्ष अनुभूति पर ही अधिक बल दिया गया है, जिसे आप्त पुरुष की प्रत्यक्ष अनुभूति कह सकते हैं / भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय : भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को अनेक विभागों में विभाजित किया जा सकता है। भारतीय विद्वानों ने भी उनका वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है / आचार्य हरिभद्र ने अपने 'पट् दर्शन समुच्चय" में, आचार्य माधव के "सर्व दर्शन संग्रह" में, आचार्य शंकर के "सर्व सिद्धान्त'' आदि में दर्शनों का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया गया है। पाश्चात्य-दर्शन-परम्परा के दार्शनिकों ने वर्गीकरण की जो पद्धति स्वीकार की है वह भी एक प्रकार की न होकर अनेक प्रकार की है। सबसे अधिक प्रचलित पद्धति यह है, कि भारतीय-दर्शन को दो भागों में विभाजित किया गया हैआस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन / आस्तिक दर्शन इस प्रकार हैं-सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदान्त / नास्तिक दर्शन इस प्रकार है-चार्वाक, जैन और बौद्ध। परन्तु यह पद्धति न तर्कपूर्ण है न समीचीन / वैदिक दर्शनों को आस्तिक कहने का क्या आधार रहा है ? इसका एक मात्र आधार शायद यही रहा है, कि वे वेदवचनों में विश्वास करते हैं। यदि वेद-वचनों पर विश्वास न करने के आधार पर ही चार्वाक, जैन और बौद्धों को नास्तिक कहा जाता है, तब यही मानना चाहिए कि जो व्यक्ति चार्वाक ग्रन्थों में, जैन आगमों में और बौद्ध पिटकों में विश्वास नहीं करते वे भी नास्तिक हैं। इस प्रकार भारत का कोई भी दर्शन आस्तिक नहीं रहेगा। यदि यह कहा जाए कि जो ईश्वर को स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है, इस दृष्टि से चार्वाक, जैन और बौद्ध नास्तिक कहे जाते हैं, तब इसका अर्थ यह होगा, कि सांख्य और योग तथा वैशेपिक-दर्शन भी नास्तिक परम्परा में ही परिगणित होगें, क्योंकि ये भी ईश्वर को स्वीकार नहीं करते। वेदों का सबसे प्रबल समर्थक मीमांसा-दर्शन भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, वह भी नास्तिक कहा जायेगा / अतः आस्तिक और नास्तिक के आधार पर भारतीय-दर्शनों का विभाग करना, यह एक भ्रम परिपूर्ण धारणा है। वास्तव में भारतीय-दर्शनों का विभाग दो रूपों में करना चाहिए-वैदिक-दर्शन और अवैदिक-दर्शन / वैदिक-दर्शनों में षड्-दर्शनों की परिगणना हो जाती है, और अवैदिक-दर्शनों में चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन आ जाते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन परम्परा में मूल में नव दर्शन होते हैं-चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांख्य, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसा और वेदान्त / ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं। कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अवैदिक-दर्शन भी छह है-जैसे चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक / इस प्रकार वेदान्त परम्परा के दर्शन भी छह हैं और अवैदिक दर्शन भी छह होते हैं। इस प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन में कुछ सैद्धान्तिक भेद होते हए भी प्रकृति, आत्मा और ईश्वर के विषय में दोनों के मत समान हैं / काल क्रम से इनका एकीभाव हो गया, और अब इनका सम्प्रदाय न्याय-वैशेषिक कहा जाता है / सांख्य और योग की प्रकृति के विषय में एक ही धारणा है, यद्यपि सांख्य निरीश्वरवादी है, और योग ईश्वरवादी है / इसलिए कभी-कभी इनको एक साथ सांख्य-योग कह दिया जाता है / मीमांसा के दो सम्प्रदाय हैं, जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भटट हैं, और दूसरे के आचार्य प्रभाकर / इनको क्रम से भट्ट-सम्प्रदाय और प्रभाकर-सम्प्रदाय कहा जाता है / वेदान्त के भी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं, जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य शंकर हैं, और दूसरे के आचार्य रामानुज / शंकर का सिद्धान्त अद्वैतवाद अथवा केवलाद्वैतवाद के नाम से विख्यात है, और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से। वेदान्त में कुछ अन्य छोटे-छोटे सम्प्रदाय भी हैं, उन सभी का समावेश भक्तिवादी दर्शन में किया जा सकता है। वेदान्त परम्परा के दर्शनों में मीमांसा-दर्शन को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त-दर्शन को उत्तर-मीमांसा भी कहा जा सकता है। इस प्रकार इन विभागों में वैदिक परम्परा के सभी सम्प्रदायों का समावेश आसानी से किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन परिवर्तनवादी दर्शन रहा है। वह परिवर्तन अथवा अनित्यता में विश्वास करता है, नित्यता को वह सत्य स्वीकार नहीं करता। बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें से वैभाषिक और सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी हैं। इन्हें बाह्यार्थवादी भी कहा जाता है। क्योंकि ये दोनों सम्प्रदाय समस्त बाह्य वस्तुओं को सत्य मानते हैं। वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी हैं / इसका मत यह है कि वाह्य वस्तु क्षणिक हैं, और उनका प्रत्यक्ष शान होता है / सौत्रान्तिक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य पदार्थ, जो कि क्षणिक हैं, प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं। मन में उनकी जो चेतना उत्पन्न होती है, उससे उनका अनुमान किया जाता है। योगाचार सम्प्रदाय विज्ञानवादी है। इसका मत यह है कि समस्त बाह्य वस्तु मिथ्या है, और चित्त में जो कि विज्ञान सन्तान मात्र है, विज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो निरालम्बन हैं। योगाचार विज्ञान वादी है। माध्यमिक सम्प्रदाय का मत यह है, कि न बाह्य वस्तुओं की सत्ता है, और न आन्तरिक विज्ञानों की। ये दोनों ही संवृत्ति मात्र (कल्पना-आरोप) हैं / तत्त्य निःस्वभाव है, अनिर्वाच्य है और अज्ञेय है। कुछ बौद्ध विद्वान केवल निरपेक्ष चैतन्य को ही सत्य मानते हैं / जैन-दर्शन मूल में द्वतवादी दर्शन है / वह जीव की सत्ता को भी स्वीकार करता है, और जीव से भिन्न पुद्गल की भी सत्ता को सत्य स्वीकार करता है। जैन-दर्शन ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। जैनों के 'चार सम्प्रदाय हैं-श्वेताम्बर; दिगम्बर, स्थानकबासी और तेरापंथी। इन चारों सम्प्रदायों में मलतत्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। तत्व सम्बन्धी अथवा दार्शनिक किसी प्रकार का मतभेद इन चारों ही सम्प्रदायों में नहीं रहा / परन्तु आचार पक्ष को लेकर इन चारों में कुछ विचार भेद रहा है। वास्तव में अनुकम्पा--अहिंसा और अपरिग्रह की व्याख्या में मतभेद होने के कारण ही ये चारों सम्प्रदाय अस्तित्व में आये हैं। किन्तु तात्विक दृष्टि से इनमें आज तक भी कोई भेद नहीं रहा है। चार्वाकों में भी अनेक सम्प्रदाय रहे थे-जैसे चार भुतवादी और पाँच भूतबादी / इस प्रकार भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय अपनी-अपनी पद्धति से भारतीय दर्शन-शास्त्र का विकास करते रहे हैं। भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त : भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्तों में मुख्य रूप से चार हैं-आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद और मोक्षवाद / इन चारों विचारों में भारतीय-दर्शनों के सभी सामान्य सिद्धान्त समाविष्ट रहे हैं। जो आत्मवाद में विश्वास रखता है, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) उसे कर्मवाद में भी विश्वास रखना ही होगा। और जो कर्मवाद को स्वीकार करता है उसे परलोकवाद भी स्वीकार करना ही होगा / और जो परलोकवाद को स्वीकार कर लेता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष पर भी विश्वास करना ही होता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों के सर्वमान्य सिद्धान्त ये चार ही रहे हैं। इन चारों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा विचार नहीं है, जो इन चारों में न आ जाता हो। फिर भी यदि हम प्रमाण-मीमांसा को लें, तो वह भी भारतीय-दर्शन का एक अविभाज्य अंग रही है। प्रत्येक दर्शन की शाखा ने प्रमाण की व्याख्या की है, और उसके भेद एवं उपभेदों की विचारणा की है। फिर आचार-शास्त्र को भी यदि लिया जाये, तो प्रत्येक भारतीय दर्शन की शाखा का अपना एक आचार-शास्त्र रहा है। इस आचार-शास्त्र को हम उस दर्शन का साधना पक्ष भी कह सकते हैं। प्रत्येक दर्शन-परम्परा अपनी पद्वति से अपने द्वारा प्रतिपादित तत्व-ज्ञान को जब जीवन में उतारने का प्रयत्न करती है, तब उसे साधना कहा जाता है। यह साधना-पक्ष भी प्रत्येक भारतीय-दर्शन का अपना एक विशिष्ट ध्येय रहा है। यह स्वाभाविक है, कि मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन से असन्तोष हो। जीवन में प्रतीत होने वाले प्रतिकूल भाव, दुःख एवं क्लेशों से व्याकुल होकर मनुष्य इनसे छुटकारा प्राप्त करने की बात सोचे / भारत के प्रत्येक दर्शन ने फिर भले ही वह किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो, वर्तमान जीवन को दुःखमय एवं क्लेशमय माना है। इसका अर्थ यही होता है कि जीवन में जो कुछ दुःख एवं क्लेश हैं, उसे दूर करने का प्रयत्न किया जाये। क्योंकि दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति प्रत्येक आत्मा का साहजिक अधिकार है। भारत के इस दृष्टिकोण को लेकर पाश्चात्य दार्शनिकों ने उसे निराशावादी अथवा पलायनवादी कहा है / परन्तु उन लोगों का यह कथन न तर्क-पंगत है, और न भारतीय-दर्शन की मर्यादा के अनुकूल ही / भारतीय दर्शनों में त्याग और वैराग्य की जो चर्चा की गई है, उसका अर्थ जीवन से पराङ्मुख बनना नहीं है, बल्कि वर्तमान जीवन के असन्तोष के कारण चित्त में जो एक व्याकूलता रहती है, उसे दूर करने के लिये ही भारतीय दार्शनिकों ने त्याग और वैराग्य की बात कही है। यह दुःखवादी विचारधारा बौद्ध-दर्शन में अतिरेक वादी बन गयी है। उसे किसी अंश में स्वीकार करना ही होगा। जैन-दर्शन भी इस दुःखवादी परम्परा में सम्मिलित रहा है / सांख्य-दर्शन ने प्रारम्भ में ही इस तथ्य को स्वीकार किया है कि तीन प्रकार के दुःख से व्याकुल यह आत्मा सुख और शान्ति की खोज करना चाहती है। इस प्रकार भारतीय दर्शनों में दु.खवादी विचारधारा रही है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु इसका अर्थ निराशावाद और पलायनवाद कतई नहीं किया जा सकता। एक मात्र सुख का अनुसंधान ही उसका मुख्य उद्देश्य रहा है। भारतीय-दर्शनों में आत्मबाद : भारत के सभी दर्शन आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। न्याय और वैशेषिक आत्मा को अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न सुख, दुःख और ज्ञान को उसके विशेष गुण मानते हैं। आत्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प आत्मा के धर्म हैं / चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा दर्शन का भी यही मत है। मीमांसा आत्मा को नित्य और विभु मानती है / चैतन्य को उसका आगन्तुक धर्म मानती है। स्वप्न रहित निद्रा की तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्य गुणों से रहित होती है। सांख्य दर्शन में पुरुष को नित्य और विभु तथा चैतन्य स्वरूप माना गया है / इस दर्शन के अनुसार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है / पुरुष अकर्ता है / वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है। बुद्धि कर्ता है, और सुख एवं दु:ख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है, और प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है / इसके विपरीत पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सचित्त और आनन्द स्वरूप मानता है। सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है, लेकिन ईश्वर को नहीं मानता / अद्वैत वेदान्त केवल एक ही आत्मा को सत्य मानता है। चार्वाक दर्शन आत्मा की सत्ता को नहीं मानता। वह चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा मानता है। बौद्ध-दर्शन आत्मा को ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की प्रत्येक क्षण में परिवर्तन होने वाली Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तान मानता है। इसके विपरीत जैन दर्शन आत्मा को नित्य, अजर और अमर स्वीकार करता है। ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है। जैन-दर्शन मानता है, कि आत्मा स्वभावतः अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख और अनन्त-शक्ति से युक्त है। इस दृष्टि से प्रत्येक भारतीय-दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसकी व्याख्या अपने ढंग से करता है। भारतीय-दर्शनों में कर्मवाद : कर्मवाद भारतीय दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त माना जाता है। भारत के प्रत्येक दर्शन की शाखा ने इस कर्मवाद के सिद्धान्त पर भी गम्भीर विचार किया है। जीवन में जो सुख और दुःख की अनुभूति होती है, उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिए / इसका एक मात्र आधार कर्मवाद ही हो सकता है। इस संसार में जो विचित्रता और जो विविधता का दर्शन होता है, उसका आधार प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्म ही होता है। कर्मवाद के सम्बन्ध में जितना गम्भीर और विस्तृत विवेचन जैन-परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। एक चार्वाक-दर्शन को छोड़ कर शेष सभी भारतीय-दर्शन कर्मवाद के नियम में आस्था एवं विश्वास रखते हैं। कर्म का नियम नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण नियम ही है / इसका अर्थ यह है, कि शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः सुख होता है, और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यत: अशुभ होता है। अच्छा काम आत्मा में पुण्य उत्पन्न करता है जो कि सुखभोग का कारण बनता है / बुरा काम आत्मा में पाप उत्पन्न करता है, जो कि दुःख भोग का कारण बनता है। सुख और दुःख शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्यतः फल हैं / इस नैतिक नियम को पकड़ से कोई भी छूट नहीं र अशुभ दोनों प्रकार के कर्म सूक्ष्म संस्कार छोड़ जाते हैं, जो निश्चय ही भावी सुख-दुःख के कारण बनते हैं / वे अवश्य ही समय आने पर अपने फल को उत्पन्न करते हैं। इन फलों का भोग निश्चय ही इस जन्म में अथवा भविष्य में किया जाना है। कर्म के नियम के कारण ही आत्मा को इस संसार में जन्म और मरण करना पड़ता है। जन्म और मरण का कारण कर्म ही है। कर्म के नियम का बीज-रूप सर्वप्रथम ऋग्वेद की ऋत धारा में उपलब्ध होता है। ऋत का अर्थ है जगत की व्यवस्था एवं नियम। प्रकृति की प्रत्येक घटना अपने नियम के अनुसार ही होती है। प्रकृति के ये नियम ही ऋत हैं। आगे चलकर ऋत की धारणा में मनुष्य के नैतिक नियमों की व्यवस्था का भी समावेश हो गया था। उपनिषदों में भी इस प्रकार के विचार हमें बीज रूप में अथवा सूक्ष्म रूप में प्राप्त होते हैं। कुछ उपनिषदों में तो कर्म के नियम की भौतिक नियम के रुप में स्पष्ट धारणा की गई है। मनुष्य जैसा बोता है वैसा ही काटता है। अच्छे बुरे कर्मों का फल अच्छे बुरे रूप में ही मिलता है। शुभ कर्मों से अच्छा चरित्र बनता है और अशुभ कर्मों से बुरा। फिर अच्छे चरित्र से अच्छा जन्म मिलता है, और बुरे चरित्र से बुरा / उपनिषदों में कहा गया है, कि मनुष्य शुभ कर्म करने से धार्मिक बनता है और अशुभ कर्म करने से पापात्मा बनता है / संसार जन्म और मृत्यु का एक अनन्त चक्र है। मनुष्य अच्छे कर्म करके अच्छा जन्म पा सकता है, और अन्त में भेद-विज्ञान के द्वारा संसार से मुक्त भी हो सकता है। जैन आगम और बौद्ध-पिटकों में भी कर्मवाद के शाश्वत नियमों को स्वीकार किया गया है। जैन परम्परा में भगवान् ऋषभदेव के समय से ही कर्मवाद की मान्यता रही है / बौद्ध-दर्शन में भी कर्मवाद की मान्यता स्पष्ट रूप में नजर आती है। अत: बौद्ध-दर्शन भी कर्मवादी दर्शन रहा है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग तथा मीमांसा और वेदान्तदर्शन में कर्म के नियम के सम्बन्ध में आस्था व्यक्त की गई है। इन दर्शनों का विश्वास है कि अच्छे अथवा बुरे काम अदृष्ट को उत्पन्न करते हैं, जिसका विपाक होने में कुछ समय लगता है / उसके बाद उस व्यक्ति को सुख अथबा दुःख भोगना पड़ता है। कर्म का फल कुछ तो इस जीवन में मिलता है और कुछ अगले जीवन में / लेकिन कर्म के फल से कभी बचा नहीं जा सकता। भौतिक व्यवस्था पर कारण नियम का शासन है और नैतिक व्यवस्था पर कर्म के नियम का Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) शासन रहता है। परन्तु भौतिक व्यवस्था भी नैतिक व्यवस्था के ही उद्देश्य की पूर्ति करती है / इस प्रकार यह देखा जाता है, कि भारतीय-दर्शनों की प्रत्येक शाखा ने कर्मवाद के नियमों को स्वीकार किया है, और उसकी परिभाषा एवं व्याख्या भी अपनी-अपनी पद्धति से की है। भारतीय-दर्शनों में परलोकवाद : जब भारतीय-दर्शनों में आत्मा को अमर मान लिया गया है, और संसारी अवस्था में उसमें सुख एवं दुःख मान लिया गया है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि सुख एवं दुःख का मूल आधार भी मान लिया जाये / और वह द के रूप में भारतीय-दर्शन ने स्वीकार किया। वर्तमान जीवन में आत्मा किस रूप में रहती है ? और उसको स्थिति क्या होती है ? इस समस्या में से ही परलोकवाद का जन्म हुआ। परलोकवाद को जन्मान्तरवाद भी कहा जाता है। एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनों का परलोकवाद एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। परलोकवाद अथवा जन्मान्तरवाद कर्मवाद के सिद्धान्त का फलित रूप है। कर्म का सिद्धान्त यह मांग करता है, कि शुभ कर्मों का शुभ फल मिले और अशुभ कर्मों का अशुभ फल / लेकिन सब कर्मों का फल इसी जीवन में मिलना संभव नहीं है। अतः कर्म फल को भोगने के लिए दूसरा जीवन आवश्यक है। भारतीय-दर्शन के अनुसार यह संसार जन्म और मरण की अनादि शृंखला है। इस जन्म और मरण का कारण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में सांख्य-दर्शन में कहा गया है कि प्रकृति और पुरुष का भेद-ज्ञान न होना ही इसका कारण है / न्याय और वैशेषिक-दर्शन में कहा गया कि अविद्या अथवा माया ही उसका मुख्य कारण है। बौद्ध-दर्शन में कहा गया, कि वासना के कारण ही जन्म और मरण होता है। जैन-दर्शन में कहा गया, कि कर्मबद्ध संसारी आत्मा का जो बार-बार जन्म और मरण होता है, उसके पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व-भाव, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा शुभ और अशुभ योग / सामान्य भाषा में जब तत्व ज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है, तब संसार का भी नाश हो जाता है। भारतीय-दर्शनों में यह भी कहा गया है, कि संसार एक बन्धन है, इस बन्धन का आत्यन्तिक नाश आत्मा के शुद्ध स्वरूप मोक्ष से ही होता है / वन्धन का कारण अज्ञान है, और इसी से संसार की उत्पत्ति होती है। इसके विपरीत मोक्ष का कारण तत्व-ज्ञान है / तत्व-ज्ञान के हो जाने पर संसार का भी अन्त हो जाता है / इस प्रकार तत्व-ज्ञान और उसका विपरीत भाव अज्ञान, अविद्या, माया, वासना और कर्म को माना गया है। जन्मान्तर, भवान्तर, पुनर्जन्म और परलोक का अर्थ है-मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। चार्वाक-दर्शन ने यह माना था कि शरीर के नाश के साथ ही चेतना शक्ति का भी नाश हो जाता है। परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले दार्शनिकों का कहना है कि शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता / इस वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा बनी रहती है। और पूर्व-कृत कमों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म धारण करना पड़ता है। दूसरा जन्म धारण करना ही पुनर्जन्म कहा जाता है / पशु, पक्षी, मनुष्य और नारक देव आदि अनेक प्रकार के जन्म ग्रहण करना यह संसारी आत्मा का आवश्यक परिणाम है। आत्मा अनेक जन्म तभी ग्रहण कर सकती है जब वह नित्य और अविच्छिन्न हो / सभी आस्तिक दर्शन आत्मा की नित्यता को स्वीकार करते हैं। चार्वाक-दर्शन भरीर, प्राण अथवा मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु को स्वीकार नहीं करता / अतः इसके मन में जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म जैसी वस्तु मान्य नहीं है / बौद्ध दार्शनिक आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की एक सन्तति मात्र मानते हैं / उनके अनुसार आत्मा क्षण-क्षण में बदलती है। जो आत्मा पूर्व क्षण में थी, वह उत्तर क्षण में नहीं रहती। इस प्रकार नदी के प्रवाह के समान वे चित्त सन्तति के प्रवाह को स्वीकार करते हैं / वे कहते हैं कि आत्मा की सन्तति नित्य प्रवहमान रहती है। इस प्रकार क्षणिकवाद को स्वीकार करने पर भी वे जन्मान्तर और पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं / उनकी मान्यता के अनुसार एक विज्ञान सन्तान का अन्तिम विज्ञान सभी पूर्व विज्ञानों की वासनाओं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) को आत्म सात करता है और एक नया शरीर धारण कर लेता है। बौद्ध मत के अनुसार वासना को संस्कार भी कहा गया है। इस प्रकार बौद्ध-दार्शनिक आत्मा को नित्यता तो नहीं मानते लेकिन विज्ञान-सन्तान की अविच्छिन्नता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक आत्मा को केवल नित्य नहीं, परिणामी नित्य मानते हैं। आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य है, और पर्याय दष्टि से अनित्य / क्योंकि पर्याय प्रतिक्षण बदलता रहता है। इसके बदलने पर भी द्रव्य का द्रव्यत्व कभी नष्ट नहीं होता। जैन-दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अनेक गति एवं योनियों को प्राप्त होती रहती है / जैसे कोई एक आत्मा, जो आज मनुष्य शरीर में में वह अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार देव और नारक भी बन सकता है / एक जन्म के बाद दूसरे जन्म को धारण करना इसी को जन्मान्तर अथवा भवान्तर कहा जाता है। इस प्रकार समस्त आस्तिक भारतीय-दार्शनिक परम्पराएँ पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। भारतीय दर्शन में मोक्ष एवं निर्वाण : आस्तिक दार्शनिकों के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ, कि क्या कभी आत्मा की इस प्रकार की स्थिति भी होगी, कि उसका पुनर्जन्म अथवा जन्मान्तर मिट जाये ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है, कि मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण ही वह स्थिति है, जहाँ पहुँच कर आत्मा का जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म मिट जाता है / यही कारण है, कि आत्मा की अमरता में आस्था रखने वाले आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को एक स्वर से स्वीकार किया है। चार्वाक-दर्शन का कहना है, कि मरण ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है / मोक्ष का सिद्धान्त सभी आस्तिक भारतीय दार्शनिकों को मान्य है। भौतिकवादी होने के कारण एक चार्वाक ही उसे स्वीकार नहीं करता। क्योंकि आत्मा को वह शरीर से भिन्न सत्ता नहीं मानता। अतः उसके दर्शन में आत्मा के मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठना / चार्वाक की दृष्टि में इस जीवन में और इसी लोक में सुखभोग करना मोक्ष है। इससे भिन्न इस प्रकार के मोक्ष की कल्पना वह कर ही नहीं सकता जिसमें आत्मा एक लोकातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है। बौद्ध-दर्शन में आत्मा की इस लोकातीत अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा गया है। यद्यपि निर्वाण शब्द जैन ग्रन्थों में भी बहुलता से उपलब्ध होता है, फिर भी इसका प्रयोग बौद्ध-दर्शन में ही अधिक रूढ़ है / बौद्ध-दर्शन के अनुसार निर्वाण शब्द सब गुणों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था को अभिव्यक्त करता है। निर्वाण शब्द का अर्थ है-बुझ जाना / लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि निर्वाण में आत्मा का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार इसमें आत्यन्तिक विनाश तो अवश्य होता है, लेकिन दुःख का होता है, न कि आत्म-सन्तति का / कुछ बौद्ध-दानिव निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था मानते हैं। इस प्रकार बौद्ध-दर्शन क्षणिकवादी होकर भी जन्मान्तर और निर्वाण को स्वीकार करता है। जैन-दार्शनिक प्रारम्भ से ही मोक्षवादी रहे हैं। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा की स्वाभाविक अवस्था ही मोक्ष है। अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान और अनन्त-शक्ति का प्रकट होना ही मोक्ष है / आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को तब प्राप्त करता है, जबकि वह सम्यक-दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की साधना के द्वारा कर्म पुद्गल के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है / जैन परम्परा के महान् अध्यात्मवादी आचार्य कुन्द-कुन्द ने अपने समयसार में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हए कहा है-' एक व्यक्ति लम्बे समय से कारागृह में पड़ा हो और अपने बन्धन की तीव्रता और मन्दता को तथा बन्धन के काल को भली-भांति समझता हो परन्तु जब तक वह अपने बन्धन के वशीभूत होकर उसका छेदन नहीं करता, तब तक लम्बा समय हो जाने पर भी वह छूट नहीं सकता। इसी प्रकार कोई मनुष्य अपने कर्म बन्धन का प्रदेश, स्थिति और प्रकृति तथा अनुभाग को भली-भाँति समझता हो, तो भी इतने मात्र से वह कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता / वही आत्मा यदि राग एवं द्वष आदि को दूर हटा कर विशुद्ध हो जाये, तो मोक्ष प्राप्त कर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। बन्धन का विचार करने मात्र से बन्ध से छुटकारा नहीं मिलता है। छुटकारा पाने के लिए बन्ध का और आत्मा का स्वभाव भली-भांति समझ कर बन्ध से विरक्त होना चाहिए / जीव और बन्ध के अलग-अलग लक्षण समझ कर प्रज्ञा रूपी धुरी से उन्हें अलग करना चाहिए, तभी बन्ध छूटता है / बन्ध को छेदकर आत्म-स्वरूप में स्थित होना चाहिए / आत्म-स्वरूप को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा गया है, कि मुमुक्ष को आत्मा का इस प्रकार विचार करना चाहिए-~-'मैं चेतन स्वरूप हूँ, मैं दृष्टा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ शेष जो कुछ भी है, वह मुझसे भिन्न है। शुद्ध आत्मा को समझने वाला व्यक्ति समस्त पर-भावों को परकीय जानकर उनसे अलग हो जाता है। यह परभाव से अलग हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है।"२ इस प्रकार जैन-दर्शन में मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य-दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक एक प्रकार का वेदज्ञान है। इसके विपरीत बन्ध प्रकृति और पुरुष का अविवेक है। पुरुष नित्य और मुक्त है। अपने अविवेक के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य मान लेता है। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब प्रकृति के विकार हैं। लेकिन अविवेक के कारण पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है / मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति है। बन्ध एक प्रतीति मात्र है और इसका कारण अविवेक है। योग दर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की एक अवस्था विशेष है / आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति तब होती है, जब तप और संग्रम के द्वारा मन से सब कर्म-संस्कार निकल जाते हैं / सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्हमात्र अवस्थिति मानते हैं। इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत हो जाता है। क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियाँ मात्र हैं / इन वृत्तियों का आत्यन्तिकः अभाव ही सांख्य और योग दर्शन में मुक्ति है। न्याय और वैशेषिक-दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते हैं, जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो जाता है और सत्ता मात्र रह जाता है / मोक्ष आत्मा की अचेतन अवस्था है, क्योंकि चैतन्य तो उसका एक आगन्तुक धर्म है, स्वरूप नहीं / आत्मा का शरीर और मन से संयोग होने पर उसमें चैतन्य का उदय होता है। अतः मोक्ष की अवस्था में इनसे वियोग होने पर चैनन्य भी चला जाता है। मोक्ष की प्राप्ति तत्व-ज्ञान से होती है यह दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। मीमांसा-दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा को स्वाभातिक अवस्था की प्राप्ति माना गया है जिसमें सुख और दुख का अत्यन्त विनाश हो जाता है / अपनो स्वाभाविक अवस्था में आत्मा अचेतन होता है। मोक्ष दु:ख के आत्यन्तिक अभाव की अवस्था है। लेकिन इसमें आनन्द की अनुभूति नहीं होती। आत्मा स्वभावत: सुख और दुःख से अतीत है। मोक्ष की अवस्था में ज्ञान-शक्ति तो रहती है, लेकिन ज्ञान नहीं रहता। अदत वेदान्त मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। क्योंकि परमार्थत: आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा विशुद्ध, सत्, चित और आनन्द स्वरूप है। बन्ध मिथ्या है। अविद्या एवं माया ही इसका कारण है। आत्मा अविद्या के कारण शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है, जो वस्तुतः माया निर्मित है / वेदान्त दर्शन के अनुसार यही मिथ्या तादात्म्य बन्ध का कारण है / अविद्या से आत्मा का बन्धन होता है और विद्या से इस बन्धन की मुक्ति होती है। मोक्ष आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह न चैतन्य रहित अवस्था है, और न दुःखाभाव मात्र की अवस्था है, बल्कि सत्चित् और आनन्द की ब्रह्म-अवस्था है। यही जीवात्मा के ब्रह्मभाव की प्राप्ति है। इस प्रकार मोक्ष की धारणा एमस्त भारतीय-दर्शनों में उपलब्ध होती है / वास्तव में मोक्ष की १-समयसार, 288-63. २-समयसार, 264-300. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) प्राप्ति दार्शनिक चिन्तन का लक्ष्य है। भारत के सभी दर्शनों में इसके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और अपनी पद्धति से प्रत्येक ने उसकी व्याख्या की है। भारतीय-दर्शनों में जिन तथ्यों का निरूपण किया गया है उन सबका जीवन के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है। भारतीय दार्शनिकों ने मानव जीवन के समक्ष ऊँचे से ऊंचे आदर्श प्रस्तुत किये हैं। वे आदर्श केवल आदर्श ही नहीं रहते, उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न भी किया जाता है। इसके लिए विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार को साधनाओं का भी प्रतिपादन किया है। ये साधन तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान-योग, कर्म-योग और भक्ति-योग / जनदर्शन में इन्हीं को रत्न-त्रय-सम्यक-दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक-चारित्र कहा जाता है। बौद्ध-दर्शन में इन्हें प्रज्ञा, शील और समाधि कहा गया है। इन तीनों की साधना से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में उच्च से उच्चतर एवं उच्चतम आदर्शों को भी प्राप्त कर सकता है। दर्शन का सम्बन्ध केवल वुद्धि से ही नहीं है, बल्कि हृदय और क्रिया से भी है / यही कारण है. कि भारतीय-दर्शन की परम्परा के प्रत्येक दार्शनिक-सम्प्रदाय ने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण पर बल दिया है / भारतीय दर्शन केवल बौद्धिक विलास मात्र नहीं है, अपितु वह जीवन की वास्तविक स्थिति का प्रतिपादन करता है। अतः वह वास्ताविक अर्थ में दर्शन एवं धर्म है। सूत्रकृतांग सूत्र : एक अनुचिन्तन / वैदिक परम्परा में जो स्थान वेदों को मान्य है, तथा बौद्ध परम्परा में जो स्थान पिटकों का माना गया है, जन परम्परा में वही स्थान आगमों का है। जैन परम्परा, इतिहास और संस्कृति की विशेष निधि आगम-शास्त्र ही है। आगमों में जो सत्य मुखरित हुआ है, वह युग युगान्तर से चला आया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते / परन्तु इस मान्यता में जरा भी सार नहीं है कि उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है / भाव-भेद, भाषा-भेद और शैलीभेद आगमों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। मान्यता-भेद भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है-समाज और जीवन का विकास / जैसे-जैसे समाज का विकास होता रहा, वैसे-वैसे आगमों के पृष्ठों पर विचार-भेद उभरते रहे है / आगमों की नियुक्तियों में, आगमों के भाष्यों में, आगमों की चूणियों में और आगमों की टीकाओं में तो विचार-भेद अत्यन्त स्पष्ट है। भूल आगमों में भी युग-भेद के कारण से विचार-भेद को स्थान मिला है। और यह सहज था। अन्यथा, उनके टीकाकारों में इतने भेद कहाँ से प्रकट हो पाते। आगमों की रचना का काल : आधुनिक पाश्चात्य विचारकों ने भी इस बात को स्वीकारा है कि भले ही देवद्धिगणी ने पुस्तक लेखन करके आगमों के संरक्षण कार्य को आगे बढ़ाया, किन्तु निश्चय ही वे उनके कर्ता नहीं हैं। आगम तो प्राचीन ही हैं। देवद्धिगणी ने तो केवल उनका संकलन और संपादन ही किया है। यह माना जा सकता है कि आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हैं, पर उस प्रक्षेप के कारण समग्र आगम का काल देवद्धिगणी का काल नहीं हो सकता / सामान्य रूप में विद्वानों ने अंग आगमों का काल पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है / पाटलिपुत्र की वाचना इतिहासकारों के अनुसार भगवान महाबीर के परिनिर्वाण के बाद पंचम श्र तकेवली आचार्य भद्रबाहु के काल में हुई। और उसका काल है ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी का द्वितीय दशक / अतएव आगम संकलन का काल लगभग ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की पांचवी शताब्दी तक माना जा सकता है। लगभग हजार वर्ष अथवा बारह सौ वर्षों का समय आगम संकलना का काल रहा है / कुछ विद्वान इस लेखन के काल का और अंग आगमों के रचना के काल का सम्मिश्रण कर देते हैं। और इस लेखन को आगमों का रचना काल मान लेते हैं। अंग आगम भगवान महावीर का उपदेश है और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है / अतः आगमों की संरचना का प्रारम्भ तो भगवान महावीर के काल से माना जाना चाहिए। उसमें जो प्रक्षेप अंश हो. उसे अलग करके उसका समय निर्णय अन्य आधारों से किया जा सकता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग आगमों में सर्वाधिक प्राचीन आचारांग का प्रथम श्र तस्कन्ध माना जाता है। इस सत्य को स्वीकार करने में किसी भी विद्वान को किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती। सूत्रकृतांग सूत्र और भगवती सूत्र के सम्बन्ध में यही समझा जाना चाहिए / स्थानांग सूत्र और समवायांग सूत्र में कुछ स्थल इस प्रकार के हो सकते हैं, जिनकी नवता और पुरातनता के सम्बन्ध में आगमों के विशिष्ट विद्वानों को गम्भीरतापूर्वक विचार करके निर्णय करना चाहिए / अंगबाह्य आगम: ___ अंग-बाह्य आगमों में उपांग, मूल, छेद आदि की परिगणना होती है / अंगवाह्य आगम गणधरों की रचना नहीं है अतः उनका काल निर्धारण जैसे अन्य आचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित किया जाता है, वैसे ही होना चाहिए। अंग बाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता आर्य श्याम हैं / अतएव आर्य श्याम का जो समय है, वही उनका रचना समय है / आर्य श्याम को वीर निर्वाण सम्बत् 335 में 'युग प्रधान' पद मिला और 376 तक वे युग प्रधान रहे। अतः प्रज्ञापना सूत्र की रचना का समय भी यही मानना उचित है। छेद सूत्रों में दशा श्रु तस्कन्ध, वृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने की थी। आचार्य भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व 357 के आस-पास निश्चित है। अतः उनके द्वारा रचित इन तीनों छेद सूत्रों का भी समय वही होना चाहिए। कुछ विद्वानों का मत है कि द्वितीय आचारांम की चार चूलाएँ और पंचम चूला निशीथ भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की रचना है। मूल सूत्रों में दशवकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की है। इसमें किसी भी विद्वान को विप्रतिपति नहीं रही। परन्तु इसका अर्थ यह होगा कि दशौकालिक की रचना द्वितीय आचारांग और निशीथ से पहले की माननी होगी। द्वितीय आचारांग का विषय और दशवकालिक का विषय लगभग एक जैसा ही है। भेद केवल है, तो संक्षेप और विस्तार का, गद्य और पद्य का एवं विषय की व्यवस्था का / तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव, भाषा तथा विषय प्रतिपादन की शैली दोनों की करीब-करीब समान ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के सम्बन्ध में दो मत उपलब्ध होते हैं-एक का कहना है कि उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक आचार्य की कृति नहीं, किन्तु संकलन है / दूसरा मत यह है कि उत्तराध्ययन सूत्र भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। कल्पसूत्र जिसकी पर्युषणा कल्प के रूप में वाचना की जाती है, वह भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। इस प्रकार अन्य अंग बाह्य आगमों के सम्बन्ध में भी कुछ तो काल निर्णय हो चुका है और कुछ होता जा रहा है। अंगों का क्रम : एकादश अंगों के क्रम में सर्वप्रथम आचारांग है। आचारांग को क्रम में सर्वप्रथम स्थान देना तर्क-संगत भी है और परम्परा प्राप्त भी है। क्योंकि संघ-व्यवस्था में सबसे पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है। आचार संहिता की मानव जीवन में प्राथमिकता रही है / अतः आचारांग को सर्वप्रथम स्थान देने में प्रथम हेतु है उसका विषय दूसरा हेतु यह है कि जहाँ-जहाँ अंगों के नाम आये हैं उनके क्रम की योजना के मूल में अथवा वृत्ति में आचांराग के नाम ही सबसे पहले आया है। आचारांग के बाद जो सूत्रकृतांग आदि नाम आये हैं, उनके क्रम की योजना किसने किस प्रकार की, इसकी चर्चा के हमारे पास उल्लेखनीय साधन नहीं हैं। इतना अवश्य है कि सचेलक एवं अचेलक दोनों परम्पराओं में अंगों का एक ही क्रम है। सूत्रकृतांग सूत्र में विचार पक्ष मुख्य है और आचार पक्ष गौण / जबकि आचारांग में आचार की मुख्यता है और विचार की गौणता / जैन परम्परा प्रारम्भ से ही एकान्त विचार पक्ष को और एकान्त आचार पक्ष को अस्वीकार करती रही है। विचार और आचार का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करना ही जैन परम्परा का मुख्य ध्येय रहा है / यद्यपि आचारांग में भी परमत का खण्डन सूक्ष्म रूप में अथवा बीज रूप में विद्यमान है / तथापि आचार की प्रबलता ही उसमें Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मख्य है। सूत्रकृतांग में प्रायः सर्वत्र परमत का खण्डन और स्वमत का मण्डन स्पष्ट प्रतीत होता है / सत्रकृतांग की तुलना बौद्ध परम्परा मान्य 'अभिधम्म पिटक' से की जा सकती है। जिसमें बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित 62 मतों का यथाप्रसंग खण्डन करके अपने मत की स्थापना की है। सूत्रकृतांग सूत्र में स्व-समय और पर-समय का वर्णन है। वृत्तिकारों के अनुसार इस में 363 मतों का खण्डन किया गया है / समवायांग सूत्र में सूत्रकृतांग सूत्र का परिचय देते हुए कहा गया—इसमें स्वसमय, पर-समय, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में कथन किया गया है / 180 क्रियावादी मतों की, 84 अक्रियावादी मतों की, 67 अज्ञानवादी मतों की एवं 32 विनयवादी मतों की, इस प्रकार सब मिलाकर 363 अन्य यूथिक मतों की परिचर्चा की है। श्रमण सूत्र में सूत्रकृतांग के 23 अध्ययनों का निर्देश है-प्रथम स्कन्ध में 16, द्वितीय श्र तस्कन्ध में 7 / नन्दी सूत्र में कहा गया है कि सूत्रकृतांग में लोक, अलोक, लोकालोक जीव, अजीव आदि का निरूपण है। तथा क्रियावादी आदि 363 पाखण्डियों के मतों का खण्डन किया गया है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ राजवार्तिक के अनुसार सूत्रकृतांग में ज्ञान, विनय, कल्प, अकल्प, व्यवहार, धर्म एवं विभिन्न क्रियाओं का निरूपण है। सूत्रकृतांग सूत्र का संक्षिप्त परिचय : जैन परम्परा द्वारा मान्य अंग सूत्रों में सूत्रकृतांग का द्वितीय स्थान है। किन्तु दार्शनिक-साहित्य के इतिहास की दृष्टि से इसका महत्व आचारांग से अधिक है। भगवान महावीर के युग में प्रचलित मत-मतान्तरों का वर्णन इसमें विस्तृत रूप से हुआ है। सूत्र-कृतांग का वर्तमान समय में जो संस्करण उपलब्ध है, उसमें दो श्र तस्कन्ध हैं-प्रथम श्रुतस्कन्ध और द्वितीय श्रु तस्कन्ध / प्रथम में सोलह अध्ययन हैं और द्वितीय में सात अध्ययन / प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम समय अध्ययन के चार उद्देशक हैं--पहले में 27 गाथाएँ हैं, दूसरे में 32, तीसरे में 16 तथा चौथे में 13 हैं। इसमें वीतराग के अहिंसा-सिद्धान्त को बताते हुए अन्य बहुत से मतों का उल्लेख किया गया है / दूसरे वैतालीय अध्ययन में तीन उद्देशक हैं। पहले में 22 गाथाएँ, दूसरे में 32 तथा तीसरे में 22 / बैतालीय छन्द में रचना होने के कारण इसका नाम वैतालीय है। इसमें मुख्य रूप से वैराग्य का उपदेश है। तीसरे उपसर्ग अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले में 17 गाथाएँ हैं, दूसरे में 22. तीसरे में 21 तथा चौथे में 22 / इसमें उपसर्ग अर्थात् संयमी जीवन में आने वाली विघ्न बाधाओं का वर्णन है। चौथे स्त्री-परिज्ञा अध्ययन के दो उद्देशक हैं। पहले की 31 गाथाएँ हैं और दूसरे की 22 / इसमें साधकों के प्रति स्त्रियों द्वारा उपस्थित किये जाने वाले ब्रह्मचर्य घातक विघ्नों का वर्णन है / पाँचवे निरयविभक्ति अध्ययन के दो उद्देशक हैं। पहले में 27 गाथाएँ और दूसरे में 25 / दोनों में नरक के दुःखों का वर्णन है। छठे वीरस्तुति अध्ययन का कोई उद्देशक नहीं है। इसमें 26 गाथाओं में भगवान महावीर की स्तुति की गई है। सातवें कुशील-परिभाषित अध्ययन में 30 गाथाएँ हैं, जिसमें कुशील एवं चरित्रहीन व्यक्ति की दशा का वर्णन है। आठवें वीर्य अध्ययन में 26 गाथाएँ हैं, इसमें वीर्य अर्थात् शुभ एवं अशुभ प्रयत्न का स्वरूप बतलाया गया है। नवमें धर्म अध्ययन में 36 गाथाएं हैं, जिसमें धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। दशवे समाधि अध्ययन में 24 गाथाएँ हैं, जिसमें धर्म में समाधि अर्थात् धर्म में स्थिरता का कथन किया गया है। ग्यारहवें मार्ग अध्ययन में 38 गाथाएँ हैं / जिसमें संसार के बन्धनों से छुटकारा प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है। बारहवें समवसरण अध्ययन में 22 गाथाएँ हैं, जिसमें क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी मतों की विचारणा की गई है। तेरहवें याथातथ्य अध्ययन में 23 गाथाएँ हैं, जिसमें मानव-मन के स्वभाव का सुन्दर वर्णन किया गया है। चौदहवें ग्रन्थ अध्ययन में 27 गाथाएँ हैं, जिसमें ज्ञान प्राप्ति के मार्ग का वर्णन किया गया है। पन्द्रहवें आदानीय अध्ययन में 25 गाथाएं हैं, जिसमें भगवान महावीर के उपदेश का सार दिया गया है। सोलहवाँ गाथा अध्ययन गद्य में है, जिसमें भिक्ष अर्थात् श्रमण का स्वरूप सम्यक प्रकार से समझाया गया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रत स्कन्ध में सात अध्ययन हैं। उनमें प्रथम अध्ययन पुण्डरीक है, जो गद्य में है। इसमें एक सरोवर के पुण्डरीक कमल की उपमा देकर बताया गया है कि विभिन्न मत वाले लोग राज्य के अधिपति राजा को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु स्वयं ही कष्टों में फंस जाते हैं। राजा वहाँ का वहीं रह जाता है / दूसरी ओर सद्धर्म का उपदेश देने वाले भिक्षु के पास राजा अपने आप खिंचा चला जाता है। इस अध्ययन में विभिन्न मतों एवं विभिन्न सम्प्रदायों के भिक्षुओं के आचार का भी वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्ययन मिया-स्थान है, जिसमें कर्मबन्ध के त्रयोदश स्थानों का वर्णन किया गया। तृतीय अध्ययन आहार-परिज्ञा है, जिसमें बताया है कि आत्मार्थी भिक्षु को निर्दोष आहार पानी की एषणा किस प्रकार करनी चाहिए। चौथा अध्ययन प्रत्याख्यान है जिसमें त्याग, प्रत्याख्यान, व्रतों एवं नियमों का स्वरूप बताया गया है / पाँचवा आचार श्र त अध्ययन है, जिसमें त्याज्य वस्तुओं की गणना की गई है तथा लोकमढ़ मान्यताओं का खण्डन किया गया है। छठा अध्ययन आद्रक है, जिसमें आर्द्रक कुमार की धर्मकथा बहुत सुन्दर ढंग से कही गई है। यह एक दार्शनिक संवाद हैं जो उपनिषदों के संवाद को पद्धति का है / विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आक कुमार से विभिन्न प्रश्न करते हैं और आर्द्र क उनकी विभिन्न शंकाओं का समाधान करते हैं / सातवां नालन्दा अध्ययन है जिसमें भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का नालन्दा में दिया गया उपदेश अंकित है। सूत्रकृतांग सूत्र में जिन मतों का उल्लेख है, उनमें से कुछ का सम्बन्ध आचार से है और कुछ का तत्ववाद अर्थात् दर्शन-शास्त्र से है। इन मतों का वर्णन करते हुए उस पद्धति को अपनाया गया है, जिसमें पूर्व पक्ष का परिचय देकर बाद में उसका खण्डन किया जाता है। इस दृष्टि से . सूत्रकृतांग का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान जैन आगमों में माना जाता है। बौद्ध परम्परा के अभिधम्म पिटक की रचना भी इसी शैली पर की गई है। दोनों की तुलनात्मक दृष्टि मननीय है। पञ्च महाभूतवाद : दर्शन शास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह रहा कि लोक क्या है ? इसका निर्माण किसने किया? और कैसे हुआ? क्योंकि लोक प्रत्यक्ष है अतः उसकी सृष्टि के सम्बन्ध में जिज्ञासा का उठना सहज ही था। इसके सम्बन्ध में सूत्रकृतांग में एक मत का उल्लेख करते हुए बताया गया है, कि यह लोक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश रूप भूतों का बना हुआ है। इन्हीं के विशिष्ट संयोग से आत्मा का जन्म होता है और इनके वियोग से विनाश हो जाता है। यह वर्णन प्रथम श्रु तस्कन्ध, प्रथम अध्ययन और प्रथम उद्देशक की 7-8 गाथाओं में किया गया है। मूल में इस वाद का कोई नाम नहीं बताया गया है / नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे चार्वाक का मत बताया है / इस मत का उल्लेख दूसरे श्रुतस्कन्ध में भी है / वहाँ इसे पञ्चमहाभूतिक कहा गया है। तज्जीव-तच्छरीरवाद : इस वाद के अनुसार संसार में जितने शरीर हैं, प्रत्येक में एक आत्मा है। शरीर की सत्ता तक ही जीव की सत्ता है। शरीर का नाश होते ही आत्मा का भी नाश हो जाता है। यहाँ शरीर को ही आत्मा कहा गया है। उसमें बताया गया है कि परलोक गमन करने वाला कोई आत्मा नहीं है। पूण्य और पाप का भी कोई अस्तित्व नहीं है / इस लोक के अतिरिक्त कोई दूसरा लोक भी नहीं है। मूलकार ने इस मत का कोई नाम नहीं बताया। नियुक्तिकार तथा टीकाकार ने इस मत को 'तज्जीव-तच्छरीरवाद' कहा है। सूत्रकृतांग के दूसरे श्रतस्कन्ध में इस बाद का अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है। शरीर से भिन्न आत्मा को मानने वालों का खण्डन करते हुए वादी कहता है-कुछ लोग कहते हैं कि शरीर अलग है और जीव अलग है। वे जीव का आकार, रूप, गन्ध, रस, और स्पर्श आदि कुछ भी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) नहीं बता सकते / यदि जीव शरीर से पृथक होता है, जिस प्रकार म्यान से तलवार, मज से सीक तथा मांस से अस्थि अलग करके बतलाई जा सकती है, उसी प्रकार आत्मा को भी शरीर से अलग करके बताया जाना चाहिए / जिस प्रकार हाथ में रहा हुआ आंवला असग प्रतीत होता है तथा दही में से मक्खन, तिल में से तेल, ईख में से रस एवं अरणि में से आग निकाली जाती है, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर से अलग प्रतीत होता, पर ऐसा होता नहीं। अतः शरीर और जीव को एक मानना चाहिए। तज्जीव-तच्छरीरवादी यह मानता है कि पांच महाभूतों से चेतन का निर्माण होता है। अतः यह बाद भी चार्वाकवाद से मिलता-जुलता ही है / इस प्रकार के बाद का वर्णन प्राचीन उपनिषदों में भी उपलब्ध होता है। एकात्मकवाद की मान्यता : जिस प्रकार पृथ्वी-पिण्ड एक होने पर भी पर्वत, नगर, ग्राम, नदी एवं समुद्र आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है, इसी प्रकार यह समस्त लोक ज्ञान-पिण्ड के रूप में एक होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रतीत होता है / ज्ञान-पिण्ड स्वरूप सर्वत्र एक ही आत्मा है। वही मनुष्य, पशु-पक्षी आदि में परिलक्षित होता है। मलकार ने इसका कोई नामोल्लेख नहीं किया। नियुक्तिकार भद्रबाह ने इसे 'एकात्मवाद' कहा है / टीकाकार आचार्य शीलांक ने इसे 'एकात्मअद्वैतवाद' कहा है। नियतिवाद : कुछ लोगों की यह मान्यता थी कि भिन्न-भिन्न जीव जो सुख और दुःख का अनुभव करते हैं, यथाप्रसंग व्यक्तियों का जो उत्थान-पतन होता है, यह सब जीव के अपने पुरुषार्थ के कारण नहीं होता। इन सबका करने वाला जब जीव स्वयं नहीं है, तब दूसरा कौन हो सकता है ? इन सबका मूल कारण नियति है / जहाँ पर, जिस प्रकार तथा जैसा होने का भवित व्य होता आता है, वहाँ पर, उस प्रकार और वैसा ही होकर रहता है। उसमें व्यक्ति के पुरुषार्थ; काल अथवा कर्म आदि कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकते / जगत में सब कुछ नियत है, अनियत कुछ भी नहीं हैं / सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रू तस्कन्ध में इस वाद के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा गया है कुछ श्रमण तथा ब्राह्मण कहते हैं, कि जो लोग क्रियावाद की स्थापना करते हैं और जो लोग अक्रियावाद की स्थापना करते हैं, वे दोनों ही अनियतवादी हैं। क्योंकि नियतिवाद के अनुसार क्रिया तथा अक्रिया दोनों का कारण नियति है। इस नियतिवाद के सम्बन्ध में मूलकार, नियुक्तिकार तथा टीकाकार सभी एक मत हैं। वे तीनों इसे नियतिवाद कहते हैं। भगवान महावीर के युग में गोशालक का भी यही मत था जिसका उल्लेख भगवती सूत्र आदि अन्य आगमों में भी उपलब्ध होता है। निश्चय ही यह नियतिवाद गोशालक से भी पूर्व का रहा होगा / पर गोशालक ने इस सिद्धान्त को अपने मत का आधार बनाया था। सूत्रकृतांग सूत्र में इसी प्रकार के अन्य भत-मतान्तरों का भी उल्लेख है। जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद, वेदवाद, हिंसावाद, हस्तितापस-संवाद, आदि अनेक मतों का सूत्रकृतांग सूत्र में संक्षेप रूप में और कहीं पर विस्तार रूप में उल्लेख हुआ है। परन्तु नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे विस्तार दिया तथा टीकाकार आचार्य शीलांक ने मत-मतान्तरों को मान्यताओं का नाम लेकर उल्लेख किया है। आचार्य शीलांक का यह प्रयास दार्शनिक क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। आचारांग और सूत्रकृतांग : एकादश अंगों में आचारांग प्रथम अंग है जिसमें आचार का प्रधानता से वर्णन किया गया है। श्रमणाचार का यह मूलभूत आगम है। आचारांग सूत्र दो श्रु तस्कन्धों में विभक्त है-प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध / नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाह ने आचारांग के प्रथम श्र तस्कन्ध को ब्रह्मचर्य अध्ययन कहा है। यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम है। द्वितीय श्रु तस्कन्ध को आचाराग्र कहा गया है। यह आचारान पाँच चूलाओं में विभक्त था / पाँचवी चुला जिसका नाम आज निशीथ है तथा नियुक्तिकार ने जिसे आचार-प्रकल्प कहा है, वह आचारांग से पृथक हो गया / यह पृथक्करण कब हुआ, अभी इसकी पूरी खोज नहीं हो सकी है / आचारांग में अथ से इति तक आचार धर्म का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। जैन परम्परा का यह मूल-भूत आचार-शास्त्र है। दिगम्बर परम्परा का आचार्य वट्ट-केरकृत 'मूलाचार' आचारांग के आधार पर ही निर्मित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है / सूत्रकृतांग सूत्र जो एकादश अंगों में द्वितीय अंग है, उसमें विचार की मुख्यता है। भगवान् महावीरकालीन भारत के जो अन्य विभिन्न दार्शनिक मत थे उन सबके विचारों का खण्डन करके अपने सिद्धान्त पक्ष की स्थापना की है। सूत्रकृतांग जैन परम्परा में प्राचीन आगमों में एक महान् आगम है। इसमें नव दीक्षित श्रमणों को संयम में स्थिर रखने के लिये और उनके विचार पक्ष को शुद्ध करने के लिये जैन सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन है / आधुनिक काल के अध्येता को, जिसे अपने देश का प्राचीन बौद्धिक विचार-दर्शन जानने की उत्सुकता हो, जैन तथा अजैन दर्शन को समझने की दृष्टि हो, उसे इसमें बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है। प्रस्तुत आगम में जीव, अजीव, लोक, अलोक, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष का विस्तृत विवेचन हुआ है। सूत्रकृतांग के भी दो श्रुतस्कन्ध हैं-दोनों में ही दार्शनिक विचार चर्चा है। प्राचीन ज्ञान के तत्वाभ्यासी के लिए सूत्रकृतांग में वणित अजैन सिद्धान्त भी रोचक तथा ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होंगे / जिस प्रकार की चर्चा प्राचीन उपनिषदों में प्राप्त होती है, उसी प्रकार की विचारणा सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती है / बौद्ध परम्परा के त्रिपिटक-साहित्य में इसकी तुलना ब्रह्मजाल सूत्र से की जा सकती है। ब्रह्मजाल सूत्र में भी बुद्धकालीन अन्य दार्शनिकों में उल्लेख करके अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार की शैली जैन परम्परा के गणिपिटक में सूत्रकृतांग की रही है। भगवान महावीर के पूर्व तथा भगवान् महावीरकालीन भारत के सभी दर्शनों का विचार यदि एक ही आगम से जानना हो तो वह सूत्रकृतांग से ही हो सकता है। अत: जैन परम्परा में सूत्रकृतांग एक प्रकार से दार्शनिक विचारों का गणिपिटक है। ___ आगमों का व्याख्या साहित्य मूल ग्रन्थ के रहस्योद्घाटन के लिये उसकी विविध व्याख्याओं का अध्ययन अनिवार्य नहीं तो भी आवश्यक तो है ही। जब तक किसी ग्रन्थ की प्रामाणिक व्याख्या का सूक्ष्म अवलोकन नहीं किया जाता तब तक उस ग्रन्थ में रही हई अनेक महत्वपूर्ण बातें अज्ञात ही रह जाती हैं। यह सिद्धान्त जितना वर्तमान कालीन भौतिक ग्रन्थों पर लागू होता है उससे कई गुना अधिक प्राचीन भारतीय साहित्य पर लागू होता है। मूल ग्रन्थ के रहस्य का उद्घाटन करने के लिये उस पर व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण करना भारतीय ग्रन्थकारों की बहुत पुरानी परम्परा है। इस प्रकार के साहित्य से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- व्याख्याकार को अपनी लेखनी से ग्रन्थकार के अपने अभीष्ट अर्थ का विश्लेषण करने में असीम आत्मोल्लास होता है तथा कहीं-कहीं उसे अपनी मान्यता प्रस्तुत करने का अवसर भी मिलता है। दूसरी ओर पाठक को ग्रन्थ के गूढार्थ तक पहुँचने के लिये अनावश्यक श्रम नहीं करना पड़ता / इस प्रकार व्याख्याकार का परिश्रम स्व-पर उभय के लिये उपयोगी सिद्ध होता है / व्याख्याकार को आत्मतुष्टि के साथ ही साथ जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा भी शान्त होती है। इसी पवित्र भावना से भारतीय व्याख्या ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। जैन व्याख्याकारों के हृदय भी इसी भावना से भावित रहे हैं। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का अति महत्वपूर्ण स्थान है। इन व्याख्याओं को हम पाँच कोटियों में विभक्त करते हैं।--१. नियुक्तियाँ (निज्जुत्ति), 2. भाष्य (भास), 3 चूणियाँ (चुण्णि), 4. संस्कृत टीकाएँ और 5. लोक भाषाओं में रचित व्याख्याएँ (टव्वा)। आगमों के विषयों का संक्षेप में परिचय देने वाली Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणियां भी काफी प्राचीन हैं। पंचकल्प महाभाष्य के उल्लेखानुसार संग्रहणियों की रचना आर्यकालक ने की है। पाक्षिक सूत्र में भी नियुक्ति एवं संग्रहणी का उल्लेख है। नियुक्तियाँ : नियुक्तियाँ और भाष्य जैन आगमों की पद्यबद्ध टीकाएँ हैं / ये दोनों प्रकार की टीकाएँ प्राकृत में हैं / नियुक्तियों में मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद का व्याख्यान न किया जाकर विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों का ही व्याख्यान किया गया है। उपलब्ध नियुक्तियों के कर्ता आचार्य भद्रबाह (द्वितीय) ने निम्नोक्त आगम ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं-- 1. आवश्यक, 2. दशवकालिक, 3. उत्तराध्ययन, 4. आचारांग, 5. सूत्रकृतांग, 6. दशाश्र तस्कन्ध, 7. बृहत्कल्प, 8. व्यवहार, 6. सूर्यप्रज्ञप्ति, 10. ऋषिभाषित / इन दस नियुक्तियों में से सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियाँ अनुपलब्ध हैं। ओघनियुक्ति, पिन्डनियुक्ति, पंचकल्प नियुक्ति और निशीथ नियुक्ति क्रमशः आवश्यक नियुक्ति, दशवकालिक नियुक्ति, वृहत्कल्प नियुक्ति और आचारांग नियुक्ति की पूरक हैं। संसक्तिनियुक्ति बहुत बाद की किसी की रचना है। गोविन्दाचार्य रचित एक अन्य नियुक्ति (गोविन्द नियुक्ति) अनुपलब्ध है। नियुक्तियों की व्याख्यान-शैली निक्षेप पद्धति के रूप में प्रसिद्ध है / यह व्याख्या पद्धति बहुत प्राचीन है। इसका अनुयोगहार आदि में दर्शन होता है / इस पद्धति में किसी एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के बाद उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है / जैन न्याय शास्त्र में इस पद्धति का बहुत महत्व है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने नियुक्ति का प्रयोजन बताते हुए इसी पद्धति को नियुक्ति के लिये उपयुक्त बतलाया है। दूसरे शब्दों में निक्षेप पद्धति के आधार पर किये जाने वाले शब्दार्थ के निर्णय-निश्चय का नाम ही नियुक्ति है। भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति ( गा० 88) में स्पष्ट कहा है कि "एक छन्द के अनेक अर्थ होते हैं किन्तु कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिये उपयुक्त होता है, भगवान महावीर के उपदेश के समय कौनसा शब्द किस अर्थ से सम्बद्ध रहा है, आदि बातों को दृष्टि में रखते हुए सम्यक् रूप से अर्थ निर्णय करना और उस अर्थ का मूल-सूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना-यही नियुक्ति का प्रयोजन है / " ___ आचार्य भद्रबाहु कृत दस नियुक्तियों का रचना-क्रम वही है जिस क्रम से ऊपर दस ग्रन्थों के नाम दिये गये हैं / आचार्य ने अपनी सर्व प्रथम कृति आवश्यक नियुक्ति (गा० 85-6) में नियुक्ति रचना का संकल्प करते समय इसी क्रम से ग्रन्थों की नामावली दी है। नियुक्तियों में उल्लिखित एक दूसरी नियुक्ति के नाम आदि के अध्ययन से भी यही तथ्य प्रतिपादित होता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु : नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु, छेद सूत्रकार, चतुर्दश-पूर्वधर आर्य भद्रबाहु से भिन्न हैं। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने अपनी दशाथ तस्कन्ध नियुक्ति एवं पंचकल्प नियुक्ति के प्रारम्भ में छेद सूत्रकार भद्रबाहु को नमस्कार किया है। नियुक्तिकार भद्रबाहु प्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सहोदर माने जाते है। ये अष्टांग निमित्त तथा मंत्र विद्या में पारंगत नैमित्तिक भद्रबाहु के रूप में भी प्रसिद्ध हैं / उपसर्ग हर स्तोत्र और भद्रबाहु संहिता भी इन्हीं की रचनाएँ हैं / वराहमिहिर वि० सं० 532 में विद्यमान थे, क्योंकि 'पंच सिद्धान्तिका' के अन्त में शक संवत् 427 अर्थात् वि० सं० 562 का उल्लेख है। नियुक्तिकार भद्रबाह का भी लगभग यही समय है। अतः नियुक्तियों का रचनाकाल वि० सं० 500-600 के बीच में मानना युक्ति-युक्त है। सूत्रकृतांग नियुक्ति : इसमें आचार्य ने सूत्रकृतांग शब्द का विवेचन करते हुए गाया, पोडश, पुरुष, विभक्ति, समाधि, मार्ग, ग्रहण, पुण्डरीक अाहार, प्रत्याख्यान, सुत्र, आई, आदि पदों का निक्षेप पूर्वक व्याख्यान किया है। एक गाथा (119) में या. पोडक, पुरुष विभक्ति, समाधि, मार्ग, ग्रहण Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निम्नोक्त 363 मतान्तरों का उल्लेख किया है। 180 प्रकार के क्रियावादी 84 प्रकार के अक्रियावादी 67 प्रकार के अज्ञानवादी और 32 प्रकार के वैनयिक / जैन परम्परागत अनेक महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की सुस्पष्ट व्याख्या सर्व प्रथम आचार्य भद्रबाह ने अपनी आगमिक नियुक्तियों में की है। इस दृष्टि से नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाह का जैन साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। पीछे भाष्यकारों एवं टीकाकारों ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में उपयुक्त नियुक्तियों का आधार लेते हुए ही अपनी कृतियों का निर्माण किया है। भाष्य: नियुक्तियों का मुख्य प्रयोजन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना रहा है / पारिभाषिक शब्दों में छिपे हुए अर्थ बाहुल्य को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रथम श्रेय भाष्यकारों को है। नियुक्तियों की भांति भाष्य भी पद्य बद्ध प्राकृत में है। कुछ भाष्य नियुक्तियों पर हैं और कुछ केवल मूल सूत्रों पर / निम्नोक्त आगम ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं :१.--आवश्यक, २---दशवकालिक, ३--उत्तराध्ययन, ४-वृहत्कल्प, ५.--पंचकल्प, ६-व्यवहार ७---निशीथ, 8-- जीत कल्प, ह--ओघ-नियुक्ति, १०---पिण्ड नियुक्ति / आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं / इनमें से 'विशेष आवश्यक भाष्य' आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इसमें 3603 गाथाएँ हैं / दशवकालिक भाष्य में 63 माथाएँ हैं। उत्तराध्ययन भाष्य भी बहुत छोटा है। इसमें 45 गाथाएँ हैं। बृहत्कल्प पर दो भाष्य हैं। इसमें से लघुभाय्य पर 6460 गाथाएँ हैं। पंचकल्प-महाभाष्य की गाथा संख्या 2574 है। व्यवहार भाष्य में 4626 गाथाएँ हैं / निशीथ भाष्य में लगभग 6500 गाथाएँ हैं। जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएँ हैं। ओघनियुक्ति पर दो भाष्य हैं। इनमें से लघुभाष्य पर 322 तथा वृहद् भाष्य में 2517 गाथाएँ हैं। पिण्डनियुक्ति भाष्य में केवल 46 गाथाएँ हैं। इस विशाल प्राकृत भाष्य साहित्य का जैन साहित्य में और विशेषकर आगमिक साहित्य में अति महत्वपूर्ण स्थान है / पद्यबद्ध होने के कारण इसके महत्व में और भी वृद्धि हो जाती है। भाष्यकार: भाष्यकार के रूप में दो आचार्य प्रसिद्ध हैं :--जिनभद्रगणि और संघदास गणि / विशेषावश्यकभाष्य और जीत कल्पभाष्य आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को कृतियाँ हैं। बृहत्कल्प लघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य संघदास गणि की रचनाएँ हैं। इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त अन्य किसी आगामिक भाष्यकार के नाम का कोई उल्लेख उप. लब्ध नहीं है। इतना निश्चित है कि इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त कम से कम दो भाष्यकार तो और हुए ही हैं। जिनमें से एक व्यवहार भाष्य आदि के प्रणेता एवं दूसरे बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य आदि के रचयिता हैं। विद्वानों के अनुमान के अनुसार वृहत्कल्प-वृहद्भाष्य के प्रणेता वृहत्कल्प चूर्णिकार तथा विशेषकल्प-चूणिकार से भी पीछे हुए हैं। ये हरिभद्र सूरि के कुछ पूर्ववर्ती अथवा समकालीन हैं। व्यवहार भाष्य के प्रणेता विशेषावश्यक भाष्यकार आचार्य जिनभद्र सूरि के पूर्ववर्ती हैं। संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं। चूणियाँ : जैन आगमों की प्राकृत अथवा संस्कृतमिश्रित प्राकृत व्याख्याएँ चर्णियाँ कहलाती हैं। इस प्रकार की कुछ चूणियाँ आगमेतर साहित्य पर भी हैं। जैन आचार्यों ने निम्नोक्त आगमों पर चूणियाँ लिखी हैं ।-१--आचारांग, २-सत्रकृतांग, ३–व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) ४--जीवाभिगम, ५--निशीथ, ६-महानिशीथ, ७---व्यवहार, ८-दश:श्रत स्कन्ध, 8--वृहत्कल्प १०-पंचकल्प, ११--ओघनियुक्ति, १२--जीतकल्प, 13. उत्तराध्ययन, १४–आवश्यक १५-दशवकालिक' १६-नन्दी, १७--अनुयोगद्वार, १८--जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति / निशीथ और जीतकल्प पर दो-दे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणियाँ लिखी गई हैं। किन्तु वर्तमान में एक-एक ही उपलब्ध है / अनुयोग द्वार, वृहत्कल्प एवं दशवकालिक पर भी दो-दो चूणियाँ हैं / जिनदासगणि महत्तर की मानी जाने वाली निम्नांकित चूणियों का रचनाक्रम इस प्रकार है / 1. नन्दी चूणि, 2. अनुयोगद्वार चूणि, 3. ओघनियुक्ति चूर्णि, 4. आवश्यक चर्णि, 5. दशवकालिक चूणि, 6. उत्तराध्ययन चूर्णि, 7. आचारांग चूणि, 8. सूत्रकृतांग चूर्णि और 6. व्याख्याप्रज्ञप्ति चूणि / नन्दी चूणि, अनुयोगद्वार चूर्णि, जिनदास कृत दशवकालिक चूणि, उत्तराध्ययन चूणि, आचारांग चूणि, सूत्रकृतांग चूणि, निशीथ विशेष चणि, दशाश्रुत स्कन्ध चूणि एवं बृहत्कल्प चूणि संस्कृत मिश्रित प्राकृत में हैं। आवश्यक चूणि, अगस्त्यसिंह कृत दशवकालिक चूणि एवं जीतकल्प चूणि (सिद्धसेन कृत) प्राकृत में है। चूर्णिकार : चूर्णिकार के रुप में जिनदासगणि महत्तर का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। परम्परा से निम्न चूणियाँ जिनदास महत्तर की मानी जाती हैं / निशीथ विशेष चूणि, नन्दी चुणि, अनुयोगद्वार चूणि, आवश्यक चूणि, दशवैकालिक चूणि, उत्तराध्ययन चूणि, आचारांग चूणि, सूत्रकृतांग चूणि / उपलब्ध जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेनसूरि हैं / बृहत्कल्प चूणि प्रलम्बसूरि की कृति है / अनुयोग द्वार की एक बूणि (अंगुल पद पर) के कर्ता भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी हैं / यह बूणि जिनदास गणिकृत अनुयोगद्वार चूणि में अक्षरश: उद्धृत है / दशवकालिक पर अगस्त्य सिंह ने भी एक चूणि लिखी है / इसके अतिरिक्त अन्य विकारों के नाम अज्ञात हैं। प्रसिद्ध चूणिकार जिनदास गणि महत्तर के धर्मगुरु का नाम उत्तराध्ययन चूर्णि के अनुसार वाणिज्य कुलीन कोटिक गणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर है तथा विद्यागुरु का नाम निशीथ विशेष चूणि के अनुसार प्रद्युम्न क्षमाश्रमण है / जिनदास का समय भाष्यकार आचार्य जिनभद्र और टीकाकार आचार्य हरिभद्र के बीच में है। इसका प्रमाग यह है कि आचार्य जिनभद्रकृत विशेष आवश्यक भाष्य की गाथाओं का प्रयोग इनकी चूणियों में दृष्टिगोचर होता है तथा इनकी चूणियों का पूरा उपयोग आचार्य हरिभद्र की टीकाओं में हुआ दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में चूणिकार जिनदासगणि महत्तर का समय वि० सं० 650-750 के आसपास मानना चाहिए। क्योंकि इनके पूर्ववर्ती आचार्य जिनभद्र वि० सं० 650-660 के आसपास तथा इनके उत्तरवर्ती आचार्य हरिभद्र वि० सं० 757-827 के आसपास विद्यमान थे / नन्दीचूणि के अन्त में उसका रचनाकाल शक संवत 518 उल्लिखित है। इस प्रकार इस उल्लेख के अनुसार भी जिनदास का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निश्चित है। जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेन सूरि प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न है। इसका कारण यह है कि सिद्धसेन दिवाकर जीतकल्प सूत्र के प्रणेता आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं। जबकि चूणिकार सिद्धसेन सूरि आचार्य जिनभद्र के पश्चातवर्ती हैं। इनका समय वि० सं० 1227 के पर्व है, पश्चात नहीं, क्योंकि प्रस्तत जीतकल्प चूणि की एक टीका, जिसका नाम विषमपद व्याख्या है, श्रीचन्द सूरि ने वि० सं० 1227 में पूर्ण की थी। प्रस्तुत सिद्ध सेन संभवत: उप केशगच्छीय देव गुप्त सरि के शिष्य एवं यशोदेव सूरि के गरु भाई हैं। सूत्रकृतांग चूणि: आचारांग चूणि और सूत्रकृतांग चूणि की शैली में अत्यधिक साम्य है। इनमें संस्कृत का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है। विषय विवेचन संक्षिप्त एवं अस्पष्ट है। सूत्रकृतांग की चणि भी आचारांग आदि की चूणि की ही भाँति नियुक्त्यनुसारी है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) टीकाएं और टीकाकार : जन आगमों की संस्कृत व्याख्याओं का भी आगमिक साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है / संस्कृत के प्रभाव की विशेष वृद्धि होते देख जैन आचार्यों ने भी अपने प्राचीनतम साहित्य आगम-ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखना प्रारम्भ किया। इन टीकाओं में प्राचीन नियुक्तियों, भाष्यों एवं चूणियों की सामग्री का तो उपयोग हुआ ही, साथ ही साथ टीकाकारों ने नये-नये हेतुओं एवं तर्को द्वारा उस सामग्री को पुष्ट भी किया। आगमिक साहित्य पर प्राचीनतम संस्कृत टीका आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति है। यह वृत्ति आचार्य जिनभद्र गणि अपने जीवन काल में पूर्ण न कर सके / इस अपूर्ण कार्य को कोट्यार्य ने (जो कि कोट्याचार्य से भिन्न है) पूर्ण किया। इस दृष्टि से आचार्य जिनभद्र प्राचीनतम आगमिक टीकाकार हैं / भाष्य, चूणि और टीका तीनों प्रकार के व्याख्यात्मक साहित्य में इनका योगदान है। भाष्यकार के रूप में तो इनकी प्रसिद्धि है ही। अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर इनकी एक चणि भी है / टीका के रूप में इनकी लिखी हुई विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति है हो / टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवमूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। शोलांकाचार्यकृत टीकाएँ : आचार्य शीलांक के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने प्रथम नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं / वर्तमान में इनकी केवल दो टीकाएँ उपलब्ध हैं / आचारांग विवरण और सूत्रकृतांग बिवरण। इन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) आदि पर भी टीकाएँ लिखी अवश्य होंगी, जैसा कि अभयदेवसूरि कृत व्याख्याप्रज्ञप्ति से फलित होता है। आचार्य शीलांक, जिन्हें शीलाचार्य एवं तत्वादिस्य भी कहा जाता है विक्रम की नवीं दसवीं शती में विद्यमान थे / आचासंग विवरण: यह विवरण आचारांग के मूलपाठ एवं उसकी नियुक्ति पर है / विवरण शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है / इसमें प्रत्येक सम्बद्ध विषय का सुविस्तृत व्याख्यान है। यत्र-तत्र प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरण भी हैं। प्रारम्भ में आचार्य ने गंधहस्तिकृत शस्त्र परिज्ञा-विवरण का उल्लेख किया है / एवं उसे कठिन बताते हुए आचारांग पर सुबोध विवरण लिखने का प्रयत्ल किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के षष्ठ अध्ययन की व्याख्या के अन्त में विवरणकार ने बताया है कि महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन का व्यवच्छेद हो जाने के कारण उसका अतिलघन करके अष्टम अध्ययन का व्याख्यान प्रारम्भ किया जाता है / अष्टम अध्ययन के षष्ठ उद्देशक के विवरण में ग्राम, नकर (नगर), खेट, कर्बट, महम्ब, पत्तन, द्रोण, आकर, आश्रम, सन्निवेष, निगम, राजधानी आदि का स्वरूप बताया गया है। फानन द्वीप आदि को जल पत्तन एवं मुख मथुरा आदि को स्थल पत्तन कहा गया है / मरकच्छ, ताम्रलिप्ति, आदि द्रोणमुख अर्थात् जल एवं स्थल के आगमन के केन्द्र हैं / प्रस्तुत विवरण निवृत्ति कुलीन शीलाचार्य ने गुप्त संवत् 772 की भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन वाहरिसाधु को सहायता से गभूता में पूर्ण किया / विवरण का ग्रन्थ मान 12000 श्लोक प्रमाण है / सूत्रकृतांग विवरण : यह विवरण सूत्रकृतांग के मूलपाठ एवं उसकी नियुक्ति पर है। विवरण सुबोध है / दार्शनिक दृष्टि की प्रमुखता होते हुए भी विवेचन में क्लिष्टता नहीं आने पाई है। यत्र-तत्र पाठान्तर भी उद्धृत किये गये हैं। विवरण में अनेक श्लोक एवं गाथाएँ उद्धृत की गई हैं किन्तु कहीं पर भी किसी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थकार के नाम का कोई उल्लेखनहीं है। प्रस्तूत टीका का ग्रन्थ मान 12850 श्लोक प्रमाण है। यह टीका टीकाचार्य ने वाहरिमणि की सहायता से पूरी की है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) प्रस्तुत संस्करण एवं सम्पादन : सूत्रकृतांगसूत्र, जिसमें कि भगवान महावीर की दार्शनिक विचारधारा उपनिबद्ध है, जैन आगमों में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है तथा भारतीय दर्शनों में भी इसका महान गौरव रहा है। प्राचीन भारतीय दर्शन की एक भी धारा उस प्रकार की नहीं रही जिसका उल्लेख सूत्रकृतांग सूत्र में न हुआ हो। यह बात अवश्य रही है कि कही-कहीं पर संकेत मात्र कर दिया है और कहीं-कहीं नाम लेकर स्पष्ट उल्लेख किया गया है / उपनिषतत्कालीन तत्त्ववाद का वेदान्त और प्राचीन सांख्य-दर्शन, क्षणिकवादी बौद्धों का क्षणिकवाद तथा पंचभूतवादियों का भूतवाद इन सभी का समावेश सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कन्ध में हो गया है। प्रस्तुत शास्त्र के व्याख्याकार नियुक्तिकार भद्रबाह ने तथा चूर्णिकार ने अपनी चूणि में कुछ गम्भीर स्थलों की सुन्दर व्याख्या की है / लेकिन संस्कृत टीकाकार आचार्य शीलांक ने इस सूत्र की अपनी संस्कृत टीका में भारतीय दार्शनिक विचारधारा का विस्तार के साथ वर्णन किया है। जो विचार बीज रूप में उपलब्ध थे उनका एक विशाल वृक्ष उन्होंने अपनी टीका में रूपायित किया है। मैंने आनी भूमिका के प्रारम्भ में ही भारतीय-दर्शन की विभिन्न मान्यताओं का संक्षेप में स्पष्ट वर्णन कर दिया है, इस भूमिका के आधार पर पाठक इस शास्त्र के गम्भीर भावों को आसानी से समझ सकेंगे। स्व० पूज्य जवाहरलाल जी म० की देख-रेख में सूत्रकृतांगसूत्र का चार भागों में सम्पादन हुआ है जो अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं सुन्दर सम्पादन है। पूज्य घासीलाल जी म. ने भी सूत्रकृतांग सूत्र की संस्कृत टीका बहुत ही विस्तार से प्रस्तुत की है, जिसमें उसका हिन्दी अर्थ तथा गुजराती अर्थ भी उपनिबद्ध कर दिया गया है। परन्तु श्रमण संघ के युवाचार्य प्रकाण्ड पंडित श्रद्धेय मधुकर जी म० के सान्निध्य में सूत्रकृतांग का जो सुन्दर लेखन-सम्पादन हुआ है उसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। प्रस्तुत पुस्तक में मूल पाठ, उसका भावार्थ फिर उसका विवेचन और साथ में विभिन्न ग्रन्थों से टिप्पण दे दिये हैं जिससे इसकी उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। यद्यपि सामान्य पाठक के लिये टिप्पणों का विशेष मूल्य नहीं है, वह प्रायः टिप्पण देखता भी नहीं परन्तु विद्वान् अध्येताओं के लिए टिप्पण बहुत ही उपयोगी हैं। इस संस्करण के सम्पादक की बहुश्रु तता तब अभिव्यक्त हो जाती है जब सामान्य पाठक भी संस्कृत प्राकृत टिप्पणों का हिन्दी भावार्थ समझ लेता है, यह कार्य श्रम-साध्य है, पर उपयोगिता की दृष्टि से बहुत अच्छा रहा। पंडितरत्न श्री मधुकर जी म. संस्कृत, प्राकृत, पाली, और अपभ्रंश भाषा के प्रौढ़ विद्वान् हैं। उनकी व्यापक शास्त्रीय दृष्टि तथा निर्देशन-कुशलता इस शास्त्र के प्रत्येक पृष्ठ पर अभिव्यक्त हो रही है। उनकी इस सफलता के लिये मैं धन्यवाद * देता हूँ, तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में अन्य आगमों का भी इसी प्रकार सम्पादन कार्य चालू रखेंगे। उनकी यह श्रत-सेवा जैन इतिहास में अजर-अमर होकर रहेगी। संस्कृत और प्राकृत के विश्रत विद्वान् श्रीचन्द जी सुराना ने प्रस्तुत शास्त्र का जिस योग्यता के साथ अनुवाद, विवेचन एवं सम्पादन किया है वह अत्यन्त स्तुत्य है / विभिन्न ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन और प्रकाशन वे वर्षों से करते चले आ रहे हैं। उन्होंने श्रुत देवता की अपनी लेखनी से जो सेवा की ही, समाज उसे कभी भुला नहीं सकेगा। उन्होंने पहले आचारांग सूत्र जैसे गहन व महत्वपूर्ण सूत्र का, सम्पादन विवेचन किया है, और अब सूत्रकृतांग का। सूत्रकृतांग सत्र जैसे दार्शनिक आगम की व्याख्या एवं सम्पादन करना साधारण बात नहीं है। वे अपने इस कार्य में पूर्णतः सफल हुए हैं। समाज आशा कर सकता है कि वे भविष्य में इसी प्रकार की श्रत साधना करते रहेंगे / -विजय मुनि शास्त्री 'जैन भवन' लोहामण्डी, आमरा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थ-सहयोगियों की शुभ नामावली संरक्षक महास्तम्भ 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास 2. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया, मद्रास 3. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर 4. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 5. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 8. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 6. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, सिकन्दराबाद 1. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 2. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 3. श्री पूसालालजी किस्तूरचन्दजी सुराणा, बालाघाट 4. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 5. श्री तिलोकचन्दजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 6. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 7. श्री हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री वर्द्धमान इन्डस्ट्रीज, कानपुर 10. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 11. श्री एस. बादल चन्दजी चोरडिया, मद्रास 12. श्री एस. रिखबचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री आर. परसनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 14. श्री अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास 15. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16. श्री मिश्रीलालजी तिलोकचन्दजी संचेती, दुर्ग 1. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, ब्यावर 2. श्री दीपचन्दजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 3. श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली 4. श्री खूबचन्दजी गादिया, व्यावर 5. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, व्यावर 6. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला 7. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर 8. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता 6. श्री जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, वागलकोट 10. श्री वस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (K.G. F.) एवं जाड़न 11. श्री केशरीगलजी जंवरीलालजी तालेरा, पाली 12. श्री नेमीचन्दजी मोहनलालजी ललवाणी, चांगाटोला 13. श्री विरदीचन्दजी प्रकाशचन्दजी तालेरा, पाली 14. श्री सिरेकवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी झामड़, मदुरान्तकम 15. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर 16. श्री मूलवन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 17. श्री लालचन्दजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 18. श्री भेरुदानजी लाभचन्दजी सुराणा, धोबड़ी तथा नागौर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी मारिया, बालाघाट 20. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 21. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 22. श्री मोहनराजजी बालिया, अहमदाबाद 23. श्री चेनमलजी सुराणा, मद्रास Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, नागौर 25. श्री बादलचंदजी मेहता, इन्दौर 26. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 27. श्री सुगनचंदजी वोकड़िया, इन्दौर 28. श्री इन्दरचंदजी बैद, राजनांदगांव 26. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगाटोला 30. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 31. श्री सिद्धकरणजी शिखरचंदजी बैद, चांगाटोला 32. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 33. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, अजमेर 65. श्री घेवरचंदजी पुखराजजो, गोहाटी 36. श्री मांगोलालजी चोरड़िया, आगरा 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 38. श्री गुणचंदजी दल्लीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 36. श्री अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 40. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा 41. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, बैंगलोर 42. श्री जड़ावमलजो सुगनचंदजी, मद्रास 43. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 44. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कुप्पल 46. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास सहयोगी सदस्य 1. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 2. श्री अमरचंद जी बालचंदजी मोदी, ब्यावर 3. श्री चम्पालजी मीठालालजी सकलेचा, जालना 4. श्री छगनीवाई विनायकिया, व्यावर 5. श्री भंवरलालजी चोपड़ा, व्यावर 6. श्री रतनलालजी चतर, व्यावर 7. श्री जंबरीलालजी अमरचंदजी कोठारी, ब्यावर 8. श्री मोहनलालजी गुलाबचंदजी चतर, ब्यावर 6. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 10. श्री के. पुखराजजी बाफना, मद्रास 11. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 12. श्री चम्पालालजी बुधराजजी बाफणा, ब्यावर 13. श्री नथमलजी मोहनलाल जी लूणिया, चण्डावल 14. श्री मांगीलाल जी प्रकाशचंदजी रुणवाल, बर 15. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 16. श्री भंवरलालजी गौतमचंदजी पगारिया, कुशालपुरा 17. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशालपुरा 18. श्री फूलचंदजी गौतमचंदजी कांठेड, पाली 16. श्री रूपराजजी जोधराजजी मथा, दिल्ली 20. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सूराणा, पाली 21. श्री देवकरणजी श्रीचंदजी डोसी, मेड़तासिटी 22. श्री माणकराजजी किशनराजजी, मेड़तासिटी 23. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, मेड़तासिटी 24. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम / 25. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, विल्लीपुरम् 26. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर 27. श्री हरकराजजी मेहता, जोधपुर 28. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 26. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 30. श्री गणेशमलजी नेमीचंदजी टाटिया, जोधपुर 31. श्री चम्पालाल जी हीरालालजी बागरेचा, जोधपुर 32. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 33. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 34. श्री मुलचंदजी पारख, जोधपुर 35 श्री आसुमल एण्ड कं०, जोधपुर 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर 37. श्री घेवर चंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 38. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं०), जोधपुर 36. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर / 40. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपूर 41. श्री मिश्रीलालजी लिखमीचंदजी साँड, जोधपुर 42. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 43. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 44. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 45. श्री सरदारमल एण्ड कं०, जोधपुर 46. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 47. श्री नेमीचंदजी डालिया, जोधपुर 48. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 46. श्री मुन्नीलालजी, मलचंदजी, पुखराजजी गुलेच्छा, जोधपुर 50. श्री सुन्दरबाई गोठी, महामन्दिर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा 52. श्री पुखराजजी लोढ़ा, महामन्दिर 53. श्री इन्द्रचंदजी मुकन्दचंदजी, इन्दौर 54. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 55. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 56. श्री भीकचदजी गणेशमलजी चौधरी, धूलिया 57. श्री सुगनचंदजी संचेती, राजनांदगांव 58. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गोलेच्छा, राजनांदगाँव 56. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 60. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 61. श्री ओखचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 62. श्री भंवरलालजी मूथा, जयपुर 63. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 64. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, भिलाई नं०३ 65. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई नं०३ 66 श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई नं० 3 / 67. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी, भिलाई नं० 3 68. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुलि 66. श्री प्रेमराजजी मिट्ठालालजी कामदार, चांवडिया 70. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 71. श्री भंवरलालजी नवरतनमलजी सांखला मेट्टपालियम 72. श्री सूरजकरणजी सुराणा, लाम्बा 73. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 74. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 75. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर 76. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 77. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 78. श्री चिम्मतसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 76 श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता 80. श्री वालचंदजी थानमलजी भुरट (कचेरा), कलकत्ता 51. श्री चन्दन मलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 82. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 83. श्री सोहनलालजो सोजतिया, थांवला 64. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, भैरुदा 85. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरुदा 86. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता 87. श्री भीवराजजी बागमार, कुचेरा 88. श्री गंगारामजी इन्दरचंदजी बोहरा, कुचेरा 86. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा 10. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 61. श्री प्रकाश चंदजी जैन, नागौर (भरतपुर) 62. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 63. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन 64. श्री पारसमल जी महावीरचंद जी बाहना, गोठन 65. श्री घोसलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी कोठारी, गोठन 66. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 67. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया 68. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, दल्ली-राजहरा 66. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा बुलारम 100. श्री फतेराज जी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 101. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 102. श्री जुगराजजी बरमेचा, मद्रास 103. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, बुलारम 104 श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, नागौर 105. श्री सम्पतराजजी चोरडिया मद्रास 106. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भण्डारी, बैंगलोर 107. श्री रामप्रसन्न ज्ञान प्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 108. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 106. श्री अमरचंदजी चम्पालालजी छाजेड़, पादु बड़ी 110. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, हरसोलाव 111. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्त्र० पारसमल जो ललवाणी, गोठन 112. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा 113. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह , 114. श्री कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास 115. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 116. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर 117. श्री मांगीलाल जी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 118, श्री इन्दरचन्दजी जुगराजजी बाफणा, बैंगलोर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119. श्री चम्पालालजी माणकचंदजी सिंघी, कुचेरा 120. श्री संचालालजी बाफना औरंगाबाद 121. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़तासिटी 122. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, सिकन्दराबाद 123. श्रीमती रामकुंवर बाई धर्मपत्ती--- श्रीचांदमलजी लोढ़ा, बम्बई 124. श्री भीकमचन्दजी माणक चन्दजी खाबिया, (कुडालोर), मद्रास 125. श्री जीतमलजी भंडारी, कलकत्ता 126. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड 127. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 128. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 126. श्री मिश्रीलालजी सज्जनराजजी कटारिया, सिकन्दराबाद 130. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, बिलाड़ा 131. श्री वर्धमान स्था० जैन श्रावक संघ, बगड़ीनगर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पृष्ठ m 1-6 7-8 6-10 11-12 13-14 17-18 16-20 विषय-सूची [प्रथम श्रु तस्कन्ध : अध्ययन 1 से 16 तक] 1. समय-प्रथम अध्ययन : पृष्ठ 1 से 108 सूत्रकृतांग सूत्र : परिचय प्रथम अध्ययन : परिचय-प्राथमिक प्रथम उद्देशक बन्ध-मोक्ष-स्वरूप पंचमहाभूतवाद एकात्मवाद तज्जीव-नच्छरीरवाद अकारकवाद आत्मपाठवाद क्षणिकवाद : दो रूपों में सांस्यादिमत-निस्सारता एवं फलश्रुति द्वितीय उद्देशक नियतिवाद स्वरूप अज्ञानवाद स्वरूप कर्मोपचय निषेधवाद : क्रियावादी दर्शन परवादि-निरसन तृतीय उद्देशक आधाकर्म दोष जगत् कर्तृत्ववाद अवतारवाद स्व-स्व' प्रवाद प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा चतुर्थ उद्देशक मुनि-धर्मोपदेश लोकवाद-समीक्षा अहिंसा धर्म निरूपण चारित्र शुद्धि के लिए उपदेश 28-32 33-50 51-56 57-56 64-66 70.71 72-65 1 Gीती U1. * 08WK .mmm. 85 से 108 76-74 80-83 84-85 86-88 : Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106-110 111 से 131 111 115 117 116 122 125 126 131 से 155 135 140 सूत्रांक वैतालीय : द्वितीय अध्ययन : पृष्ठ 106 से 176 प्राथमिक-परिचय प्रथम उद्देशक C8-62 भगवान ऋषभदेव द्वारा अठानवें पुत्रों को सम्बोध 63-64 अनित्यभाब-दर्शन कर्म-विपाक दर्शन मायाचार का कटुफल 18-100 पाप-विरति उपदेश 101.103 परीषह-सहन उपदेश 104-100 अनुकूल-परीषह विजयोपदेश 106-110 कर्म-विदारक वीरों को उपदेश द्वितीय उद्देशक मद-त्याग उपदेश 114-115 समता धर्म-उपदेश 116.120 परिग्रह-त्याग-प्रेरणा अति-परिचय त्याग-उपदेश 122-128 एकलविहारी मुनिचर्या अधिकरण विवर्जना 130-132 सामायिक साधक का आचार 133-142 अनुत्तर धर्म और उसकी आराधना तृतीय उद्देशक 543 संयम से अज्ञानोपचित कर्मनाश और मोक्ष 144-150 कामासक्ति त्याग का उपदेश 151-152 आरम्भ एवं पाप में आसक्त प्राणियों की गति एवं मनोदशा 153-154 सम्यग् दर्शन में साधक-बाधक तत्त्व सुव्रती समत्वदर्शी-गृहस्थ देवलोक में 156-157 मोक्षयात्री भिक्षु का आचरण 158-160 अशरण भावना बोधिदुर्लभता की चेतावनी 162-163 भिक्षुओं के मोक्ष-साधक गुणों में ऐकमत्य उपसंहार उपसर्ग परिज्ञा : तृतीय अध्ययन : पृष्ठ 180 से 246 प्राथमिक-परिचय प्रथम उद्देशक 165-167 प्रतिकूल उपसर्ग:विजय 146 155 से 176 155 157 165 166 172 176 177 178 180-183 183 से 165 183 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 185 186 186 160 161 ..162 .163 or '' 166 से 206 166 167 202 207 से 323 207 196-203 211 सूत्रांक 168-166 शीतोष्ण-परीषहरूप उपसर्ग के समय मन्द साधक की दशा 170-171 याचना : आक्रोश परीषह-उपसर्ग 172 वध परीषह रूप उपसर्ग ..173-175 आक्रोश परीषह के रूप में उपसर्ग . . . . . दंश-मशक और तृणस्पर्श परीषह के रूप में उपसर्ग - 177 के शलोच और ब्रह्मचर्य के रूप में उपसर्ग 178-180 वध-बन्ध परीषह के रूप में उपसर्ग उपसगों से आहत कायर साधकों का पलायन द्वितीय उद्देशक अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म संग रूप एवं दुस्तर -183-165 स्वजन संगरूप उपसर्ग : विविध रूपों में भांग निमंत्रण रूप उपसर्ग : विविध रूपों में तृतीय उद्देशक 204-206 आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग : अध्यात्म विषाद के रूप में .208-210 आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग विजयी साधक 211-213 उपसर्ग : परवादिकृत आक्षेप के रूप में 214-223 परवादि कृत आक्षेप निवारण : कीन क्यों और कैसे करें ... 224 उपसर्ग-विजय का निर्देश - चतुर्थ उद्देशक 225-226 महापुरुषों की दुहाई देकर संयम भ्रष्ट करने वाले उपसर्ग 230-232 सुख से ही सुख प्राप्ति : मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग 233-237 अनुकूल कुतर्क से वासना तृप्ति रूप सुखकर उपसर्ग 238-236 कौन पश्चात्ताप करता है कौन नहीं ? 240-241 नारी संयोग रूप उपसर्ग : दुष्कर, दुस्तर एवं सुतर 242-246 उपसर्ग विजेता साधु : कौन, और कैसे ? स्त्री परिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन : पृष्ठ 247 से 285 प्राथमिक-परिचय प्रथम उद्देशक 247-277 स्त्री-मंगरूप उपसर्ग : विविध रूप : सावधानी को प्रेरणाएँ द्वितीय उद्देशक . . 278-265 स्त्री-संग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना उपसंहार 223 224 से 246 224 228 234 238 236 241 247-246 250 से 272 251 272 से 285 272 281 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) "पृष्ठ 286-288 286 से 302 . .286 262 301 302 से 314 302 310 315-316 322 सूत्रांक नरक विभक्ति पंचम अध्ययन : पृष्ठ 286 से 314 प्राथमिक-परिचय . . प्रथम उद्देशक 300-304 नरक जिज्ञासा और संक्षिप्त समाधान 305-324 नारकों को भयंकर वेदनाएँ 325-326 नरक में नारक क्या खोते, क्या पाते? द्वितीय उद्देशक 327-347 तीव्र वेदनाएँ और नारकों के मन पर प्रतिक्रिया 348-351 नरक में सतत दुःख प्राप्त और उससे बचने के उपाय महावीर स्तव (वीर स्तुति) छठा अध्ययन : पृष्ठ 315 से 328 प्राथमिक 352-353 भगवान महावीर के सम्बन्ध में जिज्ञासा 354-360 अनेक गुणों से विभूपित भगवान महावीर की महिमा 361-365 पर्वत श्रेष्ठ समेह के समान गणों में सर्वश्रेष्ठ महावीर 366-375 विविध उपमाओं से भगवान की श्रेष्ठता 376-376 भगवान महावीर की विशिष्ट उपलब्धियाँ 380 फलश्रुति कुशील परिभाषित : सप्तम अध्ययन : पृष्ठ 326 से 342 प्राथमिक 381-384 कुशीलकृत जीवहिंसा और उसके दुष्परिणाम 385-386 कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिंसा के विविध रूप 390-361 कुशील द्वारा हिंसाचरण का कटुविपाक 362-400 मोक्षवादी कुशीलों के मत और उनका खण्डन 401-406 कुशील साधक की आचार भ्रष्टता 407-410 सुशील साधक के लिए आचार-विचार के विवेक सूत्र वीर्य : अष्टम अध्ययन : पृष्ठ 343 से 356 प्राथमिक 411-413 वीर्य का स्वरूप और प्रकार बालजनों का सकर्म वीर्य : परिचय और परिणाम 420-431 पण्डित (अकर्म) वीर्य : साधना के प्रेरणा सूत्र 432-434 अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम ही बालवीर्य और पण्डितवीर्य .435-436 पण्डित वीर्य : साधना का आदर्श 328 326-330 331 334 335 336 341 343-344 345 345 348 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) सूत्रांक 357-358 356 437-443 444-446 447-460 461-463 464-472 362 366 374-375 473-487 488-461 462-466 381 382 467-502 503-508 506-511 512-517 धर्म . नवम अध्ययन : पृष्ठ 357 से 373 प्राथमिक जिनोक्त श्रमण धर्माचरण : क्यों और कैसे? मूलगुणगत दोष त्याग का उपदेश उत्तरगुण-गत दोष त्याग का उपदेश साधुधर्म के भाषाविवेक सूत्र लोकोत्तर धर्म के कतिपय आचार सूत्र समाधि : दशम अध्ययन : पृष्ठ 374 से 384 प्राथमिक समाधि प्राप्त साधु की साधना के मूलमंत्र भाव समाधि से दुर लोगों के विविध चित्र समाधि प्राप्ति के प्रेरणा सूत्र मार्ग : एकादश अध्ययन : पृष्ठ 385 से 368 प्राथमिक मार्ग सम्बन्धी जिज्ञासा महत्त्व और समाधान अहिंसा मार्ग एषणा समिति मार्ग-विवेक भाषा समिति मार्ग-विवेक निर्वाण मार्ग: माहात्म्य एवं उपदेष्टा धर्मद्वीप अन्यतीथिक समाधि रूप भाव मार्ग से दूर भावमार्ग की साधना समवशरण : द्वादश अध्ययन : पृष्ठ 366 से 414 प्राथमिक चार समवसरण : परतीथिक मान्य चार धर्मवाद एकान्त अज्ञानवाद समीक्षा एकान्त विनयवाद की समीक्षा विविध एकान्त अक्रियावादियों की समीक्षा एकान्त क्रियावाद और सम्यक क्रियावाद एवं उसके प्ररूपक सम्यक क्रियावाद और क्रियावादियों के नेता सम्यक क्रियावाद का प्रतिपादक और अनुगामी याथातथ्य : त्रयोदश अध्ययन : पृष्ठ 414 से 418 प्राथमिक समरत यथातथ्य निरूपण का अभिवचन 385-386 387 388 386 361 364 516-520 521-527 528-534 364 365 367 366-400 401 401 404 5.37-538 536-544 545-548 405 406 411 412 552-556 415-416 417 557 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सूत्रांक 558-567 568-573 574-578 418 421 423 576 425 427-428 426 580-584 585-566 567-606 435 440-441 442 607-611 612-621 622-624 625-626 कुसाधु के कुशील एवं सुसाधु के शील का यथातथ्य निरूपण साधु की ज्ञानादि साधना में तथ्य-अतथ्य-विवेक सुसाधु द्वारा यथातथ्य धर्मोपदेश के प्रेरणासत्र साधु धर्म का यथातथ्य रूप में प्राण प्रण से पालन करे ग्रन्थ : चतुर्दश अध्ययन : पृष्ठ 427 से 436 प्राथमिक ग्रन्थ त्यागी के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाभ गुरुकुलवासी साधु द्वारा शिक्षा ग्रहण विधि गुरुकुलवासी साधु द्वारा भाषा-प्रयोग के विधि-निषेध सत्र जमतीत : पंचदश अध्ययन : पृष्ठ 440 से 450 प्राथमिक अनुत्तर ज्ञानी और तत्कथित भावनायोग साधना विमुक्त मोक्षाभिमुख और सांसारान्तकर साधु कौन ? मोक्ष प्राप्ति किसको सुलभ, किसको दुर्लभ मोक्ष-प्राप्त पुरुषोत्तम और उसका शाश्वत स्थान संसार पारंगत साधक की साधना के विविध पहल गाथा : षोडष अध्ययन : पृष्ठ 451 से 458 प्राथमिक माहण-श्रमण परिभाषा स्वरूप माहन स्वरूप श्रमण स्वरूप भिक्षु-स्वरूप निर्ग्रन्थ स्वरूप परिशिष्ट : पृष्ठ 456 से 515 1 गाथाओं की अकारादि अनुक्रमणिका 2 विशिष्ट शब्द सूची 3 स्मरणीय सुभाषित 4 सूत्रकृतांग के सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थ सूची 444 447 448 446 632-633 452 الله 636 الله 454 455 457 الماء 461-470 471-506 507-506 510-515 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेन्ति भावेण / अमला असंकि लिट्ठा ते होन्ति परित्तसंसारी / / -उत्तरा० 361260 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर भयवं सिरिसुहम्मसामिपणीयं बिइयमंगं सूयगडंगसुत्तं [पढमो सुयक्वंधो] पंचम गणधर भगवत् सुधर्मस्वामिप्रणेत द्वितीय अंग सूत्रक्तांगसूत्र (प्रथम श्रुतस्कंध) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांगसूत्र परिचय 0 प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का द्वितीय अंग है / इसका प्रचलित नाम 'सूत्रकृतांग' है। 0 नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहुने इसके तीन एकार्थक गुणनिष्पन्न नामों का निरूपण किया है।" (1) सूतगडं (सूत्रकृत), (2) सुत्तकडं (सूत्रकृत) और सुयगडं (सूचाकृत) 0 तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर द्वारा अर्थरूप में सूत (उत्पन्न) होने से, तथा गणधरों द्वारा ग्रथित-कृत (सूत्ररूप में रचित) होने से इसका नाम 'सूत्रकृत' है / सूत्र का अनुसरण करते हुए इस में तत्त्वबोध (उपदेश) किया गया है, एतदर्थ इसका नाम सूत्रकृत् है। 1] इसमें स्व-पर समयों (सिद्धान्तों) को सूचित किया गया है, इसलिए इसका नाम 'सूचाकृत' भी है।' 0 समवायांग, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में इसका 'सूयगडो (सूत्रकृत) नाम उपलब्ध होता है। 9 नन्दीसूत्र वृत्ति और चूर्णि में दो अर्थ दिये गए हैं-~जीवादि पदार्थ (सूत्र द्वारा) सूचित उपलब्ध हैं, इसलिए, तथा जीवादि पदार्थों का अनुसन्धान होता है, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत' ही अधिक संगत है। अचेलकपरम्परा में भी सूत्रकृतांग के प्राकृत में तीन नाम मिलते हैं-सुद्दयड, सूदयड और सूदयद / इन तीनों का संस्कृत रूपान्तर वहाँ 'सूत्रकृत' ही माना है / जैसे पुरुष के 12 अंग होते हैं, वैसे ही श्रु तरूप परमपुरुष के आचार आदि 12 अंग क्रमशः होते हैं, इसलिए आचार, सूत्रकृत आदि 12 आगमग्रन्थों के आगे 'अंग' शब्द लगाया जाता है। 1 सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा-२ 2 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 2 3 (क) समवायांग प्रकीर्णक समवाय 88 (ख) नन्दी सूत्र ६०(ग) अनुयोगद्वार सूत्र 50 4 (क) नन्दी हारिभद्रीय वृत्ति पृ० 77, (ख) नन्दीचूणि पृ०६३ / 5 प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में "तेवीसाए सुद्दयडज्झाणेसु। (ख) जं तमंमपविटें ....""सूदयडं'..... "सूदयदे छत्तीसपद सहस्साणि ।'-जयधवला पृ० 23, तथा पृ० 85 6 (क) नन्दी सूत्र चूर्णि पृ० 57, हारी० वृत्ति पृ० 66, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " अर्थागमरूप से सूत्रकर्ता (उपदेशसूत्रकर्ता) भ० महावीर हैं, वाणा या उपदेश उनके अंगभूत होने से इसके अन्त में अंग-शब्द और जोड़ा गया। इस कारण भी इस शास्त्र का नाम सूत्रकृतांग प्रचलित हो गया। - क्षीराश्रवादि अनेकलब्धिरूप योगों के धारक गणधरों ने भगवान् से अर्थरूप में सुनकर अक्षरगुण मतिसंघटना और कर्मपरिशाटना (कर्मसंक्षय), इन दोनों के योग से अथवा वागयोग और मनोयोग से शुभ अध्यवसायपूर्वक इस सूत्र की रचना की, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत हो गया।' / सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं / प्रथम श्रु तस्कन्ध में 16 अध्ययन हैं, इस कारण इसका एक नाम 'गाथाषोडशक' भी है। / द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 7 अध्ययन हैं, ये विस्तृत होने कारण इसे 'महज्झयणाणि' (महाध्ययन) भी कहते हैं। प्रथम श्रु तस्कन्ध के 16 अध्ययनों के कुल 26 उद्देशक हैं, और द्वितीय श्रु तस्कन्ध के 7 अध्ययनों के सात / कुल 33 उद्देशक हैं / 33 ही समुद्देशनकाल हैं, तथा 36000 पदाग्र हैं।" L) सूत्रकृतांग में स्वसमय-परसमय, जीवादि नौ तत्त्वों, श्रमणों की आचरणीय हितशिक्षाओं तथा 363 दर्शन मतों का निरूपण है। 10 दिगम्बर साहित्य में सूत्रकृतांग की विषय वस्तु का निरूपण प्रायः समान ही है।११ 7 नन्दी० मलयगिरिवृत्ति 8 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 20 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 7 6 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 22 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 8 10 सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 22, शीलांक वत्ति पत्रांक 8 11 (क) समवायांग सू०६० (ख) नन्दीसूत्र सू० 82 (ग) अंग पण्णत्ती, जयधवला पृ० 112, राजवार्तिक 1120, धवला पृ० 100 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांगसूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) प्रथम अध्ययन : समय प्राथमिक [] सूत्रकृतांग सूत्र प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन का नाम 'समय' है। शब्द-कोष के अनुसार काल, शपथ, सौगन्ध, आचार, सिद्धान्त, आत्मा, अंगीकार, स्वीकार, संकेत, निर्देश, भाषा, सम्पत्ति, आज्ञा, शर्त, नियम, अवसर, काल विज्ञान, समयज्ञान, नियम बांधना, शास्त्र, प्रस्ताव, आगम, नियम, सर्वसूक्ष्मकाल, रिवाज, सामायिक, संयमविशेष, सुन्दर परिणाम, मत, परिणमन, दर्शन, पदार्थ आदि 'समय' के अर्थ हैं। प्रस्तुत में 'समय' शब्द सिद्धान्त, आगम, शास्त्र, मत, दर्शन, आचार एवं नियम आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।' C नियुक्तिकार ने 'समय' शब्द का 12 प्रकार का निक्षेप किया है-(१) नामसमय, (2) स्थापना समय, (3) द्रव्यसमय, (4) कालसमय, (5) क्षेत्रसमय, (6) कुतीर्थसमय, (7) संगार (संकेत) समय, (8) कुलसमय (कुलाचार), (6) गणसमय (संघाचार), (10) संकर-समय (सम्मिलित एकमत), (11) गंडीसमय (विभिन्न सम्प्रदायों की प्रथा) और (12) भावसमय (विभिन्न अनुकूल प्रतिकूल सिद्धान्त)। - प्रस्तुत अध्ययन में 'भावसमय' उपादेय है, शेष समय केवल ज्ञेय हैं / प्रस्तुत 'समय' अध्ययन में स्व-पर सिद्धान्त, स्व-परदर्शन, स्व-पर मत एवं स्व-पर-आचार आदि का प्ररूपण किया गया है, जिसे 'स्व-पर-समयवक्तव्यता' भी कहते हैं। _ समय-अध्ययन के चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में बन्धन और उसे तोड़ने का उपाय बताते हुए पंचमहाभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीव-तच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्टवाद, अफलवाद का वर्णन किया गया है। (ख) शब्दरत्नमहोदधि पृ०२००६ (घ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष; भाग 4 पृ० 328 1 (क) पाइअसद्दमहण्णवो पृ० 866 (ग) अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 7 पृ० 418 (ङ) समयसार ता० 00 151 / 214 / 13 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 26 3 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 30 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 10 (स) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 11 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] द्वितीय उद्देशक में नियतिवाद, अज्ञानवाद, चार प्रकार से बद्ध कर्म उपचित (गाढ) नहीं होता, इस प्रकार के बौद्धों के बाद का वर्णन है। - ततीय उद्देशक में आधाकर्म आहार-सेवन से होने वाले दोष बताये गए हैं। इसके पश्चात् विभित्र कृतवादों (जगत्-कर्तृत्ववादों), तथा स्व-स्वमत से मोक्षप्ररूपकवाद का निरूपण है। - चतुर्थ उद्देशक में पर-वादियों की असंयमी गृहस्थों के आचार के साथ सदृशता बताई गई है। अन्त में अविरतिरूप कर्मबन्धन से बचने के लिए अहिंसा, समता, कषायविजय आदि स्वसमय (स्वसिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है / स्व-समय प्रसिद्ध कर्मबन्धन के 5 हेतुओं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की दृष्टि से पर-समय (दूसरे दर्शनों, वादों और मतों के आचार-विचार) को बन्धनकारक बता कर उस . बन्धन से छुटने का स्व-समय प्रसिद्ध उपाय इस अध्ययन में वर्णित है।" / प्रस्तुत प्रथम अध्ययन सूत्र संख्या 1 से प्रारम्भ होकर सूत्र 88 पर समाप्त होता है / / सूत्रकृतांग में वर्णित वादों के साथ बौद्ध ग्रन्थ सुत्तपिटक के दीघनिकायान्तर्गत ब्रह्मजाल सूत्र में वणित 62 वादों की क्वचित्-क्वचित् समानता प्रतीत होती है। [J] 4 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 61 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 11 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 32 (पूर्वार्द्ध) (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 11 6 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 32 (उत्तरार्द्ध) (ख) सूत्रकृतांग शीलक वृत्ति पत्रांक 11 7 (क) सूत्रकृतांग सूत्र (सूयगडंग सुत्तं) मुनि जम्बूविजय जी सम्पादित प्रस्तावना पृ० 6-7 (ख) सूत्रकृतांग (प्र० श्र०) पं० मुनि हेमचन्द्र जी कृत व्याख्या---उपोद्घात पृ० 20 8 सूयगडंग सुत्त, मुनि जम्बूविजय जी सम्पादित प्रस्तावना पृ०६-७ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं 'समयों प्रथम अध्ययन : समय पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक बंध-मोक्ष स्वरूप :--- 1. बुज्मिज्ज तिउज्जा बंधणं परिजाणिया। ___किमाह बंधणं वोरे ? किं वा जाणं तिउट्टई // 1 // 2. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि / अन्नं वा अणुजाणाति एवं दुक्खा , मुच्चई // 2 // 3. सयं तिवायए पाणे अदुवा अण्णेहि घायए। हणतं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्ढेति अप्पणो // 3 // 4. जस्सि कुले समुष्पन्ने जेहि वा संबसे गरे / ___ ममाती लुप्पती बाले अन्नमन्हि मुच्छिए // 4 // 5. वित्तं सोयरिया चेव सव्वमेतं न ताणए / ___ संखाए जीवियं चेव कम्मणा उ तिउट्टति // 5 // 6. एए गंथे विउक्कम्म एगे समण-माहणा। अयाणंता विउस्सिता सत्ता कामेहि माणवा // 6 // 1. मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए / बन्धन का स्वरूप जान कर उसे तोड़ना चाहिए। (श्री जम्बूस्वामी ने सुधस्विामी से पूछा) वीर प्रभु ने किसे बन्धन कहा है ? किसे जान कर जीव बन्धन को तोड़ता है? 2. [श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-]जो मनुष्य सचित्त (द्विपद चतुष्पद आदि सचेतन प्राणी हो अथवा अचित्त (चैतन्य रहित सोना चांदी आदि जड़) पदार्थ अथवा भुस्सा आदि तुच्छ वस्तु हो, या थोड़ा-सा भी परिग्रह के रूप में रखता है अथवा दूसरे के परिग्रह रखने की अनुमोदना करता है [इस प्रकार] वह दुःख से मुक्त नहीं होता। __3, जो व्यक्ति स्वयं (किसी प्रकार से) प्राणियों का वध करता है अथवा दूसरों से वध कराता है या प्राणियों का वध करते हुए अन्य व्यक्तियों का अनुमोदन करता है वह मारे जाने वाले प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है (उपलक्षण से-अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बढ़ाता है)। 4 मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न हुआ है, और जिसके साथ निवास करता है वह अज्ञ (बाल) जीव Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय उसमें ममत्व बुद्धि रखता हुआ पीड़ित होता है / वह मूढ़ दूसरे-दूसरे पदार्थों में मूच्छित (आसक्त) होता रहता है। 5. धन-सम्पत्ति और सहोदर भाई-बहन आदि ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं / (यह) जान कर तथा जीवन को भी (स्वल्प) जान कर जीव कर्म (बन्धन) से छूट (पृथक् हो) जाता है। 6. इन (पूर्वोक्त) ग्रन्थों-सिद्धान्तों को छोड़कर कई श्रमण (शाक्यभिक्ष आदि) और माहण (वृहस्पति मतानुयायी--(ब्राहण) [स्वरचित सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक] बद्ध हैं। ये अज्ञानी मानव काम-भोगों में आसक्त रहते हैं। विवेचन--सर्वप्रयम बोधिप्राप्ति का संकेत क्यों ?-प्रथम सूत्र में बोधि-प्राप्ति की सर्वप्रथम प्ररणा इस लिए दी गई कि बोधप्राप्ति या सम्बोधि लाभ अत्यन्त दुर्लभ है / यह तथ्य सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि आगमों में यत्र तत्र प्रकट किया हैं' बोधिप्राप्ति इसलिए दुर्लभ है कि एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों को बोध प्राप्ति होना सम्भव नहीं है / संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ही बोधि प्राप्त हो सकती है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रियों में जो तिर्यञ्च हैं उनमें बहुत ही विरले पशु या पक्षी को बोधि सम्भव है। जो नारक हैं, उन्हें दुःखों की प्रचुरता के कारण बोधि प्राप्ति का बहुत ही कम अवकाश है / देवों को भौतिक सुखों में आसक्ति के कारण बोधि लाभ प्रायः नहीं होता। उच्चजाति के देवों को बोधि प्राप्त होना सुगम है, परन्तु वे बोधि प्राप्त हो जाने पर भी बन्धनों को तोड़ने के लिए ब्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, तप-संयम में पुरुषार्थ नहीं कर सकते / इसलिए वहाँ बोधि लाभ होने पर भी तदनुरूप आचरण नहीं होने से उसकी पूरी सार्थकता नहीं होती। रहा मनुष्यजन्म, उसमें जो अनार्य हैं, मिथ्यात्वग्रस्त हैं, महारम्भ और महापरिग्रह में रचे-पचे हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना कठिन है। जिस व्यक्ति को आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, परिपूर्ण इन्द्रियाँ, परिपूर्ण अंगोपांग, स्वस्थ, सशक्त शरीर, दीर्घायुष्य प्राप्त है उसी मनुष्य के लिए बोधि प्राप्त करना सुलभ है / अत: अभी से, इसी जन्म में, बोधि प्राप्त करने का शास्त्रकार का संकेत है / बोध कसा व कौन सा है ? -- यों तो एकेन्द्रिय जीवों में भी चेतना सुषुप्त होती है, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में वह उत्तरोत्तर विकसित है, त्रस जीवों को भूख प्यास, सर्दी गर्मी, सन्तान पोषण, स्वरक्षण आदि का सामान्य बोध होता है परन्तु यहाँ उस बोध से तात्पर्य नहीं, यहाँ आत्मबोध से तात्पर्य है जिसे आगम की भाषा में बोधि कहा गया है। वास्तव में यहां 'बुज्झिज्ज' पद से संकेत किया गया है 1 देखिये बोधि-दुर्लभता के आगमों में प्ररूपित उद्धरण-"संबोही खलु पेच्च दुल्लहा"-सूत्रक० सूत्र 86 / "णो सुलहं बोहिं च आहिय"-सूत्रकृ. सूत्र 161 "बहुकम्म लेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसि"-- -उत्तरा० 8.15 आत्मा से सम्बन्धित बोध का समर्थन आचाराग (श्र.१, अ० 1, सू०१) से मिलता है-"अस्थि मे आया उववाइए ? पत्थि मे आया उवत्राइए ? केवा अहमंसि ? केवा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ?' श्री शंकराचार्य ने भी आत्म-स्वरूप के बोध की ओर इंगित किया है "कोऽहं ? कथमिद ? जातं, को वै कर्ताऽस्य विद्यते ? उपादानं किमस्तीह ? विचारः सोऽयमीदशः // " Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 कि 'मैं कौन हूँ मनुष्य लोक में कैसे आया ? आत्मा बन्धन रहित होते हुए भी इस प्रकार के बन्धन में क्यों और कैसे पड़ा? इन बन्धनों के कर्ता कौन हैं ? बन्धनों को कौन तोड़ सकता है ? आदि सब प्रश्न आत्मबोध से सम्बन्धित हैं। बन्धनों को जान कर तोडो-प्रथम गाथा के द्वितीय चरण में यही बात कही गई है कि पहले बन्धनों को जानो, समझो कि वे किस प्रकार के और किन-किन कारणों के होते हैं ? इस वाक्य में यह आशय भी गर्भित है कि बन्धनों को भलीभाँति जाने बिना तुम उन्हें तोड़ोगे कैसे ? या तो तुम एक बन्धन को तोड़ दोगे, वहाँ दुसरा वन्धन सुक्ष्म रूप से प्रविष्ट हो जाएगा। गृहस्थाश्रम के बन्धन तोड़ कर साधु जीवन अंगीकार कर लेने पर भी मुरु-शिष्य, गृहस्थ, श्रावक श्राविका, विचरण क्षेत्र, वस्त्र, पात्रादि उपकरणों के मोह ममत्वरूप वन्धन प्रविष्ट हो जाने की आशका हैं। अथवा अबन्धन को बन्धन और बन्धन को अबन्धन समझ कर विपरीत पुरुषार्थ किया जायगा। इस वाक्य में जैन दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त -ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः-ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है, का प्रतिपादन किया गया है / __ वेदान्त, सांख्य आदि कई दर्शन ज्ञान मात्र से मुक्ति बताते हैं / मीमांसा आदि दर्शन एकान्त कर्म (क्रिया) से कल्याण प्राप्ति मानते हैं; किन्तु जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया दोनों से मुक्ति मानता है। इसीलिए यहाँ स्पष्ट कहा गया है - ज्ञपरिज्ञा से पहले उन बन्धनों को जानो, समझो और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन्हें त्यागने का पुरुषार्थ करो / अकेला ज्ञान पंगु है और अकेली क्रिया अन्धी है। अतः बन्धन का सिर्फ ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं। इसी प्रकार अज्ञानपूर्वक उग्र तपश्चरण आदि क्रिया करना भी उचित नही है / ऐसी अन्धी क्रियाएँ बन्धनों को तोड़ने के बदले आसक्ति, मोह, प्रसिद्धि, माया, अहंकार, प्रदर्शन, आडम्बर आदि से जनित बन्धनों में और अधिक डाल देती है। इसलिए यहाँ कहा गया है-बन्धनों को परिज्ञान पूर्वक तोड़ने की क्रिया करो। दो प्रश्न : बधन को कैसे जानें : कैसे तोड़ें ? –यही कारण है कि इस गाथा के उत्तरार्द्ध में बन्धन को जानने और तोड़ने के सम्बन्ध में दो प्रश्न किये गये हैं कि '(1) वीर प्रभु(तीर्थंकर महावीर) ने बन्धन किसे कहा है ? और (2) किसे जान कर जीव बन्धन को तोड़ता है ?" वास्तव में इन दोनों प्रश्नों के उत्तर के रूप में यह समग्र द्वितीय अंग सूत्र (सूत्रकृतांग) है / वन्धन का स्वरूप-सामान्य जोव रस्सो, शृखला, कारागार, तार, अवरोध आदि स्थूल पदार्थों को तन्धन समझता है। परन्तु वे द्रव्य बन्धन हैं जो शरीर से सम्बन्धित है। अमूर्त, अदृश्य, अव्यक्त आत्मा इस प्रकार के द्रव्य बन्धनों से नहीं बन्धता / इसलिए यहाँ आत्मा को बांधने वाले भाव बन्धन को जानने के सम्बन्ध में प्रश्न है। भाव बन्धन का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जिसके द्वारा आत्मा परतंत्र कर दिया जाता है, वह बन्धन है।' यहाँ 'बन्धन' या बन्ध जैन दर्शन मान्य कर्म सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है इसलिए वृत्तिकार ने इसका 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 12 4 'बध्यते परतन्त्रीक्रियते आत्माऽनेनेति बन्धनम' --कर्मग्रन्थ टीका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय लक्षण इस प्रकार किया है--"आत्मप्रदेशों के साथ जो (कर्मपुद्गल) क्षीरनीरवत् एकमेक होकर स्थित हो जाते हैं, रहते हैं, या बन्ध जाते हैं वे बन्धन या बन्ध कहलाते हैं। ज्ञानावरणीय आदि आट प्रकार के कर्म ही एक प्रकार के बन्धन हैं / तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध का लक्षण दिया है- 'कषायसहित (रागढ षादि परिणामयुक्त) जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध है / ' बन्धन (कमबन्ध) के कारण प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'बंधणं' (वन्धन) शब्द में बन्धन के कारणों को भी ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धन रूप हैं, इतना जान लेने मात्र से बन्धन से छुटकारा नहीं हो सकता, यही कारण है कि आगे की गाथाओं में बन्धन का स्वरूप न बता कर बन्धन के कारणों का स्वरूप और उनकी पहचान बतायी गई है। अगली गाथाओं में विवक्षित परिग्रह, हिसा, मिथ्यादर्शन आदि बन्धन (कर्मवन्धन) के कारण हैं / इसलिए यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके बन्धन शब्द का प्रयोग किया गया है / निष्कर्ष यह है कि ज्ञातावरणीय आदि कर्मों के कारण रूप हैं .... मिथ्यात्व. अविरति.प्रमाद, कषाय और योग, अथवा परिग्रह और आरम्भ आदि / ये ही यहाँ बन्धन हैं / तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध के 5 मुख्य कारण बताये गए हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग / इन्हीं को लेकर यहाँ दो प्रश्न वि.ये गये हैं। बन्धन का मुख्य कारण : परिग्रह -- प्रथम गाथा में बन्धन (के कारण) के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया था / अतः उसके उत्तर के रूप में यह दूसरी गाथा है / पहले बताया गया था कि 'अविरति' कर्मवन्ध के पांच मुख्य कारणों में से एक है / अविरति के मुख्यतया पांच भेद हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह / इनमें परिग्रह को कर्मबन्ध का सबसे प्रबल कारण मानकर शास्त्रकार ने सर्वप्राम उसे ही ग्रहण किया है। क्योंकि हिंसाएँ परिग्रह को लेकर होती है, संसार के सभी समारम्भाप कार्य 'मैं और मेरा, इस प्रकार की स्वार्थ, मोह, आसक्ति, ममत्व और तृष्णा की बुद्धि से होते हैं और यह रिग्रह है। असत्य भी परिग्रह के लिए बोला जाता है / चोरी का तो मूल ही परिग्रह है और अब्रह्मचर्य सेवन भी अन्त रंग परिग्रह-आसक्ति के कारण होता है / इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मायामृपा तक के 17 पापों का स्थान, आदिकारण परिग्रह ही हैं। इस कारण परिग्रह समस्त कर्मबन्धनों का प्रधान कारण बनता है। परिग्रह का लक्षण और पहचान -किसी भी सजीव और निर्जीव, भावात्मक पदार्थ के प्रति ममत्त्व बुद्धि होने के साथ उसे ग्रहण करने पर ही वह परिग्रह होता है, अन्यथा नहीं / परिग्रह का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है....किसी भी पदार्थ को द्रव्य और भावरूप से सभी ओर से ग्रहण करना या ममत्वबुद्धि से रखना परिग्रह है। 5 बध्यते जीवप्रदेशैरन्योन्यानुत्रेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनम् / ज्ञानाबरणीयाष्टप्रकार कर्म / -सूत्रकृ० शी टीका पत्र 12 6 (क) सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त स बन्ध / -तत्त्वार्थ० अ० 8 सू० 3 7 (क) सूत्र. शीला टीका० पत्र० 12 -"तद्धतको वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा / " (ख) मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः / ' -तत्त्वार्थ० अ० 8 सू० 1 (ग) सूत्रकृतांग प्रथम भाग समयार्थबोधिनी व्याख्या सहित (पूज्य श्री घासीलाल जी म.) पृ० 20 8 (क) परि-समन्ताद् ममत्वबुद्धया द्रव्यभावरूपेण गह्यते इति परिग्रहः / --सूत्र. अमर सुखबोधिनी व्याख्या 22 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 11 किसी वस्तु को केवल ग्रहण करने मात्र से वह परिग्रह नहीं हो जाती अन्यथा पंचमहाव्रती अपरिग्रही माधु के लिए वस्त्र पात्र अन्य धर्मोपकरण उपाश्रय, शास्त्र, पुस्तक, शरीर, शिष्य, भक्त आदि सब परिग्रह हो जाते / वस्तुत: जहाँ मूर्छा (आसक्ति) हो, वहीं परिग्रह है। दशवैकालिकसूत्र में यही कहा है-साधु साध्वी जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन आदि धर्मोपकरण रखते हैं या धारण करते हैं, वह संयम पालन और लज्जा निवारण के लिए है। इसलिए प्राणिमात्र के प्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने उक्त धर्मोपकरणसमूह को परिग्रह नहीं कहा है, सभी तीर्थंकरों ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है, यही वात महावीर ने कही है। ___ इसीलिए एक आचार्य ने कहा है--मुर्छा से जिनकी बुद्धि आच्छादित हो गई है उनके लिए सारा जगत् ही परिग्रह रूप है और जिनके मन-मस्तिष्क मूर्छा से रहित हैं, उनके लिए सारा जगत् ही अपरिग्रहरूप है / महाभारत (4172) में भी स्पष्ट कहा है- 'बन्ध और मोक्ष के लिए दो ही पद अधिकतर प्रयुक्त होते हैं - "मम' और 'निर्मम'। जब किसी पदार्थ के प्रति मम (ममत्त्व मेरापन) मेरा है यहो भाव आ जाता हैं तब प्राणी कर्म-बन्धन से बंध जाता है और जब किसी पदार्थ के प्रति निर्मम (मेरा नहीं हैं) भाव आता है तब बन्धन से मुक्त हो जाता है।" परिग्रह के दो रूप-परिग्रह के शास्त्रकारों ने मुख्यतः दो रूप बताए हैं --ब्राह्य और आभ्यन्तर / बाह्य परिग्रह के मुख्यतया दो भेद यहाँ मूल पाठ में बताए हैं-'चित्तमतमचितं वा परिगिज्य-सचेतन परिग्रह और अचेतन (जड़) परिग्रह / सचित्त परिग्रह में मनुष्य, पशु, पक्षी, (द्विपद, चतुष्पद) तथा वृक्ष, पृथ्वी, वनस्पति फल, धान्य आदि समस्त सजीव वस्तुओं का समावेश हो जाता है और अचित्त परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु (मकान) सोना, चाँदी, मणि, वस्त्र, वर्तन, सिक्के, नोट आदि सभी निर्जीव वस्तुओं का समावेश होता है। भगरतीसूत्र में कर्म, शरीर और भण्डोपकरण-इन तीनों को ममत्त्वयुक्त होने पर परिग्रह बताया है आभ्यन्तर परिग्रह के क्रोध आदि 4 कषाय. हास्य आदि नो कषाय और मिथ्यात्त्व (विपरीत श्रद्धा मान्यता आदि की पकड़), यश, प्रतिष्ठा, लिप्सा, वस्तु न होते हुए भी उसके प्रति लालसा, आसक्ति आदि 14 प्रकार परिग्रह के बताए हैं। -~-दशव० 6 / 16-20 जं पि वत्थं व पायं व कंबलं पायपुछणं / तं पि संजमलज्जटठा धारंति परिहरंति य / / न सो परिग्गहो बुत्तो नायपुत्तेण ताइणा / मुच्छा परिग्गहो बुत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा // मूळ्याच्छन्नधियां सर्व जगदेव परिग्रहः / मुर्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः / / द्वे पदे बन्ध-मोक्षाय निर्ममेति ममेति च / ममेति बध्यते जन्तुः निर्ममेति विमुच्यते / / - महाभारत 4/72 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग---प्रथम अध्ययन-समय संसार में जो कुछ दिखाई देता है, वह या तो जड़ होता है अथवा चेतन, इन दोनों में विश्व के समस्त पदार्थ आ जाते हैं। इन्हीं दोनों को लेकर बाह्य या आभ्यन्तर परिग्रह होता है। इसीलिए शास्त्रकार ने 'चित्तमंतमचित्तं' ये दो पद सूत्ररूप में यहाँ दिये हैं / 15 "किसामवि' का तात्पर्य -वृत्तिकार ने इस पद के दो रूप देकर तीन अर्थ सुचित किये हैं --'किसम्मवि' (कृशमपि) थोड़ा-सा भी या तुच्छ तण, तुष आदि तुच्छ पदार्थ भी तथा 'कसमवि' (कसमपि) जीव का उस वस्तु को ममत्वबुद्धि से या परिग्रहबुद्धि से प्राप्त करने का परिणाम / परिग्रह रखना जैसे कर्मबन्ध का कारण है, वैसे बन्धन के भय से अपने पाम न रखकर दूसरे के पास रखाना भी कर्मवन्ध का कारण है। इसी प्रकार, जो दूसरों को परिग्रह ग्रहण, रक्षण एवं संचित करने की प्रेरणा अनुमोदन या प्रोत्साहन देता है, इन्हें भी शास्त्रकार ने परिग्रह और कर्मवन्ध का कारण मानते हुए कहा है- 'परिगिज्ज्ञ अन्नं वा अणुजाणाइ / 14 परिग्रह कर्मबन्ध का मूल होने से दुखरूप -परिग्रह दुःखरूप इसलिए है कि अप्राप्त परिग्रह को प्राप्त करने की इच्छा होती है, नष्ट होने पर शोक होता है, प्राप्त परिग्रह की रक्षा में कष्ट होता है और परिग्रह के उपभोग से अतृप्ति रहती है। परि ग्रह से वैर. द्वेष, ईर्मा, छल-कपट, वित्तविक्षेप, मद, अहंकार अधीरता, आत-रौद्रध्यान, विविध पापकर्म बढ़ जाते हैं, इसलिए परिग्रह अपने आप में भी दुःख-कारक है। फिर परिग्रह कर्मबन्ध का कारण होने से उसके फलस्वरूप असातावेदनीयकर्म के उदय से नाना दुःखरूप कटुफल प्राप्त होते हैं इसो लिए यहाँ कहा गया है –'एवं दुक्खा ण मुच्चइ'--वृत्तिकार ने इसका तात्पर्यार्थ बताया है----"परिग्रह अष्ट प्रकार के कर्मबन्ध तथा तत्फलस्वरूप असातोदयरूप दुःख प्राप्त कराता है, इसलिए दुःखरूप है, अतः परिग्रही इस दुःख से मुक्त नहीं होता।" हिंसा : कर्मबन्धन का प्रबल कारण -- तीसरी गाथा में भी दुसरी गाथा की तरह कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति आदि 5 मुख्य कारणों में से अविरतिरूप कारण के अन्तर्गत हिंमा (प्राणातिपात) को भी कर्मबन्धन का प्रबल कारण बताया गया है। वत्तिकार प्रकारान्तर से प्राणातिपात (हिंसा) को बन्धनरूप बताते हैं / उनका आशय यह है कि परिग्रही व्यक्ति गृहीत परिग्रह से असन्तुष्ट होकर फिर परिग्रह के उपार्जन में तत्पर होता है. उस समय उपाजित परिग्रह में विरोध करने, अधिकार जमाने या उसे ग्रहण करने वाले के प्रति हिंसक प्रतीकार वैर-विरोध, निन्दा, द्वेष, मारपीट, उपद्रव या वध करता है, इस प्रकार अपने धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद मकान, दुकान, परिवार, जाति,सम्प्रदाय, मत, पंथ, राष्ट्र, प्रान्त, नगर-ग्राम आदि पर ममतावश इनपरिग्रहों की रक्षा के लिए मन, वचन, काया से दूसरे के प्राणों का अतिपात (घात) करता है, इसलिए परिग्रहरक्षार्थ प्राणातिपात (हिंसा) भी कर्मबन्ध का कारण बताने के लिए शास्त्रकार ने यह तीसरी गाथा दी है।१५ 12 सूत्रकृतांग शीलांक टीका पत्रांक 12 13 वही, पत्रांक 13, “कसनं कसः, परिग्रहबुद्धया जीवस्य गमनपरिणामः !" 14 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 13 15 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-१३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 13 प्राणातिपात क्या और कैसे ?... हिसाबा जैनशारत्र प्रसिद्ध पर्यायवाची नाम प्राणातिपात' है / हिंसा का अर्थ सहसा साधारण एवं जैनेतर जनता किसी स्थल प्राणी को जान से मार देना, प्रायः इतना ही समझती है। इसलिए विशेष अर्थ का द्योतक प्राणातिपात शब्द रखा है। प्राण भी केवल श्वासोच्छवास / इसके अतिरिक्त : प्राण और मिला कर 10 बताए हैं। इसलिए प्राणातिपात का लक्षण दिया गया है- 'पाँच इन्द्रियों के बल मन, वचन. कायबल, उच्छवास-निश्वासबल एवं आयुष्यबल-ये 10 बल प्राण हैं। इनका वियोग करना, इनमें से किसी, एक प्राण को नष्ट करना भी है हुंचाना या विरोध कर देना प्राणातिपात (हिंसा) है / इसलिए इस गाथा में कहा गया है - 'सयं तिवायए पाणे / 13 परिग्रहासक्त व्यक्ति दूसरे के प्राणों का घात स्वयं ही नहीं करता, दूसरों के द्वारा भी धात करवाता है। स्वयं के द्वारा हिंसा सफल न होने पर दूसरों को स्वार्थभाव-मोह-ममत्व से प्ररित-प्रोत्साहित करके हिंसा करवाता है, हिसा में सहयोग देने के लिए उकसाता है / अथवा हिंसा के लिए उत्तेजित करता है, हिसोत्तेजक विचार फैलाता है, लोगों को हिसा के लिए अभ्यस्त करता है। इससे भी आगे बढ़कर कोई व्यक्ति हिंसा करने वालों का अनुमोदन समर्थन करता है, हिसाकर्ताओं को धन्यवाद देता है. हिसा के लिए अनुमति, उपदेश या प्रेरणा देता है, अथवा हिंसा के मार्ग पर जाने के लिए बाध्य कर देता है, इस प्रकार कृत, कारित और अनुमोदित तीनों ही प्रकार की हिसा (प्राणातिपात) है / और वह पापकर्मबन्ध का कारण है / इसलिए यहाँ बताया गया है- अदुवा अण्णेहिं घायए हणत वाऽणुजाणाइ / " इस पाठ से शास्त्रकार ने उन मतवादियों के विचारों का खण्डन भी ध्वनित कर दिया है जो केवल काया से होने वाली हिंसा को ही हिसा मानते हैं, अथवा स्वयं के द्वारा की जाने वाली हिंसा को ही हिंसा समझते हैं, दूसरों से कराई हुई हिंसा को, या मैं दूसरों के द्वारा कृत हिंसा की अनुमोदना को हिंसा नहीं समझते / मनुस्मृति में भी हिंसा के समर्थकों आदि को हिंसक की कोटि में परिगणित किया गया है।५७ त्रिविध हिंसाः कर्मबन्ध का कारण क्यों ?-पूर्वोक्त त्रिविध हिसा कर्मबन्ध का कारण क्यों बनती है ? इसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- "वैरं वति अपणो" / आशय यह है कि हिसा करने, कराने तथा अनुमोदन करने वाला व्यक्ति हिस्य प्राणियों के प्रति अपना वैर बढ़ा लेता है / जिस प्राणी का प्राणातिपात किया कराया जाता है, उसके मन में उक्त हिंसक के प्रति द्वेष, रोष, घृणा तथा प्रतिशोध की क्रूर 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-१३-. "पंचेन्द्रियाणि विविध बल च; उच्छ्वास-नि:श्वासमथान्यदायुः / प्राणा दर्शले भगवदभिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा // " 17 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 13-- "अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति धातकाः // " -मनुस्मृति, चाणक्यनीति -किसी जीव की हिंसा का अनुमोदन करने वाला, दूसरे के कहने से किसी का वध करने वाला, स्वयं उस जीव की हत्या करने वाला, जीव हिंसा से निष्पन्न मांस आदि को खरीदने-बेचने वाला, मांसादि पदार्थों को पकाने वाला, परोसने वाला या उपहार देने वाला, और हिंसा निष्पन्न उक्त मांसादि पदार्थ को स्वयं खाने-सेवन करने वाला, ये सब हिंसक की कोटि में हैं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन--समय भावना जगती है, फलतः उसके मन में वैरभाव बढ़ता है। इसी प्रकार हिंसक के मन में एक ओर अपने शरीर, परिवार, धन या अपने माने हुए सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति राग, मोह, ममत्व आदि जागते हैं, तथा दूसरी ओर हिंस्य प्राणी के प्रति जागते हैं-द्वेष, घृणा, रता, रोष आदि / ऐसी स्थिति में ये राग और द्वष ही कर्मबन्ध के कारण हैं / उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है- "राग और द्वेष ये दोनों कर्म के बीज है' कर्मबन्ध के मूल कारण है। जब हिंसा की, कराई या अनुमोदित की जाती है, तव राग, द्वेष की उत्पत्ति अवश्य होती है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है-रागद्वेषादि का मन में प्रादुर्भाव न होना ही अहिंसा है. इसके विपरीत रागद्वषादि का मन-वचन-काया से प्रादुर्भाव होना ही हिंसा है / यही जिनागम का सार है।, एक बार हिस्य प्राणियों के साथ वैर बंध जाने के बाद जन्म-जन्मान्तर तक वह बैर-परम्परा चलती रहती है। बैर-परम्परा की वद्धि के साथ कर्मबन्धन में भी वृद्धि होती जाती है। क्योंकि पूर्वबद्ध अशुभकर्मों का क्षय नहीं हो पाता, और नये अशुभकर्म बंधते जाते हैं।" ___"वेर वडढेति अप्पणो' का दूसरा अर्थ-इस पंक्ति का एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि दूसरे प्राणियों का प्राणघात करने, कराने और उसका अनुमोदन करने वाला व्यक्ति दूसरे प्राणियों की हिसा तो कर या करा सके अथवा नहीं, राग-द्वेष या कषायवश वह अपनी भावहिंसा तो कर ही लेता है जिसके फलस्वरूप अपनी आत्मा को कर्मवन्धन के चक्र में डाल देता है। ऐसी स्थिति में अपनी आत्मा ही अपना शत्रु वनकर वैर-परम्परा को बढ़ा लेता है / असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य आदि भी बन्धन के कारण यहाँ प्राणातिपात शब्द उपलक्षण रूप है,१६ इसलिए मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन (अब्रह्मचर्य) आदि भी अविरति के अन्तर्गत होने से कर्मबन्ध के कारण समझ लेना चाहिए, भले ही इस सम्बन्ध में यहाँ साक्षात् रूप से न कहा गया हो, क्योंकि मृषावाद आदि का सेवन करते समय भी रागद्वेषादिवश आत्मा के शुभ या शुद्ध परिणामों की हिंसा अथवा आत्मा के भावप्राणों की हिंसा अवश्य होती है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में असत्य आदि सभी पापात्रवों को हिंसा में समाविष्ट करते हुए कहा गया है- आत्मा के परिणामों की हिंसा के हेतु होने से मृषावाद (असत्य) आदि सभी पापास्रव एक तरह से पावाद आदि का कथन तो केवल शिष्यो को स्पष्ट बोध करने के लिए किया गया है / 21 18 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृष्ठ-४०, 43 / / उत्तराध्ययन अ० 32/7 -'रागो य दोसो विय कम्मवीयं अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति / तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।--पुरुषार्थ सि० 44 श्लो. 16 जो दूसरे का भी बोध कराता है, उसे उपलक्षण कहते हैं। -सम्पादक 20 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 13 (ख) ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख; ये चार भावप्राण हैं / 21 आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात सर्वमेव हिंसेति / अनतवचनादि केबलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।----पुरुषार्थ 42 श्लो० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 15 जन्म, संवास, अतिसंसर्ग आदि का प्रभाव : कर्मबन्धकारण-चौथी गाथा में जन्म, संवास एवं अतिसंसर्ग के कारण होने वाली मूर्छा, ममता या आसक्ति को कर्मबन्धन का कारण बताया गया है / मनुष्य जिस कूल (उपलक्षण से) राष्ट्र, प्रान्त, नगर, देश, जाति-कौम, वंश आदि में उत्पन्न होता है जिन मित्रों, हमजोलियों, पत्नी-पुत्रों, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, मामा, आदि के साथ रहता है, उसके प्रति वह अज्ञानवश मोह-ममता करता है। इसी प्रकार वह जिन-जिन के सम्पर्क में अधिक आता है, उन्हें वह मूढ़ 'ये मेरे' हैं समझ कर उनमें आसक्त होता है / जहाँ जिस राजीव या निर्जीव पदार्थ पर राग (मोह आदि) होता है. वहाँ उससे भिन्न विरोधी, अमनोज्ञ या अपने न माने हा पदार्थ पर उसे अरुचि, द्वेष, घणा या वैर विरोध होना स्वाभाविक है / अतः ममता, मूर्छा या आसक्ति राग-द्वेष की जननो होने से ये कर्मबन्ध के कारण हैं। उन कर्मों के फलस्वरूप वह अज्ञ नरक तिर्यंचादिरूप चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखित होता रहता है / वह जन्म-परम्परा के साथ ममत्वपरम्परा को भी बढ़ता जाता है। इस कारण कर्मवन्धन की श्रृंखला से मुक्त नहीं हो पाता। __ममाती लुप्पती बाले- इस वाक्य में शास्त्रकार ने एक महान सिद्धान्त का रहस्योद्घाटन कर दिया है कि ममता (मूर्छा, आसक्ति राम आदि) से ही मनुष्य कर्मबन्धन का भागी बन कर संसार परिभ्रमण करके पीड़ित होता रहता है। इससे यह ध्वनित होता है कि मनुष्य चाहे जिस कुलादि में पैदा हो, चाहे जिन सजीव-निर्जीव प्राणि या पदार्थों के साथ रहे, या उनके संसर्ग में आए किन्तु उन पर मेरेपन की छाप न लगाए, उन पर मोह-ममत्व न रखे तो कर्मबन्धन से पृथक् रह सकता है अन्यथा वह कर्मवन्धन में फंसता रहता है / अपने आपको खो देता है। 'बाल' का अर्थ बालक नहीं, अपितु मद्-असद्-बिवेक से रहित अज्ञान है / अन्नमन्नेहि मच्छिए-इसके स्थान पर पाठान्तर मिलता है-अण्णे अण्णेहि मुच्छिए / इस कारण इस वाक्य के दो अर्थ फलित होते हैं - प्रथम प्रकार के वाक्य का अर्थ है-परस्पर मूच्छित होते हैं / जबकि दूसरे वाक्य का अर्थ होता है- अन्य-अन्य पार्थों में मूच्छित होता है। परस्पर मूच्छित होने का तात्पर्य है-वह मूढ़ पत्नी. पूत्र आदि में मच्छित होता है, तो वे भी अज्ञानवश उस पर मच्छित होते हैं। अन्य-अन्य पदार्थों में मूच्छित होने का आशय वृत्तिकार ने व्यक्त किया है मनुष्य बाल्यावस्था में क्रमशः माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-साथी आदि पर मूर्छा करता हैं, युवावस्था आने पर पत्नी संतान, पौत्रादि पर उसकी आसक्ति हो जाती है। साथ ही अपने जाने-माने कुल, परिवार आदि के प्रति भी उसकी ममता बढ़ती जाती है। वृद्धावस्था में मूढ़ व्यक्ति की सर्वाधिक ममता अपने शरीर, धन, मकान आदि के प्रति हो जाती है। इस प्रकार की मूढ़ व्यक्ति की ममता-मूर्छा बदलती जाती है। विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न वस्तुओं पर ममता टिक जाती है। हमें पिछला पाठ अधिक संगत लगता है। वृत्तिकार ने उसी पाठ को मान कर व्याख्या की है / 22 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पनांक 13 (ख) आचारांग 112 / 23 (क) सूयगडंगसुत्तं पढ़मो सुयक्खंधा अ०१ / सू०४ (जम्बूविजयजी सम्पादित) पृ० 2 (ख) सूत्रकृतांग मूल शीलांकवृत्ति पत्रांक 13 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय बन्धन तोड़ने का उपाय--इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक की प्रथम गाथा में यह प्रश्न उपस्थित किया गया था कि किसे जान कर व्यक्ति बन्धन तोड़ पाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में पांचवीं गाथा में उसका उपाय दो प्रकार से बताया गया है (1) समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थ प्राणी की रक्षा करने में असमर्थ, (2) तथा जीवन को स्वल्प व क्षणभंगुर मान कर कर्मों के बन्धन को तोड़ सकता है अथवा कर्मों से छूट सकता है। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-"सव्वमेयं न तागइ जीविय चेव संखाए, कम्मुणा उतिउट्टइ।" इसका आशय यह है कि वन्धन यहाँ कोई जंजीर या रस्से का नहीं है, जिसे तोड़ने के लिए शारीरिक बल लगाना पड़े। यहाँ ‘परिणामे बन्धः' इस सिद्धान्तसूत्र के अनुसार मनुष्य के शुभाशुभ परिणामों-पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित परिग्रह, हिंसा एवं मोह-ममता-मुर्छा के भावों से जो कठोर अशुभ कर्मबन्धन होते हैं, वे मन से होते हैं. और उन बन्धनों को मन से तोड़ा भी जाता है। कहा भी है-'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण उनका मन ही है।' ___ मन से ममता-मूर्छा आदि के निकलते ही कर्मबन्धन स्वतः हट जायेंगे, आत्मा कर्मबन्धन से छूट जायेगा। मन ने कर्मवन्धन किये हैं, मन ही प्रशस्त चिन्तनबल से इन्हें तोड़ सकेगा। वित्त और सहोदर : समस्त ममत्व स्थानों के प्रतीक-वित्तं' शब्द से यहाँ केवल सोना चांदी सिक्के आदि धन ही नहीं, अपितु समस्त अचित्त पदार्थों को ग्रहण कर लेना चाहिए तथा 'सोयरिया' शब्द से सहोदर भाई-बहन से नहीं, जितने भी सजीव माता-पिता सगे सम्बन्धी-जन हैं उन सबको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये ही अचित्त और सचित्त पदार्थ ही ममत्वस्थान हैं। 2 5 जीवन स्वल्प और नाशवान-जिस शरीर पर मनुष्य की इतनी आसक्ति है, जिसे भोजनादि के द्वारा पुष्ट करता है, वस्त्र, मकान, आदि भोज्य साधन जिसकी रक्षा के लिए जुटाता है. जिस जीवन के लिए हिमा, असत्य. परिग्रह आदि अनेक पाप करता है क्या वह आयुष्य के टूटने पर उस शरीर या जीवन को बचा सकता है? और इस नाशवान जीवन का कोई भरोगा भी तो नहीं है कि कब नष्ट हो जाए / इस तथ्य को हृदयंगम करके इस जीवन के प्रति ममता को मन से निकाल फेंके। जीवन के लिए अशुभ कर्मबन्ध करने वाले तत्वों को हृदय से निकाल दे / 26 _ये सब भी त्राण रूप नहीं-धन, परिजन आदि सब पूर्वोक्त सचित्त-अचित्त द्रव्य प्राणान्तक शारीरिक सिक पीडा भोगते हए परिग्रही, हिंसक या ममत्वी जोव की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं / मनुष्य इसलिए इन पर ममत्व करता है कि समय आने पर जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु इष्ट-वियोग आदि के भयंकर दुःखों या जन्म-मरण परम्परा के घोरतम कष्टों से मेरी रक्षा करेंगे और मुझे शरण देंगे, परन्तु 24 (क) सूयकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-१४ 25 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक-१४ 26 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ०-४६ उत्तराध्ययन सूत्र 8/1 में देखिये-- अधूवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए / कि नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाहं दुग्मई न गच्छेज्जा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक: गाथा 1 से 6 समय आने पर ये कोई भी उसे बचा नहीं सकेंगे और न ही शरण दे सकेंगे। वह निरुपाय होकर देखता रह जायगा / निष्कर्ष यह है कि विश्व के कोई भी सजीव-निर्जीव पदार्थ किसी अन्य की प्राणरक्षा में समर्थ नहीं है, और यह जीवन भी स्वल्प और नाशवान है, यह ज्ञपरिज्ञा से सम्यक् जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सचित्त-अचित्त परिग्रह प्राणिवधादि पाप तथा स्वजनादि के प्रति मोह-ममत्व आदि बन्धन-स्थानों का त्याग करने से जीव कर्म से पृथक् हो जाता / अथवा 'कम्मुणा उ तिउट्टइ' इस वाक्य का यह भी अर्थ हो सकता है - उक्त दोनों तथ्यों को भली-भाँति जानकर जीव कर्म-संयमानुष्ठानरूप क्रिया करने से बन्धन से छूट जाता है / एए गंथे विउक्कम्म-पाँचवीं गाथा तक स्वसमय (सिद्धान्त) का निरूपण किया गया। छठी गाथा से पर-समय का निरूपण किया गया है। इसका आशय यह है कि कई श्रमण एवं माहण (ब्राह्मण) इन अर्हत्कथित ग्रन्थों-शास्त्रों अथवा सिद्धान्तों को अस्वीकार करके परमार्थ को नहीं जानते हुए मिथ्यात्व के उदय से मिथ्याग्रहवश विविध प्रकार से अपने-अपने ग्रन्थों-सिद्धान्तों में प्रबल रूप से बद्ध हैं / 27 चर्णिकार के अनुसार यहाँ शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि वे तथाकथित श्रमण-माहण परमार्थ को या विरति-अविरति दोष को नहीं जानकर विविध रूप से अपने-अपने ग्रन्थों या सिद्धान्तों से चिपके हुए हैं। इसी मिथ्यात्व के कारण वे न तो आत्मा को मानते हैं और न कर्मबन्ध और मोक्ष (मुक्ति) को। जब आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानते तो उसके साथ बंधने वाले कर्मों को, और कर्मबन्धन से मुक्ति को मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। कई माहण (दार्शनिक) आत्मा को मानते भी हैं तो वे सिर्फ पंचभौतिक या इस शरीर के साथ ही विनष्ट होने वाली मानते हैं, जिसमें न तो कर्मबन्ध 25 (क) वितेण ताणं न लभे पमत्ते-उत्तरा० अ० 4 मा० 5 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 46-50 (म) धनानि भूमौ पशवश्चव गोष्ठे, नारी महद्वारि जनाः श्मशाने / देहश्चितायां परलोकमार्ग, धर्मानुगो गच्छति जीव एकः // " (घ) जेहि वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुचि पोसेति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसेज्जा / णालं ते तव ताणाए वा सरणाए बा, तुमंपि तेसिं जालं ताणाए वा सरणाए वा / " -आचारांग सूत्र 66 .6 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 14 / (ख) संखाए त्ति (संख्याय) ज्ञात्वा जाणणा संखाए, 'अणिच्चं जीवितं' ति तेण कम्माई-कम्महेतू यत्रोडेज्जा।" -संखाए का अर्थ है, जानकर, क्या जानकर ? जीवन अनित्य है, यह जानकर इस तरीके से कर्मों कोकर्म के कारणों को तोड़े। -सूत्र० चूर्णि अथवा चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर भी है-'संधाति जीवितं चेव' जिसका अर्थ किया गया है. 'समस्तं धाति-संधाति मरणाय धावति'-समस्त प्राणी जीवन मृत्यु (विनाश) की ओर दौड़ रहा है। -सूत्र० चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 2 27 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 14 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 52-53 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय का झगड़ा है, न कर्मवन्ध से मुक्ति का कोई प्रश्न है। सांख्यादि दार्शनिक आत्मा को पृथक् तत्त्व मानते हैं तो भी वे उसे निष्क्रिय और अकर्ता मानते हैं, निर्गुण मानते हुए भी भोक्ता मानते हैं। वे मुक्ति मानते हुए भी केवल 25 तत्त्वों के ज्ञानमात्र से ही मुक्ति मानते हैं चारित्र की आवश्यकता नहीं समझते। मीमांसक आदि दार्शनिक कर्म (क्रिया) को मानते हैं, तो भी वे सिर्फ वेदविहित एवं प्रायः स्वर्गादिकामनामूलक कर्मों को मानते हैं, और मोक्ष तक तो उनकी दौड़ ही नहीं है। वे स्वर्ग को ही अन्तिम लक्ष्य मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक आत्मा को तो मानते हैं, परन्तु नैयायिक प्रमाण, प्रमेय आदि 16 तत्त्वों के ज्ञान से ही मुक्ति मान लेते हैं। त्याग, नियम, व्रत आदि चारित्र-पालन की वे आवश्यकता नहीं बताते और न उन्होंने कर्मबन्ध का कोई तर्कसंगत सिद्धान्त माना है। कर्मबन्धन से मुक्त करने की सारी सत्ता ईश्वर के हाथों में सौंप दी है। यही हाल प्रायः वैशेषिकों का है- वे बुद्धि सुख-दुःख, इच्छा आदि आत्मा के नौ गुणों के सर्वथा उच्छेद हो जाने को मुक्ति मानते हैं। इनकी मुक्ति भी ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर ही जीव के अदृष्ट के अनुसार कर्मफल भोग कराता है-बन्धन में डालता है या मुक्त करता है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए न तो अहिंसादि चारित्र-धर्म का पालन करने की अनिवार्यता बताई है और न ही कर्मबन्ध को काटने की कोई प्रक्रिया बताई है। संक्षेप में यही इन श्रमण-माणों का अपसिद्धान्त है। यही कारण है कि ये सब मतवादी आत्मा एवं उसके साथ बँधने वाले कर्म और उनसे मुक्ति के सम्बन्ध में अपनी असत् कल्पनाओं से ग्रस्त होकर कामभोगों में आसक्त हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-अयागंता विउस्सित्ता सत्ता कामेहिं माणवा / ' कर्मों का बन्धन जब हिंसादि के कारण नहीं माना जाता, तब उनसे छूटने की चिन्ता क्यों होगी? ऐसी स्थिति में उनका स्वच्छन्द कामभोगों में प्रवृत्त होना स्वाभाविक है।२८ 28 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्र 14 के आधार पर। (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या के आधार पर, पृ० 53-54 (ग) बौद्ध-नात्माऽस्ति, स्कन्धमात्र तु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम / अन्तरा भवसन्तत्या, कुक्षिमेति प्रदीपवत् / / -अभिधम्मस्थ०३ सांख्य पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रत:जटी मुण्डी शिखी वाणी मुच्यते नात्र संशयः / / --सांख्यकारिका माठरवृत्ति तस्मान्न बध्यते नंव मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् / संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः // -सांख्यकारिका 62 वैशेषिक--"धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायानां पदाथानां साधर्म्य वैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः // " -वैशेषिकसूत्र 1/4/2 नयायिक-"प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-बाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभास-छल-जातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः।" -न्यायसूत्र 1/1/1/3 मीमांसक-'चोदनालक्षणो धर्मः, चोदना इति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाह / ' -मीमांसासूत्र शाब्द मा० 1312 अतीन्द्रायाणामर्थानां, साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते / (वेद) वचनेन हि नित्येन, यः पश्यति स पश्यति / / -मो० श्लोक कुमारिलभट्ट चार्वाक-एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः / भद्र ! वृकपदं पश्य, यद् वदन्त्यबहुश्रुताः // -वृहस्पति आचार्य Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 'एगे समण-माहणा' की व्याख्या-प्रस्तुत गाथा में समण-माहणा का शब्दशः अर्थ होता हैश्रमण और माहन / परन्तु कौन श्रमण और कौन माहन ? इस प्रसंग में वृत्तिकार श्रमण का अर्थ शाक्य भिक्षु करते हैं और माहन का अर्थ ब्राह्मण करते हुए उसका स्पष्टीकरण करते हैं-बार्हस्पत्य (चार्वाकलोकायतिक) आदि। तथा आगे चलकर ब्राह्मणपद के प्रवाह में सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक एवं मीमांसक को भी ले लेते हैं, क्योंकि ये सभी मिथ्यात्व और अज्ञान से ग्रस्त हैं, अपनी-अपनी मिथ्यामान्यताओं से आग्रहपूर्वक चिपके हुए हैं / साथ ही स्वच्छन्दरूप से कामभोगों में आसक्त होने के कारण ये अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में भी प्रवृत्त होते हों, यह स्वाभाविक है / 26 पर-समय : मिथ्यात्वग्रस्त क्यों और कैसे ?- जैन सिद्धान्तानुसार मिथ्यात्व का लक्षण है-- जो वस्तु जैसी और वस्तुतः जिस स्वरूप में है, उसे वैसी और उस रूप में न मानकर विपरीत रूप में मानना। मिथ्यादर्शन मुख्यतया दो प्रकार का होता है“(१) यथार्थ तत्त्वों में श्रद्धा न होना, (2) अयथार्थ वस्तु पर श्रद्धा करना।" स्थानांगसूत्र में जीव, धर्म, मार्ग, साधु और मुक्त को लेकर मिथ्यात्व के 10 भेद बताये हैं। इसी प्रकार अक्रिया, अविनय, अज्ञान यों तीन प्रकार, आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक आदि 5 एवं 25 प्रकार के मिथ्यात्व शास्त्रों में बताये हैं। सन्मतितकं में मिथ्यात्व के 6 स्थान बताये हैं-(१) आत्मा नहीं है, (2) आत्मा नित्य नहीं है, (3) आत्मा कर्ता नहीं है, (4) आत्मा किसी भी कर्म का भोक्ता नहीं है, (5) मोक्ष नहीं है और (6) मोक्ष का उपाय नहीं है।' मिथ्यात्व के पूर्वोक्त लक्षण, प्रकार, कारणों और स्थानों की कसौटी पर जब हम उन-उन परसमयों (पूर्वोक्त बौद्ध, लोकायतिक, सांख्य आदि श्रमण-ब्राह्मण सिद्धान्तों) को कसते हैं तो स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि वे किस-किस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं ! कठिन शब्दों को व्याख्या--गंथे--ग्रन्थ का अर्थ यहाँ कोई शास्त्र या पुस्तक न होकर लक्षणावृत्ति से 26 (क) श्रमणा: शाक्यादयो, बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्च ब्राह्मणाः / ".."सांख्या एवं व्यवस्थिता:'""वैशेषिकाः पुनराहुः ..."तथा नैयायिका तथा मीमांसका:-एवं चांगीकृत्य ते लोकायितकाः --सुत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 14 30 (क) "दसविहे मिच्छत्त पण्णते, तं जहा-अधम्मेधम्मसण्णा धम्मे अधम्मसण्णा, मग्गे उम्मगसण्णा, अमग्गे मग्ग सण्णा, अजीवेसु जीव-सण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्ते सु मुत्तसम्या, मुत्ते सु अमुत्तसम्णा / -स्थानांग स्था०-१०-सूत्र 734 (ख) तिविहे मिच्छत्तं पण्णते तं जहा-अकिरिए, अविणए, अण्णाणे। -स्थानांग स्था० 3 (ग) धर्मसंग्रह अधिकार-२ श्लो० 22, कर्मग्रन्थ भाग 4 मा० 52 31 पत्थि, ण णिच्चो, ण कुणइ कथं ण वेएइ, पत्थि णिब्वाणं / पत्थि य मोक्खोवाओ, छय मिच्छत्तस्स ठाणाई॥ --सन्मतितर्क (ड.) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 53 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय सिद्धान्त या मत अर्थ ही अधिक संगत होता है / विउक्कम्म -- उल्लंघन कर, उलट-पुलट रूप में स्वीकार कर, या जिनोक्त सिद्धान्तों के अस्वीकारकर अथवा छोड़कर / अयाणंता - वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-परमार्थ को न जानते हुए, चुणिकार के अनुसार अर्थ है-विरति-अविरति दोषों को न जानते हुए। विउस्सिता- वृत्तिकार ने इसका विवेचन यों किया है--विविध-अनेक प्रकार से उत्=प्रबलता से जो सितबद्ध हैं-वे व्युत्सृत हैं-स्व-स्वसमय (सिद्धान्त) से अभिनिविष्ट (चिपके हुए) हैं। कामेहिंसत्ता-की व्याख्या चूर्णिकार के मतानुसार- अप्रशस्त इच्छा वाले गृहस्थ (मानव) शब्दादि काम भोगों में अथवा इच्छारूप एवं मदनरूप कामों में आसक्त हैं, रक्त-गृद्ध हैं, मूच्छित हैं। प्रायः यही व्याख्या वृत्तिकार ने की है। पंच महाभूतवादः 7. संति पंच महाभूया इहमेगेसिमाहिया। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा // 8. एते पंच महाभूया तेब्भो एगो त्ति आहिया। अह एसि विणासे उ विणासो होइ देहिणो / 7. इस लोक में पाँच महाभूत हैं, (ऐसा) किन्हीं ने कहा है। (वे पंच महाभूत हैं) पृथ्वी, जल, तेज, वायु और पांचवाँ आकाश। 8. ये पांच महाभूत हैं। इनसे एक (आत्मा उत्पन्न होता है, ऐसा उन्होंने कहा / पश्चात् इन (पंचमहाभूतों) के विनाश से देही (आत्मा) का विनाश होता है। विवेचन--पंचमहाभतवाद का स्वरूप-~-इन दो गाथाओं में पंचमहाभतवाद का स्वरूप बताया गया है। वृत्तिकार इन पंचमहाभूतवादियों को चार्वाक कहते हैं। यद्यपि सांख्य दर्शन और वैशेषिकदर्शन भी पंचमहाभूतों को मानते हैं, परन्तु वे इन पचमहाभूतों को ही सभी कुछ नही मानते / सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) प्रकृति, महत्तत्व (बुद्धि), अहंकार, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पचतन्मात्र (विषय) आदि, तथा वैशेषिकदर्शन दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों को भी मानता है, जबकि चार्वाक (लोकायतिक) पंचभूतों के अतिरिक्त आत्मा आदि कोई भी पदार्थ नहीं मानता, इसलिए इन दोनों गाथाओं में उक्त मत लोकायतिक का ही मान कर व्याख्या की गई है। लोकायतिक मत इस प्रकार है- “पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये पांच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजनप्रत्यक्ष होने से महान् है, इनके अस्तित्व से न तो कोई इन्कार कर सका है, और न - -- - ---- 32 विउक्क.म्म-एतान् अनन्तरोक्तान ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य परित्यज्य / अयाणता-परमार्थमजानाना: (शौ० वृत्ति पत्र 14) 'अयाणं' ता विरति-अविरतिदोसे य / " (चू० मू० पा० टि० पृ०२)। विउस्सित्ता विविधमनेकप्रकारम् उत् प्राबल्यन सिता बद्धाः / (शी वृति प०१४), बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता (चू० मू०पा० 2) एवं सत्ता कामेहि माणवा - कामाः शब्दादयः, गृहस्था अप्पसरियच्छा / कामेसु-इच्छाकामेसु मयणकामेसु वा सत्ता / (चू० मू० पा० दि. 2) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 7 से 8 21 ही इनका खण्डन / दूसरे मतवादियों द्वारा कल्पित इन पंचभूतों से भिन्न, परलोक में जाने वाला, सुख-दुःख भोगने वाला आत्मा नाम का कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसका (आत्मा का) बोधक कोई प्रमाण नहीं है / प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। "अनुमान, आगम आदि को हम प्रमाण नहीं मानते, क्योंकि अनुमान आदि में पदार्थ का इन्द्रियों के साथ साक्षात् सम्बन्ध (सत्रिकर्ष) नहीं होता, इसलिए उनका मिथ्या होना सम्भव है / अतः हम मानते हैं कि पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के शरीर रूप में परिणत होने पर इन्हीं भूतों से अभिन्न ज्ञानस्वरूप चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे-~-गुड़-महुआ आदि मद्य की सामग्री के संयोग से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है, वैसे ही शरीर में इन पंचमहाभूतों के संयोग से चैतन्यशक्ति उत्पन्न होती है। यह चैतन्य शक्ति भिन्न नहीं है, क्योंकि वह पंचमहाभूतों का ही कार्य है। जिस प्रकार जल में बुलबुले उत्पन्न होते हैं और इसी में विलीन हो जाते हैं, इसी प्रकार आत्मा भी इन्हीं पंचभूतों से उत्पन्न होकर इन्हीं में विलीन हो जाता है। द्वितीय श्र तस्कन्ध में इसका विस्तृत वर्णन है। यद्यपि कई प्राचीन चार्वाक पृथ्वी, जल, तेज और वायु, इन चार महाभूतों को ही मानते हैं, परन्तु अर्वाचीन चार्वाकों ने सर्वलोक प्रसिद्ध होने से पांचवें आकाश को भी महाभूत मान लिया। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में ऐसे ही चातुर्भोतिकवाद का वर्णन है- 'वे भी आत्मा को रूपी, चार महाभूतों से निर्मित तथा माता-पिता के संयोग से उत्पन्न मानते हैं। तथा यह कहते हैं कि शरीर के विनष्ट होते ही चेतना भी उच्छिन्न, विनष्ट, और लुप्त हो जाती है। निराकरण-नियुक्तिकार ने इस वाद का खण्डन इस प्रकार किया है- 'पृथ्वी आदि पंचभूतों के संयोग से चैतन्यादि गुण (तथा तज्जनित बोलना, चलना, सुनना आदि क्रियारूप गुण) उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि पंचमहाभूतों का गुण चैतन्य नहीं है / अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती / जैसे -- बालू में तेल उत्पन्न करने का स्निग्धता गुण नहीं है, इसलिए बालू को पीलने से तेल पैदा नहीं होता, वैसे ही पंचभूतों में चैतन्य उत्पन्न करने का गुण न होने से, उनके संयोग से चैतन्य उत्पन्न नहीं हो सकता / स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और स्रोतरूप पाँच इन्द्रियों 33 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 15-16 (ख) देखें द्वितीयश्रु तस्कन्ध सूत्र 654-658 (ग) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 65-66 (घ) (1) पृथिव्यादिभूतसंहत्यां यथा देहादिसम्भवः / मदशक्तिः सुरांगेभ्यो यत् तद् बच्चिदात्मनि / -षड्दर्शन समुच्चय 84 श्लोक (2) शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञके च पथिव्यादिभूतेभ्यश्चैतन्याभिव्यक्ति: पिष्टोदक गुडधातक्यादियो मदशक्तिवत् / ' ---प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 115 (3) पृथिव्यापस्तेजोवायूरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरविषयेन्द्रियसंज्ञाः तेभ्यश्चैतन्यम् / / -तत्वोपप्लव शां० भाष्य 34 ..."अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो कायस्स भेदा उच्छिज्जत्ति विनस्सति, न होति पर मरणा .."इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभव पञ्त्राति / -दीघनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त पृ० 30 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय के जो उपादानकारण हैं, उनका गुण भी चैतन्य नहीं होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के द्वारा जानी हुई बात, दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पाती, तो फिर मैंने सुना भी और देखा भी, देखा, चखा, संघा, छुआ भी, इस प्रकार का संकलन-जोड़ रूप ज्ञान किसको होगा? परन्तु यह संकलन ज्ञान अनुभवसिद्ध है। इससे प्रमाणित होता है कि भौतिक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञाता है जो पाँचों इन्द्रियों द्वारा जानता है / इन्द्रियाँ करण हैं, वह तत्त्व कर्ता है। वही तत्त्व आत्मा है __ वृत्तिकार एक शंका प्रस्तुत करते हैं-यदि पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है, तो फिर मृत शरीर के विद्यमान रहते भी 'वह (शरीरी) मर गया' ऐसा व्यवहार कैसे होगा? यद्यपि चार्वाक इस शंका का समाधान यों करते हैं कि शरीर रूप में परिणत पंचभूतों में चैतन्य शक्ति प्रकट होने के पश्चात् उन पांच भूतों से किसी भी एक या दो या दोनों के विनष्ट हो जाने पर देही का नाश हो जाता है, उसी पर से 'वह मर गया', ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु यह युक्ति निराधार है। मृत शरीर में भी पांचों भूत विद्यमान रहते हैं, फिर भी उसमें चैतन्यशक्ति नहीं रहती, इसलिए यह सिद्ध है कि चैतन्य शक्तिमान् (आत्मा) पंचभौतिक शरीर से भिन्न है / और वह नित्य है। इस पर से इस बात का भी खण्डन हो जाता है कि पंचभूतों के नष्ट होते ही देही (आत्मा) का भी नाश हो जाता ___ आत्मा अनुमान से, 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभव से, तथा “अत्थि मे आया उववाइए" इत्यादि आगम प्रमाण से सिद्ध होता है। चार्वाक एकमात्र प्रत्यक्ष को मान कर भी स्वयं अनुमान प्रमाण का प्रयोग करता है, यह 'वदतो व्याघात' जैसा है। मिट्टी की बनाई हुई ताजी पुतली में पांचों भूतों का संयोग होता है, फिर भी उसमें चैतन्य गुण क्यों नहीं प्रकट होता? वह स्वयं बोलती या चलती क्यों नहीं ? इससे पंचभूतों से चैतन्यगुण प्रकट होने का सिद्धान्त मिथ्या सिद्ध होता है / चैतन्य एकमात्र आत्मा का ही गुण है, वह पृथ्वी आदि पंचभूतों से भिन्न है, स्पर्शन, रसन आदि गुणों के तथा ज्ञानगुण के प्रत्यक्ष अनुभव से उन गुणों के धारक गुणी का अनुमान किया जाता है। देह विनष्ट होने के साथ आत्मा का विनाश मानना अनुचित देह के विनाश के साथ आत्मा का विनाश मानने पर तीन बड़ी आपत्तियां आती हैं (1) केवलज्ञान, मोक्ष आदि के लिए की जाने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र की तथा तप, संयम, व्रत, नियम आदि की साधना निष्फल हो जायगी। (2) किसी भी व्यक्ति को दान, सेवा, परोपकार, लोक-कल्याण आदि पुण्यजनक शुभकर्मों का फल नहीं मिलेगा। 35 (क) पंचण्हं संजोए अण्णगुणाणं च चेइणागुणो। पंचेंदियठाणाणं, ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो / (ख) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 15-16 -नियुक्ति गा०-३३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 1. (3) हिंसा, झुठ, चोरी आदि पापकर्म करने वाले लोग निःशंक होकर पापकर्म करेंगे क्योंकि उनका आत्मा तो शरीर के साथ यहीं नष्ट हो जायेगा / परलोक में उन पापकर्मो का फल भोगने के लिए उनकी आत्मा को नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में कहीं जाना नहीं पड़ेगा। इस मिथ्यावाद के फलस्वरूप सर्वत्र अराजकता अनैतिकता और अव्यवस्था फैल जायगी। जैनदर्शन मानता है कि आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य होते हुए भी पर्यायदृष्टि से कथंचित् अनित्य है ऐसा मानने पर ही शुभाशुभ कर्मफल व्यवस्था बन सकती है, पापकर्म करने वालों की आत्मा को दूसरी गति एवं योनि में उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा, पुण्यकर्म करने वालों को भी उसका शुभ कल मिलेगा और ज्ञान-दर्शन-चारित्र, ता आदि को उत्कृष्ट साधना करने वालों की आत्मा कर्मों से मु:, सिद्ध, बुद्ध, हो सकेगी। निष्कर्ष यह है कि पंचभूतवाद का सिद्धान्त मिथ्यात्वग्रस्त है, अज्ञानमूलक है, अत: कर्मबन्ध का कारण है। एकात्मवादः-- 6. जहा य पुढवीथूभे एगे नाणा हि दोसइ / एवं भो! कसिणे लोए विष्णू नाणा हि दीसए // 6 // 10. एवमेगे त्ति जपंति मंदा आरंभणिस्सिया। एगे किच्चा सयं पावं तिव्वं दुक्खं नियच्छइ // 10 // 6. जैसे एक ही पृथ्वीस्तूप (पृथ्वी पिण्ड) नानारूपों में दिखाई देता है, हे जीवो ! इसी तरह समस्त लोक में (व्याप्त) विज्ञ (आत्मा) नानारूपों में दिखाई देता है; अथवा (एक) आत्मरूप (यह) समस्त लोक नानारूपों में दिखाई देता है / 77 10 इस प्रकार कई मन्दमति (अज्ञानी), 'आत्मा एक ही है, ऐसा कहते हैं, (परन्तु) आरम्भ में आसक्त रहने वाला व्यक्ति पापकर्म करके स्वयं अकेले ही दुःख प्राप्त करते हैं (दूसरे नहीं)। 36 'कसिणे लोए विष्णू नाणा हि दीसए'-पाठ में 'कसिणे लोए' को सप्तम्यन्त मानकर व्याप्तपद का अध्याहार करने से ऐसा अर्थ होता है / और 'कसिणे लोए' को प्रथमान्त मानकर अर्थ करने से दूसरा अर्थ होता है। चूमिकार ने 'विष्ण' शब्द का अर्थ विद्वान अथवा विष्णु (व्यापक ब्रह्म) किया है। करने से ऐसा अर्थ होता है। और 37 गाथा 10 में 'एगे किच्चा"दुक्खं नियच्छई' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है 'एगे' अर्थात् कई पापकर्म करके स्वयं तीव्र दुःख पाते हैं। यहाँ आर्षवचन होने से 'नियच्छइ' में बहुवचन के बदले एकवचन का प्रयोग किया है। परन्तु 'एगे' का अर्थ 'एकाकी' करने से अर्थ हो जाता है-'आरम्भासक्त जीव पाप करके स्वयं अकेले ही तीव्र दुःख प्राप्त करता है / 'एवंमेगेत्ति' का अर्थ चूर्णिकार 'एक एव पुरुषः एवं प्रभाषन्ते' करते हैं / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विवेचन-एकात्मवाद का स्वरूप और उसका खण्डन-प्रस्तूत दोनों गाथाओं में से नौवीं गाथा में दृष्टान्त द्वारा एकात्मवाद का स्वरूप बता कर, दसवीं गाथा में उसका सयुक्तिक खण्डन किया है। प्रस्तुत गाथा में प्रतिपादित एकात्मवाद उत्तरमीमांसा (वेदान्त) दर्शनमान्य है। वेदान्तदर्शन का प्रधान सिद्धान्त है-इस जगत में सब कुछ ब्रह्म (शुद्ध-आत्म) रूप है, उसके सिवाय नाना दिखाई देने वाले पदार्थ कुछ नहीं हैं / अर्थात् चेतन-अचेतन (पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ) जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक ब्रह्म (आत्म) रूप हैं। यही बात शास्त्रकार ने कही है- 'एवं भो कसिणे लोए विष्णु / " नाना दिखाई देने वाले पदार्थों को भी वे दृष्टान्त द्वारा आत्मरूप सिद्ध करते हैं, जैसे-पृथ्वीसमुदायरूप पिण्ड (अवयवी) एक ही है, फिर भी नदी, समुद्र, पर्वत, रेती का टीला, नगर, घट, घर आदि के रूप में वह नाना प्रकार का दिखाई देता है, अथवा ऊँचा, नीचा, काला, पीला, भूरा, कोमल, कठोर आदि के भेद से नाना प्रकार का दिखाई देता है, किन्तु इन सब में पृथ्वीतत्त्व व्याप्त रहता है। इन सब भेदों के बावजूद भी पृथ्वी-तत्त्व का भेद नहीं होता, इसी प्रकार एक ज्ञानपिण्ड (विज्ञ-विद्वान) 3 अचेतनरूप समग्र लोक में व्याप्त है / यद्यपि एक ही ज्ञानपिण्ड आत्मा पृथ्वी, जल आदि भूतों के आकार में नाना प्रकार का दिखाई देता है, फिर भी इस भेद के कारण आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता। आशय यह है कि जैसे- घड़े आदि सब पदार्थों में पृथ्वी एक ही है, उसी तरह आत्मा भी विचित्र आकृति एवं रूप वाले समान जड़-चेतनमय पदार्थों में व्याप्त है और एक ही है। श्रुति (वेद) में भी कहा है- जैसे- एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न घड़ों में अनेक दिखाई देता है, वैसे सभी भूतों में रहा हुआ एक ही (भूत) आत्मा उपाधि भेद से अनेक प्रकार का दिखाई देता है। जैसे एक ही वायु सारे लोक में व्याप्त (प्रविष्ट) है, मगर उपाधिभेद से अलग-अलग रूप वाला हो गया है, वैसे एक ही आत्मा उपाधिभेद से विभिन्नरूप वाला हो जाता है।४० 38 उत्तरमीमांसा या वेदान्त के सिद्धान्त उपनिषदों में, कुछ पुराणों और अन्यर्वदिक ग्रन्थों में मिलते हैं। वेद का पदों में संग्रहीत ज्ञानकाण्ड वेदान्त कहलाता है। वेदान्तदर्शन का क्रमश: वर्णन स्वरचित ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र) में सर्वप्रथम बादरायण (ई० पू० 3-4 शताब्दी) ने किया, जिस पर शंकराचार्य का भाष्य है। 31 (क) (1) 'सर्व खल्विदं ब्रह्म नेहनानास्ति किचन' (2) 'सर्व मेतदिदं ब्रह्म' -छान्दोग्योपनिषद् 3314 / 1 (3) 'ब्रह्म खल्विदं बाव सर्वम्' -मैत्र्युपनिषद् 4 / 6 / 3 (4) 'पुरुष एवेदं, सर्व यच्चभूतं यच्च भाव्यम् / -श्वेताश्वतरोप० अ०४ ब्रा० 6.13 40 (क) एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः / एकधा बहुधा चंव दृश्यते जलचन्द्रवत् / / (ख) वायुर्य थैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव / एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च / / -कठोप० 2 / 5 / 10 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 प्रथम उद्देशक : गाथा 11 से 12 मंवा-वे एकात्मवादी मन्दबुद्धि इसलिए हैं कि युक्ति एवं विचार से रहित एकान्त एकात्मवाद स्वीकार करते हैं / एकान्त एकात्मवाद युक्तिहीन है, सारे विश्व में एक ही आत्मा को मानने पर निम्नलिखित आपत्तियाँ आती हैं (1) एक के द्वारा किये गए शुभ या अशुभकर्म का फल दूसरे सभी को भोगना पड़ेगा जो कि अनुचित व अयुक्तिक है। (2) एक के कर्मबन्धन होने पर सभी कर्मबन्धन से बद्ध और एक के कर्मबन्धन से मुक्त होने पर सभी कर्मबन्धन से मुक्त होंगे / इस प्रकार की अव्यवस्था हो जाएगी कि जो जीव मुक्त है, वह बन्धन में पड़ जाएगा और जो बन्धन में पड़ा है, वह मुक्त हो जाएगा। इस प्रकार बन्ध और मोक्ष की अव्यवस्था हो जायेगी। (3) देवदत्त का ज्ञान यज्ञदत्त को होना चाहिए तथा एक के जन्म लेने, मरने या किसी कार्य में प्रवृत्त होने पर सभी को जन्म लेना, मरना या उस कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए / परन्तु ऐसा कदापि होना सम्भव नहीं है। (4) जड़ और चेतन सभी में एक आत्मा मानने पर आत्मा का चैतन्य या ज्ञान गुण जड़ में भी आ जाएगा, जो कि असम्भव है। (5) जिसे शास्त्र का उपदेश दिया जाता है वह और शास्त्र का उपदेष्टा, दोनों में भेद न होने के कारण शास्त्ररचना भी न हो सकेगी। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है- “एगे किच्चा सयं पाबं तिव्वं दुक्खं नियच्छ"-आशय यह है--संसार में यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जो पापकर्म करता है, उस अकेले को ही उसके फलस्वरूप तीव्र दुःख प्राप्त होता है, दूसरे को नहीं / किन्तु यह एकात्मवाद मानने पर बन नहीं सकता।४१ तज्जीव तच्छरीरवाद-- 11. पत्तेयं कसिणे आया जे बाला जे य पंडिता। संति पेच्चा ण ते संति गत्थि सत्तोदवाइया // 11 // 12. त्यि पुण्णे व पावे वा पत्थि लोए इतो परे। सरोरस्स विणासेणं विणासो होति देहिणो // 12 / / 11. जो बाल (अज्ञानी) हैं और जो पण्डित हैं, उन प्रत्येक (सब) की आत्माएँ पृथक-पृथक हैं / मरने के पश्चात् वे (आत्माएँ) नहीं रहतीं / परलोकगामी कोई आत्मा नहीं है। 12. (इस वाद के अनुसार) पुण्य अथवा पाप नहीं है, इस लोक से पर (आगे) कोई दूसरा लोक नहीं है / देह का विनाश होते ही देही (आत्मा) का विनाश हो जाता है। -द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र 833 41 (क) एकात्मवाद से सम्बन्धित विशेष वर्णन के लिए देखिए (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 19 के आधार पर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विवेचन - तज्जीव तच्छरीरबाद का मन्तव्य और उसको फलश्रुति- इन दोनों गाथाओं में से प्रथम गाथा में तज्जीव-तच्छरीरवाद का मन्तव्य बताया गया है और दूसरी गाथा में इसकी फलश्र ति / 'वही जीव है और वही शरीर है, इस प्रकार जो मानता है, उसे तज्जीव-तच्छरीरवाद कहते हैं / 42 यद्यपि पंचमहाभूतवादी भी शरीर को ही आत्मा बताता है, किन्तु उसके मत में पंचमहाभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर दौड़ना, बोलना आदि सब क्रियाएँ करते हैं, जबकि तज्जीव तच्छरीर वादी शरीर से चैतन्यशक्ति की उत्पत्ति या अभिव्यक्ति मानता है। शरीर से आत्मा को अभिन्न मानता है, यही इन दोनों वादों में अन्तर है। यों तो जैनदर्शन, न्यायदर्शन आदि भी कहते हैं-'प्रत्यगात्मा भिद्यते' प्रत्येक प्राणी की आत्मा भिन्न है, वह अपने आप में सम्पूर्ण है, पूर्ण शक्तिमान है, किन्तु तज्जीव-तच्छरीरवाद की मान्यता विचित्र है, वह कहता है-जब तक शरीर रहता है, तब तक ही उसकी आत्मा रहती है, शरीर के नष्ट होते ही आत्मा नष्ट हो जाती है, क्योंकि शरीररूप में परिणत पंचमहाभूतों से जो चैतन्यशक्ति उत्पन्न होती है, वह उनके बिखरते ही या अलग-अलग होते ही नष्ट हो जाती है। शरीर से बाहर निकल कर कहीं अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, इसलिए कहा गया- 'पेच्चा ग ते संति / " अर्थात् - मरने के बाद परलोक में वे आत्माएँ नहीं जाती। निष्कर्ष यह है कि शरीर से भिन्न स्व-कर्मफलभोक्ता परलोकानुयायी कोई आत्मा नामक पदार्थ नहीं है। जो है, वह शरीर से अभिन्न है। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं--"त्थि सत्तोववाइयो'–अर्थात् कोई भी जीव (प्राणी) औपपातिक-एक भव से दूसरे भव में जाने वाले नहीं होते। जैसा कि उनके बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है-“प्रज्ञान (विज्ञान) का पिण्ड यह आत्मा, इन भूतों से उठकर (उत्पन्न होकर) इनके नाश के पश्चात् ही नष्ट हो जाता है, अतः मरने के पश्चात् इसकी चेतना (आत्मा) संज्ञा नहीं रहती।४ बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटकान्तर्गत उदान में, तथा दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में इसी से मिलते-जुलते मन्तव्य का उल्लेख है। 42 (क) स एव जीवस्तदेव शरीरमितिबदितु शीलमस्येति तज्जीव-तच्छरीरवादी। (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-२० 43 प्र (वि) ज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थायातान्येवानविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति / " -बृहदारण्यक उपनिषद् अ० 4 ब्रा० 6, श्लो०१३ 44 (क) संते के समणब्राह्मणा एवं वादिनो एवंदिट्ठानो-तं जीवं तं शरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्जति" -सुत्तपिटक उदानं, पढमनातित्थियसुत्त पु० 142 (ख) ""अजितकेसकम्बलो म एतदवोच-'नस्थि, महाराज ! दिन्न, नत्यि यिट्ठ नत्थि हुतं, नस्थि सुकतदुक्कटान कम्मानं फलं विपाको, नत्यि अयं लोको, नत्थि परोलोको, नत्थि माता नस्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका नत्थि लोके-सम-ण ब्राह्मणा सम्मम्गता सम्मापटिपन्ना, ये इमंच लोकं, परं च लोक सयं अभिजा सच्छिकत्वा (क्रमश:) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 11 से 11 इस प्रकार के बाद के तीन परिणाम फलित होते हैं, जो 12 वीं गाथा में बता दिये गए हैं(१) जीव के शुभाशुभकर्मफलदायक पुण्य और पाप नहीं होते / (2) इस लोक से भिन्न कोई दूसरा लोक ही नहीं है। (3) शरीर के नाश के साथ ही शरीरी आत्मा का नाश हो जाता है। पुण्य और पाप ये दोनों इसलिए नहीं माने गये कि इनका धर्मीरूप आत्मा यहीं समाप्त हो जाता है / पुण्य-पाप को मानने पर तो उनका फल भोगने के लिए परलोक में गमन भी मानना जरूरी हो जाता है / इसलिए न तो पुण्य-पाप है, और न ही उनका फल भोगने के लिए स्वर्ग-नरकादि परलोक हैं / जब आत्मा ही नहीं, तब आत्मा को धारण करने वाला प्राणी एक जन्म से दूसरे जन्म में कैसे जायेगा ? जैसे पानी का बुलबुला पानी से भिन्न नहीं होता है, वह पानी से ही पैदा होता है और उसी में विलीन हो जाता है, वैसे ही चैतन्य पंचभूतात्मक शरीर से ही पैदा होता है, और उसी में समा जाता है, उसका अलग कोई अस्तित्व नहीं है / जैसे ग्रीष्मऋतु में मरुभूमि में जल न होने पर भी जल का भ्रम हो जाता है, वैसे ही पंचभूतसमुदाय बोलना, चलना आदि विशिष्ट क्रियाएँ करता है, इससे जीव होने का भ्रम होता है।" जब उनसे यह पूछा जाता है कि यदि शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है, पुण्य-पाप एवं परलोकादि नहीं हैं, तब धनी-निर्धन, रोगी-निरोगी, सुखी-दुःखी आदि विचित्रताएँ जगत् में क्यों दृष्टिगोचर होती हैं ? तो वे उत्तर देते हैं-यह सब स्वभाव से होता है / जैसे--दो पत्थर के टुकड़े पास-पास ही पड़े हैं, उनमें से एक को मूर्तिकार गढ़ कर देवमति बना देता है, तो वह पूजनीय हो जाता है। दूसरा पत्थर का टुकड़ा केवल पैर धोने आदि के काम आता है। इन दोनों स्थितियों में पत्थर के टुकड़ों का कोई पुण्य या पाप नहीं है, जिससे कि उनकी वैसी अवस्थाएँ हों, किन्तु ये स्वाभाविक है / अतः जगत् में दृश्यमान विचित्रता भी स्वभाव से है। कांटों में तीक्ष्णता, मोर के पंखों का रंगबिरंगापन, मुर्गी की रंगीन चोटी आदि स्वभाव से होते हैं। परन्तु कोई भी भारतीय आस्तिक दर्शन इस समाधान से सन्तुष्ट नहीं हैं / पुण्य-पाप या परलोक न मानने पर जगत् की सारी व्यवस्था एवं शुभकार्य में प्रोत्साहन समाप्त हो जायेंगे। कठिन शब्दों को व्याल्या-पेच्चा-मरने के बाद परलोक में ओववाइया-औपपातिक, एक भव से दूसरे भव में जाना उपपात कहलाता है। जो एक भव से दूसरे भव में जाते हैं, वे औषपातिक हैं। पवेदेति / चातुमहाभूतिको अयं पूरिसो यदा कालं करोति, पढवीपठवीकार्य अनुपेति, अनुपगच्छति, आप आपो कायं अनु""तेजोते-जोकायं अनु..."वायो वायोकायं अनु०""आकासं इन्द्रियानि संक्रमन्ति मुसा विलापो ये के चि अस्थिकवादी वदन्ति / बाले च पण्डिते च कायरस भेदा उन्छिजति विनरसंति, न होन्ति परं मरणा' ति। -सुत्तपिटक दीघनिकाय भा० 1 सामञफलसुत्त, पृ०-४१-५३ (ग) सूत्रकृतांग द्वितीय तस्कन्ध सू०-८३३-८३४ में, तथा रायपसेणियसत्त' में इस सम्बन्ध में विस्तृत वर्ण देखें। 45 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक-२०-२१ / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय अक्रारकबाद 13. कुव्वं च कारवं चेव सम्वं कुव्वं ण विज्जति / एवं अकारओ अप्पा एवं ते उ पगम्भिया // 13 // 14. जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसि कुओसिया। तमातो ते तमं जति मंदा आरंभनिस्सिया // 14 / / 13. आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, और न दूसरों से कराता है, तथा आत्मा समस्त (कोई भी) क्रिया करने वाला नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा अकारक है। इस प्रकार वे (अकारकवादी साँख्य आदि) (अपने मन्तव्य की) प्ररूपणा करते हैं। 14. जो वे (पूर्वोक्त) वादी (तज्जीव-तच्छरीरवादी तथा अकारकवादी) इस प्रकार (शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, इत्यादि तथा "आत्मा अकर्ता और निष्क्रिय है") कहते हैं, उनके भत में यह लोक (चतुर्गतिक संसार या परलोक) कैसे घटित हो सकता है ? (वस्तुतः) वे मूढ़ एवं आरम्भ में आसक्त वादी एक (अज्ञान) अन्धकार से निकल कर दूसरे अन्धकार में जाते हैं। विवेचन-अकारकबादः क्या है ?-१३वीं गाथा में अकारकवाद की झांकी बताई गई है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसे सांख्यों का मत बताया है। क्योंकि अकर्ता निगुणो भोक्ता आत्मा कापिलदर्शने', यह सांख्य दर्शनमान्य उक्ति प्रसिद्ध है। सांख्यदर्शन आत्मा को अमूर्त, कूटस्थनित्य और सर्वव्यापी मानते है, 4: इसलिए उसके मतानुसार आत्मा स्वतन्त्र कर्ता (क्रिया करने में स्वतंत्र) नहीं हो सकता, वह स्वयं क्रियाशून्य होता है / वह दूसरे के द्वारा क्रिया कराने वाला नहीं है। इसीलिए कहा गया है- "कुध्वं च कारवं चेव” गाथा में प्रयुक्त प्रथम 'च' शब्द आत्मा के भूत और भविष्यत् कतत्व का निषेधक है। आत्मा इसलिए भी अकर्ता है कि वह विषय-सुख आदि को तथा इसके कारण पुण्य आदि कर्मों को नहीं करता। प्रश्न होता है--जब इस गाथा में आत्मा के स्वयं कर्तृत्व एवं कारयितत्व का निषेध कर दिया, तब फिर दुबारा “सव्वं कुव्वं न विज्जई" कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ___ इसका समाधान यों किया जाता है कि आत्मा स्वयं क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु 'मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय' एवं जपास्फटिकन्याय से वह स्थितिक्रिया एवं भोगक्रिया करता है / जैसे किसी दर्पण में प्रतिबिम्बित मति अपनी स्थिति के लिए प्रयत्न नहीं करती, वह अनायास ही चित्र में स्थित रहती है, इसी प्रकार प्रकृतिरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित आत्मा अनायास ही स्थित रहती है / ऐसी स्थिति में प्रकृतिगत विकार पुरुष (आत्मा) में प्रतिभासित होते हैं। इस मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय से आत्मा स्थित क्रिया का स्वयं कर्ता न होने के कारण अकर्ता-सा है। 46 "अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः / __ अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने // " -षड्दर्शन समुच्चय Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक / गापा 13 से 14 इसी प्रकार स्फटिक के पास लाल रंग का जपापुष्प रख देने से वह लाल-सा प्रतीत होता है, इसी तरह स्वयं भोगक्रिया रहित आत्मा में बुद्धि के संसर्ग से बुद्धि का भोग प्रतीत होता है। यों जपास्फटिक न्याय से आत्मा की भोगक्रिया मानी जाती है। इस भ्रम के निवारणार्थ दुबारा यह कहना पड़ा-'सव्वं....विज्जइ / ' अर्थात आत्मा स्वयं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं होता / वह एक देश से दूसरे देश जाने की सभी परिस्पन्दादि क्रियाएँ नहीं करता क्योंकि वह सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह निष्क्रिय है / सांख्यों का विरोधी कथन सामान्यतया जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है किन्तु सांख्यमत में कर्ता प्रकृति है, भोक्ता पुरुष (आत्मा) है / दानादि कार्य अचेतन प्रकृति करती है, फल भोगता है--चेतन पुरुष / इस तरह कर्तृत्व-भोक्तृत्व का समानाधिकरणत्व छोड़ कर व्याधिकरणत्व मानना पहला विरोध है / पुरुष चेतनावान है फिर भी नहीं जानता, यह दूसरी विरुद्धता है / पुरुष न बद्ध होता है, न मुक्त और नहीं भवान्तरगामी ही होता है, प्रकृति ही बद्ध, मुक्त और भवान्तरगामिनी होती है, यह सिद्धान्तविरुद्ध, अनुभवविरुद्ध कथन भी धृष्टता ही है इसीलिए कहा गया है--एवमकारओ अप्पा, एवं ते उपगभिया।"८ पूर्वोक्त वादियों के मत में लोक-घटना कैसे ? १४वीं गाथा में तज्जीव-तच्छरीरवाद और अकारकवाद का निराकरण करते हुए इन दोनों मतों को मानने पर जन्म-मरणरूप चातुर्गतिक संसार या परलोक घटित न होने की आपत्ति उठाई है / तज्जीवतच्छरीरवादी शरीर से आत्मा को भिन्न मानते हैं तथा परलोकानुगामी नहीं मानते / तज्जीव-तच्छरीरवाद तथा उसकी ये असंगत मान्यताएँ मिथ्या यों हैं कि शरीर से आत्मा भिन्न सिद्ध होता है / इसे सिद्ध करने के लिए वृत्तिकार ने कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये हैं (1) दण्ड आदि साधनों के अधिष्ठाता कुम्भकार की तरह आत्मा इन्द्रियों आदि करणों का अधिष्ठाता होने से वह इनसे भिन्न है। (2) संडासी और लोहपिण्ड को ग्रहण करने वाला उनसे भिन्न लुहार होता है, इसी तरह इन्द्रियों (करणों) के माध्यम से विषयों को ग्रहण करने वाला इन दोनों से भिन्न आत्मा है। (3) शरीररूप भोग्य पदार्थ का भोक्ता शरीर के अंगभूत इन्द्रिय और मन के अतिरिक्त और कोई पदार्थ होना चाहिए, वह आत्मा ही है। आत्मा को परलोकगामी न मानना भी यथार्थ नहीं है। आत्मा का परलोकगमन निम्नोक्त अनु - 47 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक-२१ 48 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 21 (ख) तस्मान्न बध्यते अद्धा न मुच्यते, नाऽपि संसरति कश्चित् / संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः / / -सांख्यकारिका Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन-समय मान से सिद्ध हो जाता है-तत्काल जन्मे हुए बालक को माता के स्तनपान की इच्छा पूर्वजन्म में किये गए स्तनपान के प्रत्यभिज्ञान के कारण होती है। इससे पूर्वजन्म सिद्ध होता है, और पूर्वजन्म सिद्ध होने से अगला जन्म (परलोक) भी सिद्ध हो जाता है / अतः आत्मा का परलोकगमन शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अवश्य होता है इस प्रकार धर्मीरूप आत्मा का पृथक् अस्तित्व सिद्ध होने से उसके धर्मरूप पुण्य-पाप की सिद्धि हो जाती है / पुण्य-पाप को न मानने पर जगत् में प्रत्यक्ष दृश्यमान ये सुखी-दुःखी आदि विचित्रताएँ, फलस्वरूप ही हैं, कैसे संगत हो सकती हैं ? पुण्य-पापरूप कर्म मानने पर ही उनके फलस्वरूप चतुर्गतिरूप संसार (लोक) घटित हो सकता है, अथवा लोकगत विचित्रताएँ सिद्ध हो सकती हैं। इसीलिए तज्जीव तच्छरीरवादियों के प्रति आक्षेप किया है-लोएसिआ? अकारकवावी सांख्यादि मतवादियों के लिए भी यही आपत्ति शास्त्रकार ने उठाई है-'आत्मा को एकान्त कूटस्थ नित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी एवं निष्क्रिय (अकर्ता) मानने पर प्रत्यक्ष दृश्यमान जन्म-मरणादि रूप अथवा नरकादिगतिगमनरूप यह लोक (संसार प्रपञ्च) कैसे सिद्ध होगा? क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में, एक गति या योनि छोड़कर दूसरी गति या योनि में कैसे जन्म-मरण करेगा ? तथा एक ही शरीर में बालक, युवक, वृद्ध आदि पर्यायों को धारण करना कैसे सम्भव होगा? अगर कर्मानुसार जीवों का गमनागमन नहीं माना जाएगा तो जन्म-मरण आदि रूप संसार कैसे घटित होगा? कटस्थ नित्य आत्मा तो अपरिवर्तनशील, एक रूप में ही रहने वाला है, ऐसी मान्यता से बालक सदैव बालक, मूर्ख सदैव मूर्ख ही रहेगा, उसमें किसी नये स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होगी। ऐसी स्थिति में जन्ममरणादि दुःखों का विनाश, उसके लिए पुरुषार्थ, कर्मक्षयार्थ तप, जप, संयमनियम आदि की साधना सम्भव नहीं होगी। नियुक्तिकार ने अकारकवाद पर आपत्ति उठाई है कि 'जब आत्मा कर्ता नहीं है और उसका किया हुआ कर्म नहीं है, वह बिना कर्म किये उसका सुखदुःखादि फल कैसे भोग सकता है ? यदि कर्म किये बिना ही फलभोग माना जाएगा तो दो दोषापत्तियाँ खड़ी होंगी 1. कृतनाश और 2. अकृतागम / फिर तो एक प्राणी के किये हुए पाप से सबको दुःखी और एक के किये हुए पुण्य से सबको सुखी हो जाना चाहिए। किन्तु यह असम्भव और अनुभव विरुद्ध है, तथा अभीष्ट भी नहीं है। आत्मा यदि व्यापक एवं नित्य है तो उसकी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव तथा मोक्षरूप पाँच प्रकार की गति भी नहीं हो सकती, ऐसी स्थिति में सांख्यवादियों द्वारा काषायवस्त्र धारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्नभोजन, यम-नियमादि अनुष्ठान वगैरह साधनाएँ व्यर्थ हो जाएंगी। इसीप्रकार एकान्तरूप से मिथ्याग्रहवश आत्मा को निष्क्रिय कूटस्थ नित्य मानकर बैठने से न तो त्रिविध दुःखों का सर्वथा नाश होगा, न ही मोक्षादि की प्राप्ति होगी, और कूटस्थ नित्य निष्क्रिय 46 'अप्रच्युताऽनुप्पन्न-स्थिरैकस्वभावः नित्यः / -जो विनष्ट न हो, उत्पन्न न हो स्थिर हो, सदा एक स्वभाव वाला हो वह कूटस्थ नित्य कहलाता है। -सांख्य तत्व कौमुदी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक / गाथा 13 से 14 जडात्मा 25 तत्त्वों का ज्ञान भी कैसे कर सकेगा? उस आत्मा में पूर्वजन्मों का स्मरण आदि क्रिया भी कैसे होगी ?5deg अतः अकारकवाद युक्ति, प्रमाण एवं अनुभव से विरुद्ध है। दोनो बावों को मानने वालों की दुर्दशा इस गाथा के उत्तरार्द्ध में शास्त्रकार ने पूर्वोक्त दोनों मिथ्यावादों को मानकर चलने वालों की दुर्दशा का संक्षेप में प्रतिपादन किया है-'समाओ ते तमं जंति मंदा आरमणिस्सिया'-अर्थात् वे (तज्जीवतच्छरीरवादी) विवेकमूढ़ मंदमति नास्तिक बनकर आत्मा को शुभाशुभकर्म के फलानुसार परलोकगामी नहीं मानते, इस प्रकार उनकी बुद्धि पर मिथ्यात्व और अज्ञान का गहरा पर्दा पड जाने के कारण वे अज्ञानान्धकार में तो पहले से ही पड़े होते हैं / अब वे यह सोचकर कि हम आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक पुण्य-पाप आदि नहीं मानते तो हमें क्यों पाप-कर्म का बन्ध होगा, और क्यों उसके फलस्वरूप दुर्गति मिलेगी ? फलतः बेखटके वे मनमाने हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, आदि पापकर्म में रत हो जाते हैं, इस प्रकार ज्ञानावरणीयादि कर्मसञ्चयवश वे और अधिक गाढ़ अज्ञानान्धकार में पड़ जाते हैं। जैसे कोई व्यक्ति विष को मारक न माने-समझे या उसके दुष्प्रभाव से अनभिज्ञ रहकर विष खा ले तो क्या विष अपना प्रभाव नहीं दिखायेगा? अवश्य दिखाएगा। इसी प्रकार कोई अनुभवसिद्ध सत्य बात को न मानकर उसके परिणाम से अनभिज्ञ रहे और अपने मिथ्या सिद्धान्तों को दुराग्रहवश पकड़े रखे, तदनुसार हिंसादि दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाए तो क्या वह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि के प्रभाव से होने वाले पापकर्मबन्ध से बच जाएगा? क्या उसे वे पापकर्मबन्ध नरकादि घोर अन्धकाररूप अपना फल नहीं देंगे? स्थूल दृष्टि से देखें तो वे एक नरकादि यातना स्थान में सद्-असद्-विवेक से भ्रष्ट होकर फिर उससे भी भयंकर गाढ़ान्धकार वाले नरक में जाते हैं। इस प्रकार अकारकवादियों की भी दुर्दशा होती है। वे भी मिथ्याग्रहवश अपनी मिथ्यामान्यता का पल्ला पकड़कर सत्य सिद्धान्त को सुना-अनसुना करके चलते हैं। फलतः वे मिथ्यात्ववश नाना प्रकार के हिंसादि कार्यों को निःशंक होकर करते रहते हैं। केवल 25 तत्त्वों का ज्ञाता होने से मुक्त हो जाने का झूठा आश्वासन अपने आपको देते रहते हैं / क्या इससे मिथ्यात्व और हिंसादि अविरति के कारण पापकर्मबन्धन से तथा उनके फलस्वरूप नरकादि गतियों से वे बच सकेंगे ? कदापि नहीं। यही कारण है कि वे यहाँ भी मिथ्यात्व एवं अज्ञान के गाढ़ अंधकार में डूबे रहते हैं, और परलोक में इससे भी बढ़कर गाढ़ अन्धकार में निमग्न होते हैं / 51 50 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 22 (ख) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 34 को वेएइ ? अकयं, कयनासो, पंचहा गई नत्थि। देवमणस्सगयागई जाइसरणाइयाणं च / / 51 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक-२२, 23 / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समन आत्मषष्ठवाद 15. सति पंच महाभूता इहमेसि आहिता। आयछट्ठा पुणेगाऽऽहु आया लोगे य सासते // 15 // 16. दुहओ ते ण विणस्संति नो य उप्पज्जए असं / सब्वे वि सम्वहा भावा नियतीभावमागता // 16 // 15. इस जगत् में पांच महाभूत हैं और छठा आत्मा है, ऐसा कई वादियों ने प्ररूपण किया (कहा)। फिर उन्होंने कहा कि आत्मा और लोक शाश्वत-नित्य हैं / 16. (सहेतुक और अहेतुक) दोनों प्रकार से भी पूर्वोक्त छहों पदार्थ नष्ट नहीं होते, और न ही असत्-अविद्यमान पदार्थ कभी उत्पत्र होता है। सभी पदार्थ सर्वथा नियतीभाव-नित्यत्व को प्राप्त होते हैं। विवेचन--आत्मषष्ठवाद का निरूपण-इन दो गाथाओं में आत्मषष्ठवादियों की मान्यता का निरूपण है। वृत्तिकार के अनुसार वेदवादी सांख्य और शैवाधिकारियों (वैशेषिकों) का यह मत है / 52 प्रो० हर्मन जेकोबी इसे चरक का मत मानते हैं। बौद्ध ग्रन्थ 'उदान' में आत्मा और लोक को शाश्वत मानने वाले कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का उल्लेख आता है।५३ यहाँ शास्त्रकार ने आत्मषष्ठवाद की 5 मुख्य मान्यताओं का निर्देश किया है (1) अचेतन पांच भूतों के अतिरिक्त सचेतन आत्मा छठा पदार्थ है,५० (2) आत्मा और लोक दोनों नित्य हैं, (3) छहों पदार्थों का सहेतुक या अहेतुक किसी प्रकार से विनाश नहीं होता, (4) असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी नाश नहीं होता, (5) सभी पदार्थ सर्वथा नित्य हैं। आत्मा और लोक सर्वथा शाश्वत : क्यों और कैसे ? पूर्वोक्त भूत-चैतन्यवादियों आदि के मत में जैसे इन्हें अनित्य माना गया है, इनके मत में इन्हें सर्वथा नित्य माना गया है। इनका कहना है--सर्वथा अनित्य मानने से बंध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती। इस कारण ये आत्मा को आकाश की तरह सर्वव्यापी और अमूर्त होने से नित्य मानते हैं, तथा पृथ्वी आदि पंचमहाभूतरूप लोक को भी अपने स्वरूप से नष्ट न होने के कारण अविनाशी (नित्य) मानते हैं। 52 एकेषां वेदवादिना सांख्यानां शेवाधिकारिणाञ्चंतद् आख्यातम् / --सूत्र० वृत्ति पत्र२४ 53 (क) This is the opinion expressed by 'Charaka' -प्रो० हर्मन जेकोबी - The sacred Book of the East VOI.XLV, 9. 237 (ख) “सन्ति पनेके समणब्राह्मणा एवं बादिनो एवं दिदिठनो-सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव मोघमांति / ' -- उदान पृ० 146 54 आत्मा षष्ठः कोऽर्थः ? यथा पंचमहाभूतानि सन्ति, तथा तेम्यः पृथग्भूतः षष्ठः आत्माख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः / -दीपिका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक गाथा 15 से 16 बौद्धदर्शन में पदार्थ की उत्पत्ति के पश्चात् तत्काल हो निष्कारण विनाश होना माना जाता है, अतः उत्पत्ति के अतिरिक्त विनाश का अन्य कोई कारण नहीं है परन्तु आत्मषष्ठवादी इस अकारण (निर्हेतुक) विनाश को नहीं मानते, और न ही वैशेषिक दर्शन के अनुसार डंडे, लाठी आदि के प्रहार (कारणों) से माने जाने वाले सकारण (सहेतुक) विनाश को मानते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा हो, चाहे पंचभौतिक लोक (लोकगत पदार्थ), अकारण और सकारण दोनों प्रकार से विनष्ट नहीं होते। ये चेतनाचेतनात्मक दोनों कोटि के पदार्थ अपने-अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते, स्वभाव को नहीं छोड़ते, इसलिए नित्य हैं। आत्मा किसी के द्वारा किया हुआ नहीं (अकृतक) है, इत्यादि हेतुओं से नित्य है, और 'न कदाचिदनीदृशं जगत्'- जगत् कदापि और तरह का नहीं होता, इसलिए नित्य है। भगवद्गीता में भी कहा गया है-इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी भिगो नहीं सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती / अतः यह आत्मा अच्छेद्य है, अभेद्य है, अविकार्य (विकार रहित) है, यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है। असत्पदार्थ की कदापि उत्पत्ति नहीं होती, सर्वत्र सत्पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है। अतः सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद के द्वारा आत्मा और लोक की नित्यता सिद्ध करता है। सत्कार्यवाद की सिद्धि भी पांच कारणों से की जाती है-५५ (1) असदकरणात्-गधे के सींग की तरह जो वस्तु नहीं होती, वह (उत्पन्न) नहीं की जा सकती। (2) उपादानपहणात्-जो वस्तु सत् है, उसी का उपादान विद्यमान होता है। विद्यमान उपादान ग्रहण करने के कारण सत् की उत्पत्ति हो सकती है, असत् की नहीं। (3) सर्वसम्भवाभावात् सभी कारणों से सभी पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती। बालू से तेल नहीं निकल सकता, तिल से ही तेल निकलता है यदि असत्पदार्थ की उत्पत्ति हो तो पेड़ की लकड़ी से कपड़ा गेहुं आदि क्यों नहीं बना लिये जाते ? अतः उपादान कारण से ही कार्य होता है। 55 (क) जातिरेव हि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते / यो जातश्च न च ध्वस्तो, नश्येत् पश्चात् स केन च? -बौद्ध दर्शन (ख) नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः / न चैन क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः / / अच्छेद्योऽयमदायोऽयमक्लेद्योऽशोव्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः // --गीता भ० 2/23-24 (ग) नासतो विद्यते भावो, नाभावो जायते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदशिभिः // -गीता० अ० 2/16 (घ) असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाऽभावात् / शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च सत्कार्यम् // -सांख्यकारिका Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय (4) शक्तस्य शक्यकरणात्-मनुष्य की शक्ति से जो साध्य-शक्य हो, उसे ही वह करता है, अशक्य को नहीं / यदि असत् की उत्पत्ति हो तो कर्ता को अशक्य पदार्थ भी बना देना चाहिए। (5) कारणभावाच्च सत्कार्यम्- योग्य कारण में स्थित (विद्यमान सत्) पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है, अन्यथा पीपल के बीज से आम का अंकुर पैदा हो जाता। निष्कर्ष यह है कि सत्कार्यवाद में उत्पत्ति और विनाश केवल आविर्भाव-तिरोभाव के अर्थ में है। वस्तु का सर्वथा अभाव या विनाश नहीं होता, वह अपने स्वरूप में विद्यमान रहती है। आत्मषष्ठबाद मिथ्या क्यों ? संसार के सभी पदार्थों (आत्मा, लोक आदि) को सर्वथा या एकान्त नित्य मानना यथार्थ नहीं है। सभी पदार्थों को एकान्त नित्य मानने पर आत्मा में कर्तृत्व-परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकेगा / कर्तृत्व परिणाम के अभाव में कर्मबन्ध कैसे होगा? कर्मबन्ध नहीं होगा तो सुख-दुःखरूप कर्मफल भोग कैसे होगा? वह कौन करेगा, क्योंकि आत्मा को अकर्ता मानने पर कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव हो जाएगा, ऐसी स्थिति में सुख-दुःख का अनुभव कौन करेगा? __ अगर असत् की कथञ्चित् उत्पत्ति नहीं मानी जाएगी तो पूर्वभव को छोड़कर उत्तरभव में उत्पत्तिरूप जो आत्मा की चार प्रकार की गति और मोक्षरूप पंचमगति बताई जाती है, वह कैसे सम्भव होगी? आत्मा को अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर एवं एक स्वभाव का (कूटस्थनित्य) मानने पर उसका मनुष्य, देव आदि गतियों में गमन-आगमन सम्भव नहीं हो सकेगा और प्रत्यभिज्ञान या स्मृति का अभाव होने से जातिस्मरण आदि भी न हो सकेगा। इसलिए आत्मा को एकान्त नित्य मानना मिथ्या है। सत् की ही उत्पत्ति होती है, ऐसा एकान्तप्ररूपण भी दोषयुक्त है, क्योंकि वह (कार्य) पहले से ही सर्वथा सत् है, तो उसकी उत्पत्ति कैसी ? यदि उत्पत्ति होती है तो सर्वथा सत् कैसे ? घटादि पदार्थ जब तक उत्पन्न नहीं होते, तब तक उनसे जलधारणादि कार्य नहीं हो सकते, अतः घटगुणों से युक्त होकर घटरूप से उत्पन्न होने से पूर्व मृत्पिण्डादि कार्य को घटरूप में असत् समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि आत्मा, पंचभूत आदि सभी पदार्थों को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य, तथा किसी अपेक्षा से सत् और किसी अपेक्षा से असत्, इस प्रकार सद्सत्कार्यरूप न मानकर एकान्त मिथ्याग्रह पकड़ना ही आत्मषष्ठवादियों का मिथ्यात्व है। अतः बुद्धिमान् सत्यग्राही व्यक्तियों को प्रत्येक पदार्थ द्रव्यरूप से सत् (नित्य) और पर्याय रूप से असत् (अनित्य) मानना ही योग्य है। 56 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 24-25 (ख) कर्मगुणव्यपदेशाः प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत्तस्मात् / कार्यमसद्विज्ञ यं क्रिया प्रवृत्तेश्च कतणाम् // " -न्यायसिद्धान्त Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 17 से 18 क्षणिकवाद:दो रूपों में 17. पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो। अन्नो अणन्नो णेवाऽऽहु हेउयं च अहेउयं / / 17 // 15. पुढबी आऊ तेऊ य तहा वाउ य एकओ। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा // 18 // 17. कई बाल (अज्ञानी) क्षणमात्र स्थिर रहने वाले पाँच स्कन्ध बताते हैं। वे (भूतों से) भिन्न तथा अभिन्न, कारण से उत्पन्न (सहेतुक) और बिना कारण उत्पन्न (अहेतुक) (आत्मा को) नहीं मानतेनहीं कहते। 18. दूसरे (बौद्धों) ने बताया कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चारों धातु के रूप हैं, ये (शरीर के रूप में) एकाकार हो जाते हैं, (तब इनकी जीव-संज्ञा होती है)। विवेचन-क्षणमंगी पंच स्कन्धवाद : स्वरूप और विश्लेषण-१७वीं गाथा में पंचस्कन्धवादी कतिपय बौद्धों की क्षणिकवाद की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। मूल पाठ एवं वृत्ति के अनुसार पंचस्कन्धवाद क्षणिकवादी कुछ बौद्धों का मत है। विसुद्धिमग्ग सुत्तपिटकगत अंगुत्तरनिकाय आदि बौद्धग्रन्थों के अनुसार पाँच स्कन्ध निम्न हैं 1. रूपस्कन्ध, 2. वेदनास्कन्ध, 3. संज्ञास्कन्ध, 4. संस्कारस्कन्ध और 5. विज्ञानस्कन्ध / इन्हीं पांचों को उपादानस्कन्ध भी कहा जाता है। शीत आदि विविध रूपों में विकार प्राप्त होने के स्वभाव वाला जो धर्म है वह सब एक होकर रूपस्कन्ध बन जाता है। भूत और उपादान के भेद से रूपस्कन्ध दो प्रकार का होता है। सुख-दुःख, असुख और अदुःख रूप वेदन (अनुभव) करने के स्वभाव वाले धर्म का एकत्रित होना वेदनास्कन्ध है। विभिन्न संज्ञाओं के कारण वस्तुविशेष को पहचानने के लक्षण वाला स्कन्ध संज्ञास्कन्ध है, पुण्य-पाप आदि धर्म-राशि के लक्षण वाला स्कन्ध संस्कारस्कन्ध कहलाता है। जो जानने के लक्षण वाला है, उस रूपविज्ञान, रसविज्ञान आदि विज्ञान समुदाय को विज्ञानस्कन्ध कहते हैं। 57 ___ इन पाँचों स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है। इन पंचस्कन्धों से भिन्न आत्मा का न तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है, न ही 57 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 25 के आधार पर (ख) I पंच खन्धा-रूपक्खन्धो, वेदनाक्खंधो, साक्खंघो, संखारक्खंधो, विआगक्खंधो ति / तत्थ यं किचि सीतादि हि रूप्पनलक्खणं धम्मजातं, सव्वं तं एकतो करवा रूपक्खंधो ति वेदितव्वं / ' यं किंचि वेदयित लक्खणं "वेदनाक्खंधो वेदितव्वो। यं किंचि संजाननलक्खणं..."संमक्खंधो वेदितब्बो। -विसुद्धिमग खन्धानद्दे स प 306 II पश्चिमे, भिक्खवे, उपादानक्खंधा। कतमे पञ्च ? रूपुपादानक्खंधो, वेदनुपादानक्खंधो, स पादानरखंधो, संडखारूपाधानक्वंधो, विज्ञाणुपादानक्खंधो / इमे खो, भिक्खवे, पंचुपादानक्खंधा। -सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय, पालि भा० 4 पृ० 162 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय आत्मा के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाला कोई लिंग भी गृहीत होता है, जिससे कि आत्मा अनुमान द्वारा जाना जा सके / प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो ही बौद्धसम्मत प्रमाण हैं। इस प्रकार बौद्ध प्रतिपादन करते हैं। फिर वे कहते हैं-ये पाँचों स्कन्ध क्षणयोगी हैं, अर्थात् ये स्कन्ध न तो कूटस्थनित्य हैं, और न ही कालान्तर स्थायी हैं, ये सिर्फ क्षणमात्र स्थायी हैं। दूसरे क्षण ही समूल नष्ट हो जाते हैं। परमसूक्ष्म काल 'क्षण' कहलाता है / स्कन्धों के क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिए वे अनुमान प्रयोग करते हैं-स्कन्ध क्षणिक हैं, क्योंकि वे सत् हैं / जो जो सत् होता है, वह-वह क्षणिक होता है, जैसे मेघमाला / मेघमाला क्षणिक है, क्योंकि वह सत् है। उसी प्रकार सभी सत् पदार्थ क्षणिक हैं। सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्त्व है।५६ सत् में स्थायित्व या नित्यत्व घटित नहीं होता, क्योंकि नित्य पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता, इसलिए सत् में क्षणिकत्व ही घटित होता है / नित्य पदार्थ में क्रम स या युगपद् (एक साथ) अर्थक्रिया नहीं हो सकती, इसलिए सभी पदाथों को आनत्य माना ज उनकी क्षणिकता अनायास ही सिद्ध हो सकती है, और पदार्थों की उत्पत्ति हो उसके विनाश का कारण है, जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता, वह बाद में कभी नष्ट नहीं होगा। अतः सिद्ध हुआ कि पदार्थ अपने स्वभाव से अनित्य क्षणिक हैं, नित्य नहीं। __ 'अण्णो अणण्णो' 'हेउयं अहेउयं'–पदों का आशय-वृत्तिकार ने इन चारों पदों का रहस्य खोलते हुए कहा है कि जिस प्रकार आत्मषष्ठवादो सांख्य पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते हैं, या जिस प्रकार पंचमहाभूतवादी या तज्जीव-तच्छरीरवादी पंचभूतों से अभिन्न आत्मा को मानते हैं, उस प्रकार ये बौद्ध न तो पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते हैं, न ही पंचभूतों से अभिन्न आत्मा को। इसी प्रकार बौद्ध आत्मा को न तो सहेतुक (शरीर रूप में परिणत पंचभूतों से उत्पन्न) मानते हैं, और न ही अहेतुक (बिना किसी कारण से आदि-अन्तरहित नित्य) आत्मा को मानते हैं, चूर्णिकार भी इसी से सहमत है इसका उल्लेख उनके द्वारा मान्य ग्रन्थ सुत्तपिटक के दीघनिकायान्तर्गत महालिसुत्त और जालियसुत्त में मिलता है।" चातुर्धातुकवाद : क्षणिकवाद का दूसरा रूप १८वीं गाथा में क्षणिकवाद के दूसरे रूप चातुर्धातुकवाद का शास्त्रकार ने निरूपण किया है। यह मान्यता भी वृत्तिकार के अनुसार कतिपय बौद्धों की है। चातुर्धातुकवाद का स्वरूप सुत्तपिटक के मज्झिम निकाय के अनुसार इस प्रकार है 58 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 25.26 56 'अर्थक्रिया समर्थ यत् तदत्र परमार्थ सत्' -प्रमाणवार्तिक 60 क्रमेण युगपच्चापि यस्मादर्थक्रिया कृता / न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्त्वास्ततो मता:। -तत्त्वसंग्रह 61 (क) सूत्रकृ० शीला० वृ० पत्रांक 26 (ख) '.."अहं खो पनेतं, आवसो, एवं जानामि, एवं पस्सामि, अथ च पनाहं न वदामि तं जीवं तं सरीरं ति वा अचं जीवं अञ्ज सरीरं ति बा।" -सुत्तपिटके दीघनिकाय भा० पृ० 166 (ग) केचिदन्यं शरीरादिच्छन्ति, केचिदनन्यम्, शाक्यास्तु केचिद् नैवान्यम्, नवाप्यनन्यम् / -चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 4 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 17 से 18 चार धातु हैं-(१) पृथ्वी धातु, (2) जल धातु, (3) तेज धातु और (4) वायु धातु / ये चारों पदार्थ जगत् को धारण-पोषण करते हैं, इसलिए धातु कहलाते हैं / ये चारों धातु जब एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूपस्कन्ध बन जाते हैं, शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं, तब इनकी जीवसंज्ञा (आत्मा संज्ञा) होती है। जैसा कि वे कहते हैं-"यह शरीर चार धातुओं से बना है, इन चार धातुओं से भिन्न आत्मा नहीं है।''यह भूतसंज्ञक रूपस्कन्धमय होने के कारण पंचस्कन्धों की तरह क्षणिक है / अतः चातुर्धातुकवाद भी क्षणिकवाद का ही एक रूप है। 'जाणमा' शब्द का अर्थ है-वे बौद्ध, जो अपने आपको बड़े जानकार या ज्ञानी कहते है। कहीं-कहीं 'जाणगा' के बदले पाठान्तर है-'यावरे' (य+अवरे) उसका अर्थ होता है- 'और दूसरे' / 62 ये सभी अफलवादी-वृत्तिकार का कहना है कि ये सभी बौद्धमतवादी अथवा सांख्य, बौद्ध आदि सभी पूर्वोक्त मतवादी अफलवादी हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद के अनुसार पदार्थ मात्र, आत्मा या दान आदि सभी क्रियाएँ क्षणिक हैं। इसलिए क्रिया करने के क्षण में ही कर्ता-आत्मा का समूल विनाश हो जाता है। अतः आत्मा का क्रिया-फल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। जब फल के समय तक आत्मा भी नहीं रहती, क्रिया भी उसी क्षण नष्ट हो गई, तब ऐहिक और पारलौकिक क्रियाफल को कौन भोगेगा ? सांख्य मतानुसार एकान्त अविकारी, निष्क्रिय (क्रियारहित) एवं कूटस्थनित्य आत्मा में कर्तृत्व या फलभोक्तृत्व ही सिद्ध नहीं होता / सदा एक-से रहने वाले कूटस्थ नित्य, सर्वप्रपंचरहित, सर्वथा उदासीन आत्मा में किसी प्रकार की कृति नहीं होती कृति के अभाव में कर्तृत्व भी नहीं होता और कतृत्व के अभाव में क्रिया का सम्पादन असम्भव है / ऐसी स्थिति में वह (आत्मा) फलोपभोग कैसे कर सकता है ? जिनके मत में पंचस्कन्धों या पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है, उनके मतानुसार आत्मा (फलभोक्ता) ही न होने से सुख-दुःखादि फलों का उपभोग कौन और कैसे करेगा ? विज्ञान स्कन्ध भी क्षणिक है, ज्ञानक्षण अति सूक्ष्म होने के कारण उसके द्वारा भी सुख-दुःखानुभव नहीं हो सकता। जब आत्मा ही नहीं है, तो बन्ध-मोक्ष, जन्म-मरण, स्वर्ग-नरकगमन आदि की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाएगी। मोक्षव्यवस्था के अभाव में इन महाबुद्धिमानों को शास्त्र-विहित सभी प्रवृत्तियां निरर्थक हो जाएंगी। 59 गप" च परं, भिक्खवे, भिक्खु, इममेव कायं यथाठितं, यथापणिहितं धातुसो पच्चवेक्खति-अत्थि इमस्मि ___काये पथवी धातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायुधातु ति / " -सुत्तपिटके मज्झिमनिकाय पालि भा० 3, पृ० 153 (ख) “...तत्थ भूतरूपं चतुम्विधं-पयवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु ति" / --विसुद्धिमग खंधनिद्देस पु० 306 (ग) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26-27 63 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26 के आधार पर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताग--प्रथम अध्ययन–समय एकान्त क्षणिकवाद मानने से जो क्रिया करता है, और जो उसका फल भोगता है, इन दोनों के बीच काफी अन्तर होने से कृतनाश और अकृतागम ये दोनों दोष आते हैं, क्योंकि जिस आत्मक्षण ने क्रिया की, वह तत्काल नष्ट हो गया, इसलिए फल न भोग सका, यह कृतनाश दोष हुआ, और जिसने क्रिया नहीं की, वह फल भोगता है, इसलिए अकृतागम दोष हुआ। ज्ञान संतान भी क्षणिक होने से उसके साथ भी ये ही दोष आजायेंगे। अनेकान्त दृष्टि से आत्मा एवं पदार्थों का स्वरूप निर्णय पदार्थों की समीचीन व्यवस्था के लिए प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव, यों चार प्रकार के अभाव को मानना आवश्यक है / इसलिए क्षणभंगवाद निरूपित वस्तु का सर्वथा अभाव कथमपि संगत नहीं है, प्रध्वंसाभाव के अनुसार वस्तु का पर्याय (अवस्था) परिवर्तन मानना ही उचित है / ऐसी स्थिति में वस्तु परिणामी-नित्य सिद्ध होगी। जैन दृष्टि से आत्मा भी परिणामी नित्य, ज्ञान का आधार, दूसरे भवों में जाने-आने वाला, पंच भूतों से या शरीर से कथंचिभिन्न तथा शरीर के साथ रहने से शरीर से कथंचित् अभिन्न है / वह आत्मा कर्मों के द्वारा नरकादि गतियों में विभिन्न रूपों में बदलता रहता है, इसलिए वह अनित्य और सहेतुक भी है, तथा आत्मा के निजस्वरूप का कदापि नाश न होने के कारण वह नित्य और अहेतुक भी है। इस प्रकार मानने से कर्ता को क्रिया का सुख-दुःखादिरूप फल भी प्राप्त होगा, बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था भी बैठ जाएगी।५ सांख्यादिमत-निस्सारला एवं फलति 16. अगारमावसंता वि आरपणा वा वि पध्वया / ___इमं दरिसणमावन्ना सम्बदुक्खा विमुच्चती / / 16 / / 20. ते णावि संधि गच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते ओहंतराऽऽहिता // 20 // 21. ते णावि संधि णच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते संसारपारगा / / 21 // 22. ते णावि संधि गच्चा गं न ते धम्मविऊ जणा। __ जे ते उ वाइणो एवं ण ते गम्भस्स पारणा // 22 // 23. ते णावि संधि गच्चा न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं न ते जम्मस्स पारगा / / 23 / / 64 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26-27 के आधार पर 65 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 27-28 के अनुसार Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 16 से 27 24. ते णावि संधि णचा गंमते धम्मविऊ जणा / जे ते उ वाइणो एवं न ते दुक्खस्स पारगा / / 24 // 25. ते णावि संधि णच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाविणो एवं न ते मारस्स पारगा॥ 25 // 26. णाणाविहाई दुक्खाइं अणुभवंति पुणो पुणो। संसारचक्कवालम्मि वाहि-मच्चु-अराकुले // 26 // 27. उच्चावयाणि गच्छंता गब्भमेस्संताणतसो। ___ नायपुत्ते महाबोरे एवमाह जिणोत्तमे // 27 // त्ति बेमि॥ 16. घर में रहने वाले (गृहस्थ), तथा वन में रहने वाले तापस एवं प्रव्रज्या धारण किये हुए मुनि अथवा पार्वत–पर्वत की गुफाओं में रहने वाले (जो कोई) भी (मेरे) इस दर्शन को प्राप्त (स्वीकार) कर लेते हैं, (वे) सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। 20. वे (पूर्वोक्त मतवादी अन्यदर्शनी) न तो सन्धि को जानकर (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं,) और न ही वे लोग धर्मवेत्ता हैं / इस प्रकार के (पूर्वोक्त अफलवाद के समर्थक) वे जो मतवादी (अन्यदर्शनी) हैं, उन्हें (तीर्थंकर ने) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को तैरने वाले नहीं कहे। 21. वे (अन्यतैथिक) सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं,) तथा वे धर्मज्ञ नहीं हैं। इस प्रकार के जो वादी है (पूर्वोक्त सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे (अन्यतीर्थी) चातुर्गतिक संसार (समुद्र) के पारगामी नहीं हैं। 22. वे (अन्य मतावलम्बी) न तो सन्धि को जानकर (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं); और न ही वे लोग धर्म के ज्ञाता हैं। इस प्रकार के जो वादी (पूर्वोक्त मिथ्या सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे गर्भ (में आगमन) को पार नहीं कर सकते। 23. वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर ही (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं), और न ही वे धर्म के तत्त्वज्ञ हैं। जो मतवादी (पूर्वोक्त मिथ्यावादों के प्ररूपक हैं, वे जन्म (परम्परा) को पार नहीं कर सकते। 24. वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर (क्रिया में प्रवृत्ति करते हैं), और न ही वे धर्म का रहस्य जानते हैं। इस प्रकार के जो वादी (मिथ्यामत के शिकार) हैं, वे दुःख (-सागर) को पार नहीं कर सकते। 25. वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं), वे धर्म मर्मज्ञ नहीं हैं। अतः जो (पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्या प्ररूपणा करने वाले) वादी हैं, वे मृत्यु को पार नहीं कर सकते। 26. वे (मिथ्यात्त्वग्रस्त अन्य मतवादी) मृत्यु, व्याधि और वृद्धावस्था से पूर्ण (इस) संसाररूपी चक्र में बार-बार नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं-दुःख भोगते हैं। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहतांग-प्रथम अध्ययन-समय 27. ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने यह कहा है कि वे (पूर्वोक्त अफलवादी अन्यतीर्थी) उच्च-नीच गतियों में भ्रमण करते हुए अनन्त बार (माता के) गर्भ में आएंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-अन्य वर्शनियों का अपना-अपना मताग्रह-१९वीं गाथा में शास्त्रकार ने अन्य मतवादियों के द्वारा लोगों को अपने मत-पंथ की ओर खींचने की मनोवृत्ति का नमूना दिखाया है-वे सभी मतवादी यही कहते हैं-चाहे तुम गृहस्थ हो, चाहे आरण्यक या पर्वतीय तापस या योगी हो, चाहे प्रवृजित हो, हमारे माने हुए या प्रवर्तित दर्शन या वाद को स्वीकार कर लोगे तो समस्त शारीरिक, मानसिक या आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों से मुक्त हो जाओगे, अथवा जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भावास आदि के दुःखों से छुटकारा पा जाओगे / अथवा कठोर तप करके अपने शरीर को सुखा देना, संयम और त्याग की कठोरचर्या अपनाना, शिरोमुण्डन, केशलुञ्चन, पैदल विचरण, नग्न रहना या सीमित वस्त्र रखकर सर्दी-गर्मी आदि परीषह सहना, जटा, मृगचर्म, दण्ड, काषायवस्त्र आदि धारण करना ये सब शारीरिक क्लेश दुःखरूप हैं, हमारा दर्शन या मत स्वीकार करने पर इन शारीरिक कष्टों से छुटकारा मिल जाएगा। गार्हस्थ्य-प्रपंचों में रचे-पचे रहते हुए हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों से सर्वथा मुक्त न हो सकने वाले व्यक्ति को भी ये सभी दार्शनिक कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए हिंसादि आस्रवों, मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय आदि का त्याग या यथाशक्ति तप, व्रत, नियम, संयम करने के बदले सिर्फ अपने मत या दर्शन को स्वीकार करने का सस्ता, सरल और सीधा मार्ग बतला देते थे।। वनवासी तापस, पर्वतनिवासी योगी या परिव्राजक, जो परिवार, समाज और राष्ट्र के दायित्वों से हटकर एकान्त साधना करते थे, या उन्हें नैतिक, धार्मिक मार्गदर्शन देने से दूर रहते थे, उनके लिए भी वे दार्शनिक यही कहते थे कि हमारे दर्शन का स्वीकार करने से झटपट मुक्ति हो जाएगी, इसमें तुम्हें कुछ त्याग, तप आदि करने की जरूरत नहीं। दूसरों को आकर्षण करने की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमो मोगवञ्चनम् / अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रोड के लक्ष्यते // -विविध प्रकार के तप करना शरीर को व्यर्थ यातना देना है, संयम धारण करना अपने आपको भोग से वंचित करना है, और अग्निहोत्र आदि कर्म तो बच्चों के खेल-के समान मालूम होते हैं। 66 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 28 (ख) सूत्रकृतांग अमर सुखबोधिनी व्याख्या पृ० 125 के अनुसार (ग) 'पव्वर' के बदले कहीं-कहीं 'पवइया' पाठान्तर है, उसका अर्थ होता है,-'प्रजिताः' प्रव्रज्या धारण किये हए। पव्वया के दो अर्थ किये गए हैं-पव्वया=प्रबजिताः, प्रव्रज्या धारण किये हुए, अथवा पव्वया= पार्वता:-पर्वत में रहने वाले। -सूत्रकृ० समयार्थबोधिनी टीका पृ० 232 67 (क) सूत्रकृतांग शीलांक दृत्ति पत्रांक 28 के आधार पर (ब) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 126 के आधार पर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 20 से 27 सर्वदुःखों से विमुक्त होने का मार्ग यह या वह ? 'सम्बदुक्खा विमुच्चई' इस पंक्ति के पीछे शास्त्रकार का यह भी गभित आशय प्रतीत होता है कि पंचभूतात्मवादी से लेकर चातुर्धातुकवादी (क्षणिकवादी) तक के सभी दर्शनकार जो सर्वदुःखों से मुक्ति का आश्वासन देते हैं, क्या यही दुःख-मुक्ति का यथार्थ मार्ग है ? या श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप के द्वारा कर्मक्षय करके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, इन कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहना सर्वदुःखमुक्ति का मार्ग है ? इस प्रकार का विवेक प्रत्येक साधक स्वयं करे। सबसे बड़ा दुःख तो जन्म-मरण का है, वह कर्मबन्धन के मिटने से ही दूर हो सकता है, कर्मबन्धन तोड़ने का यथार्थ मार्ग मिथ्यात्वादि पांच आस्रवों से दूर रहना और रत्नत्रय की साधना करना है। ये सब दार्शनिक स्वयं दुःखमुक्त नहीं पूर्वगाथा में समस्त अन्य दर्शनियों द्वारा अपने दर्शन को अपना लेने से दुःखमुक्त हो जाने के झूठे आश्वासन का उल्लेख किया गया था, २०वी गाथा से लेकर २६वीं गाथा तक शास्त्रकार प्रायः एक ही बात को कई प्रकार से दोहराकर कहते हैं, वे दार्शनिक दुःख के मूल स्रोत जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, चतुगतिरूप संसार चक्र, गर्भ में पुनः-पुनः आगमन तथा अन्य अज्ञान-मोहादिजनित कष्टों आदि को स्वयं पार नहीं कर पाते, तो दूसरों को दुःखों से मुक्त कैसे करेंगे? ये स्वयं दुःखमुक्त नहीं हो पाते, इसके मूल दो कारण शास्त्रकार ने बताये हैं (1) संधि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं, (2) वे धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि शास्त्रकार ने उन सब दार्शनिकों के लिए छह गाथाओं के द्वारा यही बात अभिव्यक्त की है। __इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार २६वीं गाथा में कहते हैं-'नाणाविहाई दुक्खाई, अणुमति पुणो पुणो-अर्थात् वे विभिन्न मतवादी पूर्वोक्त नाना प्रकार के दुःखों को बार-बार भोगते हैं। इस का तात्पर्य यह है कि जब तक जीवन में मिथ्यात्व, हिंसादि से अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रहेगा, तब तक चाहे वह पर्वत पर चला जाए, घोर वन में जाकर ध्यान लगा लें, अनेक प्रकार के कठोर तप भी कर लें अथवा विविध क्रियाकाण्ड भी कर ले तो भी वह जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भवासरूप संसारचक्र-परिभ्रमण के महादुःखों को सर्वथा समाप्त नहीं कर सकता।८। ते णावि संधि गच्चा'-इस पंक्ति में 'ते' शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त किया गया है, जिनके मिथ्यावादों (मतों) के सम्बन्ध में शास्त्रकार पूर्वगाथाओं में कह आए हैं। वे संसार परिभ्रमणादि दुःखों को समाप्त नहीं कर पाते, इसके दो कारणों में से प्रथम महत्त्वपूर्ण कारण है-संधि की अनभिज्ञता। इस पंक्ति में संधि शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / प्राकृत शब्दकोष के अनुसार सन्धि के यहाँ प्रसंगवश मुख्यतया 6 अर्थ होते हैं(१) संयोग, (2) जोड़ या मेल, (3) उत्तरोत्तर पदार्थ-परिज्ञान, (4) मत या अभिप्राय, (5) अवसर, तथा (6) विवर-छिद्र / 68 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 28 के अनुसार 66 पाइअसद्दमहण्णवो पृष्ठ 842 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययम-समय इन अर्थों के सन्दर्भ में इस पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार समझना चाहिए(१) आत्मा के साथ कर्म का कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे संयोग, जोड़ या मेल है ? (2) आत्मा के साथ कर्मबन्धन की सन्धि कहाँ-कहाँ, और कैसे-कैसे किन कारणों से हो जाती है। (3) आत्मा कैसे किस प्रकार कर्मबन्धन से रहित हो सकता है, इस सिद्धान्त, मत या अभिप्राय को वे नहीं जान पाते। (4) उत्तरोत्तर अधिक पदार्थों (तत्त्वभूत पदार्थों) को वे नहीं जानते। (5) वे ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का विवर (रहस्य) नहीं जानते / अथवा आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्ति का अवसर कैसे मिल सकता है ? इस तथ्य को वे नहीं जानते / इस प्रकार संधि को जाने बिना ही वे (पूर्वोक्त) मतवादी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं।७० ‘ण ते धम्मविऊ जणा'-संसारपरिभ्रमणादि दुःखों से मुक्त न होने का दूसरा प्रबल कारण है-उनका धर्मविषयक अज्ञान / जब वे आत्मा को ही नहीं मानते, या मानते हैं तो उसे कूटस्थनित्य, निष्क्रिय, या शरीर या पंचभूतों या चतुर्धातुओं तक ही सीमित, अथवा पंचस्कन्धात्मक क्षणजीवी मानते हैं, तब वे आत्मा के धर्म को उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और वीर्य आदि निजी गुणों को-स्वभाव को कैसे जान पाएँगे? वे तो हिंसादि पापकर्मों को ही आत्मा का स्वाभाविक धर्म समझे बैठे हैं, अथवा आत्मा को जान-मानकर भी वे उसके साथ संलग्न होने वाले कर्मबन्ध को तोड़कर आत्मा को उसके निजी धर्म में रमण नहीं करा पाते / कदाचित् वे शुभकर्मजनित पुण्यवश स्वर्ग पा सकते हैं, परन्तु जन्म-मरणादि दुःखों से सर्वथा मुक्ति नहीं पा सकले, न ही उसके लिए तीर्थंकरों द्वारा आचरित, प्ररूपित एवं अनुभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतप रूप धर्म की आराधना-साधना करते हैं / वे इस धर्म के ज्ञान और आचरण से कोसों दूर हैं। __ उच्चावयाणि गच्छंता गम्भमेस्संति पुणो पुणो-यह भविष्यवाणी वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर द्वारा उन्हीं पूर्वोक्त वादियों के लिए की गई है। विश्वहितंकर राग-द्वष मुक्त, सर्वज्ञ निःस्पृह महापुरुष किसी के प्रति रोष, द्वष, वैर, घृणा आदि से प्रेरित होकर कोई वचन नहीं निकालते, उन्होंने अपने ज्ञान में पूर्वोक्त वाद की प्ररूपणा करने वाला जैसा अन्धकारमय भविष्य देखा, वैसा व्यक्त कर दिया। उन्होंने उनके लिए उच्चावयाणि गच्छता--उच्च नीच गतियों में भटकने की बात कही, उसके पीछे रहस्य यह है कि एक तो वे स्वयं उक्त मिथ्यावादों के कदाग्रहरूप मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, फिर वे हजारों-लाखों जनसमुदाय के समक्ष मुक्ति- सर्वदुःखमुक्ति का प्रलोभन देकर उन्हें भी मिथ्यात्वविष का पान कराते हैं, तब भला वे घोर मिथ्यात्व के प्रचारक इतने कठोर प्रायश्चित्त के बिना कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? फिर भी अगर वे गोशालक की तरह वीच में ही सँभल जाएँ, अपनी भूल सुधार लें तो कम से कम दण्ड से भी छुट्टी मिल सकती है। परन्तु मिथ्यात्व के गाढतम अन्धकार में ही वे लिपटे रहें, सम्यगदर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने की उनमें जिज्ञासा भी न हो तो चारों गतियों के दुःखों को भोगना ही पड़ेगा, अनन्त बार गर्भ में आना ही पड़ेगा।७१ इस प्रकार गणधर श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से तीर्थंकर भगवान महावीर से साक्षात सुना हुआ वर्णन किया है। 70 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 26 के आधार पर 71 वही, पत्रांक 26 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 25 से 32 बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक नियतिवाद-स्वरूप 28. आघायं पुण एगेसि उववना पुढो जिया / वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ॥१॥ 29. न त सयंकडं दुक्खं को अन्नकडं च णं / सुहं वा जइ वा दुक्खं सेहियं वा असेहियं // 2 // 30. न सयं कडं ण अन्नहिं वेदयन्ति पुढो जिया। संगतियं तं तहा तेसि इहमेगेसिमाहियं // 3 // 31. एवमेताई जता बाला पंडियमाणिणो / णिययाऽणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया / / 4 / / 32. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगभिया। एवं उठ्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया।। 5 / / 28. पुनः किन्हीं मतवादियों का कहना है कि (संसार में) सभी जीव पृथक्-पृथक् हैं, यह युक्ति से सिद्ध होता है / तथा वे (जीव पृथक्-पृथक् ही) प्लुख-दुःख भोगते हैं, अथवा अपने स्थान से अन्यत्र जाते हैं--अर्थात् ~~ एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। 26-30. वह दुःख (जब) स्वयं द्वारा किया हुआ नहीं है, तो दूसरे का किया हुआ भी कैसे हो सकता है ? वह सुख या दुःख, चाहे सिद्धि से उत्पन्न हुआ हो अथवा सिद्धि के अभाव से उत्पन्न हुआ हो, जिसे जीव पृथक्-पृथक् भोगते हैं, वह न तो उनका स्वयं का किया हुआ है, और न दूसरे के द्वारा किया हुआ है, उनका वह (सुख या दुःख) सांगतिक नियतिकृत है ऐसा इस दार्शनिक जगत् में किन्हीं (नियतिवादियों) का कथन है।' 31. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से इन (नियतिवाद की) बातों को कहनेवाले (नियतिवादी) स्वयं अज्ञानी (वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ) होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं, क्योंकि सुख-दुःख आदि) ___ 'मक्खलिपुत्तगोसालक' नियतिवाद का मूल पुरस्कर्ता और आजीवक सम्प्रदाय का प्रवर्तक था; परन्तु प्रस्तुत गाथाओं में कहीं भी गोशालक या आजीवक का नाम नहीं आया। हाँ, द्वितीय श्र तस्कन्ध में नियति और संगति शब्द का (सू० 663-65) उल्लेख है / उपासकदसांग के ७वें अध्ययन में गोशालक और उसके मत का सहालपुत्त और कुण्डकोलिय प्रकरण में स्पष्ट उल्लेख है कि गोशालक मतानुसार उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ आदि कुछ भी नहीं है / सब भाव सदा से नियत है। बौद्ध-ग्रन्थ दीघनिकाय, संयुक्त निकाय, आदि में तथा जैनागम व्याख्या प्रज्ञप्ति, स्थानांग, समवायांग, औपपातिक आदि में भी आजीवक मत-प्रवर्तक नियतिवादी गोशालक का (नामपूर्वक या नामरहित) वर्णन उपलब्ध है। ---जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 2, पृ० 138 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन-समय नियत (नियतिकृत) और अनियत (अनियतिकृत) दोनों ही प्रकार के होते हैं, परन्तु बुद्धिहीन (नियतिवादी) इसे नहीं जानते। 32. इस प्रकार कई (नियतिवाद से ही) पास में रहने वाले, (पार्श्वस्थ) अथवा कमंपाश (कर्मबन्धन) में जकड़े हुए (पाशस्थ) कहते हैं / वे बार-बार नियति को ही (सुख-दुःखादि का) कर्ता कहने की धृष्टता करते हैं। इस प्रकार (अपने सिद्धान्तानुसार पारलौकिक क्रिया में) उपस्थित होने पर भी वे (स्वयं को) दुःख से मुक्त नहीं कर सकते। विवेचन-नियतिवाद के गुण-दोष-यहाँ २८वीं गाथा से ३२वीं गाथा तक नियतिवाद के मन्तव्य का और मिथ्या होने का विश्लेषण किया गया है। नियतिवाद की मान्यता यहाँ तक तो ठीक है कि जगत् में सभी जीवों का अपना अलग-अलग अस्तित्व है / यह तथ्य प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणों और युक्तियों द्वारा सिद्ध है / क्योंकि जब तक आत्मा पृथक्-पृथक् नहीं मानी जायेगी, तब तक जीव अपने द्वारा कृत कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला सुख-दुःख नहीं भोग सकेगा और न ही सुखदुःख भोगने के लिए एक शरीर, एक गति तथा एक योनि को छोड़कर दूसरे शरीर, दुसरी गति तथा योनि को प्राप्त कर सकेगा। जीवों की पृथक्-पृथक् सत्ता मानने पर ही यह सब बातें घटित हो सकती हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त इस युक्ति से भी जीव पृथक्-पृथक् इसलिए सिद्ध हैं कि संसार में कोई सुखो, कोई दुःखी, कोई धनी, कोई निर्धन आदि विभिन्नताएँ देखी जाती हैं। प्रत्येक प्राणी को होने वाले न्यूनाधिक सुख-दुःख के अनुभव को हम झुठला नहीं सकते, तथा आयुष्य पूर्ण होते ही वर्तमान शरीर को यहीं छोड़कर दूसरे भव में प्राणी चले जाते हैं, कई व्यक्तियों को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो जाता है, इस अनुभूति को भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता / इस प्रकार प्रत्येक आत्मा का पृथक अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर पंचभूतात्मवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतछरोरवाद, पंचस्कन्धवाद या चातुर्धातुकवाद आदि वादों का खण्डन हो जाता है / इस अंश में नियतिवाद का कथन सत्य स्पर्शी है / परन्तु इससे आगे जब नियतिवादी यह कहते हैं कि प्राणियों के द्वारा भोगा जाने वाला सुख-दुःख आदि न तो स्व-कृत है, न पर-कृत है, वह एकान्त नियतिकृत ही है, तब उनका यह ऐकान्तिक कथन मिथ्या हो जाता है। एकान्त नियतिवाद कितना सच्चा, कितना झूठा ?-बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्जफलसूत्त में आजीवकमत-प्रवर्तक मक्खलि गोशाल के नियतिवाद का उल्लेख इस प्रकार है- सत्त्वों के क्लेश (दुःख) का हेतु प्रत्यय नहीं है / बिना हेतु और प्रत्यय के ही सत्त्व (प्राणी) क्लेश पाते हैं / बिना हेतु और प्रत्यय के सत्त्व शुद्ध होते हैं। न वे स्वयं कुछ कर सकते हैं, और न पराये कुछ कर सकते हैं, (कोई) पुरुषार्थ (पुरुषकार) नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का साहस (स्थाम) नहीं है, और न पुरुष का कोई पराक्रम है / समस्त सत्त्व, समस्त प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अवश (लाचार) हैं, निर्बल हैं, निर्वीय हैं, नियति के संयोग से छह जातियों में (उत्पन्न होकर) सुख-दुःख भोगते हैं। जिन्हें मूर्ख और पण्डित जानकर और अनुगमन कर दु:खों का अन्त कर सकते हैं / वहाँ यह नहीं है कि इस शील, व्रत, 2 (क) सुत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 26 के आधार पर (ख) तुलना कीजिए- “सन्ते के समण ब्राह्मणा इवं वादिनो एवं दिठ्ठिनो-असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्न सुखदुक्खं अत्ता च लोक च / इदमेव सच्च मोघमनं ति / -सुत्तपिटके उदानं नानातित्थिय सुत्तं पृ० 146-147 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 28 से 32 45 तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व कर लूँगा, परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूंगा। सुख और दुःख तो द्रोण (माप) से नपे-तुले (नियत) हैं, संसार में न्यूनाधिक या उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं है। जैसे सूल की गोली फेकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःख का अन्त करेंगे। संगतिअंत-शास्त्रकार नियतिवाद या नियति का सीधा नाम न लेकर इसे सांगतिक (सांतियं) बताते हैं / वृत्तिकार के अनुसार 'सगतिअं' की व्याख्या इस प्रकार है- "सम्यक्-अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे संगति कहते हैं। जिस जीव, को जिस समय, जहाँ, जिस सुख-दुःख का अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है, वही नियति है। उस संगति = नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते हैं। बौद्ध-ग्रन्थ दीघनिकाय में मक्खिल गोसाल के मत वर्णन में ..."नियतिसंगतिभावपरिणता' शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग द्वितीय श्रु तस्कन्ध सूत्र 663-65 में भी नियति और संगति दोनों शब्दों का यत्र-तत्र स्पष्ट उल्लेख है। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में नियतिवाद का वर्णन करते हुए कहा गया है-'चूंकि संसार के सभी पदार्थ अपने-अपने नियत स्वरूप से उत्पन्न होते हैं, अतः ज्ञात हो जाता है कि ये सभी पदार्थ नियति से उत्पन्न हैं। यह समस्त चराचर जगत नियति से बँधा हुआ है। जिसे, जिससे, जिस समय, जिस रूप में होना होता है, वह, उससे, उसी समय, उसी रूप में उत्पन्न होता है / इस तरह अबाधित प्रमाण से सिद्ध इस नियति की गति को कौन रोक सकता है ? कौन इसका खण्डन कर सकता है ? साथ ही काल, स्वभाव, कर्म और पुरुषार्थ आदि के विरोध का भी वह युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। 3 (क) “मवखलिगोसालो में एतदवोच-नस्थि महाराज, हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय / अहेतू अपच्चया सत्ता सङ्किलिस्सति / नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया / अहेतू अपच्च्या सत्ता विसुज्झंति / नस्थि अत्त. कारे, नत्थि परकारे, नत्थि पूरिसकारे, नत्यि बलं, नस्थि वीरियं, नत्थि पूरिसथामो, नस्थि पूरिस-परक्कमो / सवे सत्ता, सब्वे पाणा, सब्वे भूता, सम्वे जीवा अवसा अबला, अविरिया नियतिसंगतिभावपरिणता, छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ।""यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्संत करिस्संति / तत्थ नत्थि इमिनाहं सीलेन व वतेन वा तपेन बा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्क वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्क वा कम्मं फुस्स फुस्स व्यन्ति करिस्सामीति / हेवं नस्थि दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नस्थि उक्कंसायकसे / सेय्यथापिनाम सुत्तगुलेखित निब्बेठियमामेव पलेति एवमेव बाले च पण्डिते च संधावित्वा संसरित्वा दुक्खस्तं करिस्संतीति / " -सुत्तपिटके दीघनिकाये (पाली भाग 1) सामञफलसुत्त पृ० 41-53) नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् / ततो नियतिजा ह्यते, तत्स्वरूपानुबन्धतः / / यद्यदेव यतो यावत् तत्तदेव ततस्तथा। नियतं जायते न्ययात् क एनं बाधयितु क्षम: ? -शास्त्रवार्तासमुच्चय 5 देखिये श्वेताश्वतरो 0 श्लोक 2 में-कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूनानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् / संयोग एषां नत्वात्मभावादात्माण्वनीशः खदुःखहेतोसुः।" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय काल को त्रिकाल त्रिलोकव्यापी तथा विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का, यहाँ तक कि प्रत्येक कार्य, सुख-दुःखादि का कारण मानने वाले कालवादियों का खण्डन करते हुए नियतिवादी कहते हैं-एक ही काल में दो पुरुषों द्वारा किये जाने वाले एक सरीखे कार्य में एक को सफलता और दूसरे को असफलता क्यों मिलती है ? एक ही काल में एक को सुख और एक को दुःख क्यों मिलता है ? अतः नियति को माने बिना कोई चारा नहीं। स्वभाववादी सारे संसार को स्वभाव से निष्पन्न मानते हैं,वे कहते हैं-मिट्टी का ही घड़ा बनने का स्वभाव है, कपड़ा बनने का नहीं, सूत का ही कपड़ा बनने का स्वभाव है, घड़ा नहीं / इसतरह प्रति नियत कार्य-कारण भाव स्वभाव के बिना वन नहीं सकता। सभी पदार्थ स्वतः परिणमन स्वभाव के कारण ही उत्पत्र होते हैं, इसमें नियति की क्या आवश्यकता है ? इन युक्तियों का खण्डन करते हुए नियतिवादी कहते हैं-भिन्न-भित्र प्राणियों का, इतना ही नहीं एक ही जाति के अथवा एक ही माता के उदर से जन्मे दो प्राणियों का पृथक-पृथक स्वभाव नियत करने का काम नियति के बिना हो नहीं सकता। नियतिवाद ही इस प्रकार का यथार्थ समाधान कर सकता है। फिर स्वभाव पुरुष से भित्र न होने के कारण वह सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता। ईश्वर का या पुरुष का (स्वकृत) पुरुषार्थ भी सुख-दुःख कर्ता या जगत् के सभी पदार्थों का कारण नहीं हो सकता। एक सरीखा पुरुषार्थ करने पर भी दो व्यक्तियों का कार्य एक-सा या सफल क्यों नहीं हो पाता? अतः इसमें भी नियति का ही साथ है। ईश्वर-कृतक पदार्थ मानने पर तो अनेक आपत्तियां आती हैं / अब रहा कर्म / कर्मवादी कहते हैं-किसान, वणिक आदि का एक सरीखा उद्योग होने पर भी उनके फल में विभित्रता या फल की अप्राप्ति पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म के प्रभाव को सूचित करती है। इसका प्रतिवाद नियतिवादी यों करते हैं--"कर्म पुरुष से भित्र नहीं होता, वह अभित्र होता है, ऐसी स्थिति में वह पुरुष रूप हो जायगा और पुरुष पूर्वोक्त युक्तियों से सुखदुःखादि का कारण नहीं हो सकता / नियति ही एकमात्र ऐसी है, जो जगत् के समस्त पदार्थों की कारण हो सकती है। इस प्रकार स एकान्त नियतिवाद का खण्डन करते हुए शास्त्रकार सुत्र गाथा 31 द्वारा कहते हैं-- 'णिययाऽणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया-इसका आशय यह है कि वे मिथ्या प्ररूपणा करते हुए अज्ञ(हठाग्रही) एवं पण्डितमानी नियतिवादी एकान्त-नियतिवाद को पकड़ हुए हैं। वे इस बात को नहीं जानते कि संसार में सुख-दुःख आदि सभी नियतिकृत नहीं होते, कुछ सुख-दुःख आदि नियतिकृत होते हैं, क्योकि उन-उन 6. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 30 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या प०१४३-५ के आधार पर (ग) काल: पचति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः / काल: सुप्तेषु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ।।-हारोत सं० 'यदिन्द्रियाणां नियतः प्रचारः, प्रियाप्रियत्वं विषयेषु चैव / सुयुज्यते यज्जरयाऽऽतिभिश्च, कस्तत्र यत्नौ ? न न स स्वभावः // ' (च) 'कः कण्टकानां प्रकरोति तण्यं, विचित्रभाव मृगपक्षिणां च / स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति, कुतः प्रयत्नः ?' -बुद्ध चरित -सूत्र० टीका में उदधृत Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 28 से 32 सुख-दुःखों के कारणरूप कर्म का अबाधाकाल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता ही है, जैसे निकाचित कर्म का। परन्तु कई सुख-दुःख अनियत (नियतिकृत नहीं) होते हैं। वे पुरुष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुए होते हैं / ऐसी स्थिति में अकेला नियति को कारण मानना अज्ञान है। आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति तर्क' में बताया है कि काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुपार्थ ये पंच कारण समवाय है / इसके सम्बन्ध में एकान्त कथन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष कथन ही सम्यक्त्व है। जैन-दर्शन सुख-दुःख आदि को कथंचित् पुरुषकृत उद्योग साध्य भी मानता है, क्योंकि क्रिया से फलोत्पत्ति होती है और क्रिया उद्योगाधीन हैं। कहीं उद्योग की विभिन्त्रता फल की भिन्नता का कारण होती है, कहीं दो व्यक्तियों का एक सरीखा उद्योग होने पर भी किसी को फल नहीं मिलता, वह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है / इस प्रकार कथंचित् अदृष्ट (कर्म) भी सुखादि का कारण है / जैसे-आम, कटहल, जामुन, अमरुद आदि वृक्षों में विशिष्ट काल (समय) आने पर ही फल की उत्पत्ति होती है, सर्वथा नहीं। एक ही समय में विभित्र प्रकार की मिट्टियों में बोये हुए बीज में से एक में अत्रादि उग जाता है, दूसरी ऊपर मिट्टी में नहीं ऊगते इस कारण स्वभाव को भी कथंचित् कारण माना जाता है। आत्मा को उपयोग रूप तथा असंख्य-प्रदेशी होना तथा पुद्गलों का मूर्त होना और धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि का अमूर्त एवं गति-स्थिति में सहायक होना आदि सब स्वभावकृत है। इस प्रकार काल, स्वभाव, नियति अष्ट (कर्म) और पुरुषकृत पुरुषार्थ ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर-सापेक्ष सिद्ध होते हैं, इस सत्य तथ्य को मानकर एकान्त रूप से सिर्फ नियति को मानना दोषयुक्त है, मिथ्या है। कठिन शब्दों को व्याख्या--'लुप्पंति ठाणउ' अपनी आयु से अलग प्रच्युत हो जाते हैं, एक स्थान (शरीर) को छोड़कर दूसरे स्थान (शरीर या भव) में संक्रमण करते जाते हैं / सेहियं-असेहियं-ये दोनों विशेषण सुख के हैं / एक सुख तो सैद्धिक है और दूसरा है असैद्धिक / सिद्धि यानि मुक्ति में जो सुख उत्पत्र हो, उसे सैद्धिक और इसके विपरीत जो असिद्धि यानि संसार में सातावेदनीय के उदय से जो सुख प्राप्त होता है उसे असैद्धिक सुख कहते हैं। अथवा सुख और दुःख, ये दोनों ही सैद्धिक-असैद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं। पुष्पमाला, चन्दन और वनिता आदि की उपभोग क्रिया रूप सिद्धि से होने वाला सुख सेद्धिक तथा चाबुक की मार, गर्म लोहे आदि से दागने आदि सिद्धि से होने वाला दुःख भी सैद्धिक है / आकस्मिक अप्रत्याशित बाह्यनिमित्त से हृदय में उत्पत्र होने वाला आन्तरिक आनन्द रूप सुख असैद्धिक सुख है, तथा ज्वर, मस्तक पीड़ा, उदर शूल आदि दुःख, जो अंग से उत्पत्र होते हैं, वे असैद्धिक दुःख हैं। पासत्था-- इस शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं- 'पाश्वस्था' और 'पाशस्था' / पाश्वस्थ का अर्थ होता है-पास नजदीक में रहने वाले अथवा युक्ति समूह से बाहर या परलोक की क्रिया के किनारे ठहरने वाले अथवा कारणचतुष्टय (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 27 से 32 तक (ख) 'कालो सहाव-नियई..........।' -सन्मतितर्क Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय वादियों से अलग (एक किनारे) रहने वाले / पाशस्थ का अर्थ होता है-पाश (बन्धन) में जकड़े हुए की तरह कर्मपाश (कर्मबन्धन) में जकड़े हुए यहाँ 'पाशस्थ' रूप ही अधिक संगत लगता है। उबट्ठिया संता-अपने सिद्धान्तानुसार पारलौकिक क्रिया में उपस्थित (प्रवृत्त) होकर भी। ण ते दुक्ख विमोक्खया-वृत्तिकार के अनुसार अपने आपको संसार के दुःख से मुक्त नहीं कर पाते। चूर्णिकार ने ऽत्तदुक्खविमोक्खया' पाठ मानकर अर्थ किया है-अपनी आत्मा को संसार-दुःख से विमुक्त नहीं कर पाते। कहीं-कहीं 'ण ते दुक्खविमोयगा' पाठान्तर है, उसका भी वही अर्थ है / ' अज्ञानवाद-स्वरुप 33. जविणो मिगा जहा संता परिताणेण धज्जिता। असंकियाइं संकति संकियाई असंकिणो // 6 // 34. परियाणियाणि संकेता पासिताणि असंकिणो। __अण्णाणभयसंविग्गा संपलिति तहिं तहि // 7 // 35. अह तं पधेज्ज वज्झं अहे वज्झस्स वा वए। मुज्ज पयपासाओ तं तु मंदे ण देहती।। 8 // 36. अहियप्पाऽहियपण्णाणे विसमतेणुवागते / / से बद्ध पयपासेहिं तत्थ घायं नियच्छति // 6 // 37. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। असंकिताइं संकति संकिताइं असंकिणो // 10 // 38. धम्मपण्णवणा जा सा तं तु संकति मूढगा। आरंभाई न संकति अवियत्ता अकोविया // 11 // 39. सव्वघ्पर्ग विउक्स्सं सम्वं मं विहूणिया। __ अप्पत्तियं अकम्मसे एयमढें मिगे चुए // 12 // 40. जे एतं णाभिजाणंति मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणंतसो // 13 // 41. माहणा समणा एगे सवे गाणं सयं वदे। सव्वलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किंचणं // 14 // 8 (क) सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृष्ठ 6 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 33 से 50 42. मिलक्खु अमिलक्खुस्स जहा वुत्ताणुभासती। ण हेउं से विजाणाति भासियं तऽणुभासती // 15 // 43. एवमण्णाणिया नाणं वयंता विसयं सयं / णिच्छयत्थं ण जाणंति मिलक्खू व अबोहिए // 16 / / 44. अण्णाणियाण वोमंसा अण्णाणे नो नियच्छती। अप्पणो य परं णालं कुतो अण्णेऽणुसासिउं? // 17 // 45. वणे मूढे जहा जंतु मूढणेताणुगामिए। दुहओ वि अकोविया तिव्वं सोयं णियच्छति // 18 // 46. अंधो अंधं पहं णितो दूरमद्धाण गच्छती। आवज्जे उप्पहं जंतु अदुवा पंथाणुगामिए // 16 // 47. एवमेगे नियायट्ठी धम्ममाराहगा वयं / अदुवा अधम्ममावज्जे ग ते सव्वज्जुयं वए॥ 20 // 48. एवमेगे वितकाहिं जो अण्णं पज्जुवासिया। __ अप्पणो य वितकाहि अपमंजू हि दुम्मसी // 21 // 46. एवं सक्काए साता धम्मा-धम्मे अकोविया। दुक्खं ते नाइतुट्टति सउणी पंजरं जहा // 22 // 50. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं बई / जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया // 23 // 33-34. जैसे परित्राण-संरक्षण से रहित अत्यन्त शीघ्र भागनेवाले मृग शंका से रहित स्थानों में शंका करते हैं और शंका करने योग्य स्थानों में शंका नहीं करते / सुरक्षित-परित्राणित स्थानों को शंकास्पद और पाश-बन्धन-युक्त स्थानों को शंकारहित मानते हुए अज्ञान और भय से उद्विग्न वे (मृग) उनउन पाशयुक्त बन्धन वाले) स्थलों में ही जा पहुंचते हैं। 35. यदि वह मृग उस बन्धन को लांघकर चला जाए, अथवा उसके नीचे होकर निकल जाए तो पैरों में पड़े हुए (उस) पाशबन्धन से छूट सकता है, किन्तु वह मूर्ख मृग तो उस (बन्धन) को देखता (ही) नहीं है। 36. अहितारमा अपना ही अहित करने वाला तथा अहितबुद्धि (प्रज्ञा) वाला वह मृग कूटपाशादि (बन्धन) से युक्त विषम प्रदेश में पहुंचकर वहां पद-बन्धन से बँध जाता है और (वहीं) वध को प्राप्त होता है। 37. इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण अशंकनीय-शंका के अयोग्य स्थानों में शंका करते हैं और शंकनीय-शंका के योग्य स्थानों में निःशंक रहते हैं-शंका नहीं करते। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 38. वे मूढ़ मिथ्यावृष्टि, धर्मप्रज्ञापना-धर्मप्ररूपणा में तो शंका करते हैं, (जबकि) आरम्भोंहिंसायुक्त कार्यों में (सत्शास्त्रज्ञान से रहित है, इस कारण) शंका नहीं करते / 39. सर्वात्मक- सबके अन्तःकरण में व्याप्त-लोभ, समस्त माया, विविध उत्कर्षरूप-मान और अप्रत्ययरूप क्रोध को त्याग कर ही जीव अकर्माश (कर्म से सर्वथा) रहित होता है। किन्तु इस (सर्वज्ञभाषित) अर्थ (सदुपदेश या सिद्धान्त अथवा सत्य) को मृग के समान (बेचारा) अज्ञानी जीव ठुकरा देतात्याग देता है। 40. जो मिथ्यादृष्टि अनार्यपुरुष इस अर्थ (सिद्धान्त या सत्य) को नहीं जानते, मृग की तरह पाश (बन्धन) में बद्ध वे (मिथ्यादृष्टि अज्ञानी) अनन्तवार घात-विनाश को प्राप्त करेंगे-विनाश को ढूंढ़ते हैं। 41. कई ब्राह्मण (माहन) एवं श्रमण (ये) सभी अपना-अपना ज्ञान बघारते हैं-बतलाते हैं / परंतु समस्त लोक में जो प्राणी हैं, उन्हें भी (उनके विषय में भी) वे कुछ नहीं जानते / 42-43- जैसे म्लेच्छ पुरुष अम्लेच्छ (आर्य) पुरुष के कथन (कहे हुए) का (सिर्फ) अनुवाद कर देता है। वह हेतु (उस कथन के कारण या रहस्य) को विशेष नहीं जानता, किन्तु उसके द्वारा कहे हुए वक्तव्य के अनुसार ही (परमार्थशून्य) कह देता है / इसीतरह सम्यग्ज्ञान-हीन (ब्राह्मण और श्रमण) अपना-अपना ज्ञान बघारते--कहते हुए भी (उसके) निश्चित अर्थ (परमार्थ)को नहीं जानते / वे (पूर्वोक्त) म्लेच्छों-अनार्यों की तरह सम्यक् बोधरहित हैं। 44. अज्ञानियों-अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञानपक्ष में मीमांसा-पर्यालोचना करना युक्त (युक्तिसंगत) नहीं हो सकता। (जब) वे (अज्ञानवादी) अपने आपको अनुशासन (स्वकीय शिक्षा) में रखने में समर्थ नहीं हैं, तब दूसरों को अनुशासित करने (शिक्षा देने) में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? 45. जैसे बन में दिशामुढ़ प्राणी दिशामुढ नेता के पीछे चलता है तो सन्मार्ग से अनभिज्ञ वे दोनों ही (कहीं खतरनाक स्थल में पहुंचकर) अवश्य तीव्र शोक में पड़ते हैं। ----असह्य दुःख पाते हैं, (वैसे हो अज्ञानवादी सम्यक् मार्ग के विषय में दिङ्मूढ़ नेता के पीछे चलकर बाद में गहन शोक में पड़ जाते हैं / ) 46. अन्धे मनुष्य को मार्ग पर ले जाता हुआ दूसरा अन्धा पुरुष (जहाँ जाना है, वहाँ से) दूरवर्ती मार्ग पर चला जाता है, इसमें वह (अज्ञानान्ध) प्राणी या तो उत्पथ (ऊबड़-खाबड़ मार्ग) को पकड़ लेता है-पहुँच जाता है, या फिर उस (नेता) के पीछे-पीछे (अन्य मार्ग पर) चला जाता है / 47. इसी प्रकार कई नियागार्थी-मोक्षार्थी कहते हैं हम धर्म के आराधक हैं, परन्तु (धर्माराधना तो दूर रही) वे (प्रायः) अधर्म को ही (धर्म के नाम से) प्राप्त-स्वीकार कर लेते हैं। वे सर्वथा सरल-अनुकूल संयम के मार्ग को नहीं पकड़ते- नहीं प्राप्त करते / 48. कई दुर्बुद्धि जीव इस प्रकार के (पूर्वोक्त) वितर्कों (विकल्पों) के कारण (अपने अज्ञानवादी नेता को छोड़कर) दूसरे-ज्ञानवादी की पर्युपासना-सेवा नहीं करते / अपने ही वितर्कों से मुग्ध वे यह अज्ञानवाद हो यथार्थ (या सीधा) है, (यह मानते हैं।) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 33 से 50 46. धर्म-अधर्म के सम्बन्ध में अज्ञ (अज्ञानवादी) इस प्रकार के तर्कों से (अपने मत को मोक्षदायक) सिद्ध करते हुए दुःख (जन्म-मरणादि दुःख) को नहीं तोड़ सकते, जैसे पक्षी पीजरे को नहीं तोड़ सकता। 50. अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरे के वचन की निन्दा करते हुए जो (मतवादी जन) उस विषय में अपना पाण्डित्य प्रकट करते हैं, वे (जन्म-मरणादि रूप चातुर्गतिक) संसार में दृढ़ता से बंधे-जकड़े रहते हैं। विवेचन---अज्ञानदादियों को मनोदशा का चित्रण -वृत्तिकार के अनुसार ३३वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक अज्ञानवाद का निरूपण है, चूर्णिकार का मत है कि २८वी गाथा से ४०वीं गाथा तक नियतिवाद सम्बन्धी विचारणा है / उसके पश्चात् 41 से ५०वी गाथा तक अज्ञानवाद की चर्चा है / परन्तु इन गाथाओं को देखते हए प्रतीत होता है कि नियतिवादी, अज्ञानवादी, संशयवादी एवं एकान्तवादी इन चारों को शास्त्रकार ने चर्चा का विषय बनाकर जैन-दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त की कसौटी पर कसा है। सर्वप्रथम ३३वीं गाथा से ४०वीं गाथा तक एकान्तवादी, संशयवादी अज्ञान एवं मिथ्यात्व से ग्रस्त अन्य दार्शनिकों को वन्य मग की उपमा देकर बताया है कि वे ऐसे मग के समान हैं (1) जो असुरक्षित होते हुए भी सुरक्षित एवं अशंकनीय (सुरक्षित) स्थानों को असुरक्षित और शंकास्पद मान लेते हैं और असुरक्षित एवं शंकनीय स्थानों को सुरक्षित एवं अशकनीय मानते हैं। (2) जो चाहें तो पैरों में पड़े हुए उस पाश-बन्धन से छूट सकते हैं, पर वे उस बन्धन को बन्धन ही नहीं समझते। (3) अन्त में वे विषम प्रदेश में पहुंचकर बन्धन में बंधते जाते हैं और वहीं समाप्त हो जाते हैं / इसी प्रकार के एकान्तवादी अज्ञान-मिथ्यात्व ग्रस्त कई अनार्य श्रमण हैं, जो स्वयं सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र से पूर्णतः सुरक्षित नहीं है, जो हिंसा, असत्य, मिथ्याग्रह, एकान्तवाद या विषय-कषायादि से युक्त अधर्म प्ररूपणा को निःशंक होकर ग्रहण करते हैं और अधर्म प्ररूपकों की उपासना करते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं अहिंसा, सत्य, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि सद्धर्मों में वे शंकाकुल होकर उनसे दूर भागते हैं। वे सद्धर्म प्ररूपक, वीतराग, सर्वज्ञ हैं या उनके प्रतिनिधि हैं, उनके सानिध्य में नहीं पहुंचते / अहिंसा, अनेकात, अपरिग्रह, तप, संयम, एवं क्षमादि सद्धर्म की प्ररूपणा जिन शास्त्रों में है, उन पर शंका करते हैं. और यह कहते हुए ठुकरा देते हैं-यह तो असद्धर्म की प्ररूपणा है, इस अहिंसा से तो देश का बेड़ा गर्क हो जायेगा। इसके विपरीत जिन तथाकथित शास्त्रों में यज्ञीय आरम्भ और पशुबलिजनित घोर हिंसा की प्ररूपणा है, कामना-नामना पूर्ण कर्मकाण्डों का विधान है, हिंसाजनक कार्यों की प्रेरणा है, ऐसे पापोपादान भूत आरम्भों से बिल्कुल शंका नहीं करते. उसी अधर्म को धर्म-प्ररूपणा मानकर अन्ततोगत्वा वे एकान्तवादी, अज्ञानी एवं मिथ्यात्वी लोग घोर पापकर्म के पाश (बन्धन) में फँस जाते हैं जिसका परिणाम निश्चित है--बार-बार जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण / 6 सूयगडंग सुस्त (मूलपाठ, टिप्पण युक्त) की प्रस्तावना-पृष्ठ 6 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय इन गाथाओं में पूर्वोक्त अज्ञानियों की मनोदशा के फलस्वरूप तीन प्रक्रियाएँ बतायी हैं - (1) अशंकनीय पर शंका तथा शंकनीय पर अशंका, (2) कर्मबन्धन में बद्धता और (3) अन्त में विनाश। ____ अज्ञानवादियों के दो रूप-४१वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक दो प्रकार के अज्ञानवादियों का निरूपण है-एक तो वे हैं, जो थोड़ा-सा मिथ्याज्ञान पाकर उसके गर्व से उन्मत्त बने हुए कहते हैं कि दुनिया भर का सारा ज्ञान हमारे पास है, परन्तु उनका ज्ञान केवल ऊपरी सतह का पल्लवग्राही होता है, वे अन्तर की गहराई में, आत्मानुभूति युक्त ज्ञान नहीं पा सके, केवल शास्त्र वाक्यों का तोतारटन है जिसे, वे भोले भाले लोगों के सामने बघारा करते हैं / जैसे देशी भाषा में बोलने वाले आर्य व्यक्ति के आशय को न समझ विदेशी-भाषा-पण्डित केवल उस भाषा का अनुवाद भर कर देता है, वैसे ही वे तथाकथित शास्त्रज्ञानी, वीतराग सर्वज्ञों की अनेकान्तमयी सापेक्षवाद युक्त वाणी का आशय न समझकर उसका अनुवाद भर कर देते हैं और उसे संशयवाद कहकर ठुकरा देते हैं। इसके लिए ४३वी गाथा में कहा गया है-"निच्छयत्यं ण जाणंति।" दूसरे वे अज्ञानवादी हैं-जो कहते हैं-अज्ञान ही श्रेयस्कर है। कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान न होने पर वाद-विवाद, संघर्ष, वाक्कलह, अहंकार, कषाय आदि से बचे रहेंगे। जान-बूझ कर अपराध करने से भयंकर दण्ड मिलता है, जबकि अज्ञानवश अपराध होने पर दण्ड बहुत ही अल्प मिलता है, कभी नहीं भी मिलता। मन में रागद्वषादि उत्पन्न न होने देने का सबसे आस ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति को छोड़कर अज्ञान में ही लीन रहना / इसलिए मुमुक्षु के लिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। फिर संसार में विभिन्न मत है, अनेक पंथ हैं, नाना शास्त्र हैं, बहुत-से धर्म-प्रवर्तक हैं, किसका ज्ञान सत्य है, किसका असत्य ? इसका निर्णय और विवेक करना बहुत ही कठिन है। किसी शास्त्र का उपदेश देते किसी सर्वज्ञ को आँखों से नहीं देखा, ये शास्त्रवचन सर्वज्ञ के हैं या नहीं ? शास्त्रोक्तवचन का यही अर्थ है या अन्य कोई ? इस प्रकार का निश्चय करना भी टेढ़ी खीर है / अतः इन सब झमेलों से दूर रहने के लिए अज्ञान का सहारा लेना ही हितावह है।" इन दोनों प्रकार के अज्ञानवादियों का मन्तव्य प्रकट करने के पश्चात् शास्त्रकार ने प्रथम प्रकार के ज्ञानगवस्फीत अज्ञानवादियों की मनोवृत्ति का उल्लेख करते हुए उनके अज्ञानवाद का दुष्परिणामअनन्त संसार परिभ्रमण (४७वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक) में जो बताया है उसका निष्कर्ष यह है कि वे साधुवेष धारण करके मोक्षार्थी बनकर कहते हैं -हम ही धर्माराधक हैं / किन्तु धर्माराधना का क-खग वे नहीं जानते / वे षट्काय के उपमर्दनरूप आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होते हैं, दूसरों को भी आरम्भ का उपदेश देते हैं, उस हिंसादि पापारम्भ से रत्नत्रय रूप धर्माराधना तो दूर रही, उलटे वे धर्म भ्रमवश अधर्म कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं, वे संयम एवं सद्धर्म के मार्ग को ठुकरा देते हैं। न ही ऐसे सद्धर्म प्ररूपकों की सेवा में बैठकर इनसे धर्म तत्त्व समझते हैं। धर्माधर्म के तत्त्व से अनभिज्ञ वे लोग केवल कुतर्कों के 10 (क) वृत्तिकार ने अज्ञानवादियों में एकान्त नियतिवादियों, कूटस्थनित्य आत्मवादियों, एकान्त क्षणिकात्मवादियों (बौद्धों) आदि का उल्लेख किया है। -सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति पत्र 32 11 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 32 से 34 तक के आधार पर। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 33 से 50 53 सहारे अपनी मान्यता सिद्ध करते हैं। जैसे पिंजरे में बन्द पक्षी उसे तोड़कर बाहर नहीं निकल सकता वैसे ही अज्ञानवादी अपने मतवादरूपी या संसाररूपी पिंजरे को तोड़कर बाहर नहीं निकल सकते / वे केवल अपने ही मत की प्रशंसा में रत रहते हैं, फलतः अज्ञानवादरूप मिथ्यात्व के कारण वे संसार के बन्धन में दृढ़ता से बंध जाते हैं। जो अज्ञान को श्रेयष्कर मानने वाले दूसरे प्रकार के अज्ञानवादी हैं, शास्त्रकार उनका भी निराकरण 44 से 46 तक तीन गाथाओं में करते हैं। उनका भावार्थ यह है -"अज्ञानश्रेयोवादी अज्ञान को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, वह सब विचारचर्चा ज्ञान (अनुमान आदि प्रमाणों तथा तर्क, हेतु युक्ति) द्वारा करते हैं, यह 'बदतोव्याघात' जैसी बात है। वे अपने अज्ञानवाद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए ज्ञान का सहारा क्यों लेते हैं ? ज्ञान का आश्रय लेकर तो वे अपने ही सिद्धान्त का अपने विरुद्ध व्यवहार से खण्डन करते हैं। उन्हें तो अपनी बुद्धि पर ताला लगाकर चुपचाप बैठना चाहिए। जब वे स्वयं अज्ञानवाद सिद्धान्त के अनुशासन में नहीं चल सकते, तब दूसरों (शिष्यों) को कैसे अनुशासन में चलायेंगे ? साथ ही, अज्ञानवाद के शिक्षार्थियों को वे ज्ञान को तिलाजलि देकर कैसे शिक्षा दे सकेंगे? अज्ञानवाद ग्रस्त जब स्वयं सन्मार्ग से अनभिज्ञ हैं. तब उनके नेतत्व में बेचारा दिशामुढ माग से अनभिज्ञ भी अत्यन्त दुःखी होगा। वहाँ तो यही कहावत चरितार्थ होगी-'अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः / ' अंधे मार्गदर्शक के नेतृत्व में चलने वाला दूसरा अन्धा भी मार्ग भ्रष्ट हो जाता है, वैसे ही सम्यग् मार्ग से अनभिज्ञ अज्ञानवादी के पीछे चलने वाले नासमझ पथिक का हाल होता है / 12 इन दोनों में से दूसरे प्रकार की भूमिका वाले अज्ञान योवादी की तुलना भगवान् महावीर के समकालीन मतप्रवर्तक 'संजय वेलठ्ठिपुत्त' नामक अज्ञानवादी से की जा सकती है। जिसका हर पदार्थ के प्रश्न के सम्बन्ध में उत्तर होता था--"यदि आप पूछे कि क्या परलोक है ? और यदि मैं समझू कि परलोक है तो आपको बतलाऊं कि परलोक है / मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नही नहीं है / परलोक नहीं है / परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है।" संजय वेलठ्ठिपुत्त ने कोई निश्चित बात नहीं कही / " निष्कर्ष यह है कि संजयवेलठ्ठिपुत्त के मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञ यता अथवा अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है, जिसका सामान्य उल्लेख गाथा 43 में हुआ है-'निच्छयत्यं ण जाणति / ' यह मत पाश्चात्यदर्शन के संशयवाद अथवा अज्ञयवाद से मिलता-जुलता है। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में अमराविक्खेववाद में जो तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित वर्णन है, वह भी सूत्रकृतांग प्र० श्रु० के १२वें अध्ययन में उक्त अज्ञानवाद से मिलता-जुलता है / जैसे-"भिक्षुओ! 12 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 35-36 के आधार पर 13 (क) ".."संजयो वेलठपुत्तो म एतदवोच-'अत्थि परो लोकोति इति चे मं पुच्छसि, अस्थि परो लोको नि इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोको ति इति ते न व्याकरेय्यं / एवं ति पि मे नो, तथा ति पि मे नो, अझथा ति पि मे नो, नो ति पि मे नो, नो नो ति पि मे नो / नत्थि परो लोको पे""अस्थि च नत्थि च परो लोको पे..."नेवत्थि न नत्थि परो लोको""पे०." सुत्तपिटके दीघनिकाये सामञ्चफलसुत्तं पृ० 81-53 (ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० 1, पृ० 133 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मन में ऐसा होता है कि 'मैं ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है, यह बुरा है तब मैं ठीक से जाने बिना यह कह दूं कि यह अच्छा है और यह बुरा है, तो असत्य ही होगा, जो मेरा असत्य भाषण मेरे लिए घातक (नाश का कारण) होगा, जो घातक होगा, वह अन्तराय (मोक्ष मार्ग में होगा। अतः वह असत्य भाषण के भय से और घणा से न यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कि यह बुरा है / प्रश्नों के पूछे जाने पर कोई स्थिर बातें नहीं करता। यह भी नहीं, वह भी नहीं, ऐसा भो नहीं, वैसा भी नहीं...।' इसी प्रकार किसी पदार्थ विषयक प्रश्न के उत्तर में अच्छा-बुरा कहने से राग, द्वोष, लोभ, घणा आदि की आशंका, या तर्क-वितर्को का उत्तर देने में असमर्थता विधात (दुर्भाव) और बाधक समझकर किसी प्रकार का स्थिर उत्तर न देकर अपना अज्ञान प्रकट करना भी इसी अज्ञानवाद का अंग है / 14 कठिन शब्दों को व्याख्या-मिगा-वन्य पशु या विशेषतः हिरण। परियाणियाणि - वृत्तिकार के अनुसार--परित्राण-रक्षण से युक्त / चूर्णिकार के अनुसार-जो परितः- सव ओर से, ततानि-आच्छादित है. वे परितत हैं। पासिताणि-बाशयक्त स्थान / सालति - वत्तिकार के अनसार, अनर्थब आदि बन्धनों में एकदम जा पड़ते हैं। चूर्णिकार के अनुसार, कुटिल अन्य पाशों में जकड़ जाते हैं, अथवा उनके एक ओर पाश हाथ में लिए व्याध खड़े होते हैं, दूसरी ओर वागुरा (जाल या फंदा) पड़ा होता है, इन दोनों के बीच में भटकते हैं / वज्झं-बन्धनाकार में स्थित बन्धन अथवा वागुरा आदि बन्धन (बँधने वाले होने से) बन्ध कहलाते हैं / ये दोनों अर्थ बंधं एवं बंधस्स पाठान्तर मानने से होते हैं। वशं का संस्कृत रूपान्तर होता है-वज्र या वध्य / वधं का यहाँ अर्थ है-चमड़े का पाश-बन्धन / अहियाप्पाऽहियपण्णाणे-वृत्तिकार के अनुसार--अहितात्मा तथा अहितप्रज्ञान-अहितकर बोध या बुद्धि वाला। चूर्णिकार ने 'अहितेहितपण्णाणा' पाठान्तर माना है जिसका अर्थ होता है-अहित में हित बुद्धि वाले-हित समझने वाले / विसमंतेणुवागते-वृत्तिकार के अनुसार विषमान्त अर्थात् कूटपाशादि युक्त प्रदेश को प्राप्त होता है, अथवा कूटपाशादि युक्त विषम प्रदेश में अपने आपको गिरा देता है / चूर्णिकार के अनुसार--विषम यानि कूटपाशादि उपकरणों से घिरा हुआ, बागुरा (जाल) का द्वार, उसके पास पहुंच जाता है / अवियत्ता-अव्यक्त-मुग्ध भोले-भाले, सहजसद्विवेकविकल। अकोदिया-सुशास्त्र बोध रहित-अपण्डित / सव्वप्पगं-सर्वात्मक-जिसकी सर्वत्र आत्मा है, ऐसा सर्वात्मक सर्वव्यापी-लोभ / विउक्कसं-व्युत्कर्ष-विविध प्रकार का उत्कर्ष-गर्व मान / मंमाया, कपट / अप्पत्तियं -अप्रत्यय-क्रोध / वृत्ताणभासए-कथन या भाषण का केवल अनुवाद कर देता है / अन्नणियाणं-भगवती सूत्र की वृत्ति के अनुसार-कुत्सित ज्ञान अज्ञान है, जिनके वह (ऐसा) अज्ञान है, वे अज्ञानिक हैं। वीमंसा -पर्यालोचनात्मक विचारविमर्श अथवा मीमांसा / अण्णाणे नो नियच्छति-निश्चय रूप से अज्ञान के विषय में युक्त-संगत नहीं है / तिव्वं सोयं णियच्छति - चूर्णिकार के अनुसार तीव्र-अत्यन्त स्रोत= भय द्वार को नियत या अनियत (निश्चित या अनिश्चित रूप से पाता है / वृत्तिकार के अनुसार, तीव्र गहन या शोक निश्चय ही प्राप्त करता है। पंथाणुगामिए---अन्य मार्ग पर चल पड़ता है / सव्वज्जुए-वृत्तिका र एवं चूर्णिकार के अनुसार, सब प्रकार के ऋजु-सरल सर्वतोऋतु-मोक्ष गमन के लिए अकुटिल -संयम अथवा सद्धर्म / वियक्काहि-वितर्को-विविध मीमांसाओं या असत्कल्पनाओं के कारण / दुक्ख ते नाइतुति-चूर्णिकार के 14 देखिये, दीघनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त में तथागत बुद्ध द्वारा कथित अमराविक्खेववाद / -(हिन्दी अनुवाद)पृ० 1-10 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 51 से 56 अनुसार, वे दुःखरूप संसार को लांघ नहीं सकते / पार नहीं कर सकते / वृत्तिकार के अनुसार, असातोदयरूप दुःख को या उसके मिथ्यात्व आदि से बाँधे हुए कर्मबन्धन रूप कारण को अतिशय रूप से; व्यवस्थित ढंग से नहीं तोड़ सकते / णो अण्णं पज्जुवासिया-अन्य की उपासना-सेवा नहीं की / अन्य का अर्थ है-~आर्हतादि ज्ञानवादियों को पर्युपासना नहीं की। अयमजू-हमारा यह अज्ञानात्मक मार्ग ही अंजूनिदोष होने से व्यक्त या स्पष्ट है / सउणी पंजरं जहा-जैसे पिंजरे में बन्द पक्षी पिंजरे को तोड़ने में, तथा पिंजरे के बन्धन से स्वयं को मुक्त करने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही अज्ञानवादी संसार रूप पिंजरे को तोड़कर उससे अपने आपको मुक्त करने में समर्थ नहीं होता। विउस्संति-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-संस्कृत में इसका रूपान्तर होता है-विद्वस्यन्ते-विद्वान् की तरह आचरण करते हैं अथवा'विशेषेण उशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं वदन्ति, अर्थात् अपने शास्त्रों के पक्ष में विशिष्ट युक्तियों का प्रयोग करते हैं / संसार ते विउस्सिया-वृत्तिकार ने इसकी दो व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं-"संसारं चतुर्गतिभेदेन संसृतिरूपं विविध-अनेकप्रकारं उत्प्राबल्येन श्रिताः सम्बद्धाः, तत्र वा संसारे उषिता: तिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः / " अर्थात--चार गतियों में संसरण-भ्रमणरूप इस संसार में जो अनेक प्रकार से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं अथवा जो इस संसार में निवास करने वाले हैं / 15 कर्मोपचय निषेधवाद : क्रियावादी दर्शन 51. अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं। कम्मचितापणट्ठाणं संसारपरिवड्डणं / / 24 // 52. जाणं कारणऽणाउट्टी अबुहो ज च हिंसती। पुट्ठो संवेदेति परं अवियत्त खु सावज्ज / / 25 / / 53. सतिमे तओ आयाणा जेहि कीरति पावगं / __ अभिकम्माय पेसाय मणसा अणुजाणिया / / 26 / / 54. एए उ तओ आयाणा जेहि कोरति पावगं / एवं भावविसोहीए णिवाणमभिगच्छतो / / 27 // 55. पुत्तं पिता समारंभ आहारटुमसंजए।। भुजमाणो य मेधावी कम्मुणा नोवलिप्पति / / 28 // 56. मणसा जे पउस्संति चित्तं तेसि न विज्जती। अणवज्जं अतहं तेसि ण ते संवुडचारिणो // 26 // 51. दूसरा पूर्वोक्त (एकान्त) क्रियावादियों का दर्शन है / कर्म (कर्म-बन्धन) को चिन्ता से रहित (उन एकान्त क्रियावादियों का दर्शन) (जन्म-मरण-रूप) संसार की या दुःख समूह की वृद्धि करने वाला है। 15 (क) सूत्रकृतांग शीलाकवृत्ति पत्रांक 32 से 37 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ० 6 से 8 तक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 52. जो व्यक्ति जानता हुआ मन से हिंसा करता है, किन्तु शरीर से छेदन-भेदनादि क्रिया रूप हिंसा नहीं करता एवं जो अनजान में (शरीर से) हिंसा कर देता है, वह केवल स्पर्शमात्र से उसका (कर्मबन्ध का) फल भोगता है / वस्तुतः वह सावध (पाप) कर्म अव्यक्त-अस्पष्ट-अप्रकट होता है। 53. ये तीन (कर्मों के) आदान (ग्रहण-बन्ध के कारण) हैं, जिनसे पाप (पापकर्म बन्ध) किया जाता है- किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं अभिक्रम-आक्रमण करना, (2) प्राणिवध के लिए नौकर आदि को भेजना या प्रेरित करना, और (3) मन से अनुज्ञा-अनुमोदना देना। 54. ये ही तीन आदान-कर्मबन्ध के कारण हैं, जिनसे पापकर्म किया जाता है। वहाँ (पाप कर्म से) भावों की विशुद्धि होने से कर्मबन्ध नही, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति होती है। 55. (किसी दुष्काल आदि विपत्ति के समय) कोई असंयत गृहस्थपिता आहार के लिए पुत्र को भी मारकर भोजन करे तो वह कर्मबन्ध नहीं करता। तथा मेधावी साधु भी निष्पृहभाव से उस आहारमांस का सेवन करता हुआ कर्म से लिप्त नहीं होता। 56. जो लोग मन से (किसी प्राणी पर) द्वेष करते हैं, उनका चित्त विशुद्धियुक्त नहीं है तथा उनके (उस) कृत्य को निरबद्य (पापकर्म के उपचय रहित-निष्पाप) कहना अतथ्य-मिथ्या है। तथा वे लोग संवर (आस्रवों के स्रोत के निरोध) के साथ विचरण करने वाले नहीं हैं। विवेचन -बौद्धों का कर्मोपचय निषेधवाद-अज्ञानवादियों की चर्चा के बाद बौद्धों के द्वारा मान्य एकान्त क्रियावाद की चर्चा गाथा 51 से 56 तक प्रस्तुत की गई है। वैसे तो बौद्ध-दर्शन को अक्रियावादी कहा गया है, बौद्ध-ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के तृतीय भाग-अट्ठकनिपात के सिंहसुत्त में तथा विनयपिटक के महावग्ग (पाली) के सीहसेनापति वत्थु में बुद्ध के अक्रियावादी होने का उल्लेख है, सूत्रकृतांग के 12 वें समवसरण अध्ययन में सूत्र 535 की चूणि एवं वृत्ति में भी बौद्धों को अक्रियावादियों में परिगणित किया गया है, परन्तु यहाँ स्पष्ट रूप से बौद्ध-दर्शन को (वृत्ति और चूणि में) क्रियावादी-दर्शन बताया गया है, वह अपेक्षाभेद से समझना चाहिए। वृत्तिकार ने कियावादी-दर्शन का रहस्य खोलते हुए कहा है-जो केवल चैत्यकर्म (चित्त विशुद्धिपूर्वक) किये जाने वाले किसी भी कर्म आदि क्रिया को प्रधान रूप से मोक्ष का अग मानते हैं, उनका दर्शन क्रियावादी दर्शन है। ये एकान्त क्रियावादी क्यों हैं ? इसका रहस्य 51 वीं सूत्र गाथा में शास्त्रकार बताते हैं-'कम्मचितापणट्ठाणं'-अर्थात् ये ज्ञानावरणीय आदि की चिन्ता से रहित-दूर है / ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म 16 (क) सूयगडंग सुत्त (मुनि जम्बूविजयजी सम्पादित) की प्रस्तावना पृ० 10 (ख) सूत्रकृतांग चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 67 (ग) "..."अहं हि, सीह ! अकिरियं वदामि कायदुच्चरितस्स, वचीदुच्चरितस्स, मनोदुच्चरितस्स अनेकविहितानां पापकानं अकूसलानं धम्मानं अकिरियं वदामि"" -सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय, पालि भा० 3, अट्ठकनिपात पृ० 263-266 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गापा 51 से 56 कैसे-कैसे, किन-किन कारणों से, किस-किस तीब्र मन्द आदि रूप में बंध जाते हैं / वे सुख-दुःख आदि के जनक हैं या नहीं? उनसे छूटने के उपाय क्या-क्या हैं ? इत्यादि कर्म-सम्बन्धी चिन्ता-चिन्तन से एकान्त क्रियावादी दूर है। "कोई भी क्रिया, भले ही उससे हिंसादि हो, चित्तशुद्धिपूर्वक करने पर कर्मबन्धन नहीं होता"-इस प्रकार की कर्मचिन्ता से दूर रहने के कारण ही शायद बौद्धों को एकान्त क्रियावादी कहा गया होगा। इसके अतिरिक्त बौद्ध दार्शनिक अज्ञान आदि से किये गये चार प्रकार के कर्मोपचय को कर्मबन्ध का कारण नहीं मानते / उन चारों में से दो प्रकार के कर्मों का उल्लेख गाथा 52 में किया है-(१) परिजोपचित कर्म-कोपादि कारणवश जानता हआ केवल मन से चिन्तित हिंसादि कर्म, शरीर से नहीं. और (2) अविज्ञोपचित कर्म-अनजाने में शरीर से किया हुआ हिंसादि कर्म। नियुक्तिकार ने इन चारों का वर्णन पहले किया है उनमें शेष दो हैं—(३) ईर्यापथ कर्म--मार्ग में जाते अनभिसन्धि से होने वाला हिंसादि कर्म और (4) स्वप्नान्तिक कर्म-स्वप्न में होने वाला हिंसादि कर्म।१७ ये चारों प्रकार के कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होते अर्थात् तीव्र विपाक (फल) देने वाले नहीं बनते / जैसा कि शास्त्रकार ने गाथा 52 में कहा है-'पुट्ठो संवेदेति परं'। इन चारों प्रकार के कर्मों से पुरुष स्पृष्ट होता है, बद्ध नहीं। अतः ऐसे कर्मों के विपाक का भी स्पर्शमात्र ही वेदन (अनुभव) करता है। ये चतुर्विध कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं, यही सोचकर कर्मबन्धन से निश्चिन्त होकर वे क्रियाएँ करते हैं। कर्मबन्धन कब होता है, कब नहीं ? चूणिकार ने उक्त मत के सन्दर्भ में प्रश्न उठाया है कि कर्मोपचय (कर्म बन्धन) कब होता है ? उसका समाधान देते हुए कहा है-(१) प्रथम तो हनन किया जाने वाला प्राणी सामने हो, (2) फिर हनन करने वाले को यह भान (ज्ञान) हो कि यह प्राणी है, (3) उसके पश्चात् हनन करने वाले की ऐसी बुद्धि हो कि मैं इसे मारू या मारता हूं। इन तीन कारणों के अतिरिक्त उनके मतानुसार दो कारण और हैं-(१) पूर्वोक्त तीन कारणों के रहते हुए यदि वह उस प्राणी को शरीर से मारने की चेष्टा करता है, और (2) उस चेष्टा के अनुसार उस प्राणी को मार दिया जाता है-प्राणों का वियोग कर दिया जाता है। तब हिंसा होती है, और तभी कर्म का भी उपचय होता है। 17 (क) "तेषां हि परिज्ञोपचितं ईर्यापथं, स्वघ्नान्तिकं च कर्मचयं न यातीत्यतस्ते कम्मचितापणट्ठा / " --सूत्रकृतांग चूणि मू. पा. टि. पृ०६ (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 31 (ग) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 31 में कहा गया-'कम्म चयं न गच्छइ चउम्विहं भिक्खु समयंसि' बौदागम में चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता / 18 (क) 'स्यात्-कथं पुनरुपचीयते ? उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति ?, सत्व संज्ञा च 2, संचित्य संचित्य 3 जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपात: // ' --सूत्रकृ० चूणि, मू० पा० टिप्पण पु०६ (ख) "प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तदगता चेष्टा / प्राणश्च विप्रयोगः, पंचभिरापद्यते हिंसा // " -सूत्र० शीलांक वृत्ति पत्र० 37 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "8 सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययम-समय शास्त्रकार ने इस सन्दर्भ में बौद्ध मतानुसार पाप कर्मबन्ध के तीन कारण (53-54 वीं गाथाओं द्वारा) बलाये हैं--(१) स्वयं किसी प्राणी को मारने के लिए उस पर आक्रमण या प्रहार करना / (2) नौकर रों को प्रेरित या प्रेषित करके प्राणिवध कराना और (3) मन से प्राणिवध के लिए अनुज्ञा-अनुमोदना करना / ये तीनों पाप कर्म के उपचय (बन्ध) के कारण इसलिए हैं कि इन तीनों में दुष्ट अध्यवसाय-रागद्वेष युक्त परिणाम रहता है / भाव-शुद्धि से कर्मोपचय नही : एक विश्लेषण-इसीलिए 54 वीं गाथा के अन्त में उन्हीं का मत-प्ररूपणा करते हुए कहा गया है एवं भावविसोहीए निल्याणमभिगच्छति' इसका आशय यह नहाँ राग-द्वेष शहित बुद्धि से कोई प्रवृत्ति होती है, ऐसी स्थिति में जहाँ केवल विशुद्ध मन से या केवल शरीर से प्राणातिपात हो जाता है, वहाँ भाव-विशुद्धि होने के कारण कर्मोपचय नहीं होता, इससे जीव निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इस सम्बन्ध में बौद्ध-ग्रन्थ सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय के बालोवाद जातक में बुद्ध वचन मिलतः है-("दूसरे मांस की बात जाने दो) कोई असंयमी पुरुष अपने पुत्र तथा स्त्री को मारकर उस मांस का दान करे, और प्रज्ञावन संयमी (भिक्षु) उस मांस का भक्षण करे तो भी उसे पाप नहीं लगता / "2deg इसी बुद्ध वचन का आशय लेकर शास्त्रकार ने 55 वीं सुत्र गाथा में संकेत किया है / यद्यपि चणिकार सम्मत और वत्तिकार सम्मत दोनों पाठों में थोड़ा-सा अन्तर है, इसलिए अर्थ भेद होते हुए भी दोनों का आशय समान है। चूणिकारसम्मत पाठ है- 'पुत्तं पिता समारम्भ आहारट्ठमसंजए और अतिकार सम्मत पाठ है-'पुत्तं पिया समारब्भ आहारेज्ज असंजए / 25 चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या यों की है- 'पुत्र का भी समारम्भ करके; समारम्भ का अर्थ है-बेच कर, मारकर उसके मांस से या द्रव्य से और तो क्या कहें. पत्र न हो तो सुअर या बकरे को भी मारकर भिक्षुओं के आहारार्थ भोजन बनाए, स्वयं भी खाये / 22 कौन ? असंयत अर्थात् भिक्षु के अतिरिक्त, उपासक या अन्य कोई गृहस्थ उस त्रिकोटि शुद्ध भोजन को सेवन करता हुआ वह मेधावी भिक्षु कर्म से लिप्त नहीं होता / 23 16 ".."इमेसं खो अहं, तपस्सि, तिण्णं कम्मान एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसठ्ठानं मनोकम्मं महासावज्जतरं पञ्चपेमि, पापस्स कम्मरस किरियाय, पापस्स कम्मरस पत्तिया, नो तथा कायकम्म, नो तथा वची कम्मति / -सुत्तपिटके मज्झिमनिकाय (पा० भा० 2) म० पण्णा० उपालि सुत्तं पृ० 43.60 20 पुत्त-दारंपि चे हन्त्वा, देति दानं असञतो।। भुञ्जमानो पि संप्पो , न पापमुपलिम्पती" ~सुत्तपिटक, खुद्दक निकाय, बालोवादजातक पृ० 64 21 सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ०६ 22 50 बेचरदास जी दोशी के अनुसार 'पूत' शब्द 'शूकर' का द्योतक है; बुद्धचर्या के अनुसार बुद्ध ने 'शूकर मद्दव' (शूकर मांस) खाया था। -जैन सा० इति० भाग 1, पृ० 133 23 सूत्रकृतांग चूणि पृ० ३८-पुनमपि तावत् समारम्य, समारम्भो नाम विक्रीय मारयित्वा, तन्मांसेन वा द्रव्येण वा, किमंग पुणरपुत्रं शूकरं वा छग्गलं वा, आहारार्थ कुर्याद् भुक्त भिक्खूणं, अस्संजतो नाम भिक्खुण्यतिरिक्तः स पुनरुपासकोऽन्यो वा, तं च भिक्षः त्रिकोटि-शद्ध भूब्जानोऽपि मेधावी कम्मुणा गोवलिप्पते।" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शितीय उद्देशक : गाया 51 से 56 वृत्तिकार कृत व्याख्या इस प्रकार है-पुत्र-अपत्य को पिता-जनक समारम्भ करके यानी आहारार्थ मारकर कोई तथाविध विपत्ति आ पड़ने पर उसे पार करने के लिए राग-द्वेष रहित असंयत गृहस्थ उरल मांस को खाता हुआ भी, तथा मेधावी-संयमी भिक्षु भी (यानी वह शुद्धाशय गृहस्थ एवं भिक्षु दोनों). उस मांसाहार का सेवन करते हुए भी पाप कर्म से लिप्त नहीं होते। ___ इस सम्बन्ध में एक बौद्ध कथा भी है, जिसे तथागत बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को खानपान का उद्देश्य समझाने के लिए कही थी। उसका सार यह है-'पिता, पत्र एवं माता तीनों गहन वन में से थे, तीनों को अत्यन्त भूख लगी, पास में कुछ भी न था। शरीर में इतनी अशक्ति आ गयी कि एक डम भी चला नहीं जा रहा था / अतः पुत्र ने अपना मांस-भक्षण करके परिवार को जीवित रखने की पिता से प्रार्थना की / वैसा ही किया गया और उस पुत्र के माता-पिता ने उस अरण्य को पार किया / तथागत के यह पूछने पर कि क्या पिता ने अपने पुत्र का मांस स्वाद, शक्तिवृद्धि, बल-संचय अथवा शारीरिक रूप-लावण्य वृद्धि के लिए खाया था ? सबने कहा - 'नहीं।' इस पर तथागत ने कहा-"भिक्षुओ तुमने घरबार छोड़ा है, संसाराटवी को पार करने के हेतु भिक्षुब्रत लिया है, संसार रूपी भीषण वा पार करके तुम्हें निर्वाण लाभ करना है, अतः तुम भी इसी उद्देश्य से परिमित, धर्म-प्राप्त, यथाकाल-प्राप्त भोजन-पान लेते रहो, न मिले तो सन्तोष करो। किन्तु स्वाद, बलवृद्धि, शक्ति-संचय या रूप-लावण्यवृद्धि आदि दृष्टियों से खान-पान लोगे तो भिक्षु-धर्म से च्युत हो जाओगे और मोघ (पिण्डोलक) भिक्षु हो जाओगे / 25 सम्भव है, इस गाथा का वास्तविक आशय (भोजन में अनासक्ति) विस्मृत हो गया हो, और इस कथा का उपयोग बौद्ध गृहस्थ एवं भिक्षु दोनों मांस-भक्षण के समर्थन में करने लग गये हों। जो भी हो, बालोवाद जातक में उल्लिखित बुद्ध वचन के अनुसार राग-द्वेष रहित होकर शुसाशय से पुत्रवध करके उसका मांस खाने वाले पिता को तथा भिक्षुओं को कर्मोपचय नहीं होता, यह सिद्धान्त इस गाथा में बताया गया है। कर्मोपचय निषेधवाद का निराकरण-पूर्वोक्त पाँच गाथाओं में कर्मोपचय निषेध के सम्बन्ध में जो भी युक्ति, हेतु एवं दृष्टान्त दिये गये हैं, उन सबका निराकरण इस 56 वीं सूत्र गाथा द्वारा किया गया है 24 (क) पुत्तं पिता इत्यादि / पुत्रमपत्यं, पिता जनकः समारभ्य व्यापाद्य आहारार्थ कस्यां चित् तथा विधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्ताद्विष्ट: असंयतो गृहस्थः तत्पिशितं भुजानोऽपि, च शब्दस्यापि शब्दार्थत्वात् / तथा मेधा व्यपि संयतोपीत्यर्थः, तदेव गृहस्थो भिक्षा शुद्धाशयः पिशिताश्यपि कर्मपापेन नोपलिप्यते, नाशिलस्यते।" -सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 36 (ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० 1 पृ० 134-135 25 (क) सुत्तपिटके संयुत्तनिकाय पालि भा०२ पुत्तमंससुत्त पृ० 84 (ख) तुलना करो-ज्ञातासूत्र प्रथम अध्ययन धन्ना सार्थवाह एवं उसके पूत्रों द्वारा मत-पूत्री मांस विषयक प्रसंग (ग) बौद्ध भिक्ष ओं की मांसभक्षण निदोषिता का वर्णन सूत्रकृतांग द्वितीय तस्कन्ध गाथा 512 से 816 तथा 823-824 गाथाओ में मिलता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 'मणसाजे"संवुडचारिणो।' इसका आशय यह है कि जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर द्वेष या हिंसा में नहीं जाता, वह विशुद्ध है, इसलिए उन व्यक्तियों को पाप कर्म का बन्ध (उपचय) नहीं होता, यह कहना असत्य है, सिद्धान्त और युक्ति से विरुद्ध है। जानकर हिंसा करने से पहले राग-द्वेष पूर्ण भाव न आएं, यह सम्भव नहीं है / 26 भाव हिंसा तभी होती है, जब मन में जरा भी राग, द्वष, कषाय आदि के भाव आते हैं। वस्तुतः कर्म के उपचय करने में मन ही तो प्रधान कारण है, जिसे बौद्ध-ग्रन्थ धम्मपद में भी माना है / 27 उन्हीं के धर्म ग्रन्थ में बताया है कि 'राग-द्वेषादि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार (कर्म बन्धन रूप) है, और वही रागादि क्लेशों से मुक्त चित्त ही संसार का अन्त-मोक्ष कहलाता है। बौद्धों के द्वारा दृष्टान्त देकर यह सिद्ध करना कि विपत्ति के समय पिता द्वारा पूत्र का वध किया जाना और उसे मारकर स्वयं खा जाना और मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त मांसाशन करना पापकर्म का कारण नहीं है, बिलकुल असंगत है। राग-द्वेष से क्लिष्ट चित्त हुए बिना मारने का परिणाम नहीं हो सकता, 'मैं पुत्र को मारता हूँ' ऐसे चित्त परिणाम को असंक्लिष्ट कौन मान सकता है ?28 और उन्होंने भी तो कृत-कारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से हिंसादि कार्य को पापकर्मबन्ध का आदान कारण माना है। ईर्यापथ में भी विना उपयोग के गमनागमन करना चित्त की संक्लिष्टता है, उससे कर्म बन्धन होता ही है / हाँ, कोई साधक प्रमाद रहित होकर सावधानी से उपयोग पूर्वक चर्या करता है, किसी जीव को मारने की मन में भावना नहीं है, तब तो वहाँ उसे जैन सिद्धान्तानुसार पापकर्म का बन्ध न ही होता। परन्तु सर्वसामान्य व्यक्ति, जो बिना उपयोग के प्रमादपूर्वक चलता है, उसमें चित्त संक्लिष्ट होता ही है, और वह व्यक्ति पापकर्म बन्ध से बच नहीं सकता। इसी प्रकार चित्त संक्लिष्ट होने पर ही स्वप्न में किसी को मारने का उपक्रम होता है / अतः स्वप्नान्तिक कर्म में भी चित्त 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक=३६ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 27 (क) मनो पुब्वंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया। मनसा चे षछैन भासति वा करोति वा // 1 // -धम्मपद पढमो यमकवग्गो 1 (ख) चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् / तदेव तैविनिर्मुक्त भवान्त इति कथ्यते // -सूत्रकृतांग भाषानुवाद पृ० 126 28 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-३७ से 40 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 6 26 जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए / जयं भुजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ / / -दशव० अ० 48 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 57 से 56 अशुद्ध होने से कर्मबन्ध होता ही है। इसलिए चतुर्विध कर्म-उपचय (बन्ध) को प्राप्त नहीं होते, यह कहना भी यथार्थ नहीं है। इसीलिए शास्त्रकार ने कर्मोपचय निषेधवादी बौद्धों पर दो आक्षेप लगाये हैं-(१) कर्म चिन्ता से रहित हैं, (2) संयम और संवर के विचार से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। कठिन शब्दों की व्याख्या-संसारपरिवडणं-संसार-जन्म-मरण रूप संसार की वृद्धि करने वाला, पाठान्तर है-दुक्खक्खंधविवक्षण-दुःख-स्कन्ध" यानी असातावेदनीय के उदय रूप दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाला / जाणं कारण अणाउट्टी-जानता हुआ भी शरीर से हिंसा नहीं करने वाला। जानता हुआ यदि काया से प्राणी को, प्राणी के अंगों को काटता हो, अथवा चूर्णिकार के अनुसार जो 6 बातों से अभिज्ञ बुद्ध-तत्त्वज्ञ है, वह हिंसा करता हुआ भी पापकर्म का बन्ध नहीं करता अथवा स्वप्न में किसी प्राणी का घात करता हुआ भी काया से छेदनादि हिंसा नहीं करता / अबुहो-अनजान में, नहीं जानता हुआ। पुट्ठो संवेदेति परं-अविज्ञोपचित आदि चार प्रकार के कर्मों से कर्ता जरा-सा स्पृष्ट होता है, वह केवल स्पर्शमात्र का अनुभव करता है, क्योंकि उसका विपाक (फल) अधिक नहीं होता / जैसे-दीवार पर फेंकी हुई बालू की मुट्ठी स्पर्श के बाद ही झड़ जाती है। 'अवियत्तं खु सावज्ज'-उक्त चतुर्विध कर्म अव्यक्त-अस्पष्ट हैं, क्योंकि विपाक का स्पष्ट अनुभव नहीं इसलिए परिज्ञोपचितादि कर्म अव्यक्त रूप से सावध हैं। आयाणापापकर्मों के आदान-ग्रहण या कर्मबन्ध के कारण / अर्थात् जिन दुष्ट अध्यवसायों से पापकर्म का उपचय किया जाता है, वे आदान कहलाते हैं। भावविसोहीए-राग-द्वोष रहित बुद्धि से / चित्तं तेसि न विज्जतीप्राणिवध के परिणाम होने पर उनका चित्त शुद्ध नहीं रहता / अणवज्ज अतहं तेसि-केवल मन से द्वष करने पर भी उनके पाप कर्मबन्धन या कर्मोपचय नहीं होता, यह असत्य है / परवादि-निरसन 57. इच्चेयाहि दिट्ठीहि सातागारवणिस्सिता। सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं जणा // 30 // 58. जहा आसाविणि णावं जातिअंधो दुरूहिया। इच्छेज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति // 31 // 56. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। ____ संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियति // 32 // ति बेमि / 57. (अब तक बताई हुई) इन (पूर्वोक्त) दृष्टियों को लेकर सुखोपभोग एवं बड़प्पन (मान-बड़ाई) में आसक्त (विभिन्न दर्शन वाले) अपने-अपने दर्शन को अपना शरण (रक्षक) मानते हुए पाप का सेवन करते हैं। 30 चूणिकार के अनुसार-कर्मसमूह, वृत्तिकार के अनुसार-दुःख परम्परा बौद्ध सम्मत चार आर्य सत्यों में से दूसरा। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 58. जैसे चारों ओर से जल प्रविष्ट होने वाली (छिद्रयुक्त) नौका पर चढ़कर जन्मान्ध व्यक्ति पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच में ही जल में डूब जाता है। 56. इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि, अनार्य श्रमण संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, लेकिन वे संसार में ही बार-बार पर्यटन करते रहते हैं। -इस प्रकार मैं कहता हूँ। विवेचन-विभिन्न अन्यवृष्टियों की दशा-५७ से लेकर 56 तक की तीन गाथाओं में बताये गये विभिन्न एकान्त दर्शनों, वादों, दृष्टियों को सत्य मानकर उनकी शरण लेकर अन्धविश्वासपूर्वक चलने वाले व्यक्तियों की दुर्दशा का दो तरह से चित्रण किया गया है- (1) अपने दर्शन की शरण लेकर, कर्म बन्धन से निश्चिन्त होकर इन्द्रिय-सुखोपभोग एवं मान-बड़ाई में आसक्त वे लोग निश्शंक भाव से पापाचरण करते रहते हैं, (2) जैसे सच्छिद्र नौका में बैठा हआ जन्मान्ध अधबीच में ही पानी में डबता है, वैसे ही संसार सागर पार होने की आशा से मिथ्यात्व-विरति आदि छिद्रों के कारण कर्म जल प्रविष्ट हो जाने वाली मिथ्यादृष्टि युक्त मत नौका में बैठे हुए मत-मोहान्ध व्यक्ति बीच में ही डूब जाते हैं।" कठिन शब्दों की व्याख्या-सातागारवणिस्सिया-सुखशीलता में आसक्त / सरणं ति मण्णमाणा-हमारा यही दर्शन संसार से उद्धार करने में समर्थ है, इसलिए यही हमारा शरण-रक्षक होगा, यह मानकर। चूर्णिकार-हियति मण्णमाणा तु सेवंती अहियं जणा'-पाठान्तर मानकर इसकी व्याख्या करते हैं- 'इसी से हमारा हित होगा' इस प्रकार वे इस अहितकर को हितकर मानते हुए सेवन करते हैं / आसाविणीं गावंवृत्तिकार के अनुसार-जिसमें चारों और से पानी आता है, ऐसी सच्छिद्र नौका आस्रविणी कहलाती है। चूर्णिकार के अनुसार, जिसमें चारों ओर से पानी आकर गिरता है, इस कारण जिसके कोठे प्रकोष्ठ) टूट गये हैं, या कोठे बनाये ही नहीं गये हैं ऐसी नाव / अन्तरा य विसीयति-बार-बार चर्तुगतिक परिभ्रमण रूप संसार में ही पर्यटन करते हैं / 32 // द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 31 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 36 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 162 से 166 तक 32 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 39-40 (ख) सूयगडंग सुत्तं चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 10 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक / गाथा 60 से 63 तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक आधाकर्म दोष 60. जं किंचि वि पूतिकडं सड्डीमागंतुमीहियं / _सहस्संतरियं भुजे दुपक्खं चेव सेवती // 1 // 61. तमेव अविजाणंता विसमंमि अकोविया। __मच्छा वेसालिया चेव उदगस्सऽभियागमे // 2 // 62. उदगस्सऽप्पभावेणं सुक्कमि घातमिति उ / ढंकेहि व कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही // 3 // 63. एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो। मच्छा वेसालिया चेव घातमेसंतऽणंतसो // 4 // 60. जो आहार आधाकर्मी आहार के एक कण से भी दूषित, मिश्रित या अपवित्र है, और श्रद्धालु गृहस्थ के द्वारा आगन्तुक मुनियों, श्रमणों के लिए बनाया गया है, उस (दोषयुक्त) आहार को जो साधक हजार घर का अन्तर होने पर भी खाता है वह साधक (गृहस्थ और साधु) दोनों पक्षों का सेवन करता है। 61. उस (आधाकर्म आदि आहारगत दोष) को नहीं जानते हुए तथा (अष्टविध कर्म के या संसार के) ज्ञान में अनिपुण वे (आधाकर्मादि दोषयुक्त आहारसेवी साधक) उसी प्रकार दुःखी होते हैं, जैसे वैशालिक जाति के मत्स्य जल की बाढ़ आने पर। 62. बाढ़ के जल के प्रभाव से सूखे और गीले स्थान में पहुँचे हुए वैशालिक मत्स्य जैसे मांसार्थी ढंक और कक पक्षियों द्वारा सताये जाते हैं। 63. इसी प्रकार वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्त बार (विनाश) को प्राप्त होंगे। विवेचन-दूषित आहार-सेवी साधकों को दशा-गाथा 60 से 63 तक में शास्त्रकार ने स्व-समय (निर्ग्रन्थ श्रमणाचार) के सन्दर्भ में आधाकर्म आदि दोष से दूषित आहार-सेवन से हानि एवं दोषयुक्त आहार-सेवी की दुर्दशा का निरूपण किया है। छान्दोग्य उपनिषद में भी बताया है कि आहार-शुद्धि से सत्त्वशुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से स्मृति स्थायी होती है, स्थायी स्मृति प्राप्त होने पर समस्त ग्रन्थियों का विशेष प्रकार से मोक्ष हो जाता है।' 1 आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्र वा स्मृतिः / स्मतिलम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।' -छान्दोग्योपनिषद् अ० 7, खण्ड 26/2 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय यहाँ शास्त्रकार ने भी आहार शुद्धि पर जोर दिया है। अगर साधु का आहार आधाकर्मादिदोषदूषित होगा तो वह हिंसा का भागी तो होगा ही, उसके विचार, संस्कार एवं अन्तःकरण निर्बल हो जायेंगे दूषित आहार से साधु के सुख-शील कषाय युक्त प्रमादी बन जाने का खतरा है। 63 वीं सूत्र गाथा में स्पष्ट कहा गया है'वट्टमाण सुहेसिणो / ' आशय यह है कि आहार-विहार की निर्दोषता को ठुकराकर वे साधक वर्तमान में सुख-सुविधाओं को ढूंढ़ते रहते हैं, प्रमादी बनकर क्षणिक वैषयिक सुखों को देखते हैं, भविष्य के महान् दुःखों को नहीं देखते। प्रश्न होता है--आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन करने से कौन-से दुःख और कैसे प्राप्त होते हैं ? इसके समाधान हेतु भगवती सूत्र में यह द्रष्टव्य है--श्रमण भगवान महावीर से गणधर गौतम ने एक प्रश्न पूछा-~-'भगवन् ! आधाकर्मी (दोषयुक्त) आहार का सेवन करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ किस कर्म का बन्ध करता है ? कौन-सा कर्म प्रबल रूप से करता है ? कितने कर्मों का चय-उपचय करता है ?" उत्तर में भगवान ने कहा- “गौतम ! आधाकर्मी आहारकर्ता आयुष्य कर्म के सिवाय शेष 7 शिथिल नहीं हुई कर्म-प्रकृतियों को गाढ़-बन्धनों से बद्ध कर लेता है, कर्मों का चय-उपचय करता है यावत् दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। यहाँ वैशालिक जाति के मत्स्य से तुलना करते हुए शास्त्रकार ने स्पष्ट बताया है जिस प्रकार वैशालिक या विशालकाय मत्स्य समुद्र में तूफान आने पर ऊँची-ऊंची उछलती हुई लहरों के थपेड़े खाकर चले जाते हैं। उन प्रबल तरंगों के हटते ही गीले स्थान के सूख जाने पर वे समुद्र तट पर ही पड़े-पड़े तड़फते हैं, उधर मांसलोलुप ढंकादि पक्षियों या मनुष्यों द्वारा वे नोंच-नोंचकर फाड़ दिये जाते हैं। रक्षक के अभाव में वे वहीं तड़फ-तड़फ कर मर जाते हैं। यही हाल आधाकर्मी आहारभोजी का होता है, उन्हें भी गाढ कर्म बन्धन के फलस्वरूप नरक तिर्यंच आदि दुर्गतियों में जाकर दुःख भोगने पड़ते हैं, नरक में परभाधार्मिक असुर हैं, तिर्यंच में मांसलोलुप शिकारी, कसाई आदि हैं, जो उन्हें दुःखी कर देते हैं। आहार-दोष का ज्ञान न हो तो? कोई यह पूछ सकता है कि अन्यतीर्थी श्रमण, भिक्षु आदि जो लोग आधाकर्मादि दोषों से बिलकुल अनभिज्ञ है, उनके ग्रन्थों में आहार-दोष बताया ही नहीं गया है, न ही उनके गुरु, आचार्य आदि उन्हें आहार-शुद्धि के लिए आधाकर्मादि दोष बताते हैं / वे संसार परिभ्रमण के कारण और निवारण के सम्बन्ध में बिल्कुल अकुशल हैं। न वे दूषित आहार-ग्रहणजनित हिंसादि आस्रवों को पाप कर्मबन्ध का कारण मानते हैं, ऐसी स्थिति में उनकी क्या दशा होगी? इसके उत्तर में दो शब्दों में यहां कहा गया-ते दुही-वे दुःखी होते हैं। चाहे आहार दोष जानता हो, या न जानता हो, जो भी साधक आधाकर्मी आहार करेगा, उसे उसका कटुफल भोगना ही पड़ेगा। वृत्तिकार ने यहाँ निष्पक्ष दृष्टि से स्पष्ट कर दिया है-चाहे आहार दोषविज्ञ जैन श्रमण हो अथवा 'आहाकम्मं णं भुजमाणे समणे निगंथे कि बंधइ ? किं पकरेइ कि चिणाइ, किं उपचिणाइ ?" गोयमा ! आहाकम्मं णं भुजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिल बंधण-बद्धाओ धणियबंधण बद्धाओ पकरेइ, जाव अणुपरियट्टइ / " -भगवती सूत्र शतक 7, उ० 6, सू० 78 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 60 से 63 आजीवक, बौद्ध आदि आहार-दोष से अनभिज्ञ श्रमण हो, जो भी आधाकर्म दोष युक्त आहार करेगा, उसकी दुर्गति एवं अनन्त बार विनाश निश्चित है—'घातमेस्सति गंतसो' / ___आधाकर्म दोषयुक्त आहार की पहचान-आहार आधाकर्म दोषयुक्त कैसे जाना जाये ? क्या दूसरे शुद्ध आहार के साथ मिल जाने या मिला देने से वह आहार आधाकर्म दोषयुक्त नहीं रहता? इसके उत्तर में 60 वीं गाथा में स्पष्ट बता दिया गया है-'पूतिकडं सड्ढीमागंतुमीहियं / किसी श्रद्धालु भक्त द्वारा गांव में आये हुए साधु या श्रमणादि के लिए बनाया हुआ आहार आधाकर्म दोषयुक्त आहार है। विशुद्ध आहार में उसका अल्पांश भी मिल जाय तो बह पूतिकृत आहार कहलाता है और एक, दो नहीं चाहे हजार घरों का अन्तर देकर साधू को दिया गया हो, साधू उसका सेवन करे तो भी वह साधु उक्त दोष से मुक्त नहीं होता। बल्कि शास्त्रकार कहते हैं-दुपक्खं चेव सेवए / आशय यह है कि ऐसे आहार का सेवी साधु द्विपक्ष दोष-सेवन करता है। 'दुपक्ख' (द्विपक्ष) के तीन अर्थ यहाँ फलित होते हैं (1) स्वपक्ष में तो आधाकर्मी आहार-सेवन का दोष लगता ही है, गृहस्थ पक्ष के दोष का भी भोगी वह हो जाता है, अतः साधु होते हुए भी वह गृहस्थ के समान आरम्भ का समर्थक होने से द्विपक्ष-सेवी है। (2) ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी दोनों क्रियाओं का सेवन करने के कारण द्विपक्ष-सेवी हो गया। आहार लाते समय ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और दोषयुक्त आहार लेने व सेवन करने से माया और लोभ दोनों कषायों के कारण साम्परायिकी क्रिया भी लगती है। (3) दोषयुक्त आहार लेने से पहले शिथिल रूप से बाँधी हुई कर्म प्रकृतियों को वह निधत्त और निकाचित रूप से गाढ़ स्थिति में पहुँचा देता है / अतः वह द्विपक्ष-सेवी है। कठिन शब्दों को व्याख्या-सड्डीमागंतुमोहियं-चूर्णिकार के शब्दों में-श्रद्धा अस्यास्तीतिश्राद्धी आगच्छन्तीस्यागन्तुकाः / तैः श्राद्धीभिरागन्दननु प्रेक्ष्य प्रतीत्य बक्खडियं / अधवा सडित्ति जे एकतो वसंति तानुद्दिश्य कृतम् / तत् पूर्वपश्चिमाना आगन्तुकोऽपि यदि सहस्संतरकडं भुजे दुपवखं णाम पक्षो वो सेवते / अर्थात् -जिसके हृदय में श्रद्धा (साधुजनों के प्रति) है, वह श्राद्धी है। जो नये आते हैं वे आगन्तुक हैं। उन श्रद्धालुओं द्वारा आगन्तुक साधुओं के उद्देश्य से अथवा उन्हें आये देख जो आहार तैयार कराया है। अथवा श्राद्धी का अर्थ है, जो साधक एक ओर रहते हैं, उन्हें उद्देश्य करके जो आहार बनाया है, उस आहार को यदि पहले या पीछे आये हुए आगन्तुक भिक्षु, श्रमण या साधु यदि हजार घर में ले जाने के पश्चात् भी सेवन करता है, तो द्विपक्ष दोष का सेवन करता है। वृत्तिकार के अनुसार-श्रद्धावताऽन्येन भक्तिमताऽपरान् आगन्तुकान् उद्दिश्य ईहितं चेष्टितम् निष्पादितम्'अर्थात् दूसरे भक्तिमान् श्रद्धालु ने दूसरे आये हुए साधकों के उद्देश्य (निमित्त) से बनाया है, तैयार किया है। प्रतिकडं-आधाकर्मादि दोष के कण से भी जो अपवित्र दूषित है। तमेव अजाणंता विसमंसि अकोजिया--आधाकर्मादि आहार दोष के सेवन को न जानने वाले विषम अष्टविध कर्मबन्ध से करोड़ों जन्मों 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 40-41 के आधार पर Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय में भी छूटना कठिन है, ऐसे अष्टविध कर्मबन्धों को जानने में अकोविद-अनिपुण / यह कर्मबन्ध कैसे होता है, कैसे नहीं ? यह संसार सागर कैसे पार किया जा सकता है ? इन विषयों के ज्ञान में अकुशल / आमिसत्यहि-मांसार्थी मछुओं (मछली पकड़ने वालों) द्वारा (जिंदा ही काटी जाती हैं)। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है- आमिसासोहि जिसकी व्याख्या की गयी है-आमिषाशिन:-शृगाल-पभि मनुष्यमार्जगदययस्तः / अर्थात् मांसभोजी शियार, पक्षी (गिद्ध आदि), मनुष्य (मछुए, कसाई आदि) तथा बिल्ली आदि के द्वारा। कहीं-कहीं 'सुक्क सिग्छतमिति उ' पाठ की इस प्रकार संगति बिठायी गयी है-'सुक्कंसि घंतमिति'- पानी के सूख जाने पर वे (मत्स्य) अशरण-रक्षा रहित होकर घात–विनाश को प्राप्त होते हैं। घंतमिति का अर्थ चूर्णिकार ने किया है--"वन्तमेतीति-घनघोतन वा अंतं करोतीति घन्तः-घातः तम् एति-प्राप्नोतीत्यर्थः अथवा घेतो णाममच्चू तं मच्चूमेति / ' अर्थात् घनघात-सघन चोटें मारकर या पीट-पीटकर अन्त करने से विनाश को प्राप्त होते हैं, अथवा घेत का अर्थ मृत्यु, वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जगत् कर्तृत्ववाद 64 इणमन्नं तु अण्णाणं इहमेगेसिमाहियं / देवउत्ते अयं लोगे बंभउत्ते त्ति आवरे // 5 / / 65 ईसरेण कडे लोए पहाणाति तहावरे / जीवा-ऽजीवसमाउत्ते सुह-दुक्खसमन्निए॥६॥ 66 सयंभुणा कडे लोए इति वुत्तं महेसिणा। मारेण संथुता माया तेण लोए असासते // 7 // माहणा समणा एगे आह अंडकडे जगे। असो तत्तमकासी य अयाणंता मुसं वदे // 8 // 68 सएहि परियाएहि लोयं बूया कडे ति य।. सत्तं ते ण विजाणंती ण विणासि कयाइ वि // 6 // 69 अमणुण्णसमुष्पादं दुक्खमेव विजाणिया। समुप्पादमयाणंता किह नाहिति संवरं // 10 // 64. (पूर्वोक्त अज्ञानों के अतिरिक्त) दूसरा अज्ञान यह भी हैं-'इस लोक (दार्शनिक जगत्) में किसी ने कहा है कि यह लोक (किसी) देव के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है और दूसरे कहते हैं कि ब्रह्मा ने बनाया है।' 4 (क) सूत्रकृ० शीला० वृ० पत्रांक 40-41 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (सूयगडंग मूलपाठ टिप्पण युक्त) पृ० 10-11 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाया 64 से 66 65. जीव और अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित (सहित) यह लोक ईश्वर के द्वारा कृत-रचित है (ऐसा कई कहते हैं) तथा दूसरे (सांख्य) कहते हैं कि (यह लोक) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा कृत हैं। 66. स्वयम्भू (विष्णु या किसी अन्य) ने इस लोक को बनाया है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है। यमराज ने यह माया रची है, इसी कारण यह लोक अशाश्वत-अनित्य (परिवर्तनशील) है ! 67. कई माहन ब्राह्मण) और श्रमण जगत् को अण्डे के द्वारा कृत कहते हैं तथा (वे कहते हैं)ब्रह्मा ने तत्त्व (पदार्थ-समूह) को बनाया है। वस्तुतत्त्व को न जानने वाले ये (अज्ञानी) मिथ्या ही ऐसा कहते हैं। 68. (पूर्वोक्त अन्य दर्शनी) अपने-अपने अभिप्राय से इस लोक को कृत (किया हुआ) बतलाते हैं। (वास्तव में) वे (सब अन्यदर्शनी) वस्तुतत्त्व को नहीं जानते, क्योंकि यह लोक कभी भी विनाशी नहीं है। ___66. दुःख अमनोज्ञ (अशुभ) अनुष्ठान से उत्पन्न होता है, यह जान लेना चाहिए / दुःख की उत्पत्ति का कारण न जानने वाले लोग दुःख को रोकने (संकट) का उपाय कैसे जान सकते हैं ? विवेचन-लोक कर्तृत्ववाद : विभिन्न मतवादियों की दृष्टि में-गाथा 64 से 66 तक शास्त्रकार ने इसे अज्ञानवादियों का दूसरा अज्ञान बताकर लोक-रचना के सम्बन्ध में उनके विभिन्न मतों को प्रदर्शित किया है। इन सब मतों के बीज उपनिषदों, पुराणों एवं स्मृतियों तथा सांख्यादि दर्शनों में मिलते हैं / यहाँ शास्त्रकार ने लोक रचना के विषय में मुख्य 7 प्रचलित मत प्रदर्शित किये हैं (1) यह किसी देव द्वारा कृत है, गुप्त (रक्षित) है, उप्त (बोया हुआ) है। (2) ब्रह्मा द्वारा रचित है, रक्षित है या उत्पन्न किया गया है। (3) ईश्वर द्वारा यह सृष्टि रची हुई है। (4) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा लोक कृत है। (5) स्वयम्भू (विष्णु या अन्य किसी के) द्वारा यह लोक बनाया हुआ है / (6) यमराज (मार या मृत्यु) ने यह माया बनायी है, इसलिए लोक अनित्य है। (7) यह लोक अण्डे से उत्पन्न हुआ है। (1) देवकृत लोक-वैदिक युग में मनुष्यों का एक वर्ग अग्नि, वायु, जल, आकाश, विद्युत, दिशा आदि शक्तिशाली प्राकृतिक तत्त्वों का उपासक था प्रकृति को ही देव मानता था। मनुष्य में इतनी शक्ति कहां, जो इतने विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर सके, देव ही शक्तिशाली है / इस धारणा से देवकृत लोक की कल्पना प्रचलित हुई / इसलिए कहा गया-देवउत्ते। इसके संस्कृत में तीन रूप हो सकते हैं-देव -उप्त, देवगुप्त और देवपुत्र / 'देव-उप्त' का अर्थ है-देव के द्वारा बीज की तरह बोया गया। किसी देव ने अपना बीज (वीर्य) किसी स्त्री में बोया (डाला) और उससे मनुष्य तथा दूसरे प्राणी हुए / प्रकृति की सब वस्तुएं हुईं। ऐतरेयोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् आदि में इसके प्रमाण मिलते हैं। देवगुप्त का अर्थ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय है-देवों या देव द्वारा रक्षित / सारा जगत् किसी देव द्वारा रक्षित है। देवपुत्र का अर्थ है- यह जगत् तथाकथित देव का पुत्र सन्तान है, जिसने संसार को उत्पन्न किया है / (2) ब्रह्मरचितलोक-कोई प्रजापति ब्रह्मा द्वारा लोक की रचना मानते हैं। उनका कहना है-- मनुष्य में इतनी शक्ति कहाँ कि इतनी विशाल व्यापक सृष्टि की रचना और सुरक्षा कर सके / और देव भले ही मनुष्यों से भौतिक शक्ति में बढ़े-चढ़े हों, लेकिन विशाल ब्रह्माण्ड को रचने में कहाँ समर्थ हो सकते हैं ? वही सारे संसार को देख सकते हैं। जैसा कि उपनिषद में कहा है- "सृष्टि से पहले हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) अकेला ही था।" मुण्डकोपनिषद् में तो स्पष्ट कहा है-विश्व का कर्ता और भुवन का गोप्ता (रक्षक) ब्रह्मा देवों में सर्वप्रथम हुआ। तैत्तिरीयउपनिषद में कहा गया है-उसने कामना की--"मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ, प्रजा को उत्पन्न करूं।" उसने तप तथा तपश्चरण करके यह सब रचा-सृजन किया-प्रश्नोपनिषद में भी इसी का समर्थन मिलता है। इसी तरह छान्दोग्य-उपनिषद में पाठ है। बृहदारण्यक में ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि रचना की विचित्र कल्पना बतायी गयी है और क्रम भी। "ब्रह्मा अकेला रमण नहीं करता था। उसने दसरे की इच्छा की। जैसे स्त्री-पुरुष परस्पर आश्लिष्ट होते हैं, वैसे ब्रह्मा ने अपने आपके दो भाग किये और वे पति-पत्नी के रूप में हो गये। पहले मनुष्य फिर गाय, बैल, गर्दभी, गर्दभ, बकरी, बकरा, पशु-पक्षी आदि से लेकर चींटी तक सब के जोड़े बनाये / उसे विचार हुआ कि मै सृष्टि रूप हूँ, मैंने ही यह सब सृजन किया है, ''इस प्रकार सृष्टि हुई। एक वैदिक पुराण में सृष्टि क्रम बताया है कि पहले देवकृत जगत् के प्रमाण उपनिषदों में(क)"..."दिवमेव भवामो""सुतेजा आत्मा वैश्वानरो""इत्यादित्यमेव भगवो राजनिति होवाचेष बै विश्वरूपं आत्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से तस्मात्तव बहु विश्वरूपं कुले दृश्यते // 1 // ..........." """वायुमेव भगवो "मुपास्से "इत्याकाशमेव भगवो राजनिति "बहुलोऽसि प्रजया धनेन च // 1 // इत्यप एव भगवो राजनिति होवाचष वै सयिरात्मा वैश्वानरो "तस्मात्त्वं रयिमान् पुष्टिमानसि ॥""पृथिवीमेव भगवो राजन इति होवाचेष वै प्रतिष्ठात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मा न मुपास्से"तस्मात्वं प्रतिष्ठितोऽसि प्रजया च पशुभिश्च // 1 // "यूयं पृथगिवेममात्मानं वैश्वानरं विद्वसोऽन्नमात्थ यस्त्वेतमेवं प्रादेसमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते स सर्वेषु लोकेष भूतेषु सर्वेष्वात्मस्वन्नमस्ति // 1 // -छान्दोग्योपनिषद् खण्ड 12 से 18 तक अध्याय 5 (ख) "स ईक्षतः लोकान्नु सृजा इति / स इमाल्लोकानसृजत / अम्भो मरीचिमरमापोऽम्भः परं दिवं द्यौः प्रतिष्ठाऽन्तरिक्ष मरीचयः॥ --ऐतरेयोपनिषद्, प्रथम खण्ड (ग) सूत्रकृतांग शीलांकत्ति पत्रांक 42 के आधार पर 6 ब्रह्मा द्वारा रचित जगत् के प्रमाण"हिरण्यगर्भः समवर्तताऽग्रे, स ऐक्षत, ..."तत्ते जाऽमृजत / " -छान्दोग्योपनिषद् खण्ड 2 श्लोक 3 7 (क) ओ३म् ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता, भुवनस्य गोना। -~-मुण्डकोपनिषद खण्ड 1 श्लोक 1 (ख) सोऽकामयत / बहु स्यां प्रजायेयेति / स तपोऽतप्यत / स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसूजन // -तत्तिरीयोपनिषद अनुवाक् 6 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 64 से 66 यह जगत् घोर अन्धकारमय था, बिलकुल अज्ञात, अविलक्षण, अतयं और अविज्ञय। मानो वह विलकुल सोया हुआ था। वह एक समुद्र के रूप में था। उसमें स्थावर-जंगम, देव, मानव, राक्षस, उरग और भुजंग आदि सब प्राणी नष्ट हो गये थे। केवल गड्ढा-सा बना हुआ था, जो पृथ्वी आदि महाभूतों से रहित था। मन से भी अचिन्त्य विभु सोये हुए तपस्या कर रहे थे। सोये हुए विभु की नाभि से एक कमल निकला, जो तरुण सूर्य बिम्ब के समान तेजस्वी, मनोरम और स्वर्णणिका वाला था। उस कमल में से दण्ड और यज्ञोपवीत से युक्त ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। जिन्होंने वही आठ जगन्माताएं बनायों-(१) दिति, (2) अदिति, (3) मनु, (4) विनता, (5) कद्र , (6) सुलसा, (7) सुरभि, और (E) इला / दिति ने दैत्यों को, अदिति ने देवों को, मनु ने मनुष्यों को, विनता ने सभी प्रकार के पक्षियों को, कद्र ने सभी प्रकार के सरीसृपों (सांपों) को, सुलसा ने नागजातीय प्राणियों को, सुरभि ने चौपाये जानवरों को और इला ने समस्त बीजों को उत्पन्न किया। ये और इस प्रकार के अनेक प्रसंग ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना के मिलते हैं। इसीलिए शास्त्रकार (ग) प्रजाकामो वै प्रजापतिः / स तपोतप्यत / स तपस्तप्त्वा मिथुनमुत्पादयते / रयिं च प्राणं चेत्येतो मे बहधा प्रजाः करिष्ये // 4 // ---प्रश्नोपनिषत् प्रश्न 1, श्लो० 4 (घ).." सवै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमच्छत् / स हैतावनाप यथा स्त्रीपुमांसी संपरिष्वक्तो, स इममेवात्मानं दूधा पातयत्ततः पतिश्च पत्नी चामवताम् / तस्मादिदं मर्धवगलमिव स्व इतिह स्माहयाज्ञवल्क्य एतस्मादयमाकाश:, "ततो मनुष्या अजायन्त, ''गौरभवदृषभः, ततो गापोऽजायन्त, वडवेतराभवदश्व वृषः इतरो गर्दभीतरा गर्दभः "अजेतरभवबस्त"यदिदं किं च मिथुनमम पिपीलिकाभ्यस्तत सर्वमसृजत // 4 // सेऽवेदहं वाव सृष्टिरस्मि, अहं सर्वमसृक्षीति, ततः सृष्टिरभवत् / -बृहदारण्यक उपनिषद् ब्रा० 4 सू० 3-4 8 आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् / अप्रतय॑मविज्ञयं प्रसुप्तमिव सर्वतः // 1 // तस्मिन्ने कार्णवीभूते नष्टस्थावरजंगमे / नष्टामरनरे चैव प्रणष्टे राक्षसोरगे // 2 // केवलं गह्वरीभूते, महाभूतविजिते / अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यते तपः // 3 // तत्र तस्य शयानस्य नाभेः पद्मविनिर्गतम् / तरुणार्क बिम्बनिभं हृद्य कांचनकणिकाम् // 4 // तस्मिन् पट्टे भगवान् दण्डयज्ञोपवीतसंयुक्तः / ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः // 5 // अदितिः सुर-सन्धानां दितिरसुराणां, मनुमनुष्याणाम् / विनता विहंगमानां माता विश्वप्रकाराणाम् // 6 // कद्र: सरीसपानां सुलसा माता च नागजातीनाम् / सुरभिश्चतुष्पदामामिला पुनः सर्वबीजानाम् // 7 // -वैदिक पुराण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय ने कहा- "बंभउत्ते ति आवरे।" देवउत्ते की तरह बंभउत्ते के भी तीन संस्कृत रूप होते हैं और अर्थ भी उसी अनुसार तीन होते हैं। ईश्वरकृत लोक-उस युग में ईश्वर कर्तृत्ववादी मुख्यतया तीन दार्शनिक थे-वेदान्ती, नैयायिक और वैशेषिक / वेदान्ती ईश्वर (ब्रह्मा) को ही जगत् का उपादान कारण एवं निमित्तकारण मानते हैं / उनके द्वारा अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किये जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद में देखिए-~"पहले एकमात्र यह ब्रह्म ही था, वही एक सत् था, जिसने इतने श्रेय रूप क्षेत्र का सृजन किया, फिर क्षत्राणी का, जिसने वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान आदि देवता उत्पन्न किये। फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और अन्त में सबके पोषक शूद्र वर्ण का सृजन किया।".."तैतिरीयोपनिषद में कहा है--"जिस ब्रह्म-ईश्वर से ये प्राणो उत्पन्न होते हैं, जिससे ये भूत (प्राणी) उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं, जिसके कारण प्रयत्न (हलन-चलन आदि प्रवृत्ति) करते हैं, जिसमें विलीन हो जाते हैं, उन सबका तादात्म्य-उपादान कारण ईश्वर (ब्रह्म) ही है / बृहदारण्यक में ही आगे कहा है-'उस ब्रह्म के दो रूप हैं-मूर्त और अमूर्त, अथवा मर्त्य और अमृत, जिसे यत् और त्यत् कहते हैं / वही एक ईश्वर सब प्राणियों के अन्तर में छिपा हुआ है।' बादरायण व्यास-रचित ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र में बताया-"सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय इसी से होते हैं / " वेदान्ती अनुमान प्रमाण का प्रयोग भी करते हैं.---'ईश्वर जगत् का कर्ता है, क्योंकि वह चेतन है, जो-जो चेतन होता है, वह वह कर्ता होता है जैसे-कुम्हार घट का कर्ता है।१२।। दूसरे कर्तृत्ववादी नैयायिक हैं, नैयायिक मत अक्षपाद ऋषि प्रतिपादित हैं / इस मत के आराध्य देव महेश्वर (शिव) हैं, महेश्वर ही चराचर सृष्टि का निर्माण तथा संहार करते हैं।' श्वेताश्वतर उपनिषद में बताया है-वही देवों का अधिपति है, उसी में सारा लोक अधिष्ठित है / वही इस द्विपद चतुष्पद पर शासन करता हैं / वह सूक्ष्म रूप में कलिल (वीर्य) में भी है, विश्न का स्रष्टा है, अनेक रूप है। वही विश्व का एकमात्र परिवेष्ठिता (अपने में लपेटने वाला) है, उस शिव को जानकर (प्राणी) परम 6. (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 206 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 42 के आधार पर (ग) वर्तमान में वैदिक धर्म-सम्प्रदायों के अतिरिक्त इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म आदि भी ईश्वरकर्तृत्ववादी है, परन्तु उनके पास अपने-अपने धर्म-ग्रन्थों में लिखित ईश्वरकर्तृत्ववाद पर आँखें मूंदकर श्रद्धा करने के अतिरिक्त कोई विशेष प्रमाण, युक्ति या तर्क नहीं हैं। 10 (क) ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव, तदेकं सन्न व्यभवतच्छ यो रूपमत्यसृजत क्षत्र, यान्येतानि देवता क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति तस्मात् क्षत्रात्परं नास्ति, तस्माद् बाह्मणः "स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति ॥१२॥..."स शौद्र वर्णमसृजत पूषणम् / तदेतद् ब्रह्म क्षत्र विट् शुद्रः॥ -बहदा० अ० 1 बा० 4 11 यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते / येन जातानि जीवन्ति / यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म ति।... -तैत्तिरीयोपनिषद् 3 भृगुवली Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 64 से 66 शान्ति प्राप्त कर लेता। वही समय पर भुवन (सृष्टि) का गोप्ता (रक्षक) है, वही विश्वाधिप है, सभी प्राणियों में गूढ है, जिसमें ब्रह्मर्षि और देवता लीन होते हैं। उसी को जानकर मृत्युपाश का छेदन करते हैं।' नैयायिक जगत् को महेश्वर कृत सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग करते हैं--- "पृथ्वी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, शरीर, इन्द्रिय आदि सभी पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा बनाये गये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं / जो-जो कार्य होते हैं, वे किसी न किसी बुद्धिमान कर्ता के द्वारा ही किए जाते हैं, जैसे कि घट / यह जगत् भो कार्य है, अतः वह भी किसी बुद्धिमान द्वारा ही निर्मित होना चाहिए / वह बुद्धिमान जगत् का रचयिता ईश्वर (महेश्वर) ही है / जो बुद्धिमान द्वारा उत्पन्न नहीं किये गये हैं, वे कार्य नहीं हैं, जैसे कि आकाश / यह व्यतिरेक दृष्टान्त है। - ईश्वर को जगत् कर्ता मानने के साथ-साथ वे उसे एक, सर्वव्यापी (आकाशवत्) नित्य स्वाधीन, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान भी मानते हैं / संसारी प्राणियों को कर्मफल भुगतवाने वाला भी ईश्वर है, ऐसा कहते हैं / नैयायिक वेदान्तियों की तरह ईश्वर को उपादानकारण या समवायीकारण नहीं मानते, वे उसे निमित्तकारण मानते हैं / ईश्वर कर्तृत्व के विषय में वैशेषिकों की मान्यता भी लगभग ऐसी ही है। प्रधानादिकृत लोक-सांख्यवादी कहते हैं-यह लोक प्रधान अर्थात् प्रकृति के द्वारा किया गया है। प्रकृति, सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्यावस्था है / इसलिए जगत् का मूल कारण प्रधान को कहें या त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम) को कहें, एक ही बात है। इन्हीं गुणों से सारा लोक उत्पन्न हुआ है / सृष्टि त्रिगुणात्मक कहलाती है / जगत् के प्रत्येक पदार्थ में तीन गुणों की सत्ता देखी जाती है / इसलिए सिद्ध है कि यह जगत त्रिगुणात्मक प्रकृति से बना है। मूलपाठ में कहा गया है-'पहाणाइ तहावरे'-आदि पद से महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार आदि का ग्रहण करना चाहिए। सांख्य दर्शन का सिद्धान्त है त्रिगुणात्मक प्रकृति सीधे ही इस जगत् को उत्पत्र नहीं करती। प्रकृति मूल, अविकृति (किसी तत्त्व के विकार से रहित) और नित्य है, उससे महत् (बुद्धि) तत्त्व उत्पन्न होता है, महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्रा (इन्द्रिय विषय) पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और मन ये 16 तत्त्व (षोडशगण) उत्पन्न होते हैं, पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पाँच भूत उत्पन्न होते हैं / इस क्रम से प्रकृति सारे लोक को उत्पन्न करती है। 12 (क) द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूर्तं च, मयं चामृतं च, स्थितं च यच्च त्यच्च / -बृहदारण्यकोपनिषद् अ० 2 ब्रा० 311 (ख) ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथा निकायं सर्वभूतेषु गूढम् / -श्वेताश्वतर० अ० 37 (ग) 'जन्माद्यस्य यतः' -ब्रह्मसूत्र 1111 (घ) कर्तास्ति कश्चित् जगतः सचैकः, सः सर्वगः स स्ववशः स नित्यः / इमा कुहेवाकविडम्बनास्युस्तेषां न येषमनुशासकस्त्वम् / --स्याद्वाद मंजरी 13 (क) 'सत्त्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिः / -सांख्यतत्त्व कौमुदी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय अथवा, प्रधानादि शब्द में आदि शब्द से काल, स्वभाव, नियति आदि का ग्रहण करके इस जगत् को कोई कालकृत, कोई स्वभावकृत, कोई नियतिकृत, कोई एकान्त कर्मकृत मानते हैं / पूर्वोक्त कर्ताओं से उत्पन्न जगत् कैसा है ?---प्रश्न होता है-पूर्वोक्त विभित्र जगत्कर्तृत्ववादियों के मत से उन-उन कारणों (कर्ताओं द्वारा उत्पन्न जगत् कैसा है ? इस शंका के उत्तर में शास्त्रकार उनकी ओर से लोक के दो विशेषण व्यक्त करते हैं-जीवाजीव समाउत्ते और सुहदुक्खसमनिए, अर्थात वह लोक, जीव और अजीव दोनों से संकुल है, तथा सुख और दुःख से समन्वित ओत-प्रोत है / 15 / ___ स्वयम्भू द्वारा कृत लोक-महर्षि का कहना है-यह लोक स्वयम्भू द्वारा रचित है। महर्षि के दो भर्थ चूणिकार प्रस्तुत करते हैं-(१) महर्षि अर्थात् ब्रह्मा / अथवा (2) व्यास आदि ऋषि महर्षि हैं। __ स्वयम्भू शब्द का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-विष्णु या अन्य कोई / स्वयम्भू शब्द ब्रह्मा के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है और विष्णु के अर्थ में भी / नारायणोपनिषद में कहा है-'अन्तर और बाह्य जो भी जगत् दिखायी देता है, सुना जाता है, नारायण (विष्णु) उस सारे जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं। नारायणार्थव शिर उपनिषद में कहा है-पुरुष नारायण (विष्णु) ने चाहा कि मैं प्रजाओं का सृजन करूं और उससे प्राण, मन, इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ब्रह्मा, रुद्र, वसु यहाँ तक कि सारा जगत् नारायण से ही उत्पन्न होता है / पुराण में वर्णित ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना के क्रम की तरह मनुस्मृति में भी उसी प्रकार का वर्णन मिलता है / यह 'जगत् सर्वत्र अन्धकारमय था, सुषुप्त-सा था। उसके पश्चात् महाभूतादि से ओज का वरण करके अन्धकार को हटाते हुए अव्यक्त स्वयम्भू इस (जगत्) को व्यक्त करते हुए स्वयं प्रादुर्भूत हुए। वे अतीन्द्रिय द्वारा ग्राह्य, सूक्ष्म, अव्यक्त, सनातन, सर्वभूतमय एवं अचिन्त्य स्वयम्भू स्वतः उत्पत्र 14 (क) मूल प्रकृतिरविकृतिर्महदाधाः प्रकृतिविकृतयः सप्त / षोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः / / -सांख्यकारिका 1 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 42 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 42 (ख) सूत्रकृतांग अमर सुखबोधिनी व्याख्या पु० 212 16 (क) सूत्रकृतांग चूणि (ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० 1 पृ . (ग) यच्च किञ्चिज्जगत् सर्व दृश्यते श्रूयतेऽपि वा / अन्तर्बहिश्च तत् सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः // -नारायणोपनिषद-१३ वा गुच्छ (च) अव पूरुषो हवं नारायणोऽकामयत-प्रज्ञाः सृजयेति / नारायणात् जायते, मनः सर्वेन्द्रियाणि च / खं वागुर्यो तिरायः पृथिवी विश्वस्य धारिणी / नारायणाद् ब्रह्मा जायते, नारायणास्प्रजापतिः प्रजायते""नारायणादेव समुत्पद्यते, नारायणात् प्रवर्तन्ते, नारायणे प्रणीयन्ते..." -नारायणाथर्वशिर उपनिषद् 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय उद्देशक : गाथा 63 से 66 हुए। ध्यान करके अपने शरीर से विविध प्रजाओं की सृष्टि की। उसने सर्वप्रथम पानी बनाया, फिर उसमें बीज उत्पन्न किया।"१७ __ मार द्वारा रचित माया: संसार प्रलयकर्ता मार-इसके पश्चात शास्त्रकार ने कहा है-मारेण संता मापा, तेण लोए असासए अर्थात् मार ने माया की रचना की। इस कारण यह जगत् अशाश्वत-अनित्य है। मार के दो अर्थ यहाँ किये गये हैं.-वृत्तिकार ने अर्थ इस प्रकार किया है कि जो मारता है, नष्ट करता है, वह मार-मृत्यु या यमराज / पौराणिक कहते हैं-स्वयम्भू ने लोक को उत्पन्न करके अत्यन्त भार के भय से जगत् को मारने वाला मार यानी मृत्यु-यमराज बनाया। मार (यम) ने माया रची, उस माया से प्राणी मरते हैं।" मार का अर्थ चूर्णिकार विष्णु करते हैं। वे नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर के रूप में एक नई गाथा उद्धत करते हैं "अतिवडीयजीवाणं मही विष्णवते प{। ततो से मायासंजत्ते करे लोगस्सऽभिवा / / " अर्थात् पृथ्वी अपने पर जीवों का भार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण प्रभु (विष्णु) से विनती करती है। इस पर उस प्रभु ने लोक का विनाश (संहार) करने के लिए उसे (लोक को) माया से युक्त बनाया। वैदिक ग्रन्थों में एक प्रसिद्ध उक्ति है "विष्णोर्माया भगवती, यया सम्मोहितं जगत् / " विष्णु की माया भगवती है, जिसने सारे जगत् को सम्मोहित कर दिया है / कठोपनिषद् में उस स्वयम्भू की माया के सम्बन्ध में कहा गया है--ब्राह्मण और क्षत्रिय जिसके लिए भात (भोजने) है, मृत्यु जिसके लिए व्यंजन (शाकभाजी) के समान है, उस विष्णु (स्वयम्भू) को कौन यहाँ जानता है जहाँ वह है ?" जो भी हो मृत्यु या विनाश प्रत्येक सजीव-निर्जीव पदार्थ के साथ लगा हुआ है, इसी कारण लोक का अनित्य विनाशशील होना स्वाभाविक है / मृत्यु की महिमा बताते हुए बृहदारण्यक में कहा है- “यहाँ पहले कुछ भी नहीं था। मृत्यु से ही यह (सारा जगत्) आवृत्त था / वह मृत्यु सारे जगत् को निगल जाने के लिए थी..."१६ आसीदिदं तमोभूत""मलक्षणम् / अप्रतय....."प्रसुप्तमिव सर्वतः // 5 // तत: स्वयम्भूभगवान् अव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् / महाभूतादि वृत्तीजाः प्रादुरासीत् तमोनुदः // 6 // योऽसावतीन्द्रियग्राह्यः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः / सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः स एव स्वयमुदबभौ // 7 // सोऽभिध्याय शरीरात स्वात् सिसक्षविविधाः प्रजाः / अप एव ससर्जादौ तासु बीजमिवासृजत् // 8 // -मनुस्मृति अध्याय 1 18 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 42-43 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) पृ० 11 16 (क) यस्य ब्रह्म च क्षत्र चोभे भवत ओदनः / मृत्युःर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः / -कठोपनिषद् 1 वल्ली 2 / 24 (ख) नेवह किंचनान आसीन् मृत्युनैवेदमावृतमासीत्। --बृहदारण्यक० ब्राह्मण 201 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय माकण्ड ऋषि की एक कहानी मिलती है, जिसमें विष्णु द्वारा सृष्टि की रचना की जाने का रोचक वर्णन प्राकृत भाषा में निबद्ध है। अण्डे से उत्पन्न जगत्- "कुछ (त्रिदण्डी आदि) श्रमणों-ब्राह्मणों ने या कुछ पौराणिकों ने अण्डे से जगत् की उत्पत्ति मानी है।" ब्रह्माण्ड पुराण में बताया गया है कि पहले समुद्र रूप था, केवल जलाकार ! उसमें से एक विशाल अण्डा प्रकट हुआ, जो चिरकाल तक लहरों से इधर-उधर बहता रहा। फिर वह फूटा तो उसके दो टुकड़े हो गये / एक टुकड़े से पृथ्वी और दूसरे से आकाश बना। फिर उससे देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी आदि के रूप में सम्पूर्ण जगत् पैदा हुआ। फिर नल, तेज, वायु, समुद्र, नदी, पहाड़ आदि उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह सारा ब्रह्माण्ड (लोक) अण्डे से बना हुआ है। मनुस्मृति में भी इसी से मिलती-जुलती कल्पना है--"वह अण्डा स्वर्णमय और सूर्य के समान अत्यन्त प्रभावान हो गया। उसमें से सर्वलोक पितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए।" उस अण्डे में वे भगवान् परिवत्सर (काफी वर्षों) तक रहे, फिर स्वयं आत्मा का ध्यान करके उस अण्डे के दो टुकड़े कर डाले / उन दोनों टुकड़ों से आकाश और भूमि का निर्माण किया। लोक-कर्तृत्व के सम्बन्ध में ये सब मिथ्या एवं असंगत कल्पनाएँ-गाथा 67 के उत्तरार्द्ध में 68 वीं सम्पूर्ण गाथा में पूर्वोक्त जगत् कर्तृत्ववादियों को परामर्श से अनभिज्ञ, मृषावादी, अपने-अपने कुतवाद को अपनी अपनी युक्तियों या स्वशास्त्रोक्तियों को सच्ची बताने वाले कथञ्चित् नित्य--अविनाशी लोक को एकान्त अनित्य-विनाशी बताने वाले कहा है। मूल गाथाओं में केवल इतना-सा संकेत अवश्य किया है कि वे अविनाशी लोक को कृत- अर्थात् विनाशी कहते हैं। वे लोक के यथार्थ स्वभाव (वस्तुतत्त्व) को नहीं जानते। वृत्तिकार ने इसी पंक्ति को व्याख्या करते हुए कहा है-वास्तव में यह लोक कभी सर्वथा नष्ट नहीं होता, क्योंकि द्रव्य रूप से यह सदैव स्थित रहता है। यह लोक अतीत में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा। अत: यह लोक पहले-पहल किसी देव, ब्रह्मा, ईश्वर, प्रकृति, विष्णु, शिव आदि के द्वारा बनाया हुआ नहीं है। यदि कृत (बनाया हुआ) होता तो सदैव सर्वथा नाशवान् होता; परन्तु लोक एकान्ततः ऐसा नहीं है। अतः लोक देव आदि के द्वारा भी बनाया हुआ 20 (क) तदण्डमभवद्ध में सहस्रांशुसमप्रभम् / तस्मिन् जज्ञ स्वयं ब्रह्मासर्वलोक पितामहः // 6 // तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् / स्वयमेवात्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा // 12 // ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमि च निर्ममे / मध्येब्योम दिशश्चाष्टावपां स्थानं च शाश्वतम् // 13 // उद्बबहन्मिनश्चव......."पंचेन्द्रियाणि च / / 14-15 // -मनुस्मृति अ० 1 (ख) कृतवाद-सम्बन्धित विचार के लिए देखिये सूत्रकृतांग सूत्र 656-662 में / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 63 से 66 नहीं है। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि जिससे विभिन्न कृतवादी अपने-अपने मान्य आराध्य द्वारा लोक का कर्तृत्व सिद्ध कर सकें। ईश्वर' कर्तृत्ववादियों ने लोक के विभिन्न पदार्थों को कार्य बताकर कुम्हार के घट रूप कार्य के कर्ता की तरह ईश्वर को जगत् कर्तृत्व रूप कार्य का कर्ता सिद्ध करने का प्रयास किया है, परन्तु लोक द्रव्य रूप से नित्य होने के कारण कार्य है ही नहीं। पर्याय रूप से अनित्य है, परकार्य का कर्ता के साथ कोई अविनाभाव नहीं है। दूसरा प्रश्न कृतवादियों के समक्ष यह उपस्थित होता है कि उनका सृष्टि कर्ता इस सृष्टि को स्वयं उत्पन्न होकर बनाता है या उत्पन्न हुए बिना बनाता है ? स्वयं उत्पन्न हुए बिना तो दूसरे को कैसे बना सकता है ? यदि उत्पन्न होकर बनाता है तो स्वयं उत्पन्न होता है या दूसरे के द्वारा उत्पन्न किया है ? यदि माता-पिता के बिना स्वयमेव उत्पन्न होता है, तब तो इस जगत् को भी स्वयं उत्पन्न क्यों नहीं मानते ? यदि दूसरे से उत्पन्न होकर लोक को बनाता है, तो यह बतायें कि उस दूसरे को कौन उत्पन्न करता है? वह भी तीसरे से उत्पन्न होगा, और तीसरा चौथे से उत्पन्न मानना पड़ेगा। इस प्रकार उत्पत्ति का प्रश्न खड़ा रहने पर अनवस्था दोष आ जायेगा। इसका कृतवादियों के पास कोई उत्तर नहीं है। तीसरा प्रश्न यह खड़ा होता है कि वह सृष्टिकर्ता नित्य है या अनित्य ? नित्य तो एक साथ या क्रमशः भी अर्थक्रिया कर नहीं सकता, क्योंकि वह तो अपनी जगह से हिल भी नहीं सकता और न उसका स्वभाव बदल सकता है। यदि वह अनित्य है तो उत्पत्ति के पश्चात् स्वयं विनाशी होने के कारण नष्ट हो सकता है, अतः उसका कोई भरोसा नहीं है कि वह जगत् को बनायेगा, क्योंकि नाशवान होने से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो, वह दूसरे की उत्पत्ति के लिए व्यापार चिन्ता क्या कर सकता है ? अब प्रश्न यह है कि वह सृष्टि कर्ता मूर्त है या अमूर्त ? यदि वह अमूर्त है तो आकाश की तरह वह भी अकर्ता है, यदि मूर्तिमान है, तब कार्य करने के लिए उसे साधारण पुरुष की तरह उपकरणों की अपेक्षा रहेगी। उपकरण बनायेगा तो उनके लिए दूसरे उपकरण चाहिए। वे उपकरण कहाँ से आयेंगे ? यदि पहले ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना मानने से उसमें अन्यायी, अबुद्धिमान, अशक्तिमान, पक्षपाती, इच्छा, राग-द्वष आदि विकारों से लिप्त आदि अनेक दोषों का प्रसंग होता है / 21 इसीलिए भगवद् गीता में कहा गया है "न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः / र कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते // " ईश्वर न तो लोक का सृजन करता है, न ही कर्मों का और न लोकगत जीवों के शुभाशुभ कर्मफल का संयोग करता है / लोक तो स्वभावतः स्वयं प्रवर्तित है-चल रहा है / 22 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 43-44 के आधार पर (ख) स्याद्वाद मंजरी--"कर्ताऽस्ति कश्चिज्जगत: 'कारिका की व्याख्या 22 भगवद्गीता अ० 5, श्लोक 14 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र की तथा अण्डे से जगत की उत्पत्ति मानना एक तरह की असंगत है, अयुक्ति है। जब ईश्वर आदि भी जगत् के कर्ता न हो सके तो स्वयम्भू द्वारा मार की रचना, अण्डे की उत्पत्ति, (पंचभूतों के बिना) आदि तथा अव्यक्त अमूर्त, अचेतन प्रकृति से मूर्त, सचेतन एवं व्यक्त की रचना आदि सब निरर्थक कल्पनाएँ हैं। जैन दर्शन के अनुसार यह लोक अनादि-अनन्त है / लोक द्रव्यार्थ रूप से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य-परिवर्तनशील है। जीव अनादिकाल से और अजीव-जड़ पदार्थ अपने रूप में न कभी नष्ट होते हैं, न उत्पन्न होते हैं। उनमें मान अवस्थाओं का परिवर्तन हुआ करता है। जो लोक के कर्ता नहीं, वे उसके दुःख-सुख संयोजनकर्ता कैसे ?-गाथा 66 भी लोककर्तृत्ववाद से सम्बन्धित है। पहले ६५वीं गाथा में, यह बताया गया था कि 'जीवाजीव समाउत्त सुहदुयखसमन्निए'-ईश्वर या प्रधानादि जीवाजीव एवं सुख-दुःख से युक्त लोक का निर्माण करते हैं। उसी सन्दर्भ में यहाँ उत्तर दिया गया है कि ये लोग मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग दुःख की उत्पत्ति के कारण हैं यह नहीं जानते तथा सम्यक्त्व, हिंसादि से विरति आदि की साधना-आराधना करना दुःख निवारण है,ऐसा भी नहीं जानते-मानते हैं। इसलिए ६९वीं गाथा में कहा गया है-अमणुष्ण समुप्पादं "कह नाहिति संवरं? इसका आशय यह है-अपने द्वारा किये गये अशुभ अनुष्ठान (पापाचरण या अधर्माचरण) से दुःख की उत्पत्ति होती है, इसके विपरीत अपने द्वारा किये गये शुद्ध धर्मानुष्ठान (रत्नत्रयाचरण) से ही सुख की उत्पत्ति होती हैं। दूसरा कोई देव, ब्रह्मा, विष्णु, महेश या ईश्वर किसी को सुख या दुःख से युक्त नहीं कर सकता / अगर ऐसा कर देता तो वह सारे जगत् को सुखी ही कर देता, दुःखी क्यों रहने देता? जो लोग सुख-दुःख की उत्पत्ति के कारणों को स्वयं नहीं जानते, वे दूसरों को सुख-दुःख दे पायेंगे? अथवा दूसरों को सुख-दुःख प्राप्त करने का उपाय भी कहाँ से बतायेंगे ? __ इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' (आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता एवं भोक्ता है) के सिद्धान्त को ध्वनित कर दिया है तथा दुःख रूप कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए किसी देव, ब्रह्मा, विष्णु, महेश या परमात्मा के समक्ष गिड़गिड़ाने, याचना करने का खण्डन करके स्वकर्तृत्ववाद-स्वयं पुरुषार्थ द्वारा आत्म-शक्ति प्रकट करने का श्रमण संस्कृति का मूलभूत सिद्धांत व्यक्त कर दिया है / 23 कठिन शब्दों की व्याख्या-~सएहि परियाएहि लोयं बूया कडेति य-अपने-अपने पर्यायों-अभिप्रायों से युक्ति विशेषों से उन्होंने कहा कि यह लोक कृत (अमुक द्वारा किया हुआ) है / चूर्णिकार के अनुसार 'य' (च) शब्द से 'अकडेति च' यह भी अध्याहृत होता है, अर्थ होता है-और (यह लोक) अकृत (नित्य) भी है। यहाँ 'लोयं बूया कडेविधि' भी पाठान्तर मिलता है, उसका अर्थ किया गया है-विधि-विधान या प्रकार। लोक को 'कृत' का एक प्रकार कहते हैं / ण 'विणासि कयाइ वि' इसके बदले चूणिकार सम्मत पाठान्तर है 23 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 44-45 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 230 के आधार पर Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 70 से 71 66 -'णायं ण ऽऽ सि कयाति वि' अर्थात् यह लोक कभी नहीं था' ऐसा नहीं है। अमणुन्नसमुप्पादं दुवस्खमेव-जिस दुःख की उत्पत्ति अमनोज्ञ-असत् अनुष्ठान से होती है। विजाणीया-बुद्धि विशेष रूप से जाने / 24 अवतारवाद 70 सुद्ध अपावए आया इहमेगेसि आहितं / पुणो कोडा-पदोसेणं से तत्थ अवरज्झति // 11 // 71 इह संवुडे मुणी जाए पच्छा होति अपावए। वियडं व जहा भुज्जो नोरयं सरयं तहा // 12 // 70. इस जगत् में किन्हीं (दार्शनिकों या अवतारवादियों) का कथन (मत) है कि आत्मा शुद्धाचारी होकर (मोक्ष में) पापरहित हो जाता है / पुनः क्रीड़ा (राग) या प्रवष (द्वष) के कारण वहीं (मोक्ष में ही) बन्ध युक्त हो जाता है। 71. इस मनुष्य भव में जो जीव संवृत--संयम-नियमादि युक्त मुनि बन जाता है, वह बाद में निष्पाप हो जाता है। जैसे-रज रहित निर्मल जल पुनः सरजस्क मलिन हो जाता है, वैसे ही वह (निर्मल निष्पाप आत्मा भी पुनः मलिन हो जाती है।) विवेचन-राशिकवाद बनाम अवतारवाद-वृत्तिकार के अनुसार दोनों गाथा में गोशालक मतातुसारी (आजीवक) मत की मान्यता का दिग् आजीवक) मत की मान्यता का दिगदर्शन कराया गया है। समवायांग वत्ति और इसी आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में त्रैराशिकों को आजीवक या गोशालक मतानुसारी बताया है। त्रैराशिक का अर्थ है-जो मत या वाद सर्वत्र तीन राशियाँ मानता है, जैसे जीव राशि, अजीव राशि और नोजीव राशि / यहाँ आत्मा की तीन राशियों का कथन किया गया है। वे तीन अवस्थाएँ इस प्रकार हैं (1) राग-द्वेष सहित कर्म-बन्धन से युक्त पाप सहित अशुद्ध आत्मा की अवस्था, (2) अशुद्ध अवस्था से मुक्त होने के लिए शुद्ध आचरण करके शुद्ध निष्पाप अवस्था प्राप्त करना, सदनुसार मुक्ति में पहुंच जाना। (3) इसके पश्चात् शुद्ध-निष्पाप आत्मा जब क्रीड़ा-राग अथव प्रद्वोष के कारण पुनः कर्मरज से 24 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 42 से 45 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 12 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय लिप्त (अशुद्ध) हो जाता है, वह तीसरी अवस्था / तीन अवस्थाओं की मान्यता के कारण इन्हें त्रैराशिक कहा जाता है। इन दोनों गाथाओं में इसी मत का निदर्शन किया गया है।५ शुद्ध निष्पाप आत्मा पुनः अशुद्ध और सपाप क्यों ?-प्रश्न होता है, जो आत्मा एक बार कर्मफल से सर्वथा रहित हो चुका है, शुद्ध-बुद्ध-मुक्त, निष्पाप हो चुका है, वह पुनः अशुद्ध, कर्मफल युक्त और पापयुक्त कैसे हो सकता है ? जैसे बीज जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न होना असम्भव है, वैसे ही कर्मबीज के जल जाने पर फिर संसार रूपी (जन्म-मरण युक्त) अंकुर का फूटना असम्भव है। गीता में इसी तथ्य का समर्थन अनेक बार किया गया है / जितनी भी अध्यात्म साधनाएँ की जाती हैं, उन सबका उद्देश्य पाप से, कर्मबन्ध से, राग-द्वेष-कषायादि विकारों से सर्वथा मुक्त, शुद्ध एवं निष्पाप होना है। भला कौन ऐसा साधक होगा, जो शुद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के बाद पुनः अशुद्धि और राग-द्वेष की गन्दगी में आत्मा को डालना चाहेगा? अगर ऐसा हुआ, तब तो सारा काता-पींजा कपास हो जायेगा। इतनी की हुई साधना मिट्टी में मिल जायेगी। परन्तु त्रैराशिक मतवादी इन सब युक्तियों की परवाह न करके मुक्त एवं शुद्ध आत्मा के पुनः प्रकट होने या पुनः कर्म रज से मलित होकर कर्मबन्ध में जकड़ने के दो मुख्य कारण बताते हैं-'पुणो कोडापोसेण:'- इसका आशय यह है कि उस मुक्तात्मा को अपने शासन की पूजा और पर-शासन (अन्य धर्मसंघ) का अनादर देखकर (क्रीड़ा) प्रमोद उत्पन्न होता है, तथा स्वशासन का पराभव और परशासन का अभ्युदय देखकर द्वेष होता है। इस प्रकार वह शुद्ध आत्मा राग-द्वष से लिप्त हो जाता है, राग-द्वष ही कर्मबन्ध के कारण हैं, इस कारण पुन: अशुद्ध-सापराध हो जाता है। वह आत्मा कैसे पुनः मलिन हो जाता है ? इसके लिए वे एक दृष्टान्त देकर अपने मत का समर्थन करते हैं---"वियडम्बु जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा / " आशय यह है कि जैसे मटमैले पानी को निर्मली या फिटकरी आदि से स्वच्छ कर निर्मल बना लिया जाता है, किन्तु वही निर्मल पानी, आँधी, तूफान आदि के द्वारा उड़ायी 25 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 45-46 (ख) 'ते एव च आजीवकास्त्रराशिका भगिताः-समवायांगवृत्ति अभयदेव सूरि पृ० 130 (ग) स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिक: निराकृतः- सूत्रकृ० 2 श्रु० 6 अ० गा--१४-- (घ) 'राशिका: गोशालकमतानुसारिणो येषामेकविशतिसूत्राणि पूर्वगत राशिक सूत्रपरिपाट्या व्यवस्थितानि / " --सूत्र. 1 श्रु. 1 सूत्र गा 70 वृत्ति 26 (क) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० 233 (ख) "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः / / (ग) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् / नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः / / 15 / / ......"मामुपेत्य तु कौन्तेय ! पुनर्जन्म न विद्यते // 16 // यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम // 21 // -~गीता अ० 8 / 15-16-21 (घ) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 45 के आधार पर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 70 से 71 गयी रेत, मिट्टी, कचरा आदि के कारण पुनः मलिन हो जाता है, वैसे ही कोई जीव मनुष्य जन्म पाकर राग-द्वष से, कषायादि से या कर्मों से मलिन बनी हुई अपनी आत्मा को मुनि बनकर संयम-नियमादि की साधना करके विशुद्ध बना लेता है, एक दिन वह आत्मा समस्त कर्मरहित होकर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाता है, किन्तु पुनः पूर्वोक्त कारणवश राग-द्वेष की आँधी या तूफान आने से वह विशुद्धात्मा पुनः अशुद्ध एवं कर्म-मलिन हो जाता है। - इस सम्बन्ध में चर्णिकार 70 वीं गाथा के उत्तरार्द्ध में कोलावणपदोसेणा र जसा अवतारते, इस प्रकार का पाठान्तर मानकर अवतारवाद की झाँकी प्रस्तुत करते हैं-वह आत्मा मोक्ष प्राप्त (मुक्त) होकर भी क्रीड़ा और प्रदोष के कारण (कर्म) रज से (लिप्त होने से) संसार में अवतरित होता (जन्म लेता है। इस कारण वह अपने धर्म शासन की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए रजोगुण युक्त होकर अथवा उस कर्म रज से श्लिष्ट होकर अवतार लेता है।२७ कुछ-कुछ इसी प्रकार की मान्यता बौद्ध धर्म के एक सम्प्रदाय की तथा धर्म-सम्प्रदायों की भी है। उनका कथन है कि सुगत (बुद्ध) आदि धर्म तीर्थ के प्रवर्तक ज्ञानी तीर्थकर्ता (अवतार) परम पद (मोक्षावस्था) को प्राप्त करके भी जब अपने तीर्थ (धर्म-संघ) का तिरस्कार (अप्रतिष्ठा या अवनति) देखते हैं तो (उसका उद्धार करने के लिए) पुनः संसार में आते हैं (अवतार लेते हैं)।२८ धर्म का ह्रास और अधर्म का अभ्युत्थान (प्रतिष्ठा) होता देखकर मुक्त आत्मा के अवतरित होने की मान्यता वैदिक-परम्परा में प्रसिद्ध है और गीता आदि ग्रन्थों में अवतारवाद का स्पष्ट वर्णन है"जव-जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि-उन्नति होने लगती है, तब-तब मैं (मुक्त आत्मा) ही अपने रूप को रचता हूँ-प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा तथा दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए मैं युग-युग में जन्म (अवतार) लेता हूँ।” अत: इसे अवतारवाद या पुनरागमनवाद भी कहा जा सकता है। गाथा 70 में शुद्ध आत्मा के पुनः अशुद्ध एवं कमंलिप्त होने के दो कारण-क्रीड़ा एवं प्रद्वष बताये गये हैं, वे इस अवतारवाद में संगत होते हैं। क्रीड़ा का अर्थ जो भक्तिवादी सम्प्रदायों में प्रचलित है, वह है, 'लीला।' ऐसा कहा जाता है-'भगवान् अपनी लीला दिखाने के लिए अवतरित होते हैं / अथवा 27 “स मोक्षप्राप्तोऽपि भूत्वा कीलाबणप्पदोसेण रजसा अवतारते / तस्य हि स्वशासनं पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि च क्रीडा भवति, मानस: प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोष:, ....."तेन रजसाऽवतार्यते।" -सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 12 28 ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् / गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थ निकारतः॥ यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽत्मानं सृजाम्यहम् // 7 // परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम् / धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे // 8 // -गीता अ०४/७-८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय सज्जनों की रक्षा एवं दुर्जनों के संहार के रूप में अपनी लीला करते हैं / ऐसी लीला के समय जब वे दुष्टों का नाश करते हैं, तब अपने भक्त की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं, ऐसा करने में उनमें द्वेष एवं राग का होना स्वाभाविक है। इसीलिए इस गाथा में उक्त 'कोडापदोसेण' के साथ अर्थ संगति बैठ जाती है। पाठान्तर एवं व्याख्याएं-७१ वी गाथा की पूर्वार्द्ध-पंक्ति का चूर्णि सम्मत पाठान्तर इस प्रकार है-- "इह संवुडे भवित्ताणं, (सुद्ध सिद्धोए चिट्ठती)-पेच्चा होति अपावए " इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है --इह--यहाँ आकर मनुष्य भव में वयस्क होकर प्रवज्या ग्रहण करके संवृतात्मा होकर जानक अर्थात्ज्ञानवान आत्मा (जिसका ज्ञान प्रतिपाती नहीं होता) (शुद्ध होकर सिद्धिगति-मुक्ति में स्थित हो जाता है।) अथवा यह (मेरे द्वारा प्रवर्तित) शासन (धर्म संघ) जाज्वल्यमान नहीं होता, इसलिए उसे जाज्वल्यमान करके कुछ काल तक संसार में अवस्थित होकर वहाँ से शरीर छोड़कर पुनः अपापक अर्थात् मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार 70 वी गाथा के उत्तराद्धं का चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-"पुणोकालेगऽणतेण तत्थ से अवरज्झति / " अर्थात् अनन्तकाल के बाद स्वशासन को पूज्यमान या अपूज्यमान (प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित) देखकर वह उस पर अवरज्झति-यानि अपराध करता है। अर्थात रा या द्वेष को प्राप्त हो जाता है।३० "वियर्ड वा जहा भुज्जो नीरयं सरयं तया' की व्याख्या वृत्तिकार के अनुसार-विकटवत् - उदक (पानी) के समान / जैसे रज (मिट्टी) रहित निर्मल पानी, हवा, आँधी आदि से उड़ायी हुई धूल से पुनः सरजस्क-मलिन हो जाता है / स्व-स्व-प्रवाद-प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा 72 एयाणुवीति मेधावि बंभचेरे ण ते वसे। पुढो पावाउया सव्वे अक्खायारो सयं सयं // 13 // 73 सए सए उवट्ठाणे सिद्धिमेव ण अन्नहा / अहो वि होति वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए // 14 // 74 सिद्धा य ते अरोगा य इहमेगेसि आहितं / / सिद्धिमेव पुराकाउं सासए गढिया णरा // 15 // 75 असंवुडा अणादीयं भमिहिति पुणो पुणो। कप्पकालमुवज्जति ठाणा आसुर किब्बिसिय // 16 // त्ति बेमि / "इहेति-इह आगत्य मानुष्ये वयः प्राप्य प्रवामभ्युपेत्य संवृतात्मा भूत्वा, जानको नाम जानक एव आत्मा न तस्य तज् ज्ञानं प्रतिपतति, यदि वा एतत् (यतश्चैतत् शासनं न ज्वलति, तत एवं प्रज्वाल्य किञ्चित्कालं संसारेऽवस्थिस्य प्रेत्य पुनरपापको भवति मुक्त इत्यर्थः / " "एवं पुनरनन्तेन कालेन स्वशासनं पूज्यमानं वा अपूज्यमानं दृष्टवा तत्थ से अवरज्झति=अबराधो णाम रागं दोस वा गच्छति / " -सूयगडंग (चूणि मू० पा० टिप्पण) पृ० 12 31 विकटवद् उदकवद नीरजस्कं सद् वातोद्भूतरेणु निवहसम्पृक्त सरजस्कं मलिनं भूयो यथा भवति, तथाऽयमप्यात्मा / --सूत्र० शी० वृत्ति 45 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 72 से 75 . बुद्धिमान साधक इन (पूर्वोक्त वादियों के कथन पर) चिन्तन करके (मन में यह निश्चित कर ले कि (पूर्वोक्त जगत् कर्तत्ववादी या अवतारवादी) ब्रह्म-आत्मा की चर्या (सेवा या आचरण) में स्थित नहीं है। वे सभी प्रावादुक अपने-अपने वाद की पृथक्-पृथक् वाद (मान्यता) की बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा (बखान) करने वाले हैं। 73. (विभिन्न मतवादियों ने अपने-अपने (मत में प्ररूपित) अनुष्ठान से ही सिद्धि (समस्त सांसारिक प्रपञ्च रहित सिद्धि) होती है, अन्यथा (दूसरी तरह से) नहीं, ऐसा कहा है। मोक्ष प्राप्ति से पूर्व इसी जन्म एवं लोक में ही वशवर्ती (जितेन्द्रिय अथवा हमारे तीर्थ या मत के अधीन) हो जाए तो उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। 74. इस संसार में कई मतवादियों का कथन है कि (हमारे मतानुसार अनुष्ठान से) जो सिद्धि (रससिद्धि या अष्टसिद्धि प्राप्त) हुए हैं, वे नीरोग (रोग मुक्त) हो जाते हैं। परन्तु इस प्रकार की डींग हाँकने वाले) वे लोग (स्वमतानुसार प्राप्त) तथाकथित सिद्धि को ही आगे रखकर अपने-अपने आशय (दर्शन या मत) में ग्रथित (आसक्त/ ग्रस्त-बंधे हुए) हैं। 75. वे (तथाकथित लौकिक सिद्धिवादी) असंवृत-इन्द्रिय मनःसंयम से रहित होने से (वास्तविक सिद्धि मुक्ति तो दूर रही) इस अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण करेंगे। वे कल्पकाल पर्यन्त-चिरकाल तक असुरों-भवनपतिदेवों तथा किल्विषिक (निम्नकोटि के) देवों के स्थानों में उत्पन्न होते हैं। विवेचन - अन्यतोथिक मतवादी प्रावादुक और स्वमत प्रशंसक-७२ वी गाथा में शास्त्रकार ने पूर्वोक्त जगत्कर्तृत्ववादियों, अवतारवादियों को 'पृथक् प्रावादुक' कहकर उल्लिखित किया। प्रावादुक होने के दो कारण शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं-(१) कार्य-कारण विहीन तथा युक्ति रहित अपने ही मतवाद की प्रशंसा करते हैं, और (2) आत्म-भावों के विचार में स्थित नहीं हैं। इन्हीं दो कारणों को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार ने अगली दो गाथाएँ (73-74 वीं) प्रस्तुत की हैं। इन भ्रान्त मान्यताओं के कारण राग-द्वेष-मुक्त एवं कर्म बीज रहित मुक्त जीवों का पुनः रागद्वेष से प्रेरित होकर कर्मलिप्त बनना कार्य-कारण भाव के सिद्धान्त के विरुद्ध है / जब मुक्त जीवों के जन्म-मरणरूप संसार के कारण कर्म बीज ही जल गये हैं, तब वे कर्म के बिना कैसे राग-द्वष से लिपटेंगे और कैसे संसार में अवतरित होंगे ? देखा जाये तो इस भ्रान्त धारणा का कारण यह है कि वे अपने अवतारवाद के प्रवाह में इतने बह जाते हैं कि आत्मा की ऊर्ध्वगामिता के सिद्धान्त पर विचार करना भूल जाते हैं। जब एक आत्मा इतने उत्कर्ष पर पहुंच चुका है, जहाँ से उसका पुन: नीचे गिरना असम्भव है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव कर्म लेप से रहित होने पर अग्नि की लौ की तरह ऊर्ध्वगमन करना है, नीचे गिरना नहीं / ऐसी स्थिति में पूर्ण सिद्ध-मुक्तात्मा क्यों वापस संसार में आगमन रूप पतन के गर्त में गिरेगा? यही कारण है कि आचार्य सिद्धसेन को अवतारवादी अन्यतैर्थिकों की मोहवृत्ति को प्रगट करते हुए कहना पड़ा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय दग्धन्धनः पुनरूपति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीवनिष्ठम् / मुक्तः स्वयं कृतमवश्च परार्थशूरम्, त्वच्छासनप्रतिहतेस्विह मोहराज्यम् // हे वीतराग प्रभो ! आपके शासन (संघ) को ठुकराने वाले व्यक्तियों पर मोह का प्रबल साम्राज्य छाया हुआ है। वे कहते हैं-जिस आत्मा ने कर्म रूपो ईन्धन (कारण) को जला कर संसार (जन्म-मरण) का नाश कर दिया है, वह भी मोक्ष को छोड़कर पुनः संसार में अवतार लेता है। स्वयं मुक्त होते हुए भी शरीर धारण करके पुनः संसारी बनता है, केवल दूसरों को मुक्ति दिलाने में शूरवीर बनकर वह कार्यकारण सिद्धान्त का विचार किये बिना ही लोकभीरु बनता है। यह है अपनी (शुद्ध) आत्मा का विचार किए बिना ही दूसरों की आत्माओं का उद्धार या सुधार करने की मूढ़ता। यह निश्चित सिद्धान्त है कि मुक्त जीवों को राग-द्वेष नहीं हो सकता। उनके लिए फिर स्वशासन या परशासन का भेद ही कहाँ रह जाता है ? जो सारे संसार को एकत्व दृष्टि से-आत्मौपम्य दृष्टि से देखता है, वहाँ अपनेपन-परायेपन या मोह का काम ही क्या ? जिनकी अहंता-ममता (परिग्रह वृत्ति) सर्वथा नष्ट हो चुकी है, जो राग-द्वेष, कर्म-समूह आदि को सर्वथा नष्ट कर चुके हैं, जो समस्त का यथार्थ स्वरूप जानते हैं, निन्दा-स्तुति में सम हैं, ऐसे निष्पाप, शुद्ध आत्मा में राग-द्वेष होना कदापि सम्भव नहीं और राग-द्वेष के अभाव में कर्म-बन्धन कैसे हो सकता है ? कर्म के सर्वथा अभाव में संसार में पुनरागमन (जन्म-मरण) हो ही नहीं सकता। दूसरा कारण है-उन परतीथिकों का अपने ही ब्रह्म कत्व-विचार में स्थित न रहना। जब वे संसार की समस्त आत्माओं को सम मानते हैं, तब उनके लिए कौन अपना, कौन पराया रहा? फिर वे अपने-अपने भूतपूर्व शासन का उत्थान-पतन का विचार क्यों करेंगे? यह तो अपने ब्रह्मकत्व विचार से हटना है। इस प्रकार कार्य-कारण भाव न होते हुए भी या सिद्धान्त एवं युक्ति से विरुद्ध होते हुए भी अपनेअपने मतवाद की प्रशंसा और शुद्ध आत्मभाव में अस्थिरता, ये दोनों प्रबल कारण अन्य मतवादियों की भ्रान्ति के सिद्ध होते हैं। निष्कर्ष यह है कि जैन-दर्शन जैसे शिव (निरुपद्रव-मंगल कर), अचल (स्थिर), अरूप (अमूर्त), अनन्त (अनन्त ज्ञानादियुक्त) अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति (संसार में आवागमन रहित) रूप सिद्धिगति को ही मुक्ति मानता है और ऐसे सिद्ध को समस्त कर्म, काया, मोह-माया से सर्वथा रहित-मुक्त मानता है, वैसे अन्यतीर्थी नही मानते। उनमें से प्रायः कई तो सिद्धि को पुनरागमन युक्त मानते हैं, तथा सिद्धि का अर्थ कई मतवादी मुक्ति या मोक्ष मानते हैं, लेकिन सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप से या ज्ञान 32 द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (सिद्धसेनकृत) 33 (क) “यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतेः / ___ तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ? // 6 // -ईशोपनिषद् (ख) तुल्यनिन्दास्तुतिमोनी सन्तुष्टो येन केन चित् / -गीता अ० 13/16 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 72 से 75 क्रिया दोनों से अथवा समस्त कर्म क्षय से मोक्ष या सिद्धि न मानकर स्वकल्पित एकान्त ज्ञान से, क्रिया से, सिद्धि मानते हैं, या योगविद्या से अणिमादि अष्ट सिद्धि प्राप्ति या रससिद्धि (पारद या स्वर्ण की रसायन सिद्धि) को अथवा स्वकोयमतानुवर्ती होने या जितेन्द्रिय होने मात्र से यहाँ सर्वकामसिद्धि मानते हैं। ऐसे लौकिक सिद्धों (अष्टसिद्धि प्राप्त या स्वकीय मत के तत्त्वज्ञान में निपुण) की पहचान नीरोग होने मात्र से हो जाती है, ऐसा वे कहते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-सिद्धिमेव....."गढिया नरा ? अर्थात्-वे सिद्धिवादी अपनी पूर्वोक्त युक्ति विरुद्ध स्वकल्पित सिद्धि को ही सामने (केन्द्र में) रखकर चलते हैं, उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से ही इहलौकिक-पारलौकिक सिद्धि को सिद्ध करने के लिए युक्तियों की खींचतान करते हैं, इस प्रकार वे अपने-अपने आशय (मत या कल्पना) में आसक्त है। आशय यह है कि वे इतने मिथ्याग्रही हैं कि दूसरे किसी वीतराग सर्व हितैषी महापुरुष की युक्तियुक्त बात को नहीं मानते। अन्यमतवादियों के मताग्रह से मोक्ष वा संसार ?-75 वी गाथा में पूर्वोक्त अन्य मतवादियों द्वारा स्व-स्वमतानुसार कल्पित लौकिक सिद्धि से मोक्ष का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं असंवुडा...... ..."आसुर किनिसिया।" इसका आशय यह है, जो दार्शनिक सिर्फ ज्ञान से, या सिर्फ कियाकाण्ड से, अथवा अष्ट-भौतिक ऐश्वर्य प्राप्ति अथवा अन्य लौकिक एवं यौगिक उपलब्धियों से सिद्धि (मुक्ति) मानते हैं, उनके मतानुसार हिंसा आदि पांच आस्रवों से, अथवा मिथ्यात्वादि पाँच कर्मबन्ध के कारणों से अथवा इन्द्रिय और मन में असंयम से अपने आपको रोकने (संवृत्त होने) की आवश्यकता नहीं मानी जाती, कहीं किसी मत में कुछ तपस्या या शारीरिक कष्ट सहन या इन्द्रिय-दमन का विधान है, तो वह भी किसी न किसी स्वर्गादि कामना या इहलौकिक (आरोग्य, दीर्घायु या अन्य किसी लाभ को) कामना से प्रेरित होकर अज्ञानपूर्वक किया जाता है, इसलिए वे सच्चे माने में संवृत नहीं है। इस कारण वास्तविक सिद्धि (मुक्ति) से वे कोसों दूर रहते, बल्कि अज्ञानवश अपने आपको ज्ञानी, मुक्तिदाता, तपस्वी और क्रियाकाण्डी मानकर भोले लोगों को मिथ्यात्वजाल में फंसाने के कारण तीन दुष्फल बताये हैं 34 (क) सिद्धि (मुक्ति या मोक्ष) के सम्बन्ध में विभिन्न वाद (i) 'दीक्षात: एव मोस:- शैव (ii) 'पंचविंशति तत्त्वज्ञो""मुच्यते नात्र संशयः।"--सांख्य (iii) नवानामात्मगुणानामुच्छेदो मोक्षः।-बैशेषिक (प्रशस्तपाद भाष्य) (iv) ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः-वेदान्त (v) योगाभ्यास से अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं--योगदर्शन "अणिमा महिमा चैव गरिमा लधिमा तथा। प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्टसिद्धयः / " --अमरकोश कहीं-कहीं गरिमा और प्राप्ति के बदले अप्रतिघातित्व और यत्रकामावसायित्व नाम की सिद्धियां हैं। (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पु० 240 से 243 तक तथा सूत्राशी वृत्ति पत्र 46 के आधार पर। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययम-समय (1) अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण, (2) दीर्घ (कल्प) काल पर्यन्त भवनपति देव (असुर) में, (3) अल्पऋद्धि, अल्प आयु और अल्पशक्ति से युक्त अधम किल्विषिक देव के रूप में उत्पत्ति / 35 कठिन शब्दों की व्याख्या-एयाणवीति मेधावी-पूर्वोक्त कुवादियों के युक्ति विरुद्ध मतों पर गहराई से विचार करके मेधावी निश्चय करे कि इनके बाद सिद्धि-मुक्ति (निर्वाण या मोक्ष) के लिए नहीं है, बंमचेरे गते बसे-ब्रह्मचर्य (शुद्ध-आत्म-विचार) में वे स्थित नहीं है, अथवा वे संयम में स्थित नहीं है / पावाउया -प्रावादुक-वाचाल या मतवादी / अक्खायारो - अनुरागवश अच्छा बतलाने वाले / सए-सए उवठाणेअपने-अपने (मतीय) अनुष्ठानों से / अन्नहा-अन्यथा-दूसरे प्रकार से / अहो विहोति वसमत्ती-समस्त द्वन्द्वों (प्रपंचों) से निवृत्ति रूप सिद्धि की प्राप्ति से पूर्व भी इन्द्रियों को वशीभूत करने वालों को इसी जन्म में, हमारे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान के प्रभाव से अष्टविध ऐश्वर्य रूप सिद्धि प्राप्त हो जाती है। चूणिकार के अनुसार पाठान्तर हैं-~-अधोधि होति वसवत्ती.........."एवं अहो इहेव वसवत्ती। प्रथम, पाठान्तर की व्याख्या की गई है, दूसरे दर्शनों में तो उनके स्वकीय ग्रन्थोक्त चारित्र धर्म विशेष से व्यक्ति को इसी जन्म में, या इसी लोक में अष्टगुण रूप ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है। दूसरे पाठान्तर की व्याख्या हैअधोधि-यानि अवधिज्ञान से सिद्धि होती है, किसको ? जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, न कि उसे जो इन्द्रियों के वश में है। सव्वकाम समप्पिए-समस्त कामनाएं उनके चरणों में समर्पित हो जाती हैं-अर्थात्-वह सभी कामनाओं से पूर्ण हो जाता है / सिद्धिमेव पुराका-सिद्धि को ही आगे रखकर / सासए गढिया णरावृत्तिकार के अनुसार-वे लोग स्वाशय अपने-अपने आशय-दर्शन या मान्यता में प्रथित-बँधे हुए हैं। चूणिकार ने 'आसरहिं गढिया परा' पाठान्तर मानकर व्याख्या की है-हिंसादि आश्रवों में वे लोग गृद्धमूच्छित हैं।३७ तृतोय उद्देशक समाप्त 35 (क) 'कल्पकालं प्रभूतकालमुत्पद्यन्ते सम्भवन्ति आसुरा असुरस्थानोत्पन्नाः नागकुमारादय; तत्रापि न प्रधानाः, किंतहि ? किस्विषिका: अधमाः। कप्पकालुववज्जति ठाणा आसुरकिब्बिसा--कल्पपरिमाण: काल: कप्प एवं वा काल:तिष्ठन्ति तस्मिन् इति स्थानम् / आसुरेषूत्पद्यन्ते किल्विषिकेषु च / -सूत्र कृ० चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 13 36 (क) 'अन्येषां तु स्वाख्यातचरणधर्मविशेषाद इहैव अष्टगुणैश्वर्यप्राप्तो भवति / तद्यथा-- अणिमा लधिमानमित्यादि अहवा 'अघोधि होति वसवत्ती' अधोधि नाम ---अवधिज्ञानं वशवर्ती नाम वशे तस्यन्द्रियाणि वर्तन्ते, नासाविन्द्रियावशक: -सूत्र कृ० चूणि (मू० पाः टिप्पण) पृ० 13 (ख) सिद्धिप्राप्तेरधस्तात् प्रागपियावदद्यापि सिद्धिप्राप्तिन भवति, तावदिहव जन्मन्यस्मदीयदर्शनोक्तानुष्ठानुभावादष्टगुणश्वर्यसद्भावो भवतीति दर्शयति आत्मवशत्तित, शीलमस्येति वशवर्ती वन्द्रिय इत्युक्त भवति / --सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति पत्र 46 हिंसादिषु आश्रबेषु गढिता नाम मूच्छिताः -सूत्रकृतांग चणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ 13 "स्वकीये आशये स्वदर्शनाभ्युपगमे ग्रथिताः सम्बद्धाः।" . --सूत्र शी० वृत्ति पत्र 46 17 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 चतुर्थ उद्देशक : गाथा 76 से 76 चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक मुनि धर्मोपदेश 76. एते जिता भो! न सरणं बाला पंडितमाणिणो। हेच्चा णं पुटवसंजोग सिया किच्चोवदेसगा // 1 // 77. तं च भिक्यू परिणाय विज्ज तेसु ण मुच्छए / अणुक्कसे अप्पलोणे मज्झेण मुणि जावए // 2 // 78. सपरिग्गहा य सारभा इहमेगेसि आहियं / अपरिग्गहे अणारंभे भिक्खू ताणं परिव्वए // 3 // 76. कडेसु घासमेसेज्जा विऊ दत्तेसणं चरे। अगिद्धो विष्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए // 4 // 76. हे शिष्यो ! ये (पूर्वोक्त अन्यतीर्थी) साधु [काम, क्रोध आदि से अथवा परीषह-उपसर्ग रूप शत्रुओं से पराजित (जीते जा चूके) हैं, (इसलिए) ये शरण लेने योग्य नहीं हैं अथवा स्वशिष्यों को (शरण देने में समर्थ नहीं हैं / वे अज्ञानी हैं, (तथापि) अपने आपको पण्डित मानते हैं। पूर्व संयोग (बन्धु-बाधव, धन-सम्पत्ति आदि) को छोड़कर भी (दूसरे आरम्भ-परिग्रह में) आसक्त हैं, तथा गृहस्थ को सावध कृत्यों का उपदेश देते हैं। 77. विद्वान् भिक्षु उन (आरम्भ-परिग्रह में आसक्त साधुओं) को भली-भांति जानकर उनमें मूर्छा (आसक्ति) न करे; अपितु (वस्तुस्वभाव का मनन करने वाला) मुनि किसी प्रकार का मद न करता हुआ उन अन्यतीथिकों, गृहस्थों एवं शिथिलाचारियों के साथ संसर्गरहित होकर, मध्यस्वभाव से संयमी जीवन-यापन करे; या मध्यवृत्ति से निर्वाह करे। 78. मोक्ष के सम्बन्ध में कई (अन्यतीर्थी) मतवादियों का कथन है कि परिग्रहधारी और आरम्भ (आलम्भन हिसाजनक प्रवृत्ति) से जीने वाले जीव भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु निर्ग्रन्थ भावभिक्षु अपरिग्रही और अनारम्भी (आरम्भरहित महात्माओं) की शरण में जाए। ___76. सम्यग्ज्ञानी विद्वान् भिक्षु (गृहस्थ द्वारा अपने लिए) किये हुए (चतुर्विध) आहारों में से (कल्पनीय) ग्रास- यथोचित आहार की गवेषणा करे, तथा वह दिये हुए आहार को (विधिपूर्वक) लेने की इच्छा (ग्रहणैषणा) करे। (भिक्षा प्राप्त आहार में वह) गृद्धि (आसक्ति) रहित एवं (राग-द्वेष से) विप्रमुक्त (रहित) होकर (सेवन करे), तथा (किसी के द्वारा कुछ कह देने पर) मुनि उसका अपमान न करे, (दूसरे के द्वारा किये गये) अपने अपमान को मन से त्याग (निकाल) दे। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विवेचन-निर्ग्रन्थ को संयम धर्म का उपदेश - प्रस्तुत चतुःसूत्री में निर्ग्रन्थ भिक्षु को संयमधर्म का अथवा स्वकर्तव्य का बोध दिया गया है / भिक्षुधर्म की चतु:सूत्री इस प्रकार है (1) पूर्व सम्बन्ध त्यागी अन्ययूथिक साधु सावद्य-कृत्योपदेशक होने से शरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, (2) विद्वान् मुनि उन्हें भली भाँति जानकर उनसे आसक्तिजनक संसर्ग न रखे, मध्यस्थभाव से रहे, (3) परिग्रह एवं आरम्भ से मोक्ष मानने वाले प्रव्रज्याधारियों का संग छोड़कर निष्परिग्रही, निरारम्भी महात्माओं की शरण में जाये, और (4) आहार सम्बन्धी ग्रासैषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा आसक्तिरहित एवं राग-द्वषमुक्त होकर करे। इस चतुःसूत्री में स्व-पर-समय (स्वधर्माचार एवं परधर्माचार) का विवेक बताया गया है / प्रथम कर्तव्यबोध : ये साधु शरण योग्य नहीं-भिक्षुधर्म के प्रथम सूत्र (गाथा 76) में भो' शब्द से शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ शिष्यों का ध्यान केन्द्रित किया है कि ऐसे तथाकथित साधुओं की शरण में न जाओ, अथवा वे शरण (आत्मरक्षण) देने में असमर्थ-अयोग्य हैं। वे शरण के अयोग्य क्यों हैं ? इसके लिए उन्होंने 5 कारण बतलाये हैं (1) ये बाल-मुक्ति के वास्तविक मार्ग से अनभिज्ञ हैं, (2) फिर भी अपने आपको पण्डित तत्त्वज्ञ मानते हैं, (3) साधु जीवन में आने वाले परीषहों एवं उपसर्गों से पराजित हैं, अथवा काम, क्रोधादि रिपुओं द्वारा विजित हारे हुए हैं, (4) वे बन्धु-बान्धव, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद तथा गृहस्थ प्रपञ्चरूप पूर्व (परिग्रह) सम्बन्ध को छोड़कर भी पुनः दूसरे प्रकार के परिग्रह में आसक्त हैं, और (5) गृहस्थ को सावध (आरम्भ-समारम्भयुक्त) कृत्यों का उपदेश देते हैं। बाला पंडितमाजिणो-इस अध्ययन की प्रथम सत्र गाथा में बोधि प्राप्त करने और बन्धन तोड़ने कहा गया था, परन्तु बन्धन तोड़ने के लिए उद्यत साधकों को बन्धन-अबन्धन का बोध न हो, बन्धन समझ कर गृह-त्याग कर देने के पश्चात् भी जो पुनः गृहस्थ सम्बन्धी या गृहस्थवत् आरम्म एवं परिग्रह में प्रवृत्त हो जायें, जिन्हें अपने संन्यास धर्म का जरा भी भान न रहे, वे लोग बालक के समान विवेक न होने से जो कुछ मन में आया कह या कर डालते हैं, इसी तरह ये तथाकथित गृहत्यागी भी कह या कर डालते हैं, इसीलिए शास्त्रकार ने इन्हें 'बाला' कहा है, पूर्वोक्त कारणों से ये अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको महान् तत्त्वज्ञानी समझते हैं, रटा-रटाया शास्त्रज्ञान बघारते हैं। इस कारण शास्त्रकार ने इन्हें 'पण्डितमानी' कहा है। यहाँ वृत्तिकार एक पाठान्तर सूचित करते हैं कि 'बाला पंडित माणिणो' के बदले कहीं 'नत्य बाले Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाया 76 से 76 ऽवसीयई' पाठ है, जिसका अर्थ होता है-"जिस अज्ञान में पड़कर अज्ञजीव दुःखित होते हैं, उसी अज्ञान में ये अन्यतीर्थी बाल (अज्ञ) पड़कर दुःखित होते हैं।' / एते जिता-'एते' शब्द से वृत्तिकार पंचभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी, कृतवादी अवतारवादी. सिद्धिवादी आदि पर्वोक्त सभी मतवादियों का ग्रहण कर लेते हैं, क्योंकि तथाकथित मतवादी गृहत्यागियों में ये सब कारण पाये जाते हैं, जो उन्हें शरण के अयोग्य सिद्ध करते हैं। जिन्हें आत्मापरमात्मा, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्मों का ही यथार्थ बोध नहीं है, जो बन्ध और मोक्ष के तत्त्व से अनभिज्ञ हैं, अथवा जो देव, ब्रह्मा, ईश्वर, अवतार आदि किसी न किसी शक्ति के हाथों में अपने बन्ध-मोक्ष या डूबने-तरने का भार सौंपकर निश्चिन्त हो जाते हैं, वे भला हिंसादि पापों या आरम्भपरिग्रह से बचने की चिन्ता क्यों करेंगे? वे तो बेखटके परिग्रह में आसक्त होंगे और नाना आरम्भजनक प्रवृत्ति करेंगे। प्रव्रजित जीवन में आने वाले कष्टों या उपसर्गों को भी क्यों सहन करेंगे? तथा काम, क्रोध आदि को भी घटाने या मिटाने का पुरुषार्थ क्यों करेंगे? इसीलिए शास्त्रकार ठीक कहते हैं'एते जिता'- अर्थात् ये परीषहों, उपसर्गों तथा कामादि शत्रुओं से हारे हुए हैं, उनका सामना नहीं कर सकते। हेच्चा सिया फिच्चोवदेसगा-इसका भावार्थ यह है कि जिस घर बार, कुटुम्ब-कबीला, जमीनजायदाद, धन-धान्य, आरम्भ-समारम्भ (गार्हस्थ्य-प्रपञ्च) आदि को पहले त्याज्य समझकर छोड़ा था, प्रवजित होकर मोक्ष के लिए उद्यत हुए थे, उन्हीं गृहस्थ सम्बन्ध परिग्रहों को शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता, आश्रम ,जमीन-जायदाद, धान्य-संग्रह, भेंट-दान आदि के रूप में सम्पत्ति ग्रहण तथा आये दिन बड़े भोजन समारोह के लिए आरम्भ-समारम्भ आदि के रूप में पुनः स्वीकार कर लिया, साथ हो गृहस्थों को उन्हीं सावध (आरम्भ-समारम्भ युक्त) कृत्यों का उपदेश देने लगे। अतः वे प्रवजित होते हुए भी गृहस्थों से भिन्न नहीं, अपितु उन्हीं के समान परिग्रहधारी एवं समस्त सावद्य प्रवृत्तियों के अनुमोदक, प्रेरक एवं प्रवर्तक बन बैठे। ___ इन सब कारणों से वे शरण-योग्य नहीं है, क्योंकि जब वे स्वयं आत्मरक्षा नहीं कर सकते तो (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृ० पत्रांक 46-47 के आधार पर (ख) देखिये-सुत्तपिटक दीघनिकाय (क.लि भा० 1) सामनफल सुत्त पृ० 41-53 में पूरण काश्यप का मत "पूरणो कस्सपो में एतदवोच-करोतो खो, महाराज, कारयतो छिन्दते छेदापयतो"न करीयति पापं.... नत्थि ततो निदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो। दानेन, दमेन, सच्चवज्जे नत्यि पूछ, नत्थि पुश्मस्स आगमो ति.... (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 247-248 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 47.48 के आधार पर (ग) पंचसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः / कुण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यन्ते यास्तु वाहयन् / / -मनुस्मृति महस्थ के घर में पांच कसाईखाने (हिंसा के उत्पत्तिस्थान) होते हैं, जिन्हें निभाता हुआ वह हिंसा (आरम्भजन्य) में प्रवृत्त होता है / वे पांच ये हैं-चूल्हा, चक्की, झाडू, ऊखली और पानी का स्थान (परिडा)। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय शरणागत अनुयायी (शिष्य) की आत्मरक्षा कैसे करेंगे? इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-'न सरणं / कहींकहीं 'भोऽसरणं' पाठ भी है, उसका भी अर्थ यही है / सरलात्मा निर्ग्रन्थ साधुओं को सावधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे तथाकथित प्रव्रजितों के आडम्बर एवं वाक्छटा से प्रभावित होकर उनके चक्कर में साधु न आयें। अणुक्फसे - आठ प्रकार के मदों में से कोई भी मद न करे। तीन सावधानियाँ-पूर्वोक्त अन्यतीथिक साधु के मिल जाने पर उसे भली-भांति जान-परख लेने के बाद यदि विज्ञ साधु को ऐसा प्रतीत हो कि तथाकथित अन्यतोर्थी साधु मूढ़ मान्यताओं का है, मिथ्याभिमानी है, हठाग्र ग्रही है, उसके मन में रोष एवं द्वेष है, उसका आचार-विचार अतीव निकृष्ट है, न उरामें जिज्ञासा है, न सरलता, तब क्या करे ? उसके साथ कैसे बरते, कैसे निपटे ? इसके लिए शास्त्रकार ने तीन सावधानियाँ, तीन विवेक सूत्रों के रूप में प्रस्तुत की हैं (1) विज्ज तेसुण मुच्छए, (2) अप्पलोणे, (3) मज्झण मुणि जावए इनका आशय यह है कि विज्ञ साधु उक्त साधु के प्रति किसी प्रकार की ममता-मूर्छा न रखे, उसके साथ अन्तर् से लिप्त-संसक्त, संसर्गयुक्त न हो / तृतीय कर्तव्यबोध : निरारम्भी निष्परिग्रहियों की शरण में जाये-सुत्रगाथा 78 में शास्त्रकार ने आरम्भ-परिग्रह में आसक्त पुरुष भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, इस सस्ते मोक्षवाद के प्रवर्तकों या मतवादियों से सावधान रहने तथा निरारम्भी निष्परिग्रही महान् आत्माओं की शरण में जाने का निर्देश दिया है। प्रश्न होता है-७६वीं सूत्रगाथा में भी शरण के अयोग्य व्यक्तियों की पहचान बतायी गयी थी, उससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता था कि जो साधक आरम्भ-परिग्रह से मुक्त हैं, उन्हीं की शरण लेनी चाहिए, फिर यहाँ पुन: उस बात को शास्त्रकार ने क्यों दुहराया ? इसका समाधान यह है कि "शास्त्रकार यहाँ एक विचित्र मोक्षवादी मत का रहस्योद्घाटन करते हुए उक्त मतवादी साधकों की शरण कतई न स्वीकारने का स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहे हैं कि निरारम्भी और निष्परिग्रही निम्रन्थ की शरण में जाओ।" यद्यपि शास्त्रकार ने 'सपरिग्गहा या सारम्भा' इन दो शब्दों का प्रयोग किया है, परन्तु वृत्तिकार आशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-सपरिग्रह और सारम्भ प्रबजित भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। मोक्ष के विषय में ऐसा कतिपय मतवादियों का कथन है / जो धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, मकान, जमीनजायदाद, शारीरिक सुखोपभोग सामग्री तथा स्त्री-पुत्र आदि पर स्व-स्वामित्व एवं ममत्व रखते हैं, वे 'सपरिग्रहः' कहलाते हैं। जो षटकायिक जीवों का उपमर्दन करने वाली प्रवृत्तियाँ करते हैं, अथवा जो 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 48-46 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 252 से 255 तक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 चतुर्य उद्देशक : गाथा 76 से 79 स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करते हुए भी आरम्भानुमोदक-औद्देशिक आहार करते हैं, वे सारम्भ कहलाते हैं। फिर वे प्रवजित हों, किसी भी देश में हों या अप्रवजित, आरम्भ-परिग्रह से युक्त हों तो भी वे मोक्षमार्ग के साधक हैं। इन दो कारणों से ये तथाकथित मोक्षवादी शरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। ऐसी सुविधाजनक, आसान, सस्ती आरम्भ-परिग्रहवादियों की मोक्ष-कल्पना के चक्कर में आकरकोई मुमुक्षु साधक फँस न जाये, इसीलिए शास्त्रकार को स्पष्ट कहना पड़ा--जो आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा रहित, भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ साधक हैं, जो संयम-पालन के लिए-जीवन टिकाने हेतु नियमप्राप्त भोजन, वस्त्र आदि लेते हैं, धर्मोपकरण, पुस्तक आदि सामग्री के सिवाय वे अपने स्वामित्व या ममत्व से युक्त कोई भी धन-धान्यादि नहीं रखते, न ही पचन-पाचनादि आरम्भ करते हैं, अहिंसादि महावतों में लीन समताधारी उन निग्रन्थों की शरण में जाना चाहिए / यही शास्त्रकार का आशय है। चतुर्थ कर्तव्यबोध : आसक्ति से मुक्त एवं त्रिविध एषणा से युक्त आहार करे---सूत्रगाथा 76 में आरम्भ एवं परिग्रहों से मुक्त होने के लिए राग-द्वोष, आसक्ति आदि से मुक्त होकर त्रिविध एषणाओं से युक्त आहार-ग्रहण एवं उपभोग करने का विधान है / साधु-जीवन में मुख्यतया तीन आवश्यकताएँ होती हैंभोजन, वस्त्र और आवास / तीनों में मुख्य समस्या भोजन की है, क्योंकि अहिंसा महाव्रती साधु न स्वयं भोजन पकाता है, न पकवाता है और न ही भोजन बनाने का अनुमोदन करता है क्योंकि इस कार्य से हिंसा होती है। हिंसाजनक कार्य को ही आरम्भ कहा जाता है। अतः साधु को आहार सम्बन्धी उक्त आरम्भ से बचना आवश्यक है। तब फिर प्रश्न हुआ कि आहार कैसे, किससे और कहाँ से ले, जिससे आरंभदोष से बच सके ? इसी समस्या का समाधान शास्त्रकार ने चार विवेक-सूत्रों में दिया है (1) कडेसु घासमेसेज्जा, 12) बिऊ दस सणं चरे, (3) अगिद्धो विप्पमुक्को य, (4) ओमाणं परिवज्जए। इन्हें शास्त्रीय परिभाषा में आहार-सम्बन्धी तीन एषणाएँ कह सकते हैं-(१) गवेषणा, (2) ग्रहणषणा, (3) ग्रासैषणा या परिभोगैषणा / इन्हीं तीनों के कुल मिलाकर 47 दोष होते हैं, वे इस प्रकार वर्गीकृत किये जा सकते हैं-गवेषणा के 32 दोष (16 उद्गम के एवं 16 उत्पाद के), ग्रहणषणा के 10 एवं परिभागैषणा के 5 दोष / 16 उद्गम दोष ये हैं, जो मुख्यतया गृहस्थ से आहार बनाते समय लगते हैं(१) आधाकर्म, (6) प्राभृतिका, (11) अभिहृत, (2) औद्दे शिक, (7) प्रादुष्करण, (12) उद्भिन्न, (3) पूतिकर्म, (8) क्रीत, (13) मालाहृत, (4) मिश्रजात, (8) प्रामित्य (14) आच्छेद्य, (5) स्थापना, (10) परिवर्तित, (15) अनिःसृष्ट (16) अध्यवपूरक दोष। (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति. पत्रांक 46 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 256 से 261 तक Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 16 प्रकार के उत्पाद दोष ये हैं, जो साधु की असावधानी एवं रसलोलुपता से उसके स्वयं के निमित्त से लगते हैं(१) धात्री दोष, (6) चिकित्सा दोष, (11) पूर्व-पश्चात् संस्तव दोष, (2) दूति दोय या दौत्य दोष, (7) क्रोध दोष, (12) विद्या दोष, (3) निमित्त दोष (8) मान दोष, (13) मन्त्र दोष, (4) आजीव दोष। (6) माया दोष, (14) चूर्ण दोष, (5) वनीमक दोष, (10) लोभ दोष, (15) योग दोष (56) मूलकर्म दोष / ये दोनों प्रकार के दोष आहार की गवेषणा करते समय साधु की असावधानी से लगते हैं / आहार लेते समय पूछताछ, खोज-बीन करके लेना गवेषणा है, यहाँ 'कडेसु घासमेसेज्जा' कहकर गृहस्थ द्वारा अपने लिए कृत चतुर्विध आहारों में से ग्राह्य आहार की एषणा करनी आवश्यक बतायी है। इसके पश्चात् 'दत्त सेणं चरे' इस वाक्य से शास्त्रकार ने ग्रहणषणा के 10 दोषों से वचने का संकेत किया है। वे इस प्रकार हैं(१) शंकित, (4) पिहित, (7) उन्मिश्र दोष (2) म्रक्षित, (5) संहृत, (8) अपरिणत दोष, (3) निक्षिप्त, (6) दायक दोष, (6) लिप्त दोष (10) छदित दोष / इसके अनन्तर तीन विवेक-सूत्र परिभौगषणा या ग्रासैषणा के 5 दोषों के सम्बन्ध में बताये हैं(१) अगिद्धो, (2) विप्पमुक्को, (3) ओमाणं परिवज्जए / 5 आहार ग्रहण-सेयन आदि के 47 दोष इस प्रकार हैं१६. उद्गम दोष आहाकम्मुद्दे सिय पूइकम्मे य मीसजाए य / ठवणा पाहडियाए पाओअरकीयपामिच्चे // 1 // परियट्टिए अभिहडे उब्भिन्ने मालोहडे इय। आच्छिज्जे अणिसिठे अज्झोवरए य सोलममे // 2 // 16 उत्पाद दोष धाई दुई निमित्त आजीव-वणीमगे तिगिच्छाय / कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए // 1 // विपच्छासंस्थवविज्जामंते य चुण्णजोगे य / उपायणाइदोसा सोलसमे मूलकम्मे // 2 // 10 एषणा (ग्रहणषणा) दोष संकिय-मक्खिय-निक्खित्त-पिहिय-साहरिय-दायगुम्मीसे / अपरिणय लित्ति-छड्डिय एषणदोसा दस हवंति // 1 // 5 परिभोगैषणा दोष (1) इंगाले, (2) धूमे, (3) संजोयणा; (4) पमाणे, (5) कारणे चेव / पंच एए हवंति घासेसण-दोसा / / नोट-इनका समस्त वर्णन दशवकालिक, पिण्डनियुक्ति, आचारांम आदि से जान लेना चाहिए। -सम्पादक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक ! गाथा 80 से 83 गृद्धि, राग-द्वषलिप्तता एवं अपमान या अवमान-ये तीनों दोष हैं परिभोगषणा के 5 दोष इस प्रकार हैं-- 1. अंगार दोष, 2. धूम दोष, 3. संयोजना दोष, 4. प्रमाण दोष 5. कारण दोष / ओमाणं परिवज्जए-वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या यों की है-भिक्षा के समय साधु गृहस्थ के यहाँ जाये, उस समय यदि कोई उसे झिड़क दे, अपमानित कर दे या अपशब्द या मर्मस्पर्शी शब्द कह दे तो भी साधु उस अपमान को दिल-दिमाग से निकाल दे, या गृहस्थ कोई सरस चीज न दे, बहुत ही कम दे या तुच्छ रूखा-सूखा आहार देने लगे, तब उस पर झुंझलाकर उसका अपमान न करे। ज्ञान और तप के मद का परित्याग करे / ये चारों आहार विवेक-सूत्र साधु को आरम्भ मुक्त होने के लिए बताये हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-जिता-जो परीषह-उपसर्ग तथा काम-क्रोधादि 6 शत्रुओं से पराजित हैं। हेच्चा= छोड़कर / विज्ज-विद्वान् / अणुक्कसे-वृत्तिकार के अनुसार-अनुत्कर्षवान् अर्थात् --आठ प्रकार के मदस्थानों में से किसी भी प्रकार का मद न करता हुआ। चूर्णिकार ने 'अणुक्कसो' और 'अणुक्कसायो', ये दो पाठान्त र माने हैं। इनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-अनुत्कर्ष का अर्थ है, जो जाति आदि मदस्थानों द्वारा उत्कषं (गर्व) को प्राप्त नहीं होता और अनुत्कषाय का अर्थ है-जो तनुकषाय हो, जिसका कषाय मन्द हो / अप्पलीण - वृत्तिकार के अनुसार-अप्रलीन का अर्थ है-असम्बद्ध अन्यतीर्थी, गृहस्थ या पार्श्वस्थ आदि के साथ संसर्ग न रखता हुआ। चूणिकार के अनुसार-अप्पलोणे का अर्थ-अपलीन हो, अर्थात् अपने आप का उन अन्यतीथिकों आदि से ग्रहण-सम्पर्क न होने दे। 'मझेण मुणि जावए' =मध्यस्थभाव से मुनि जीवनयापन करे अर्थात् न तो उन पर राग करे, न ही द्वेष, अथवा मुनि उनकी निन्दा-प्रशंसा से बचता हुआ व्यवहार करे / ताणं परिव्वएशरण प्राप्त करे। चूर्णिकार ने 'जाणं परिवए' पाठ मानकर अर्थ किया है-ज्ञान भिक्षु (अनारम्भी-अपरिग्रही की सेवा में) पहुँचे / विउविज्ञ / कडेसुदूसरों द्वारा कृत-बनाये हुए में से / घासमेसेज्जा-कल्पनीय ग्राह्य ग्रासआहार को एषणा गवेषणा करे / विष्पमुक्को- राग-द्वेष से मुक्त होकर / ओमाण अपमान या अष्टविध मद। लोकवाद-समीक्षा 80. लोगावायं निसामेज्जा इहमेगेसि आहितं / विवरीतपण्णसंभूतं अण्णण्णबुतिताणुयं // 5 // 81. अणंते णितिए लोए सासते ण विणस्सति / / अंतवं णितिए लोए इति धोरोऽतिपासति // 6 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 48-46 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 247 से 261 तक (ग) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 13-14 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 82. अपरिमाणं विजाणाति इहमेगेसि आहितं / सम्वत्थ सपरिमाणं इति धीरोऽतिपासति // 7 // 83. जे केइ तसा पाणा चिटुति अदु थावरा / परियाए अस्थि से अंजू तेण ते तस-थावरा // 8 // 80. इस लोक में किन्हीं लोगों का कथन है कि लोकवाद-पौराणिक कथा या प्राचीन लौकिक लोगों द्वारा कही हुई बातें सुनना चाहिए, (किन्तु वस्तुतः पौराणिकों का वाद) विपरीत बुद्धि की उपज है-तत्त्वविरुद्ध प्रज्ञा द्वारा रचित है, परस्पर एक दूसरों द्वारा कहो हुई मिथ्या बातों (गप्पों) का ही अनुगामी यह लोकवाद है। 81. यह लोक (पृथ्वी आदि लोक) अनन्त (सीमारहित) है, नित्य है और शाश्वत है, यह कभी नष्ट नहीं होता; (यह किसी का कथन है।) तथा यह लोक अन्तवान, ससीम और नित्य है। इस प्रकार व्यास आदि धीर पुरुष देखते अर्थात् कहते हैं। 52. इस लोक में किन्हीं का यह कथन है कि कोई पुरुष सीमातीत पदार्थ को जानता है, किन्तु सर्व को जानने वाला नहीं / समस्त देश-काल की अपेक्षा वह धीर पुरुष सपरिमाण -- परिमाण सहित --एक सीमा तक जानता है। 83. जो कोई त्रस अथवा स्थावर प्राणी इस लोक में स्थित हैं, उनका अवश्य ही पर्याय (परिवर्तन) होता है, जिससे वे त्रस से स्थावर और स्थाविर से त्रस होते हैं। विवेचन-लोकवाद : एक समीक्षा-प्रस्तुत चतु:सूत्री में लोकवाद-सम्बन्धी मीमांसा है। प्रस्तुत चतु:सूत्री को देखते हुए लोकवाद के प्रस्तुत समय-अध्ययन की दृष्टि से चार अर्थ फलित होते हैं(१) लोकों पौराणिक लोगों का वाद-कथा या मत प्रतिपादन, (2) लोको-पाषण्डियों द्वारा प्राणियों के जन्म-मरण (इहलोक-परलोक) के सम्बन्ध में कही हुई विसंगत बातें, (3) लोक की नित्यता-अनित्यता, अनन्तता-सान्तता आदि के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिको के मत, और (4) प्राचीन लोगों द्वारा प्रचलित परम्परागत अन्धविश्वास की बातें --लोकोक्तियाँ। वृत्तिकार ने इन चारो ही अर्थों को प्रस्तुत चारों सूत्रगाथाओं (80 से 83 तक) की व्याख्या में ध्वनित कर दिया है। शास्त्रकार ने प्रस्तुत चतुःसूत्री की चारो गाथाओं में निम्नोक्त समीक्षा की है-(१) लोकवाद : कितना हेय-ज्ञय या उपादेय है ? (2) कुछ कहते हैं-यह लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत एव अविनाशी है / दूसरे कहते हैं-लोक अन्तवान है, किन्तु नित्य है, (3) पौराणिकों आदि का अवतार लोकवादी है, जो अपरिमित ज्ञाता है तथा सपरिमाण ज्ञाता है, और (4) त्रस त्रस ही रहते हैं, स्थावर स्थावर ही, इस लोकवाद का खण्डन / बहुचचित लोकवाद क्यों और कब से ?-शास्त्रकार ने लोकवाद की चर्चा इसलिए छेड़ो है कि उस युग में पौराणिकों का बहुत जोर था। लोग उन पौराणिकों को सर्वज्ञ मानते और कहते थे; उनसे आगमनिगम की, लोक-परलोक की, मरणोत्तर लोक के रहस्य को या प्राणी की मरणोत्तर दशा की, अथवा प्रत्यक्ष दृश्यमान सृष्टि (लोक) की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की बहुत चर्चाएँ करते थे। उस युग में जो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 50 से 83 व्यक्ति बहुत वाचाल होता और तर्क-युक्तिपूर्वक लोकमानस में अपनी बात बिठा देता, उसे अन्धविश्वास पूर्वक अवतारी, सर्वज्ञ, ऋषि, पुराण-पुरुष आदि मान लिया जाता था। कई बार ऐसे लोग अपने अन्धविश्वासी लोगों में ब्राह्मण, कुत्ता, गाय आदि प्राणियों के सम्बन्ध में अपनी सर्वज्ञता प्रमाणित करने के लिए आश्चर्यजनक, विसंगत एवं विचित्र मान्यताएँ फैला देते थे। भगवान महावीर के युग में पूरण काश्यप, मक्खली गोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुद्ध कात्यायन, गौतम बुद्ध एवं संजय बेलट्ठिपुत्त आदि कई तीर्थंकर माने जाने वाले व्यक्ति थे, जो सर्वज्ञ कहे जाते थे; उधर वैदिक पौराणिकों में व्यास, बादरायण, भारद्वाज, पाराशर, हारीत, मनु आदि भी थे, जिन्हें लोग उस युग के सर्वज्ञाता मानते थे यही कारण है कि शास्त्रकार ने ८०वीं सूत्रगाथा में प्रस्तुत किया है-आम जनता में प्रचलित लोकवाद को सुनने का कुछ लोगों ने हमसे अनुरोध किया है, किन्तु हमने बहुत कुछ सुन रखा है, प्रचलित लोकवाद उन्हीं विपरीत बुद्धि वाले पौराणिकों की बुद्धि की उपज है, जिसमें उन्होंने कोई यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन नहीं किया है / जैसे उन लोकवादियों की मान्यता भी परस्परविरुद्ध है, वैसे यह लोकवाद भी उसी का अनुगामी है। निष्कर्ष यह है कि प्रस्तुत लोक ज्ञय और हेय अवश्य हो सकता है, उपादेय नहीं। लोकवाद : परस्पर विरुद्ध क्यों और कैसे ?-प्रश्न होता है, जब प्रायः हर साधारण व्यक्ति इस लोकवाद को मानता है, तब आप (शास्त्रकार) उसे क्यों ठुकराते हैं ? इसके उत्तर में ८१वीं सूत्रगाथा प्रस्तुत की गई है / कुछ वादियों के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी प्राणी हैं, वे सब मिलकर लोक कहलाता है। इस प्रकार के लोक का निरन्वय नाश नहीं होता / उनका आशय यह है कि जो जीव इस जन्म में जैसा है, परलोक में भी, यहाँ तक कि सदा काल के लिए वह वैसा ही उत्पन्न होता है। पुरुष पुरुष ही होता है, स्त्री स्त्री ही होती है। अन्वय (वश या नस्ल) के रूप में कभी उसका नाश नहीं होता। इसलिए उन्होंने कह दिया--लोक अविनाशी है; फिर उन्होंने कहा-लोक नित्य है, उत्पत्ति-विनाश रहित, सदैव स्थिर एवं एक सरीखे स्वभाव वाला रहता है। तथा यह लोक शाश्वत है-बार-बार उत्पन्न नहीं होता, सदैव विद्यमान रहता है / यद्यपि द्व यणुक आदि कार्य-द्रव्यों (अवयवियों) की उत्पत्ति की दृष्टि से यह शाश्वत नहीं है, तथापि कारण-द्रव्य परमाणुरूप से इसकी कदापि उत्पत्ति नहीं होतो, इसलिए यह शाश्वत ही माना जाता है, क्योंकि उनके मतानुसार काल, दिशा, आकाश, आत्मा और परमाणु नित्य है / तथा यह लोक अनन्त है, अर्थात् इसकी कालकृत कोई अवधि नहीं है, यह तीनों कालों में विद्यमान है। 7 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 266-267 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 46 (ग) देखिये दीघनिकाय में-अयं देव ! पूरणो कस्सपो संघी चेव मणी च मणायरियो च आतो, यसस्सी, तिस्थकरो, साधु सम्मतो बहुजनस्य रुत्तज, चिर पव्वजितो, अद्धगतो, वयो अनुप्पत्तो "मक्खलि गोसालो"अजितो केस कम्बलो"पकुधो कच्चायनो""सञ्जयो बेलठ्ठपुत्तो'"निगण्ठो नायपुत्तो भगवा अरहं सम्मा सम्बुद्धो बिज्जाचरण सम्पन्नो सुगतो लोकविदू, अनुत्तरो, पुरिस दम्म सारथिसत्थादेव मनुस्सान, बुद्धो भगवा ति / -सुत्त पिटके दीघनिकाय, पालि भा० 1 में पृ० 41-53 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय कुछ पौराणिकों के मतानुसार यह लोक अन्तवान् है। जिसका अन्त अथवा सीमा हो, उसे अन्तवान् कहते हैं / लोक ससीम-परिमित है। क्योंकि पौराणिकों ने बताया है---"यह पृथ्वी सप्तद्वीप पर्यन्त है, लोक तीन है, चार लोक संनिवेश है, इत्यादि / इस दृष्टि से लोकसीमा दृष्टिगोचर होने के कारण यह अन्तवान् है। किन्तु सपरिमाण (ससीम) होते हुए भी यह लोक नित्य है, क्योंकि प्रवाहरूप से यह सदैव दृष्टिगोचर होता है। बौद्धधर्म के दीर्घनिकाय ग्रन्थ के ब्रह्मजाल सुत्त में बताया गया है कि "कितने ही श्रमण ब्राह्मण एक या अनेक पूर्वजन्मों के स्मरण के कारण कहते हैं---यह आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं, प्राणी चलते-फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, लेकिन अस्तित्व नित्य है / ....... कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं ....."लोक का प्रलय हो जाता है, तब पहले-पहल जो उत्पन्न होता है वह पीछे जन्म लेने वाले प्राणियों द्वारा नित्य, ध्रुव, शाश्वत उपरिणामधर्मा और अचल माना जाता है, अपने आपको उस (ब्रह्मा) से निर्मित किये जाने के कारण अपने को अनित्य, अध्र व, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील मानता है।" ......... कितने ही श्रमण-ब्राह्मण लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं ।......"यह लोक ऊपर से सान्त और दिशाओं की ओर से अनन्त है।" शास्त्रकार ने इसका खण्डन करते हुए कहा है-'इति धीरोऽतिपासति' इसका आशय यह है कि लोकवाद इस प्रकार की परस्पर-विरोधी और विवादास्पद बातों का भण्डार है, जो व्यास आदि के समान किसी साहसिक बुद्धिवादो (धीर) पुरुष का अतिदर्शन है-अर्थात् वस्तुस्वरूप के यथार्थ दर्शन का अतिक्रमण है। इस वाक्य में से यह भी ध्वनित होता है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन वही कर सकता है जिसका दर्शन सम्यक् हो / इसीलिए चूर्णिकार ने पाठान्तर माना है, एवं 'वीरोऽधिपासति' इस प्रकार वादवीर सामान्य जनों से अधिक देखता है, वह सर्वज्ञ नहीं है।' लोकवाद को ऐकांतिक एवं युक्तिविरुद्व मान्यताएं-पौराणिक आदि लोकवादियों की सर्वज्ञता के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने यहाँ दो मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं-(१) एक मान्यता तो यह है, जो पौराणिको 8 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 262-263 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 46-50 के आधार पर (ग) 'सप्तद्वीपा वसुन्धरा' इत्यादि बातें पुराणों में वर्णित हैं। (घ) "एकच्चो समणो ब्राह्मणो वा... अन्तसनी लोकस्सि विहरति / सो एवमाह - अन्तवा सयं लोको परि वटुमो"। ""एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा "अनन्तसञी लोकस्सि विहरति""सो एवमाह-अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो." (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 46 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 263 के आधार पर (ग) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 14 पवहन- अन्तावा सर्य लोको परि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक / गाथा 80 से 13 की है कि हमारा मान्य अवतार या ईश्वर अपरिमित पदार्थों को जानता है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञाता है / दूसरी मान्यता यह है कि हमारा ईश्वर या अवतारी पुरुष अपरिमित पदार्थों का ज्ञाता अवश्य है, मगर वह सर्वज्ञ नहीं है-सर्वक्षेत्र-काल के सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं है / सीमित क्षेत्रकालगत पदार्थों को ही जानता-देखता है। कई अतीन्द्रिय द्रष्टा सर्वज्ञ एवं अपने मत के तीर्थकर कहलाते थे, तथापि वे कहते थे-जो अतीन्द्रिय पदार्थ उपयोगी हों, जिनसे कोई प्रयोजन हो, उन्हीं को हमारे तीर्थकर जानते हैं। जैसे कि आजीवक मतानुयायी अपने तीर्थकर मक्खली गोशालक के सम्बन्ध में कहते थे तीर्थकर सभी पदार्थों को देखे या न देखे, जो पदार्थ अभीष्ट एवं मोक्षोपयोगी हों, उन्हें देख ले, इतना ही काफी है। कीड़ों की संख्या का ज्ञान भला हमारे किस काम का? कीड़ों की संख्या जानने से हमें क्या प्रयोजन ? अतएव हमें उस (तीर्थकर) के अनुष्ठान सम्बन्धी या कर्तव्यावर्तव्य सम्बन्धी ज्ञान का विचार करना चाहिए। अगर दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण मानेंगे तब तो हम उन दरदर्शी गिद्धों के उपासक माने जायेंगे।'' यह सर्वत्र को पूर्णज्ञता न मानने वालों का मत है। इस गाथा में प्रथम मत पौराणिकों का है, और द्वितीय मत है-आजीवक आदि मत के तीर्थंकरों का। एक प्रकार से सारी गाथा में पौराणिकों के मत का ही प्ररूपण है। पुराण के मतानुसार 'ब्रह्माजी का एक दिन चार हजार युगों का होता है' और रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है। ब्रह्माजी दिन में जब पदार्थों की सृष्टि करते हैं, तब तो उन्हें पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है, किन्तु रात में जब वह सोते है तब उन्हें परिमित ज्ञान भी नहीं होता। इस प्रकार परिमित अज्ञान होने से ब्रह्माजी में ज्ञान और अज्ञान दोनों की सम्भावना है। अथवा वे कहते हैं-ब्रह्माजी एक हजार दिव्य वर्ष सोये रहते हैं, उस समय वह कुछ भी नहीं देखते और जब उतने ही काल तक वे जागते हैं, तब वे देखते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं –'धीरोऽतिपासई' अर्थात् - धीर ब्रह्मा का यह (लोकवाद सूचित) अतिदर्शन है।१२ अपुत्रस्य गतिर् (लोको) नास्ति, स्वर्गो नेव च, नैव च-पुत्रहीन की गति (लोक) नहीं होती, स्वर्ग तो उसे हर्गिज नहीं मिलता। इस प्रकार की धारणाएँ लोकवाद है। लोकवाद युक्ति-प्रमाण विरुद्ध है-सूत्रगाथा 83 में लोकवाद के रूप में प्रचलित युक्ति-प्रमाण विरुद्ध मान्यताओं का निराकरण किया गया है। जैसे कि लोकवादी यह कहते हैं-यह लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत और अविनाशी है। इस विषय में जैनदर्शन यह कहता है कि अगर लोकगत पदार्थों को उत्पत्ति 10 सर्वपश्यतु वा मा वा, इष्टमथ तु पश्यतु / कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते // 1 // तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् / प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गद्धानुपास्महे // 2 // 11 "चतुर्युग सहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते / " 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 50 (ख) सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या 268-266 पुराण Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विनाश रहित, स्थिर, एक स्वभाव वाले कूटस्थ नित्य मानते हैं तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण विरुद्ध है। इस जगत् में जड़-चेतन कोई भी पदार्थ ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता, जो क्षण-क्षण में उत्पन्न न हो। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण पर्याय रूप से उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ दिखता है / अतएव लोकगत पदार्थ सर्वथा पर्याय रहित कटस्थ नित्य कैसे हो सकते हैं ? लोकवाद की इसी कूटस्थ नित्य की मान्यता को लेकर जो यह कहा जाता है कि नस सदैव त्रस पर्याय में ही होता है, स्थावर स्थावर पर्याय में ही होता है, तथा पुरुष मरकर पुरुष ही बनता है, स्त्री मरकर पुनः स्त्री ही होती है, यह लोकवाद सत्य नहीं है / आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है-“स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीव वस (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रसजीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं / अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं / अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं / "17 यदि यह लोकवाद सत्य हो कि जो मनुष्य इस जन्म में जैसा है, अगले जन्म में भी वह वैसा ही होता है, तब तो दान, अध्ययन, जप, तप, यम, नियम आदि समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जाएंगे, फिर क्यों कोई दान देगा यम नियमादि की साधना करेगा? क्योंकि उस साधना या धर्माचरण से कुछ भी परिवर्तन होने वाला नहीं है / परन्तु स्वयं लोकवाद के समर्थकों ने जीवों का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में उत्पन्न होना स्वीकार किया है स वै एष भृगालो जायते, यः सपुरोषो दह्यते / ' अर्थात्-'वह पुरुष अवश्य ही सियार होता है, जो विष्ठा सहित जलाया जाता है। तथा __ "गुरु तुकृत्य हुंकृत्य, विप्राग्निजित्य वादतः / श्मशाने जायते वृक्षः, कंक-गधोपसे वितः // " अर्थात्-जो गुरु के प्रति 'तु' या 'हुँ' कहकर अविनयपूर्ण व्यवहार करता है, ब्राह्मणों को वाद में हरा देता है, वह मरकर श्मशान में वृक्ष होता है, जो कंक, गिद्ध आदि नीच पक्षियों द्वारा सेवित होता है। इसलिए पूर्वोक्त लोकवाद का खण्डन उन्हीं के वचनों से हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि त्रस हो या स्थावर, सभी प्राणियों का अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न गतियों और योनियों के रूप में पर्याय परिवर्तन होता रहता है। स्मृतिकार ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है।१४ एक द्रव्यविशेष की अपेक्षा से कार्यद्रव्यों को अनित्य और आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को सर्वथा नित्य कहना भी लोकवाद का असत्य है क्योंकि सभी पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त होते हैं / ऐसा न मानने पर आकाश-कुसुमवत् वस्तु का वस्तुत्व ही नहीं रहेगा / पदार्थों -आचारांग 1, श्रु. 6, अ० 1, उ० गा० 54 12 अदु थावरा य तसत्ताए, तस जीवा य थावरत्ताए / अदुवा सन्च जोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो वाला।। 13 देखिये स्मृति में -“अन्तः प्रज्ञा भवन्त्येते सूख-दुःख समन्विताः / शारीरजः कर्मदोषैर्यान्ति स्थावरतां नरः / / " Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 80 से 83 की अपनी-अपनी जाति (सत्ता) का नाश नहीं होता फिर भी वे परिणामी हैं, यही (परिणामी नित्य) मानना ही जैनदर्शन को अभीष्ट है। लोक को अन्तवान् सिद्ध करने के लिए लोक (पृथ्वी) को सात द्वीपों से युक्त कहना भी प्रमाणविरुद्ध है / क्योंकि इस बात को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। लोकवादियों के द्वारा मान्य अवतार या भगवान् अपरिमितदर्शी होते हुए भी सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए उनका भी यदि यह कथन हो तो प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो पुरुष अपरिमितदर्शी होकर भी सर्वज्ञ नहीं हैं, वे हेय-उपादेय का उपदेश देने में भी समर्थ नहीं है, अतीन्द्रिय पदार्थों का उपदेश देना तो दूर रहा। - लोकवाद मान्य अवतार या तीर्थंकर यदि अपरिमित पदार्थदर्शी या अतीन्द्रिय पदार्थ द्रष्टा है, तो उनका सर्व-देश-कालज्ञ होना अत्यावश्यक है। यदि उन्हें कीड़ों की संख्या का उपयोगी ज्ञान भी नहीं होगा तो बुद्धिमान पुरुष शंका करने लगेगे कि उन्हें उसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी ज्ञान नहीं होगा। ऐसे शंकित-मानस उनके द्वारा उपदिष्ट हेयोपादेय में निवृत्त-प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे। लोकवादियों का यह कथन भी कोई अपूर्व नहीं है कि "ब्रह्मा सोते समय कुछ नहीं जानता, जागते समय सब कुछ जानता है," यह तो सभी प्राणियों के लिए कहा जा सकता है / तथा ब्रह्मा के सोने पर जगत् का प्रलय और जागने पर उत्पाद (सर्जन) होता है, यह कथन भी प्रमाणशून्य होने से उपादेय नहीं है। वास्तव में लोक का न तो एकान्त रूप से उत्पाद होता है और न ही सर्वथा विनाश (प्रलय)। द्रव्य रूप से लोक सदैव बना (नित्य) रहता है, पर्याय रूप से बदलता (अनित्य) रहता है। लोकवादियों का यह कथन भी छोटे बालक के समान हास्यास्पद है कि पुत्रहीन पुरुष की कोई गति (लोक) नहीं। अगर पुत्र के होने मात्र से विशिष्ट लोक प्राप्त होता हो, तब तो बहुपुत्रवान् कुत्तों और सूअरों से लोक परिपूर्ण हो जाएगा। हर कुत्ता या सूअर विशिष्ट लोक (सुगति) में पहुँच जाएगा, विना ही कुछ धर्माचरण किये, शुभकर्म किये / पुत्र के द्वारा किये गए अनुष्ठान से उसके पिता को विशिष्ट लोक प्राप्त होता हो, तब तो कुपुत्र के द्वारा किये गए अशुभ अनुष्ठान से कुलोक (कुगति) में भी जाना पड़ेगा, फिर उस पिता के स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का क्या होगा? वे तो व्यर्थ ही जाएँगे? अतः कर्म-सिद्धान्त-विरुद्ध, प्रमाण-विरुद्ध लोकवादीय कथन कथमपि उपादेय नहीं है। 'कुत्ते यक्ष है', 'ब्राह्मण देव हैं' इत्यादि लोकोक्तियाँ भी लोकवाद के युक्ति-प्रमाण शून्य विधान है। अतः ये विश्वसनीय नहीं हो सकते। कठिन शब्दों की व्याख्या--णिसा मिज्जा-सुनना चाहिए, अर्थात् जानना चाहिए / विपरीतपण्णसंभूतंपरमार्थ-वस्तुतत्त्व से विपरीत प्रज्ञा (बुद्धि) द्वारा उत्पन्न-सम्पादित-रचित / अण्णण्णवृतिताणुगं-चूर्णिकार के 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 46 (ख) सूत्रकृतांग अमरमुख बोधिनी व्याख्या पृ० 266-270 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय अनुसार-अन्योन्य-एक दूसरे के उक्त कथन का अनुगामी है। वृत्तिकार ने अन्नउत्त तयाणुयं -पाठान्तर मानकर व्याख्या की है-विपरीत स्वरूप बनाने वाले अन्य अविवेकियो ने जो मिथ्या अर्थ बतलाया है, उसी का अनुगामी (लोकवाद है / ) अणत-जिसका अन्त-निरन्वय नाश नहीं है, अथवा अनन्त यानी परिमाण रहित-निरवधि। इहमेगेसि आहितं-इस लोक में किन्हीं सर्वज्ञापह्नववादियों का यह कथन या मत है / अपरिमाणं विजानाति-क्षेत्र और काल की जिसमें इयत्ता-सीमा नहीं है, ऐसा अपरिमित ज्ञाता अतीन्द्रियदर्शी सम्वत्थ सपरिमाणं इति धीरोऽतिपासति=बुद्धिमान (धीर) (व्यास आदि) सर्वार्थ देशकालिक अर्थ सपरिमाण-सीमित जानता है, यह अतिदर्शन है / अदु- अथवा, अंजु-अवश्य, परियाए --पर्याय में / 16 अहिसा धर्म-निरूपण 84. उरालं जगओ जोयं विपरीयासं पलेति य / सव्वे अक्कंत दुक्खा य अतो सव्वे अहिसिया // 6 // 85. एतं खु णाणिणो सारं जं न हिसति किंचणं / अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया // 10 // 84. (औदारिक त्रस-स्थावर जीव रूप) जगत् का (बाल्य-यौवन-वृद्धत्व आदि) संयोग-अवस्थाविशेष अथवा योग-मन वचन काया का व्यापार (चेष्टाविशेष) उदार-स्थूल है - इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। और वे (जीव) विपर्यय (दूसरे पर्याय) को भी प्राप्त होते हैं तथा सभी प्राणी दुःख से आक्रान्त-पीड़ित हैं, (अथवा सभी प्राणियों को दुःख अकान्त --अप्रिय है, और सुखप्रिय है) अतः सभी प्राणी अहिंस्य–हिंसा करने योग्य नहीं है। 85. विशिष्ट विवेकी पुरुष के लिए यही सार---न्याय संगत निष्कर्ष है कि वह (स्थावर या जंगम) किसी भी जीव की हिंसा न करे / अहिंसा के कारण सब जीवों पर समता रखना और (उपलक्षण से सत्य आदि) इतना ही जानना चाहिए, अथवा अहिंसा का समय (सिद्धान्त या आचार) इतना ही समझना चाहिए। विवेचन- अहिंसा के सिद्धान्त या आचार का निरूपण-- इस गाथा द्वय (84-85) में स्व-समय के सन्दर्भ में अहिंसा के सिद्धान्त एवं आचार का प्रतिपादन किया गया है। लोकवाद के सन्दर्भ में कहा गया था कि उसकी यह मान्यता है कि त्रस या स्थावर, स्त्री या पुरुष, जो इस लोक में जैसा है, अगले लोकों में भी वह वैसा ही होता है, इसलिए कोई श्रमण निर्ग्रन्थ अहिंसादि के आचरण से विरत न हो जाये, इसीलिए ये दोनों गाथाएँ तथा आगे की गाथाएँ शास्त्रकार ने प्रस्तुत की हैं। प्रस्तुत गाथा द्वय से मिलती-जुलती गाथाएँ इसी सूत्र के 12 वें अध्ययन की सूत्रगाथा 505 और 506 में भी हैं। 16 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-४६-५० (ख) सूयगडंग चूणि ( मूलपाठ टिप्पण) पृ० 14 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84-85 समस्त प्राणी अहिंस्य क्यों ? --प्रस्तुत गाथा में संसार के समस्त जीव अहिंस्य क्यों हैं ? अर्थात् जीव हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए ? इसके तीन कारण बताये हैं (1) इस दृश्यमान त्रस-स्थावर जीव रूप जगत् की मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ (योग) अथवा बाल्य-यौवन-वृद्धत्व आदि (अवस्थाएँ) स्थूल (प्रत्यक्ष) हैं, (2) स्थावर-जंगम सभी प्राणियों की पर्याय-अवस्थाएँ सदैव एक-सी नहीं रहतीं, तथा (3) सभी प्राणी शारीरिक-मानसिक दुःखों से पीड़ित रहते हैं, अथवा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है। बहुत से मतवादियों का कथन है आत्मा कूटस्थनित्य, एक-से स्वभाव का, उत्पत्ति-विनाश से रहित है, इसलिए वे यह तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि आत्मा की बाल्यादि अवस्थाएं नहीं होती, न ही अवस्था परिवर्तन होता है, और न कभी सुख-दुःख आदि होते हैं, इसलिए किसी जीव को मारने-पीटने, सताने आदि से कोई हिंसा नहीं होती है। यह वाद दीघनिकाय में वर्णित पकुद्धकात्यायन के अकृततावाद से प्रायः मिलता-जुलता है। इसी मिथ्यात्वग्रस्त पर-समय का निराकरण करने हेतु आत्मा की कथंचित् अनित्यता, परिणामर्मिता तथा तदनुसार सुख-दुःखादि प्राप्ति, दुःख से अरुचि आदि स्वसमय का प्रतिपादन किया गया है और यह स्पष्ट बता दिया गया है कि समस्त प्राणि-जगत् की विविध चेष्टाएँ तथा बाल्यादि अवस्थाएँ प्रत्यक्ष हैं, अवस्थाएँ (पर्यायें) भी सदा एक-सी नहीं रहती, प्राणिमात्र मरणधर्मा है। वह एक शरीर नष्ट होते ही स्व-स्वकर्मानुसार आत्मा दूसरे मनुष्य, तिर्यंच, नरक आदि गतियों और योनियों रूप पर्यायों में पर्यटन करती रहती है, और एक पर्याय (अवस्था) से दूसरी पर्याय बदलने पर जन्म, जरा, मृत्यु, शारीरिक-मानसिक चिन्ता, सन्ताप आदि नाना प्रकार के दुःख भी भोगने पड़ते हैं, जो कि उन प्राणियों को अप्रिय हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति जब किसी भी प्राणी को सतायेगा, पीड़ा देगा, मारेगा-पीटेगा, डरायेगा या किसी भी प्राणी को हानि पहुँचायेगा, प्राणों से रहित कर देगा तो उसे दुःखानुभव होगा, इसलिए शास्त्रकार ने इन्हीं तीन मुख्य प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल कारणों को प्रस्तुत करके बता दिया कि प्राणी सदैव एक-से नहीं रहते-उनमें पविर्तन होना प्रत्यक्षसिद्ध है / अतः किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। 17. (क) तुलना कीजिए-सब्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सब्वे न हिंसया एयं खु गाणिणो सारं, जंन हिंसति कंचणं / अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया / / --सूत्रकृ० 1 श्रु० अ० 11, गा० 6-10, सू० 505-6 (ख) "पकुधो कच्चायनो यं एतदवोच-सत्तिमे महाराज, काया अकटा, अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता, वज्झा कूटठा एसिकदायिठिता। तेन इञ्जन्ति, न विपरिणामेंन्ति, अञ्जमनं व्याबाधेति, नालं अञमञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा, सुखदुक्खाय वा / कतमे सत्त ? पठविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायो. कायो, सुखे, दुक्खे, जीवे सत्तमे।" -सुत्तपिटके दीघनिकाय पालि भा० 1, सामअफलसुत्त (ग) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 51 के आधार पर (घ) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या 274-275 के आधार पर Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय "अओ सम्वे अहिंसिया"-किसी भी प्राणी को किसी भी रूप से पीड़ा देना, सताना, मारना-पीटना डराना आदि हिंसा है, और किसी भी प्रकार की हिंसा से प्राणी को दुःख होता है / हिंसा करना निर्ग्रन्थ क्यों छोड़ते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर दशवकालिक एवं आचारांग में स्पष्ट दिया गया है कि समस्त जीव जीना चाहते हैं. मरना कोई भी नहीं चाहतासभी को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दु:ख सभी को अप्रिय है, इसीलिए निग्रंथ प्राणिवध को घोर पाप समझकर उसका त्याग करते हैं / 18 यह भी सत्य है कि असत्य, चोरी, मैथुन-सेवन, परिग्रह वृत्ति आदि पापासवा से भी प्राणियों को शारीरिक-मानसिक दुःख होता है, इसलिए ये सब हिंसा के अन्तर्गत आ जाते हैं। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'य' (च) शब्द से उपलक्षण से असत्यादि का त्याग भी समझ लेना चाहिए। हिंसा आदि पापानव अधिरति के अन्तर्गत हैं, जो कि अशुभ कर्मवन्धन का एक कारण है। इस दृष्टि से भी शास्त्रकार ने प्राणिहिंसा का निषेध किया है। ज्ञानी के ज्ञान का सार : हिंसा न करे-प्राणिहिंसा निषेध के पूर्वोक्त विवेक सूत्र को और स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार सूत्र गाथा 85 में कहते हैं---'एवं खु नाणिणो सारं किंचणं'-अर्थात् ज्ञानी होने का सारनिष्कर्ष यही है कि वह किसी भी प्राणी को हिंसा न करे / ज्ञानी कौन ? उसके ज्ञान का सार क्या ?- यहाँ ज्ञानी उसे नहीं बताया गया है, जो पोथी-पण्डित हो, . रटारटाया शास्त्र पाठ जिसके दिमाग में भरा हो, अथवा जो केवल शास्त्रीय ज्ञान बधारता हो, अथवा जिसका लौकिक या भौतिक विद्याओं का पाठन-अध्ययन प्रचुर हो / यहाँ ज्ञानी के मुख्य दो अर्थ फलित होते हैं-(१) अध्यात्म-ज्ञानवान्– जो आत्मा से सम्बन्धित पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बन्ध-मोक्ष, निर्जरा, आत्मा का स्वरूप, कर्मबन्ध, शुद्धि, विकास-ह्रास आदि का सम्यग् ज्ञाता हो। (2) सभी प्राणियों को मेरे समान ही सुख प्रिय हैं, दुःख अप्रिय, सभी को अपने प्राण प्यारे हैं, सभी जीना चाहते हैं, मरना नहीं। हिंसा, असत्य आदि से मेरे समान सभी प्राणियों को दुःख होता है, इस प्रकार आत्मवत् सर्वभूतेषु सिद्धान्त का जिसे अनुभव ज्ञान हो। इसीलिए शास्त्रकार का यहाँ आशय यह है 'ज्ञानस्य सारो विरतिः' ज्ञान का सार है-(पाप कर्मबन्ध या दुःख प्रदान से) विरति / इस दृष्टि से आत्मा को कर्मबन्ध से मुक्त कराने और बन्धन को भली-भाँति नमझकर तोड़ना ही जब ज्ञानी के ज्ञान का सार है, तब हिंसादि जो कर्मबन्ध या कर्मास्रव के कारण हैं, उनमें वह कैसे पड़ सकता है। इसीलिए यहाँ कहा गया-'जं न हिंसति किंचणं' / तात्पर्य यह है कि ज्ञानी के लिए न्याय संगत (सार) यही है कि पाप कर्मबन्धन के मुख्य कारण हिंसा को छोड़ दे। किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार से हिंसा न 18 (क) सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविउन मरिज्जि। तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा बज्जयंति णं // ---दशवकालिक अ०६ गा० 10 (ख) सब्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अपियवहा, पियजीविणो, जीवि उकामा, सम्वेसि जीवियं पिय / " -आचारांग श्रु० 1, अ० 2, सू० 240-241 (ग) सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि / ईक्षते योग-युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: / / ...गीता 6/26 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84 से 65 101 करे, परितापना पीड़ा न दे। उपलक्षण से पाप कर्षबन्ध के अन्य कारण तथा पीडाजनक (हिंसाजनक) ---मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन सेवन, परिग्रह वृत्ति से भी दूर रहे। अहिंसा से समता या समय को जाने- ज्ञानी के लिए सारभूत दूसरा तथ्य यहाँ बताया गया है'अहिंसा-समयं चेव वियाणिया' इसके तीन अर्थ यहाँ फलित होते हैं--- (1) अहिंसा से समता को जाने, इतना ही सार है, (2) अहिंसा रूप समता को विशेष रूप से जाने, इतना ही सार है, (3) इतना ही (यही) अहिंसा का समय (सिद्धान्त या आचार या प्रतिज्ञा) है, यह जाने। तीनों अर्थों का आशय यह है कि साधु ने दीक्षा ग्रहण करते समय 'करेमि भन्ते सामाइयं' के पाठ से समता की प्रतिज्ञा ली है। अहिंसा भी एक प्रकार की समता है अथवा समता का कारण है / क्यं कि साधक अहिंसा का पालन या आचरण तभी कर सकता है, जब वह प्राणिमात्र के प्रति समभाव-आत्मौपम्य भाव रखे। दूसरों की पीड़ा, दुःख, भय, त्रास को भी अपनी ही तरह या अपनी ही पीड़ा, दुःख, भय, वास आदि समझे / जैसे मेरे शरीर में विनाश, प्रहार, हानि एवं कष्ट से मुझे दुःख का अनुभव होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी उनके शरीर के विनाशादि से दुःखानुभव होता है। इसी प्रकार मुझे काई मारे-पीटे, सताये, मेरे साथ झूठ बोले, धोखा करे, चोरी और बेईमानी करे, मेरी बहन-बेटी की इज्जत लूटने लगे या संग्रहखोरी करे तो मुझे दुःख होगा, उसी तरह दूसरों के साथ मैं भी वैसा व्यवहार करू तो उसे भी दुःख होगा। इस प्रकार समतानुभूति आने पर ही अहिंसा का आचरण हो सकता है। __ भगवान महावीर ने तो स्पष्ट कहा है-'अप्पणा सच्चमेसेज्जा'- अपनी आत्मा को तराजू पर तोलकर सत्य का अन्वेषण करे। ऐसा करने पर ही मालूम होगा कि दूसरे प्राणी को मार आदि से उतनी ही पीड़ा होती है जितनी तुम्हें होती है। आचारांग सूत्र में तो यहाँ तक कह दिया है कि "जिस प्राणी को तुम मारना, पीटना. सताना, गुलाम बनाकर रखना, त्रास देना, डराना आदि चाहते हो, वह तुम्ही हो, ऐसा सोच लो कि उसके स्थान पर तुम्हीं हो।" 20 16 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 276 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 51 (य) 'करेमि भन्ते सामाइयं'-आवश्यक सूत्र, सामायिक सूत्र सभाष्य 20 (क) अहिंस्या समता अहिंसा समता तां चैतावद् विजानीयात् / -शीलोकवृत्ति पत्र 51 (ख) अप्पणा सच्चमेसेज्जा.... -उत्तराध्यन सूत्र ब०६ (ग) तुम सि णाम तं चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि, तुमं सि०"जं अज्जावेतव्वं ति.."तुमंसि"परितावेतव्वं ति मण्णसि, तुमंसि""परिधेतव्वं ति"; तुमंसि"उद्दवेतव्वंति मण्णसि / ' -आचारांग श्र. 1, अ० 5, उ०५, सू० 170 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय निष्कर्ष यह है-इस प्रकार की समता का जीवन में आ जाना ही अहिंसा है। इसी समता सूत्र से अहिंसा आदि का आचरण होता है / यही अहिंसा का सिद्धान्त है। इसे भलीभाँति हृदयंगम कर लेना ही ज्ञानी होने का सार है / अगर पुरुष इतना भी न कर सकता, तो उनका ज्ञान निरर्थक ही नहीं, भारभूत है, परिग्रह रूप है / एक आचार्य ने कहा है कि 'भूसे के ढेर के समान उन करोड़ों पदों के पढ़ने से क्या लाभ, जिनसे इतना भी ज्ञान न हुआ कि दूसरों को पीड़ा नहीं देनी चाहिए।२१।। इस समग्र गाथा का निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी पुरुष के लिए यही न्यायोचित है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, “आत्मवत् सर्वभूतेषु" का भाव रखकर अहिंसा का आचरण करे / कठिन शब्दों की व्याख्या-- उरालं =उदार, स्थूल है, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है, आँखों से प्रत्यक्ष दृश्यमान है। जोग= प्राणियों के योग-व्यापार, चेष्टा या अवस्था विशेष को। विवज्जासं पलिति औदारिक शरीरधारी जीव गर्भ, कलल और अर्बुदरूप पूर्वावस्था छोड़कर उससे विपरीत बाल्य-कौमार्य-यौवन-वृद्धत्व आदि स्थूल पर्यायों (अवस्था विशेषों) को प्राप्त करते हैं। अक्कंतदुक्खा=असातावेदनीय के उदय से, शारीरिकमानसिक दुःखों से आक्रान्त-पीड़ित हैं। चूर्णिकार 'अकंतदुक्खा' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं--कान्त का अर्थ है-प्रिय / जिन्हें दुःख अकान्त-अप्रिय अनिष्ट है / 25 हिसिया=सभी प्राणी साधु के लिए अहिंसनीय-अवध्य हैं। चूर्णिकार 'अहिंसगा' पाठान्तर मान कर अर्थ करते हैं- इस कारण से साधु अहिंसक होते हैं / सार=न्याय-संगत या निष्कर्ष / 23 चारित्न शुद्धि के लिए उपदेश 86. बुसिए य विगयगेही य आयाणं संरक्खए। चरियाऽऽसण-सेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो // 11 // 87. एतेहिं तिहि ठाणेहिं संजते सततं मुणी / उक्कसं जलणं णूम मज्झत्थं च विगिचए // 12 // 88. समिते उ सदा साह पंचसंवरसंखुडे / ___ सितेहिं असिते भिक्खू आमोक्खाए परिवएज्जासि / / 13 / / त्ति बेमि 86. दस प्रकार की साधु समाचारी में स्थित और आहार आदि में गृद्धि (आसक्ति) रहित साधु (मोक्ष प्राप्ति के) आदान (साधन-ज्ञानदर्शन-चारित्र) की सम्यक् प्रकार से रक्षा करे। (तथा) चर्या 21 किं तया पठितया पदकोट्या पलालभूतया। येनेतन्न ज्ञातं परस्य पीडा न कर्तव्या // 22 "कान्तं प्रियमित्यर्थः, न कान्तमकान्त दुक्खं अणिळं-अकंतदुक्खा" 23 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 51 (ख) सूयगडंग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 15 -चूणि Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 86 से 18 (चलने-फिरने), आसन (बैठने) और शय्या (सोने) के विषय में और अन्ततः आहार-पानो के सम्बन्ध में (सदा उपयोग रखे / ) 87 इन (पूर्वोक्त) तीनों (इर्यासमिति, आदान-निक्षेपणसमिति और एषणासमिति रूप) स्थानों में सतत संयत (संयमरत) मुनि मान (उत्कर्ष), क्रोध (ज्वलन), माया (णूम) और लोभ (मध्यस्थ) का परिहार (विवेकपूर्वक त्याग) करे। 88. भिक्षाशोल साधु सदा पंच समितियों से युक्त (होकर) पाँच संवर (अहिंसादि) से आत्मा को आस्रवों से रोकता (सुरक्षित रखता हुआ) गृहपाश-(गृहस्थ के बन्धन में) बद्ध-श्रित गृहस्थों में न बँधता (मूर्छा न रखता) हुआ मोक्ष प्राप्त होने तक सब ओर से संयम (परिव्रज्या) में उद्यम करे। (श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-) इस प्रकार मैं कहता हूँ। विवेचन-चारित्र शुद्धि के लिए उपदेश-प्रस्तुत त्रिसूत्री में कर्मबन्धनों को तोड़ने के लिए चारित्रशुद्धि का उपदेश दिया गया है / वास्तव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र (चारित्र के अन्तर्गत तप) यह रत्नत्रय मिलकर मोक्षमार्ग कर्मबन्धनों से छुटकारे का एकमात्र साधन है। मोक्षरूप शुद्ध साध्य के लिए पिछली गाथाओं में पर्याप्त चर्चा की गयी है / शुद्ध साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों (रत्नत्रय) की शुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है / इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की शुद्धि के हेतु पिछली अनेक गाथाओं में शास्त्रकार ने सुन्दर ढंग से निर्देश किया है / बाकी रही चारित्र-शुद्धि / अतः पिछली दो अहिंसा निर्देशक गाथाओं के अतिरिक्त अब यहाँ तीन गाथाओं में चारित्र-शुद्धि पर जोर दिया है। हिंसा आदि पाँच आस्रवों से अविरति, प्रमाद, कषाय और मन-वचन-काया-योग का दुरुपयोग, ये सब चारित्र-दोष के कारण हैं, और कर्मबन्धन के भी मुख्य कारण हैं। चारित्रशुद्धि से ही आत्मशुद्धि (निर्जरा या कर्मक्षय, कर्मास्रव-निरोध) होती है / तत्त्वार्थसूत्रकार ने आत्म शुद्धि (निर्जरा) के लिए समिति, गुप्ति, दशविध धर्म, अनुप्रक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप की आराधना-साधना बतायी है। इसी प्रकार चारित्रशुद्धि के परिप्रेक्ष्य में शास्त्रकार ने प्रस्तुत तीन गाथाओं में 10 विवेकसूत्र बताये हैं (1) दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे। (2) आहार आदि में गृद्धि-आसक्ति न रखे। (3) अप्रमत्त होकर अपनी आत्मा का या रत्नत्रय का संरक्षण करे। (4) गमनागमन, आसन, शयन, खान-पान (भाषण एवं परिष्ठापन) में विवेक रखे। (5) पूर्वोक्त तीन स्थानों (समितियों) अथवा इनके मन-वचन-काया गुप्ति रूप तीन स्थान में मुनि सतत संयत रहे। (6) क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चार कषायों का परित्याग करे। (7) सदा पंच समिति से युक्त अथवा सदा समभाव में प्रवृत्त होकर रहे। (8) प्राणातिपातादि-विरमण रूप पंच महाव्रत रूप संवरों से युक्त रहे। (6) भिक्षाशील साधु गार्हस्थ्य बन्धनों से बँधे हुए गृहस्थों से आसक्तिपूर्वक बँधा हुआ न रहे। (10) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में प्रगति करे-डटा रहे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय इस प्रकार चारित्र शुद्धि के लिए साधु को दस विवेकसूत्रों का उपदेश शास्त्रकार ने प्रस्तुत प्रसंग में दिया है।२४ इस दस विवेक सूत्री पर क्रमशः चिन्तन-विश्लेषण करना आवश्यक है 1. समाचारी में विविध प्रकार से रमा रहे-चारित्र शुद्धि के लिए यह प्रथम विवेकसूत्र है। समाचारी साधु संस्था की आचार संहिता है, उस पर साधु की श्रद्धा, आदर एवं निष्ठा होनी आवश्यक है। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने एक शब्द प्रयुक्त किया है-'वुसिए' जिसका शब्दशः अर्थ होता है-विविध प्रकार से बसा हुआ। वृत्तिकार उसका आशय खोलते हुए कहते हैं-अनेक प्रकार से दशविध साधुसमाचारी में स्थित-बसा रहने वाला / क्योंकि यह समाचारी भगवदुपदिष्ट हैं, संसार सागर से तारने वाली एवं साधु के चारित्र को शुद्ध रखती हुई उसे अनुशासन में रखने वाली है। समाचारी के दस प्रकार क्रमशः ये हैं (1) आवस्सिया- उपाश्रय आदि स्थान से बाहर कहीं भी जाना हो तो 'आवस्सही आवस्सही' कहना आवश्यकी है। (2) निसोहिया-वापस लौटकर स्वस्थान (उपाश्रयादि) में प्रवेश करते समय निस्सिहीनिस्सिही कहना नैषिधिको है। (3) आयुच्छणा-- कार्य करते समय ज्येष्ठ दीक्षित से पूछना आपच्छना हैं। (4) पडिपुच्छणा- दूसरों का कार्य करते समय बड़ों से पूछना प्रतिपृच्छना है। (5) छंदणा–पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए गुरु आदि को आमन्त्रित (मनुहार) करना 'छन्दना' है। (6) इच्छाकार--अपने और दूसरे के कार्य की इच्छा बताना या स्वयं दूसरों का कार्य अपनी सहज इच्छा से करना, किन्तु दूसरों से अपना कार्य कराने (कर्तव्यनिर्देश करने) से पहले विनम्र निवेदन करना कि आपकी इच्छा हो तो अमुक कार्य करिए, अथवा दूसरों की इच्छा अनुसार चलना 'इच्छाकार' है / (7) मिच्छाकार-दोष की निवृत्ति के लिए गुरुजन के समक्ष आलोचना करके प्रायश्चित्त लेना अथवा आत्मनिन्दापूर्वक 'मिच्छामि दुक्कड' कहकर उस दोष को मिथ्या (शुद्ध) करना 'मिथ्याकार' है। (8) तहक्कार-गुरुजनों के वचनों को, तहत्ति--आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है / " कहकर यों सम्मानपूर्वक स्वीकार करना तथाकार है। (E) अन्भुट्ठाण--गुरुजनों का सत्कार-सम्मान या बहुमान करने के लिए उद्यत रहना, उनके सत्कार के लिए आसन से उठकर खड़ा होना अभ्युत्थान-समाचारी है। (10) उपसंपया-शास्त्रीय ज्ञान आदि विशिष्ट प्रयोजन के लिए किसी दूसरे आचार्य के पास विनयपूर्वक रहना 'उपसम्पदा' समाचारी है। यों दस प्रकार की समाचारी में हृदय से स्थित रहना, सतत निष्ठावान रहना चारित्रशुद्धि का महत्त्वपूर्ण अंग है / 25 क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 के आधार पर। (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 277 के आधार पर 25 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, तथा उत्तराध्ययनसूत्र अ० 26, गाथा 1 से 4 तक देखें। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 86 से 80 2. आहारावि में गति (आसक्ति) रहित रहे-समस्त प्रपंच-त्यागी साधु जब जिह्वालोलुप अथवा प्रलोभनकारी आहार, वस्त्र या अन्य धर्मोपकरण-सामग्री, अथवा संघ, पंथ, गच्छ, उपाश्रय, शिष्य-शिष्या भक्त-भक्ता आदि की आसक्ति में फंस जाता है तो उसका अपरिग्रह महावत दूषित होने लगता है। वह बाहर से तो साधुवेष एवं साधु समाचारी (क्रिया आदि) से ठीक-ठीक लगता है, पर अन्दर से सजीवनिर्जीव, मनोज्ञ अभीष्ट पदार्थों की ममता, मूर्छा, आसक्ति एवं वासना से उसका चारित्र खोखला होने लगता है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार चारित्र शुद्धि हेतु कहते हैं-विगयगेही / इसका संस्कृत रूपान्तर 'विगतगृद्धिः' के बदले विगतगेही भी हो सकता है, जिसका अर्थ होता है-गृहस्थों से या घर से जिसका ममत्व-सम्बन्ध हट गया है, ऐसा साधु / 26 3. रत्ननयरूप मोक्ष साधन का संरक्षण करे-साधु दीक्षा लेते समय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं पंचमहाव्रतादि रूप सम्यक् चारित्र अंगीकार कर लेता है। इनको प्रतिज्ञा भी कर लेता है, किन्तु बाद में हीनाचार, संसर्ग, शिथिल वातावरण आदि के कारण प्रमादी बन जाता है, वह लापरवाही करने लगता है, बाहर से वेष साधु का होता है, क्रिया भी साधु की करता है, किन्तु प्रमादी होने के कारण सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में दोष लगाकर मलिन करता जाता है। अतः शास्त्रकार चारित्र शुद्धि की दृष्टि से कहते हैं-आयाणं संरक्खए - अर्थात् जिसके द्वारा मोक्ष का आदान--ग्रहण हो, वह आदान या आदानीय ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय है / 27 उस मोक्षमार्ग-कर्मबन्धन से मुक्ति के साधन का सम्यक् प्रकार से रक्षण करना-उसे सुरक्षित रखना चाहिए। रत्नत्रय की उन्नति या वृद्धि हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिए। 4. इर्यादि समितियों का पालन करे--साध को अपनी प्रत्येक प्रवत्ति (गमनागमन, आसन, शयन, भोजन, भाषण, परिष्ठापन, निक्षेपण आदि हर क्रिया) विवेकपूर्वक करनी चाहिए। अगर वह अपनी प्रवृत्ति विवेकपूर्वक नहीं करेगा तो उसकी प्रवृत्ति, हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील, परिग्रह आदि दोषों से दुषित होनी सम्भव है, ऐसी स्थिति में उसका चारित्र विराधित-खण्डित हो जायेगा, उसके महाव्रत दूषित हो जायेंगे। अतः चारित्र शुद्धि की दृष्टि से इर्या समिति; आदाननिक्षेपण समिति एवं एषणा समिति को अप्रमत्ततापूर्वक पालन करने का संकेत है। उपलक्षण से यहाँ भाषासमिति और परिष्ठापना समिति का संकेत भी समझ लेना चाहिए। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-'चरियाऽऽसणसेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो'- अर्थात्-चर्या एवं आसन (चलने-फिरने एवं बैठने आदि) में सम्यक् उपयोग रखे-इर्यासमिति का पालन करे, तथा शय्या (सोने तथा शयनीय बिछौने, पट्ट आदि) का भलीभाँति प्रतिलेखन (अबलोकन) प्रमार्जन करे-आदान निक्षेपणा समिति का पालन करे, एवं निर्दोष आहारपानी ग्रहण-सेक रखे-एषणासमिति का पालन करे / आहारपानी के लिए जब भिक्षाटन करेगा-गृहस्थ के घर में प्रवेश करेगा, तब भाषण-सम्भाषण होना भी सम्भव है, तथा आहार-पानी का सेवन करने पर उच्चार-प्रस्रवण भी अवश्यम्भावी है, इसलिए इन दोनों में विवेक के लिए एषणासमिति के साथ ही भाषा समिति और परिष्ठापन समिति का भी समावेश यहां हो जाता है। 26 विगता अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्याऽसौ विगतमृद्धिः साधुः / 27 'आदीयते"मोक्षो येन तदादानीयं-ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयम् ।"---सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 5. इन तीन स्थानों में मुनि सतत संयत रहे-पूर्व गाथा में क्रियापद नहीं है, इसलिए ८७वीं सूत्र गाथा के पूर्वार्द्ध में शास्त्रकार ने यह पंक्ति प्रस्तुत की है कि एतेहिं तिहिं ठाणेहिं संजते सततं मुणो-अर्थात् -इन (पूर्वोक्त) तीन स्थानों (समितियों) में मुनि सतत सम्यक् प्रकार से यतनाशील रहे। इससे प्रतिक्षण अप्रमत्त होकर रहना भी सूचित कर दिया है / 6. कषाय-चतुष्टय का परित्याग करे-कषाय भी कर्मबन्ध का एक विशिष्ट कारण है। कषाय मुख्यतया चार प्रकार के हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ / साधु जीवन में कोई भी कषाय भड़क उठेगा, या तीव्र हो जायेगा, वह सीधा चारित्र का घात कर देगा। बाहर से उच्च क्रिया पालन करने पर भी साधक में अभिमान, कपट, लोभ (आसक्ति) या क्रोध की मात्रा घटने के बजाय बढ़ती गई तो वह उसके साधुत्व को चौपट कर देगी, साधु धर्म का मूल चारित्र है, वह कषाय विजय न होने से दुषित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-"उक्कसं जलणं णूमं मज्झत्थं च विगिचए'- मान, क्रोध, माया और लोभ का परित्याग करे, इन चारों के लिए क्रमशः इन चार पदों का प्रयोग किया गया है। 7. साधु सदा समित होकर रहे- यद्यपि वृत्तिकार 'समिते सदा साहू' इस विवेकसूत्र का अर्थ करते हैं कि 'साधु पंच समितियों से समित-युक्त हो / 26 ___8. पंच महाव्रत रूप संवर से संवृत्त हो--पाँच महाव्रत कहें या प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच संवर कहें, बात एक ही है। ये पंच संवर कर्मास्त्रव को रोकने वाले हैं, कर्मबन्ध के निरोधक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो साधु-जीवन के ये पंच प्राण हैं। इनके बिना साधु-जीवन निष्प्राण हैं। इसलिए साधु को चाहिए कि चारित्र के मलाधार. इन पाँच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य प्राणप्रण से सुरक्षित (गुप्त) रखें / अन्यथा चारित्रशुद्धि तो दूर रही, चारित्र का ही विनाश हो जायेगा। इसीलिए शास्त्रकार ने विवेकसूत्र बताया "पंचसंवर संवुडे / " ___6. गृहपाश-बद्ध गृहस्थों में आसयत न हो-यह विवेकसूत्र भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थविरकल्पी साधु को आहार, पानी, आवास, प्रवचन आदि को लेकर बार-बार गृहस्थ वर्ग से सम्पर्क आता है। ऐसी स्थिति में उससे सम्बन्ध रखे बिना कोई चारा नहीं, किन्तु साधुगृहस्थों से-गृहस्थ के पत्नी, पुत्र, मातापिता आदि पारिवारिकजनों से सम्पर्क रखते हुए भी उनके मोहरूपी पाश-बन्धनों में न फँसे, वह रागद्वेषादिवश गृहस्थ वर्ग की झूठी निन्दा-प्रशंसा, चाटुकारी आदि न करे, न ही उसके समक्ष दीनता-हीनता 28 (क) सूत्रकृतांग शीलोक वृत्ति पत्रांक 52 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 276 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 52 (ख) देखिये आचारांगसूत्र में 'समित' के तीन अर्थ- (1) समिते एयाणुपस्सी (आचा० 112 / 3 / 76) समिते सम्यग्दृष्टिसम्पन्न, (2) "..."उवसंते समिते सहिते।"-(१।३।२।११६) समिते- सम्यक् प्रवृत्त / “अहियासए सदा समिते""समिते-समभाव में प्रवृत्त युक्त होकर (आचा० 112 / 286) 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 52 (स) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या आ०१ पृ० 276 Jain Egiucation International Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84 से 86 107 प्रकट करे, उससे किसी प्रकार का मोह सम्बन्ध भी न रखे। उससे निलिप्त, अनासक्त, निःस्पृह और निर्मोह रहो का प्रयत्न करे, अन्यथा उसका पंच महाव्रत रूप चारित्र खतरे में पड़ सकता है, आचार शैथिल्य आने की सम्भावना है, वह समाज (गृहस्थ वर्ग) के बीच रहता हुआ भी उसके गार्हस्थ्य प्रपंच (व्यवसाय या वैवाहिक कर्म आदि) से जलकमलवत् निलिप्त रहे। इसीलिए चारित्रशुद्धि हेतु शास्त्रकार कहते हैं'सितेहिं असिते भिक्खू-अर्थात् भिक्षु गृहपाशादि में सित-बद्ध-आसक्त गृहस्थों में असित-अनवबद्ध अर्थात् भूछी न करता हुआ जल-कमलवत् अलिप्त होकर रहे / " 10. मोक्ष होने तक संयम में उद्यम करे-यह अन्तिम और सबसे महत्त्वपूर्ण विवेकसूत्र है / चारित्र पालन के लिए साधु को तन-मन-वचन से होने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति में सावधान रहना आवश्यक है / उसे प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम में दृढ़ रहना है / मुक्त होने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप संयम में सतत उद्यम करते रहना है, उसकी कोई भी प्रवृत्ति कर्मबन्धनयुक्त न हो, प्रत्येक प्रवृत्ति कर्मबन्धन से मुक्ति के लिए हो। प्रवृत्ति करने से पहले उसे उस पर भलीभाँति चिन्तन कर लेना चाहिए कि मेरी इस प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होगा या कर्म-मोक्ष ? अगर किसी प्रवृत्ति के करने से सस्ती प्रतिष्ठा या क्षणिक वाहवाही मिलती हो, अथवा प्रसिद्धि होती हो, किन्तु वह कर्मबन्धनकारक हो तो उससे दूर रहना उचित है। किसी प्रवृत्ति के करने से मोक्षमार्ग का मुख्य अंग-चारित्र या संयम जाता है, नष्ट होता है, तो उसे भी करने का विचार न करे / अथवा इस विवेक सूत्र का यह आशय भी सम्भव है कि मोक्ष होने तक बीच में साधनाकाल में कोई परीषह, उपसर्ग, संकट या विषम परिस्थिति आ जाए, तो भी साधु अपने संयम में गति-प्रगति करे, वह संयम (चारित्र) को छोड़ने का कतई विचार न करे / जैसे सत्त्वशाली प्रवासी पथिक जब तक अपनी इष्ट मंजिल नही पा लेता, तब तक चलना बन्द नहीं करता, या नदी तट का अन्वेषक जब तक नदी तट न पाले, तब तक नौका का परित्याग नहीं करता, इसी तरह जब तक समस्त दुःखों (कर्मों) को दूर करने वाले सर्वोत्तम सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति न हो जाये तव तक मोक्षार्थी को संयम-पालन करना चाहिए / अन्यथा, कर्मबन्धन काटने के लिए किया गया उसका अब तक का सारा पुरुषार्थ निष्फल हो जायेगा। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं—'आमोक्खाए परिव्यएज्जासि / " निष्कर्ष यह है कि समस्त कर्मों के क्षय (मोक्ष) के लिए सतत संयम में पराक्रम करता रहे; ऐसा करना चारित्र शुद्धि के लिए आवश्यक है। 31 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखवोधिनी व्याख्या पु० 280 (ग) सितेहि =सितेषु गृहपाशादिषु सिता:-बद्धा:-आसक्ताः ये ते सिता:-गृहस्थास्तेषु गृहस्थेषु असित:-अनवबव: मूर्छामकुर्वाणः / यथा पंके जायमाने जले च वर्धमानमपि कमल न पंकेन जलेन वा स्पृष्टं भवति, किन्तु निलिप्तमेव तिष्ठति जलोपरि, तथैव तेषु सम्बन्धरहितो भवेत् / " -सुत्रकृतांग समयार्थबोधिनी भा० 110 456 32 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पु० 280 (ख) सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका आ० 110 460-461 (ग) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति; भाषानुवाद सहित भा. 1 पृ 161 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय कठिन शब्दों की व्याख्या-उक्कसं= उत्कर्ष-जिससे मनुष्य उकसा जाए-गर्वित हो जाए वह उत्कर्ष--मान / जलणं जिससे व्यक्ति अन्दर ही अन्दर जलता है, वह जलन यानी क्रोध / णूम-नूय का अर्थ है-जो प्रच्छन्न-अप्रकट-गहन-गूढ़ हों; वह माया / ममत्थं = मध्यस्थ-अर्थात् जो सारे संसार के प्राणियों के मध्य-अन्तर में रहता है, वह मध्यस्थ-लोभ / अथवा मज्झत्थं के बदले 'अज्सत्यं' पाठान्तर मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं- 'अज्झयो णाम अभिप्रेयः, स च लोभः"-अध्यस्थ यानी अभिप्रेत (अभीष्ट) और वह है लोभ / चतुर्थ उद्दशक समाप्त सूत्रकृतांग सूत्र प्रथम अध्ययन : समय-समाप्त 33 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 15 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैतालीय-द्वितीय अध्ययन प्राथमिक - सूत्रकृतांगसूत्र (प्र. श्रु०) के द्वितीय अध्ययन का नाम 'वैतालीय' है। 0 प्राकृत में इसका नाम वेयालीय है, संस्कृत में उसके दो रूप होते हैं--वैतालीय और वेदारिक, जिन्हें नियुक्तिकार, चूर्णिकार और वृत्तिकार तीनों स्वीकार करते हैं। " कर्मों के या कर्मों के बीज-रागद्वष-मोह के संस्कारों के विदार (विदारण-विनाश) का उपदेश होने से इस अध्ययन को वैदारिक कहा गया है। इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'वेयालियभग्गमागओ' का अर्थ चूणि और वत्ति में 'कर्म-विदारण, का अथवा कर्म-विदारक भगवान महावीर का मार्ग' किया गया है। - इस अध्ययन की रचना वैतालीय वृत्त (छन्द) में की गई है, इस कारण भी इस अध्ययन का नाम 'वैतालीय' है।' 11 मोहरूपी वैताल (पिशाच) साधक को सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक, आदि रूप में कैसे-कैसे पराजित कर देता है ? उससे कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे बचना चाहिए ?, इस प्रकार मोह वैताल-सम्बन्धी वर्णन होने के कारण इसका नाम वैतालीय या वैतालिक सार्थक है / 1 (क) वेयालियं इह देसियंति, क्यालियं तओ होइ / वेयालियं तहा वित्तमत्थि, तेणेव य णिबद्ध' / / -सूत्रकृ० नियुक्ति माथा 38 (ख) वैयालियमग्गमागओ-कर्मणां विदारणमार्गमामतो भूत्वा......"। -सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति पत्र 56 (ग) “विदार का अर्थ है-विनाश / यहाँ रागद्वेष रूप संस्कारों का विनाश विवक्षित है। जिस अध्ययन में रागद्वेष के विदार का वर्णन हो, उसका नाम है वैदारिक / " -जनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 140 (घ) “वैतालीयं लगनैर्धनाः षड्युक्पादेऽष्टो समे च लः / / न समोऽत्र परेण युज्यते, नेतः षट् च निरन्तरा युजोः / / " -जिस वृत्त (छन्द) के प्रत्येक पाद के अन्त में रगण, लघु और गुरु हों, तथा प्रथम और तृतीय पाद में 6-6 मात्राएं हों, एवं द्वितीय और चतुर्थ पाद में 8.8 मात्राएँ हों, तथा समसंख्या वाला लघु परवर्ग से गुरु न किया जाता हो, एवं दूसरे व चौथे चरण में लगातार छह लघु न हों, उसे वैतालीय छन्द कहते हैं। -सूत्र शी० वृत्ति पत्रांक 53 2 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 282 के आधार पर (ख) जैन-आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पृ० 81 के आधार पर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 सूत्रकृतांग--द्वितीय अध्ययन-वैतालीय - अष्टापद पर्वत पर विराजमान भगवान ऋषभदेव ने मार्गदर्शन के लिए अपने समीप समागत 68 पुत्रों को जो प्रतिबोध दिया था, जिसे सुनकर उनका मोहभंग हो गया, वे प्रतिबुद्ध होकर प्रभु के पास प्रव्रजित हो गए, वह प्रतिबोध इस अध्ययन में संगृहीत है, ऐसा नियुक्तिकार का कथन है। यहाँ द्रव्य विदारण का नहीं, भाव विदारण का प्रसंग है। दर्शन, ज्ञान, तप, संयम आदि भाव विदारण हैं, कर्मों को या राग-द्वष-मोह को विदारण (नष्ट) करने का सामर्थ्य इन्हीं में है। भाव विदारण के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत अध्ययन के तीन उद्देशकों में वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन वैशालिक ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् द्वारा किया गया है, जिसका उल्लेख अध्ययन के अन्त 13 प्रथम उद्देशक में सम्बोध (हित-प्राप्ति और अहित-त्याग के सम्यक् बोध) और संसार की अनि त्यता का उपदेश है। " द्वितीय उद्देशक में मद, निन्दा, आसक्ति आदि के त्याग का तथा समता आदि मुनिधर्म का उपदेश है। - तृतीय उद्देशक में अज्ञान-जनित कर्मों के क्षय का उपाय, तथा सुखशीलता, काम-भोग, प्रमाद आदि के त्याग का वर्णन है। // प्रथम उद्देशक में 22, द्वितीय उद्देशक में 32 और तृतीय उद्देशक में 22 गाथाएँ हैं। इस प्रकार इस वैतालीय या वैदारिक अध्ययन में कुल 76 गाथाएँ हैं, जिनमें मोह, असंयम, अज्ञान, राग द्वेष आदि के संस्कारों को नष्ट करने का वर्णन है। - सूत्र गाथा संख्या 86 से प्रारम्भ होकर सूत्रगाथा 164 पर द्वितीय अध्ययन समाप्त होता है। 3 (क) कामं तु सासणमिणं कहियं अट्ठावयंमि उसभेणं / अट्ठाणंउति सुयाणं सोऊण ते वि पब्वइया / / -सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 36 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 53 "भावविदारणं तु दर्शन-ज्ञान-तपः संयमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्य मित्युक्त भवति / विदारणीयं... पुनरष्टप्रकारं कर्मेति..." सूत्र० शी० वृत्ति, पत्रांक 53 5 "वेसालिए वियाहिए।" ---सूत्र शी० वृत्ति भाषानुवादसहिन भा० 1 पृ० 300 6 (क) पढमे संबोहो अणिच्चया य, बीयंमि माणवज्जणया। अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ // 40 // उद्दे संमि य तइए अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ / वज्जेयव्यो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं // 41 / / --सूत्र कृ. नियुक्ति (स) जैन-अगम-साहित्यः मनन और मीमांसा पृ० 81 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइयं अज्झयणं 'वेयालियं' पढमो उद्देसओ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक भगवान् ऋषभदेव द्वारा अठानवें पुत्रों को सम्बोध - 86. संबुज्झह किं न बुज्सह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हूवणमंति रातिओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं // 1 // 60. डहरा वुड्ढा य पासहा, गब्भत्था वि चयंति माणवा / सेणे जह बट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टती // 2 // 61. माताहि पिताहि लुप्पति, जो सुलभा सुगई वि पेच्चओ। एयाइं भयाई पेहिया, आरंभा विरमेज्ज सुव्वते // 3 // 62. जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहती, णो तस्सा मुच्चे अपुट्ठवं // 4 // 86. (हे भव्यो !) तुम बोध प्राप्त करो। बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? (मरने के पश्चात) परलोक में सम्बोधि प्राप्त करना अवश्य ही दुर्लभ है / बीती हुई रातें लौटकर नहीं आती, और संयमी जीवन फिर (पुनः पुनः) सुलभ नहीं है। 60. छोटे बच्चे, बूढ़े और गर्भस्थ शिशु भी अपने जीवन (प्राणों) को छोड़ देते हैं, मनुष्यों ! यह देखो ! जैसे बाज बटेर पक्षी को (झपट कर) मार डालता है। इसी तरह आयुष्य क्षय (नष्ट) होते ही (मृत्यु भी प्राणियों के प्राण हर लेती है, अथवा) जीवों का जीवन भी टूट (नष्ट हो) जाता है। 11. कोई व्यक्ति माता-पिता आदि (के मोह में पड़कर, उन्हीं) के द्वारा मार्ग भ्रष्ट कर दिया जाता है, या वे संसार-परिभ्रमण कराते हैं। उन्हें मरने पर (परलोक में) सुगति (मनुष्यगति या देवगति) सुलभ नहीं होती—आसानी से प्राप्त नहीं होती। इन भयस्थलों (खतरों) को देख जानकर व्यक्ति सुव्रती (व्रतधारी) बनकर आरम्भ (हिंसादि जनित भयंकर पापकर्म) से विरत-निवृत्त हो जाय। 2. क्योंकि (मोहान्ध होकर सावध कार्यों से अविरत) प्राणी इस संसार में अलग-अलग अपने-अपने (स्वयं) किये हुए कर्मों के कारण दुःख पाते हैं, तथा (स्वकृत कर्मों के ही फलस्वरूप) नरकादि यातना स्थानों में जाते हैं / अपने कर्मों का स्वयं फलस्पर्श किये (फल भोगे) बिना (उनसे) वे छट (मुक्त) नहीं (हो) सकते। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालिय विवेचन–सम्बोधि प्राप्ति का उपदेश–इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने जब अपने 18 लधु भ्राताओं को अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेजा, तब वे मार्गदर्शन के लिए प्रथम तीर्थंकर पितामह भगवान ऋषभदेव की सेवा में पहुंचे और हम क्या करें ?' का समाधान पूछा / तब आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव अपने गृहस्थपक्षीय पुत्रों को लक्ष्य करके विभिन्न पहलुओं से त्याग, वैराग्य का बोध प्राप्त करने का उपदेश देते हैं, जो इस उद्देशक में संकलित है / प्रस्तुत चतुःसूत्री में वे चार तथ्यों का बोध देते हैं (1) यहीं और अभी जीते जी बोध प्राप्त कर लो, परभव में पुनः बोध-प्राप्ति सुलभ नहीं, (6) मृत्यु सभी प्राणियों की निश्चित है, (3) माता-पिता आदि का मोह सुगति से वंचित कर देगा, (4) मोहान्ध जीव अपने दुष्कृत कर्मों के फलस्वरूप स्वयं दुःखित एवं दुर्गतियों में पीड़ित होते हैं। सम्बोध क्या और वह दुर्लम क्यों--प्रथम गाथा (सूत्र 86) में यथाशीघ्र सम्बोध प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी है वह सम्बोध क्या है ? वृत्तिकार कहते हैं-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र, इस रत्नत्रय रूप उत्तम धर्म का बोध ही सम्बोध है। पहले तो मनुष्य जन्म प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य जन्म को प्राप्ति के साथ आर्य देश, कर्म भूमि, उत्तम कुल, कार्यक्षम पांचों इन्द्रियाँ, स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, नीरोगता तथा उत्तम सद्धर्म की प्राप्ति आदि अनेक दुर्लभ घाटियाँ पार करने के बाद भी मनुष्य प्रमाद में पड़ जाये तो सद्धर्म श्रवण और उस पर श्रद्धा करना अत्यन्त कठिन है / जब तक व्यक्ति सद्धर्म का श्रवण और उस पर श्रद्धा न कर ले, तब तक सम्बोध प्राप्ति भी दूर है, ऐसा समझकर ही सम्बोध दुर्लभतम बताया है। सद्धर्म-श्रवण से पहले ही दुर्लभ वस्तुएं प्राप्त होने पर अधिकांश लोग सोचने लगते हैं कि परलोक में बोध प्राप्त कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है ? उसका निराकरण करते हुए कहा गया है'नो सुलहं पुणरावि जीवियं' अर्थात् यह मनुष्य जीवन अथवा संयमी जीवन पुनः मिलना सुलभ नहीं है। दो कारण से मनुष्य वर्तमान में प्राप्त उत्तम अवसर को आगे पर टालता है-(१) देवलोक या पुनः मनुष्य लोक मिलने की आशा से, अथवा (2) इस जन्म में भी वृद्धावस्था आने पर या भोगों से तृप्त हो जाने पर, परन्तु शास्त्रकार स्पष्ट कह देते हैं कि यह निश्चित नहीं है कि तुम्हें मरने के बाद देवलोक मिलेगा ही ! तिर्यञ्चगति या नरकगति मिल गई तो वहाँ सम्बोध पाना प्रायः असम्भव-सा है / देवगति मिल गई तो भी वहाँ सम्यग्दर्शन बोध उसी को प्राप्त होता है, जो मनुष्य-जन्म में उत्तम धर्मकरणी करते हैं, और बड़ी कठिनता से अगर वहाँ सम्बोध मिल भी गया तो भी देवता धर्माचरण या संयमी जीवन स्वीकार नहीं कर सकते, उसे मनुष्य ही कर सकते हैं। मनुष्य जन्म भी तभी मिलता है, जबकि प्रकृति भद्रता, विनीतता, सहृदयता एवं दया भाव हो / मान लो, मनुष्य जन्म मिल भी गया तो भी पूर्वोक्त विकट घाटियाँ पार होनी अत्यन्त कठिन है, फिर यदि मनुष्य जन्म को भी विषय-भोगों में फंसकर खो दिया अथवा बुढ़ापा आदि आने पर धर्म-बोध पाने की आशा से कुछ किया नहीं, यों ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे--क्या पता है, बुढ़ापा आयेगा या नहीं ? मान लो, बुढ़ापा भी आ गया, तो भी उस समय मनोवृत्ति कैसी होगी? धर्म-श्रवण की जिज्ञासा होगी या नहीं? सद्धर्म पर श्रद्धा होगी या नहीं? Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक / गाथा 86 से 12 113 किसे पता है ? और फिर बुढ़ापे में जब इन्द्रियां क्षीण हो जायेगी, शरीर जर्जर हो जायेगा धर्माचरण या संयम पालन करने की शक्ति नहीं रह जायेगी। इसलिए शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि संयमयुक्त मानव जीवन पुनः प्राप्त होना दुर्लभ है / णो हूवणमंति राइओ' इस दोध वाक्य का भी आशय यही है कि बीता हुआ समय या अवसर लौटकर नहीं आता। इसलिए इस जन्म में भी जो क्षण बीत गया है, वह वापस लौटकर नहीं आयेगा, और न यह भरोसा है कि इस क्षण के बाद अगले क्षण तुम्हारा जीवन रहेगा या नहीं ? जीवन के इस परम सत्य को प्रकट करते हुए कहा गया है.-"संबुज्मह, किं न बज्मह ?" इसका आशय यही है कि इसी जन्म में और अभी बोध प्राप्त कर लो / जब इतने सब अनुकूल संयोग प्राप्त है तो तुम बोध क्यों नहीं प्राप्त कर लेते ? भगवान् ऋषभदेव का यह वैराग्यप्रद उपदेश समस्त भव्य मानवों के राग-द्वष-मोह-विदारण करने एवं बोध प्राप्त करने में महान् उपयोगी है। केनोपनिषद् में भी इसी प्रकार की प्रेरणा है"यहां जो कुछ (आत्मज्ञान) प्राप्त कर लिया, वही सत्य है, अगर यहां उसे (आत्मादि तत्त्व को) नहीं जाना तो (आगे) महान् विनाश है।' द्रव्य सम्बोध की अपेक्षा भाव सम्बोध दुलमतर-द्रव्यनिद्रा से जागना द्रव्य सम्बोध है, और भावनिद्रा (ज्ञान-दर्शन-चारित्र की शून्यता या प्रमाद) से जागना भाव सम्बोध है, जिसे प्राप्त करने की ओर शास्त्रकार का इंगित है; क्योंकि द्रव्य सम्बोध की अपेक्षा भाव सम्बोध दुर्लभ है। यहाँ नियुक्तिकार ने द्रव्य और भाव से जागरण और शयन को लेकर चतुभंगी सूचित की है--(१) एक साधक द्रव्य से सोता है, भाव से जागता है, (2) दूसरा द्रव्य से जागता है, भाव से सोता है, (3) तीसरा साधक द्रव्य से भी सोता है, भाव से भी, और (4) चौथा साधक द्रव्य और भाव दोनों से जागता है। यह चतुर्थभंग है और यही सर्वोत्तम है। इसके बाद प्रथम भंग ठीक है। शेष दोनों भंग निकृष्ट है।' मृत्य किसी को, किसी अवस्था में नहीं छोड़ती-वीतराग केवली चरमशरीरी या तीर्थंकर आदि इने-गिने महापुरुषों के सिवाय मृत्यु पर किसी ने भी विजय प्राप्त नहीं की। आयुष्य की डोरी टूटते ही मृत्यु निश्चित है। जैसे-बाज बटेर पर झपटकर उसका जीवन नष्ट कर देता है, वैसे ही मृत्यु आयुष्य क्षय होते ही मनुष्य जीवन पर टूट पड़ती है / इसी आशय से दूसरी गाथा में कहा गया है-डहरा बुढाय ........."आउक्खयाम्म तुट्टइ।' मनुष्य जन्म प्राप्त हो जाने पर भी मृत्यु निश्चित है, वह कब आकर गला दबोच देगी, यह निश्चित नहीं है, इसलिए सम्बोध प्राप्त करने तथा धर्माराधना करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए, यह आशय इस गाथा में गभित है। -केनोपनिषद् 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० 54 के आधार पर (ख) इहवेदवेदीदय सत्यमस्ति, न चेदवेदीन्महती विनष्टि: 2 (क) दव्वं निदाओ दसणणाणतवसंजमा भावे / ____अहिगारी पुण भणिो , णाणे तव-दंसण-चरित्त / (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति भाषानुवाद भाग 1, पृ० 166 -सूत्रकृतांग नियुक्त माथा० 42 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-बैतालीय __ माता-पिता आदि का मोह दुर्गति से नहीं बचा पाता–कई लोग यह सोच लेते हैं कि माता-पिता के कारण हम तर जायेंगे। इस भ्रान्ति का निराकरण करते हुये ततीय गाथा (61) में कहा गया है'मायाहिं पियाहिं लुप्पई।' एआई भयाई पेहिया........"सुख्खए इस पंक्ति का आशय यह है कि माता-पिता आदि स्वजनों के मोह से विवेक विकल होकर उनके निमित्त से नाना पापकर्म करने से दुर्गतिगमनादि जो खतरे पैदा होते हैं, उन्हें जान-देखकर (कम-से-कम) व्रतधारी-श्रावक बनकर उक्त निरर्थक आरम्भादि सावद्य (पाप) कार्यों से रुके-बचे। यहां माता-पिता आदि की गृहस्थ श्रावक-धर्मोचित सेवा आज्ञापालन आदि कर्तव्य-पालन का निषेध नहीं किया है, किन्तु उनके प्रति मोहान्ध होकर श्रावक धर्म विरुद्ध अन्ध परम्परागत हिंसाजनक कुप्रथाओं का पालन करने तथा पशुबलि, मदिरापानादि दुर्व्यसन, हिंसा, झूठ, चोरी, लूटपाट, डकैती, गिरहकटो आदि भयंकर पापकर्म से बचने की प्रेरणा दी गई है। स्वकृत कर्मों का फलमोग स्वयं को ही करना होगा-पूर्वगाथा के सन्दर्भ में "माता-पिता आदि पारिवारिकजनों के लिए किये गये पापकर्म का फल स्वयं (पुत्र) को नहीं भोगना पड़ेगा", इस भ्रान्ति के शिकार व्यक्तियों को लक्ष्य में रखकर चतुर्थ गाथा (सू० 62) में कहा गया है- ''जमिणं जमती मुच्चे अपुट्ठवं :" इसका आशय यह है कि जगत् में समस्त प्राणियों के कर्म पृथक्-पृथक् हैं, उन स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप व्यक्ति स्वयं ही यातना स्थानों में (फल भोगने के लिए) जाता है। कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नहीं हो सकता। इस गाथा में तीन रहस्यार्थ छिपे हैं-(१) पुत्रादि के बदले में माता-पिता आदि उन पुत्रादि-कृतकर्मों का फल नहीं भोगेंगे, (2) सबके कर्म सम्मिलित नहीं है कि एक के बदले दूसरा उस कर्म का फल भोग ले, इसलिए व्यक्ति को स्वयं ही स्वकृत कर्मफल भोगना पड़ेगा। (3) कर्मफल से छुटकारा न तो माता-पिता आदि स्वजन दिला सकेंगे, न देवता, ईश्वर या कोई विशिष्ट शक्तिशाली व्यक्ति ही दिला सकेंगे, स्वकृत कर्म से छुटकारा व्यक्ति स्वयं ही कर्मोदय के समय समभाव से भोगकर पा सकेगा। अथवा अहिंसा, संयम (महाव्रत ग्रहण) एवं विशिष्ट तपस्या से उन कर्मों की निर्जरा किए बिना उन (कर्मों) से छुटकारा नहीं हो सकेगा। कठिन शब्दों की व्याख्या---पेच्च-परलोक में जाने पर / णो हूवणमति रातिओ==निःसन्देह रात्रियाँ (व्यतीत समय) वापस नहीं लौटती, उहरा=छोटे बच्चे। चयंति=जीवन या प्राणों को छोड़ देते हैं / सेणे= श्येनबाज / वट्टयं वर्तकबतक या बटेर पक्षी / हरे=मार डालता है। माताहि पिताहि लुप्पति, णो सुलमा सुगई वि पेच्चओकोई व्यक्ति माताओं (माता, दादी, नानी, चाची, ताई, मौसी, मामी आदि) तथा पिताओं (पिता, दादा, ताऊ, चाचा, नाना, बाबा, मौसा, मामा आदि) के मोह में पड़कर धर्म आचरण से विरत हो जाता है, उसे उन्हीं के द्वारा संसार भ्रमण कराया जाता है। परलोक में उसके लिए सुगति 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० 55 के आधार पर (ख) स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् / परेण दत्त' यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 13 से 14 भी सुलभ नहीं है। किसी प्रति में मायाह पियाइ लुप्पति "पाठान्तर है, अर्थ होता है-माता के द्वारा, या पिता के द्वारा धर्ममार्ग से भ्रष्ट कर दिया जाता है। चूर्णिकार ने नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर सूचित किया है- "मातापितरो य भातरो विलभेज्ज सुकेण पाए / " पुत्रादि के बदले माता, पिता, पितामहादि या भाई आदि भी मरने के बाद परलोक में कैसे उनके कर्मफल प्राप्त कर सकते हैं ? या पुत्रादि को मातापिता आदि परलोक में कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? पेहिया-देखकर, चूणि में पाठान्तर है-देहिया / अर्थ समान है। सुन्वते सुव्रत-श्रेष्ठ ब्रतधारी बनकर। वृत्तिकार इसके बदले 'सुट्टिते' पाठान्तर सूचित करके व्याख्या करते हैं -भली भांति धर्म में स्थित स्थिर होकर / जमिणं क्योंकि जो पुरुष सावद्य-अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं होते, उनको यह दशा होती है। पुढो पृथक्-पृथक् / जगा पाणिणो= जीवधारी प्राणी / लुप्पंति विलुप्त-दुःखित होते हैं / गाहती=नरकादि यातना स्थानों में अवगाहन करते है-भटकते हैं / अथवा उन दुःख हेतुक कर्मों का गाहन-वर्धन (वृद्धि) करते हैं। 'जो तस्सा मुच्चे अपुट्ठवं' = अशुभाचरण जन्य पापकर्मों के विपाक से अस्पृष्ट-अछुए रहकर (भोगे बिना) वे मुक्त नहीं हो सकते।' अनित्यभाव-दर्शन 63 देवा गंधस्व-रक्खसा, असुरा भूमिचरा सिरीसिवा।। ___राया नर-सेटि-माहणा, ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया // 5 // 14 कामेहि य संथवेहि य, गिद्धा कम्मसहा कालेज जंतवो। ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउखयम्मि तुट्टती॥६॥ 63. देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर (भूमि पर चलने वाले), सरीसृप (सरक कर चलने वाले सांप आदि तिर्यंच), राजा, मनुष्य, नगरसेठ या नगर का श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण, ये सभी दुःखित हो कर (अपने-अपने) स्थानों को छोड़ते हैं। ' 64. काम-भोगों (की तष्णा) में और (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि)परिचितजनों में गृद्ध-आसक्त प्राणी (कर्मविपाक के समय) अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयुष्य के क्षय होने पर ऐसे टूटते (मर जाते) हैं, जैसे बन्ध से छुटा हुआ तालफल (ताड़ का फल) नीचे गिर जाता है। विवेचन-सभी प्राणियों के जीवन की अस्थिरता एवं अनित्यता-प्रस्तुत दो गाथाओं में दो पहलुओं से जीवन की समाप्ति बताई है-(१) चारों ही गति के जीवों के स्थान अनित्य हैं, (2) आसक्त प्राणी आयुष्य क्षय होते ही समाप्त हो जाते हैं। सभी स्थान अनित्य हैं--संसार में कोई भी गति, योनि पद, शारीरिक स्थिति या आर्थिक स्थिति आदि स्थायी नहीं है, चाहे वह देवगति का किसी भी कोटि का देव हो, चाहे मनुष्य गति का किसी भी श्रेणी का मानव हो, चाहे तिर्यञ्चगति का किसी भी जाति का विशालकाय जन्तु हो, अथवा और कोई हो, सभी को मृत्यु आते ही, अथवा अशुभ कर्मों का उदय होते ही अपनी पूर्व स्थिति विवश व दुःखित होकर छोड़नी पड़ती है, इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-देवा गंधव 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 54 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 16 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय रक्खसा"चयंति दुविखया / आशय यह है-मनुष्य भ्रान्तिवश यह सोच लेता है कि मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य ही बनता है, अत: मुझे फिर यही गति मिलेगी, अथवा मैं राजा, नगरसेठ या ब्राह्मण आदि पद पर वर्ण-जाति में सदैव स्थायी रहूँगा, या मेरी वर्तमान सुखी स्थिति, यह परिवार, धन, धाम आदि सदैव ऐसे ही बने रहेंगे, परन्तु मृत्यु आती है, या पापकर्म उदय में आते हैं, तब सारी आशाओं पर पानी फिर जाता है, सभी स्थान उलट-पलट जाते हैं। व्यक्ति अपने पूर्व स्थानों या स्थितियों के मोह में मूढ़ होकर उनसे चिपका रहता है, परन्तु जब उस स्थिति को छोड़ने का अवसर आता है, तो भारी मन से विलाप-पश्चात्ताप करता हुआ दुःखित होकर छोड़ता है, क्योंकि उसे उस समय बहुत बड़ा धक्का लगता है। देवता को अमर (न मरने वाला) बताया गया है; इस भ्रान्ति के निवारणाथ इस गाथा में देव, गन्धर्व, राक्षस एवं असुर आदि प्रायः सभी प्रकार के देवों की स्थिति भी अनित्य, विनाशी एवं परिवर्तनशील बताई है / गीता में भी देवों की स्थिति अनित्य बताई गई है। __ शास्त्रकार का यह आशय गभित है कि सुज्ञ मानव अपनी गति, जाति, शरीर, धन, धाम, परिवार, पद आदि समस्त स्थानों को अनित्य एवं त्याज्य समझ कर इनके प्रति मोह ममता स्वयं छोड़ दे, ताकि इन्हें छोड़ते समय दुःखी न होना पड़े। वास्तव में देवों को अमर कहने का आशय केवल यही है कि वे अकालमृत्यु से नहीं मरते। विषय-मोगों एवं परिचितों में आसक्त जीवों को क्शा भी वही-इस द्वितीय गाथा में भी उसी अस्थिरता की झांकी देकर मनुष्य की इस म्रान्ति को तोड़ने का प्रयास किया गया है कि वह यह न समझ ले कि पंचेन्द्रिय विषय-भोगों का अधिकाधिक सेवन करने से तृप्ति हो जाएगी और ये विषय-भोग मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे, तथा माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि सजीव तथा धन, धाम, भूमि आदि निर्जीव परिचित पदार्थ सदा ही मेरे साथ रहेंगे, ये मुझे मौत से या दुःख से बचा लेंगे। जब अशुभ कर्म उदय में आएँगे और आयुष्य क्षय हो जाएगा, तब न तो ये विषय-भोग साथ रहेंगे और न ही परिचित पदार्थ / इन सभी को छोड़कर जाना पडेगा, अथवा पापकर्मोदयवश भयंकर दःख के गले में गिरना। के गतं में गिरना पड़ेगा। फिर व्यर्थ ही काम-भोगों पर या परिचित पदार्थों पर आसक्ति करके क्यों पाप कर्म का बन्ध करते हो, जिससे फल भोगते समय दुःखित होना पड़े ? 'कामेहि संथवेहि "ट्टतो' गाथा का यही आशय है। कठिन शब्दों की व्याख्या-राया चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, सम्राट्, राणा, राव राजा, ठाकुर जागीरदार आदि सभी प्रकार के शासक / कामेहि इच्छाकाम (विषयेच्छा) और मदनकाम (कामभोग) 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 55 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या के आधार पर पृ० 263 6 (क) ....... स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते........।" -कठोपनिषद् अ० 1: वल्ली 3, लो०१२-१३ (ख) "ते तं भुक्त्या स्वर्गलोक विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।"-भगवद्गीता अ०९/२१ (ग) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 263 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 प्रथम उद्देशक / गापा 65 से 16 में / संथवे हिय और माता-पिता, स्त्री पुत्र आदि सजीव एवं धन, धाम, जमीन-जायदाद आदि निर्जीव परिचित पदार्थों में / फम्मसहा-वृत्तिकार के अनुसार-कर्मविपाक (कर्मफल) को सहते भोगते हुए। चूणिकार-'कम्मसहे' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं --कामेभ्यः संस्तवेभ्यश्च कम्मसहित्ति-कर्मभिः सह त्रुट्यतीति / ' कर्मों के साथ ही आयु कर्मों के क्षय होने के साथ ही उन काम-भोगों एवं परिचित पदार्थों से सम्बन्ध टूट जाता है। अर्थात्-तुती-जीवन रहित हो जाते हैं। ठाणा ते वि चयंति दुखियाये सभी अपने स्थानों को दुःखित होकर छोड़ते हैं। कर्म-विपाक-दर्शन 65 जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया। अभिनूमकडेहि मुच्छिए, तिब्बं से कम्मेहि किच्चती / / 7 / / 96 अह पास विवेगमुट्ठिए, अवितिण्णे इह भासती धुवं / पाहिसि आरं कतो परं, वेहासे कम्मेहि किच्चती // 8 // 15. यदि कोई बहुश्रुत-अनेक शास्त्र पारंगत हो, चाहे धार्मिक-धर्मक्रियाशील हो, ब्राह्मण (माहन) हो या भिक्षु (भिक्षाजीवी) हो, यदि वह मायामय-प्रच्छन्न दाम्भिक कृत्यों में आसक्त (मूच्छित) हैं तो वह कर्मों द्वारा अत्यन्त तीव्रता से पीड़ित किया जाता है / ___66. अब तुम देखो कि जो (अन्यतीर्थी साधक) (परिग्रह का) त्याग अथवा (संसार की अनित्यता का) विवेक (ज्ञान) करके प्रवज्या ग्रहण करने को उद्यत होता है, परन्तु वह संसार-सागर से पार नहीं हो पाता, वह यहाँ या धार्मिक जगत् में ध्रुव-मोक्ष के सम्बन्ध में भाषण मात्र करता है। (हे शिष्य !) तुम (भी उन मोक्षवादी अन्यतीथियों का आश्रय लेकर) इस लोक तथा परलोक को कैसे जान सकते हो? वे (अन्यतीर्थी उभय भ्रष्ट होकर) मध्य में ही कर्मों के द्वारा पीड़ित किये जाते हैं। विवेचन-वाम्भिक एवं भाषणशूर साधक: कर्मों से पीड़ित-प्रस्तुत गाथा द्वय में उन साधकों से सावधान रहने का संकेत किया गया है, जो मायायुक्त कृत्यों में आसक्त हैं, अथवा जो मोक्ष के विषय में केवल भाषण करते हैं, क्योंकि ये दोनों राग-द्वेष (माया-मान-कषाय) के वश होकर ऐसा करते हैं, और रागद्वेष कर्मबन्ध के बीज है, अतः वे नाना कर्मबन्ध करके कर्मोदय के समय दुःखित-पीड़ित होते हैं। इसलिए दोनों गाथाओं के अन्त में कहा गया है""कम्मेहि किच्चति / प्रथम प्रकार के अन्यतीर्थी साधक (बहुश्रुत, धार्मिक, ब्राह्मण या भिश्रु) अथवा अन्य साधक गृहत्यागी एवं प्रवजित होते हुए भी सस्ते, सुलभ मोक्ष पथ का सब्जबाग दिखाते हैं, किन्तु वे स्वयं मोक्षपथ से काफी दूर हैं, मोक्ष तो क्या, लोक-परलोक का भी पुण्य-पाप आदि का भी उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है, न ही अन्तर में मोक्ष मार्ग पर श्रद्धा है, और न रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलते हैं, तब भला वे 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 54-55 (ख) सूत्रकृतांग पूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ 17 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय कैसे संसार सागर को पार कर सकते हैं ? सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय ही तो मोक्षपथ है, जिसका उन्हें सम्यग्ज्ञान-बोध नहीं है। निष्कर्ष यह है कि मायाचार युक्त अनुष्ठानों में अधिकाधिक आसक्ति अथवा मोक्ष का भाषण मात्र करने वाले कोई भी साधक प्रवजित या धार्मिक होकर कर्मक्षय करने के बदले घोर कर्मबन्धन कर लेते हैं, जो कर्मोदय के समय उन्हें अत्यन्त पीड़ा देते हैं / कदाचित् हठपूर्वक अज्ञानतप, कठोर क्रियाकाण्ड या अहिंसादि के आचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख या इहलौकिक विषय-सुख मिल भी जाएँ, तो भी वे सातावेदनीय कर्मफल भोग के समय अतीव गृद्ध होकर धर्म मार्ग से विमुख हो जायेंगे। फलतः वे सातावेदनीय कर्म भी उनके लिए भावी पोड़ा के कारण बन जायेंगे। णाहिसि आरं कतो परं--यह वाक्य शिष्यों को पूर्वोक्त दोनों कोटि के अन्यतीर्थी साधकों से सावधान रहने के लिए प्रयुक्त है / इसका आशय यह है कि शिष्यों! यदि तुम मोक्ष और लोक से अनभिज्ञ कोरे भाषणभट्टों का आश्रय लेकर उनके पक्ष को अपनाओगे तो कैसे संसार और मोक्ष को जान सकोगे ? कठिन शब्दों की व्याख्या-अभिणूमकडेहि मुच्छिए=अभिमुख रूप से (चलाकर) 'णूम' यानि मायाचार कृत असदनुष्ठानों में मूच्छित गृद्ध / कम्मेहि किच्चति-वे (पूर्वोक्त साधक) कर्मों से छेदे जाते हैंपीड़ित किये जाते हैं। विवेगं विवेक के दो अर्थ हैं-परित्याग और परिज्ञान / यहाँ कुछ अनुरूप प्रासंगिक शब्दों का अध्याहार करके इसकी व्याख्या की गयी है-परिग्रह का त्याग करके" या संसार की अनित्यता जानकर / अवितिण्णे-संसार सागर को पार नहीं कर पाते / ध्रुव-शाश्वत होने से ध्रव यहाँ मोक्ष अर्थ में हैं / अतः ध्रुव का अर्थ है मोक्ष या उसका उपायरूप संयम / 12 / / गाहिसि आरं कतो परं=वृत्तिकार के अनुसार उन अन्यतोथिकों के पूर्वोक्त मार्ग का आश्रय करके आरं-इस लोक को तथा परं-परलोक को कैसे जान सकेगा? अथवा आरं यानी गृहस्थ धर्म और परं (पारं) अर्थात् प्रव्रज्या के पर्याय कोअथवा आरं यानी संसार को और परं यानी मोक्षको....१३ चूर्णिकार इसके बदले 'गणेहिसि आरं परं वा' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं- 'णणेहिसित्तिन नयिष्यसि मोक्षम् आत्मानं परं वा। तत्रात्मा आरं, परं पर एव।" अर्थात् उन अन्यतैर्थिकों के मत का आश्रय लेने पर आरं यानी आत्मा स्वयं और परं यानी पर-दूसरे को मोक्ष नहीं ले जा सकोगे। बेहासे =अन्तराल (मध्य) में ही, इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट: होकर मझधार में ही। u. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० 56 के आधार पर आभिमुख्येन मंति कर्ममाया वा तत्कृतरसदनुष्ठानः मूच्छिता गृद्धाः / विवेक परित्यागं परिग्रहस्य, परिज्ञान वा संसारस्य / ध्र वो मोक्षस्तं, तदुपायं वा संयमं"। कथं ज्ञास्यस्यारं इहमवं कुतो वा परं परलोक; यदि वा आरमिति गृहस्थत्वं, परमिति प्रब्रज्यापर्यायम्, अथवा आरमिति संसार, परमिति मोक्षम्""" सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पु० 56 के अनुसार rr Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 67 116 मायाचार का कटुफल 67 जइ विय णिगिणे किसे चरे, जइ विय भुजिय मासमंतसो। जे इह मायाइ मिज्जती, आगंता गन्मायऽणंतसो // 6 // 67. जो व्यक्ति इस संसार में माया आदि से भरा है, वह यद्यपि (चाहे) नग्न (निर्वस्त्र) एवं (घोर तप से) कृश होकर विचरे और (यद्यपि) कदाचित् मासखमण करे; किन्तु (माया आदि के फलस्वरूप) वह अनन्त काल तक गर्भ में आता रहता है - गर्भवास को प्राप्त करता है। विवेचन-मायादि युक्त उत्कृष्ट क्रिया और तप : संसार-वृद्धि के कारण प्रस्तुत सूत्र गाथा में कर्मक्षय के लिए स्वीकार की गयी माया युक्त व्यक्ति की नग्नता, कृशता एवं उत्कृष्ट तपस्या को कर्मबन्ध की और परम्परा से जन्म-मरण रूप संसार परिभ्रमण की जड़ बतायी जाती है, कारण बताया गया है-'जे इह मायाइ मिज्जइ' / आशय यह है कि जो साधक निष्किञ्चन है, निर्वस्त्र है, कठोर क्रियाओं एवं पंचाग्नि तप आदि से जिसने शरीर को कृश कर लिया है, उत्कृष्ट दीर्घ तपस्या करता है, किन्तु यदि वह माया(कपट), दम्भ, वञ्चना, धोखाधड़ी; अज्ञान एवं क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह आदि से लिपटा हुआ है, तो उससे मोक्ष दराति दूर होता चला जाता है, वह अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। यहाँ माया शब्द से उपलक्षण से समस्त कषायों और आभ्यन्तर परिग्रहों का ग्रहण कर लेना चाहिए। वास्तव में कर्मों से मुक्त हुए बिना मुक्ति नहीं हो सकती, और कर्मों से मुक्ति राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि के छूटे बिना हो नहीं सकती। व्यक्ति चाहे जितनी कठोर साधना कर ले, जब तक उसके अन्तर से राग, द्वेष, मोह, माया आदि नहीं छूटते, तब तक वह चतुर्गति रूप संसार में ही अनन्त बार परिभ्रमण करता रहेगा। यद्यपि तपस्या साधना कर्म-मुक्ति का कारण अवश्य है, लेकिन वह राग, द्वष, काम, मोह, मिथ्यात्व, अज्ञान आदि से युक्त होगी तो संसार का कारण बन जायेगी। इसी आशय से उत्तराध्ययन सूत्र, इसिभासियाई एवं धम्मपद आदि में बताया गया है कि जो अज्ञानी मासिक उपवास के अन्त में कुश की नोंक पर आये जितना भोजन करता है, वह जिनोक्त रत्नत्रय रूप धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।" जे इह मायाइ"णत सो' वाक्य की व्याख्या-वृत्तिकार के अनुसार-जो (तीथिक) इस लोक में माया आदि से परिपूर्ण है, उपलक्षण से कषायों से युक्त है, वह गर्भ में बार-बार आता रहेगा, अनन्त बार यानी अपरिमित काल तक / चूर्णिकार 'जइ विह भामाइ मिज्जति ऐसा पाठान्तर मानकर व्याख्या - - - - 4 देखिये इसी के समर्थक पाठ :(क) मासे-मासे तु जो बालो कुसगणं तु भुजए / न सो सुयक्खाय धम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि // -उत्तराध्ययन अ०९/४४ (ख) मासे-मासे कुसग्गेन बालो भुजेय्य भोजनं / . न सो संखत धम्मानं कलं अग्घति सोलसिं // -धम्मपद 70 (ग) इन्दनागेण अरहता इसिणा बुइतं-मासे मासे य जो बालो कुसग्गण माहारए / ण से सुक्खाय धम्मस्स अग्घती सतिमं कलं // 13 // -...--इसिमासियाई अ०१३ पृ०६३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय करते हैं-माया का अर्थ है--जहाँ निदश (कथन) अनिर्दिष्ट-अप्रकट रखा जाता है। उन माया प्रमुख कषायों से यदि वह साधक भरा (युक्त) है तो। पाप-विरति-उपदेश 18. पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं / सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा // 10 // 66. जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं सम्म पवेदियं // 11 / / 100. विरया वोरा समुठ्ठिया, कोहाकातरियादिपोसणा। पाणे ण हणंति सम्वसो, पावातो विरयाऽभिनिव्वुडा // 12 // 18. हे पुरुष ! पापकर्म से उपरत-निवृत्त हो जा। मनुष्यों का जीवन सान्त-नाशवान् है / जो मानव इस मनुष्य जन्म में या इस संसार में आसक्त हैं, तथा विषय-भोगों में मूच्छित-गृद्ध हैं, और हिंसा, झूठ आदि पापों से निवृत्त नहीं हैं, वे मोह को प्राप्त होते हैं, अथवा मोहकर्म का संचय करते हैं। ___RE. (हे पुरुष !) तू यतना (यत्न) करता हुआ, पांच समिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर विचरण कर, क्योंकि सूक्ष्म प्राणियों से युक्त मार्ग को (उपयोग यतना के बिना) पार करना दुष्करदुस्तर है। अतः शासन-जिन प्रवचन के अनुरूप (शास्त्रोक्त विधि के अनुसार) (संयम मार्ग में) नुष्ठान) करो। सभी रागद्वेष विजेता वीर अरिहन्तों ने सम्यक् प्रकार से यही बताया है। 100. जो (हिंसा आदि पापों से) विरत हैं, जो (कर्मों को विदारण-विनष्ट करने में) वीर है, (गृह-आरम्भ-परिग्रह आदि का त्याग कर संयम पालन में) समुत्थित- उद्यत है, जो क्रोध और माया आदि कषायों तथा परिग्रहों को दूर करने वाले हैं, जो सर्वथा (मन-वचन-काया से) प्राणियों का घात नहीं करते, तथा जो पाप से निवृत्त हैं, वे पुरुष (क्रोधादि शान्त हो जाने से मुक्त जीव के समान) शान्त हैं। विवेचन-पापकर्म से विरत होने का उपदेश-प्रस्तुत त्रिसूत्री में साधु-जीवन में पापकर्म से दूर रहने का परम्परागत उपदेश विविध पहलुओं से दिया गया है। इनमें पापकर्म से निवृत्ति के लिए निम्नोक्त बोधसूत्र है (1) जीवन नाशवान् है, इसलिए विविध पापकर्मों से दूर रहो। (2) विषयासक्त मनुष्य हिंसादि पापों में पड़कर मोहमूढ़ बनते हैं। 15 (क) सूत्रकृतांक शीलांकवृत्ति पन 57, (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा. टि०) पृ. 17 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 18 से 100 121 (3) यतनापूर्वक समिति-गुप्तियुक्त होकर प्रवृत्ति करने से पापकर्मबन्ध नहीं होता। (4) जो हिंसादि पापों तथा क्रोधादि कषायों से विरत होकर संयम में उद्यत हैं, वे मुक्त आत्मा के समान शान्त एवं सुखी हैं / पाप कर्म क्या है, कैसे बंधने-छूटते हैं ? -बहुत से साधक साधु-जीवन को तो स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु पाप-पुण्य का सम्यक् परिज्ञान उन्हें नहीं होता, न ही वे यह जानते हैं कि पापकर्म कैसे-कैसे बँध जाते हैं ? और कैसे उन पापकर्मों से छुटकारा हो सकता है ? प्रस्तुत त्रिसूत्री में भगवान् ऋषभदेव ने समस्त कर्म-विदारण वीर तीर्थंकरों द्वारा उपादिष्ट पापकर्म विषयक परिज्ञान दिया है। पापकर्म वे हैं. जो आत्मा को नीचे गिरा देते हैं, उसकी शुद्धता, स्वाभाविकता और निर्मलता पर अज्ञान, मोह आदि का गाढ़ आवरण डाल देते हैं, जिससे आत्मा ऊर्ध्वगमन नहीं कर पाता, विकास नहीं कर पाता। पापकर्मों के कारण ही तो प्राणी को सम्यक् धर्ममार्ग नहीं मिल पाता और बार-बार मोह एवं अज्ञान के कारण पाप में अधिकाकिध वृद्धि करके नरक, तिर्यंच आदि दुःख प्रदायक गतियों में भटकता रहता है। इसीलिए गाथा 68 में स्पष्ट कहा गया है-'पुरिसोरम पावकम्मुणा'। इसका आशय यह है कि अब तक तुम अज्ञानदिवश पापकर्मों में बार-बार फँसते रहे, जन्म-मरण करते रहे, किन्तु अब इस पापकर्म से विरत हो जाओ। इस कार्य में शीघ्रता इसलिए करनी है कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है, वह नाशवान है / जो मनुष्य इस शरीरादि जीवन को, मोह में पड़कर इसे विषय-भोगों में नष्ट कर देते हैं, विविध हिमादि पाप करके शरीर को पोषते रहते हैं, तप-संयम के कष्ट से कतराते हैं, वे मोहनीय प्रमुख अनेक पापकर्मों का संचय कर लेते हैं, उनका फल भोगते समय फिर मोहावृत हो जाते हैं। इसलिए सद्धर्माचरण एवं तप-संयम द्वारा पापकर्म से शीघ्र विरत हो जाना चाहिए। प्रश्न होता है-पापकर्म तो प्रत्येक प्रवृत्ति में होना सम्भव है, इससे कैसे बचा जाय ? इसके लिए 66 गाथा में कहा गया- 'जययं विहराहि...."पवेइयं / अर्थात् प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करने से पापकर्म का बन्ध नहीं होता। दशवकालिक आदि शास्त्रों में यही उपाय पापकर्मबन्ध से बचने का बताया है। आचारांग आदि शास्त्रों में यत्रतत्र पापकर्म से बचने की विधि बतायी गयी है। पांच समिति, तीनगुप्ति, पंचमहाव्रत, दशयतिधर्म आदि सब पापकर्म से बचने के शास्त्रोक्त एवं जिनोक्त उपाय हैं / पापकर्म का बन्ध प्रमत्त योग से, कषाय से, हिंसादि में प्रवृत्त होने से होता है / पापकर्म से विरत साधक कैसा होता है, उसकी क्या पहिचान है ? इसके लिए गाथा 100 में स्पष्ट बताया है-(१) वे हिंसा आदि पापों से निवृत्त होते हैं, (2) कर्मक्षय करने के अवसर पर वीरवृत्ति धारण कर लेते हैं, (3) संयमपालन में उद्यत होते हैं, (4) क्रोधादि कषायों को पास नहीं फटकने देते, (5) मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से प्राणिहिंसा नहीं करते, (6) पापकर्मबन्ध होने के कारणों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग, से दूर रहते हैं, (7) ऐसे साधक मुक्त जीवों के समान शान्त होते हैं। 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 56 के आधार Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय कठिन शब्दों की व्याख्या-पलियंत-वृत्तिकार ने इसके संस्कृत में दो रूप-'पल्यान्त' एवं 'पर्यन्त' मानकर व्याख्या की है कि पुरुषों का जीवन अधिक से अधिक तीन पल्य (पल्योपम) पर्यन्त टिकता है। और पुरुषों का संयम जीवन तो पल्योपम के मध्य में होता है / अथवा पुरुषों का जीवन पर्यन्त = सान्त -नाशवान् है / जोगवं-संयम-योग से युक्त यानी पंचसमिति-त्रिगुप्ति से युक्त होकर / अणुसासणं = शास्त्र या आगम के अनुसार / अणुपाणा-सूक्ष्म प्राणियों से युक्त / वीरेहि = कर्मविदारण- वीर अरिहन्तों ने / कोहकायरियाइपीसणा-क्रोध और कातरिका=माया, आदि शब्द से मान, लोभ, या, आदि शब्द से मान, लोभ, मोहनीय कर्म आदि से दूर / अभिनिवुड़ा शान्त / 17 परीषहसहन-उपदेश 101 ण बि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंती लोगंसि पाणिणो। एवं सहिएऽधिपासते, अणिहे से पुट्ठोऽधियासए // 13 / / 102 धुणिया कुलियं व लेववं, कसए देहमणासणादिहि / ___ अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो / 14 / / 103 सउणो जह पंसुगुडिया, विधुणिय धंसयतो सियं रयं / एवं दविओवहाणवं, कम्मं खवति तवस्सि माहणे // 15 // 101. ज्ञानादि से सम्पन्न साधक इस प्रकार देखे (आत्म-निरीक्षण करे) कि शीत-उष्ण आदि परीषहों (कष्टों) से केवल मैं ही पीड़ित नहीं किया जा रहा हूँ, किन्तु संसार में दूसरे प्राणी भी (इनसे) पीड़ित किये जाते हैं / अतः उन परीषहों का स्पर्श होने पर वह (संयमी) साधक क्रोधादि या राग-द्वेषमोह से रहित होकर उन्हें (समभावपूर्वक) सहन करे। 102. जैसे लीपी हुई दीवार-भीत (लेप) गिरा कर पतली कर दी जाती है, वैसे ही अनशन के द्वारा देह को कृश कर देना-सुखा देना चाहिए / तथा (साधक को) अहिंसा धर्म में ही गति प्राप्ति करनी चाहिए / यही अनुधर्म-परीषहोपसर्ग सहन रूप एवं अहिंसादि धर्म समयानुकूल या मोक्षानुकूल है, जिसका प्ररूपण मुनीन्द्र सर्वज्ञ प्रभु ने किया है / 103. जैसे धूल से भरी हुई पक्षिणी अपने अंगों या पंखों को फड़फड़ाकर शरीर में लगी हुई रज को झाड़ देती है, इसी प्रकार भव्य उपधान आदि तपस्या करने वाला तपस्वी पुरुष कर्म रज को झाड़ (नष्ट कर) देता है। विवेचन-परीषह और उपसर्ग : क्यों और कैसे सहे ?--प्रस्तुत त्रिसूत्री में शीत और उष्ण परीषहोंउपसर्गों को सहन करने का उपदेश क्यों है ? तथा परीषहादि कैसे किस पद्धति से सहना चाहिए ? इस सम्बन्ध में मार्ग निर्देश किया गया है / परीषह जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है....'मार्गाच्यवन-निर्जराथ परिषोढव्याः परीषहाः,-धर्ममार्ग से विचलित या भ्रष्ट न होने तथा निर्जरा के लिए जो कष्ट मन-वचन-काया से सहे जाते हैं, वे परीषह कहलाते हैं / 8 ऐसे परीषह 22 हैं। 17 (क) सूत्रकृतांक शीलांकत्ति पत्र 57 18 तत्त्वार्थसूत्र अ० 1/3 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 101 से 103 123 आचारांग-सूत्र में दो प्रकार के परीषह बताये गये हैं-शीत और उग / जिन्हें अनुकूल और प्रतिकूल परीषह भी कहा जाता है / 22 परीषहों में से स्त्री और सत्कार, ये दो शीत या अनुकूल परीषह कहलाते हैं, तथा शेष 20 परीषह उष्ण या प्रतिकूल कहलाते हैं। इसीप्रकार उपसर्ग भी शोत और उष्ण दोनों प्रकार के होते हैं। उपसर्ग परीषह सहन क्यों करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार चिन्तन सूत्र प्रस्तुत करते हैं-(१) ये उपसर्ग और परीषह मुझे ही पीड़ित नहीं करते, संसार के सभी प्राणियों को पीड़ित करते हैं / परन्तु पूर्वकृत कर्मोदयवश जब ये कष्ट साधारण व्यक्ति पर आते हैं, तो वह हाय-हाय करता हुआ इन्हें भोगता है, जिससे कर्मक्षय (निर्जरा) के बदले और अधिकाधिक कर्म बंध कर लेता हैं, ज्ञानादि सम्पन्न साधक पूर्वकृत अशुभ कर्मों का फल जानकर इन्हें शत्रु नहीं, मित्र के रूप में देखता है, क्योंकि ये परीषह या उपसर्ग साधक को कर्म निर्जरा का अवसर प्रदान करते हैं, धर्म पर दृढ़ता की भी हैं। अत: परीषहों और उपसर्गों को समतापर्वक सहन करना चाहिए। उस समय न तो उन कष्टदाताओं या कष्टों पर क्रोध करे, और न कष्टसहिष्णु होने का गर्व करे। अनुकूल परीषह या उपसर्ग आने पर विषयसुख लोलुपतावश विचलित न हो, अपने धर्म पर डटा रहे। इन्हें सहन करने से साधक में कष्टसहिष्णुता, धीरता, कायोत्सर्ग-शक्ति, आत्म-शक्ति आदि गुणों में वृद्धि होती है। अज्ञानी लोग विविध कष्टों को सहते हैं, पर विवश होकर, समभाव से नहीं, इसी कारण वे निर्जरा के अवसरों को खो देते हैं। परीषह और उपसर्म सहने के सहज उपाय-शास्त्रकार ने परीषह और उपसर्ग को सहजता से सहने के लिए तीन उपाय बताये हैं (1) शरीर को अनशन आदि (उपवासादि) तपश्चर्या के द्वारा कृश कर दें; (2) परीषह या उपसर्ग के आने पर अहिंसा धर्म में डटा रहे; (3) उपसर्ग या परीषह को पूर्वकृत कर्मोदयजन्य जानकर समभाव से भोग कर कमरज को झाड़ दे। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि स्वेच्छा से अपनाये हुए कष्टों को मनुष्य कष्ट अनुभव नहीं करता, किन्तु जब दूसरा उन्हीं कष्टों को देने लगता है तो कष्ट असह्य हो जाते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक हँसते-हँसते सहने के लिए पहले साधक को स्वेच्छा से विविध कष्टों को-अनशनादि तपस्या, त्याग, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, सेवा, आतापना, वस्त्रसंयम, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, नोदरी, रसपरित्याग, वत्ति संक्षेप आदि के माध्यम से अपनाकर अभ्यास करना चाहिए / आचारांग सूत्र में इसके लिए सम्यक मार्गदर्शन दिया गया है। 16 इत्थीसककार परीसहो य दो भाव सीयला एए / सेसा वीसं उण्हा परीसहा हँति नायब्वा // -आचा० नियुक्ति गा० 203 20 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 57-58 के आधार पर (ख) 'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं -आचारांग 201 अ०४ उ० 3/141 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन ---वैतालीय अभ्यास परिपक्व हो जाने पर साधु-जीवन में अकस्मात् कोई भी उपसर्ग या परीषह आ पड़े तो उस समय अहिंसा धर्म के गुणों-क्षमा, दया, धैर्य आदि को धारण करना चाहिए। उस समय न तो उस परीषह या उपसर्ग के निमित्त को कोसना चाहिए और न ही झुंझलाना या झल्लाना चाहिए। विलाप, आर्तध्यान, रोष, या द्वष करना भावहिंसा है, और यह प्रकारान्तर से आत्महिंसा (आत्म गुणों का घात) है। __ जैन दर्शन का माना हुआ सिद्धान्त है कि मनुष्य पर कोई भी विपत्ती, संकट, यातना या कष्ट अथवा दुःख पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय के कारण आते हैं, परन्तु अज्ञानी व्यक्ति असातावेदनीय कर्मों को भोगने के साथ आकुल-व्याकुल एवं शोकात होकर नया कर्मबन्ध कर लेता है, इसलिए शास्त्रकार ने 101 सूत्र गाथा में बताया है कि ज्ञानी साधक उपसर्ग या परीषहजन्य कष्ट आने पर पूर्वकृत कर्मफल जानकर उन्हें समभाव से भोगकर उस कर्मरज को इस तरह झाड़ दे, जिस तरह धूल से सना हुआ पक्षी अपने पंख फड़फड़ा कर उस धूल को झाड़ देता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-लुप्पए शीतोष्णादिदुःख विशेषों,(परीषहों) से पीड़ित होता है / लुप्पंती= अतिदुःसह, दुःखों से परितप्त-पीड़ित होते हैं। सहितेऽधिपासते वृत्तिकार के अनुसार-'सहितोज्ञानादिभिः, स्वहितो वा आत्महितः सन् पश्येत्=ज्ञानादि से युक्त-सम्पन्न, अथवा स्वहित यानी आत्म-हितैषी होकर कुशाग्र बुद्धि से देखे-पर्यालोचन करे / चूर्णिकार के अनुसार- "सहिते......"अधिकं पृथग् जनान् पश्यतिअधिपश्यति"- अर्थात् ज्ञानादि सहित साधक पृथक-पृथक अपने से अधिक लोगों को देखता है। अणिहे से पुट्ठोऽधियासए=निह कहते हैं-पीड़ित को। जो क्रोधादि द्वारा पीड़ित न हो, वह अनिह कहलाता है / ऐसा महासत्व परीषहों से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर समभाव से सहन करे, अथवा अनिह अर्थात् अनिगृहित नहीं छिपाने वाला / अर्थात् तप-संयम में तथा परीषह सहन में अपने बल-वीर्य को न छिपाए। कुलियं व लेववं लेप वाली (लीपी हुई) भींत या दीवार को। कसए पतली, कृश कर दे। अविहिंसा पम्वए -विविध प्रकार की हिंसा विहिंसा है। विहिंसा न करना अविहिंसा है, उस अविहिंसा धर्म पर प्रबल रूप में चलना या डटे रहना चाहिए। अणुधम्मो वृत्तिकार के अनुसार 'अनुगतो मोक्षम्प्रति अनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः अहिंसालक्षणः परीण्होपसर्ग सहनलक्षणश्च धर्मः' अर्थात् मोक्ष के अनुकूल अहिंसा रूप और परीषहोपसर्ग सहनरूप धर्म अनुधर्म है / अनुधर्म शब्द आचारांग सूत्र में तथा बौद्ध ग्रन्थों में भी प्रयुक्त है, वहाँ इसका अर्थ किया गया है-पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म के अनुरूप, अथवा पूर्व तीर्थकर चरित धर्म का अनुसरण अथवा धर्म के अनुरूप-धर्म सम्मत / 1 पंसुगुडिया धूल से सनी हुई। धंसयती= झाड़ देती है। सियं रयं लगी हुई रज को। दविओ-द्रव्य अर्थात् भव्य-मुक्ति गमन योग्य व्यक्ति / उवहाणवं=जो मोक्ष के उप=समीप, स्थापित कर देता है, वह उपधान (अनशनादि तप) कहलाता है, उपधान रूप तप के आराधक को उपधानवान कहते हैं। 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 57-58 (ख) सूयगडंग चूणि, (मू० पा० टिप्पण) पृ० 18 (ग) देखो आचारांग में-'एतं ख अणुधम्मियं तस्स' का विवेचन-आचारांग विवेचन 1/1/42 10 307 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 प्रथम उद्देशक : गाथा 104 से 108 अनुकूल-परीष्षह-विजयोपदेश 104 उठ्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठियं तवस्सिणं / डहरा वुड्ढा य पत्यए, अवि सुस्से ण य तं लभे जणा / / 16 / / 105 जइ कालुणियाणि कासिया, जह रोबंति व प्रत्तकारणा। दवियं भिक्खुसमुट्टितं, णो लब्भंति ण संठवित्तए // 17 // 106 जइ वि य कामेहि लाविया, जइ जाहि णं बंधिउं घरं / जति जीवित णावकंखए, णो लब्भंति ण संठवित्तए // 18 // 107 सेहंति य णं ममाइणो, माय पिया य सुता य भारिया। पासाहि णे पासओ तुमं, लोयं परं पि जहाहि पोस णे // 16 // 108 अन्ने अन्नेहि मुच्छिता, मोहं जंति नरा असंवुडा। विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावेहि पुणो पगम्भिता // 20 // 104. गृह त्याग कर अनगार बने हुए तथा एषणां पालन के लिए उत्थित-तत्पर अपने संयम स्थान में स्थित तपस्वी श्रमण को उसके लड़के-बच्चे तथा बड़े-बूढ़े (मां-बाप आदि) (प्रव्रज्या छोड़ देने की) चाहे जितनी प्रार्थना करें, चाहे (प्रार्थना करते-करते) उनका गला सूखने लगे-(वे थक जाएँ, परन्तु वे) उस (श्रमण) को पा नहीं सकते, अर्थात -मनाकर अपने अधीन नहीं कर सकते। 105. यदि वे (साधु के माता-पिता आदि स्वजन) (उसके समक्ष करुणा-प्रधान वचन बोलें या कारुण्योत्पादक कार्य करें और यदि वे अपने पुत्र के लिए रोयें-विलाप करें तो भी मोक्ष-साधना या साधूधर्म का पालन करने में उद्यत उस द्रव्य (भव्य मुक्तिगमन योग्य) उस (परिपक्व) भिक्षु को प्रव्रज्या भ्रष्ट नहीं कर सकते, न ही वे उसे पुनः गृहस्थ वेष में स्थापित कर सकते हैं। 106. चाहे (साधु के पारिवारिक जन उसे) काम-भोगों का प्रलोभन दें, वे उसे बांधकर घर पर ले जाएं, परन्तु वह साधु यदि असंयमी जीवन नहीं चाहता है, तो वे उसे अपने वश में नहीं कर सकते, और न ही उसे पुनः गृहवास में रख सकते हैं। 107. 'यह साधु मेरा है,' ऐसा जानकर साधु के प्रति ममत्व करने वाले उसके माता-पिता और पत्नी-पुत्र आदि (कभी-कभी) साधु को शिक्षा भी देते हैं-तुम तो प्रत्यक्षदर्शी हो या सूक्ष्म (दूर) दी हो, अतः हमारा भरण-पोषण करो। ऐसा न करके, तुम इस लोक और परलोक दोनों के कर्तव्य को छोड़ रहे हो / (अतः किसी भी तरह से) हमारा पालन-पोषण करो। 108. संयम भाव से रहित (असंवृत) कोई-कोई मनुष्य - (अपरिपक्व साधक) (माता-पिता, स्त्रीपुत्र आदि) अन्यान्य पदार्थों में मूच्छित-आसक्त होकर मोहमूढ़ हो जाते हैं। विषम व्यक्तियों-संयम रहित मानवों द्वारा विषम-असंयम ग्रहण कराये हुए वे मनुष्य पुनः पापकर्म करने में धूष्ट हो जाते हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग--द्वितीय अध्ययन-वंतालीय विवेचन-अनकल परीषह-उपसर्ग-सहन का उपदेश-प्रस्तुत पाँच सुत्रों में शास्त्रकार ने माता-पिता आदि स्वजनों द्वारा साधु को संयम छोड़ने के लिए कैसे-कैसे विवश किया जाता है ? उस समय साधु क्या करे ? कैसे उस उपसर्ग या परीषह पर विजय प्राप्त करे ? अथवा साधु धर्म पर कैसे डटा रहे ? यह तथ्य विभिन्न पहलुओं से प्रस्तुत किया है। स्वजनों द्वारा असंयमी जीवन के लिए विवश करने के प्रकार - यहाँ पाँच सूत्रों में क्रमशः अनुकूल उपसर्ग का चित्रण किया है, साथ ही साधु को दृढ़ता रखने का भी विधान किया है (1) संयमी तपस्वी साधु को गृहवास के लिए उसके गृहस्थ पक्षीय स्वजन प्रार्थना एवं अनुनयविनय करें, (2) दोनतापूर्वक करुण विलाप करें या करुणकृत्य करें, (3) उसे गृहवास के लिए विविध काम-भोगों का प्रलोभन दें, (4) उसे भय दिखाएँ, मार-पीटें, बाँधकर घर ले जाएँ, (5) नव दीक्षित साधु को उभय-लोक भ्रष्ट हो जाने की उलटी शिक्षा देकर संयम से 'भ्रष्ट करें, (6) जरा-सा फिसलते ही उसे मोहान्ध बनाकर निःसंकोच पाप-परायण बना देते हैं। पाँचवीं अवस्था तक सर्व विरति संयमी साधु को स्वजनों द्वारा चलाए गए अनुकूल उपसर्ग बाणों से अपनी सुरक्षा करने का अभेद्य संयम कवच पहनकर उनके उक्त प्रक्षेपास्त्रों को काट देने और दृढ़ता बताने का उपदेश दिया है। उपसर्ग का प्रथम प्रकार-जो अनगार तपस्वी, संयमी और महाव्रतों में दृढ़ है, उसे उसके बेटे, पोते या माता-पिता आदि आकर बार-बार प्रार्थना करते हैं-आपने बहुत वर्षों तक संयम पालन कर लिया, अब तो यह सब छोड़कर घर चलिए। आपके सिवाय हमारा कोई आधार नहीं है, हम सब आपके बिना दुःखी हो रहे हैं, घर चलिए, हमें संभालिए।" इसीलिए इस गाथा में कहा गया है-'डहरा वुड्ढा य पत्थए।' उपसर्ग का द्वितीय प्रकार-अव दूसरा प्रकार है-करुणोत्पादक वचन या कृत्य का। जैसे-उसके गृहस्थ पक्षीय माता, दादी, या पिता, दादा आदि करुण स्वर में विलाप करके कहें-बेटा ! तुम हम दुःखियों पर दया करके एक वार तो घर चलो, देखो, तुम्हारे बिना हम कितने दुःखी हैं ? हमें दुःखी करके कौन सा स्वर्ग पा लोगे ?" यह एक पहलू है, संयम से विचलित करने का, जिसके लिए शास्त्रकार कहते हैं --- “जइ कालुणियाणि कासिया।" इसी का दूसरा पहलू है, जिसे शास्त्रकार इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -- 'जइ रोयति य पुत्तकारणा'-आशय यह है कि उस साधु की गृहस्थ पक्षीय पत्नी रो-रोकर कहने लगे हे नाथ ! हे हृदयेश्वर ! हे प्राणवल्लभ ! आपके बिना सारा घर सूना-सूना लगता है / बच्चे आपके बिना रो रहे हैं, जब देखो, तब वे आपके ही नाम की रट लगाया करते हैं। उन्हें आपके बिना कुछ नहीं सुहाता। मेरे लिए नहीं तो कम से कम उन नन्हें-मुन्नों पर दया करके ही घर चलो! आपके घर पर रहने से आपके बूढ़े माता-पिता का दिल भी हरा-भरा रहेगा / अथवा उक्त साधु की पत्नी अश्र प्रित नेत्रों से गद्गद होकर कहे-'आप घर नहीं चलेंगे तो मैं यहीं प्राण दे दूंगी। आपको नारी हत्या का पाप लगेगा। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 104 से 108 127 इतने निप्टर मत बनिये।" अथवा उसके बूढ़े स्वजन रो-रोकर कहें-"बेटा ! एक बार तो घर चलो। कुलदीपक पुत्र के बिना घर में सर्वत्र अधेिरा है / हमारा वंश, कुल या घर सूना-सूना है। अतः और कुछ नहीं तो अपनी वंशवृद्धि के लिए कम से कम एक पुत्र उत्पन्न करके फिर तुम भले ही संयम पालना। हम फिर तुम्हें नहीं रोकेगे / केवल एक पुत्र की हमारी मनोकामना पूर्ण करो।" उपसर्ग का तीसरा प्रकार--यह प्रारम्भ होता है- प्रलोभन से / साधु के स्वजन प्रलोभन भरे मधुर शब्दों में कहते हैं--तुम हमारी बात मानकर घर चले चलो। हम तुम्हारी सुख-सुविधा में कोई कमी नहीं आने देगे / तुम्हारी सेवा में कोई कमी नहीं आने देंगे। उत्तमोत्तम नृत्य, गायन, वादन, राग-रंग आदि से तुम्हारी प्रसन्नता बढ़ा देंगे। बढ़िया-बढ़िया स्वादिष्ट खानपान से तुम्हें तृप्त कर देंगे। मनचाहे सुगन्धित पदार्थों से तुम्हारा मन जरा भी नहीं उबेगा, एक से एक बढ़कर स्वर्ग की अप्सरा-सी सुन्दरियाँ तुम्हारी सेवा में तत्पर रहेंगीं। तुम्हारे उपभोग के लिए सब तरह की सुख-सामग्री जुटा देंगे।" इसी तथ्य को उजागर करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--'जइ विय कामेहि लाविया' / उपसर्ग का चौथा प्रकार-इसी गाथा में उपसर्ग के चौथे प्रकार का रूप दिया गया है-~-'जइ गेज्जाहि -आशय यह है कि प्रलोभन से जब साधू डिगता न दीखे तो पारिवारिक जन भय का अस्त्र छोड़ें- “उसे डराएँ-धमकाएँ, मार-पीटें या जबरन रस्सी से बांधकर घर ले जाएँ, अथवा उसे वचनबद्ध करके या स्वयं स्वजन वर्ग उसके समक्ष वचनबद्ध होकर घर ले जाएँ। उपसर्ग का पाँचवाँ प्रकार-इतने पर भी जब संयमी विचलित न हो तो स्वजन वर्ग नया मोह प्रक्षेपास्त्र छोड़ते हैं, शिक्षा देने के बहाने से कहते हैं- “यह तो सारा संसार कहता है कि माता-पिता एवं परिवार को दुःखी, विपन्न, अर्थ-संकटग्रस्त एवं पालन-पोषण के अभाव में त्रस्त बनाकर साधु बने रहना धर्म नहीं है, यह पाप है। माता-पिता आदि का पालन-पोषण करने वाला घर में कोई नहीं है, और एक तुम हो कि उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी से छिटककर माधु बन गये हो / चलो, अब भी कुछ नहीं विगड़ा है / घर में रहकर हमारा भरण-पोषण करो। अथवा वे कहते हैं -तुम तो प्रत्यक्षदर्शी हो, घर की सारी परिस्थिति तुम्हारी आँखों देखी है, तुम्हारे बिना यह घर बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। अथवा तुम तो दूरदर्शी हो या सूक्ष्मदर्शी, जरा बुद्धि से सोचो कि तुम्हारे द्वारा पालन-पोषण के अभाव में हमारी कितनी दुर्दशा हो जायेगी ? अथवा वे यों कहते हैं-ऐसे समय में दीक्षा लेकर तुमने इहलोक भी बिगाड़ा, इस लोक का भी कोई सुख नहीं देखा, और अब परलोक भी बिगाड़ रहे हो, मातापिता एवं परिवार के पालन-पोषण के प्रथम कर्तव्य से विमुख होकर ! दुःखी परिवार का पालन-पोषण करना तुम्हारा प्रथम धर्म है,२२ इस पुण्य लाभ को छोड़कर भला परलोक का सुख कैसे मिलेगा ?" 22 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 58 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० 310 से 312 तक (ग) देखिये उनके द्वारा दिया जाने वाला शिक्षासूत्र "या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु महमेधिनाम् / विभ्रताम् पुत्र दारांस्तु तां गति ब्रज पुत्रक !" अर्थात्-हे पुत्र ! पूत्र और पत्नी का भरण पोषण करने हेतु क्लेश सहने वाले गहस्थों का (गहस्थी का) जो मार्ग है, उसी मार्ग से तुम भी चलो।" -सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति भाषानुवाद भा० 1 पृ० 222 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अतः घर में रहकर हमारा पालन-पोषण करो। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-"सेहतिय"जहासि पोसणे / ' सच्चा साधु बहके-फिसले नहीं-ये और इस प्रकार के अनेक अनुकूल उपसर्ग साधु को संयम मार्ग एवं साधुत्व से विचलित एवं भ्रष्ट करने और उसे किसी तरह से मनाकर पुनः गृहस्थ भाव में स्थापित करने के लिए आते हैं. परन्तु शास्त्रकार उपदेश की भाषा में कहते हैं कि वह अनगार, श्रमण संयम स्थान में स्थित तपस्वी, भिक्षु मोही स्वजनों की प्रार्थना पर जरा भी ध्यान न दे। वे प्रार्थना करते-करते थक जाएँ फिर भी साधु इस प्रकार की दृढ़ता दिखाए कि वे उसे अपने वश-अधीन न कर सकें न ही गृहस्थी में उसे स्थापित कर सकें। इस बात को शास्त्रकार ने तीनों गाथाओं में दोहराया है। उसे संयम पर दृढ़ रहने के लिए यहाँ शास्त्रकार ने 7 बातें ध्वनित की हैं -(1) उनकी प्रार्थना पर ध्यान न दे, (2) उनकी बातों से जरा भी न पिघले, (3) उनके करुण-विलाप आदि से जरा भी विच (3) उनके द्वारा प्रदर्शित प्रलोभनों से बहके नहीं, भयों से घबराकर डिगे नहीं, (5) उनकी बातों में जरा भी रुचि न दिखाए, (6) उनकी संयम भ्रष्ट कारिणी शिक्षा पर जरा भी विचार न करे, (7) असंयमी जीवन की जरा भी आकांक्षा न करे। ___ शास्त्रकार उन सच्चे साधुओं को अपने साधुत्व-संयम और श्रमणत्व में दृढ़ एवं पक्के रखने के आशय से कहते हैं- अन्ने अन्नेहि मुच्छिता मोहं जंति......"पुणो पगम्भिता-अर्थात् वे दूसरे हैं, कच्चे साधु हैं, जो माता-पिता आदि अन्य असंयमी लोगों द्वारा प्रलोभनों से वहकाने-फुसलाने से, भय दिखाने से मूच्छित हो जाते हैं, और उनके चक्कर में आकर दीर्घकालीन अथवा महामूल्य अति दुर्लभ संयम धन को खोकर असंयमी बन जाते हैं। उन मूढ़ साधकों को उन असंयमी लोगों के द्वारा विषम (सिद्धान्त एवं संयम से हीन) पथ पकड़ा दिया जाता है, फलतः वे गृहस्थ-जीवन में पड़कर अपने परिजनों या कामभोगों में इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर वे किसी भी पाप को करने में कोई संकोच नहीं करते। यहाँ तक कि फिर गृहस्थोचित धर्म-मर्यादाओं को भी वे ताक में रख देते हैं / संयम भ्रष्ट पुरुष अठारह ही प्रकार के पापों को करने में धृष्ट एवं निरंकुश हो जाते हैं। अन्ने अन्नेहि मुच्छिया--आदि पाठ से शास्त्रकार ने उन सच्चे श्रमणों को सावधान कर दिया है कि वे दूसरे हैं, तुम वैसे नहीं हो, वे मन्द पराक्रमी, आचार-विचार शिथिल, साधुत्व में अपरिपक्व, असंयम रुचि व्यक्ति हैं, जो परायों (असंयमियों) को अपने समझकर उनके चक्कर में पड़ जाते हैं, पर तुम ऐसे कदापि नहीं बनोगे, अपने महामूल्य संयम धन को नहीं खोओगे। कठिन शब्दों की व्याख्या-उठ्ठियमणगारमेसणं-घर-बार, धन-सम्पत्ति, एवं सांसारिक कामभोगों को छोड़कर गृह-त्यागी होकर मुनि धर्मोचित एषणा-पालन के लिए उद्यत है। समणं आणठियं श्रमण (संयम में पुरुषार्थी) है तथा उत्तरोत्तर विशिष्ट संयम स्थानों में स्थित है। चूर्णिकार के अनुसार-'समणठाणठिय' पाठान्तर सम्भावित है, क्योंकि इसकी व्याख्या की गयी है - 'समणाणं ठाणे ठितं चरित्ते गाणातिसु'–अर्थात् श्रमणों के स्थान में-चारित्र में या ज्ञानादि में स्थित है। अवि सुस्से= (यों कहते-कहते) उनका गला सूख जाए अर्थात् वे थक जाएँ अथवा इसका 'मपि श्रोष्ये' रूप भी संस्कृत में होता है, अर्थ होता है-बह साधु 23 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 58-56 पर से Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 106 से 110 126 उनकी बात सुनेगा, किन्तु वाग्जाल में न फंसेगा। काम रूप, काम भोगों-इन्द्रियविषयों से ललचाएँ, प्रलोभन दें; भोगों का निमन्त्रण दें। ज्जाहि णं बंधिउ घर= यदि बाँधकर घर ले जायें। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर -. अणेज्ज णंबंधित्ता घरं. या वाँधकर घर ले आएँ। "जीवियं गावकखए" इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं—(१) यदि जीवित रहने (जीने) की आकांक्षा-आसक्ति नहीं है, अथवा (2) यदि असयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता या उसे पसन्द नहीं करता / ममाइणो यह साधु मेरा है, इस प्रकार ममत्व रखने वाले / सेहति - शिक्षा देते हैं / अन्ने = कई अल्प पराक्रमी कायर / अन्नेहि-माता-पिता आदि द्वारा। विसमं असंयम / साधक के लिए संयम सम हैं, असंयम विषम है। विसमेहि असंयमी पुरुषों-उन्मार्ग में प्रवृत्त होने और अपाय-विपत्ति से न डरने के कारण राग-द्वेष युक्त विषम पथ को ग्रहण करने वालों द्वारा / अथवा विषमों-यानी राग-द्वषों के द्वारा / 24 कर्मविदारक वीरों को उपदेश 106 तम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ बिरतेऽभिनिव्वुडे / पणया वोरा महाविहि, सिद्धिपहं गेयाउयं धुवं // 21 // 110 वेतालियमम्गमागओ, मण वयसा काएण संवडो। चेच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरेज्जासि // 22 / / त्ति बेमि। 106. [माता-पिता आदि के मोह बन्धन में पड़कर कायर पुरुष संयम भ्रष्ट हो जाते हैं] इसलिए द्रव्यभूत भव्य (मुक्तिगमन योग्य अथवा राग-द्वेष रहित) होकर अन्तनिरीक्षण करे / पण्डित-सद्-असद् विवेकयुक्त पुरुष पापकर्म से सदा विरत होकर अभिनिवृत्त (शान्त) हो जाता है / वीर (कर्म-विदारण में समर्थ पुरुष) उस महावीथी (महामार्ग) के प्रति प्रणत-समर्पित होते हैं, जो कि सिद्धि पथ (मोक्षमार्ग) है, न्याय युक्त अथवा मोक्ष की ओर ले जाने वाला और ध्रुव (निश्चित या निश्चल) है। 110. (अब तुम) वैदारिक (कर्मों को विदारण-विनष्ट करने में समर्थ) मार्ग पर आ गए हों ! अतः मन, वचन और काया से संवृत (गुप्त-संयत) होकर, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञाति जनों (कुटुम्बियों) एवं आरम्भ (सावध कार्य) को छोड़कर श्रेष्ठ इन्द्रिय संयमी (सुसंवृत) होकर विचरण करो। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-कर्म-विदारण-वीर साधकों को उपदेश-प्रस्तुत सूत्र गाथा द्वय (106-110) में संयम भ्रष्ट साधकों की अवदशा बताकर सुविहित साधकों को महापथ पर चलने का उपदेश दिया है। उक्त महापथ पर चलने की विधि के लिए सात निर्देश सूत्र हैं-(१) भव्य-मोक्षगमन के योग्य हो, (2) स्वयं अन्तनिरीक्षण करो, (3) सद्-असद् विवेक युक्त पण्डित हो, (4) पाप-कर्म से विरत हो, (5) कषायों से निवृत्त 24 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 58-56 (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 18-16 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय शान्त हो, कर्म विदारण वीर साधक इस सिद्ध पथ, न्याय युक्त और ध्रव महा मार्ग के प्रति समर्पित होते हैं, तुम भी समर्पित हो जाओ, इसी वैदारिक महामार्ग पर आ जाओ, (6) मन-वचन-काया से संयत-संवत्त बनो, तथा (7) धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब कबीला; एवं सावध आरम्भ-समारम्भ का त्याग कर उत्तम संयमी बनकर विचरण करो। पणया वीरा महावीहि-आचारांग सत्र के प्रथम अध्ययन में भी यह वाक्य आता है। सम्भव है, सूत्रकृतांग के द्वितीय अध्ययन की 21 वी गाथा में इस वाक्य सहित पूरा पद्य दे दिया हो / यहाँ वृत्तिकार ने इस वाक्य का विवेचन इस प्रकार किया है-वीर-परीषह-उपसर्ग और कषाय सेना पर विजय प्राप्त करने वाले-वीर्यवान (आत्म-शक्तिशाली) पुरुष, महावीथी- सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्ष मार्ग के प्रति प्रणत हैं-झुके हुए हैं-समर्पित हैं। यहाँ 'वीरा' का अर्थ वृत्तिकार ने कर्म-विदारण समर्थ' किया है। 'महाबोहि' शब्द के ही यहाँ 'सिद्धिपह; णेयाउयं' एवं 'धुवं' विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं। ‘णयाउयं' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-मोक्ष के प्रति ले जाने वाले किन्तु आवश्यक सूत्रान्तर्गत श्रमण सूत्र में तथा उत्तराध्ययन में समागत ‘णेयाउयं' का अर्थ न्याययुक्त या न्यायपूर्ण किया गया है। 'पणया वीरा महावाहि' के स्थान पर शीलांकाचार्यकृत वृत्ति सहित मूलपाठ में 'पणए वीरं महाविहि' पाठान्तर है। चूणिकार ने एक विशेष पाठान्तर उद्धृत किया है-- 'पणता वीघेतऽणुत्तर' व्याख्या इस प्रकार है-'एतदितिभावविधी जं भणिहामि, अणुतरं असरिसं, अणुत्तरं वा ठाणादि'-- अर्थात यह भावविधि (जिसका वर्णन आगे कहेंगे) अनुत्तर-असदृश-अप्रतिम है, अथवा स्थानादि अनुत्तर है। उसके प्रति प्रणत= समर्पित दोनदा वि इवख पडिए-इस गाथा में सर्वप्रथम आन्तरिक निरीक्षण करने को कहा गया है. उसके लिए दो प्रकार से योग्य बनने का निर्देश भी है / 'दवि' और 'पंडिए' / दविए' के जैसे दो अर्थ होते हैं-द्रव्य अर्थात् भव्य मोक्ष गमन योग्य, अथवा राग-द्वेष रहित; वैसे 'पंडिए' के भी मुख्य चार अर्थ होते हैं- (1) सद-असद-विवेकशील, (2) पाप से दूर रहने वाला, (3) इन्द्रियों से अखण्डित अथवा (4) ज्ञानाग्नि से अपने कर्मों को जला डालने वाला / 27 25 (क) प्रणताः प्रह्वाः वीराः परीषहोपसर्ग-कषाय सेनाविजयात वीथिः पन्था: महांश्चासौ वोथिश्च महावीथि = सम्यग्दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गों..."जिनेन्द्र चन्द्रादिभिः प्रहत: तं प्रति प्रह्वा:--बीर्यवन्तः / -आचारांग श्रु० 1, अ. 1,3-1, सूत्र 20 की वृत्ति पत्रांक 43 (ख) प्रणताः-प्रवीभूताः वीराः कर्मविदारणसमर्थाः महावीथिं महामार्ग --सूत्रकतांग शीलांक बत्ति पत्रांक 60 (1) णेआउयं-मोक्षम्प्रति नेतारं प्रापकं / -सुत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 60 26 ) पणए वीरं महाविहिं ---सूत्रकृतांग मूलपाठ शीलांक वृत्ति युक्त पत्रांक 60 (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि-(भूलपाठ टिप्पणयुक्त) पृ० 16-20 27 (क) दवि-द्रव्यभूतो भव्यः मुक्ति गमनयोग्य : रागद्वेष रहितो वा सन् -सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 60 (ख) पंडिए -पण्डा-सदसद्विवेकशालिनी बुद्धिः संजाता अस्येति पण्डित: -वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी (भदोजिदीक्षित) पापाड्डीनः पण्डितः- दशवकालिक हारी० वृत्ति स पण्डितो यः करण रखण्डितः -- उपाध्याय यशोविजयजी "..."ज्ञानादिदग्धकर्माण तमाहः पण्डिता बुधा:-गीता० अ०४/१९ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 111 से 113 ".."पावाओ विरतेऽभिनिवडे-इस पंक्ति का आशय यह है कि “साधक पुरुष ! तुम भव्य हो, रागसे ऊपर उठकर, स्व-पर के प्रति निष्पक्ष, सद्-असद् विवेकी या पापों से दूर रहकर ठण्डे दिल-दिमाग से उन पाप कर्मों के परिणामों पर विचार करो अथवा अपने जीवन आदि पापजनक जो भी स्थान या कार्य हों, उनसे विरत होकर तथा कषाय और राग-द्वेष आदि से या इन्हें उत्पन्न करने वाले कार्यों से सर्वथा निवृत्त-शान्त हो जाओ। शान्ति से आत्म-स्वभाव में या आत्म-भाव में रमण करो, यह आशय भी यहाँ भित है। 'वेतालियमग्ग"चरेज्जासि-इस गाथा का यह आशय ध्वनित होता है कि आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश देने के साथ समस्त मोक्ष-पथिक गृहत्यागी साधुओं को उपदेश दिया है कि हे साधको ! अब तुम कर्मबन्धन का मार्ग छोड़कर पूर्वोक्त वीरतापूर्वक विदारण समर्थ (वैदारक) मार्ग पर चल पड़े हो। अब तुम्हें संयम पालन के तीन साधनों --मन-वचन-काया पर नियन्त्रण रखना है। मन को सावध (पापयुक्त) विचारों से रोककर निर्वद्य (मोक्ष एवं संयम) विचारों में आत्मभाव में लगाना है, वचन को पापोत्पादक शब्दों को व्यक्त करने से रोककर धर्म (संवर निर्जरा) युक्त वचनों को व्यक्त करने में लगाना है या मौन रहना है और काया को सावध कार्यों से रोककर निर्वद्य सम्यग्दर्शनादि धर्माचरण में लगाना है। साथ ही धन-सम्पत्ति, परिवार, स्वजन या गार्हस्थ्य-जीवन के प्रति जो पहले लगाव रहा है, उसे अब सर्वथा छोड़ देना है, बिलकुल भूल जाना है, और मन तथा इन्द्रियों के विजेता जागरूक संयमी बनकर इस वैदारिक महापथ पर विचरण करना है। प्रथम उद्देशक समाप्त बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक मद-त्याग-उपदेश : 111 तयसं व जहाति से रयं, इति संखाय मुणो ण मज्जती। गोतण्णतरेण माहणे, अहसेयकरी अन्नेसि इंखिणी // 1 // 112 जो परिभवती परं जणं, संसारे परिपत्ततो महं। अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणो ण मज्जती // 2 // 113 जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसए सिया। जे मोणपर्व उवहिए, णो लज्जे समयं सया चरे // 3 // 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 60 के आधार पर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-चैतालीय 111. जैसे सर्प अपनी त्वचा-केंचुली को छोड़ देता है, यह जानकर (वैसे) माहन (अहिंसा प्रधान) मुनि गोत्र आदि का मद नहीं करता (छोड़ देता है) दूसरों की निन्दा अश्रेयस्कारिणी-अकल्याणकारिणी है। (मुनि उसका भी त्याग करता है।) 112. जो साधक दूसरे व्यक्ति का तिरस्कार (प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अवज्ञा) करता है, वह चिरकाल तक या अत्यन्त रूप से चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करता है / अथवा (या क्योंकि) पर निन्दा पापिका-पापों की जननी-दोषोत्पादिका ही है। यह जानकर मुनिवर जाति आदि का मद नहीं करते। 113. चाहे कोई अ-नायक (स्वयं नायक-प्रभु चक्रवर्ती आदि) हो (रहा हो); अथवा जो दासों का भी दास हो (रहा हो); (किन्तु अब यदि वह) मौनपद-संयम मार्ग में उपस्थित (दीक्षित) हैं तो उसे (मदवश या हीनतावश) लज्जा नहीं करनी चाहिए / अपितु सदैव समभाव का आचरण करना चाहिए। विवेचन-मद का विविध पहलुओं से त्याग क्यों और कैसे ?-प्रस्तुत त्रिसूत्री में मुख्य रूप से मद त्याग का उपदेश विविध पहलुओं से दिया गया है / मद त्याग के विविध पहलू ये हैं--(१) साधु, कर्म बन्धन के कारण मूल अष्टविध मद का त्याग करे, (2) साधु मदान्ध होकर अकल्याणकारी परनिन्दा न करे (3) जाति आदि मद के वशीभूत होकर पर का तिरस्कार न करे, (4) मद (4) मद के कारण पूर्व दीक्षित दास और वर्तमान में मुनि को वन्दनादि करने में लज्जित न हो, न ही हीन भावनावश साधु अपने से बाद में दीक्षित भूतपूर्व स्वामी से वन्दना लेने में लज्जित हो।" इसमें प्रस्तुत गाथा में मद त्याग क्यों करना चाहिए? इसका निर्देश है और शेष दो गाथाओं में यह बताया गया है कि मद कैसे-कैसे उत्पन्न होता है तथा साधक मद के कारण किन-किन दोषों को अपने जीवन में प्रविष्ट कर लेता है ? उन्हें आते ही कैसे और क्यों खदेड़े ? इति संखाय मुणी न मज्जती-वह महत्त्वपूर्ण मद त्याग सूत्र है। इसका आशय यह है कि मद चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह पाप-कर्मबन्ध का कारण है / सर्प जैसे अपनी त्वचा (केंचुली) को सर्वथा छोड़ देता है, इसी तरह साधु को कम आस्रव को या कर्मबन्ध को सर्वथा त्याज्य समझकर कर्मजनक जाति, गोत्र (कुल), बल, रूप, धन-वैभव, आदि मद का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। 'अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी' - इस पंक्ति का आशय यह है कि साधक में दीक्षा लेने के बाद जरासा भी जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, शास्त्रज्ञान, ऐश्वर्य (पद या अधिकार) का मद होता है, तो उसके कारण वह दूसरों का उत्कर्ष, किसी भी बात में उन्नति सह नहीं सकता, दूसरों की (मनुष्यों, साधकों या सम्प्रदायों की) उन्नति, यशकीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा वृद्धि देखकर वह मन-ही-मन कुढ़ता है, जलता है, ईर्ष्या करता है, दोष-दर्शन करता रहता है। फलतः अपने मद को पोषण देने के लिए वह दूसरों की निन्दा, चुगली, बदनामी मिथ्यादोषारोपण, अप्रसिद्धि या अपकीर्ति करता रहता है। इस प्रकार अपने मद की वह वृद्धि करके भारी पाप कर्मवन्धन कर लेता है।' शास्त्रकार ने यहाँ संकेत कर दिया है कि साधु अपने आत्म-कल्याण के लिए कर्मबन्धजनक समस्त बातों का त्याग कर चुका है, फिर आत्मा का अकल्याण करने वाली पापकर्मवर्द्धक परनिन्दा को वह क्यों 1 सूत्रकृतांग मूलपाठ एवं शीलांकवृत्ति भाषानुवाद, पृ० 226 से 230 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 111 से 113 अपनाएगा? और क्यों परनिन्दा तथा उसके समकक्ष ईर्ष्यादि अनेक दोषों को पैदा करने वाले मद को अपनाएगा? इसीलिए सुत्रगाथा 112 के उत्तरार्द्ध में इसी तथ्य को पुनः अभिव्यक्त किया है- 'अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणो ण मज्जति / " यहाँ शास्त्रकार ने 'इंखिणी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका संस्कृत रूप होता है-ईक्षिणी अर्थात् देखने वाली परदोषदर्शिनी / परनिन्दा, चूगली, बदनामी, अपकीर्ति, मिथ्या दोषारोपण आदि सब परदोष दर्शन से होते हैं, इसलिए ये सब ईक्षिणी के अन्तर्गत हैं। वृत्तिकार ने इसीलिए 'इंखिणी' का अर्थ परनिन्दा किया है। साधक मदावेश में आकर ही अनेक पापों की जननी ईक्षिणी को पालता है, यह समझकर उसे मूल में ही मद को तिलांजलि दे देनी चाहिए। नियुक्तिकार ने इसी सन्दर्भ में परनिन्दा-त्याग एवं मद-त्याग की प्रेरणा देने वाली दो गाथाएँ प्रस्तुत की हैं। जो परिभवई परं जणं "महं- इस गाथा के पूर्वार्द्ध में मदावेश से होने वाले अन्य विकार और उसके भयंकर परिणाम का संकेत किया है। इसका आशय यह है कि जाति आदि के मद के कारण साधक अपने से जाति, कुल, वैभव (पदादि या अधिकारादि का), बल, लाभ, शास्त्रीय ज्ञान, तप आदि में हीन या न्यून व्यक्ति का तिरस्कार, अवज्ञा, अपमान या अनादर करने लगता है. उसे दुरदुराता है, धिक्कारता, डाँटता-फटकारता है, बात-बात में नीचा दिखाने का प्रयत्न करता है, अपनी बड़ाई करके दूसरों को नगण्य-तुच्छ बताता है, लज्जित करता है, लांछित करता है, उसे अपने अधीनस्थ बनाकर मनमाना काम लेता है, चुभते मर्मस्पर्शी वचन या अपशब्द भी कह देता है, क्योंकि ये सब 'पर-परिभव' की ही संतति हैं। इसलिए मदजनित पर-परिभव भी त्याज्य है। संसारे परिवत्तती महं- परिभव आदि भी ईक्षिणी के ही परिवार हैं। ईक्षिणी को पापों की जननी बताया गया था कि परनिन्दा करते समय साधु दूसरे के प्रति ईा-द्वष करता है, यह भी पाप स्थान है। पर-परिवाद भी अपने-आप में पाप स्थान है, पर-परिभव भी अपने को अधिक गुणी, उत्कृष्ट मानने से होता है, अतः मान रूपी पाप स्थान भी आ जाता है, साथ ही क्रोध, माया, असत्य (मिथ्या दोषारोपण के कारण), पैशुन्य (चुगली), कपट-क्रिया आदि बताकर अपने मद का पोषण करने से मायामृषा, माया, उच्च पदादि प्राप्ति का लोभ अहर्निश दूसरों के दोष या छिद्र देखने की वृत्ति के कारण आतंध्यान-रौद्रध्यान रूप पाप आता है। अपना स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन-मनन, आत्म-चिन्तन, परमात्म-स्मरण आदि आत्म-कल्याण की चर्चा का अधिकांश समय परनिन्दा आदि में व्यतीत करके तीर्थकर-आज्ञा के उल्लंघन रूप अदत्तादान एवं ईर्ष्या-द्वष-कषायादि के कारण भावहिंसा रूप पाप आता है। यों उसका जीवन अनेक पापों का अड्डा बन जाता है। उन संचित पापों के फलस्वरूप वह मदोन्मत्त साधक मोक्ष (कर्म 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 60-61 के आधार पर (ख) तव-संजम-णाणेसु वि जइ माणो बज्जिओ महेसीहि / अत्तसमुक्क रिसत्यं किं पुण हीला उ अन्नेसि // 43 / / जइ ताव निज्जरमाओ पडिसिद्धो अट्ठमाण महेणहि / अवसेसमयट्ठाणा परिहरियन्वा पयत्तेणं // 44 // अर्थात् -जब तप, संयम और ज्ञान का अभिमान भी महर्षियों ने त्याज्य कहा है, तब अपना बड़प्पन प्रकट करने के लिए दूसरों की निन्दा या अवज्ञा को प्रयत्नपूर्वक छोड़ ही देना चाहिए।" -सूत्रकृतांग नियुक्ति Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन-वेतालीय मुक्ति) की ओर गति-प्रगति करने के बजाय दीर्घकाल या महाकाल तक संसार-सागर में ही भटकता रहता है, अतः मुनि चाहे कितना ही क्रियाकाण्डी हो, आचारवान् हो, विशिष्ट कुल जाति में उत्पन्न हो, शास्त्रज्ञ हो, तपस्वी हो अथवा उच्च पदाधिकारी आदि हो, उसे मदावेश में किसी की निन्दा या तिरस्कार आदि नहीं करना चाहिए। दूसरों के दोष-दर्शन में पड़कर अपने आत्म-कल्याण के अमुल्य अवसर को खोना तथा पापपुंज इकट्ठा करके अनन्त संसार परिभ्रमण करना है। यही इस गाथा का आशय है। उत्कर्ष और अपकर्ष के समय सम रहे-एक साधु अपनी भूतपूर्व गृहस्थावस्था में चक्रवर्ती राजा, मन्त्री या उच्च प्रभुत्व सम्पन्न पदाधिकारी था। दूसरा एक व्यक्ति उसके यहाँ पहले नौकरी करता था, अथवा वह उसके नौकर का नौकर था, किन्तु प्रबल पुण्योदयवश वह संसार से विरक्त होकर मुनि बन गया और उसका मालिक या ऊपरी अधिकारी कुछ वर्षों बाद मुनि बनता है। अब वह अपनी पूर्व जाति कुल आदि की उच्चता के मद में कुसंस्कारवश अपने से पूर्व दीक्षित (अपने भूतपूर्व दास) के चरणों में वन्दननमन करने में लज्जा करता है, कतराता है, अपनी हीनता महसूस करता है, यह ठीक नहीं है। इसीलिए सूत्र गाथा 113 में कहा गया है-"ज यावि अणायगे सियाणो लज्जे / " इस गाथा का यह आशय भी हो सकता है जो पहले किसी प्रभुत्वसम्पत्र व्यक्ति के नौकर का नौकर था, वह पहले मुनि-पदारूढ़ हो जाने पर अपने भूतपूर्व प्रभुत्व सम्पन्न, किन्तु बाद में दीक्षित साधु द्वारा वन्दना किये जाने पर जरा भी लज्जित न हो, अपने में हीन-भावना न लाये, अपने को नीचा न माने / __'समयं सयाचरे'- इसीलिए अन्त में, दोनों कोटि के साधकों को विवेक सूत्र दिया गया है कि वे दोनों सदैव समत्व में विचरण करे। 'मुनि-पद' समता का मार्ग है, इसलिए वह कभी हीन तो हो हो नहीं सकता। वह तो सर्वदा, सर्वत्र विश्ववन्द्य पद हैं. उसे प्राप्त कर लेने के बाद तो भूतपूर्व जाति, कुल आदि सब समाप्त हो जाते हैं। वीतराग मुनीन्द्र के धर्म संघ में आकर सभी साधु समान हो जाते हैं। इसीलिए मदावेश में आकर कोई साधु अपने से जाति आदि से हीन पूर्व दीक्षित साधु का न तो तिरस्कार करे, न ही उसको वन्दनादि करने में लज्जित हो। इसी कारण समयं सयाचरे' का अर्थ यह भी सम्भव है-समय-जैन सिद्धान्त पर या साध्वाचार पर सदा चले।' साधक में उत्कर्ष तो मदजनित है ही, अपकर्ष भी दूसरे के वृद्धिगत उत्कषं मद को देखकर होता है, इसलिए यह भी मदकारक होता है। क्योंकि ऐमा करने से कषायवश अधिक पाप कर्मबन्ध होगा, इसलिए समभाव या साधुत्व (संयम) में विचरण करना चाहिए। मान और अपमान दोनों ही साधु के लिए त्याज्य है।'' 3 (क) सूत्रकृमांग शीला कवृत्ति, पृ० 61 के आधार पर (ख) तुलना कीजिये--अहंकारं बलं दर्य कामं क्रोधं च संश्रिताः / मामात्मपरदेहेषु प्रहिषम्नोऽभ्यसूयकः // 18 // तानहं द्विषत: क्रूरान् संसारेषु नराधमान् / क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु // 16 // -मीता० अ० 15/15-16 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० 61 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या, पृ० 322 से 326 के आधार पर Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 द्वितीय उद्देशक : गाथा 114 से 118 समताधर्भ उपदंश 114 सम अन्नयरम्मि संजमे, संसुद्ध समणे परिवए। जे आवक हा समाहिए, दविए कालमकासि पंडिए // 4 // 115 दूरं अणुपस्सिया मुणो, तीतं धम्ममणागयं तहा। पुढे फरसेहिं माहणे, अवि हण्णू समयंसि रोयति / / 5 / / 116 पण्णसमत्ते सदा जए, समिया धम्ममुदाहरे मुणी। सुहुमे उ सदा अलूसए, णो कुज्झे पो माणि माहणे // 6 // 117 बहुजणणमणम्मि संवुडे, सवठेहि गरे अणिस्सिते / हरए ब सया अणाविले, घम्म पादुरकासि कासवं // 7 // 118 बहबे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समयं उबेहिया। जे मोणपदं उठ्ठिते, विरति तत्थमकासि पंडिते // 8 // 114. सम्यक् प्रकार से शुद्ध श्रमण जीवनपर्यन्त (पाँच प्रकार के चारित्र संयम में से) किसी भी एक संयम (संयम स्थान) में स्थित होकर समभाव के साथ प्रब्रज्या का पालन करे। वह भव्य पण्डित ज्ञानादि समाधि से युक्त होकर मृत्यु काल तक संयम पालन करे। 115. मुनि (तीनों काल की गतिविधि पर मनन करने वाला) मोक्ष (दूर) को तथा जीवों को अतीत एवं अनागतकालीन धर्म-जीवों के स्वभाव को देखकर (जानकर) कटोर वाक्यों या लाठी आदि के द्वारा स्पर्श (प्रहार) किया जाता हुआ अथवा हनन किया (मारा) जाता हुआ भी समय में-(संयम में) विचरण करे। 116. प्रज्ञा में परिपूर्ण मुनि सदा (कषायों पर) विजय प्राप्त करे तथा समता धर्म का उपदेश दे। संयम का विराधक न हो / माहन (साधु) न तो क्रोध करे, न मान करे। 117. अनेक लोगों द्वारा नमस्करणीय-वन्दनीय अर्थात् धर्म में सावधान रहने वाला मुनि समस्त (बाह्याभ्यन्तर) पदार्थों या इन्द्रिय-विषयों में-अप्रतिबद्ध होकर ह्रद–सरोवर की तरह सदा अनाविल (निर्मल) रहता हआ काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर के धर्म-समता धर्म को प्रकाशित-प्रकट करे। 118. बहुत से प्राणी पृथक्-पृथक् इस जगत् में निवास करते हैं। अतः प्रत्येक प्राणी को समभाव से सम्यक् जान-देखकर जो मुनिपद संयम में उपस्थित-पण्डित साधक है, वह उन प्राणियों की हिंसा से विरति-निवृत्ति करे। विवेचन-समता-धर्म की आराधना के विविध पहल-प्रस्तुत पंचसूत्री (114 से 118 तक) में साधु को समता धर्म कहाँ-कहाँ, किस-किस अवसर पर कैसे-कैसे पालन करना चाहिए? इस पर सम्यग् प्रकाश डाला गया है / जो सरल सुबोध है / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय ___ कठिन शब्दों को व्याख्या--अन्नयरंमि संजमे सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात। इन पाँचों में से किसी एक संयम में या संयम में 6 प्रकार का तारतम्य होने से 6 स्थानों में से किसी भी संयम स्थान में स्थित होकर / समणे-सम, श्रम (तप) एवं शम करने वाला या सममना। आवकहा=यावतकथा--जहाँ तक देवदत्त, यज्ञदत्त इस प्रकार के नाम की कथा चर्चा हो, वहाँ तक, यानी जीवन की समाप्ति तक / समाहिए=सम्यक् रूप से ज्ञानादि में आत्मा को स्थापित करने वाला अथवा समाधिभाव-शुभ अध्यवसाय से युक्तः / दूरं =अति दूर होने के कारण, दर का अर्थ मोक्ष किया गया है / अथवा सुदूर अतीत एवं सुदूर भविष्य काल को भी 'दूरं' कहा जा सकता है / धम्म = जीवों के उच्चनीच स्थान गति रूप अतीत-अनागत धर्म यानी स्वभाव को। 'अविहष्णू' =प्राणों से वियुक्त किये जाने पर भी / समयंमि रीयइ समता धर्म में या संयम में विचरण करे / पण्णसमत्ते= प्रज्ञा में समाप्त पूर्ण अथवा पटु प्रज्ञावाला / वृत्तिकार द्वारा सूचित पाठान्तर है-पेण्हसमत्थे इसके दो अर्थ किये गये हैंप्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ अथवा जिसके प्रश्न (संशय) समाप्त हो गये हों वह संशयातीत-समाप्त प्रश्न / 'समयाधम्ममुदाहरे-समताधर्म का कथन-प्ररूपण करे अथवा समता धर्म का उदाहरण-आदर्श प्रस्तुत स्थापित करे / चूर्णिकार--समिया धम्ममुदाहरेज्ज= इस प्रकार का पाठान्तर स्वीकार करके व्याख्या करते हैं-समिता णाम सम्मं धम्म उदाहरे ज्ज= अर्थात् समिता यानी सम्यक् धर्म का उपदेश करे। सुहमेउ सदा अल्सए सूक्ष्म अर्थात् संयम में सदा अविराधक रहे / बहुजण जमणमि-बहुत-से लोगों द्वारा नमस्करणीय धर्म में / अणाबिले-अनाकुल-अकलुष हृदय की तरह क्रोधादि से अक्षब्ध अनाकुल, अथवा चर्णिकार के अनुसार-- स्णाइल इति निरुवाश्रवः अणातुरो न म्लायति धर्म कथयन् =अर्थात् अनाविल का अर्थ है जिसने आश्रवों को निरोध कर लिया है, जो अनातुर होगा, वही क्षमादि रूप धर्म का धर्मोपदेश देता हुआ नहीं घबरायेगा। समयं उवेहिया समता माध्यस्थ्य वृत्ति या आत्मौपम्य भाव धारण करके अथवा पाठान्तर है 'समोहिया उसके अनुसार अर्थ होता है - स्वयम-आत्मरूप जान-देखकर / अथवा प्रत्येक की अप्रियता एवं सुख की प्रियता समान भाव से जानकर / मौणपदं-मौनीन्द्र-तीर्थंकर के पद-पथसंयम में अथवा आचारांग के अनुसार साम्य या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप मौन-पद में / परिग्रह त्याग-प्रेरणा 116. धम्मस्स य पारए मुणो, आरंभस्स य अंतए ठिए। सोयंति य णं ममाइणो, नो य लभंति णियं परिग्गहं // 6 // 120. इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं / विद्धसणधम्ममेव तं, इति विज्जं कोऽगारमावसे // 10 // 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 61 से 63 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुषबोधिनी व्याख्या 328 से 335 पृष्ठ तक (ग) सूयगडंग चूणि (जम्बूविजयजी सम्पादित टिप्पण) पृ० 21 (अ) पण्हसमत्थे–समाप्तप्रश्न इत्यर्थः / (ब) सदाजतेत्ति-ज्ञानवान अप्रमत्तश्च / (स) अणाइले हरदेत्ति--पदम महापद्मादयो वा ह्रदा अनाकुला:, क्रोधादीहि वा अणाइलो, अथवा अणाइल इति निरुद्धाश्रवः अनातुरो, न म्लायति धर्म कथयन् / " Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 116 से 120 137 119. जो पुरुष धर्म का पारगामी और आरम्भ के अन्त (अभाव) में स्थित है, (वही) मुनि है / ममत्वयुक्त पुरुष (परिग्रह का) शोक (चिन्ता) करते हैं, फिर भी अपने परिग्रह (परिग्रह रूप पदार्थ) को नहीं पाते। 120. (सांसारिक पदार्थों और स्वजन वर्ग का) परिग्रह इस लोक में दुःख देने वाला है और परलोक में भी दुःख को उत्पन्न करने वाला है, तथा वह (ममत्व करके गृहीत पदार्थ समूह) विध्वंसविनश्वर स्वभाव वाला है, ऐसा जानने वाला कौन पुरुष गृह-निवास कर सकता है ? विवेचन-परिग्रह-त्याग : क्यों और किसलिए? प्रस्तुत त्रि-सूत्री में परिग्रह त्याग को प्रेरणा दी गई है / सूत्रगाथा 116 में सच्चे अपरिग्रही मुनि की दो अर्हताएँ बतायी हैं-(१) जो श्रुतचारित्र रूप धर्म के सिद्धान्तों में पारंगत हो, (2) जो आरम्भ के कार्यों से दूर रहता है। जो इन दो अर्हताओं से युक्त नहीं है, अर्थात् जो मुनि धर्म के सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है, आरम्भ में आसक्त रहता है, धर्माचरण करने में मन्द रहता है, वह इष्ट पदार्थों और इष्टजनों को 'वे मेरे हैं, उन पर मेरा स्वामित्व या अधिकार है, इस प्रकार ममत्व करता है, उनके वियोग में झूरता रहता है, शोक करता है, किन्तु वे पदार्थ उनके हाथ में नहीं आते। तात्पर्य यह है कि इतनी आकुलता-व्याकुलता करने पर भी वे उस पदार्थ को प्राप्त नहीं कर पाते / इसीलिए कहा गया है-'धम्मस्स य पारए""नो य लभंति णियं परिग्गहं / " ___ इस गाथा का यह अर्थ भी सम्भव है-जो मुनि धर्म में पारंगत है, और आरम्भ कार्यों से परे है, उसके प्रति ममत्व और आसक्ति से युक्त स्वजन उसके पास आकर शोक, विलाप और रुदन करते हैं, उस साधु को ले जाने का भरसक प्रयत्न करते हैं, परन्तु वे अपने माने हुए उस परिग्रहभूत (ममत्व के केन्द्र) साधु को नहीं प्राप्त कर सकते, उसे वश करके ले जा नहीं सकते। परिग्रह उभयलोक में दुःखद व विनाशी होने से त्याज्य-इस सूत्र गाथा 120 में परिग्रह क्यों त्याज्य है ? इसके कारण बताये गये हैं--(१) सांसारिक पदार्थ और स्वजन वर्ग के प्रति परिग्रह (ममत्व) रखता है, वह इस लोक में तो दुःखो होता ही है, परलोक में भी दुःख पाता है / (2) परिग्रहीत सजीवनिर्जीव सभी पदार्थ नाशवान हैं। यह जानकर कौन विज्ञ पुरुष परिग्रह के भण्डार गृहस्थवास में रह सकता है ? अर्थात् परिग्रह का आगार गृहस्थवास पूर्वोक्त कारणों से त्याज्य ही है। इह लोक में परिग्रह दुःखदायी है—धन, सोना-चाँदी, जमीन, मकान आदि निर्जीव पदार्थों का परिग्रह (ममत्व) इस लोक में चार कारणों से दुःखदायक होता है-(१) पदार्थों को प्राप्त करने में, (2) फिर उनकी रक्षा करने में, (3) उनके व्यय में दु:ख तथा (4) उनके वियोग में दुःख। 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 63 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 336 8 (क) अर्थानामजने दुःखजितानां च रक्षणे / आये दुःखं व्यये दुःखं धिमर्थाः कष्टसंश्रयाः / / (ख) राजतः सलिलादग्नेश्चौरतः स्वजनादपि / नित्यं धनवता भीतिर्दश्यते भुवि सर्वदा // -नीतिकार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय इसी प्रकार माता-पिता आदि स्वजनों के प्रति ममत्व (परिग्रह) भी दुःखदायी है, क्योंकि रोग, कष्ट, निर्धनता, आफत आदि के समय स्वजनों से लगाई हुई सहायता, तथा मोत, संकट आदि के समय सुरक्षा की आशा प्रायः सफल नहीं होती, क्योंकि संसार में प्रायः स्वार्थ का बोलबाला है। स्वार्थपूर्ति न होने पर स्वजन प्रायः छोड़ देते हैं। परलोक में भी परिग्रही दुःखदायो-इहलोक में इष्ट पदार्थों पर किये गये राग के कारण जो कर्मबन्धन हुआ, उसके फलस्वरूप परलोक में भी नाना दुःख भोगने पड़ते हैं। उन दुःखों को भोगते समय फिर शोक, चिन्ता या विषाद के वश नये कर्मनन्धन होते हैं, फिर दुःख पाता है, इस प्रकार दुःखपरम्परा बढ़ती जाती है। गृहवास : परिग्रह भण्डार होने से गृहपाश हैं-शास्त्रकार ने स्पष्ट कह दिया-इति विज्जा कोऽगारमावसे ?-आशय यह है कि परिग्रह को उभयलोक दुःखद एवं विनाशवान जानकर कौन विज्ञ परिग्रह के भण्डार गृहस्थ में आवास करेगा ? कौन उस गृहपाश में फंसेगा? अतिपरिचय-त्याग-उपदेश---- 121 महयं पलिगोव जाणिया, जा वि य वंदण-पूयणा इहं। सुहमे सल्ले दुरुधरे, विदुमं ता पयहेज्ज संथवं / / 11 // 121. (सांसारिकजनों का) अतिपरिचय (अतिसंसर्ग) महान् पंक (परिगोप) है, यह जानकर तथा (अतिसंसर्ग के कारण प्रबजित को राजा आदि द्वारा) जो वंदना और पूजा (मिलती) है उसे भी इस लोक में या जिन-शासन में स्थित विद्वान् मुनि (वन्दन-पूजन को) गर्वरूप सूक्ष्म एवं कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य (तीर) जानकर उस (गर्वोत्पादक) संस्तव (सांसारिकजनों के अतिपरिचय) का परित्याग करे। विवेचन-अतिपरिचय : कितना सुहावना, कितना भयावना ? प्रस्तुत सूत्र में सांसारिक जनों के अतिपरिचय के गुण-दोषों का लेखा-जोखा दिया गया है। सांसारिक लोगों के अतिपरिचय को शास्त्रकार ने तीन कारणों से त्याज्य बताया है-(१) गाढ़ा कीचड़ है, (2) साधु को वन्दना-पूजा मिलती है, उसके कारण साधु-जीवन में गर्व (ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव) का तीखा और बारीक तीर गहरा घुस जाता है कि उसे फिर निकालना अत्यन्त कठिन होता है यद्यपि अपरिपक्व साधु को धनिकों और शासकों आदि का गाढ़ संसर्ग बहुत मीठा और सुहावना लगता है, अपने भक्त-भक्ताओं के अतिपरिचय के प्रवाह में साधु अपने ज्ञान-ध्यान, तप-संयम और साधु-जीवन की दैनिकचर्या से विमुख होने लगता है, भक्तों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा और प्रसिद्धि, भक्ति और पूजा से साधु के मन में मोह, अहंकार और राग घुस जाता है, जो भयंकर कर्मबन्ध का कारण है। इसीलिए इसे गाढ़ कोचड़ एवं सूक्ष्म तथा दुरुद्धर शल्य की उपमा दी है / अतः साधु अतिपरिचय को साधना में भयंकर विघ्नकारक समझकर प्रारम्भ में ही इसका त्याग करे / यह इस गाथा का आशय है।' 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 63 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 337 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 121 139 महयं पलिगोव जाणिया--सांसारिकजनों का अति परिचय साधकों के लिए परिगोप है-पंक (कीचड़) है। परिगोप दो प्रकार का है-द्रव्य-परिगोप और भाव परिगोप / द्रव्यपरिगोप कीचड़ को कहते हैं, और भावपरिगोप कहते हैं आसक्ति को। इसके स्वरूप और परिणाम को जानकर"। जैसे कीचड़ में पैर पड़ने पर आदमी या तो फिसल जाता है या उसमें फंस जाता है, वैसे ही सांसारिकजनों के अतिपरिचय से ये दो खतरे हैं। जावि वंदणपूयणा इह-मुनि धर्म में दीक्षित साधु के त्याग-वैराग्य को देखकर बड़े-बड़े धनिक, शासक, अधिकारी लोग उसके परिचय में आते हैं, उसकी शरीर से, वचन से वन्दना, भक्ति, प्रशंसा की जाती है और वस्त्रपात्र आदि द्वारा उसकी पूजा-सत्कार या भक्ति की जाती है। अधिकांश साधु इस वन्दना एवं पूजा से गर्व में फूल जाते हैं / यद्यपि जो वन्दना-पूजा होती है वह जैन सिद्धान्तानुसार कर्मोपशमजनित फल मानी जाती है अतः उसका गवं न करो। नागार्जुनीय पाठान्तर--यहाँ वृत्तिकार एक नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर सूचित करते हैं पलिमथ महं विजाणिया, जा वि य वंदनपूयणा इधं / सुहुमं सल्लं दुरुल्लस, तं पि जिणे एएण पंडिए / अर्थात्-स्वाध्याय-ध्यानपरायण एवं एकान्तसेवी निःस्पृह साधु का जो दूसरों-सांसारिक लोगों द्वारा वन्दन-पूजनादि रूप में सत्कार किया जाता है वह भी साधु के धर्म के सदनुष्ठान या सद्गति में महान् पलिमन्थ-विघ्न है, तब फिर शब्दादि विषयों में आसक्ति का तो कहना ही क्या ? अतः बुद्धिमान् साधक इस दुरुद्धर सूक्ष्म शल्य को छोड़ दें।" चूर्णिकार 'महयं पलिगोव जाणिया' के बदले 'महता पलिगोह आणिया' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं - "परिगोहो जाम परिष्वंगः "भावे अभिलाषो बाह्यभ्यन्तरवस्तुषु / " अर्थात् परिगोह कहते हैं—परिष्वंग (आसक्ति) को, द्रव्यपरिगोह पंक है, जो मनुष्य के अंगों में चिपक जाता है, भावपरिगोह है-बाह्यआभ्यन्तर पदार्थों की अभिलाषा-लालसा / " __इसी आशय को बोधित करने वाली एक गाथा सुत्तपिटक में मिलती है। उसमें भी सत्कार को सूक्ष्म दुरुह शल्य बताया गया है / 12 10 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति. पत्रांक 64 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 340-341 11 (क) सूत्रकृतांग चूणि पृ० 63 (ख) सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका आ० 1 पृ० 460-461 पंड्कोति हि नं पवेदयु यायं, वन्दनपूजना कुलेसु / सुखुमं सल्लं दुरुन्वहं सक्कारो कापुरिसेन दुज्जहो / -सुत्त पिटक खुद्दकनिकाये थेरगाथा 263, 314,372 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय एकलविहारीमुनि-चा-- 122 एगे चरे ठाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया। भिक्खू उवधाणवीरिए, वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे // 12 // 123 णो पोहे णावऽवंगुणे, दारं सुन्नघरस्स संजते / पुट्ठो ण उदाहरे वयं, न समुच्छे नो य संथरे तणं // 13 // 124 जत्थऽथमिए अणाउले, सम-विसमाणि मुणीऽहियासए। चरगा अदुवा वि भेरवा, अदुवा तत्थ सिरीसिवा सिया॥ 14 // 125 तिरिया मणुया य दिवगा, उवसग्गा तिविहाऽधियासिया। लोमादीयं पि ग हरिसे, सुन्नागारगते महामुणी / / 15 / / 126 णो अभिकंखेज्ज जीवियं, णो वि य पूयणपत्थए सिया। अन्भत्थमुवेंति भेरवा, सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो // 16 // 127 उवणीततरस्स ताइणो, भयमाणस्स विवित्तमासणं। सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाणं भए ण दसए // 17 // 128 उसिणोदगतत्तभोइणो, धम्मठ्ठियस्स मुणिस्स होमतो। संसग्गि असाहु रायिहिं, असमाही उ तहागयस्स वि // 18 // 122. भिक्षु वचन से गुप्त और अध्यात्म-संवृत (मन से गुप्त) तथा तपोबली (उपधान-वीर्य) होकर अकेला (द्रव्य से सहायरहित एकाकी, और भाव से रागद्वेष रहित) विचरण करे / कायोत्सर्ग, आसन और शयन अकेला ही करता हुआ समाहित (समाधियुक्त धर्मध्यान युक्त होकर) रहे / 123. संयमी (साधु) सूने घर का द्वार न खोले और न ही बन्द करे, किसी से पूछने पर (सावद्य) वचन न वोले, उस मकान (आवासस्थान) का कचरा न निकाले, और तृण (घास) भी न बिछाए / 124. जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं मुनि क्षोभरहित (अनाकुल) होकर रह जाए। सम-विषम (कायोत्सर्ग, आसन एवं शयन वं शयन आदि के अनकल या प्रतिकल) स्थान हो तो उसे सहन करे। वहाँ यदि डांस-मच्छर आदि हो, अथवा भयंकर प्राणी या सांप आदि हों तो भी (मुनि इन परीषहों को सम्यक् रूप से सहन करे।) 125. शून्य गृह में स्थित महामुनि तिर्यञ्चजनित, मनुष्यकृत एवं देवजनित त्रिविध उपसर्गों को सहन करे / भय से रोमादि-हर्षण (रोमांच) न करे। ___ 126. (पूर्वोक्त उपसर्गों से पीड़ित साधु) न तो जीवन की आकांक्षा करे और न ही पूजा का Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 122 से 128 141 प्रार्थी (सत्कार-प्रशंसा का अभिलाषी) बने / शून्यगृह-स्थित (जीवन-मरण और पूजा से निरपेक्ष) भिक्षु को (धीरे-धीरे) भैरव (भयंकर) प्राणी अभ्यस्त-सह्य हो जाते हैं। 127. जिसने अपनी आत्मा को ज्ञानादि के समीप पहुंचा दिया है, जो त्रायी (अपना और दूसरों का उपकार कर्ता या त्राता) है, जो स्त्री-पशु-नपुसक-संसर्ग से रहित विविक्त (विजन) स्थान का सेवन करता है तथा जो अपनी आत्मा में भय प्रदर्शित नहीं करता उस साधु का जो चारित्र है, उसे तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र कहा है। 128. गर्मजल को गर्म (बिना ठंडा किये) ही पीने वाले, (श्रु न-चारित्र-रूप) धम में स्थित (स्थिर) एवं (असंयम से) लज्जित होने वाले मुनि को राजा आदि से संसर्ग करना अच्छा नहीं है / (क्योंकि वह) उक्त प्रकार के शास्त्रोक्त आचार-पालन में स्थित तथागत मुनि का भी समाधिभंग करता है। विवेचन-एकाकी-विचरणशील साधु की आचार-संहिता-प्रस्तुत सप्तसूत्री (सूत्रगाथा 122 से 128 तक) में एकाकी विचरणशील विशिष्ट साधु की योग्यता एवं आचार संहिता की झांकी दी गई है। वह 22 सूत्री आचार संहिता इस प्रकार है (1) एकचारी साधु स्थान (कायोत्सर्गादि), आसन और शयन अकेला ही करे, (2) सभी परिस्थितियों में समाधियुक्त होकर रहे, (3) मनोगुप्त, वाग्गुप्त और तपस्या में पराक्रमी हो, (4) शून्यगृह का द्वार न खोले, न बन्द करे, (5) प्रश्न का उत्तर न दे, (6) मकान का कचरा न निकाले, (7) वहाँ घास भी न बिछाएँ, (8) जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं क्षोभरहित होकर ठहर जाए, (6) अनुकूलप्रतिकूल आसन, शयन और स्थान को सहन करे, (10) वहाँ डांस-मच्छर आदि का उपद्रव हो या भयंकर राक्षस आदि हों, अथवा सर्प आदि हो तो भी समभावपूर्वक सहन करे, (11) शून्यागार स्थित साधु दिव्य, जो मानुष और तिर्यंचगत उपसर्ग आएँ उन्हें सहन करे, (12) भय से जरा भी रोंगटे खड़े न होने दे, (13) भयंकर उपसर्ग-पीड़ित होने पर न तो जीने की इच्छा करे नहीं पूजा प्रार्थी हो, (14) शून्यगृह स्थित साध के सतत अभ्यास से भयंकर प्राणी भी सह्य हो जाते हैं। (15) अपनी आत्मा ज्ञानादि में स्थापित करे (16) स्व-परत्राता बने, (17) विविक्तासनसेवी हो, (18) अपनी आत्मा में भय का संचार न होने दे (16) उष्णोदक, गर्म जल पीए, (20) श्रुत-चारित्र धर्म में स्थित रहे, (21) असंयम से लज्जित हो, (22) शास्त्रोक्त आचारवान मुनि भी असमाधिकारक राजादि का संसर्ग न करे / ये मुख्य-मुख्य अर्हताएं हैं, जो एकाकीचर्याशील साधु में होनी चाहिए या उसे प्राप्त करनी चाहिए।" एकाकीचर्या : लाभ या हानि ?-प्रस्तुत सात गाथाओं में एकाकी विचरण की विशिष्ट साधना से सम्बन्धित निरूपण है। समूह के साथ साधु रहेगा तो उसे समूह को रीति-नीति के अनुसार चलना पड़ेगा / सामूहिक रूप से कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, शयन एवं आसन का उपयोग करना होगा। समूह में 13 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति मूल भाषानुबाद भा० 1 पृ० 244 से 250 तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 342 से 352 तक का सार Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालोय रहने पर गृहस्थों का सम्पर्क अधिक होगा, साधु को उनसे सम्मान, प्रतिष्ठा, कल्पनीय यथोचित साधन सुख-सुविधाएँ योग्य वस्त्र, पात्र, आवासस्थान आदि मिलने सम्भव है। ऐसे समय में वह साधु अगर सावधानी न रखे तो उसका जीवन संसर्गजनित दोषों और गर्वादि जनित अनिष्टों से बचना कठिन है। इसी दृष्टि से तथा उक्त दोनों दोषों से दूर रहकर साधु जीवन कीसमाधि और यथार्थ आनन्द प्राप्त करने हेतु शास्त्रकार ने एक विशिष्ट उच्च साधना-एकचर्या-साधना बताई है-एगे चरे ठाणमासणे सपणे एगे समाहिए / इस पंक्ति का आशय यह हैं कि इन सब दोषों तथा राग-द्वेष कषाय आदि से बचने के लिए साधु अकेला विचरण करे, अकेला ही कायोत्सर्ग करे, अकेला ही ठहरे-बैठे और अकेला ही शयन करे। यहां जितनी भी एकाकीचर्या बताई है, वहाँ द्रव्य और भाव दोनों से वह एकाकी होनी चाहिए। द्रव्य से एकाकी का मतलब है-दूसरे-साधु श्रावकवर्ग से सहायता लेने में निरपेक्ष / भाव से एकाकी का अर्थ है-राग-द्वेषादि दोषों से तथा जनसम्पर्क-जनित दोषों से रहित एकमात्र आत्मभावों में या आत्म गुणों में स्थित रहकर विचरण करना। अपना स्थान भी ऐसा चने, जो एकान्त. विजन. पवित्र, शान्त और स्त्री-पशु-नपुसक संसर्ग रहित हो। जिसके लिए शास्त्रकार ने आगे निर्देश किया है-'भयमाणस्स विवितमासणं' / यदि साधु एकल विहारी भी हो गया, किन्तु ग्राम के बाहर अथवा कहीं एकान्त में रहकर भी अपना अखाडा जमाना शुरु कर दिया, जनता की भीड वहाँ भी आने लगी, अथवा वह स्थान एकान्त में होते हुए भी मुर्दाघाट है या गन्दगी (मल-मूत्र) डालने का स्थान है तो वह भी ठीक नहीं। अथवा एकान्त होते हुए भी वहाँ आस-पास कल-कारखानों का या अन्य कोई कोलाहल होता है, अथवा वह पशुओं को बांधने का बाड़ा हो, अथवा किसी स्त्री या नपुसक का वहाँ रात्रिकाल में आवागमन होता हो तो वह विविक्त नहीं कहलाता, अपवित्र, अशान्त, कोलाहल युक्त या स्त्री-पशु-नपुसक संसक्त जन समुदाय के जम घट वाले स्थान में रहने से साधु के एकाकीचर्या की साधना स्वीकार करने का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। वहाँ उसके स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि साधना में विक्षेप पड़ेगा लौकिक स्वार्थ वश सांसारिक लोगों का जमघट शुरू हो गया तो साधु को उनके झमेले से ही अवकाश नहीं मिल पाएगा इन सब खतरों से बचे रहने के लिए एकचर्या के विशिष्ट साधक को यहाँ सावधान किया है। १२८वीं गाथा में इसी बात को स्पष्ट कर दिया है-'संसग्गी असाहु रायिहिं ।'-अर्थात् राजा आदि राजनीतिज्ञों या सत्ताधारियों के साथ संसर्ग ठीक नहीं है, वह आचारवान् साधु के लिए असमाधिकारक है / 14 एकांकीचर्या के योग्य कौन और कौन नहीं ?--एकाकी विचरण करने वाले साधु को कठोर साधना करनी पड़ती है, क्योंकि एकाकी विचरण-साधना अंगीकार करने के बाद जरा-सी स्थान की, आहारपानी की असुविधा हुई, सम्मान-सत्कार में लोगों की अरुचि देखी कि मन में उचाट आ गया, अथवा वाणी में रोष, कठोरता एवं अपशब्द आ गये, या किसी सूने घर में ठहर जाने पर भी वहाँ किसी प्रकार का देवी, मानुषी, या पाशविक उपद्रव खड़ा हो गया, तो साधु की समाधि भंग हो जायेगी, मन में रागद्वष-मोह का उफान आने लागेगा। दशाश्रु तस्कन्ध में कहा है~-उक्त बीस असमाधि स्थानों से दूर रहकर श्रुत, विनय, आचार एवं तप, इन चार प्रकार की समाधि में स्थित रहना चाहिए। वस्तुतः एकचर्या का लाभ उसी को मिल सकता है, जो पहले अपने आपको एकचर्या के योग्य बना ले / अन्यथा, 14 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या प० 343-344 के आधार पर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्दशक : माया 122 से 128 143 एकचर्या से लाभ के बदले हानि ही अधिक उठानी पड़ सकती है / 15 चित्त समाधि युक्त साधक की इस प्रकार की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी हो सकती है। इसलिए इन सूत्रगाथाओं में एकचारी साधक में 12 विशिष्ट गुणों का होना अनिवार्य बताया है (1) वह समाधियुक्त हो, (2) वचनगुप्ति (मौन या विवेकपूर्वक अल्प भाषण) से युक्त हो, (3) मन को भी राग-द्वेष-कषायोत्पादक विचारों से रोककर (संवृत-गुप्त) रखे, (4) बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करने में शक्तिशाली (पराक्रमी) हो, (5) भिक्षणशील हो, (6) जीने की आकांक्षा (प्राणों का मोह) न हो, (7) पूजा-प्रतिष्ठा की चाह न हो, (8) सभी प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने में सक्षम हो, (8) भय से रोमांच या अंग विकार न हो, (10) अपनी आत्मा में परीषहोपसर्ग जनित भय का भूत खड़ा न करे और (11) श्रुत-चारित्रधर्म या मुनिधर्म में स्थिर रहे तथा (12) असंयम के कार्य करने में लज्जित हो। इसके अतिरिक्त एकचारी साधु के लिए अहिंसादि की दृष्टि से कुछ कठोरचर्याओं का भी निर्देश किया है (1) शून्यगृह का द्वार म खोले, न बंद करे-- वर्षों से बिना सफाई किये पड़े हुए जन शून्य मकान में जाले जम जाते हैं, मकड़ी आदि कई जीव आकर बसेरा कर लेते हैं, चिड़िया-कबूतर आदि पक्षी भी, छिपकली आदि भी वहाँ अपना घोंसला बना लेते हैं, अण्डे दे देते हैं, साँप विच्छू आदि विषले जन्तु भी वहाँ अपना डेरा जमा लेते हैं / कीड़े वहाँ रेंगते रहते हैं। इसलिए साधु वर्षा, सर्दी या गर्मी का परीषह सह ले, किन्तु उसके द्वार को न तो खोले, न बन्द करे, यह निर्देश किया गया है। (2) न सफाई करे, न घास बिछाए-साथ ही उस दीर्घकाल से सूने पड़े हुए मकान की सफाई (प्रमार्जन) करने और घास बिछाने का निषेध इसलिए किया गया है कि वहाँ रहने वाले जीव-जन्तुओं की इससे विराधना होगी। (3) पूछने पर बोलते नहीं-साधु को कायोत्सर्ग में सूने घर में खड़े देख बहुत से लोग उस पर चोर, डाकू, गुप्तचर, लुटेरा या अन्य अपराधी होने का सन्देह कर बैठते हैं, और उससे पूछते हैं-"कौन है ? कहाँ से आया है ?" इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं-पुट्ठण उदाहरे वयं / प्रश्न होता है-बिलकुल न बोलने पर लोग कदाचित् कुपित होकर मारें-पीटें, सताएँ, उस समय समभावपूर्वक सहन करने की शक्ति न हो तो मुनि क्या करें? यहाँ वृत्तिकार अभिग्रहधारी या जिनकल्पिक साधु के लिए तो निरवद्यवचन भी बोलने का निषेध करते हैं, किन्तु स्थविरकल्पी गच्छगत साधु के लिए व कहते हैं- "शून्य 15 (क) देखिये दशाश्रुतम्कन्ध में 20 असमाधिस्थान ।–दशाश्रुतस्कन्ध सू० 1-2 (ख) “चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता-तंजहा विणयसमाही, सुयसमाही, तवसमाही, आयारसमाही।" -दशव० अ०६, 3-4 (ग) .."इमाई दस चित्तसमाहिठाणाई असमुप्पण्णपुवाई समुपज्जेज्जा (1) धम्मचिंता"(२) सण्णिजाइस रणेणं "(3) सुमिणदसणे" (4) देवदसणे. (5). "ओहिणाणे... (6) ओहिदसणे"(७) मणपज्जवणाणे".. (8) केवलणाणे"""(६) केवलदसणे", (10) केवलमरणे वा।" -दशा० श्रु० दशा 5 सू० 6 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय आगार में या अन्यत्र स्थित (स्थविरकल्पी) साधु से यदि कोई धर्म आदि के सम्बन्ध में या मार्ग अथवा परिचय पूछे तो सावद्य (समाप) भाषा न बोले।" (4) सूर्य अस्त हो जाए वहाँ शान्ति से रह जाए-इस निर्देश के पीछे यह रहस्य है कि रात के अंधेरे में सांप, बिच्छू आदि दिखाई न देने के कारण काट सकते हैं, हिंस्र वन्य पशु भी आक्रमण कर सकते हैं, चोर-लुटेरे आदि के सन्देह में वह पकड़ा जा सकता है, अन्य सूक्ष्म व स्थूल जीव भी पैर के नीचे आकर कुचले जाने सम्भव हैं। इसलिए सूर्यास्त होते ही वह उचित स्थान देखकर वहीं रात्रि-निवास करे। (5) प्रतिकूल एवं उपद्रव युक्त स्थान में समभाव से परीषह सहे-कदाचित् कोई ऊबड़-खाबड़ खुला या बिलकल बन्द स्थान मिल गया, जहाँ डांस, मच्छर आदि का उपद्रव हो. जंग जंगली जानवरों का भय हो, जहरीले जन्तु निकल आयें तो साधु व्याकुल हुए बिना शान्ति से उन परीषहों को सह ले। __(6) गर्म पानी गर्म-गर्म ही पीये-यह स्वाद-विजय एवं कष्टसहिष्णुता की दृष्टि से एकचारी साधुका विशिष्ट आचार बताया है। एकचर्या की विकट साधना का अधिकारी साधक-सूत्रगाथा 122 से 128 तक जो एकचर्या की विशिष्ट साधना, उसकी योग्यता तथा उस साधना की कुछ विशिष्ट आचार-संहिता को देखते हुए निःसन्देह कहा जा सकता है कि इस कठोर साधना का अधिकारी या तो कोई विशिष्ट अभिग्रहधारी साधु हो सकता है, या फिर जिनकल्पिक साधु / स्थविरकल्पी साधु के वश की बात नहीं है कि बह दैवी, मानुषी या तिर्यञ्चकृत उपसर्गों या विविध परीषहों के समय उक्त प्रकार से अविचल रह सके, भय से कांपे नही, जीवन का मोह या यश-प्रतिष्ठा की आकांक्षा का मन से जरा भी स्पर्श न हो। वृत्तिकार ने भी इसी बात का समर्थन किया है। इतनी विशिष्ट योग्यता कैसे आये? प्रश्न होता है-इतने भयंकर कष्टों, उपद्रवों एवं संकटों का सामना करने की शक्ति किसी भी साधक में एकदम तो आ नहीं सकते। कोई दैवी वरदान से तो यह शक्ति और योग्यता प्राप्त होने वाली नहीं, ऐसी स्थिति में एकचारी साधक में ऐसी क्षमता और योग्यता कैसे आ पायेगी ? शास्त्रकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं- 'अभयमुर्वेति भेरवा भिक्खुणे।" इसका आशय यह है कि ऐसा विशिष्ट साधक महामुनि जव जीने की आकांक्षा और पूजा-प्रतिष्ठा की लालसा का बिलकुल त्याग करके बार-बार शून्यागार में कायोत्सर्गादि के लिए जायेगा, वहाँ पूर्वोक्त दंश-मशक आदि के उपद्रव तथा भयंकर उपसर्ग आदि सहने का अभ्यास हो जायेगा, तब उसे ये सब उपसर्गकर्ता प्राणी आत्मीय मित्रवत् प्रतीत होने लगेंगे, और मतवाले हाथी के समान उसके मन पर 16 सूत्रकृतांग शीलांकत्ति पत्रांक 64 17 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 342 से 352 (ख) I....शून्यागारगत: शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात पितृवनादि स्थितो महामुनिजिनकरूपादिरिति / IJ तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद धर्मादिक मार्ग वा पृष्टः-सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेनन यात, आभिग्रहिको जिनकल्पादिनिरवद्यामपि न ब्रूयात् / "नाऽपि शयनार्थी कश्चिदाभिग्रहिकः तृणादिकं संस्तरेत् -तृगरपिसंस्तेरकं न कुर्यात् किं पुन: कम्बलादिना ? -सूत्रकृ० वृत्ति पत्रांक 64-65 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 126 145 शीत-उष्ण, दंश-मशक आदि परीषहों का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उसके लिए ये भयंकर परीषह या उपसर्ग सह्य हो जायगे। कठिन शब्दों की व्याख्या-ठाणं = कायोत्सर्ग, या एक स्थान में स्थित होना। उवधाणवीरिए= तपस्या में पराक्रमी / अज्झप्पसंखुडे = आत्मा में लीन अथवा मनोगुप्ति से युक्त / णो पोहे=न बन्द करे, णावंगुणे= नहीं खोले / ण समुच्छे- इसके दो अर्थ फलित होते हैं-वृत्तिकार ने व्याख्या की है—न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत् - अर्थात्-घास-तिनके एवं कचरा झाड़-बुहार कर निकालेहटाए नहीं / चरगा डांस, मच्छर आदि काटने वाले जीव / समविसमाई=अनुकूल-प्रतिकूल शयन, आसन आदि / मुणी-यथार्थ संस्कार का वेत्ता-मननकर्ता / महामुणी - जिनकल्पिक मुनि या उच्च अभिग्रहधारी साधक / समाहिए=वृत्तिकार के अनुसार--'विचरण-निवास, आसन, कायोत्सर्ग, शयन आदि विविध अवस्थाओं में राग-द्वेष रहित होने से ही समाहित-समाधियुक्त होता है।' चर्णिकार के अनुसार- 'एकाकी विचरण समाहित अर्थात्-आचार्य, गुरु आदि से अनुमत होकर करे।' तिविहाऽधिवासिया-तीनों प्रकार के उपसर्गों को सम्यक् सहन करे। चूर्णिकार 'तिविहावि सेविया' पाठान्तर मानते हैं। अब्भत्यमुर्वेति भेरवा= भयानक परिषह-उपसर्ग (उपद्रव) आदि अभ्यस्त--आसेवित या सुसह हो जाते हैं। उवणीततरस्स-जिस साधक ने अपनी आत्मा ज्ञानादि के निकट पहुँचा दी है, उस उपनीततर साधु का / धम्मद्वियस्स=वृत्तिकार के अनुसार-धर्म में स्थित साधु के, चूर्णिकार के अनुसार -जिसका धर्म से ही अर्थ-प्रयोजन है, वह धर्मार्थी। असमाही उ तहागयस्स वि-शास्त्रोक्त आचारपालक साधू का भी राजा आदि के संसर्ग से असमाधि अर्थात् -अपध्यान ही सम्भव है। उसिणोदगतत्तभोइणो-तीन बार उकाला आये हुए गर्म जल का सेवन करने वाला अथवा उष्णजल को ठंडा न करके गर्म-गर्म ही सेवन करने वाला। होमतो= असंयम के प्रति लज्जावान् है / '8 उक्षणीयतरस्स" .........." अप्पागं भए ण दंसए-इसी गाथा से मिलती-जुलती गाथा बौद्ध-धर्म ग्रन्थ सुत्तपिटक में मिलती है। अधिकरण-विवर्जना 126 अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं / ___ अट्ठे परिहायती बहू, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए // 16 // 17 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 64-65 (ख) अब्भत्थमवेंति भेरवा=अभ्यस्ता नाम आसेविता"नीराजितवारणस्यैऽभैरवा एव भवन्ति / -सूत्रकृ० चूर्णि (मू० पा० टि०) पृ० 23 18 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 64-65 (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 22-23 16 तुलना-पतिलीनचरस्स भिक्खुनो भजमानस्स विवित्तमासनं / सामाग्गियमाह तस्स तं यो अत्तानं भवने न दस्सये। -सुत्तपिटके खुदकनिकाये सुत्तनिपाते अट्ठकवणे पृ० 364 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 126. जो साधु अधिकरण (कलह या विवाद) करता है, और हठपूर्वक या मुंहफट होकर भयंकर कठोर वचन बोलता है, उसका बहुत-सा अर्थ (संयमधन या मोक्षरूप प्रयोजन) नष्ट हो जाता है / इसलिए पण्डित (सद्-असद् विवेकी) मुनि अधिकरण न करे / विवेचन-अधिकरण निषेध-~-प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए अधिकरण सर्वथा वर्जनीय बताया है। इसके दो लक्षण बताये गये हैं-अधिकरणशील साधु रौद्रध्यान इा, रोष, द्वेष, छिद्रान्वेषण, कलह आदि पाप-दोष बटोरता है, (2) वह हपूर्वक प्रकट रूप में भयंकर कठोर वचन बोलता है। परिणाम-अधिकरण करने वाले साधु का बहुत-सा संयमधन लुट जाता है, अथवा उसका मोक्षरूप प्रयोजन सर्वथा नष्ट हो जाता है। कहा भी है "ज अज्जियं समोखल्लएहि तवनियमवंभमाइएहिं / माहु तयं कलहंता छड्डे अहसागपतेहि / / --चिरकाल तक कठोर तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य आदि बड़ी मुश्किल से जो सत्फल उपाजित किया है, उसे तुच्छ बातों के लिए कलह करके नष्ट मत करो, ऐसा पण्डितजन उपदेश देते हैं। अधिकरणकर का अर्थ--- बात को अधिकाधिक बढ़ा-चढ़ाकर करना, उसे बतंगड़ बना देना, और विवाद खड़ा करके कलह करना अधिकरण है। बात-बात में जिसका अधिकरण करने का स्वभाव हो जाता है, उसे 'अधिकरण कर' कहते हैं।० सामायिक-साधक का आचार 130 सीओदगपडिदुगुञ्छिणो, अपडिण्णस्स लवावसक्किणो। सामाइयमा तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुजती // 20 / / 131 न य संखयमाहु जीवियं, तह वि य बालजणे पगन्भती। बाले पावेहि मिज्जती, इति संखाय मुणी ण मज्जती / / 21 // 132 छदेण पलेतिमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलेति माहणे, सीउण्हं वयसाऽहियासए / / 22 / / 110 जो साधु ठण्डे (कच्चे अप्रासुक) पानी से घृणा (अरुचि करता है, तथा मन में किसी प्रकार की प्रतिज्ञा (सांसारिक कामना पूर्ति का संकल्प- निदान) नहीं करता, कर्म (बन्धन) से दूर रहता है. तया जो गृहस्थ के भाजन (वर्तन) में भोजन नहीं करता, उस साधु के समभाव को सर्वनों ने सामायिक (समतायोग) कहा है। 20 (क) सुत्रकृतांग समयार्थबोधिती टीका, भाग 1. पृ० 585 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 354 (ग) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० 66 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 130 से 132 147 131. जीवन संस्कार करने (जोड़ने) योग्य नहीं है ऐसा (सर्वज्ञों ने कहा है, तथापि अज्ञानीजन (पाप करने में) धृष्टता करता है। वह अज्ञजन (अपने बुरे कार्यों से उपजत पापों के कारण) पापी माना जाता है, यह जानकर (यथावस्थित पदार्थवेत्ता) मुनि मद नहीं करता। 132. बहुमायिक एवं मोह से प्रावृत (आच्छादित) ये प्रजाएँ (विभिन्न जाति के प्राणी) अपने स्वच्छन्दाचार के कारण नरक आदि गतियों में जाकर लीन (प्रविष्ट) होती हैं, किन्तु अहिंसा महाव्रती महामाहन (कपट रहित कर्म के कारण मोक्ष अथवा संयम में) प्रलोन होता है। और शीत (अनुकूल) और उष्ण (प्रतिकूल) परीषहों को मन-वचन-काया से सहता है। विवेचन-सामायिक-साधक के मौलिक आचारसूत्र-प्रस्तुत तीन गाथाओं में शास्त्रकार ने सामायिक साधक के कुछ मौलिक आचारसूत्र बताये हैं-(१) वह ठण्डे (कच्चे-अप्रासुक) जल से घृणा (अरुचि) करता है, (2) किसी भी प्रकार का निदान (सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति का संकल्प) नहीं करता (3) कर्मबन्धन के कारणों से दूर हट जाता है, (4) गृहस्थ के भाजन (बर्तन) में भोजन नहीं करता, (5) जीवन को क्षणभंगुर (असंस्कृत) जानकर मद (घमण्ड) नहीं करता, (6) स्वच्छन्दाचार, मायाचार एवं माह प्रवृत्ति के दुष्परिणाम जानकर इनसे राहत होकर संयमसाधना में लीन रहता है, (7) अनूकलप्रतिकूल परीषहों को मन-वचन-काया से समभावपूर्वक सहता है।" सीओदगडिदुगुञ्छिणो=शीतोदक-ठण्डे-अप्रासुक-सचित्त पानी के सेवन के प्रति जुगुप्सा-घृणा= अरुचि करने वाला / कैसा भी विकट प्रसंग हो, साधु जरा-सा भी अनासुक जल-सेवन करना पसन्द नहीं करता क्योंकि जल-जीवों को विराधना को वह आत्म-विराधना समझता है। अपडियणस्स-प्रतिज्ञा--किसी भी अभीष्ट मनोज्ञ कक-पारलौकिक विषय को प्राप्त करने का निदान रूप संकल्प (नियाणा) न करने वाला साध / 'लवावसविकणो'- शब्द का अर्थ है-लेशमात्र कर्मबन्धन से भी दूर रहने वाला। वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-- लवावसप्पिणो। व्याख्या की है-लवं कर्म तस्मात् अवसपिणः यदनुष्ठान कर्मबन्धोपादानरूपं तत्परिहारिण इत्यर्थः / अर्थात् - लव कहते हैं कर्म को, उससे अलग हट जाने वाला, अर्थात् जो कार्य कर्मबन्धन का कारण है, उसे जानते ही तुरन्त छोड़ देने वाला। वह लेशमात्र भी कर्मबन्धन के कारण के पास नहीं फटकता 22 'मिहिमत्त ऽसणं न भुजती' ---गृहस्थ के बर्तनों में भोजन नहीं करता। दशवैकालिक सूत्र में साधु को गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने का निषेध निम्नोक्त कारणों से किया है-- (1) पश्चारकर्म और पुरः कर्म को सम्भावना है, (2) बर्तनों को गृहस्थ द्वारा सचित्त जल से धोने और उस धोए हुए पानी को 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 का सारांश (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या 355-357 के आधार पर 22 (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 66 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ. 355 के आधार पर (ग) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 23 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 सूत्रकृताग--द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अयतनापूर्वक फेंकने से प्राणियों की हिंसा होती है, (3) गृहस्थ के कांसे आदि के बर्तनों में भोजन करने वाला श्रमण आचारभ्रष्ट हो जाता है। यही कारण है कि गृहस्थ के बर्तन में भोजन आदि करने से समत्वयोग भंग होता है। इति संखाय मुणी ण भज्जती-जीवन को क्षणभंगुर जानकर भी धृष्टतापूर्वक बेखटके पापकर्म में प्रवत्त होने वाल पापोजनो को जान-देखकर तत्त्वज्ञ मनि किसी प्रका नि किसी प्रकार का मद-घमण्ड नहीं करता। इसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है- ऐसी स्थिति में मुनि के लिए ऐसा मद करना (अभिमान या घमण्ड करना) पाप है कि इन बुरे कार्य करने वालों में मैं ही सत्कार्य करने वाला हूँ, मैं ही धर्मात्मा हूँ, अमुक मनुष्य तो पापी है, मैं उच्च क्रियापात्र हूँ, ये सब तो शिथिलाचारी हैं / असन्ध्येय-असंस्कृत जिन्दगी में मानव किस बूते पर अभिमान कर सकता है ?' अथवा इस पंक्ति का आशय यह भी हो सकता है-आयुष्य के क्षण नष्ट होते ही जीवन समाप्त हो जाता है, किसी का भी जीवन स्थायी और आयुष्य के टूटने पर जुड़ने वाला नहीं है, फिर कोई भी तत्त्वज्ञ विचारशील मुनि अपने पद, ज्ञान, विद्वत्ता, वक्तृत्वकला, तपश्चरणशक्ति, या अन्य किसी लब्धिउपलब्धि या योग्यता विशेष का मद (अभिमान) कैसे कर सकता है ? "छंदेण पले इमा पया'"वियडेण पलेंति माहणे" इस पंक्ति का आशय यह है कि अज्ञ-प्रजाजन अपनेअपने स्वच्छन्द आचार-विचार के कारण, तथा मायाप्रधान आचार के कारण मोह मे –मोहनीय कर्म से आवृत्त होकर नरकादि गतियों में जाते हैं / स्वत्वमोह से उनकी बुद्धि आवृत्त हो जाने से वे लोग 'अग्निष्टोमीयं पशुमालभेत' इत्यादि श्रुति वाक्यों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करके देवी-देवों के नाम से या धर्म के नाम से बकरे, मुर्गे आदि पशु-पक्षियों की बलि करते हैं। इसे वे यज्ञ-अभीष्ट कल्याण साधक मानते हैं। कई विभिन्न यज्ञों में अश्व, गौ, मनुष्य आदि को होमने का विधान करते हैं। कई मोहमूढ़ लोग अपने धर्मसंघ, आश्रम, मन्दिर, संस्था या जाति आदि की रक्षा के नाम पर दासी-दास अथवा पशु तथा धनधान्य आदि का परिग्रह करते हैं। भोले-भाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु तथा क्रियाकाण्डों का सब्जबाग दिखाकर उनसे धन-साधन आदि बटोरने-ठगने के लिए बाह्य शौच को धर्म बताकर शरीर पर बार-बार पानी छींटने. स्थान को बार-बार धोने, बर्तनों को बार-बार रगडने तथा कान का स्पर्श करने आदि माया प्रधान वंचनात्मक प्रवृत्ति करते हैं, और उसी का समर्थन करते हुए वे कहते हैं 23 (क) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 66 (ख) तुलना कीजिए-कंसेसु कंसपाएसु कुण्डमोएसु वा पुणी / भूतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ / / सीओदगसमारंभे, मत्तधोयण-छड्डणे / जाई छन्नति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो / पच्छाकम्मं पुरेकम्म सिया तत्थ न कपई। एयमठं न भुजति निम्गंथा गिहिभायणे / -दसवेआलियं (मुनि नथमलजी) अ०६ गा० 50, 51, 52 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 133 से 142 146 "कुक्फुटसाध्यो लोको, नाकुक्कुटतः प्रवर्तते किंचित् / तस्याल्लोकस्यार्थे स्वपितरमपि कुक्कुटं कुर्यात् // अर्थात्-'यह संसार कपट से ही साधा (वश में किया जाता है, बिना कपट किए जरा-सा भी लोक-व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए लोक-व्यवहार के लिए व्यक्ति को अपने पिता के साथ भी कपट करना चाहिए। जो भी हो, स्वेच्छाचार और मायाचार, उसके कर्ता को नरकादि दुर्गतियों में ले डूबते हैं। अत: सामायिक साधक महामुनि को कपटाचार एवं स्वैराचार का दुष्परिणाम बताकर सावधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-वह इस मायाचार एवं स्वच्छन्दाचार से बचकर वीतरागोक्त शास्त्रविहित साध्वाचार में या मोक्ष प्रदायक संयम में लीन रहे / 24 'वियण' पलेंति का अर्थ-प्रकटेनाऽमायेन कर्मणा मोक्षे संयमे वा प्रकर्षण-कई बार सरल निश्चल एवं चमत्कार, आडम्बर आदि से रहित सीधे-सादे साधु को विवेक-विकल लोग समझ नहीं पाते, उसकी अवज्ञा, अपमान एवं तिरस्कार कर बैठते हैं। कई बार गृहस्थ लोग अपने पुत्र धनादि प्राप्ति का रोग निवारण इत्यादि स्वार्थों के लिए तपस्वी संयमी साधु के पास आते हैं। उसके द्वारा कुछ भी न बतलाने या प्रपंच न करने पर वे लोग उसे मारते-पीटते हैं या उसे बदनाम करके गाँव से निकाल देते हैं / अपशब्द भी कहते हैं। ऐसी स्थिति में समतायोगी साधु को क्या करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं--पीउण्ह वयस.ऽहियासए-शीत या उष्ण परीषह या उपसर्ग वचन एवं उपलक्षण से मन और शरीर से समभावपूर्वक सहने चाहिए। शीत और उष्ण शब्द यहाँ अनुकूल और प्रतिकूल परीषह या उपसर्ग के द्योतक हैं। 25 णकार 'छन्देण फ्लेतिमा पया' के बदले 'छण्णण पलेतिया पया' पाठान्तर मानकर छष्णेण का अर्थ करते हैं-छण्णणेति उम्भेणोवहिणा वा'- छन्न अर्थात् गुप्त-माया लिप्त, दम्भ या उपधि (कपट) के कारण / अनुत्तरधर्म और उसकी आराधना 133 कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहि कुसलेहि दिव्ययं / कडमेव गहाय जो कलि, नो तेयं नो चेव दावरं // 23 // 134 एवं लोगंमि ताइणा, बुइएऽयं धम्मे अणुत्तरे। तं गिण्ह हितं ति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए // 24 / / 24 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 346 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 266 के आधार पर 25 सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या पृ० 375 के आधार पर 26 सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 24 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वंतालीय 135 उत्तर भणुयाण आहिया, गामधम्मा इति मे अणुस्सुतं / जसी विरता समुट्ठिता, कासवस्स अणुधम्मचारिणो / / 25 // 136 जे एय चरंति आहियं, नातेणं महता महेसिणा। से उठित ते समुट्ठिता, अन्नोन्न सारेति धम्मओ // 26 // 137 मा पेह पुरा पणामए, अभिकखे उहि धुणित्तए। जे दूवणतेहि णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं // 27 // 138 णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए। णच्चा धम्म अणुत्तरं, ककिरिए य ण यावि मामए // 28 // 136 छण्णं च पसंस शो करे, न य उक्कास पगास माहणे / तेसि सुविवेगमाहिते, पणया जेहि सुझोसितं धुयं / / 29 / / 140 अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। विहरेज्ज समाहिति दिए, प्रायहियं खु दुहेण लब्भई // 30 // 141 ण हि णूण पुरा अणुस्सुतं, अदुवा त तह णो समुट्ठियं / __ मुणिणा सामाइयाहितं, णाएणं जगसव्वदंसिणा // 31 // 142 एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिता बहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरता तिन्न महोघमाहितं // 32 / / ति बेमि // 133. कभी पराजित न होने वाला चतुर जुआरी (कुजय) जैसे कुशल पासों से जुआ खेलता हुआ कृत नामक चतुर्थ स्थान को ग्रहण करता है, कील को नहीं, (इसी तरह) न तो तृतीय स्थान (वेता) को ग्रहण करता है, और न ही द्वितीय स्थान (द्वापर) को। 134. इसी तरह लोक में जगत् (षड्जीवनिकायरूप) के नाता (रक्षक) सर्वज्ञ के द्वारा कथित जो अनुत्तर (सर्वोत्तम) धर्म है, उसे वैसे ही ग्रहण करना चाहिए; जैसे कुशल जुआरी शेष समस्त स्थानों को छोड़कर कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है; क्योंकि वही (धर्म) हितकर एवं उत्तम है। 135. मैंने (सुधर्मा स्वामी ने) परम्परा से यह सुना है कि ग्राम-धर्म (पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि विषय अथवा मैथुन सेवन) इस लोक में मनुष्यों के लिए उत्तर (दुर्जेय) कहे गये हैं। जिनसे विरत (निवृत्त) तथा संयम (संयमानुष्ठान) में उत्थित (उद्यत) पुरुष ही काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेव अथवा भगवान् महावीर स्वामी के धर्मानुयायी साधक हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 133 से 142 151 136. जो पुरुष महान् महर्षि ज्ञातपुत्र के द्वारा कथित इस धर्म का आचरण करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में उत्थित (उद्यत) हैं, और वे सम्यक् प्रकार से समुत्थित (समुद्यत) हैं. तथा वे ही धर्म से (विचलित या भ्रष्ट होते हुए) एक-दूसरे को सँभालते हैं, पुनः धर्म में स्थिर या प्रवृत्त करते हैं। 137. पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों (प्रणामकों) का अन्तनिरीक्षण या स्मरण मत करो। उपधि (माया या अष्टविध कर्म-परिग्रह) को धुनने-दूर करने की अभिकांक्षा (इच्छा) करो। जो दुर्मनस्कों (मन को दूषित करने वाले शब्दादि विषयों) में नत (समर्पित या आसक्त) नहीं है, वे (साधक) अपनी आत्मा में निहित समाधि (राग-द्वेष से निवृत्ति या धर्मध्यानस्थ चित्तवृत्ति) को जानते हैं। 138. संयमी पुरुष विरुद्ध काथिक (कथाकार) न बने, न प्राश्निक (प्रश्नफल वक्ता) बने, और न ही सम्प्रसारक (वर्षा, वित्तोपार्जन आदि के उपाय निर्देशक) बने, न ही किसी वस्तु पर ममत्ववान् हो; किन्तु अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) धर्म को जानकर संयमरूप धर्म-क्रिया का अनुष्ठान करे। 136. माहन (अहिंसाधर्मी साधु) माया और लोभ न करे, और न ही मान और क्रोध करे। जिन्होंने धुत (कर्मों के नाशक- संयम) का अच्छी तरह सेवन-अभ्यास किया है, उन्हीं का सुविवेक (उत्कृष्ट विवेक) प्रसिद्ध हुआ है, वे ही (अनुत्तर धर्म के प्रति) प्रणत--समर्पित हैं। 140. वह अनुत्तर-धर्मसाधक किसी भी वस्तु की स्पृहा या आसक्ति न करे, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि करने वाले हितावह कार्य करे, इन्द्रिय और मन को गुप्त---सुरक्षित रखे, धर्मार्थी तपस्या में पराक्रमी बने, इन्द्रियों को समाहित-वशवर्ती रखे, इस प्रकार संयम में विचरण करे, क्योंकि आत्महित (स्वकल्याण) दुःख से प्राप्त होता है। 141. जगत् के समस्त भावदर्शी ज्ञातपुत्र मुनिपुंगव भगवान् महावीर ने जो सामायिक आदि का प्रतिपादन किया है, निश्चय ही जीवों ने उसे सुना ही नहीं है, (यदि सुना भी है तो) जैसा (उन्होंने कहा, वैसा (यथार्थरूप से) उसका आचरण (अनुष्ठान) नहीं किया। 142 इस प्रकार जानकर सबसे महान् (अनुत्तर) आर्हद्धर्म को मान (स्वीकार) करके ज्ञानादिरत्नत्रय-सम्पत्र गुरु के छन्दानुवर्ती (आज्ञाधीन या अनुज्ञानुसार चलने वाले) एवं पाप से विरत अनेक मानवों (साधकों) ने इस विशालप्रवाहमय संसारसागर को पार किया है, यह भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। -ऐसा मैं तुमसे कहता हूँ। विवेचन-- अनुत्तरधर्म और उसकी आराधना के विविध पहल-सूत्रगाथा 133 से 142 तक दस सूत्रों में शास्त्रकार ने तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अनुत्तरधर्म का माहात्म्य और उसकी विविध प्रकार से आराधना की प्रक्रिया बतायी है / प्रथम दो सूत्र गाथाओं में अनुत्तर धर्म की महत्ता और उपादेयता कुशल दुर्जेय जुआरी की उपमा देकर समझायी है / तदनन्तर अनुत्तरधर्म को साधना के अधिकारी कौन हो सकते हैं ? इसके लिए दो अर्हताएँ बतायी हैं--(१) जो दुर्जेय ग्रामधर्म (शब्दादि विषय या काम) से निवृत्त हैं, तथा (2) जो मोक्षमार्ग में उत्थित-समुत्थित है / इसके बाद चार सूत्रगाथाओं (137 से 140 तक) में अनुत्तरधर्म के आराध क के लिए निषेध-विधान के रूप में कुछ आचारधाराएँ बतायी हैं--- (1) वह पूर्वमुक्त शब्दादि विषयों का स्मरण न करे, (2) अष्टविध कर्मपरिग्रह या माया (उपधि) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वतालीय को दूर करने की अभिकांक्षा करे, ताकि समाधि के दर्शन कर सके, (3) आत्महित-विरुद्ध कथा करने वाला न बने, (4) न प्राश्निक (प्रश्नों का फलादेश बताने वाला) बने, और (5) न सम्प्रसारक (अपने व्यक्तित्व का प्रसार (प्रसिद्धि) करने हेतु धनादि के सम्बन्ध में उपाय निर्देशक) बने, (6) किसी भी वस्तु पर ममता न रखे, (7) अनुत्तरधर्म को जानकर संयम साधक क्रिया करे, (8) क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करे, (8) कर्मनाशक संयम (धुत) का सम्यक् अभ्यास करे, (10) अनुत्तरधर्म के प्रति सर्वथा प्रणत - समर्पित हो, ताकि उसका सुविवेक जागृत हो, (11) संसार के सभी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अनासक्त, निरपेक्ष एवं निरीह रहे, (12) ज्ञानादि की वृद्धि वाले हित कार्य करे, (13) इन्द्रियों और मन को अशुभ में जाने से बचाए-गुप्त रखे, (14) धर्मार्थी बने, (15) तपस्या में पराक्रमी हो, (16) इन्द्रियाँ वश में रखें; (17) प्रतिक्षण संयम में विचरण करे, ताकि आत्महित सिद्ध हो। यह धर्म अनुत्तर और उपादेय क्यों ? प्रश्न होता है-यही धर्म अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) क्यों हैं ? दूसरे क्यों नहीं ? इसके लिए दो विशेषताएँ यहाँ बताई गयी हैं--(१) यह लोक में त्राता सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित है, (2) यह आत्मा के लिए हितकर है। इसी कारण चतुर अपराजेय जुआरी जैसे जुए के अन्य पाशों को छोड़कर कृत नामक पाशों को ही ग्रहण करता है, वैसे ही जिन-प्रवचन कुशल साधु को भी गृहस्थ, कुप्रावचनिक और पाश्वस्थ आदि के धर्मों को छोड़कर सर्वज्ञ वीतरागोक्त सर्वोत्तम, सर्व महान्, सर्वहितकर, सार्वभौम, दशविध श्रमण धर्म रूप या श्रुत-चारित्र रूप अनुत्तर धर्म का ग्रहण करना चाहिए। 'उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा...'इस वाक्य का आशय यह है कि ग्राम-इन्द्रिय समूह का धर्मविषय (स्वभाव), और इन्द्रिय-विषय ही काम है। काम मनुष्यों के लिए उत्तर-प्रधान या दुर्जेय कहे गये हैं। 'उत्तर' का अर्थ यों तो प्रधान होता है, किन्तु लक्षणा से यहाँ वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'दुर्जेय' किया है। संयमी पुरुषों को छोड़कर काम प्रायः सभी प्राणियों पर हावी हो जाता है. इसलिए यह दुर्जेय है। काम में सर्वेन्द्रिय-विषयों का एवं मैथुन के अंगों का समावेश हो जाता है। इति मे अणुस्सुतं - इसका आशय यह है कि गणधर श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं-ऐसा मैंने कर्णोपकर्ण सुना है / अर्थात् जो पहले कहा गया है और आगे कहा जायेगा, यह सब आदितीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा था, इसके पश्चात् मैंने (आर्य सुधर्मा ने) भगवान महावीर से सुना था। 'सि विरता समुट्ठिता"अणुधम्मचारिणो'--इस पंक्ति से श्री सुधर्मास्वामी का यह आशय प्रतीत होता है कि यद्यपि काम दुर्जेय है, तथापि जो पवित्रात्माएँ आत्मधर्म को तथा आत्मशक्तियों को सर्वोपरि जान-मानकर संयम-पथ पर चलने के लिए कटिबद्ध हैं, उनके लिए काम-विजय दुष्कर नहीं है / वास्तव में वे ही साधक भगवान ऋषभदेव या भगवान महावीर के धर्मानुगामी है। 'अणुधम्मचारिणो'-आचारांग आदि में अणुधम्म (अनुधर्म) का अर्थ है--पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म का अनुगमन-अनुसरण-पाली शब्द-कोष में अनुधर्म का अर्थ किया गया है-धर्म के अनुरूप-धर्मसम्मत / बौद्धग्रन्थ 'सुत्तपिटक' में भी अनुधम्मचारिनो' शब्द का यही अर्थ आता है / 27 27 भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा""अनुधम्मचारिनो -सुत्तपिटके उदान पृ० 138 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक गाथा : 133 से 142 आहियं नातेणं महता महेसिया-वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों ने इस पंक्ति का अर्थ किया है-"ज्ञान ज्ञातपुत्रेण, ज्ञातकुलीयेन"ज्ञातत्वेऽपि सति राजसूनुना केवलज्ञानवेत्ता वा, महेय त्ति-महाविषयस्य ज्ञानस्यानन्त्यभूतत्वान्महान् तेन तथाऽनुकूल-प्रतिकूलोपसर्ग-सहिष्णुत्वान्महर्षिणा"-अथवा ज्ञात के द्वारा यानी ज्ञातपत द्वारा, ज्ञातकुलोत्पन्न के द्वारा, राजपूत्र होने से ज्ञातकूलत्व होने पर भी केवलज्ञान सम्पन्न द्वारा महाविषयरूप ज्ञान के अनन्त होने से भगवान् महान् थे, अतः उस महान् के द्वारा तथा अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग सहिष्णु होने से वे महर्षि थे, अतः महर्षि द्वारा जो (अनुत्तरधर्म) कहा गया है।" अन्नोन्नं सारेति धम्मओ- अन्योन्य-परस्पर, धर्मतः यानी धर्म से सम्बन्धित या धर्म से भ्रष्ट व्यक्ति को धर्म में प्रेरित करते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-पणामए=दुर्गति या संसार की ओर प्राणियों को झुकाने वाले शब्दादि विषय / उहि जिसके द्वारा आत्मा दुर्गति के समीप पहुंचा दिया है, उसे उपधि कहते हैं, वह माया एवं अष्टविध कर्म परिग्रह है। काहिए जो कथा से आजीविका करता है, वह काथिक-कथाकार / आचासंग चूणिकार के अनुसार ‘णो काहिए' का अर्थ है -शृगारकथा (शृगार सम्बन्धी बात) न कहे / विरुद्ध कथा कहते हैं विकथा को / जिससे कामोत्त जना भड़के, भोजन लालसा बढ़े, जिससे युद्ध, हत्या, दंगा, लड़ाई या वैमनस्य बड़े तथा देश-विदेश के गलत आचार-विचारों के संस्कारों का बीजारोपण हो, ये चारों विकथाएँ हैं, ऐसा संयम-विरुद्ध कथाकार न बने। पासणिए प्राश्निक वह है, जो गृहस्थों के व्यवहारों या व्यापार वगैरह या संतान आदि के विषय में प्रश्नों का फल ज्योतिषी की तरह बताता हो / प्राश्निक का विशेष अर्थ आचारांग चूणि में बताया गया है-स्वप्नफल या किसी स्त्री के विषय में यह पूछने पर कि यह कला-कुशल या सन्तानवती होगी या नहीं ? इत्यादि प्रश्नों का फल बताने वाला साधु / णो पासणिए का अर्थ आचारांगवृत्ति में किया गया है-स्त्रियों के अंगोपांग न देखे / 28 28 कथया चरति कथिकः" प्रश्न निमित्तरूपेण चरतीति प्राश्निकः-सम्प्रसारक देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचक कथा विस्तारकः / कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः / तथा भूतश्च न चापि मामको-ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही / -सूत्र० वृत्ति (ख) कथयतीति कथकः, पाणिओ-णाम गिहीणं व्यवहारेषु प्रस्तुतेषु पणियगादिषु वा प्राश्निको"""संपसारकोनाम सम्प्रसारकः, तद्यथा-इमं बरिसं किं देवो वासिस्सति ण वेत्ति / "कतकिरिओ-णाम कृतं परैः कर्म पूठो अपुठो वा भणति शोभनमशोमनं वा"मामको णाम ममीकारं करेति। -सूत्रकृतांग चूणि पृ० 25 तुलना-से णो काहिए, जो पासणिए, णो संपसारए, णो मामए, णो कतकिरिए""" -आचारांग श्रु० 1, अ० 5, उ०४, सू० 165 पृ० 173 (ग) से णो काहीए."सिंगारकहा ण कहेयब्वापासणितत्तंपि ण करेति / कयरी अम्ह सा भवति सुमंडिता वा कलाकुसला वा।" संपसारतो णामा उवसमंतिा", एरिसिया मम भाउज्जा, भइणी, भज्जा वा "ममोकारं करेइ / कतकिरियो णाम के ते किरियं करेइ "अहो सोभसि न व सोभसि / -आचा० चूणि (घ) से णो काहिए-स्त्रीसंगपरित्यागी स्त्रीनेपथ्यकथां श्रृगारकथां वा नो कुर्यात् "तथा नो पासणिए""तासामङ्ग प्रत्यंगादिकं न पश्येत्" नो संपसारणाए"ताभि: न सम्प्रसारणं पर्यालोचनमेकान्ते..."कुर्यात् / णो मामए "न तासु ममत्वं कुर्यात् / णो कयकिरिए.""कृता मण्डनादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवंभूतो न भूयात् / -आचारांग शीला वृत्ति Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय संपसारए-वृत्तिकार के अनुसार-वर्षा आदि के लिए आरम्भजनक या आरम्भोत्तेजक कथाविस्तारक सम्प्रसारक है / आचारांग चूणि के अनुसार-सम्प्रसारक का अर्थ मिथ्या सम्मति देने वाला है। वास्तव में सम्प्रसारक वह है, जो वर्षा, धन-प्राप्ति, रोग-निवारण आदि के लिए आरम्भ-समारम्भजनक उपाय बताये / आचारांगवृत्ति में सम्प्रसारण का अर्थ किया गया है--स्त्रियों के सम्बन्ध में एकान्त में पर्यालोचन करना। मामए-वृत्तिकार के अनुसार- 'यह मेरा है', मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार का परिग्रहाग्रही मामक है / आचारांग चुणि के अनुसार-गृहस्थ के घर में जाकर जो यह कहता है कि मेरी पत्नी ऐसी थी, मेरी भौजाई या मेरी बहन ऐसी थी, इस प्रकार जो मेरी-मेरी करता है, वह मामक है।' इस प्रकार ममत्व करने से उसके वियोग में या न मिलने पर दुःख होगा, उसकी रक्षा की चिन्ता बढ़ेगी, उसके चुराये जाने या नष्ट होने पर भी आत ध्यान होगा। ऐसा साधु व्यर्थ की आफत मोल ले लेता है। ____ कयकिरिए-वृत्तिकार के अनुसार-जिसने अच्छी तरह संयमानुष्ठान रूप क्रिया की है, वह कृत. क्रिय है / परन्तु चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है जो दूसरों के द्वारा किये हुए कर्म के विषय में पूछने या न पूछने पर अच्छा या बुरा बताता है, वह कृतक्रिय है / आचारांगवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैजिसने शृगारादि या मण्डनादि क्रिया की है, वह कृतक्रिय है।२६ छण्ण=छन्न का अर्थ है गुप्त क्योंकि उसमें अपने अभिप्राय को छिपाया जाता है। संस= जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं, जिसे आदर देते हैं, उसे प्रशंसा यानी लोभ कहते हैं। उक्कोस = जो नीच प्रकृति वाले व्यक्ति को जाति आदि मदस्थानों द्वारा मदमत्त बना देता है, उसे उत्कर्ष–मान कहते हैं / पगासं जो अन्तर में स्थित होते हुए भी मुख आदि के विकारों से प्रकट हो जाता है, उसे प्रकाशक्रोध कहते हैं / तेसि सुविवेगमाहिते-इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं--(१) उन कषायों का सम्यक् विवेक परित्याग आहित-उत्पन्न किया है, अथवा (2) उन्हीं सत्पुरुषों का सुविवेक प्रसिद्ध हुआ है। जेहिं सुझोसितं धुयं जिससे कर्मों का धूनन-क्षपण किया जाए, उसे धुत कहते हैं, वह है-ज्ञानादिरत्नत्रय या संयम अथवा ज्ञानादि या संयम जिनके द्वारा भलीभाँति से वित-अभ्यस्त हैं, उन्हें सुजोषितं' कहते हैं / सहिए के भी संस्कृत में तीन अर्थ होते है-(१) जो हित सहित हो, वह सहित है, (2) ज्ञानादि से युक्त-सहित, (3) 'सहिए' का संस्कृत रूप= स्वहित मानने पर अर्थ होता है जो सदनुष्ठान के कारण आत्मा का हितैषी हो / " महंतर=सब धर्मों से महान् अन्तर रखने वाले धर्म-विशेष को अथवा कर्म के अन्तर को। 26 देखिए टिप्पण 28; पृष्ठ 153 पर 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 66 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ 25 31 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 69-70 - "सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो यूक्तो वा ज्ञानादिभिः, स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठान प्रवृत्त: / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 143 155 जे दूवणतेहि हो गयाचूर्णिकार के अनुसार-दुष्प्रवृत्तियों-आरम्भपरिग्रहादि में प्रणत-झुके हुए हैं, वे दूपनत-- शाक्यादि धर्मानुयायी हैं, उनके धर्मों में जो नत-झुके हुए नहीं हैं, अर्थात् उनके आचार के अनुसार प्रवृत्ति नहीं करते / वृत्तिकार के अनुसार-(१) दुष्ट धर्म के प्रति जो उपनत हैं-कुमार्गानुष्ठानकर्ता हैं। जो उनके चक्कर में नहीं है। अथवा 'द्रयणतेहि पाठान्तर मानने से अर्थ होता है-मन को दूषित करने वाले जो शब्दादि विषय हैं, उनके समक्ष नत-दास नहीं है / 12 समामिाहियं--(अपनी आत्मा में) निहित स्थित राग-द्वेष परित्यागरूप समाधि या धर्मध्यानरूप समाधि को। आयहियं खु दुहेण लम्भइ =अर्थात् आत्महित की प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है। क्यों ? इसका उत्तर वृत्तिकार देते हैं कि 'संसार में परिभ्रमण करने वाले प्राणी को धर्माचरण किये बिना आत्म-कल्याण कैसे प्राप्त होगा? गहराई से विचार करने पर इस कथन की यथार्थता समझ में आ जावेगी, क्योंकि सभी प्राणियों में जंगम (नस) प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी पंचेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट हैं, और पंचेन्द्रिय प्राणियों से भी मनुष्यभव विशिष्ट है। मनुष्यभव में भी आर्यदेश, फिर उत्तमकुल और उसमें भी उत्तम जाति, उसमें भी रूप, समृद्धि, शक्ति, दीर्घायु, विज्ञान (आत्मज्ञान), सम्यक्त्व, फिर शील यों उत्तरोत्तर विशिष्ट पदार्थ की प्राप्ति दुर्लभ होने से आत्महित का साधन दुर्लभतम है। इतनी घाटियाँ पार होने के बाद आत्महित की प्राप्ति सम्भव है, इससे आत्महित की दुष्प्राप्यता सहज ही जानी जा सकती है। द्वितीय उद्देशक सामाप्त OLD तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक संयम से अज्ञानोपचित कर्म-नाश और मोक्ष 143 संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुठं अबोहिए। __ तं संजमओऽवचिज्जइ, मरणं हेच्च वति पंडिता // 1 // 143. अष्टविध कर्मों का आगमन जिसने रोक दिया है, ऐसे भिक्षु को अज्ञानवश जो दुःख (या दुःखजनक कम) स्पृष्ट हो चुका है; वह (कर्म) (सत्रह प्रकार के) संयम (के आचरण) से क्षीण हो जाता है। (और) वे पण्डित मृत्यु को छोड़ (समाप्त) कर (मोक्ष को) प्राप्त कर लेते हैं। विवेचन-मुक्तिप्राप्ति के लिए नवीन कर्मों के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर पूर्वबद्ध कर्मों का 32 (क) जे दूवणतेहि णो णता--जे.""दुष्टं प्रणताः दूपनताः शाक्यादयः, ""आरम्भ-परिग्रहेषु ये न नता:। -सू० कृ० चूणि० (मू० पा० टि०) पृ० 24 (ख) दुष्टं धर्म प्रति उपनता दुरूपनताः, कुमार्गानुष्ठायिनस्तीथिकाः, यदि वा दूमणत्ति दुष्ट मनःकारिणः"विषया तेषु ये महासत्त्वा न नताः तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति / " -सूत्रकृ० शी० वृत्ति पनांक 62 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय क्षय-निर्जरा अनिवाय है। जिस साधक ने मिथ्यात्व आदि आस्रवों को रोक दिया है वह नवीन कर्मबन्ध नहीं करता किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय हए बिना तो मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। प्रस्तत गाथा में उन कर्मों के क्षय का उपाय बतलाया गया है। संयम के द्वारा-जिसमें तपश्चर्या भी गर्भित है, पूर्वकर्मों का क्षय किया जाता है - इस संवर और निर्जरा द्वारा मुक्तिप्राप्ति का निरूपण किया गया है / संयम से ही अज्ञानोपचित कर्मनाश और मोक्ष प्रस्तुत में समस्त कर्मों से रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेने हेतु संयम की प्रेरणा दी गयी है। ___ कर्मों के आस्रव या बन्ध के कारण तथा प्रकार-कर्मों के आगमन द्वार एव बन्धन के कारण मुख्यतया पाँच हैं--(१) मिथ्यादर्शन, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग / इन पांचों आस्रवद्वारों से उपरति-विरति संयम है। कर्मबन्ध की चार अवस्थाएँ हैं-(१) स्पष्ट, (2) बद्ध, (3) निधत्त और (4) निकाचित / इसे कर्मग्रन्थ में सूइयों का दृष्टान्त देकर समझाया गया है-किसी ने बिखरी हुई सुईयाँ को एकत्र कर दिया, ऐसा एकत्र किया हुआ ढेर आसानी से पृथक् हो सकता है / इसी प्रकार जो कर्म केवल स्पष्ट रूप से बंधे हुए हैं, वे प्रतिक्रमण, आलोचना, निन्दा आदि के अल्प प्रयत्न से आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। किसी ने उन सुइयों के ढेर को सूत के धागे से बांध दिया जो कुछ परिश्रम से ही खल जाता है, इसी प्रकार कुछ कर्म ऐसे बँधते हैं, जो कुछ तप, संयम के परिश्रम से छूट जाते हैं, वे बद्धरूप में बँधे हुए होते हैं। किसी ने सूइयों के उस ढेर को तार से बाँध दिया, अब उस ढेर को खोलने में काफी श्रम करना पड़ता है, इसी प्रकार निधत्त रूप में बँधे हुए जिन कर्मों के कुंज को आत्मा से छुड़ाने में कठोर तप-संयम का आचरण करना पड़ता है, अ डता है. और एक सइयों का ढेर ऐसा है, जिसे आग में गर्म करके एक लोहपिण्ड बना दिया गया है, उसमें सूइयों का अलग-अलग करना असम्भव है। इसी प्रकार जिन कर्मों को निकाचित रूप में बाँध लिया है, सम्पूर्ण रूप से उन कर्मों का फल भोगे बिना अन्य उपायों से उनसे छुटकारा होना असम्भव है / प्रस्तुत में 'दुक्खं पुट्ट" शब्द हैं, जिनका अर्थ वृत्तिकार ने किया है जो दुःख यानी, असातायेदनीय, उसके उपादान रूप अष्टविधकर्म स्पृष्ट रूप से बँध गये हैं; अथवा उपलक्षण से बद्ध, स्पष्ट एवं निकाचित रूप से कर्म उपचित हुए हैं। __ 'मरणं हेच्च वयंति'......''इस वाक्य का आशय यह है कि पुरुष संवृतात्मा हैं और वे मरण यानी मरणस्वभाव को तथा उपलक्षण से जन्म, जरा, मरण, शोक आदि के क्रम को छोड़-मिटाकर मोक्ष में चले जाते हैं। संयम के 17 भेद-(१-५) पृथ्वीकायादि पांच स्थावर-संयम, (6) द्वीन्द्रिय-संयम, (7) नीन्द्रिय संयम, (8) चतुरिन्द्रिय संयम, (6) पंचेन्द्रिय संयम, (10) अजीव संयम, (11) प्रेक्षासंयम, (12) उपेक्षा संयम, (13) प्रमार्जना संयम, (14) परिष्ठापना संयम, (15) मनः संयम, (16) वचन संयम (17) काय संयम। दूसरी प्रकार से भी संयम के 17 भेद होते हैं-(१-५) हिंसादि पाँच आस्त्रवों से, (6-10) स्पर्श, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र, इन पाँच इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर से रोकना, (11-14) क्रोध, 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 60 के आधार पर 2 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति 10 60 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 तृतीय उद्देशक : गाथा 144 से 150 मान, माया और लोभ रूप चार कषायों का त्याग करना, (15-17) मन-वचन-काया की अशुभ-प्रवत्ति रूप तीन दण्डों से विरति / कामासक्ति-त्याग का उपदेश 144 जे विण्णवणाहिझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाहिया। ___ तम्हा उड्ढं ति पासहा, अद्दक्खू कामाइं रोगवं // 2 // 145 अग्गं वणिएहिं आहियं, धारेती राईणिया इहं। एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा // 3 // 146 जे इह सायाणुगा णरा, अच्छोववन्ना कामेसु मुच्छिया। किवणेण समं पगभिया, न वि जाणंति समाहिमाहियं // 4 // 147 वाहेण जहा व विच्छते, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, नातिवहति अबले विसीयति // 5 / / 148 एवं कामेसणं विदू, अज्ज सुए पयहेज्ज संथवं / कामी कामे ण कामए, लद्ध वा वि अलद्ध कन्हुई // 6 // 146 मा पच्छ असाहुया भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं / अहियं च असाहु सोयतो, से थणतो परिवेवती बहुं // 7 // 150 इह जीवियमेव पासहा, तरुणए वाससयाउ तुट्टती / इत्तरवासे व बुज्झहा, गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया // 8 // 144. जो साधक स्त्रियों से सेवित नहीं हैं, वे मुक्त (संसार-सागर-सन्तीर्ण) पुरुषों के समान कहे गये हैं। इसलिए कामिनी या कामिनी-जनित कामों के त्याग से ऊर्ध्व-ऊपर उठकर (मोक्ष) देखो। जिन्होंने काम-भोगों को रोगवत् देखा है, (वे महासत्त्व साधक भी मुक्त तुल्य हैं।) / 145. जैसे इस लोक में वणिकों- व्यापारियों के द्वारा (सुदूर देशों से) लाये हुए (वा लाकर भेंट किये हुए) उत्तमोत्तम सामान (पदार्थ) को राजा-महाराजा आदि सत्ताधीश या धनाढ्य लेते हैं, या खरीदते हैं, इसी प्रकार आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रात्रिभोजनत्यागसहित पाँच परम (उत्कृष्ट) महाव्रतों को कामविजेता श्रमण ग्रहण-धारण करते हैं। 3 (क) समवायांग, समवाय 17 देखिए (ख) प्रवचन सारोद्धार द्वार, गाथा 555-556 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय 146. इस लोक में जो मनुष्य सुखानुगामी (सुख के पीछे दौड़ते) हैं, वे (ऋद्धि-रस-साता-गौरव में अत्यासक्त हैं, और काम-भोग में मूच्छित हैं, वे दयनीय (इन्द्रियविषयों से पराजित) के समान काम-सेवन में धृष्ट बने रहते हैं। वे कहने पर भी समाधि को नहीं समझते। 147. जैसे गाड़ीवान के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ बैल कमजोर हो जाता है. (अत: वह विषम-कठिन मार्ग में चल नहीं सकता, अथवा उसे पार नहीं कर सकता / ) आखिरकार वह अल्पसामर्थ्य वाला (दुर्बल बैल) भार वहन नहीं कर सकता, (अपितु कीचड़ आदि में फँसकर) क्लेश पाता है। 148. इसी तरह काम के अन्वेषण में निपुण पुरुष; आज या कल में कामभोगों का संसर्ग (एषणा) छोड़ देगा, (ऐसा सिर्फ विचार किया करता है, छोड़ नहीं सकता / ) अतः कामी पुरुष काम-भोग की कामना ही न करे, तथा कहीं से प्राप्त हुए कामभोग को अप्राप्त के समान (जाने, यही अभीष्ट है।) 146. पीछे (मरण के पश्चात्) दुर्गति (धुरी दशा) न हो, इसलिए अपनी आत्मा को (पहले से ही) (विषय-संग से हटा लो, उसे शिक्षा दो कि असाधु (असंयमी) पुरुष अत्यधिक शोक करता है, वह चिल्लाता है, और बहुत विलाप करता है। 150. इस लोक में अपने जीवन को ही देख लो; सौ वर्ष की आयु वाले मनुष्य का जीवन तरुणावस्था (युवावस्था) में ही नष्ट हो जाता है। अतः इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान समझो। (ऐसी स्थिति में) क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य ही काम-भोगों में मूच्छित होते हैं। विवेचन-कामासक्ति-त्याग की प्रेरणा प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं (144 से 150 तक) में विविध पहलुओं से कामभोगों की आसक्ति के त्याग की प्रेरणा दी गई है। वे प्रेरणासूत्र ये हैं-(१) कामवासना को व्याधि समझ कर जो कामवासना की जड़-कामिनियों से असे वित-असंसक्त हैं, वे ही पुरुष मुक्ततुल्य हैं; (2) जैसे व्यापारियों द्वारा दूरदेश से लाई हुई उत्तमसामग्री को राजा आदि ही ग्रहण करते हैं, वैसे ही कामभोगों से ऊपर उठे हुए महापराक्रमो साधु ही रात्रिभोजन-विरमण व्रतसहित पंचमहावतों को धारण करते हैं / (3) विषयसुखों के पीछे दौड़ने वाले त्रिगौरव में आसक्त कामभोगों में मूच्छितजन, इन्द्रियों के गुलाम के समान ढीठ होकर कामसेवन करते हैं, वे लोग समाधि का मूल्य नहीं समझते। (4) जैसे माड़ीवान के द्वारा चाबुक मार-मारकर प्रेरित किया हुआ दुर्बल बैल चल नहीं सकता, भार भी नहीं ढो सकता और अन्त में कहीं कीचड़ आदि में फंसकर क्लेश पाता है, वैसे ही कामभोगों से पराजित मनोदुर्बल मानव भी कामैषणा को छोड़ नहीं सकता, काम-भोगों के कीचड़ में फंसकर दुःख पाता है। (5) कामभोगों को छोड़ने के दो ठोस उपाय हैं- (1) कामभोगों की कामना ही न करे, (2) प्राप्त कामभोगों को भी अप्राप्तवत् समझे / (6) मरणोपरान्त दुर्गति न हो, पोछे असंयमी (कामी-भोगी) की तरह शोक, रुदन और विलाप न करना पड़े, इसलिए पहले से ही अपनी आत्मा को विषय सेवन से अलग रखो, उसे ठीक अनुशासित करो; और (7) जीवन अल्पकालीन है यह देखकर अविवेकी मनुष्यों की तरह काम-भोगों में मूच्छित नहीं होना चाहिए। 4 सूत्रकृतांग सूत्र मूलपाठ, शीलांकवृत्ति भाषानुवाद सहित भाग 1, पृ० 273 से 280 तक का सार / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 144 से 150 कामिनीसंसर्गत्यागी मुक्तसदश क्यों और कैसे?-साधक को मुक्ति पाने में सबसे बड़ी बाधा है-कामवासना। कामवासना जब तक मन के किसी भी कोने में हलचल करती रहती है, जब तक मुक्ति दूर रहती है ! और कामवासना की जड़ कामिनी है, वास्तव में कामिनी का संसर्ग ही साधक में कामवासना उत्पत्र करता है / कामिनी-संसर्ग जब तक नहीं छटता, तब तक मनुष्य चाहे जितनी उच्च क्रिया कर ले, साधुवेष पहन ले, और घरबार आदि छोड़ दे, उसकी मुक्ति दूरातिदूर है। मुक्ति के निकट पहुँचने के लिए, दूसरे शब्दों में संसारसागर को पार करने के लिए कामिनियों के काम-जाल से सर्वथा मुक्त अससक्त रहना आवश्यक है / जो व्यक्ति कामवासना की जड़ कामिनियों के संसर्ग से सर्वथा दूर हैं, वे मुक्तसदृश हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं "जे विष्णवणाहिऽझोसिया, सतिणेहि सम विद्याणिया।" यहाँ 'विष्णवणा' (विज्ञापना) शब्द कामिनी का द्योतक है। जिसके प्रति कामीपुरुष अपनी कामवासना प्रकट करता है, अथवा जो कामसेवन के लिए प्रार्थना-विज्ञपना या निवेदन करती है, इस दृष्टि से कामिनी को यहाँ विज्ञापना कहा गया है। विज्ञापनाओं-कामिनियों से जो महासत्त्व साधक असंसक्त हैं, सन्तीर्ण-संसारसागरसमुत्तीर्ण करने वाले मुक्त पुरुष के समान कहे गए हैं। यद्यपि उन्होंने अभी तक संसारसागर पार नहीं किया, तथापि वे निध्किचन और कंचनकामिनी में संसक्त होने से संसारसागर के किनारे पर ही स्थित हैं। ___ यहाँ मूल में 'अझोसिया' पाठ है, उसका वृत्तिकार अर्थ करते हैं जो स्त्रियों से अजुष्टा. असेविता: अयं वा अवसायलक्षणमतीताः' - अर्थात्-अजुष्ट यानी असेवित हैं, अथवा जो कामिनियों द्वारा विनाशरूप क्षय को प्राप्त नहीं हैं। चूर्णिकार अर्थ करते हैं -अझूषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः --अर्थात्-जो कामिनियों द्वारा अझुषित-अनाहत हैं। तात्पर्य यह है कि जो काम और कामिनियों से इतने विरक्त हैं कि स्वयं कामिनियाँ उनका अनादर करती हैं. उपेक्षा करती हैं: क्योंकि उनका त्य भूषा या चर्या ही ऐसी है कि कामिनियाँ उनसे कामवासना पूर्ति की दृष्टि से अपेक्षा ही नहीं करतीं, वे उनके पास आएँगी तो भी उनकी कामवासना भी उनके सानिध्य प्रभाव से ही शान्त हो जाएँगी। 'तम्हा उढंति पासहा'-इस वाक्य का आशय यह है कि स्त्रीसंसर्गरूप महासागर को पार करने वाला, संसारसागर को लगभग पार कर लेता है, इस दृष्टि से कामिनीसंसर्ग से ऊपर उठकर देखो क्योंकि कामिनीसंसगत्याग के बाद ही मोक्ष का सामीप्य होता है। इस वाक्य के बदले "उड्ढं तिरिय अहे तहा" पाठ भी मिलता है जिसका 'अद्दक्खु कामाइं रोगवं' पाठ के साथ सम्बन्ध जोड़कर अर्थ किया जाता हैसौधर्म आदि ऊर्ध्व (देव) लोक, तिर्यकुलोक में, एवं भवनपति आदि अधोलोक में भी कामभोग विद्यमान हैं, उन्हें जिन महासत्त्वों ने रोगसदृश जान-देख लिया, वे भी संसारसमुद्र से तीर्ण-मुक्त पुरुष के समान कहे गये हैं। इसी से मिलते-जुलते आशय का एक श्लोक वैदिक सम्प्रदाय में प्रसिद्ध है "वेधा द्वधा भ्रमं चक्र, कान्तासु कनकेषु च // तास तेष्वनासक्तः साक्षात भर्गो नराकतिः॥" 5 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ०७० 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 70 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 26 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अर्थात्-विधाता (कर्मरूपी विधाता ने दो भ्रम (संसार परिभ्रमण के कारण) पैदा किये हैं-एक तो कामिनियों में, दूसरा कनक में / उन कामनियों में और उन धन-साधनों में जो अनासक्त है. समझ लो मनुष्य की आकृति में वह साक्षात् परमात्मा है।" काम सामग्री के बदले मोक्ष सामग्री ग्रहण करना ही अभीष्ट-साधु-जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, और मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक, सम्यक्चारित्र का ध्यान करना आवश्यक है। किन्तु अगर कोई साधक इस तथ्य को भूलकर मोक्षसामग्री के लिए कामसामग्री (स्त्री तथा अन्य पंचेन्द्रिय विषय आदि) इकट्ठी करने लगे, या इन्हीं के चिन्तन में रात-दिन डूबे रहे तो यह उसकी उच्चश्रेणी के अनुरूप नहीं है। इसीलिए १४५वीं गाथा में कहा गया है- 'अग्गं वणिएहि आहियं सराइ भोयणा' / इसका तात्पर्य यह है कि व्यापारियों के द्वारा दूर देश से लाया हुआ उत्तम पदार्थ राजादि ले लेते हैं वैसे साधु आचार्यों द्वारा प्रतिपादित या प्रदत्त रात्रि-भोजन विरमण व्रत सहित पंचमहाब्रतों को ही धारण करे। काम सामग्री को नहीं। काम-भोगों में आसक्त : समाधिसुख से अनभिज्ञ-शास्त्रकार ने इस गाथा 146 के द्वारा उन लोगों की आँखें खोल दी हैं कि जो तच्छ प्रकृति के लोग साधवेष धारण करके भी परीषहों-उपसर्गों से घबराकर रात-दिन सुख-सुविधाओं के पीछे या वैषयिक सुखों की तलाश में भाग-दौड़ करते रहते हैं वे अपनी समृद्धि (पद प्रसिद्धि एवं धनिक भक्तों द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा), रस (स्वाद) एवं साता (सुख-सुविधाओं) के अहंकार (गौरव) में डूबे हुए तथा काम-भोगों में इतने आसक्त रहते हैं कि उन्हें समाधि के परम सुख को जानने-समझने की भी परवाह नहीं रहती। इसे ही शास्त्रकार कहते हैं- "जे इह सायाणुगासमाहिमाहियं / " इसके द्वारा शास्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि सुख भोगों के पीछे पड़कर वास्तविक सुख और बहुमूल्य जीवन को नष्ट कर डालना बुद्धिमानी नहीं है। काम, कामनाओं या सुख-सुविधाओं के पीछे दीवाने बन श्वेत वस्त्र सम अपने संयम को मलिन बनाने से सारी ही मोक्ष सुख-साधना चौपट हो जाती हैं 10 काम-भोगों को चाट छुटती नहीं-जैसे मरियल बैल चाबुकों की मार खाकर भी विषम मार्ग में चल नहीं पाता, भार ढो नहीं सकता और अन्त में वह कीचड़ आदि में फँसकर दुःख पाता है, वैसे ही काम-भोगों का गुलाम और दुर्बल मन का साधक गुरुवचनों की फटकार पड़ने पर भी परीषहादि सहन रूप विषम मार्ग में चल नहीं पाता, नाम की एषणा छोड़ न पाने के कारण वह संयम का भार ढो नहीं सकता और अन्त में शब्दादि विषय-भोगों के कीचड़ में फंसकर दुःखी होता है। यही तथ्य (147-148) 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ०७१ में उद्धृत 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति० पृ०७१ के आधार पर इस गाथा की व्याख्या में चूणिकार ने दो मतों का उल्लेख किया है-पूर्व में रहने वाले आचार्यों के मत का एवं पश्चिम दिशा में रहने वाले आचार्यों के मत का / सम्भव है-चूणिकार का तात्पर्य पूर्व दिशागत मथुरा या पाटलिपुत्र के सम्बन्ध से स्कन्दिलाचार्य आदि से एवं पश्चिम दिशागत वल्लभी के सम्बन्ध से नागार्जुन या देवद्धिगणि क्षमाश्रमण आदि से हो। - साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग 1 पृ० 141 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 71 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 144 से 150 द्वय में ताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि काम-भोगों के चक्कर में पड़ने वाला साधक इस भ्रम में न रहे कि मैं कुछ दिनों बाद ही जब चाहे तब इसे छोड़ दूंगा, बल्कि एक बार काम-भोगों की चाट लग जाने पर शास्त्र चाहे कितनी ही प्रेरणा देते रहें, गुरुजन आदि चाहे जितनी शिक्षाएँ दें, उसे फटकारे तो भी वह चाहता हुआ भी काम-भोगों की लालसा को छोड़ नहीं सकेगा। काम-भोगों के त्याग के ठोस उपाय-दो ही उपाय है कामभोगों की आसक्ति से छूटने के-(१) कामी काम-भोगों की कामना ही न करे, (2) प्राप्त कामभोगों को अप्राप्त के समान समझे, उनसे बिलकुल उदासीन रहे / कामी कामे "अलद्ध कण्हुई।" इस पंक्ति का आशय यह है कि अगर कोई साधक अपने पूर्व (गृहस्थ) जीवन में कदाचित् काम से अतृप्त रहा हो तो उसे काम-सेवन के दुष्परिणामों पर विचार करके साधु-जीवन में वज्रस्वामी या जम्बूस्वामी की तरह मन में कामभोगों की जरा भी कामना-वासना न रखनी चाहिए / स्थूलभद्र एवं क्षुल्लककुमार की तरह किसी भी निमित्त से प्रतिबद्ध साधक कदाचित् पूर्व जीवन में कामी रहा हो, तो उसे पूर्वभुक्त कामभोगों का कदापि स्मरण नहीं करना चाहिए, और कदाचित् कोई इन्द्रिय-विषय (काम) प्राप्त भी हो जाये तो नहीं मिले के समान जानकर उसके प्रति निरपेक्ष, निःस्पृह एवं उदासीन रहना चाहिए।" काम-त्याग क्यों ?–साधु को काम-त्याग क्यों करना चाहिए? इसके लिए शास्त्रकार गाथाद्वय द्वारा दो प्रबल युक्तियों से काम-त्याग की अनिवार्यता समझाते हैं-(१) मृत्यु के बाद अगले जन्म में दुर्गति न हो, वहाँ की भयंकर यातनाएँ सहनी न पड़े, वहाँ असंयमी की तरह रोना-पीटना न पड़े। (2) इसी जन्म में देखो न, सौ वर्ष की आयु वाला मानव जवानी में ही चल बसता है, अतः इस अल्पकालिक जीवन में अविवेकी मानव की भांति कामभोग में मूच्छित हो जाना ठीक नहीं है। 'मा पच्छा असाधुता भवे"परिदेवती बहु' एवं इह जीवियमेव पासहा“कामेसु मुछिया / " इन दोनों गाथाओं द्वारा साधक को कामभोगों के त्याग की प्रेरणा देने के पीछे पहली युक्ति यह है कि कामभोगों में जो भ्रमवश सुख मानते हैं, वे उनके भावी दुष्परिणामों पर विचार करें कि क्षणिक कामसुख कितने भयंकर चिरकालीन दुःख लाता है, जिन्हें मनुष्य को रो-रोकर भोगना पड़ता है। कामभोगों को शास्त्रों में किंपाकफल की उपमा देकर समझाया है कि किंपाकफल जैसे दिखने में सुन्दर, खाने में मधुर एवं सुगन्ध सुरस से युक्ति होता है; परन्तु उसके खाने पर परिणाम मृत्यु रूप में आता है, वैसे ही ये कामभोग आपात रमणीय, उपभोग करने में मधुर एवं सुहावने लगते हैं, परन्तु इनका परिणाम दुर्गति गमन अवश्यम्भावी है, जहाँ नाना प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 11 (क) चूर्णिकार 147 वीं सूत्रगाथा-'से अंतसो"विसीयति' का पाठान्तर-'से अंतए अप्पथामए णातिचए अवसे विसीदति' मानकर कहा है-से अंतए--अन्त्यायामपि अवस्थायां अन्तश: णातिचए- सक्केति, अवसे विसीदति एव / सोवि संयमादि निरुद्यमः।' अर्थात--वह(मरियल बैल) अन्तिम अवस्था में भी अल्प सामर्थ्य होने से बोझ नहीं ढो सकता, न विषम मार्ग में चल सकता है, अत: विवश होकर दुःख पाता है / इसी प्रकार साघु भी संयमादि में निरुद्यम हो जाता है। -सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ० 27 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 71 के आधार पर Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-बैंतालीय "सल्लं कामा, विसं कामा. कामा आसीविसोपमा / कामे पत्थेमाणा मकामा जंति दुग्गई।" अर्थात्-ये काम शल्य के समान है, काम विषवत् है, काम आशीविष सर्प तुल्य हैं, जो व्यक्ति कामभोगों की लालसा करते हैं, वे काम-भोग न भोगने पर भी, केवल कामभोग की लालसा मात्र से ही दुर्गति में चले जाते हैं। दूसरी युक्ति यह दी गयी है कि मनुष्य की जिन्दगी कितनी अल्प है ? कई लोग जवानी में और कई बचपन में ही चल देते हैं। इतनी छोटी-सी अल्पकालीन जिन्दगी है, उसमें भी साधारण मनुष्यों की आयु सोपक्रमी (अकाल में ही नष्ट होने वाली) होती है / वह कब, किस दुर्घटना से या रोगादि निमित्त से समाप्त हो जायेगी, कोई पता नहीं। ऐसी स्थिति में कौन दूरदर्शी साधक अपनी अमूल्य, किन्तु अल्प स्थायी जिन्दगी को कामभोगों में खोकर अपने आपको नरकादि दुर्गतियों में डालना चाहेगा ? वर्तमान काल में मनुष्य की औसत आयु 100 वर्ष की मानी जाती है, वह भी अकाल में ही नष्ट हो जाने पर घहुत थोड़ी रहती है। सागरोपम कालिक आयु के समक्ष तो यह आयु पलक झपकने समान है। जीवन की ऐसी अनित्यता, अस्थिरता एवं अनिश्चितता जानकर क्षुद्रप्रकृति के जीव ही शब्दादि कामभोगों में आसक्त हो सकते हैं, बुद्धिमान साधक नहीं। बुद्धिमान दूरदर्शी साधक को कामत्याग के लिए दो बातों की प्रेरणा दी है - "अच्चेही अणुसास अप्पगं।" अर्थात्-(१) साधु को पहले से ही सावधान होकर इन कामभोगों से अपने आपको मुक्त (दूर) रखना चाहिए, और (2) कदाचित पूर्वभुक्त कामभोग स्मृति-पट पर आ जाए या कभी काम-कामना मन में उत्पन्न हो जाये तो अविलम्ब उस पर नियन्त्रण करना चाहिए, आत्मा को इस प्रकार अनुशासित (प्रशिक्षित) करना चाहिए-“हे आत्मन् ! पहले ही हिंसादि पापकर्मों के कारण पुण्यहीन हुआ है, फिर कामभोग-सेवन करके या कामभोगों की अभिलाषा करके क्यों नये कम बांधता है ? क्या इनका दुष्परिणाम नहीं भोगना पड़ेगा ?" इस प्रकार मन में काम का विचार आते ही उसे खदेड़ दे / 12 कठिन शब्दों को व्याख्या-अग्ग= प्रधान या वरिष्ठ रत्न, वस्त्र, आभूषण आदि। आहियं-देशान्तर से लाये हुए। राइणिया=राजा या राजा के समान, सामन्त, जागीरदार आदि शासक। अज्झोववन्ना= समृद्धि, रस और साता इन तीन गौरवों में गृद्ध आसक्त / किवणेण समं पगभिया=इन्द्रियों के गुलाम (इन्द्रियों से पराजित) होने के कारण दीन, बेचारे, दयनीय, इन्द्रियलम्पट के समान काम-सेवन में ढीठाई धारण किए हुए / समाहि=धर्मध्यानादि, या मोक्ष सुख / वाहेण जहा व विच्छते..."=वृत्तिकार के अनुसार 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 72 (ख) सूयगडंग चर्णि में 'तरुणए स दुब्बलं वाससयं तिउति' इस प्रकार का पाठान्तर मानकर अर्थ किया गया है-- "तरुणगो असम्पूर्णवया अन्यो वा कश्चित्, दुर्बलं वाससयं परमायुः, ततो तिउति / " अर्थात् तरुण का अर्थ है-अपूर्ण बय वाला अथवा और कोई, शतवर्ष की परमायु (उत्कृष्ट आयु) होने पर भी दुर्बल होने से बीच में टूट जाती है। -सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ. 27 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गापा 151 से 152 -~'वाह' अर्थात् व्याध (शिकारी) जैसे मृगादि पशु विविध प्रकार के कूटपाश आदि से क्षत-घायल, परवश किया हुआ, या थकाया हुआ दुर्बल हो जाता है। दूसरा अर्थ है-'वाह' यानी शाकटिकनगाड़ीवान वह गाड़ी को ठीक से चलाने के लिए चाबुक आदि से प्रहार करके चलने को प्रेरित करता है। अप्पयामा अल्पसामर्थ्य वाला / कामेसणं विऊ-कामभोगों के अन्वेषण में विद्वान्(निपुण) पुरुष / असाधुता =कुगतिगमन आदि रूप दुःस्थिति-दुर्दशा। सोयती शोक करता है / थणति=सिसकता है या सशब्द निःश्वास छोड़ता हैं। परिदेवती=विलाप करता है, बहुत रोता-चिल्लाता है। वाससबाउ-सौ वर्ष से। इत्तरवासेवम्-थोड़े दिन के निवास के समान / आरम्भ एवं पाप में आसक्त प्राणियों की गति एवं मनोदशा 151. जे इह आरंभनिस्सिया, आयड एगंतल सगा। गंता ते पावलोगयं, चिररायं आसुरियं विसं // 6 // 152. ण य संखयमाहु जोवियं, तह वि य बालजणे पगम्भती। पच्चुप्पन्नण कारितं, के दुदु परलोगमागते // 10 151. इस लोक में जो मनुष्य आरम्भ में आसक्त, आत्मा को दण्ड देने वाले एवं एकान्त रूप से प्राणि-हिंसक हैं, वे चिरकाल के लिए पापलोक (नरक) में जाते हैं, (कदाचित् बालतप आदि के कारण देव हों तो) आसुरी दिशा में जाते हैं। 152. (सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है-यह जीवन संस्कृत करने (जोड़ने) योग्य नहीं हैं, तथापि अज्ञानीजन (पाप करने में) धृष्टता करते हैं / (वे कहते हैं-) (हमें तो) वर्तमान (सुख) से काम (प्रयोजन) है, परलोक को देखकर कौन आया है ? विवेचन-आरम्भासक्त एवं पापाचरण धृष्ट व्यक्तियों की दशा-यहाँ सूत्रगाथाद्वय में से प्रथम में आरम्भजीवी या आरम्भाधित साधकों की दशा का और द्वितीय गाथा में वर्तमानदर्शी अज्ञानीजनों की मनोदशा का वर्णन किया है। अरम्भासक्त साधक: दुष्कृत्य और उनका फल-आरम्भ निश्रित साधकों के लिए यहाँ दो विशेषण ध्यान देने योग्य हैं-"आयदंडा तथा एगंतलूस गा।' यहाँ शास्त्रकार ने आरम्भनिश्रित शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ वृत्तिकार करते हैं-'आरम्भों यानी हिंसादि सावद्यानुष्ठान रूप कार्यों में जो निश्चयतः (निःसंकोच) श्रित-यानी सम्बद्ध हैं, आरम्भ पर ही आश्रित हैं, आसक्त हैं।' ___ आरम्भ जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है, उसका एक खास अर्थ है / जिस कार्य या प्रवृत्ति से जीवों का द्रव्य और भाव से, चारों ओर से प्राणातिपात (हिंसा) हो, उसे 'आरम्भ' कहते हैं। आरम्भ 13 (क) सूत्रकृतांग शीलोक वृत्ति पत्र 70-72 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 26-27 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अनेक प्रकार का होता है-जैसे भोजन पकाना, हरी वनस्पति तोड़ना, मकान बनवाना, जमीन खोदना, खेती करना, आग जलाना; कलकारखाने चलाना; युद्ध करना, लड़ाई-झगड़े करना दूसरों को सताना, मारपीट, दंगा, आगजनी, चोरी, डकैती. धोखाधड़ी आदि सब प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापजनक (सावद्य) कार्य आरम्भ हैं / " आत्म-कल्याण की इच्छा रखने वाले को सभी प्रकार के आरम्भों का त्याग करना आवश्यक है। परन्तु कई साधक शरीर या जीवन की सुख-सुविधा के मोह में पड़कर ऐसे आरम्भों में स्वयं प्रवृत्त हो जाते हैं, अथवा दूसरों से करवाते हैं / इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी वृत्ति इतनी आरम्भाश्रित हो जाती हैं कि वे आरम्भ के बिना जी नहीं सकते। ऐसे आत्मार्थी साधक दूसरे प्राणियों को दण्डित (हिंसा) करने के बदले उक्त आरम्भजन्य पाप कर्म के कारण स्वयं आत्मा (निज) को उनके फलस्वरूप दण्डित करते हैं। वास्तव में आरम्भ आसक्त साधक एकान्तलूसक (प्राणि-हिंसक) या सत्कर्म के ध्वंसक है। उक्त आरम्भासक्ति के फलस्वरूप बे या तो मरकर पापलोक में जाते हैं। पापलोक से यहाँ शास्त्रकार का तात्पर्य पापियों के लोक से है, वह पापियों का लोक नरक तो है ही तिर्यंचगति भी है, और मनुष्यगति में भी निकृष्ट पापी-म्लेच्छ क्षेत्र सम्भव हैं अथवा कदाचित् ऐसे व्यक्ति वालतप या अकाम-निर्जरा कर लेते हैं तो उसके फलस्वरूप मरकर वे आसुरी योनि में उत्पन्न होते हैं / 'आसुरियं दिसं' की व्याख्या वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं- 'असुराणामियं आसुरी, तां दिशं यन्ति, अपरप्रेष्याः किल्विषिकाः देवाधमाः भवन्तीत्यर्थः / " असुरों की दिशा आसुरी दिशा है, वे आसुरी दिशा में जाते हैं, अर्थात् दूसरों के दासरूप किल्विषी देव बनते हैं, परमाधार्मिक असुर बनते हैं। चूर्णिकार 'मासूरिय' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-'न तत्थ सूरो विद्यते'-अर्थात् जहाँ सूर्य नहीं होता है, यानी सूर्य प्रकाश के बिना अन्धकार छाया रहता है, द्रव्य अन्धकार भी तथा अज्ञान मोहरूप भावान्धकार भी। जैसे कि ईशावस्योपनिषत् में कहा है असुर्यानाम ते लोका अन्धेन समसावृताः / तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति, ये केचात्महनो जनाः।" अर्थात् असूर्य नामक लोक वे हैं, जो गाढ़ अन्धकार से आवृत्त हैं। जो कोई भी आत्मघातक (आत्मदण्डक) जन हैं, वे यहाँ से भरकर उन लोकों में जाते हैं / 15 वर्तमानदर्शी अज्ञानी जीवों की मनोवृत्ति एवं पापप्रवृत्ति- गाथा 152 में सर्वप्रथम उन अज्ञानियों की मनोदशा बतायी है कि यह तो प्रत्यक्ष अनुभव है कि यह प्रत्यक्ष दृश्यमान जीवन; आयुष्य के टूटने पर 14 (क) अभिधान राजेन्द्रकोश भाग 1 'आरम्म' शब्द देखिए। (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 72-73 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 73 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण), पृ० 27 (ग) ईशावास्योपनिषद श्लोक 3 (घ) वैदिक मतानुसार 'दक्षिण दिशा' --असुरों की दिशा है / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 153 से 154 वस्त्र की तरह फिर साधा (जोड़ा) नहीं जा सकता, ऐसा जीवन के रहस्य वेत्ता सर्वज्ञों ने कहा है। फिर भी अज्ञान और मोह के अन्धकार से व्याप्त मूढजन पापकर्म में निःसंकोच धृष्टतापूर्वक प्रवृत्ति करते हैं। उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि वे जो पापकर्म करते हैं, उसके कितने दारुण-दुष्परिणाम भोगने होंगे। और जिस जीवन के लिए वे पापकर्म करते हैं, वह जीवन भी तो पानी के बुलबुले या काँच की तरह एक दिन नष्ट हो जायेगा। उनसे जब कोई कहता है कि तुम्हें परलोक में (अगले जन्मों में) इन पापकर्मों का भयंकर फल भोगना पड़ेगा, उसका तो विचार करो।' तब वे उत्तर दे देते हैं-'पच्चूपन्नेन कारियं"परलोकमागते।' अरे ! परलोक किसने देखा है ? कौन परलोक देखकर आया है ? परलोक की बातें गप्प लगती हैं / मुझे तो बस वर्तमान काम-भोगजन्य सुख से मतलब (काम) है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है-"जो काम भोग अभी हस्तगत है, प्रत्यक्ष हैं, वे ही हैं, जिन्हें बहुत-सा काल व्यतीत हो गया, तो अतीत (नष्ट) हो गये और अनागत भी अभी अविद्यमान एवं अनिश्चित है। कौन जानता हैपरलोक है या नहीं है ?" ऐसे लोग जो परलोक, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप का फलभोग आदि को नहीं मानते, वे बेखटके अहर्निश मन चाहे पाप में प्रवृत्त होते हैं। ऐसे लोगों को इस बात की तो कोई परवाह नहीं होती कि कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा / उन वर्तमानजीवियों का तर्क है-वर्तमान काल में होने वाले पदार्थ ही वस्तुतः सत् है। अतीत और अनागत विनष्ट और अनुत्पन्न होने से अविद्यमान है। इसलिए प्रेक्षापूर्वक कार्य करने वाले के लिए वर्तमानकालीन पदार्थ ही प्रयोजन साधक होने से उपादेय हो सकता है। शास्त्रकार ने परोक्षरूप से इन दोनों गाथाओं द्वारा सुविदित साधु को आरम्भ एवं पापकर्मों से बचने का उपदेश दिया है। कठिन शब्दों की व्याख्या-चिरराय दीर्घकाल तक / आरम्भनिस्सिया=आरम्भ में रचे-पचे / पच्चुपन्नेन-प्रत्युत्पन्न-वर्तमानकालवर्ती / कारिय=कार्य, प्रयोजन / सम्यग्दर्शन में साधक-बाधक तत्त्व 153. अदक्खुव दक्खुवाहितं, सद्दहसु अद्दक्खुदंसणा। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे, मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा // 11 // 154. दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निविदेज्ज सिलोग-पूयणं / एवं सहिते ऽहिपासए, आयतुलं पाणेहिं संजते // 12 // 16 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 72 (ख) अमरसुखबोधिनी व्याख्या; पृ० 383 (ग) सूत्रकृतांग मूलपाठ टिप्पण युक्त पृ० 27; (घ) उत्तराध्ययन 10 5, गाथा 6 17 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 72-73 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय 153. अद्रष्टावत् (अन्धतुल्य) पुरुष ! प्रत्यक्षदर्शी (सर्वज्ञ) द्वारा कथित दर्शन (सिद्धान्त) में श्रद्धा करो। हे असर्वज्ञदर्शन पुरुषो ! स्वयंकृत मोहनीय कर्म से जिसकी दृष्टि (ज्ञान दृष्टि) अवरुद्ध (बन्द) हो गई है; (वह सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त को नहीं मानता) यह समझ लो। 154. दुःखी जीव पुनः-पुनः मोह-विवेकमूढ़ता को प्राप्त करता है। (अतः मोहजनक) अपनी स्तुति (श्लाघा) और पूजा (सत्कार-प्रतिष्ठा) से साधु को विरक्त रहना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानदर्शन-चारित्र-सम्पन्न (सहित) संयमी साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देखे। विवेचन-सम्यग्दर्शन में साधक एवं बाधक तत्व-इन दो सूत्रगाथाओं में सम्यग्दर्शन में साधकबाधक निम्नोक्त 6 तथ्यों का दिग्दर्शन कराया गया है-(१) सम्यग्द्रष्टा बनने के लिए केवलज्ञान-केवल दर्शन-सम्पन्न वीतरागोक्त-दर्शन (सिद्धान्त) पर दृढ़ श्रद्धा करो, (2) स्वयंकृत मोहकर्म के कारण सम्यग्दृष्टि अवरुद्ध हो जाने से व्यक्ति सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त पर श्रद्धा नहीं करता, (3) अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कारण जीव दुःखी होता है, (4) दुःखी जीव बार-बार अपनी दृष्टि एवं बुद्धि पर पर्दा पड़ जाने के कारण विवेकमूढ़ (मोह-प्राप्त) होता है, (5) साधक को मोह पैदा करने वाली आत्मश्लाधा और पूजा से विरक्त रहना चाहिए, (6) समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देखने वाला संयमी साधु ही सम्यग्दर्शी एवं रत्नत्रय सम्पन्न होता है / 'अक्खु व दक्खुवाहितं सद्दहसू'--'अद्दक्खूव' यह सम्बोधन हैं। संस्कृत में इसके पाँच रूप वृत्तिकार ने प्रस्तुत किये हैं-(१) हे अपश्यवत् / (2) हे अपश्यदर्शन ! (3) अदक्षवत् / (4) अदृष्टदर्शिन् / (5) अद्दष्टदर्शन / इनके अर्थ क्रमश: इस प्रकार हैं (1) जो देखता है, वह 'पश्य' है, जो नहीं देखता वह 'अपश्य कहलाता है। अपश्य को व्यवहार में अन्धा कहते हैं / यहाँ दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य-अन्ध से मतलब नहीं है, भाव-अन्ध ही यहाँ विवक्षित है / भावअन्ध तुल्य यहाँ तीन कारणों से माना गया है-(क) एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण, (ख) कर्तव्य-अकर्तव्य, हिताहित के विवेक से रहित होने के कारण, (ग) व्यवहार मात्र का लोप हो जाने के कारण / (2) 'पश्य' कहते हैं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी को, अपश्य कहते हैं-जो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं है, उसे / अतः यहाँ 'अपश्यदर्शन' का अर्थ हुआ हे असर्वज्ञ-असर्वदर्शी के दर्शन को मानने वाले पुरुष ! इसे दूसरे शब्दों में 'अन्य दर्शानानुयायी पुरुष' कह सकते हैं। (3) दक्ष का अर्थ है निपुण / दर्शनिक क्षेत्र में निपुण उसे कहते हैं, जो प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से तत्व को सिद्ध करने में निपुण हो। जो ऐसा न हो, वह 'अदक्ष' कहलाता है। अतः 'अवक्षवत्' का अर्थ हुआ-'हे अदक्ष के समान पुरुष।' अदृष्टदशिन्–अदृष्ट उसे कहते हैं-जैसे सूक्ष्म, व्यवहित, दूर, परोक्ष (क्षेत्र और काल से) भविष्य एवं इन्द्रिय-क्षीणता आदि के कारण सूक्ष्मादि पदार्थ दृष्ट नहीं है-दिखाई नहीं देते / इस कारण उसे 18 सूत्रकृतोग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भाग-१, पृष्ट 284 से 287 तक का सारांश Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 153 से 154 167 अदृष्ट दर्शी-अर्वाग्दी -जो सामने निकटवर्ती-प्रत्यक्ष है, उसे ही देखने वाला कहते हैं। उसका सम्बोधन में अदृष्टदर्शिन् रूप होता है। (5) अदष्ट असर्वज्ञ-असर्वदर्शी को भी कहते हैं, इस दृष्टि से अदृष्टदर्शन का अर्थ हुआ--जो अदष्ट (असर्वदर्शी) के दर्शन वाला है। जो भी हो, अपश्यदर्शन या अदृष्ट दर्शी भावतः अन्ध होने के कारण सम्यग्दर्शन युक्त नहीं होता / अतः उसे सम्बोधन करते हुए परमहितैषी शास्त्रकार कहते हैं.-"दयखवाहियं सदहसु' इसका भावार्थ यह है कि तुम कब तक सम्यग्दृष्टि विहीन रहोगे ? सम्यग्दर्शन सम्पन्न बनने के लिए सर्वज्ञ सर्वदर्शी द्वारा कथित तत्त्वों या सिद्धान्तों या आगमों पर श्रद्धा करो। एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने से समस्त व्यवहार का लोप हो जाने से मनुष्य बहुत-सी बातों में अप्रामाणिक एवं नास्तिक बन जाता है, फिर पुण्य-पाप स्वर्ग-नरक, कर्तव्य-अकर्तव्य, कर्म-अकर्म को नहीं मानने पर उसका सारा ही बहुमूल्य जीवन (सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप) धर्म से विहीन हो जाता है / यह कितनी बड़ी हानि है। इसीलिए इस गाथा के उत्तरार्द्ध में कहा गया है--'हंदिहु सुनिरुद्धवंसणे "कम्मुणा' सम्यग्दर्शन प्राप्ति का अवसर खो देने से अपने पूर्वकृत मोहनीय कर्म के कारण मनुष्य की सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञानदृष्टि बन्द हो जाती है। दुक्खी मोहे पुणो पुणो इस पंक्ति में शास्त्रकार के दो आशय छिपे हैं-पहला आशय यह है कि सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के अभाव में अज्ञान, अन्धविश्वास और मिथ्यात्व के कारण मनुष्य पाँच तरह से दुःखी हो जाता है-(१) हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य, श्रेय-प्रय, हेय-उपादेय का भान भूल जाने, से, धर्म-विरुद्ध कार्य करके, (2) वस्तु-तत्त्व का यथार्थ ज्ञान न होने से इष्ट वियोग-अनिष्ट संयोग में आर्तध्यान या चिन्ता करके; (3) परम हितैषी या आप्त वीतराग सर्वज्ञ सिद्धान्त या दर्शन पर विश्वास न करने से; तथा (4) अज्ञानवश मान-अपमान, निन्दा प्रशंसा, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों में समभाव न होने से। (5) मिथ्यात्वादि के कारण भयंकर पाप कर्मबन्ध हो जाने से बारबार कुगतियों में जन्म-मरणादि करके। शास्त्रीय परिभाषा में उदयावस्था को प्राप्त असातावेदनीय को या असातावेदनीय के कारण को दुःख कहते हैं, अथवा जो प्राणी को बुरा (प्रतिकूल) लगता है, सुहाता नहीं, उसे भो दुःख कहते हैं / दुःख जिसको हो रहा हो, उसे दुःखी कहते हैं। वही असातावेदनीय कर्म जब उदय में आता है, तब मूढजीव ऐसे दुष्कर्म करता है, जिससे वह बार-बार दुःखी होता है। दूसरा आशय है-दुःखी मनुष्य पुनः-पुनः मोहग्रस्त विवेकमूढ़ हो जाता है। उपयुक्त छः प्रकारों में से किसी भी प्रकार से दुःखी मानव अपनी बुद्धि पर मिथ्यात्व और अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से सही सोच नहीं सकता, वास्तविक निर्णय नहीं कर सकता, तत्त्व पर दृढ़ श्रद्धा नहीं कर सकता, सर्वज्ञोक्त वचनों पर उसका विश्वास नहीं जम सकता; फलतः वह बार-बार कुकृत्य करके विपरीत चिन्तन करके मूढ़ या मोहग्रस्त होता रहता है / अथवा मोहनीय कर्मबन्धन करके फिर चतुर्गतिक रूप भयंकर दुःखकारी अनन्त संसाराटवी में चक्कर काटता रहता है। 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 के आधार पर 20 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 के आधार पर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वंतालीय मोह के दो प्रबल कारणों-लाया और पका से विरक्त रहे-यहाँ एक प्रश्न होता है कि साधु-जीवन अंगीकार करने के पश्चात् तो सम्यग्दर्शनादि का उत्कट आचरण होने लगता है, फिर वहाँ मोह का और दुःख का क्या काम है ? इसका समाधान इसी पंक्ति में गर्भित है कि साधु-साध्वी सांसारिक पदार्थों की मोह-ममता त्याग कर सम्यक् प्रकार से संयम के लिए उत्थित हुये हैं फिर भी जब तक साधक वीतराग नहीं हो जाता, तब तक उसे कई प्रकार से मोह घेर सकता है जैसे (1) शिष्य-शिष्याओं, (2) भक्त-भक्ताओं, (3) वस्त्र-पात्रादि उपकरणों, (4) क्षेत्र-स्थान, (5) शरीर, (6) प्रशंसा-प्रसिद्धि, (7) पूजा-प्रतिष्ठा आदि का मोह। इसीलिए आचारांग सूत्र में दुःखी 'मोहे पुणो-पुणो के बदले ‘एत्थ मोहे पुणो-पुणों' पाठ है, जिसका आशय है-इस साधू-जीवन में भी पूनः-पूनः मोह का ज्वार आता है / प्रस्तुत गाथा में विशेष मोहोत्पादक दो बातों से खासतोर से विरक्त होने की प्रेरणा दी गयी है--निविदेज्ज सिलोग-पूयणं- श्लोक का अर्थ है-आत्मश्लाघा, या स्तुति, प्रशंसा, यशकीर्ति, प्रसिद्धि या वाहवाही। और पूजा का अर्थ हैं-वस्त्रादि दान द्वारा सत्कार, अथवा प्रतिष्ठा, बहुमान, भक्ति आदि। साधु-जीवन में और बातों का मोह छूटना फिर भी आसान है, परन्तु अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, पूजा-सम्मान और प्रतिष्ठा की लालसा छूटनी बहुत कठिन है, क्योंकि वह चुपके-चुपके साधक के मानस में घुसती हैं, और सम्प्रदाय, धर्म, कुल, तप, ज्ञान, अहंकार प्रभुत्व आदि कई रूपों में साधक का दिल-दिमाग भ्रान्त करती हुई आती हैं। इसीलिए शास्त्रकार यहाँ उसका समूलोच्छेदन करने के लिए कहते है--निठिंबदेज्ज' अर्थात् इन दोनों मोह जननियों से विरक्त हो जाओ। मन से भी इन्हें मत चाहो, न इनका चिन्तन करो। इनकी जरा-सी भी चाट लगी कि मोह मूढ़ बना बना साधक बात-बात में अपना अपमान, तिरस्कार, अपकीर्ति आदि मानकर दुःखी हो जायेगा।" सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है- सर्वप्राणियों के आत्मवत् दर्शन से-१५४वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में समस्त प्राणियों को आत्मवत् दृष्टि से देखने की प्रेरणा है / संयमी साधु के लिए स्व-पर का भेदभाव, स्व-सुख की ममता, और पर-सुख की उपेक्षा, स्वजीवन का मोह, परजीवन की उपेक्षा आदि विषमभाव निकालकर दर कर देना चाहिए। इस विषमभाव को मिटाने का सबसे सरल तरीका है-साधक समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य दृष्टि से देखें / अपने सुख-दुःख, जीवन-मरण के समान ही उनके सुख-दुःखादि को जाने। इसीलिए कहा गया है- “एवं सहितेऽहिपासए..."संजते / " चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-इस प्रकार संयमी साधु ज्ञानादि सम्पन्न होकर सभी प्राणियों को आत्मतुल्य से भी अधिक देखे / 22 'दक्खु बाहित' आदि पदों का अर्थ-दक्खुवाहितं =सर्वज्ञ-सर्वदर्शी द्वारा व्याहृत-कथित, वृत्तिकार के 21 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 387 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 (ग) आचारांग सूत्र श्र.०१ अ०२ उ०२ सू० 70 पृ० 46 में देखिए 'एत्य मोहे पुणो-पुणो सण्णा, णो हव्वाए, णो पाराए।' 22 (क) शीलांक वृत्ति (सू० कृ०) पत्रांक 73 का सारांश (ख) अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 387 का सारांश (ग) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ. 28 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 155 से 157 169 अनुसार- 'अबक्षुदर्शन: केवलदर्शनः-सर्वज्ञः, तस्माद् यदाप्यते हितं तत् / ' अर्थात् अचक्षुदर्शन वाला-यानी केवलदर्शनी जो सर्वज्ञ है, उससे जो हित (हितकर वचन) प्राप्त होता है उस पर / अद्दक्खूदंसणा-असर्वज्ञ के दर्शन वालो ! वृत्तिकार ने अचक्खुदसणा' पाठान्तर मानकर उपर्युक्त अर्थ ही किया है। सुव्रती समन्वदशी-गृहस्थ देवलोक में 155. गारं पि य आवसे नरे, अणुपुव्वं पाणेहि संजए। समया सव्वत्थ सुव्बए, देवाणं गच्छे स लोगयं // 13 // 155. घर (गृहस्थ) में भी निवास करता हुआ मनुष्य क्रमशः प्राणियों पर (यथाशक्ति) संयम रखता है, तथा सर्वत्र (सब प्राणियों में) समता रखता है, तो वह (समत्वदर्शी) सुव्रती (श्रावकव्रती गृहस्थ) भी देवों के लोक में जाता है। विवेचन-सुबती समस्वदर्शी गृहस्थ भी देवलोकगामी-प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि गृहस्थी भी तीन गुणों से समन्वित होकर देवों के लोक में चला जाता है। वे तीन विशिष्ट गुण ये हैं-(१) वह गृहस्थ में रहता हुआ मर्यादानुसार प्राणिहिंसा पर संयम (नियन्त्रण) रखे, (2) आहेत्प्रवचनोक्त समस्त एकेन्द्रियादि प्राणियों पर समभाव-आत्मवद्भाव रखे, तथा (3) श्रावक के व्रत धारण करे / उत्तराध्ययनसूत्र में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है कि सुव्रती भिक्षु हो या गृहस्थ, दिव्यलोक में जाता है।२४ कठिन शब्दों की व्याख्या---'समया सम्वत्थ सम्वए'-वत्तिकार के अनुसार-इस वाक्य के दो अर्थ हैं(१) समता यानी समभाव-स्व-पर तुल्यता सर्वत्र-साधु और गृहस्थ के प्रति रखता है, अथवा आर्हत्प्रवचनोक्त एकेन्द्रियादि समस्त प्राणियों पर समभाव रखता है, ऐसा सुना जाता है, कहा जाता है / चूर्णिकार के अनुसार-जो सर्वत्र समताभाव रखता है, वह गृहस्थ भले ही सामायिक आदि क्रियाएँ न करता हो, फिर भी समताभाव के कारण / देवाणं गच्छे स लोगयं-वह देवों (वैमानिकों) के लोक में जाता है। चूर्णिकार ‘स लोगयं' को 'सलोगतं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं-'देवाणं गच्छे सलोगतं-समानलोगतं सलोगतं / अर्थात्-देवों का समान लोकत्व (स्थान या अवधिज्ञान दर्शन) पा जाता है अथवा देवों का श्लोकत्व= प्रशंसनीयत्व प्राप्त कर लेता है।५ गारं पि य आवसे नरे-आगर-गृह में निवास करता हुआ भी। मोक्षयात्री भिक्षु का आचरण 156. सोच्चा भगवाणुसासणं, सच्चे तत्थ करेहुवयकम। सम्वत्थऽवणीयमच्छरे, उंछ भिक्खु विसुद्धमाहरे // 14 // 23 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) तुलना 'भिक्खाए व गिहत्थे वा सुब्बए कम्मइ दिवं।' -उत्तराध्ययन अ० 5/22 25 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) 'सम्वत्थ समतां भावयति, तदनु चाकृतसामायिकः शोभनव्रतः सुव्रतः।' -सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ. 28 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालिय 157. सव्यं गच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। गुत्ते जुत्ते सदा जए, आय-परे परमाययट्ठिए // 15 // 156. भगवान् (वीतराग सर्वज्ञ प्रभु) के अनुशासन (आगम या आज्ञा) को सुनकर उस प्रवचन (आगम) में (कहे हुए) सत्य (सिद्धान्त या संयम) में उपक्रम (पराक्रम) करे / भिक्षु सर्वत्र (सब पदार्थों में) मत्सररहित होकर शुद्ध (उञ्छ) आहार ग्रहण करे। 157. साधु सब (पदार्थों या हेयोपादेयों) को जानकर (सर्वज्ञोक्त सर्वसंवर का) आधार (आश्रय) ले; धर्मार्थी (धर्म का अभिलाषी) रहे; तप (उपधान) में अपनी शक्ति लगाये; मन-वचन-काया की गुप्ति (रक्षा) से युक्त होकर रहे; सदा स्व-पर-कल्याण के विषय में अथवा आत्मपरायण होकर यत्न करे और परम-आयत (मोक्ष) के लक्ष्य में स्थित हो। विवेचन--मोक्षयात्री भिक्षु का आचरण-प्रस्तुत सूत्र गाथाद्वय में मोक्षयात्री भिक्षु के लिए ग्यारह आचरणसूत्र प्रस्तुत किये गये हैं--(१) सर्वज्ञोक्त अनुशासन (शिक्षा, आगम या आज्ञा) को सुने, (2) तदनुसार सत्य (सिद्धान्त या संयम) में पराक्रम करे, (3) सर्वत्र मत्सरहित (रागद्वष रहित या क्षेत्र, गृह, उपाधि, शरीर आदि पदार्थों में लिप्सारहित) होकर रहे, (4) शुद्ध भिक्षुचर्या करे; (5) हेय-ज्ञ य-उपादेय को जानकर सर्वज्ञोक्त संवर का ही आधार ले; (6) धर्म से ही अपना प्रयोजन रखे, (7) तपस्या में अपनी शक्ति लगायेः (8) तीन गप्तियों से युक्त होकर रहे; (8) सदैव यत्नशील रहे; (10) आत्मपरायण या स्व-पर-हित में रत रहे, और (11) परमायत-मोक्षरूप लक्ष्य में दृढ़ रहे / 26 भगवदनुशासन-धषण क्यों आवश्यक ?- मोक्षयात्री के लिए पाथेय के रूप में सर्वप्रथम भगवान का अनुशासन-श्रवण करना इसलिए आवश्यक है कि जिस मोक्ष की वह यात्रा कर रहा है, भगवान उस मोक्ष के परम अनुभवी, मार्गदर्शक हैं, क्योंकि ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री, समग्र ऐश्वर्य एवं मोक्ष इन छ: विभूतियों से वे (भगवान) सम्पन्न होते हैं / वे वीतराग एवं सर्वज्ञ होते हैं, वे निष्पक्ष होकर वास्तविक मोक्ष-मार्ग ही बताते हैं / उनकी आज्ञाएँ या शिक्षाएँ (अनुशासन) आगमों में निहित हैं, इसलिए गुरु या आचार्य से उनका प्रवचन (आगम) सुनना सर्वप्रथम आवश्यक है / सुनकर ही तो साधक श्रेय-अश्रेय का ज्ञान कर सकता है / 27 सर्वज्ञोक्त सत्य-संयम में पराक्रम करे-जब श्रद्धापूर्वक श्रवण होगा, तभी साधक उस सुने हुए सत्य को सार्थक करने हेतु अपने जीवन में उतारने का पुरुषार्थ करेगा। अन्यथा कोरा श्रवण या कोरा भाषण तो व्यर्थ होगा। शास्त्र में बताया है--"सच्चे सधपरक्कमे" साधु सत्य में सच्चा पराक्रम करे / 28 परन्तु साधक का सत्य-संयम में पुरुषार्थ मत्सरहित-राग-द्वेष रहित--होगा तभी वह सच्चा पुरुषार्थ होगा / 26 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 27 (क) सूत्रकृतांम अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 386 के अनुसार (ख) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ग) सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावर्ग-दशवै० 4 / 11 28 उत्तराध्ययन सूत्र अ० 18/24 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 155 से 157 171 सब पदार्थों में मत्सरहित होकर रहे-मूल में 'सम्वत्थ विणीयमच्छरे' पाठ है, उसका शब्दशः अर्थ तो यही होता है, किन्तु वृत्तिकार ने इसके दो और विशेष अर्थ प्रस्तुत किये हैं-(१) सर्वत्र यानी क्षेत्र, गृह, उपाधि, शरीर आदि पदार्थों की तृष्णा (लिप्सा) को मन से हटा दे, अथवा (2) सर्व पदार्थों के प्रति न तो राग या मोह करे, न ही द्वेष, घृणा या ईर्ष्या करे; क्योंकि मत्सर होगा, वहाँ द्वष तो होगा ही, जहाँ एक ओर द्वेष होगा, वहाँ दूसरी ओर राग-मोह अवश्यम्भावी है। साधक की मोक्षयात्रा में ये बाधक हैं; अतः इनसे दूर ही रहे। शुद्ध भिक्षाचरी क्या, क्यों और कैसे ? साधु भिक्षाजीवी होता है, परन्तु उसकी भिक्षाचरी 47 एषणा दोषों से रहित होनी चाहिए, वही विशुद्ध भिक्षा कहलाती है। औद्देशिक आदि दोषों से युक्त भिक्षा होगी तो साधु अहिंसा महाव्रत, संयम, एषणा समिति अथवा तप का आचरण यथार्थ रूप से नहीं कर सकेगा। दोषयुक्त भिक्षा ग्रहण एवं सेवन से साधु की तेजस्विता समाप्त हो जायेगी, उसमें नि:स्पृहता, निर्लोभता (मुत्ती), त्याग एवं अस्वादवृत्ति नहीं रह पायेगी / यहाँ भिक्षा के बदले शास्त्रकार ने 'उछ' शब्द का प्रयोग किया है, प्राकृत शब्दकोश के अनुसार उसका अर्थ होता हैं-"क्रमशः (कण-कण करके) लेना।' इसका तात्पर्य है-अनेक गृहस्थों के घरों से थोड़ी-थोड़ी भोजन सामग्री ग्रहण करना।" जाने सब, पर आधार सर्वोक्त शास्त्र का ले-साधु यद्यपि बहुत-सी चीजों को जानता-देखता है, उनमें कई हेय होती हैं, कई ज्ञय और कई उपादेय / साधु राजहंस की तरह सर्वज्ञोक्त शास्त्ररूपी चोंच द्वारा हेय-ज्ञय-उपादेय का नीर-क्षीर-विवेक करे, यही अभीष्ट है। अथवा सर्वज्ञोक्त पंचसंवर को आधारभूत मानकर उसी कसौटी पर उन पदार्थों को कसे और जो संवर के अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे शेष को छोड़ दे या जानकर ही विराम करे / साधु स्वयं हेयादि का निर्णय करने जायेगा तो छद्मस्थता (अल्पज्ञता) वश गड़बड़ा जायेगा, इसलिए सर्वज्ञोक्त पंचसंवर के माध्यम से निर्णय करे।३१ ___सया जए-यह छोटा-सा आचरण सूत्र हैं, लेकिन इसमें गम्भीर अर्थ छिपा हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु चलना-फिरना, उठना-सोना, खाना-पीना, बोलना आदि प्रत्येक क्रिया यत्नपूर्वक करे। वह इस बात का विवेक रखे कि इस प्रवृत्ति या क्रिया के करने में कहीं 'हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि आस्रवों से तो मैं नहीं लिप्त हो जाऊँगा? अगर कोई क्रिया हिंसादि दोषयुक्त हो, या भविष्य में अनर्थकारक, हिंसादि पापवर्द्धक हो तो उसे न करना। यह इस सूत्र का आशय है / 32 आय-परेका वृत्तिकार ने तो 'यतेताऽऽत्मनि परस्मिश्च' अपने और पर के सम्बन्ध में यत्न करे। यही अर्थ किया है, परन्तु हमारी दृष्टि से इसका दूसरा अर्थ 'आत्म-परायण हो' यह होना चाहिए। इसका आशय यह है कि साधु की प्रत्येक प्रवृत्ति आत्मा को केन्द्र में रखकर होनी चाहिए / जो प्रवृत्ति आत्मा के लिए अहितकर, आत्मशुद्धिबाधक, कर्मबन्धजनक एवं दोषवद्धक हो, आत्म-गुणों (ज्ञानादि रत्नत्रयादि) के 26 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 30 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ. 360 पर से 31 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ. 360 32 दशवकालिक अ०४/गा० 1 से 6 तक की हारिभंद्रीय टीका Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 सूत्रहतांग-द्वितीय अध्ययन-बेतालीय घातक हों, उससे सतत बचना ही आत्मपरकता या आत्मपरायणता है। जो प्रवृत्ति आत्मा के लिए अकल्याणकर अहितकर हो, किन्तु दूसरों को उससे अर्थादिलाभ होता हो तो भी उसे न करे। परमाययट्ठिए-परमायत--मोक्ष (मोक्ष के लक्ष्य) में स्थित रहे। परम उत्कृष्ट आयत-दीर्घ हो, वह परमायत है, अर्थात् जो सदा काल शाश्वत स्थान है, श्रेष्ठ धाम है। साधु उस परमायत लक्ष्य में स्थित-परमायतस्थित तथा उस परमायत का अर्थी परमायतार्थिक-मोक्षाभिलाषी हो। अथवा अपने मन, वचन और काया को साधु मोक्षरूप लक्ष्य में ही स्थिर रखे, डांवाडोल न हो कि कभी तो मोक्ष को लक्ष्य बना लिया, कभी अर्थ-काम को या कभी किसी क्षुद्र पदार्थ को। शेष आचरण-सूत्र तो स्पष्ट हैं। इन 11 आचरणसूत्रों को हृदयंगम करके साधु को मोक्षयात्रा करनी चाहिए। अशरण भावना 158. वित्तं पसयो य णातयो, तं बाले सरणं ति मण्णती। एते मम तेसु वो अहं, नो ताणं सरणं च विजय // 16 // 156. अन्भागमितम्मि वा दुहे, अहवोवक्कमिए भवंतए। एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं न मन्नतो // 17 // 160. सव्वे सयकम्मकप्पिया, अव्वत्तेण दुहेण पाणिणो / हिंडंति भयाउला सढा, जाति-जरा-मरणेहभिदुता // 18 // 158. अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञातिजनों को अपने शरणभूत (शरणदाता या रक्षक) समझता है कि ये मेरे हैं, मैं भी उनका हूँ। (किन्तु वस्तुतः ये सब उसके लिए) न तो त्राणरूप हैं आर न शरणरूप हैं। 156. दुःख आ पड़ने पर, अथवा उपक्रम (अकालमरण) के कारणों से आयु समाप्त होने पर या भवान्त (देहान्त) होने पर अकेले को जाना या आना होता है / अतः विद्वान् पुरुष धन, स्वजन आदि को अपना शरण नहीं मानता। 160. सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के कारण विभिन्न अवस्थाओं में व्यवस्थित-विभक्त हैं और सभी प्राणी अव्यक्त (अलक्षित) दुःख से दुःखी हैं / भय से व्याकुल शठ (अनेक दुष्कर्मों के कारण दुष्ट) जन जन्म, जरा और मरण से पीड़ित होकर (बार-बार संसार-चक्र में) भ्रमण करते हैं। 33 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 360 34 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 158 से 160 विवेचन-कोई भी त्राता एवं शरणदाता नहीं—प्रस्तुत तीन गाथाओं में अशरण-अनुप्रेक्षा (भावना) का विविध पहलुओं से चित्रण किया गया है-(१) अज्ञानी जीव धन, पशु एवं स्वजनों को भ्रमवश त्राता एवं शरणदाता मानता है, परन्तु कोई भी सजीव-निर्जीव त्राण एवं शरण नहीं देता। (2) दुःख, रोग, दुर्घटना, मृत्यु आदि आ पड़ने पर प्राणी को अकेले ही भोगना या परलोक जाना-आना पड़ता है। (3) विद्वान् (वस्तुतत्वज्ञ) पुरुष किसी भी पदार्थ को अपना शरणरूप नहीं मानता। (4) सभी प्राणी अपनेअपने पूर्वकृत कर्मानुसार विभिन्न अवस्थाओं (गतियों-योनियों) को प्राप्त किये हुए हैं। (5) समस्त प्राणी अव्यक्त दुःखों से दुःखित हैं / (6) दुष्कर्म करने वाले जीव जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु आदि से पीड़ित एवं भयाकुल होकर संसार चक्र में परिभ्रमण करते हैं। ___ धन आदि शरण योग्य एवं रक्षक क्यों नही ?-प्रश्न होता है कि धन आदि शरण्य एवं रक्षक क्यों नहीं होते ? इसके उत्तर में एक विद्वान् ने कहा है "रिद्धि सहावतरला, रोग-जरा-मंगुरं यसरीरं। दोण्हं पिगमणसीलाणं कियच्चिरं होज्ज संबंधो?" अर्थात्-ऋद्धि (धन-सम्पत्ति) स्वभाव से ही चंचल है, यह विनश्वर शरीर रोग और बुढ़ापे के कारण क्षणभंगुर है / अतः इन दोनों (गमनशील-नाशवान) पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ? वास्तव में जिस शरीर के लिए धनादि वस्तुओं के संचय की इच्छा की जाती है, वह शरीर ही विनाशशील है। फिर वे धनादि चंचल पदार्थ शरीर आदि को कैसे नष्ट होने से बचा सकेंगे? कैसे उन्हें शरण दे सकेंगे? जिन पशुओं (हाथी, घोड़ा, बल, गाय, भैंस, बकरो आदि) को मनुष्य अपनी सुख-सुविधा, सुरक्षा एवं आराम के लिए रखता है, क्या वे मनुष्य की मृत्यु, व्याधि, जरा आदि को रोक सकते हैं ? वे ही स्वयं जरा मृत्यु, व्याधि आदि से ग्रस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में वे मनुष्य की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं ? युद्ध के समय योद्धा लोग हाथी, घोड़ा आदि को अपना रक्षक मानकर मोर्चे पर आगे कर देते हैं, परन्तु क्या वे उन्हें मृत्यु से बचा सकते हैं ? जो स्वयं अपनी मृत्यु आदि को रोक नहीं सकता, वह मनुष्य की कैसे रक्षा कर सकता है, शरण दे सकता है ? इसी प्रकार माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बहन आदि ज्ञाति (स्व) जन भी स्वयं मृत्यु, जरा, व्याधि आदि से असुरक्षित है, फिर वे किसी की कैसे रक्षा कर सकेंगे, कैसे शरण दे सकेंगे? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'वितं पसवो""सरणं मण्णती।'-इसका आशय यही है कि धनादि पदार्थ शरण योग्य नहीं हैं, फिर भी अज्ञानी जीव मूढ़तावश इन्हें शरणरूप मानते हैं। वे व्यर्थ ही ममत्ववश मानते हैं कि 'ये सजीव-निर्जीव पदार्थ मेरे हैं, मैं भी उनका हूँ।४। 35 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० 1, पृ० 261 से 265 तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याल्या, पृ० 361 से 363 तक का सारांश (ग) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 75 के आधार पर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय मान लो, माता-पिता आदि स्वजनों को कोई भ्रान्तिवश अपना शरणदाता एवं त्राता मानता है, परन्तु अशुभ कर्मोदयवश उस व्यक्ति पर कोई दुःख, संकट आ गया, सोपक्रमी आयु वाला होने से अकस्मात् कोई दुर्घटना हो गयी, इस कारण आयु नष्ट हो गयी तथा देहान्त हो गया। ऐसे समय में उस व्यक्ति के माता-पिता आदि स्वजन न तो उसके बदले में दुःख भोग सकते हैं, न ही दुर्घटना से उसे बचा सकते हैं, और न ही आयुष्य नष्ट होने से रोक सकते हैं, तथा शरीर छूटने से भी यानी मृत्यु से भी उसे बचा नहीं सकते, क्यों ? इसलिए कि उसके स्वकृत कर्म अलग हैं, माता-पिता आदि स्वजन के कृतकर्म अलग हैं। उसके कर्मों का फल न तो उसके माता-पिता आदि भोग सकते हैं और न ही न ही पुत्र आदि अपने माने हुए माता-पिता आदि के द्वारा किये गये कर्मों का फल भोग सकते हैं / कोई भी स्वजन उसके रोग को न तो घटा सकता है और न ही नष्ट कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि कर्मों का सुखद या दुःखद फल भोगते समय व्यक्ति अकेला ही होता है / अकेला ही परलोक में जाता है, अकेला ही वहाँ से दूसरे लोक में जन्म लेता है। दूसरा कोई भी उसके साथ परलोक में नहीं जाता और न वहाँ से आता है / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- "अम्भागमितम्मि वा दुहे "विदुमं ता सरणं न मन्नती।" आशय उपर स्पष्ट किया जा चुका है। निष्कर्ष यह है कि इन सब कारणों से वस्तुतत्वज्ञ विद्वान् किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ को अपना शरणभूत नहीं मानते। स्वकर्म-सूत्र से प्रथित सारा संसार-प्रश्न होता है कि जीव अकेला ही जन्मता-मरता और अकेला ही किसी गति या योनि में क्यों जाता-आता है ? इस प्रश्न का उत्तर इस गाथा में दिया गया हैसम्बे सयकम्मकप्पिया'जाइजरामरणे हभिदता / ' सभी जीव अपने-अपने कर्मों के कारण नाना गतियाँ योनियाँ, शरीर, इन्द्रियां आदि प्राप्त करते हैं। अपने ही ज्ञानावरणीयादि कर्मों के कारण जीव सूक्ष्मबादर, पर्याप्त-अपर्याप्त, सम्मूर्छिम-गर्भज तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में भी मनुष्य, तिर्यञ्च, देव या नरक आदि विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं। दूसरा तथ्य यह है कि इन विभिन्न अवस्थाओं में भी प्राणी अपने-अपने कर्मों के प्रभाव से रोग, निर्धनता, अभाव, अपमान, संकट कर्जदारी, आदि विभिन्न कारणों से स्वयं ही शारीरिक, मानसिक एवं प्राकृतिक दुःख पाता है। ये समस्त दुःख मन में ही महसूस होते हैं, इसलिए इन्हें अव्यक्त-अप्रकट कहा है, क्योंकि साधारण अल्पज्ञ व्यक्ति इन्हें सहसा जान नहीं पाता। हाँ, असातावेदनीय के फलस्वरूप दुःख आ पड़ने पर व्यक्ति के वाणी तथा आकृति आदि पर से दुःख को अनुमानतः व्यक्त रूप से जाना जा सकता है, परन्तु सामान्यतया दुःख अव्यक्त होता / दुःख एक मानसिक अवस्था है, प्रतिकूल रूप से वेदन भी मानसिक होता है, जो प्रत्येक प्राणी का अपना अलग-अलग होता है। ____ कई लोग कहते हैं कि समस्त प्राणियों को अपने-अपने कर्मों का फल मिलता है, किन्तु प्रायः देखा जाता है कि कई दुष्कर्म करने वाले पापी लोग पापकर्म (हत्या, लूटपाट, चोरी, व्यभिचार आदि) करते हैं, फिर भी वे यहाँ मौज से रहते हैं, वे सम्पन्न हैं, समाज में भी प्रशंसित हैं, ऐसा क्यो ? इसी का समाधान देने हेतु सूत्रगाथा 60 का उत्तर्राद्ध प्रस्तुत है-- 36 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ 364 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 75 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 158 से 160 175 "हिंउंति भयाउला सढा जाति जरामरणेहऽभिद्दता" इससे दो तथ्य प्रतिफलित होते हैं-(१) यहाँ वे भयाकुल होकर ही घूमते हैं, (2) अथवा वे जन्म, जरा; मरण आदि से यहाँ या आगे पीड़ित रहते हैं। प्रायः देखा जाता है कि चोरी, डकैती, हत्या, लूटपाट, बलात्कार आदि भयंकर पाप करने वाले दुष्ट (शठ) लोग प्रतिक्षण आशंकित, भयभीत, दण्डभय से व्याकुल और समाज में बेइज्जती हो जाने की आशंका से चिन्तित रहते हैं / कई लोग तो एकान्त स्थानों में छिपकर या सरकार की नजर बचाकर अपनी जिन्दगी बिताते हैं। उनका पाप उन्हें हरदम कचोटता रहता है / कोई उसकी हत्या न कर दे, बदला न ले ले, बुरी तरह मारपीट कर अधमरा न कर दे, इस प्रकार उन दुष्कर्मियों का वह जीवन मुट्ठी में रहता है। चिन्ता ही चिन्ता के कारण उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त-सा हो जाते हैं / कभी हृदय-रोग का हमला, रक्तचाप, क्षय आदि रोगों के कारण जिन्दगी बर्बाद हो जाती है, असमय में ही बुढ़ापा आ जाता है। इसलिए बहुत-से लोगों को तो इसी जन्म में दुष्कर्म का फल मिल जाता है / मृत्यु के समय भी कई अत्यन्त भयभीत रहते हैं। अगर किसी को इस जन्म में अपने दुष्कर्मों का फल नहीं मिलता तो अगले जन्मों में अवश्य ही मिलता है। वे जन्ममृत्यु के चक्के में पिसते रहते हैं / निःसन्देह कहा जा सकता है कि संसार में कोई किसी का त्राता एवं शरणदाता नहीं हो सकता, सभी को अपने-अपने कर्मों से तथा तदनुसार दुःखों से निपटना होता है। उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में भी इसी तथ्य का उद्घाटन किया गया है। कठिन शब्दों को व्याख्या- 'अश्वत्तण दुहेण पाणिणो' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है-अव्यक्तअपरिस्फुट शिरोवेदना आदि अलक्षित स्वभावरूप दुःख से प्राणी दुःखित हैं। चूणिकार 'अश्वत्तण' के बदले अवियत्तण पाठ मानकर इसके संस्कृत में दो रूप बनाकर अर्थ करते हैं.---'अवियत्तेण कृती छेदने, न विकृतं अच्छिन्नमित्यर्थस्तेन, अथवा अवियसन अधिगच्छन्तेनेत्यर्थः / " कृती धातु छेदने अर्थ में है / विकृत नहीं, अर्थात् अविकृत-अविच्छिन्न, उस (दुःख) से, अथवा अवियत्तन का अर्थ-जानते हुए या स्मरण करते हुए' भी होता है। पहले अर्थ के अनुसार-अविच्छिन्न (लगातार) दुःख से प्राणी दुःखी होते हैं, दूसरे अर्थ के अनुसार-ज्ञात और संस्मत दुःख से प्राणी दुःखी होते है, 'जातिजरामरणे हऽभिदृदुर ने 'बाधिजरामरणेहिऽभिदुता' पाठान्तर माना है, जिसका अर्थ होता है-यहाँ व्याधि, जरा एवं मरण से पीड़ित / 'विदुमंता' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है-विद्वान्-विवेकी-संसार स्वभाव का यथार्थवेत्ता। चूर्णिकार 'विदु मंता' इन दोनों पदों को 'विदु मत्वा के रूप में पृथक्-पृथक् करके अर्थ करते हैं-विद्वान इस प्रकार जान-मानकर (पूर्वोक्त ज्ञाति आदि वस्तुओं को शरण नहीं मानते / ) 37 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 75 के आधार पर (ख) देखिए प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रथम आस्रव द्वार और तनीय आस्रव द्वार का वर्णन / (ग) माणुसत्ते असारंमि वाहीरोगाण आलए / ___जरा-मरणघत्पंमि खणंपि न रमामहं // -उत्तराध्ययन सूत्र अ०१६/१४ 38 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 75 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 26 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन-बेतालीय बोधिदुर्लभता की चेतावनी-- 161. इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहिं च आहियं / एवं सहिएऽहिपासए, आह जिणे इणमेव सेसगा // 19 // 161. ज्ञानादि सम्पन्न या स्वहितेषी मुनि इस प्रकार विचार (या पर्यालोचन) करे कि यही क्षण (बोधि प्राप्ति का) अवसर है, बोधि (सम्यग्दर्शन या सद्बोध की प्राप्ति) सुलभ नहीं है। ऐसा जिन-रागद्वेष विजेता (तीर्थंकर ऋषभदेव) ने और शेष तीर्थंकरों ने (भी) कहा है। विवेचन-बोधिदुर्लभता की चेतावनी- इस गाथा में शास्त्रकार वर्तमान क्षण का महत्त्व बताकर चेतावनी देते हैं कि बोधि दुर्लभ है। उत्तरार्द्ध में इस तथ्य की पुष्टि के लिए समस्त राग-द्वष-विजेता तीर्थंकरों की साक्षी देते हैं। इणमेव खणं-इस वाक्य में 'इणं' (इदं) शब्द प्रत्यक्ष और समीप का और 'खणं' अवसर अर्थ का बोधक है / 'एव' शब्द निश्चय अर्थ में है। शास्त्रकार के आशय को खोलते हुए वृत्तिकार कहते हैं-मोक्ष साधना के लिए यही क्षेत्र और यही काल, तथा यही द्रव्य और यही भाव श्रेष्ठ अवसर है। द्रव्यतः श्रेष्ठ अवसर-जंगम होना, पंचेन्द्रिय होना, उत्तमकुलोत्पत्ति तथा मनुष्य जन्म प्राप्ति हैक्षेत्रतः श्रेष्ठ अवसर है-साढे पच्चीस जनपद रूप आर्यदेश प्राप्त होना / कालत: श्रेष्ठ अवसर है-अवसर्पिणी काल का चतुर्थ आदि आरा तथा वर्तमान काल धर्म प्राप्ति के योग्य है। भावतः श्रेष्ठ अवसर है-सम्यक्पृ श्रद्धान एवं चारित्रावरणीयं कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न सर्वविरति स्वीकार करने में उत्साह रूप भाव अनुकूलता। सर्वज्ञोक्त (शास्त्रोक्त) कथन से ऐसा क्षण (अवसर) प्राप्त होने पर भी जो जीव धर्माचरण या मोक्षमार्ग की साधना नहीं करेगा उसे फिर बोधि प्राप्त करना सुलभ नहीं होगा, यही इस गाथा का आशय है।* इस प्ररणा सूत्र के द्वारा साधक को गम्भीर चेतावनी शास्त्रकार ने दे दी है-'एवं सहिएऽहियासए' इस प्रकार (पूर्वोक्त कथन को जानकर) ज्ञानादि सहित या स्वहितार्थी साधक को अपनी आत्मा में (भीतर) झांकना चाहिए। इस चेतावनी के रहस्य को खोलने के लिए वृत्तिकार एक गाथा प्रस्तुत करते हैं लढे लिय बोहिं, अकरें तो अणागयं च पत्तो / अग्ने दाई बोहिं, लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं ?" 36 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 75 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 365 के आधार पर (ग) तुलना-खणं जाणाहि पंडिए'-आचारांग सूत्र 1, अ०२ उ०२ सू० 68044 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 162 से 163 177 __ अर्थात--जो पुरुष उपलब्ध बोधि को सार्थक नहीं करता और भविष्य काल में बोधि प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है अर्थात् यह चाहता है कि मुझे भविष्य में बोधि मिले, वह दूसरों को बोधि देकर क्या मूल्य चुकाकर पुनः बोधि लाभ करेगा? तात्पर्य यह है कि आत्महितार्थी साधक को दीर्घदृष्टि से यह सोचना चाहिए कि अगर एक बार बोधिलाभ का अवसर खो दिया तो अर्धपुद्गल-परावर्तन काल तक फिर बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त करना दुर्लभ होगा। अतः साधक सदैव बोधि दुर्लभता का ध्यान रखे / वह अपने अंतरतम में झांककर सदैव पता लगाता रहे कि बोधि-लाभ को सार्थक करने का कोई भी क्षण खोय तो नहीं है। बोधिदुर्लभता का यह उपदेश केवल शास्त्रकार ही नहीं कर रहे हैं। अष्टापद पर्वत पर प्रथम तीर्थंकर ने अपने पुत्रों को यह उपदेश दिया था, शेष तीर्थंकरों ने भी यही बात कही है। पाठान्तर 'अहियासए' के बदले 'अधियासए' पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ होता है-'परिषहोपसर्गो को समभाव से सहन करे। भिक्षुओं के मोक्षसाधक गुणों में ऐकमल्य 162. अविसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भविसु सुव्वता। एताई गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो // 20 // 163. तिविहेण वि पाणि मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे / एवं सिद्धा अणंतगा, संपति जे य अणागयाऽवरे // 21 // 162. भिक्ष ओ ! पूर्वकाल में भी जो (सर्वज्ञ) हो चुके हैं और भविष्य में भी जो होंगे, उन सुव्रत पुरुषों ने इन्हीं गुणों को (मोक्ष साधन) कहा है। काश्यपगोत्रीय (भगवान् ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर स्वामी) के धर्मानुगामी साधकों ने भी यही कहा है। 163. मन, वचन और काया इन तीनों से प्राणियों का प्राणातिपात (हिंसा) न करे तथा-हित (अपने कल्याण) में रत रहे, स्वर्गादि सुखों की वाञ्छा (निदान) से रहित, सुव्रत होकर रहे। इस प्रकार (रत्नत्रय की साधना से) अनन्त जीव (भूतकाल में) सिद्ध-मुक्त हुए हैं, (वर्तमानकाल में हो रहे हैं) और भविष्य में भी अनन्त जोव सिद्ध-बुद्ध मुक्त होंगे। विवेचन--भिक्षओं के मोक्षसाधक गुण : सभी तीर्थंकरों का एकमत-प्रस्तुत गाथाद्वय में पूर्वोक्त गाथाओं में निरूपित मोक्ष साधक गुणों के सम्बन्ध में सभी तीर्थंकरों की एक वाक्यता बतायी गयी है, तथा पंचमहाब्रत आदि अन्य चारित्र गुणों से युक्त साधकों को तीनों कालों में मुक्ति भी बतायी गयी है।" 'अविसु पुरावि....एताइगुणाई आएमा-- |' इस गाथा पंक्ति का आशय यह है कि पूर्व गाथाओं में 40 सूत्रकृतांम शीलांक वृत्ति पृ० 75 41 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 75 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन बेतालीय जिन मोक्ष साधक गुणों का निरूपण किया गया है, उस सम्बन्ध में अतीत, अनागत वर्तमान के सर्वज्ञ एक मत है, इतना ही नहीं काश्यप गोत्रीय भगवान् ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर के धर्मानुगामी साधकों का भी यही मत है। 'सुव्वआ' - शब्द इस बात का सूचक है कि इन पुरुषों को जो सर्वज्ञता प्राप्त हुई थी, वह उत्तम व्रतों के पालन से ही हुई थी और होगी। तिविहेण वि पाणि मा हणे --संवुडे-यद्यपि मोक्ष-साधन तीन है-सम्यग् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र, परन्तु यहां केवल सम्यक् चारित्र (महाव्रतादि) से मुक्त-सिद्ध होने का जो वर्णन किया है-वह इस अपेक्षा पेक्षा से है कि जहां सम्यक चारित्र आयेगा, वहां सम्यक ज्ञान अवश्यम्भावी है और ज्ञान सम्यक् तभी होता है, जब दर्शन सम्यक् हों। अतः सम्यक् चारित्र में सम्यक् ज्ञान और सम्यग्दर्शन का समावेश हो ही जाता है / अथवा पूर्व गाथाओं में सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा ही जा चुका है, इसीलिए शास्त्रकार ने पुनरुक्ति न करते हुए इतना सा संकेत कर दिया है'एताई गुणाई आहु ते'। फिर भी शास्त्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में उक्त 'अगुणिस्स नत्यि मोक्खो"२ चारित्र गुण रहित को मोक्ष नहीं होता, इस सिद्धान्त की दृष्टि से यहां कुछ मूलभूत चारित्र गुणों का उल्लेख मात्र कर दिया है-'तिबिहेण वि पाणि मा हणे- / यहां सर्वचारित्र के प्रथम गुण---अहिंसा महाव्रत पालन का निर्देश समझ लेना चाहिए। अन्य चारित्र से सम्बन्ध मुख्य तीन गुणों का भी यहां उल्लेख है-(१) आत्महित तत्पर, (2) निदान (स्वर्गादि-सुख भोग प्राप्ति की वाञ्छा रूप) से मुक्त, तथा (3) सुव्रत (तीन गुप्तियों से गुप्त, या पंचसंवर से युक्त / ) निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान युक्त चारित्र गुणों से अतीत में अनन्त जीव सिद्ध मुक्त हुए हैं, भविष्य में भी होंगे और वर्तमान में भी। चूणि कार के 'संपतंसंखेज्जा सिझंति' इस मतानुसार 'वर्तमान में संख्यात जीव सिद्ध होते हैं। 164. एवं से उदाहु अणत्तरनाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरनाणदंसणधरे / __ अरहा णायपुते भगवं वेसालीए वियाहिए // 22 // त्ति 164. इस प्रकार उस (भगवान् ऋषभदेव स्वामी) ने कहा था, जिसे अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञान-दर्शन-धारक, इन्द्रादि देवों द्वारा पूजनीय (अर्हन्त) ज्ञातपुत्र तथा ऐश्वर्यादि गुण युक्त भगवान् वैशालिक महावीर स्वामी ने वैशाली नगरी में कहा था-'सो मैं (सुधर्मा स्वामी) तुमसे (जम्बू स्वामो आदि शिल्य वर्ग से) कहता हूँ।' विवेचन--प्रस्तुत गाथा वैतालीय या वैदारिक अध्ययन की अन्तिम गाथा है। इसमें इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी आदि से इस अध्ययन रचना का 42 (क) देखिए उत्तराध्ययन (अ० 20/30) में मोक्ष-विषयक सिद्धान्त 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा ण हुँति चरण गुणा / अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निवाणं / / ' (ख) (अ) सूत्रकृतांग शीलाक वृत्ति सहित भाषानुबाद भा०१, पृ० 268 पर से (ब) सूय गडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 26 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 164 176 इतिहास बताते हुए कहते हैं—एवं से उदाहु-वेसालिए वियाहिए'। इसका आशय यह है कि तीन उद्देशकों से युक्त इस वेतालीय अध्ययन में जो उपदेश है, वह आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने 18 पुत्रों को लक्ष्य करके अष्टापद पर्वत पर दिया था, उसे ही भगवान महावीर स्वामी ने हमें (गणधरों को) विशाला नगरी में फरमाया था। उसी उपदेश को मैं तुमसे कहता हूँ।' भगवान महावीर के विशेषणों के अर्थ-प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर के 7 विशेषण उनकी मोक्ष प्राप्ति की गुणवत्ता एवं योग्यता बताने के लिए प्रयुक्त किये गये हैं। उनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैंअणुत्तर पाणी-केवलज्ञानी जिससे उत्तम (बढ़कर और कोई ज्ञान कहीं ऐसे अनुत्तर ज्ञान से सम्पन्न / अगुत्तरदंसी केवलदर्शन, जिससे बढ़कर कोई दर्शन न हो, ऐसे अनुत्तर दर्शन से सम्पन्न / अणुत्तर णाणदंसण धरे=केवल (अनुत्तर) ज्ञान-दर्शन के धारक / मरहा=इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य अहंन् / नायपुत्त =ज्ञातृकुल में उत्पन्न होने से ज्ञातपुत्र। भगवं ऐश्वर्यादि छः गुणों से युक्त भगवान् / बेसालिए-इसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं वैशालिकः और वैशाल्याम / अतः 'वैसालिए' के तीन अर्थ निकलते हैं--(१) वैशाली अथवा विशाला नगरी में किया गया प्रवचन, (2) विशाल कुल में उत्पन्न होने से वैशालिक भगवान् ऋषभदेव, (3) अथवा वैशालिक भगवान् महावीर। पिछले अर्थ का समर्थन करने वाली एक गाथा वृत्तिकार ने दी - "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा। विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः // 3 अर्थात् (भगवान महावीर) की माता विशाला थी, उनका कुल भी विशाल था, तथा उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए जिनेन्द्र (भगवान् महावीर) को वैशालिक कहा गया है। इसलिए 'सालिए वियाहिए' का अर्थ हुआ-(१) वैशाली नगरी में (यह उपदेश) कहा गया था, अथवा (2) वैशालिक भगवान् महावीर ने (इसका) व्याख्यान किया था। अधिक गाथा-एक प्रति में चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के द्वारा व्याख्या न की हुई एक गाथा इस अध्ययन के अन्त में मिलती है 'इति कम्मवियालमुत्तमं जिणवरेण सुदेसियं सया / जे आचरंति आहियं खवितरया वाहति ते सिवं गति / 44 ति बेमि अर्थ-इस प्रकार उत्तम कर्मविदार नामक अध्ययन का उपदेश श्री जिनवर ने स्वयं फरमाया है, इसमें कथित उपदेश के अनुसार जो आचरण करते हैं, वे अपने कर्मरज का क्षय करके मोक्षगति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। तृतीय उद्देशक समाप्त // वैतालीय : द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण // 43 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 76 के आधार पर 44 सूयगडंग सुत्तं मूल (जम्बूविजयजी-सम्पादित) पृ० 30 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग-परिज्ञा : तृतीय अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृताँगसूत्र के तृतीय अध्ययन का नाम है- 'उपसर्गपरिज्ञा'0 प्रतिबुद्ध (सम्यक् उत्थान से उत्थित) साधक जब मोक्ष प्राप्ति हेतु रत्नत्रय की साधना करने जाता है, तब से लेकर साधना के अन्त तक उसके समक्ष कई अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते हैं / कच्चा साधक उस समय असावधान हो तो उनसे परास्त हो जाता है, उसकी की हुई साधना दूषित हो जाती है / अतः साधक उन उपसर्गों को भलीभांति जाने और उनसे पराजित न होकर समभाव पूर्वक अपने धर्म पर डटा रहे तभी वह वीतराग, प्रशान्तात्मा एवं स्थितप्रज्ञ बनता है / यही इस अध्ययन का उद्देश्य है।' - उपसर्गों की परिज्ञा दो प्रकार से की जाती है-(१) ज्ञपरिज्ञा से उन्हें जाने और (2) प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनके समक्ष डटा रहकर प्रतीकार करे। यही तथ्य उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन में प्रति पादित है। 0 'उपसर्ग' जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। नियुक्तिकार ने उपसर्ग का निर्वचन इस प्रकार किया है-'जो किसी देव, मनुष्य या तिर्यञ्च आदि दूसरे पदार्थों से (साधक के समीप) आता है तथा जो साधक के देह और संयम को पीड़ित करता है वह 'उपसर्ग' कहलाता है। उपताप, शरीर-पीडोत्पादन इत्यादि उपसर्ग के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रचलित भाषा में कहें तो, साधना काल में आने वाले इन विघ्नों, बाधाओं, उपद्रवों और आपत्तियों को उपसर्ग कहा जाता हैं। D नियुक्तिकार ने 'उपसर्ग' को विभिन्न दृष्टियों से समझाने के लिए 6 निक्षेप किये हैं-(१) नाम उपसर्ग, (2) स्थापना-उपसर्ग, (3) द्रव्य-उपसर्ग, (4) क्षेत्र-उपसर्ग, (5) काल-उपसर्ग और (6) भाव-उपसर्ग। 3 किसी का गुण शून्य उपसर्ग नाम रख देना 'नाम-उपसर्ग' हैं, उपसर्ग सहने वाले या उपसर्ग सहते समय की अवस्था को चित्रित करना, या उसका कोई प्रतीक रखना 'स्थापना-उपसर्ग' है, उपसर्ग -सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 45 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 77 2 (क) "आगंतुगो य पीलागरो य जो सो उबसग्गो।" (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 77 (ग) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 142 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 181 कर्ता या उपसर्ग करने का साधन द्रव्य उपसर्ग है। यह दो प्रकार का है.चेतन द्रव्यकृत, अचेतन द्रव्यकृत / तिर्यञ्च, मनुष्य आदि सचेतन प्राणी अंगों का घात करके जो उपसर्ग (देह पीड़ा) उत्पन्न करते हैं, वह सचित्त द्रव्यकृत है और काष्ठ आदि अचित्त द्रव्यों द्वारा किया गया आघात अचित्त द्रव्यकृत उपसर्ग है। जिस क्षेत्र में क र जीव, चोर आदि द्वारा शरीर पीड़ा, संयम-विराधना आदि होती है, अथवा कोई वस्तु किसी क्षेत्र में दुःख उत्पन्न करती है, उसे क्षेत्रोपसर्ग कहते हैं। जिस काल में एकान्त दुःख ही होता है, वह दुःषम आदि काल, अथवा-ग्रीष्म, शीत आदि ऋतुओं का अपने-अपने समय में दुःख उत्पन्न करना कालोपसर्ग है। ज्ञानावरणीय, असातावेदनीय आदि कर्मों का उदय होना भावोपसर्ग है। - नाम और स्थापना को जोड़कर पूर्वोक्त सभी उपसर्ग औधिक और औपक्रमिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। - अशुभकर्म प्रकृति से उत्पन्न उपसर्ग औधिक उपसर्ग है, और डंडा, चाबुक, शस्त्र, मुट्ठी आदि के द्वारा जो दुःख उत्पन्न होता है, वह औपक्रमिक उपसर्ग है। - यहाँ 'उपक्रम' का अर्थ है-जो कर्म उदय-प्राप्त नहीं है, उसका उदय होना। अत: औपक्रमिक . उपसर्ग का अर्थ हुआ—जिस द्रव्य का उपयोग करने से, या जिस द्रव्य के निमित्त से असातावेदनीय आदि अशुभकर्मों का उदय होता है, और जब अशुभकर्मोदय होता है, तब अल्प पराक्रमी साधक के संयम में विघ्न, दोष या विघात आ जाता है, उस द्रव्य द्वारा उत्पन्न उपसर्ग को 'औपक्रमिक उपसर्ग' कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रवृत्त मुनियों का संयम (रत्नत्रय साधक) ही मोक्ष का अंग है / अतः उस संयम में विघ्नकारक औपक्रमिक उपसर्ग का ही इस अध्ययन में वर्णन है, औधिक उपसर्ग का नहीं। - औपक्रमिक उपसर्ग द्रव्य रूप से चार प्रकार का होता है-दैविक, मानुष्य, तिर्यञ्चकृत और आत्म-संवेदन रूप / / 0 इनमें से प्रत्येक के चार-चार प्रकार होते हैं। दैविक (देवकृत) उपसर्ग हास्य से, द्वेष से, परीक्षा करने के लिए तथा अन्य अनेक कारणों से होता है। मनुष्यकृत उपसर्ग भी हास्य से, द्वेष से, परीक्षा करने के लिए एवं कुशील सेवन निमित्त से होता है / तिर्यञ्चकृत उपसर्ग भय से, द्वष से, आहार के लिए तथा अपनी संतान आदि की रक्षा के लिए होता है आत्म संवेदन रूप उपसर्ग भी चार प्रकार का होता है (1) अंगों के परस्पर रगड़ने से, (2) अँगुलि आदि अंगों के चिपक जाने या कट जाने से (3) रक्त संचार रुक जाने से एवं ऊपर से गिर जाने से / अथवा (4) वात, पित्त, कफ और इन तीनों के विकार से भी आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग चार प्रकार का होता है। पूर्वोक्त देवकृत आदि चारों उपसर्ग अनुकूल और प्रतिकूल के भेद से 8 प्रकार के है / तथा पूर्वोक्त चारों के 4 भेदों को परस्पर मिलाने से कुल 16 भेद उपसर्गों के होते हैं।' 3 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 45, 46, 47, 48 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 77.78 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा / प्रस्तुत अध्ययन के में चार तथ्यों का सांगोपांग निरुपण किया गया है--- (1) कैसे-कैसे उपसर्ग किस-किस रूप में आते हैं। (2) उन उपसर्गों को सहने में क्या-क्या पीड़ा होती है, (3) उपसर्गों से सावधान न रहने या उनके सामने झुक जाने से कैसे संयम का विघात होता है ? (4) उपसर्गों के प्राप्त होने पर साधक को क्या करना चाहिए ? प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं-प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन हैं / द्वितीय उद्देशक में स्वजन आदिकृत अनुकूल उपसगों का निरूपण है / तृतीय उद्देशक में आत्मा में विषाद पैदा करने वाले अन्यतीथिकों के तीक्ष्णवचन रूप उपसर्गों का विवेचन है और चतुर्थ उद्देशक में अन्यतीर्थिकों के हेतु सदृश प्रतीत होने वाले हेत्वाभासों से वस्तुस्वरूप को विपरीत रूप में ग्रहण करने से चित्त को विभ्रान्त एवं मोहित करके जीवन को आचार भ्रष्ट करने वाले उपसर्गों का तथा उन उपसर्गों के समय स्वसिद्धान्त प्रसिद्ध मुक्ति संगत हेतुओं द्वारा यथार्थ बोध देकर संयम में स्थिर रहने का उपदेश है। चारों उद्देशकों में क्रमशः 17, 22, 21 और 22 गाथाएँ हैं। - इस अध्ययन की सूत्र गाथा संख्या 165 से प्रारम्भ होकर गाथा 246 पर समाप्त है। LOD (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 78 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 402 5 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 46, 50 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 78 (ग) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1, पृ० 142, 143, 144 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गपरिण्णा तइयं अज्झयणं पढमो उद्देसओ उपसर्ग-परिज्ञा : तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक प्रतिकूल-उपसर्ग विजय :-- 165. सूरं मन्नति अप्पाणं जाव जेतं न पस्सति / जुन्शतं दढधम्माणं सिसुपाले व महारहं // 1 // 166. पयाता सूरा रणसीसे संगार्माम्म उद्विते / माता पुत्तं ण याणाइ जेतेण परिविच्छए // 2 // 167. एवं सेहे वि अप्पुढे भिक्खाचरियाअकोविए। सूरं मन्नति अप्पाणं जाव लूह न सेवई // 3 // 165. जब तक विजेता पुरुष को नहीं देख लेता, (तब तक कायर) अपने आपको शूरवीर मानता है। युद्ध करते हए दृढधर्मा (अपने प्रण पर दृढ) महारथी (श्रीकृष्ण) को देखकर जैसे शिशुपाल के छक्के छूट गए थे। 166. युद्ध छिड़ने पर युद्ध के अग्रभाग में (मोर्चे पर) पहुंचे हुए शूरवीर (वीराभिमानी पुरुष), (जिस युद्ध में) माता अपनी गोद से गिरते हुए बच्चे को नहीं जानती, (ऐसे कलेजा कंपा देने वाले भयंकर युद्ध में), जब विजेता पुरुष के द्वारा क्षत-विक्षत (घायल) कर दिये जान पर दीन हो जाते हैं। 167. इसी प्रकार भिक्षाचर्या में अनिपुण तथा परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श नहीं पाया हुआ नवदीक्षित साधु (शैक्ष) भी अपने आपको तभी तक शूरवीर मानता है, जब तक वह संयम का सेवनआचरण नहीं करता। विवेचन--उपसर्ग विजय-कितना सरल, कितना कठिन ?- प्रस्तुत तीन गाथाओं में शास्त्रकार साधक को दृष्टान्तों द्वारा उपसर्ग विजय की महत्ता समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि (1) उपसर्ग पर विजय पाना कायर एवं शूराभिमानी पुरुष के लिए उतना आसान नहीं, जितना वह समझता है, (2) कदाचित युद्ध के मोर्चे पर कोई वीराभिमानी कायर पुरुष आगे बढ़ भी जाए, किन्तु भीषण युद्ध में विजेता द्वारा घायल कर दिये जाने पर वह दीन हो जाता है, (3) भिक्षाचरी आदि साधुचर्या में Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 सूचकृतांग-मृतीय अध्ययन-उपसर्ग परिजा अनिपुण एवं अभी तक उपसर्गों से अछ ता नवदीक्षित साधु तभी तक अपने आपको उपसर्ग विजयी शुर मान सकता है, जब तक वह संयम का सेवन नहीं करता। उपसर्ग देखते ही सूराभिमानी के छक्के छूट जाते है-साधु का वेष पहन लेने और महावतों का एवं संयम का स्वीकार कर लेने मात्र से कोई उपसर्ग विजेता साधक नहीं हो जाता। उपसर्गों पर विजय पाना युद्ध में विजय पाने से भी अधिक कठिन है। उपसर्गों से लड़ना भी एक प्रकार का धर्मयुद्ध है। इसीलिए शास्त्रकार यहाँ दृष्टान्त द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि युद्ध में जब तक अपने सामने विजयशील प्रतियोद्धा को नहीं देखता, तभी तक वीराभिमानी होकर गर्जता है / जैसे माद्रीपुत्र शिशुपाल योद्धा के रूप में तभी तक अपनी प्रशंसा करता रहा, जब तक युद्ध में अपने समक्ष प्रण-दृढ़ महारथी प्रतियोद्धा श्रीकृष्ण को सामने जूझते हुए नहीं देखा / यह इस गाथा का आशय है। __ शिशुपाल श्रीकृष्ण जी की फूफी (बुआ) का लड़का था। एक बार माद्री (फूफी) ने पराक्रमी श्रीकृष्णजी के चरणों में शिशुपाल को झुकाकर प्रार्थना की-'श्रीकृष्ण ! यदि यह अपराध करे तो भी तू क्षमा कर देना। श्रीकृष्णजी ने भी सौ अपराध क्षमा करने का वचन दे दिया / शिशुपाल जब जवान हुआ तो यौवन मद से मत्त होकर श्रीकृष्ण को गालियां देने लगा। दण्ड देने में समर्थ होते हुए भी श्रीकृष्णजी ने प्रतिज्ञा बद्ध होने से उसे क्षमा कर दिया / जब शिशुपाल के सौ अपराध पूरे हो गए, तय श्रीकृष्णजी ने उसे बहुत समझाया, परन्तु वह नहीं माना। एक बार किसी बात को लेकर शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के साथ युद्ध छेड़ दिया। जब तक श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध के मैदान में नहीं आए, तब तक शिशुपाल अपने और प्रतिपक्षी सैन्य के लोगों के सामने अपनी वीरता को डींग हांकता रहा, किन्तु ज्यों ही शस्त्रास्त्र का प्रहार करते हुए श्रीकृष्ण को प्रतियोद्धा के रूप में सामने उपस्थित देखा, त्यों ही उसका साहस समाप्त हो गया, घबराहट के मारे पसीना छूटने लगा, फिर भी अपनी दुर्बलता छिपाने के लिए वह श्रीकृष्ण पर प्रहार करने लगा। श्रीकृष्णजी ने उसके सौ अपराध पूरे हुए देख चक्र से उसका मस्तक काट डाला। __इसी दृष्टि से शास्त्रकार कहते हैं | सूरंमन्नति""महारहं / अपने को शूरवीर मानने वाला घायल होते ही दीन बन जाता है-कई शूराभिमानी अपनी प्रशंसा से उत्तेजित होकर युद्ध के मोर्चे पर तो उपस्थित हो जाते हैं, किन्तु जब दिल दहलाने वाला युद्ध होता है, तब वे घबराने लगते हैं। युद्ध की भीषणता तो इतनी होती है कि युद्ध की भयंकरता से घबराई हुई माता को अपनी गोद से गिरते हुए प्यारे पुत्र का भी ध्यान नहीं रहता। और जब विजेता प्रतिपक्षी सुभटों द्वारा चलाए गए शस्त्रास्त्र से वे क्षत-विक्षत कर दिये जाते हैं, तब तो वे दीन-हीन होकर गिर जाते हैं, उनका साहस टूट जाता है। यह भाव इस गाथा में व्यक्त किया गया है 'पयाता सरा "परिविच्छए।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० 2 पृ० 5 से 6 तक का सार 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 78 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 404 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 प्रथम उद्देशक / गाथा 168 से 166 इसी प्रकार उपसर्गों को सहन करने में कायर, अथवा उपसर्गों से अछूता नवदीक्षित साधक, जो उपसर्ग के साथ जूझने से पहले अपने आपको शूरवीर मानता था, प्रबल उपसर्गों से पराजित हो जाता है। वह दीन बन जाता है, अतएव उपसर्ग पर डटे रहने, और उसके सामने हार न मानने के लिए संयम का सतत अभ्यास आवश्यक है। जब तक संयम का सतत आचरण नहीं होगा तब तक साधक के लिए उपसर्ग-विजय अत्यन्त कठिन है / लूह-अर्थात् रूक्ष-संयम / अष्टविध कर्म नहीं चिपकने (राग रहित होने के कारण संयम को रूक्ष कहा गया है। वढधम्माण का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार-"दृढ़: समर्थो धर्मो स्वभावः संग्रामाभंगरूपो यस्य स तथा तम् दृढ़धर्माणम्" जिसका स्वभाव संग्राम में पलायित न होने का दृढ़ है। वही। चूर्णिकार के अनुसार-“दढधन्नाणं" पाठान्तर है, अर्थ है-जिसका धनुष्य दृढ़ है। शीतोष्ण परीषह-रूप उपसर्ग के समय नन्द साधक की दशा 168. जदा हेमंतमासम्मि सीतं फुसति सवातगं / तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तिया // 4 // 166. पुढे गिम्हाभितावेणं विमणे सुप्पिवासिए। तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा अप्पोदए जहा // 5 // 168. हेमन्त (ऋतु) के मास (मौसम) में जब शीत (ठण्ड) (सभी अंगों को) स्पर्श करती है, तब मन्द पराक्रमी (मनोदुर्बल साधक) राज्यविहीन क्षत्रिय की तरह विषाद का अनुभव करते हैं। 166. ग्रीष्म (ऋत) के प्रचण्ड ताप (गर्मी) से स्पर्श पाया हआ (साधक) उदास (अनमना-सा) और पिपासाकुल (हो जाता है।) उस (भयंकर उष्ण परीषह) का उपसर्ग प्राप्त होने पर मन्द (शिथिल या मूढ़) साधक इस प्रकार विषाद अनुभव करते हैं, जैसे थोड़े-से जल में मछली। विवेचन-शीतोष्णपरिषह रूप उपसर्ग के समय मन्द साधक की मनोदशा-प्रस्तुत गाथाद्वय में हेमन्त ऋतु में शीत और ग्रीष्मऋतु में ताप-परीषह रूप उपसर्गों के समय मन्द साधक किस प्रकार विषाद का अनुभव करते हैं, इसे उपमा द्वारा समझाया गया है। जदा हेमन्तमासम्मि""रज्जहीणा व खत्तिया'—इसका आशय यह है कि जब कभी हेमन्त ऋतु के पौषमाघ महीनों में ठण्डी-ठण्डी कलेजे को चीरने वाली बर्फीली हवाओं के साथ ठण्ड शरीर के सभी अंगों को स्पर्श करने लगती है, तब असह्यशीतस्पर्श से कई मन्द-अल्पपराक्रमी भारीकर्मी साधक इस प्रकार दुःखानुभव करते हैं, जिस प्रकार राज्यभ्रष्ट होने पर क्षत्रिय (शासक) विषाद का अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है-जैसे राज्यभ्रष्ट शासक मन में खेद खिन्न होता है कि लड़ाई भी लड़ी, इतने सैनिक भी 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 76 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुबबोधिनी ब्याख्या 405 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 78.76 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा मारे गये और राज्य भी हाथ से गया, वैसे ही उपसर्ग सहने में कायर साधक भी कड़ाके की ठण्ड का उपसर्ग आने पर यह सोचकर खिन्न होता है कि 'मैंने घरबार भी छोड़ा, सुख-सुविधाएँ भी छोड़ी, परिवार वालों को भी रुष्ट किया. फिर भी ऐसी असह्य शर्दी का सामना करना / पुढे गिम्हामितावेणं “मच्छा अप्पोदए जहा- इस गाथा का आशय यह है कि गीष्मऋतु-ज्येष्ठ और आषाढ़मास में जब भयंकर गर्मी पड़ती है, लू चलती है, सनसनाती हुई गर्म हवाएँ शरीर को स्पर्श करती है, कण्ठ प्यास से व्याकुल हो जाता है, उस समय अल्पपराक्रमी साधक उदास, खिन्न एवं अनमना-सा हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवेकमूढ़ अल्पसत्व नव दीक्षित साधक एकदम तड़प उठते हैं। इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं जैसे कि किसी जलाशय में पानी सूखने लगता है, तब अत्यन्त अल्पजल में मछलियाँ गर्मी से संतप्त होकर तड़प उठती हैं, वहाँ से हटने में असमर्थ होकर वे वहीं मरणशील हो जाती हैं। फलितार्थ-दोनों ही गाथाओं का यह उपदेश फलित होता है कि शर्दी का उपसर्ग हो या गर्मी का, साधक को अपना मनोबल, धैर्य और साहस नहीं खोना चाहिए। उपसर्गों पर विजय प्राप्त करने से कमनिर्जरा, आत्मबल, और सहनशक्ति में वृद्धि होगी यह सोचकर उपसर्ग-सहन के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। दोनों उपसर्गों में शीतोष्ण, पिपासा, अचेलक, अरति आदि परीषहों का समावेश हो जाता है। कठिन शब्दों का अर्थ-सवातग=हवा के साथ, किसी प्रति में इसके बदले पाठान्तर हैं -सव्वंग= अर्थात् सभी अंगों को। रज्जहीणा=राज्य-विहीन, राज्य से स्रष्ट, चूणिसम्मत पाठान्तर है-रद्वहीणा अर्थात्-राष्ट्र से हीन, राष्ट्र से निष्कासित / गिम्हाभितावेणं =ग्रीष्मऋतु ज्येष्ठ आषाढ़मास के अभितापगर्मी से / अप्पोदए थोड़े पानी में। याचना-आक्रोश परीषह उपसर्ग 170. सदा दत्तेसणा दुक्खं जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता दुब्भगा चेव इच्चाहंसु पुढो जणा // 6 // 171. एते सद्द अचायंता गामेसु नगरेसु वा। तत्थ मंदा विसीयंति संगामंसि व भीरुणो / / 7 // 170. साधुओं के लिए दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा दी हुई वस्तु ही एषणीय (उत्पादादि दोषरहित होने पर ग्राह्य या उपभोग्य) होती हैं / सदैव यह दुःख (बना रहता) है, (क्योंकि) याचना (भिक्षा मांगने) 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10407 पर से 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 408 पर से 7 (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 80 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 31 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : माथा 170 से 171 187 की पीड़ा दुस्त्याज्य (या दुःसह) होती है। प्राकृत जन (अज्ञ लोग) इस प्रकार कहते हैं कि ये (भिक्षु-साधु) पूर्वकृत पापकर्म का फल भोग रहे हैं, ये अभागे हैं। 171. गाँवों में या नगरों में इन (पूर्वोक्त आक्रोशजनक) शब्दों को सहन न कर सकने वाले मन्द (अल्पसत्व साधक) आक्रोश परीषह रूप उपसर्ग के प्राप्त होने पर इस प्रकार विषाद पाते हैं, जैसे संग्राम में डरपोक लोग (विषाद पाते हैं)। विवेचन-याचना-आक्रोश परीषह रूप उपसर्गों के समय कच्चे साधक की मनोदशा-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में दो उपसर्गों के समय अल्पपराक्रमी साधकों की मनोदशा का वर्णन किया गया है। वे दो उपसर्ग हैं-~याचना परिषहरूप एवं आक्रोश परीषहरूप। ___याचना-साधु के लिए कष्टदायिनी, क्यों और कैसे ?--प्रश्न होता है कि साधु तो भिक्षाजीवी होता है फिर उसे भिक्षा मांगने में कष्ट क्यों होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है-सया दत्तेसणा दुक्खं "दुप्पणोल्लिया--साधु भिक्षाजीवी है, इसीलिए तो प्रत्येक वस्तु याचना (माँग) करके गृहस्थ से (उसके द्वारा) दी जाने पर लेनी या उपभोग करनी होती है। ऐसी स्थिति में पहले तो साधु को भिक्षा के लिए घर-घर घूमना, गृहस्थ (चाहे परिचित हो या अपरिचित) के घर में प्रवेश करना, आवश्यक वस्तु भिक्षाचरी के 42 दोषों में से किसी दोष से युक्त तो नहीं है, इस प्रकार की एषणा करना, सदैव दुःखदायक होता है। तत्पश्चात दाता से आवश्यक वस्तु की याचना करना असह्य दुःखद होता है। क्षधावेदना से पीड़ित किन्तु पूर्व (गृहस्थ) जीवन में अभिमानी नवदीक्षित, परोषहोपसर्ग से अनभ्यस्त अल्पसत्व साधक किसी के द्वार पर निर्दोष आहारादि लेने जाता है, उस समय उसकी मन:स्थिति का वर्णन विद्वानों ने यों किया है खिज्जइ मुखलावण्णं वाया घोलेइ कंठमझूमि / कहकहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणंतस्स / / गतिम्र'शो मुखे दैन्यं गात्रस्वेदो विवर्णता। मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचके / / अर्थात्-याचना करने से गौरव समाप्त हो जाता है इसलिए चेहरे की कांति क्षीण हो जाती है, वाणी कंठ में ही घुटती रहती है. सहसा यह नहीं कहा जाता कि मुझे अमुक वस्तु दो, हृदय धक-धक् करने लगता है। मांगने के लिए जाने में उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं, उसके मुख पर दीनता छा जाती है, शरीर से पसीना छुटने लगता है, चेहरे का रंग उड़ जाता है। इस प्रकार मृत्यु के समय जो चिन्ह दिखाई देते हैं, वे सब याचक में दृष्टिगोचर होते हैं। 'कवि रहीम' ने भी एक दोहे द्वारा याचक को मृतक-सा बताया है "रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं माँगन जाहि। उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि // " / इसका अर्थ यह नहीं हैं कि याचना परीषहरूप उपसर्ग प्रत्येक साधक के लिए ही दुःखदायी हो / जो महासत्त्व उपसर्ग सहिष्णु एवं अभ्यस्त संयमी साधक होते हैं, वे याचना के समय मन में | Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा दीनता-हीनता, ग्लानि एवं मिथ्या गौरव भावना नहीं लाते, वे स्वाभिमान पूर्वक निर्दोष भिक्षा प्राप्त होने पर ही लेते हैं, गृहस्थदाता द्वारा इन्कार करने पर या, रसहीन रूक्ष, तुच्छ एवं अल्प आहारादि देने पर भी वह विषण्ण नहीं होते यही इस गाथा के पूर्वार्द्ध का फलिताशय है / आक्रोश परीषह के रूप में उपसर्ग : किनके लिए सह-असह्य ? इसी गाथा के उत्तरार्द्ध में बतलाया गया है कि आक्रोशपरीषह रूप उपसर्ग किस रूप में आता है-साधुओं को ग्राम या नगर में प्रवेश करते या भिक्षा विहार आदि करते देखकर कई अनाड़ी लोग उन पर तानाकशी करते हैं "अरे ! देखो तो, इनके कपड़े कितने गंदे एवं मैले हैं। शरीर भी गंदा है, इनके शरीर और मुह से बदबू आती हैं, इनके सिर मुडे हुए हैं, ये बेचारे भूखे-प्यासे अधनंगे एवं भिखमंगे साधु अपने पूर्वकृत अशुभकर्मों (के फल) से पीड़ित हैं, अथवा ये अपने पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग रहे हैं। अथवा ये लोग घर में खेती, पशुपालन आदि काम धंधा नहीं कर सकते थे, या उन कामों के बोझ से दुःखी एवं उद्विग्न (आर्त) थे, इनसे कामधाम होता नहीं था, निकम्मे और आलसी थे, घर में इन्हें कोई पूछता नहीं था सभी पदार्थों से तंग थे, इसलिए साधु बन गए हैं / ये लोग अभागे हैं, स्त्रीपुत्रादि सभी लोगों ने इन्हें निकाल (छोड़) दिया है, जहाँ जाते हैं वहाँ इनका दुर्भाग्य साथ-साथ रहता है / इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-'कम्मत्ता दुब्भगाजणा' अर्थात्-अज्ञानीजन इस प्रकार के आक्रोशमय (ताने भरे) शब्द उन्हें कहते हैं। ___ जो नाजुक, तुच्छ, उपसर्ग सहन में अनभ्यस्त अल्पसत्त्व (मंद) साधक होते हैं, वे अज्ञानीजनों के इन तानों तथा व्यंग्य वचनों को सुनकर एकदम क्षुब्ध हो जाते हैं। ऐसे आक्षप, निन्दा, तिरस्कार एवं व्यंग से युक्त तथा कलेजे में तीर से चुभने वाले कटु वचनों को सुनते ही उनके मन में दो प्रकार की प्रतिक्रिया होती है-(१) आक्रोश- शब्दों को सुनकर उन्हें सहने में असमर्थ होने से मन ही मन कुढ़ते या खिन्न होते रहते हैं, या (2) वे क्रुद्ध होकर वाद-विवाद आदि पर उतर आते हैं। उस समय उन कायर एवं अपरिपक्व साधकों की मन:स्थिति इतनी दयनीय एवं भयाक्रान्त हो जाती है, जैसी कायर और भगौड़े सैनिकों की युद्ध क्षेत्र में पहुँचने पर या युद्ध में जब तलवारें चमकती हैं, शस्त्रास्त्र उछलने लगते हैं, तब होती है / यही बात शास्त्रकार कहते हैं-एते सद्दे अचायंता भीरुणो / ' आक्रोश-उपसर्ग विषयक इस गाथा में से यह आशय फलित होता है कि महावती साधक उपसर्ग सहिष्णु बनकर ऐसे आक्रोशमय वचनों को समभाव से सहन करे। कठिन शब्दों की व्याख्या--दुप्पणोल्लिया-दुस्त्याज्य या दुःसह / कम्मत्ता दुग्भगा चेव=वृत्तिकार के अनुसार कर्मों से अति-पीड़ित हैं, पूर्व-स्वकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं, अथवा कृषि आदि कर्मों (अजीविका कार्यों) से आत-पीड़ित हैं, उन्हें करने में असमर्थ एवं उद्विग्न हैं, और दुर्भाग्य युक्त हैं।' 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 के आधार पर 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 में देखिए (अ) कर्मभिरार्ताः, पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभव न्ति, यदि वा कर्मभिः कृष्यादिभिः आर्ताः, तत्कर्तुमसमर्था उद्विग्नाः सन्तः।" (ब) दुर्भगाः-सर्वेणव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निर्म तिकाः सन्तः प्रव्रज्यामभ्युपगताः / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 प्रथम उद्देशक : गाथा 172 चूर्णिकार ने 'कम्मता दुब्भगा चेव'-पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-कृषि-पशु-पालनादि कर्मों का अन्तविनाश हो जाने, छूट जाने से ये आप्त-अभिभूत (पीड़ित) हैं और दुर्भागी हैं। पुढोजणा-पृथक्जन= प्राकृत (सामान्य) लोग / अचार्यता-सहन करने में अशक्त / " वध-परीषह रूप उपसर्ग 172. अप्पेगे झुझियं भिक्खुसुणी वसति लसए। तत्थ मंदा विसीयंति तेजपुट्ठा व पाणिणो / / 8 / / 172. (भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए) क्षुधात भिक्षु को यदि प्रकृति से क्र र कुत्ता आदि प्राणी काटने लगता है, तो उस समय अल्पसत्व विवेक मूढ़ साधु इस प्रकार दुःखो (दोन) हो जाते हैं, जैसे अग्नि का स्पर्श होने पर प्राणी (वेदना से) आत्तध्यानयुक्त हो जाते हैं। विवेचन-वधपरीषह के रूप में उपसर्ग आने पर-प्रस्तुत सूत्र में वधपरीषह के रूप उपसर्ग का वर्णन और उस मौके पर कायर साधक की मनोदशा का चित्रण किया है। अप्पेगे झुनियंतेजपुट्ठा व पाणिणो–प्रस्तुत गाथा का आशय यह है कि एक तो बेचारा साधु भूख से व्याकुल होता है, उस पर भिक्षाटन करते समय कुत्ते आदि प्रकृति से क्रूर प्राणी उसकी विचित्र वेष-भूषा देखकर भोंकने, उस पर झपटने या काटने लगते हैं, दाँतों से उसके अंगों को नोंच डालते हैं, ऐसे समय में नवदीक्षित या साधु संस्था में नवप्रविष्ट परीषह एवं उपसर्ग से अपरिचित अल्पसत्व साधक घबरा जाते हैं / वे उसी तरह बेदना से कराहते हैं, तथा आर्तध्यान करते हैं, जैसे आग से जल जाने पर प्राणी आर्तनाद करते हुए अंग पकड़ या सिकोड़ कर बैठ जाते हैं। वे कदाचित् संयम से प्रष्ट भी हो जाते हैं। कठिन शब्दों का अर्थ-अप्पेगे-'अपि' शब्द सम्भावना अर्थ में हैं। 'एगे' का अर्थ है-कई / आशय हैकई साधु ऐसे भी हो सकते हैं / 'खुधियं- इसके दो और पाठान्तर हैं--खुज्झितं और झुझियं-तीनों का अर्थ है क्षुधित--भूखा, क्षुधात साधक / सुणी दसति लूसए प्रकृति से क्रूर कुत्ता आदि प्राणी काटने लगता है। तेजपुट्ठा:-तेज-अग्नि से स्पृष्ट--जला हुआ।२ 10 (क) कम्मंता-कृषी पशुपाल्यादिभिः कर्मान्तः आप्ताः अभिभूता इत्यर्थः।-सूयगडंग चूणि पृ० 31 (ख) पुढो जणा-पृथक् जनाः, प्राकृत पुरुषाः, अनार्यकल्पाः / 11 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 80-81 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 412 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80-81 (ख) सूयगडंग मूल तथा टिप्पणयुक्त (जम्बूविजय जी सम्पादित) पृ० 32 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा आक्रोश परीषह के रुप में उपसर्ग 173. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागता / पडियारगया एते जे एते एवंजोविणो॥६॥ 174. अप्पेगे वइं जुजंति नगिणा पिंडोलमा ऽहमा / मुडा कंडूविणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया // 10 // 175. एवं विप्पडिवणेगे अप्पणा तु अजाणगा। तमाओ ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा // 11 // 173. कई (-पुण्यहीन) साधुजनों के प्रति द्रोही (प्रतिकूलाचारी) लोग (उन्हें देखकर) इस प्रकार प्रतिकूल बोलते हैं- ये जो भिक्षु इस प्रकार (भिक्षावृत्ति से) जी रहे हैं, ये (अपने) पूर्वकृत पापकर्मों का (फल भोग कर) बदला चुका रहे हैं। 174. कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये लोग नंगे हैं, परपिण्ड पर पलने वाले (टुकड़ेल) हैं, तथा अधम हैं, ये मुण्डित हैं, खुजली से इनके अंग गल गए हैं (या शरीर विकृत हो गए हैं), ये लोग सूखे पसोने से युक्त हैं तथा प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करने वाले दुष्ट या बीभत्स है। 175. इस प्रकार साधु और सन्मार्ग के द्रोही कई लोग स्वयं अज्ञानी; मोह से आवृत (घिरे हुए) और विवेकमूढ़ हैं / वे अज्ञानान्धकार से (निकल कर फिर) गहन अज्ञानान्धकार में जाते हैं। विवेचन-साधु द्वषीजनों द्वारा आक्रोश उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय में साधु-विद्वषी प्रतिकूलाचारी लोगों द्वारा किये जाने वाले आक्रोशपरीषह रूप उपसर्ग का वर्णन है / साथ ही अन्त में, इस प्रकार द्रोह मोह-युक्त मूढजनों को मिलने वाले दुष्कर्म के परिणाम का निरूपण हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-पडिभासंति प्रतिकूल बोलते हैं, या चूणिकार सम्मत 'परिभासंति' पाठान्तर के अनुसार-परि-समन्ताद् भाषन्ते परिभाषन्ते अर्थात वे अत्यन्त बड़बड़ाते हैं। पाडिपंथियमागता r:=प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति-प्रातिपथिका:--साधुविद्वेषिण तद्भावमागतः कथञ्चित् पतिपथे वा दृष्टा अनार्याः / --अर्थात्-प्रतिपथ से यानो प्रतिकूलरूप से जो चलते हैं वे प्रातिपथिक है, अर्थात् साधु-विद्वषी है। साधुओं के प्रति द्वषभाव (द्रोह) पर उतरे हुए. कथञ्चित् असत्-पथ पर देखे गए अनार्य लोग। ____ पडियारगया-- वृत्तिकार के अनुसार-प्रतीकारः-पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्तं गताः-प्राप्ताः --स्वकृतकर्मफल-मोगिन:=प्रतीकार अर्थात् पूर्वाचरित कर्मफल के अनुभव-भोग को गतप्राप्त / यानी स्वकृत पापकर्म का फल-भोग करते हैं / चूर्णिकार इसके बदले 'तद्दारयेदणिज्जे ते' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं'जेहि चेव दाहिं कतं तेहि चेव वेदिज्जतित्ति तदारवेदणिज्ज, जधा अदत्तादाणा तेण ण लभंते / अर्थात-जिन द्वारों (रूपों) में कर्म किये है, उन्हीं द्वारों से इन्हें भोगना पड़ेगा, जैसे-इन्होंने पूर्वजन्म में अदत्त (बिना दिया हुआ) आदान (ग्रण) कर लिया था (चोरी की थी), अत: अव ये विना दिया ले नहीं सकते। एक्जीविणो-इस प्रकार जीने वाले-अर्थात् भिक्षा के लिए ये दूसरों के घरों में घूमते है, इसलिए अन्त Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 176 161 प्रान्तभोजी, दिया हुआ ही आहार लेते हैं, सिर का लोच करते हैं, समस्त भोगों से वंचित रहकर दुःखमय जीवन व्यतीत करने वाले हैं। वइं जुजति वाणी का प्रयोग करते हैं-बोलते हैं / नगिणाः= नग्न / णिकार सम्मत पाठान्तर है- 'चरगा' अर्थात्-ये लोग परिव्राजक है, घुमक्कड़ है / पिंडोलगा= दूसरों से पिंड की याचना करते हैं / अहमा अधम है, मैले-गंदे या घिनौने है। कडूविणटुगा = खुजाने से हुए घावों या रगड़ के निशानों से जिनके अंग विकृत हो गए। उज्जल्ला---'उद् गतो जल्ल:-शुष्कप्रस्बेदो येषां ते उज्जल्पा:-स्नान न करने से सूखे पसीने के कारण शरीर पर मैल जम गया है। चूर्णिकार ने इसके बदले 'उज्जाया'-- पाठान्तर मानकर अर्थ किया है- 'उज्जातो-मृगोनष्ट इत्यर्थः :' बेचारे ये नष्ट हो गए है-उजड़ गए है। असमाहिता-अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति-अर्थात् ये असमाहित हैभद्दे बीभत्स, दुष्ट है या प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करते हैं। विप्पडिबन्ना=विप्रतिपन्ना:-साधुसन्मार्गषिणः / ' अर्थात्- साधुओं और सन्मार्ग के द्वषी-द्रोही / अप्पणा तु अजाणगा=स्वयं अपने आप तो अज्ञ ही है. तु शब्द से यह अर्थ फलित होता है-अन्य विवेकीजनों के वचन को भी नहीं मानते / मन्दा मोहेण पाउडा=ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से तथा मोह-मिथ्यादर्शन से प्रावृत-आच्छादित है / चूणिकार ने इस वाक्य को एक और व्याख्या की है--अधवा मतिमन्दा इत्थिगाउया मन्दविग्णाणा स्त्री मोहेन / अर्थात् स्त्री के अनुचर बन जाने से मतिमन्द हैं, अथवा नारीमोह के कारण मन्द विज्ञानी हैं / तमाओ ते तमं जति -अज्ञान रूप अन्धकार से पुनः गाढ़ान्धकार में जाता है, अथवा नीचे से नीची गति में जाता हैं / 13 वस्तुतः विवेकहीन और साधु विद्वेषी होने से मोहमूढ़ होकर वे अन्धकाराच्छन्न रहते हैं / 14 दंश-मशक और तृणस्पर्श परीषह के रुप में उपसर्ग 176 पुट्ठो य दंस-मसहि तणफासमचाइया। न मे दिठे परे लोए जई परं मरणं सिया // 12 // 176. डांस और मच्छरों के द्वारा स्पर्श किये (काटे) जाने पर तथा तृण स्पर्श को न सह सकता हुआ (साधक) (यह भी सोच सकता है कि) मैंने परलोक को तो नहीं देखा, किन्तु इस कष्ट से मरण तो सम्भव ही है (साक्षात् ही दीखता है)। 13 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 81 का सार (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) 14 विवेकान्ध लोगों की वृत्ति के लिए एक विद्वान् ने कहा एक हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम् / / एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धः तस्यापमार्ग चलने खलु कोऽपराधः ? -एक पवित्र नेत्र तो सहज विवेक है, दुमरा है-विवेकी जनों के साथ निवास / संसार में ये दोनों आंखें जिसके नहीं है, वह वस्तुतः अन्धा है। अगर वह कुमार्ग पर चलता है, तो अपराध ही क्या है? Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सूत्रकृतांग--तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिशा विवेचन-दंश-मशक परीषह और तणस्पर्श परीषह के रूप में उपसर्ग : कायर साधक का दुश्चिन्तनप्रस्तुत सूत्र में दो परीषहों के रूप में उपसर्गों का निरूपण करते हुए कायर एवं मनोदुर्बल साधक का दुश्चिन्तन अभिव्यक्त किया है-पुठोय तणफासमचाइया / न मे दि?"परं मरणं सिया।' इसका आशय यह है कि साधू प्रायः सभी प्रान्तों-प्रदेशों में विचरण करता है। कोंकण आदि देशों में साधू को बहत डांसमच्छरों से पाला पड़ता है। वे साधु के तन पर सहसा टूट पड़ते हैं, साथ ही घास की शय्या पर जब नवदीक्षित साधु सोता है तो उसका खुर्दरा स्पर्श चुभता है। इस प्रकार डांस-मच्छरों के उपद्रव तथा तृण स्पर्श के कारण उपसर्ग सहन में अनभ्यस्त नवदीक्षित साधु एकदम झुझला उठता है। वह प्रायः ऐसा सोचता है कि आखिरकार मैं यह सब कष्ट क्यों सहन कर रहा हूँ ? व्यर्थ ही कष्ट में अपने को क्यों डालू ? कष्ट सहन तो तभी सार्थक हो, जबकि परलोक हो, न तो मैंने परलोक को देखा है और न ही परलोक से लौटकर कोई मुझे वहाँ की बातें बताने आया है। प्रत्यक्ष से जब परलोक नहीं देखा तो उसका अनुमान भी सम्भव नहीं / अतः मेरे इस वृथा कष्ट सहन का नतीजा सिर्फ कष्ट सहकर मर जाने के सिवाय और क्या हो सकता है ? इस प्रकार दुश्चिन्तन करके कच्चा और कायर साधक उपसर्ग-सहन या उपसर्ग-विजय का सुपथ छोड़कर सुकुमार एवं असंयमी बन जाता है।५ उत्तराध्ययन सूत्र में भी उपसर्ग विजयोद्यत साधु को इस प्रकार का दुश्चिन्तन करने का निषेध किया गया है / केशलोच और ब्रह्मचर्य के रूप में उपसर्ग 177. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराजिया। तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा पविट्ठा व केयणे // 13 // 177. केश-लुञ्चन से संतप्त (पीड़ित) और ब्रह्मचर्य पालन से पराजित (असमर्थ) मन्द (जड़तुच्छ प्रकृति के साधक (प्रव्रज्या लेकर) मुनिधर्म में इस प्रकार क्लेश पाते हैं, जैसे जाल में फंसी हुई मछलियाँ तड़फती हैं। विवेचन-केशलोच एवं ब्रह्मचर्य पालन रूप उपसर्ग--प्रस्तुत सूत्रगाथा (177) में केशलोच और ब्रह्मचर्य पालन रूप उपसर्गों के समय नवदीक्षित साधक की मनोदशा का चित्रण किया गया है। दोनों उपसर्गों पर विजय पाने की प्रेरणा इस गाथा का फलितार्थ है। केशलोच : दीक्षा के पश्चात् सबसे कठोर परीक्षा रूप उपसर्ग-साधु-दीक्षा लेने के बाद जब सर्वप्रथम 15 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 416 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 81 के आधार पर 16 देखिये उपसर्ग या परीषह को सहने में कायरों के वाक्य (अ) 'को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो / (ब) "नत्थि नूणं परे लोए, इड्ढी वा वि तवस्सिणो / अदुवा बंचिओमित्ति, इइ भिक्ख न चितए॥" - उत्तरा० अ०५/६ -उत्तराध्ययन अ० 2/44 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक गाथा : 178 से 180 193 केशों को जड़ से उखाड़ा जाता है, उस समय कई बार रक्त बह जाता है, कच्चा और कायर साधक घबरा जाता है। मन ही मन संतप्त होता रहता है / इसलिए कहा है-"संतत्ता केसलोएणं।" ब्रह्मचर्य-पालन भी कम कठिन उपसर्ग नहीं-जो साधक कच्ची उम्र का होता है, उसे कामोन्माद का पूरा अनुभव नहीं होता। इसलिए कह देता है-कोई कठिन नहीं है मेरे लिए ब्रह्मचर्य पालन ! परन्त मनरूपी समुद्र में जब काम का ज्वार आता है, तब वह हार खा जाता है, मन में पूर्वभक्त भोगों या गृहस्थ लोगों के दृष्ट भोगों का स्मरण, और उससे मन में रह रह कर उठने वाली भोगेच्छा की प्रबल तरंगों को रोक पाना उसके लिए बड़ा कठिन होता है। वह उस समय घोर पीड़ा महसूस करता है, जैसे जाल में पड़ी हुई मछली उसमें से निकलने का मार्ग न पाकर वहीं छटपटाती रहती है, और भर जाती है, वैसे ही साधु संघ में प्रविष्ट साधु भी काम से पराजित होकर भोगों को पाने के लिए छटपटाते रहते हैं और अन्त में संयमी जीवन से भ्रष्ट हो जाते हैं। इसीलिए कहा है-'बंभचेरपराइया' मच्छा पविट्ठा केयणे -का अर्थ-केतन यानी मन्त्स्यबन्धन में प्रविष्ट-फंसी हुई मछलियां। 'विवा' पाठान्तर भी है। उसका अर्थ होता है-(कांटे) से बींधी हुई मछलियां जैसे बन्धन में पड़ी तड़फती हैं / 17 वध-बंध-परीषह के रुप में उपसर्ग 178. आतदंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा / हरिसम्पदोसमावण्णा केयि लूसंतिऽणारिया // 14 // 176. अप्पेगे पलियंतंसि चारि चोरो त्ति सुव्वयं / बंधति भिक्षुयं बाला कसायवयणेहि य // 15 // 180. तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा / णातीणं सरती बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी / / 16 // 178. जिससे आत्मा दण्डित होता है, ऐसे (कल्याण-भ्रष्ट) आचार वाले, जिनकी भावना (चित्तवृत्ति) मिथ्या बातों (आग्रहों) में जमी हुई है, और जो राग (--हर्ष) और प्रद्वेष से युक्त हैं, ऐसे कई अनार्य पुरुष साधु को पीड़ा देते हैं। 176. कई अज्ञानी लोग अनार्यदेश की सीमा पर विचरते हुए सुव्रती साधु को यह गुप्तचर है, यह चोर है, इस प्रकार (के सन्देह में पकड़ कर) (रस्सी आदि में) बांध देते हैं और कषाययुक्त (कटु) वचन कहकर (उसे हैरान करते हैं।) 17 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 82 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 32 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा 180. उस अनार्य देश की सीमा पर विचरण करने वाले साधु को डंडों से, मुक्कों से अथवा बिजोरा आदि फल से (या फलक-पटिये से, अथवा भाले आदि से) पीटा जाता है, तब वह नवदीक्षित अज्ञ साधक अपने बन्धु-बन्धवों को उसी प्रकार स्मरण करता है, जिस प्रकार रुष्ट होकर घर से भागने वाली स्त्री अपने स्वजनवर्ग को (स्मरण करती है।) विवेचन-वध-बन्ध परोषह रूप उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय में वध और बन्ध परीषह के रूप में उपसर्ग साधक को किस प्रकार पीड़ित करते हैं ? उसका विशद निरूपण है। पीड़ा देने वाले कौन ? कई सुबती साधु सहज भाव से अनार्य देश के पारिपाश्विक सीमावर्ती प्रदेश में विचरण करते हैं, उस समय उन्हें कई अनार्य पीड़ा देते हैं। अनार्यों के लिए यहाँ तीन विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं-(१) आतदण्ड समायारा, (2) मिच्छासंठिय भावणा और (3) हरिसप्पदोसमावण्णा : अर्थात् जो अनार्य अपनी आत्मा को ही कर्मबन्ध से दण्डित करने वाले कल्याण भ्रष्ट आचारों से युक्त होते हैं, जिनकी बुद्धि मिथ्यात्व दोष से जकड़ी हुई है, तथा जो राग और द्वेष से कलुषित हैं। किस पकार पोड़ित करते हैं ?-वे अनार्य लोग सीमाचारी सुविहित साधु को यह खुफिया हैं, या यह चोर है, इस प्रकार के सन्देह में पकड़ करके बांध देते हैं, कषायवश अपशब्द भी कहते हैं, फिर उसे डंडों, मुक्कों और लाठियों से पीटते भी हैं। उस समय उपसर्ग से अनभ्यस्त साधक की मनोदशा-उस समय अनाडी लोगों द्वारा किये गए प्रहार से घबराकर संयम से भाग छूटने की मनोवृत्तिवाला कच्चा और अज्ञ नवदीक्षित साधक अपने मातापिता या स्वजन वर्ग को याद करके उसी प्रकार पछताता रहता है, जिस प्रकार कोई स्त्री धर से रूठकर भाग जाती है, किन्तु कामी लोगों द्वारा पीछा करके बलात् पकड़ ली जाती है, उस समय वह अपने स्वजनों को याद करके पश्चात्ताप करती है। शास्त्रकार ने ऐसे उपसर्गों के समय साधक को सावधान करने के लिए ऐसी सम्भावनाएँ व्यक्त की है। कठिन शब्दों की व्याख्या-पलियतसि=अनार्य देश के पर्यन्त सीमाप्रदेश में विचरण करते हुए / चारिचारिक गुप्तचर, चर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-चारिकोऽयं चारयतीति चारकः येषां परस्पर विरोधस्ते चारिक मित्येन संवदन्ते / अर्थात् -यह चारिक है / जिन राज्यों का परस्पर विरोध होता है, वे उसे चारिकविरोधी-गुप्तचर समझते हैं / कसायवयणेहि-क्रोधादि कषाय युक्त वचनों से पीड़ित करते हैं। चर्णिकार 'कसायवसणे हि-पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-काषायरंग के वस्त्रों से सज्जित करके कई कार्पटिक पाषण्डिक लोग उस साधु की भर्त्सना करते हैं, रोकते है या नचाते हैं। अथवा कषाय के वश होककर के पीड़ित करते हैं। संबीते-पीटे जाने पर या प्रहत-घायल किये जाने पर / 18 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 82 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 417 से 416 तक का सारांश 16 (क) सूत्रकृतांम शीलांकवृत्ति पृ० 12 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 33 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : माथा 181 165 उपसर्गों से आहत : क्रायर साधकों का पलायन 181, एते भो कसिणा फासा फरसा दुरहियासया। हत्थी वा सरसंवीता कोवाऽवसा गता गिहं // 17 // ति बेमि // 181. हे शिष्यो ! ये (पूर्वोक्त) समस्त (उपसर्गों और परीषहों के) स्पर्श (अवश्य ही) दुःस्सह और कठोर है, किन्तु बाणों से आहत (घायल) हाथियों की तरह विवश (लाचार) होकर वे ही (संयम को छोड़कर) घर को चले जाते हैं, जो (कायर) हैं। -यह मैं कहता हूँ।। विवेचन-उपसर्मो से आहत : असमर्थ साधकों का पलायन-इस गाथा में पूर्वगाथाओं में उक्त दुःसह एवं कठोर परीषहोपसर्गों के समय कायर पुरुष की पलायनवृत्ति का उल्लेख शिष्यों को सम्बोधित करते हुए किया गया है। पूर्वोक्त उपसर्गों के स्पर्श कैसे ? इस उद्देशक में जितने भी परीषहों या उपसर्गों का निरूपण किया गया है, उन सब के स्पर्श- स्पर्शेन्द्रियजनित अनुभव-अत्यन्त कठोर हैं तथा दुःसह्य हैं / उन उपसर्गस्पों का प्रभाव किन पर कितना? उपसर्ग या परीषह तो जैसे हैं, वैसे ही हैं, अन्तर तो उनकी होता है। जो साधक कायर, कच्चे और गरुकर्मी होते हैं, उन्हें ये स्पर्श अत्यन्त तीब्र, असह्य लगते हैं / फलतः जिस तरह रणक्षेत्र में वाणों के प्रहार से पीड़ित (घायल) हाथी मैदान छोड़कर भाग जाते हैं, उसी तरह वे अपरिपक्व साधक परीषहों और उपसर्गों की मार से पीड़ित एवं विवश होकर संयम को छोड़कर पुनः गृहवास में प्रवृत्त हो जाते हैं, लेकिन जो परिपक्व वीर साधक होते हैं, वे संयम में डटे रहते हैं / 20 कठिन शब्दों की व्याख्या--सरसंबीता-बाणों के प्रहारसे आकुल या पीड़ित / कोवा-असमर्थ, कायर साधक / अवसा-परवश या गुरु कर्माधीन (भारीकर्मा) चूर्णिकार 'कोवाऽवसा' के बदले दो पाठान्तर प्रस्तुत करते हैं-'कोवा वसगा' और 'तिम्बसढमा' प्रथम पाठान्तर का अर्थ किया गया है-'क्लीवा बशका नाम यशका"-अर्थात-क्लीव (असमर्थ कायर और वशक अर्थात-परीषहों से विवश / द्वितीय पाठान्तर का अर्थ है-"तीव्र शठाः तीव्रशठाः तीव्र शठाः तीव्रशठाः, तीव्र परीषहैः प्रतिहताः।" अर्थात् तीव्र शठता (धृष्टता) धारण किये हुए तीब्रशठ, अथवा तीब्र परोषहां से शठ प्रतिहत-पीड़ित / वृत्तिकार ने भी 'तिम्बसदा पाठान्तर का उल्लेख करके अर्थ किया है-तीब्र रूपसर्गरभिद्रु ताः शठाः शठानुष्ठानाः संयम परित्यज्य गृहंगताः / ' अर्थात्-तीव्र उपसर्गों से पीड़ित शठ यानी शठता का कार्य करने वाले 21 प्रथम उद्देशक समाप्त 00 20 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 83 के आधार पर 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 83 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 33 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिजा बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अनुकूल उपसर्ग : सूक्ष्म संग रुप एवं दुस्तर 182 अहिमे सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा। जत्थ एगे विसीयंति ण चयंति जवित्तए // 1 // 182. इसके (प्रतिकूल उपसर्ग के वर्णन के) पश्चात् ये सूक्ष्म (स्थूल रूप से प्रतीत न होने वालेअनुकूल) संग बन्धु-बान्धव आदि के साथ सम्बन्ध रूप उपसर्ग हैं, जो भिक्षुओं के लिए दुस्तर-दुरतिक्रमणीय होते हैं। उन सूक्ष्म आन्तरिक उपसर्गों के आने पर कई (कच्चे) साधक व्याकुल हो जाते हैंवे संयमी जीवन-यापन करने में असमर्थ बन जाते हैं / विवेचन-सूक्ष्म-अनुकूल उपसर्गः दुस्तर एवं संयमच्युतिकर-प्रस्तुत सूत्रगाथा में अनुकूल उपसर्गों का वर्णन प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार उनका परिचय देते हैं। अनुकूल उपसर्गों की पहिचान दो प्रकार से होती है-(१) ये सूक्ष्म संग रूप होते हैं, (2) दुरुत्तर होते हैं। इनका प्रभाव विवेकमूढ़ साधक पर दो तरह से होता है-(१) वे घबरा जाते हैं, या (2) संयमी जीवन निभाने में असमर्थ हो जाते हैं ? ___ ये उपसर्ग सूक्ष्म और दुरुत्तर क्यों ?- स्थूल दृष्टि से देखने वाला इन्हें सहसा उपसर्ग नहीं कहेगा, बल्कि यह कहेगा कि इन आने वाले उपसर्गों को तो आसानी से सहन किया जा सकता है। इनको सहने में काया को कोई जोर नहीं पड़ता। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'अहिमे मुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा', आशय यह है कि अपने पूर्वाश्रम के माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदि स्वजनों का मधुर एवं स्नेहस्निग्ध संसर्ग (सम्बन्ध) रूप उपसर्ग इतना सूक्ष्म होता है कि वह साधक के शरीर पर हमला नहीं करता, अपितु उसके मन पर घातक आक्रमण करता है, उसकी चित्तवत्ति में उथल-पुथल मचा देता है। इसीलिए इस संगरूप उपसर्ग को सक्ष्म यानी आन्तरिक बताया गया है। प्रतिकल: उपसर्ग तो प्रकट रूप से बाह्य शरीर को विकृत करते हैं, किन्तु ये (अनुकल) उपसर्ग बाह्य शरीर को विकृत न करके साधक के अन्तोदय को विकृत बना देते हैं। इन सूक्ष्मसंगरूप उपसर्गों को दुस्तर (कठिनता से पार किये जा सकनेवाले) इसलिए बताया गया है कि प्राणों को संकट में डालने वाले प्रतिकूल उपसर्गों के आने पर तो साधक सावधान होकर मध्यस्थवृत्ति धारण कर सकते हैं, जबकि अनुकूल उपसर्ग आने पर मध्यस्थ वृत्ति का अवलम्बन लेना अतिकठिन होता है। इसीलिए सूक्ष्म या अनुकूल उपसर्ग को पार करना अत्यन्त दुष्कर बताया गया है।' (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० 2, पृ० 25 का सारांश (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 8 पर से (ग) सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या पु०४२३ के आधार पर Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 183 से 165 इन उपसों का प्रभाव-गाथा के उत्तरार्द्ध में इन उपसर्गों का प्रभाव बताया गया है। इन अनुकल उपसर्गों के आने पर कई महान् कहलाने वाले साधक भी धर्माराधना या संयम-साधना से विचलित एवं भ्रष्ट हो जाते हैं, सुकुमार एवं सुख सुविधा-परायण कच्चे साधक तो बहुत जल्दी अपने संयम से फिसल जाते हैं, सम्बन्धियों के मोह में पड़कर वे संयम पालन में शिथिल अथवा धीरे-धीरे सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं। वे संयम पूर्वक अपनी जीवन यात्रा करने में असमर्थ हो जाते हैं। सदनुष्ठान के प्रति वे विषण्ण (उदासीन) हो जाते हैं, संयम पालन उन्हें दुःखदायी लगने लगता है। वे संयम को छोड़ बैठते हैं या छोड़ने को उद्यत हो जाते हैं। कठिन शब्दों को ब्याख्या-सुहुमा-प्राय: चित्त विकृतिकारी होने से आन्तरिक हैं, तथा प्रतिकूल उपसर्गवत् प्रकटरूप से शरीर विकृतिकारी एवं स्थूल न होने से सूक्ष्म हैं। संगा-माता-पिता आदि का सम्बन्ध / 'जत्थ एगे विसीयंति-जिन उपसर्गों के आने पर अल्पपराक्रमी साधक विषण्ण हो जाते हैं, शिथिलाचार-परायण हो जाते हैं, संयम को छोड़ बैठते हैं / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-'जत्थ मंदा विसीदति' अर्थ प्रायः एक-सा ही है / 'ण चयंति जवित्तए' नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन पायितं., वर्तयितु तस्मिन् वा व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति समर्था भवन्ति / ' अर्थात् -अपने आपको संयमानुष्ठान के साथ जीवन-निर्वाह करने में, संयम में टिकाए रखने में समर्थ नहीं होते। स्वजनसंग रु उपसर्ग : विविध रूपों में 183. अप्पेगे णायओ दिस्स रोयंति परिवारिया। पोस णे तात पुट्ठोऽसि कस्स तात चयासि णे // 2 // 184. पिता ते थेरओ तात ससा ते खुड्डिया इमा। भायरो ते सगा तात सोयरा कि चयासि // 3 // 185. मातरं पितरं पोस एवं लोगो भविस्सइ / एयं खु लोइयं ताय जे पोसे पिउ-मातरं // 4 // 186. उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते तात खुड्डगा / __ भारिया ते णवा तात मा से अण्णं जणं गमे // 5 / / 187. एहि ताय घरं जामो मा तं कम्म सहा वयं / बीयं पितात पासामो जामु ताव सयं गिहं // 6 // 2 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 423 पर से 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 83 (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ 33 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्ष 188. गंतु तात पुणाऽऽगच्छे ण तेणऽसमणो सिया। अकामगं परक्कम को ते वारेउमरहति // 7 // 186. जं किंचि अणगं सात तं पि सन्वं समीकतं / हिरण्णं ववहारादी तं पि दासामु ते वयं // 8 // 160. इच्चेव णं सुसेहंति कालुणिया समुट्ठिया। विबद्धो नातिसंगैहि ततोऽगारं पधावति // 6 // 161. जहा रुक्खं वणे जायं मालुया पडिबंधति / एवं णं पडिबंधति णातओ असमाहिणा // 10 // 162. विबद्धो णातिसंगहि हत्थी वा वि नवग्गहे / पिट्ठतो परिसप्पंति सूतीगो व्व अदूरगा // 11 // 193. एते संगा मणुस्साणं पाताला व अतारिमा। कोवा जत्थ य कीसंति नातिसंगहि मुच्छिता // 12 / / 194. तं च भिक्खू परिणाय सम्वे संगा महासवा। जीवितं नाभिकखेज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं // 13 // 165. अहिमे संति आवट्टा कासवेण पवेदिता। बुद्धा जत्थावसप्पंति सोयंति अबुहा जहि // 14 // 183. कई-कई ज्ञातिजन साधु को देखकर उसे घेर कर रोते हैं-विलाप करते हैं, (वे कहते हैं) "तात ! अब आप हमारा भरण-पोषण करें, हमने आपका पालन-पोषण किया है / हे तात ! (अब) हमें आप क्यों छोड़ते हैं ? 184. हे पुत्र (तात) ! तुम्हारे पिता अत्यन्त बूढ़ हैं, और यह तुम्हारी बहन (अभी) छोटी है। हे पुत्र ! ये तुम्हारे अपने सहोदर भाई हैं / (फिर) तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो? 185. हे पुत्र ! अपने माता-पिता का पालन-पोषण करो। ऐसा करने से ही लोक (लोक-इहलोक-परलोक) सुधरेगा-बनेगा / हे तात ! यही लौकिक आचार है कि जो पुत्र हैं, वे अपने माता-पिता का पालन करते हैं। 186. हे तात ! तुम्हारे उत्तरोत्तर (एक के बाद एक) जन्मे हुए पुत्र मधुरभाषी (तुतलाते हुए मीठी बोली में बोलते) हैं तथा वे अभी बहुत छोटे हैं। हे तात ! तुम्हारी पत्नी अभी नवयोवना है, वह (कहीं) दूसरे पुरुष के पास न चली जाए। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 183 से 165 187. आओ, तात ! घर चलें। (अब से) तुम कोई काम मत करना, हम लोग तुम्हारे काम में सहायक होंगे / हे तात ! (अब) दूसरी बार (चलो) (तुम्हारा काम) हम देखेंगे। अतः चलो, हम लोग अपने घर चलें। 188. हे तात ! (अच्छा) एक बार घर जा कर फिर लौट आना। (इससे तुम) अश्रमण नहीं हो जाओगे। (घर के काम में) तुम इच्छारहित (अनिच्छुक) हो तो तुम्हें स्वेच्छानुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है ? 186. हे तात ! जो कुछ ऋण था, वह भी सारा का सारा हमने बराबर (समभाग में) बाँटकर ठीक कर (उतार) दिया है / तुम्हारे व्यवहार आदि के लिए उपयोगी जो हिरण्य (सोना-चाँदी आदि) है, वह भी हम लोग तुम्हें देंगे। 160. करुणाजनक वचनों से (साधक को फुसलाने हेतु) भलीभांति उद्यत (कटिबद्ध) बन्धु-बान्धव इसी प्रकार साधु को शिक्षा देते हैं (बरगलाते हैं / ) (ऐसी स्थिति में) ज्ञातिजनों के संगों-सम्बन्धों से विशेष रूप से (स्नेह बन्धन में) बंधा (जकड़ा) हुआ साधक उस निमित्त (बहाने) से घर की और चल पड़ता है। 161. जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष के लता (लिपट कर) बाँध लेती है, इसी तरह ज्ञातिजन (स्वजन) (साधक के चित्त में) असमाधि उत्पन्न (समाधिभंग) करके (उसे) बांध लेते हैं। 162. (माता-पिता आदि) स्वजनवर्ग के स्नेह सम्बन्धों से बंधे हुए साधु के पीछे-पीछे (स्वजन वर्ग) चलते हैं और नये-नये पकड़े हुए हाथी के समान (उसके अनुकूल चलते हैं)। तथा जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पास रहती है, वैसे पारिवारिक जन भी उसके पास ही रहते हैं। 163, ये (माता-पिता आदि स्वजनों के प्रति) संग (स्नेह सम्बन्ध रूप उपसर्ग) मनुष्यों के लिए समुद्र के समान अतल और दुस्तर हैं। इस प्रकार उपसर्ग के आने पर ज्ञातिजनों के संग (सम्बन्ध) में मूच्छित-आसक्त होकर अल्प पराक्रमी साधक क्लेश पाते हैं। 164. भिक्षु उस ज्ञातिजन सम्बन्धरूप उपसर्ग को भलीभांति जान कर छोड़ देता है। क्योंकि सभी संग (आसक्तियुक्त सम्बन्ध) कर्म के महान् आस्रव द्वार हैं। अनुत्तर (वीतरागप्ररूपित) धर्म का श्रवण करके साधु असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे / 165. इसके अनन्तर काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने विशेषरूप से बता दिया कि ये संग (जातिजनों के साथ स्नेहसम्बन्ध) आवर्त (भंवरजाल या चक्कर) हैं। जिस उपसगं के आने पर प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) पुरुष इनसे शीघ्र ही अलग (दूर) हट जाते हैं, जबकि अदूरदर्शी विवेकमूढ़ इनमें फंसकर दुःख पाते हैं। विवेचन--स्वजनसंगरूप उपसर्गः कैसे-कैसे, किस-किस रूप में ? इन (183 से 115 तक 13 सूत्रगाथाओं ज्ञातिजन-संग रूप अनुकूल उपसर्ग का विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है / ज्ञातिजनों द्वारा आसक्ति मय वचनों से साधक को फुसलाने के सात मुख्य प्रकारों का यहां वर्णन है--(१) सम्बन्धीजन रो-रो Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा कर अपने भरणपोषण के लिए, कहते हैं; (2) बूढ़े पिता, छोटी बहन, तथा सहोदर भाइयों को छोड़ने का अनुरोध, (3) माता-पिता का भरण-पोषण करना लौकिक आचार है, इससे लोक सुधरता है, (4) छोटे-होटे दुध मुंह बच्चे और नवयौवना पत्नी को सँभालने का आग्रह, (5) तुम्हारे जिम्मे का सब काम हम कर लेंगे इस प्रकार कह कर घर चलने का आग्रह, (6) घर जाकर वापस लौट आना, वहाँ तुम्हें स्वेच्छा से काम करने से कोई नहीं रोकेगा (7) तुम्हारे सब कर्ज हमने बराबर बाँटकर चुका दिया है, तथा तुम्हें अब घरबार चलाने एवं व्यापार के लिए हम सोना आदि देंगे। इस प्रकार बहकाना / इस प्रकार के अनुकूल उपसर्ग का 4 प्रकार का प्रभाव-(१) स्वजनों के करुणाजनक वार्तालाप से उनके स्नेह सम्बन्धों में बद्ध साधक घर की ओर चल पड़ता है, (2) वेल द्वारा वृक्ष को बांधने की तरह स्वजन समाधि रहित साधक को बांध लेते हैं, (3) नये पकड़े हुए हाथी की तरह वे उसके पीछे-पोछे चलते हैं, वे उसे अपने से दूर नहीं छोड़ते। (4) समुद्र की तरह गम्भीर एवं दुस्तर इन ज्ञाति-संगों में आसक्त होकर कायर साधक कष्ट पाते हैं। ___ इन उपसर्गों के समय साधक का कर्तव्य-(१) इस उपसर्गों को भली-भांति जान कर छोड़ दे, (2) सभी संग रूप उपसर्ग महास्रवरूप हैं, (3) अनुत्तर निम्रन्थ धर्म का श्रवण-मनन करे, (4) असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे, (5) भगवान महावीर ने इन्हें भंवरजाल बताया है, (6) अज्ञानी साधक ही इनमें फँस कर दुःखी होते हैं, ज्ञानी जन इनसे दूर हट जाते हैं। स्वजन संगरूप उपसर्ग के मुख्य सात रूप-प्रथमरूप-साधुधर्म में दीक्षित होते या दीक्षित हुए देखकर स्वजनवर्ग जोर-जोर से रोने लगते है, आँसू बहाते हैं, स्वजनों की आँखों में आँसू देखकर कच्चे साधक का मन पिघल जाता है। जब वह उनके मोहभित वचनों को सुनने के लिए तैयार होता है, तब वे कहते हैं --पुत्र ! हमने बचपन से तुम्हारा पालन-पोषण इसलिए किया था कि बुढ़ापे में तुम हमारा भरण-पाषण करोगे, लकिन तुम तो हमें अधबीच में ही छिटका कर जा रहे हो। अतः चलो, हमारा भरण पोषण करो। तुम्हारे सिवाय हमारा पोषक-रक्षक कौन है ? हमें असहाय छोड़कर क्यों जा रहे हो? दूसरा रूप-पुत्र ! देखो तो सही, तुम्हारे पिता बहुत बूढ़े हैं, इन्हें तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है ! यह तुम्हारी बहन अभी बहुत छोटी है. ये तुम्हारे सहोदर भाई हैं, इनकी ओर भी देखो इन सबको छोड़कर क्यों जा रहे हो ? घर चलो ! तीसरा रूप-बेटा ! माँ-बाप का भरण पोषण करो, इसी से लोक-परलोक सुधरेगा। लौकिक आचारशास्त्र में यह स्पष्ट कहा गया है कि पुत्र अपनी जन्मदात्री मां का तथा गुरुजनों का अवश्य ही पालन करते हैं, तभी वे माता-पिता के उपकारों से किंचित उऋण हो सकते हैं। चौथा रूप-अभी तुम्हारे एक के बाद एक पैदा हुए सुन्दर सलौने मधुर भाषी दुध मुंहे बच्चे हैं। तुम्हारी पत्नी अभी नवयौवना है। तुम्हारे द्वारा परित्यक्त होने पर यह किसी दूसरे पुरुष के साथ 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति युक्त भाषानुवाद भा०२ पु०२५ से 37 तक का सार Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक / गाथा 183 से 165 201 चली जायगी तो उन्मार्गगामिनी एवं स्वच्छन्दाचारिणी बन जायगी। यह बड़ा लोकापवाद होगा। इन सब बातों पर विचार करके अपने स्त्री-पुत्रों की ओर देखकर तुम धर चलो / पांचवां रूप घर के कामधन्धों से कतरा कर तुमने घर छोड़ा है, परन्तु अब हमने निश्चय कर लिया है कि हम तुम्हें किसी काम के लिए नहीं कहेंगे। तुम्हारे काम में सहायता करेंगे, तुम्हारे जिम्मे के कामों को हम देखेंगे। अतः घर चलो, तुम कोई काम मत करना। छठा रूप-प्रिय पुत्र ! तुम एक बार घर चल कर अपने स्वजन वर्ग से मिलकर, उन्हें देखकर फिर लौट आना / घर चलने मात्र से तुम कोई असाधु नहीं हो जाओगे। अगर तुम्हें घर में रहना नापसन्द हो तो पुनः यहाँ आ जाना / यदि तुम्हारी इच्छा घर का काम-काज करने की न हो तो तुम्हें अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से कौन रोकता है ? अथवा तुम्हारो इच्छा काम-भोगों से निवृत्त होकर बुढ़ापे में पुनः संयमानुष्ठान करने को हो तो कौन मना करता है ? संयमाचरण योग्य अवसर आने पर तुम्हें कोई रोकेगा नहीं। अतः हमारा साग्रह अनुरोध मानकर एकबार घर चलो। ___ सातवाँ रूप-बेटा ! तुम पर जो भारी कर्ज था, उसे हम लोगों ने परस्पर बराबर हिस्से में बाँट लिया है, एवं चुका दिया है। अथवा ऋण चुकाने के भय से तुमने घरबार छोड़ा था, उसे हम लोगों ने आसानी से चुकाने की व्यवस्था कर ली है। रहा व्यापार एवं घर खर्व का व्यवहार तो उसे चलाने के लिए हम तुम्हें सोना-चाँदी आदि द्रव्य देंगे। जिस निर्धनता से घबरा कर तुमने घर छोड़ा था। अब उस भय को मन से निकाल दो, और घर चलो। अब घर में रहने में तुम्हारे लिए कोई विघ्न-बाधा नहीं रही। स्वजनों द्वारा इन और ऐसे ही मोहोत्पादक विभिन्न आकर्षक तरीकों से कच्चे साधक को पुन: गृहस्थजीवन में खींच लिया जाता है। संयमी जीवन में इस प्रकार के प्रलोभन अनुकूल उपसर्ग हैं, कच्चा साधक स्वजनों के मोह सम्बन्ध में पड़कर संयम से फिसल जाता है। ये समस्त सूत्रगाथाएँ साधु को इस प्रकार के अनुकूल उपसर्गों के समय सावधान रहने तथा संयम छोड़कर पुनः गृहवास में जाने का जरा भी विचार न करने की प्रेरणा देती हैं। कठिन शब्दों को ब्याख्या--दिस्त देखकर / अप्पेगे=(अपि सम्भावना अर्थ में होने से) सम्भव है, कई तथाकथित / णायओ= ज्ञातिजन / परिवारिया=धेरकर / कस्स चयासि ? किसलिए, किस कारण से हमें तू छोड़ रहा है / 'चयासि' के बदले पाठान्तर है जहासि / अर्थ समान है। खुड्डिया= छोटी बच्ची है / सगा= अपने, सगे। 'सवा' पाठान्तर भी है, जिसके संस्कृत में दो रूप होते हैं-स्वकाः; श्रवाः / स्वका का अर्थ अपने निजी है, और श्रवा का अर्थ होता हैं-तुम्हारे वचन या आज्ञा आदि को सुनने वाले। कम्मसहा=कर्मो (कामों) में सहायक / चूर्णिकार के अनुसार इदाणि वयं कम्मसमरया-कम्मसहा कम्मसहायकस्व प्रतिभवतः / अर्थात्-अब हम काम करने में समर्थ हैं, आपके कामों में सहायता करने में भी। लोगो भविस्सइ-तुम्हारा इहलोक-परलोक बनेगा-सुधरेगा / जे पोसे पिउमातरं-जो पुत्र पिता-माता का पालनपोषण करता है / इसके बदले पाठान्तर है- 'जे पालंति य मातरं / अर्थ होता है जो पुत्र होते हैं, 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 84 से 26 तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 424 से 434 तक के आधार पर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा वे माता और अन्य गुरुजनों का पालन करते हैं। उत्तरा='उत्तरोत्तरजाता' यानी एक के बाद एक जन्मे हुए। कहीं-कहीं 'उत्तमा' पाठान्तर भी है; अर्थ होता है-सुन्दर श्रेष्ठ महुरुल्लावा-मधुरो-मनोश उल्लापः -~आलापो तेषां ते तथाविधाः, जिनकी बोली मधुर-मनोज्ञ है, गंतु-घर जाकर अपने स्वजन-वर्ग को देखकर / अकामगं= अनिच्छन्तं- गृहव्यापारेच्छारहित=घर के कामकाज करने की इच्छा से रहित (अनिच्छक)। परपकम-स्वेच्छानुसार अवसर प्राप्त किसी काम को करने से / चूणिकार सम्मत पाठान्तर है--परक्कमंतं अर्थ किया गया है-अपनी रुचि अनुसार पराक्रम करते हुए तुम को / हत्यीवा वि नवग्गहे नये पकड़े हुए हाथी की तरह / ' 'सूतीगोव्व'-प्रसूता गाय की तरह / पाताला व अतारिया=अतल समुद्र की तरह दुस्तर / मालुया=लता। असमाहिणा-असमाधि पैदा करने वाले रुदन-विलापादि कृत्यों से। चूणिकार असमाधिता पाठान्तर भी मानते हैं / अर्थ है---असमाधिपन / कोवाजत्थ य कीसंति---असमर्थ साधक इन अनुकूल उपसों के आने पर क्लेश (जन्ममरणादिरूप संसार भ्रमण का दुःख) पाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-कोवा जत्थावकीसंति-अल्पसत्व साधक जिस उपसर्ग के आने पर मोक्षगुण से या धर्म से अपकृष्ट-दूर हो जाते हैं / एक और चणिसम्मत पाठान्तर है-कोवा जत्थ विसणे सी-कीवा जत्थ विसणं एसंतीति विसण्णेसी....... विसष्णा वा आसन्ति विसण्णासी / अर्थात्-जहाँ कायर साधक विषाद को प्राप्त करते हैं, अथवा विषण्ण होकर बैठ जाते हैं। महासवा-महान् कर्मों के आस्रवद्वार हैं / अहिमे-- अथ का अर्थ है--- इसके अनन्तर ये (पूर्वोक्त स्वजन संगरूप उपसर्ग)। "अहो इमे' इस प्रकार का पाठान्तर भी वृत्तिकार ने सूचित किया है। जिसका अर्थ होता है- आश्चर्य है, ये प्रत्यक्ष निकटवर्ती एवं सर्वजनविदित / अवसपंति--अप्रमत्तता-सावधानीपूर्वक उससे दूर हट जाते हैं / भोग निमत्रण रुप उपसर्ग : विविध रूपों में 166. रायाणो रायमच्चा य माहणाऽदुव खत्तिया। निमंतयंति भोहि भिक्खुयं साहुजीविणं // 15 // 167. हत्थऽस्स-रह-जाणेहि विहारगमणेहि य / भुज भोगे इमे सग्धे महरिसी पूजयामु तं // 16 / / 198. वत्थगंधालंकारं इत्थीओ सयणाणि य / भुजाहिमा भोगाइं आउसो पूजयामु तं / / 17 / / 166. जो तुमे नियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि सुव्वता। अगारमावसंतस्स सव्वो संविज्जए तहा // 18 / / 200. चिरं दूइज्जपाणस्स दोसो दाणि कुतो तव / इच्चेव णं निमति नीवारेण व सूयरं / / 16 // 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 84 से 86 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 34-35 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 द्वितीय उद्देशक : गाथा 196 से 203 201. चोदिता भिक्खुचज्जाए अचयंता जवित्तए / तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि व दुब्बला // 20 // 202. अचयंता व लूहेण उवहाणेण तज्जिता। तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि जरग्गवा / / 21 // 203. एवं निमंतणं लद्धमुच्छिया गिद्ध इत्थीसु / अझोषवण्णा कामेहि चोइज्जंता गिहं गया // 22 // त्ति बेमि / 166. राजा-महाराजा और राजमन्त्रीगण, ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय साध्वाचार (उत्तमाचार) जीवी भिक्षु को विविध भोग भोगने के लिए निमन्त्रित करते हैं। 167. हे महर्षे ! ये हाथी, घोड़े, रथ और पालको आदि सवारियों पर आप बैठिये और मनोविनोद या आमोद-प्रमोद के लिए बाग-बगोचों में सैर करिए। इन उत्तमोत्तम (श्लाघ्य) भोगों का (मनचाहा) उपभोग कीजिए / हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा (आदर-सत्कार) करते हैं। 198. हे आयुष्मन् ! वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, ललनाएँ और शय्या तथा शयनसामग्री, इन भोगों (-भोगसामग्री) का मनचाहा उपभोग करें। हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं / 169. हे सुन्दर व्रतधारी (मुनिवर) ! मुनिभाव में (रहते हुए) जिस नियम (महाव्रतादि यमनियम) का आपने आचरण (अनुष्ठान) किया है, वह सब घर (गृहस्थ) में निवास करने पर भी उसी तरह (पूर्ववत्) वना रहेगा। 200. (हे साधकवर !) चिरकाल से (संयमाचरणपूर्वक) विहरण करते हुए आपको अब (भोगों का उपभोग करने पर भी) दोष कसे (लग सकता है)? (इस प्रकार लोभ दिखाकर) जैसे चावलों के दानों (के प्रलोभन) से सूअर को फंसा लेते हैं, इसी प्रकार (विविध भोगों का) निमन्त्रण देकर (साधु को गृहवास में फंसा लेते हैं।) __ 201. संयमी साधुओं की चर्या (समाचारी-पालन) के लिए (आचार्य आदि के द्वारा) प्रेरित संयमी जीवन यापन करने में असमर्थ, मन्द (अल्पपराक्रमी) साधक उस उच्च संयम मार्ग पर प्रयाण करने में उसी तरह दुर्बल (मनोदुर्बल) होकर बैठ जाते हैं जिस तरह ऊँचे मार्ग के चढ़ाव में मरियल बैल दुर्बल होकर बैठ जाते हैं। 202. रुक्ष (संयम) के पालन में असमर्थ तथा तपस्या से पीड़ा पाने वाले मन्द (अल्पसत्व अदूरदर्शी) साधक उस उच्च संयम मार्ग पर चलने में उसी प्रकार कष्ट महसूस करते हैं, जिस प्रकार ऊँचे चढ़ाई वाले मार्ग पर चलने में बूढ़े बैल कष्ट-अनुभव करते हैं। 203. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से भोग-भोगने के लिए निमन्त्रण पाकर विविध भोगों में मूच्छित (अत्यासक्त) स्त्रियों में गृद्ध मोहित एवं काम-भोगों में रचे-पचे दत्तचित्त(-कई साधुवेषी) (उच्चाचारपरायण आचार्यादि द्वारा संयम पालनार्थ) प्रेरित किये जाने पर भी घर (गृहवास) को चले गये। -ऐसा मैं कहता हूँ। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा विवेचन- भोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग और उनसे पराजित साधक-प्रस्तुत आठ सूत्र गाथाओं (166 से 203 तक) में साधु-जीवन में भोग निमन्त्रणरूप उपसर्ग कैसे-कैसे और किस रूप के अनुसार किनके निमित्त से आते हैं और मोहमूढ़ मनोदुर्बल साधक कैसे उन भोगों के जाल में फँस जाते हैं ? विस्तार पूर्वक यह वर्णन किया गया है। __ भोगों का निमन्त्रण देने वाले--सूत्रगाथा 166 के अनुसार साधु को भोगों का निमन्त्रण देकर कामभोगों एवं गृहवास के जाल में फंसाने वाले 4 कोटि के लोग होते हैं-(१) राजा-महाराजादि, (2) राजमन्त्री वर्ग, (3) ब्राह्मण वर्ग एवं (4) क्षत्रिय वर्ग / भोगपरायण शासक वग ही प्रायः भोग निमन्त्रणदाता प्रतीत होते हैं। वे अपने किसी लौकिक स्वार्थवश या स्वार्थपूर्ति हो जाने के बाद अथवा स्वयं के भोग में साधु बाधक न बने इस कारण साधुओं को भी अपने जैसा भोगासक्त बना देने का कुचक्र चलाते हैं। जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने चित्त (चित्र) नामक साधु को विविध विषयों के उपभोग के लिए आमंत्रित किया था। भोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग किस-किस रूप में ?-प्रथमरूप-पहले तो समुच्चय रूप से वे साधु को भोगों के लिए इस प्रकार आमंत्रित करते हैं-पधारिये, मुनिवर ! आप हमारे घर को पावन को जिए / जितने दिन आपकी इच्छा हो, खुशी से रहिये, आपके लिये यहाँ सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं / शास्त्रकार कहते हैं-निमंतयंति भोगहि"""साहजोविण / दूसरा रूप-~-इस पर जब सुविहित साधु सहसा भोगों का आसेवन करने में संकोच करता है, तब वे अपने यहाँ लाकर उन्हें खुल्लमखुल्ला भोग प्रलोभन देते हैं-- 'देखिये, महात्मन् ! ये हाथी, घोड़े, रथ और पालकी आदि सवारियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं। आपको मेरे गुरु होकर पैदल नहीं चलना है। इनमें जो भी सवारी आपको अभीष्ट हो, उसका मन चाहा उपयोग करें। और जब कभी आपका मन उचट जाए और सैर करने की इच्छा हो तो ये बाग-बगीचे हैं, इनमें आप मनचाहा भ्रमण करें, ताजे फूलों को सुगन्ध लें, प्राकृतिक सौन्दर्य की बहार का आनन्द लूटें / अथवा यह भी कह सकते हैं-'इन्द्रियों और मन को रंजित करने वाले अन्य खेलकूद, नाचगान, रंग राग आदि विहारों का भी आनन्द लें।' 'हम आपके परमभक्त हैं। आप जो भी आज्ञा देंगे, उसे हम सहर्ष शिरोधार्य करेंगे, आपकी पूजा प्रतिष्ठा में कोई कमी न आने देंगे। शास्त्रकार कहते हैं-"हत्यऽस्स ....."पूजयामु तं / ' तीसरा रूप-जब वे यह देखते हैं कि जब यह साधु इतनी भोग्य-सामग्री एवं सुख-सुविधाओं का उपभोग करने लग गया है, तब अन्तरंग मित्र बनकर संयम विघातक अन्यान्य भोगसामग्री के लिए आमन्त्रण देते हैं- महाभाग ! आयुष्मन् ! आप हमारे पूज्य में, आपके चरणों में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भोगसामग्री अर्पित है। आप इन उत्तमभोग्य साधनों का उपभोग करेंगे तो हम अपना अहोभाग्य समझेंगे ये चीनांशुक आदि मुलायम रेशमी वस्त्र हैं, ये इत्र, तेल, फुलैल, सुगन्धित चूर्ण, पुटपाक, आदि सुगन्धित पदार्थ हैं, ये हैं कड़े, बाजूबन्द, हार, अंगूठी आदि आभूषण, ये नवयुवती गौरवर्णा मृगनयनी सुन्दरियाँ हैं, ये गद्दे, तकिये, पलंग, पलंगपोश, मखमली शय्या आदि शयनीय सामग्री है, यह सब इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करने वालो उत्तमोत्तम भोग्य सामग्री है / आप इनका खुलकर जी चाहा उपयोग करके अपने जीवन को सार्थक करें। हम इन भोग्यपदार्थों से आपका सत्कार करते हैं।' Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 166 से 203 इस प्रकार का खुला आमन्त्रण पाने पर भी साधु के मन में संकोच होता है कि मुझे इन पदार्थों का उपभोग करते देख नये बने हुए राजा आदि भक्तों के मन में कदाचित् अश्रद्धा-अप्रतिष्ठा का भाव पैदा हो, इस संकोच के निवारणार्थ साधु को आश्वस्त करते हुए वे कहते हैं-हे पूज्य ! आप निश्चिन्त रहें। इन चीजों के उपभोग से आपकी पूजा-प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आएगी। हम आपकी पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं। राजा या समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति सत्कार सम्मान करता है तो जनता तो अवश्य ही करेगी, क्योंकि साधारण जनता तो श्रेष्ठ कहलाने वाले व्यक्तियों का अनुसरण करती है।' इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं- बथगंध''आउसो पूजयामु तं :" साधु को पूजा-प्रतिष्ठा की ओर से आश्वस्त करने हेतु शास्त्रकार 'पूजयामु तं' वाक्य का दो गाथाओं में प्रयोग करते हैं। चौथा रूप- कई साधनाशील साधक इन संयम विघातक भोगों का खुला उपभोग करके भिक्षुभाव से गृहवास में जाने से यों कतराते हैं कि ऐसा करने से हमारे यम-नियम आदि सव भंग हो जाएँगे, आज तक की-कराई संयम साधना चौपट हो जायगो / अतः सुविहित एवं संकोचशील साधु को आश्वस्त करने एवं गृहवास में फंसाने की दृष्टि से वे कहते हैं-हे सुव्रतधारिन् महामुने ! आपने मुनिभाव में महाव्रत आदि यम-नियमों का पालन किया है, गृहवास में जाने पर वे उसी तरह बरकरार रहेंगे, उनका फल कभी समाप्त नहीं होगा, या गृहवास में भी वे पूर्ववत् पाले जा सकेगे, उनका फल भी पूर्ववत् मिलता रहेगा, क्योंकि स्वकृत पुण्य-पाप के फल का कभी नाश नहीं होता। अतः नियमभंग के भय से सुखोपभोग करने में संकोच न कीजिए। इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं-"जो तुमे नियमो चिण्णो...""सव्वो संविज्जए तहा / " पाँचवाँ रूप---इतना आश्वासन देने के बावजूद भी सुसयमी साधु का मन सहसा यह सोचकर गृहवास में जाने को तैयार नहीं होता कि गृहस्थावास में जाने से मुझे पूर्व स्वीकृत यम-नियमों को भंग करने का महादोष लगेगा, अतः वे फिर दूसरा पासा फेंकते हैं--- "साधकबर ! आपने वहत वर्षों तक संयम में रमण कर लिया, यम-नियमों से युक्त होकर विहार कर लिया, अब आप अनायास प्राप्त उन भोगों को निर्लिप्त भाव से भोगगे तो आपको कोई भी दोष नहीं लगेगा। इसी आशय को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं-'चिरं दूइज्जमाणस्स...."कुतो तव ? उपसर्ग के प्रभाव-ये और इस प्रकार के अन्य अनेक भोग निमन्त्रणरूप उपसर्ग के रूप हो सकते हैं / इस प्रकार के अनुकूल उपसर्ग हैं; जिन पर विजय करने में कच्चा साधक असमर्थ रहता है। एक बार भोग बुद्धि साधु के हृदय में उत्पन्न हुई कि फिर पतन का दौर शुरू हो जाता है, फिर वह उत्तरोत्तर फिसलता ही चला जाता है। जैसे लोग चावलों के दाने डालकर सूअर को फंसा लेते हैं, वैसे ही भोगवृत्ति-परायण लोग भोग सामग्री के टुकड़े डालकर साधु को भोगों के जाल में या गृहवास में फंसा लेते हैं / यह इस उपसर्ग का प्रथम प्रभाव हैं। दूसरा प्रभाव - यह होता है कि जो साधक पूर्वोक्त भोग निमन्त्रण के प्रलोभन में फंसकर एक बार संयम में शिथिल हो जाता है, भोगपरायण बन जाता है, वह साधुचर्या के लिए प्रेरित किये जाने पर भी उसे क्रियान्वित नहीं कर पाता / संयम का नाम उसे नहीं सुहाता। तीसरा प्रभाव-वह फिर संयम पालनपूर्वक जीवनयापन करने में असमर्थ हो जाता है। उसे रातदिन भोग्य सामग्री पाने की धुन लगी रहती है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 सूत्रकृताग--तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा चौथा प्रभाव-मन्द पराक्रमी (शिथिलाचारी) साधक उच्च संयमाचरण में फिर इतने दुर्बल होकर बैठ जाते हैं, जैसे मरियल बैल ऊँचे चढ़ाई वाले मार्ग पर चलने में अशक्त होकर बैठ जाता है। आशय यह है कि फिर वह पंचमहावत तथा साधुसमाचारी के भार को वहन करने में अशक्त, मनोदुर्बल होकर संयमभार को त्याग कर या संयम में शिथिल होकर नीची गर्दन करके बैठ जाता है। पांचा प्रभाव-फिर वे कठोर एवं नीरस संयम का पालन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं। छठा प्रभाव-तपस्या का नाम सुनते ही उनको बैचेनी हो जाती है। तपस्या से उन्हें बिच्छु के डंक-सी पीड़ा हो जाती है। सातवाँ प्रभाव-बूढे बैल जैसे ऊँची-चढ़ाई वाले मार्ग में कष्ट पाते हैं, वैसे ही वे संयम से हारेथके, अनुकूल उपसर्ग से पराजित विवेकमूढ़ साधक संयम साधना की ऊँचाइयों पर चढ़ने में पद-पद पर कष्टानुभव करते हैं। आठवां प्रभाव-वे फिर नाना भोग सामग्री में लुब्ध-मूच्छित हो जाते हैं, कामिनियों के प्रणय में आबद्ध-आसक्त हो जाते हैं, और कामभोगों में अधिकाधिक ग्रस्त रहते हैं। नौवा प्रभाव-ऐसे काम-भोगासक्त साधकों को फिर आचार्य आदि कितनी ही प्रेरणा दें, संयमी संयम जीवन में रहने की, किन्तु वे बिलकुल नहीं सुनते और गृहस्थजीवन स्वीकार करके ही दम लेते हैं / वे संयम में नहीं टिकते। पिछली साढ़े तीन गाथाओं (सू० गा० 200 के उत्तरार्द्ध से लेकर सू० गा० 203 तक) द्वारा शास्त्रकार ने उपभोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग के मन्दसत्व साधक पर नौ प्रभावों का उल्लेख किया है। पाठान्तर-'भिक्खुभावम्मि सुन्वता' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'सम्बो सो चिढतो तधा' अर्थ होता है (जो भी तुमने आज तक यम-नियमों का आचरण किया है। वह सब ज्यों का त्यों (वैसा ही) रहेगा। कठिन शब्दों को व्याख्या-नीवारेण = वृत्तिकार के अनुसार-'बीहिविशेषकणदानेन-विशेष प्रकार के चावलों के कण डालकर। चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-णीयारेण-अर्थ है-णीयारे कुण्डगादि-चावल आदि देकर / उज्जागं सि=चूर्णिकार के अनुसार-ऊवं यानम् उद्यानम् तच्च नदी, तीर्य-स्थलं गिरिपकमारो वा' ऊर्ध्वयान=चढ़ाई को उद्यान कहते है, वह हैं नदीतट, तीर्थस्थल पर्वतशिखर उस पर गमन करने में। वृत्तिकार के अनुसार-ऊध्वं यानमुद्यानम् मार्गस्योन्नतो भाग; उट्टद्यमित्यर्थः तस्मिन्नुद्यानशिरसि / अर्थात्मार्ग का उन्नत ऊँचा या उठा हुआ भाग उद्यान है / उस उद्यान के लिए-चोटी पर दूसरी बार उज्जाणंसि के बदले (202 सू० गाथा में) पंकसि पाठान्तर चूणिसम्मत प्रतीत होता है, क्योंकि इस वाक्य की व्याख्या चर्णिकार ने की है.-पके जीर्ण गौः जरद्गववत् ! अर्थात् कीचड़ में फंसे हुए बूढ़े बैल की तरह / ॥द्वितीय उद्देशक समाप्त // 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 86 से 88 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 435 से 443 तक के आधार पर 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 86 से 88 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ 36-37 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 204 से 200 207 तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक आत्म-संवेदनरुप उपसग : अध्यात्म विषाद के रुप में 204. जहः संगामकालम्मि पिट्ठतो भीरु पेहति / वलयं गहणं नूमं को जाणेइ पराजयं // 1 // 205. मुहुत्ताणं मुहत्तस्स मुत्तो होति तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो इति भीरु उवेहति / / 2 // 206. एवं तु समणा एगे अबलं नच्चाण अप्पगं / अणागतं भयं दिस्स अवकप्पतिमं सुर्य // 3 // 207. को जाणति विओवातं इत्थीओ उदगाओ वा। चोइज्जंता पवक्खामो न णे अत्थि पकप्पितं / / 4 // 208. इच्चेवं पडिलेहंति वलाइ पडिलेहिणो। वितिगिञ्छ समावण्णा पंथाणं व अकोविया // 5 // 204. जैसे युद्ध के समय कायर पुरुष पीछे की ओर गढ्डा, (वृक्षों और बेलों से) आच्छादित गहन तथा प्रच्छन्न स्थान (पर्वत की गुफा आदि) देखता है। (वह सोचता है-) कौन जाने (कि युद्ध में) किसकी हार होगी? 205. बहुत-से मुहूर्तों में से, अथवा एक ही मुहूर्त में कोई ऐसा अवसर विशेष (मुहूर्त) होता है, (जिसमें जय या पराजय सम्भव है।) (अतः शत्रु के द्वारा) पराजित होकर जहाँ भाग (कर छिप) जाएँ ऐसे स्थान के सम्बन्ध में कायर पुरुष (पहले से) सोचता (, ढता) है। __206. इसी प्रकार कई श्रमण अपने आपको जीवन-पर्यन्त संयम-पालन करने में दुर्बल (असमर्थ) जानकर तथा भविष्यकालीन भय (खतरा) देखकर यह (व्याकरण, ज्योतिष; वैद्यक आदि) शास्त्र (मेरे जीवननिर्वाह का साधन बनेगा,) ऐसी कल्पना कर लेते हैं। 207. कौन जानता है-मेरा पतन (संयम से पतन) स्त्री-सेवन से या (स्नानादि के लिए) सचित्त जल के उपयोग से हो जाए ? (या और किसी उपसर्ग से पराजित होने से हो जाए ?) (ऐसी स्थिति में) मेरे पास पूर्वोपाजित द्रव्य भी नहीं है / अतः किसी के द्वारा पूछे जाने पर हम हस्तिशिक्षा, धनुर्वेद आदि विद्याएँ) बता देंगे। 208. (मैं इस संयम का पालन कर सकूँगा या नहीं ?)इस प्रकार के संशय (विचिकित्सा) से घिरे हुए (आकुल), (मोक्षपथ के विषय में) अनिपुण (अनभिज्ञ) अल्प पराक्रमी कच्चे साधक भी(युद्ध के समय) गढ्डा (या छिपने का स्थान) आदि ढूंढ़ने वाले कायर पुरुषों के समान (संयमविघातक रास्ते) ढूंढते हैं। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिमा विवेचन-आत्मसंवेदनरूप उपसर्ग : प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं (204 से 208 तक) में संयमपालन में अल्पसत्व कायर साधक के मन में होने वाले भय, कुशंका और अस्वस्थ चिन्तन का निरूपण कायर योद्धा के साथ तुलना करते हुए किया गया है / युद्ध के समय कायर पुरुष के चिन्तन के विविध पहलू-जब रणभेरी बजती है, युद्ध प्रारम्भ होता है, तब युद्ध विद्या में अकुशल, मनोदुर्बल, कायर योद्धा सोचता है-(१) पता नहीं इस युद्ध में किसको हार या जीत होगी ? (2) युद्ध क्षेत्र में शत्रुपक्ष के बड़े-बड़े योद्धा उपस्थित हैं, दुर्भाग्य से हार हो गई तो फिर प्राण बचाने मुश्किल होंगे, अत: पहले से ही भाग कर छिपने का स्थान ढूंढ़ लेना चाहिए। (3) वह स्थान इतना गहरा तथा वेलों और झाड़ियों से कमर तक ढका हुआ होना चाहिए कि शत्रु पीछा न कर सके, न पता लगा सके / (4) पता नहीं युद्ध कितने लम्बे समय तक चले, (5) इतने लम्बे काल तक युद्ध चलने के बाद भी विजय या पराजय की धड़ो तो एक ही वार आएगी। (6) उस घड़ी में हम शत्रु से हार खा गये तो फिर कहीं के न रहेंगे। अतः पहले से ही भाग कर छिपने का गुप्त स्थान ढूंढ लेना अच्छा है।" संयम-पालन में कायर, संशयशील एवं मनोदुर्बल साधकों का चिन्तन-संयम पालन में उपस्थित होने वाले परिषह-उपसर्गरूप शत्रुओं से जीवन के अन्त तक जूझना और उन पर विजय पाना भी संशयशील मनोदुर्बल एवं कायर साधकों के लिए अत्यन्त कठिन होता है, इसलिए ऐसे नाजुक साधक कोई भी परीषह और उपसर्ग उपस्थित न हो तो भी मन से इनको कल्पना करके स्वयं को भारी विपत्ति में फसा हुआ मान लते हैं / वे संमय को भारभूत समझते हैं, और कायर योद्धा की तरह उन जरा-जरासी कठिनाइयों से बचने तथा संयममार्ग से पराजित होने पर अपने जीवन को बचाने और जीवनयापन करने के संयम विघातक तरीके सोच लेते हैं। उनके अस्वस्थ चिन्तन के ये पहलू हैं- (1) यहाँ रूखासूखा और ठन्डा आहार मिलता है। सो भी भोजन का समय बीत जाने पर, और वह भी नीरस / प्रव्रजित साधक को भूमि पर सोना पड़ता है। फिर लोच करना, स्नान न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना इत्यादि संयमाचरण कितना कठोर और कठिन है ! और फिर इस प्रकार कठोर संयमपालन एक-दो दिन या वर्ष तक नहीं, जीवन भर करना है / यह मुझसे सुकोमल, सुकुमार और आराम से पले हुए व्यक्ति से कैसे हो सकेगा? हाय ! मैं तो इस बन्धन में फंस गया ! (2) जीवन भर चारित्रपालन में अब मैं असमर्थ हूँ। अतः संयमत्याग करना ही मेरे लिए ठीक है। परन्तु संयम त्याग करने से सर्वप्रथम मेरे समक्ष जीविका का संकट उपस्थित होगा, जीविका का कोई न कोई साधन हए विना मैं सूख से कैसे जी सकूँगा ? (3) इस संकट से बचने तथा सुख से जीवनयापन करने के लिए मैं अपनी सीखी हुई गणित, ज्योतिष, वैद्यक. व्याकरण और होराशास्त्र आदि विद्याओं का उपयोग करूंगा। (4) ओ हो ! मैं बहत दुर चला गया। यह कौन जानता है कि संयम से पतन स्त्री-सेवन से या सचित्त (कच्चे) पानी के उपयोग से ? या और किसी उपसर्ग से होगा ! (5) फिर पता नहीं, मैं किस उपसर्ग से, कव संयम से भ्रष्ट हो जाऊँ ? (6) मान, लो मैं संयम से भ्रष्ट हो गया तो फिर तो मैं घर का रहा, न घाट का ! मेरे पास पहले का कमाया हुआ कोई धन भी नहीं है, बड़ी समस्या खड़ी होगी, मेरे सामने। (7) कोई पूछेगा कि संयमत्याग करने के बाद आप क्या करेंगे, कैसे जीयेंगे ? तो हम झूठ-मूठ यहीं कहेंगे कि हमारे पास हस्तिविद्या, धनुर्वेद आदि विद्याएँ हैं, उन्हीं का उपयोग हम करेंगे ! (8) कभी वह सहसा संशयशील Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 206 से 210 बन जाता है, और इस प्रकार के संशयों में डूबता-उतराता रहता है-(क) पता नहीं, मैं जीवन के अन्त तक संयमपालन कर सकूगा या नहीं ? (ख) यदि सचमुच ही मुझे संयम छोड़ना पड़ा तो मेरे लिए कौन-सा मार्ग हितकर होगा? (ग) फिर इतने कठोर संयम के पालन का फल भी मिलेगा या नहीं ? यदि कुछ भी अच्छा फल न मिला तो इस व्यर्थ कष्ट सहन से क्या लाभ ? (घ) इससे तो बेहतर यही था कि मैं आराम की जिन्दगी जीता, यहाँ तो पद-पद पर कष्ट है। परन्तु आराम की जिन्दगी जीने के साधन न हुए तो मैं कैसे इसमें सफल हो पाऊँगा? (ङ) क्या मेरी पहली सीखी हुई विद्याएँ काम नहीं आएँगी ? (च) पर वे तो मोक्षमार्ग या संयम मार्ग से विरुद्ध होंगी; ऐसी स्थिति में अशुभकर्मों का बंध होने से मुझे सुख के बदले फिर दुःख ही दुःख नहीं उठाने पड़ेंगे ? इस प्रकार अल्पसत्त्व साधक की चित्तवृत्ति डांवाडोल एवं संशयशील हो जाती है। वह 'इतो म्रष्टस्ततो म्रष्टः' जैसी स्थिति में पड़ जाता है। फलतः वह अपनी तामसिक एवं राजसी बुद्धि से अज्ञान एवं मोह से प्रेरित संयम विरुद्ध चिन्तन और तदनुरूप कुकृत्य करता है। फिर भी उस अभागे का मनोरथ सिद्ध नहीं होता। ये सब आध्यात्मिक विषाद के रूप में स्वसंवेदन रूप उपसर्ग के नमूने हैं। जिनसे कायर साधक पराजित हो जाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-वलयं यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम, उदक रहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमन प्रवेशा= अर्थात् वलय का अर्थ है-जहाँ पानी वलय-चूड़ी के आकार के समान ठहरा हुआ हो / अथवा वलय का अर्थ है-जल से रहित सूखा गहरा गड्ढा, जिसमें कठिनता से निकलना और प्रवेश करना हो सके / गहणं-धवादिवृक्षः कटिसंस्थानीयम् --- गहन का अर्थ है-बह वन या स्थान जो धव (खैर) आदि वृक्षों से मनुष्य की कमर तक आच्छादित हो। नूम='प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम्' अर्थात्-प्रच्छन्न (गुप्त) पवंत-गुफा आदि स्थान / अवसप्पामो नश्यामः / अर्थात्-भाग सकें या भागकर छिप सकें। उबेहति= उत्प्रेक्षा करता है-कल्पना करता है। “अवकप्पंति अवकल्पयन्ति, मन्यन्ते।" अर्थात्-व्याकरणादि शास्त्रों को संकट के समय रक्षा के लिए उपयुक्त मान लेते हैं विओवातं--चूर्णिकार के अनुसार"विओवातो णाम व्यापातः' अर्थात्-विओवातो का अर्थ है-व्यापात-विशेषरूप से (संयम से) पतन या विनाश / न णे अस्थि पप्पितं हमारे पास अपना प्रकल्पित पूर्वोपार्जित द्रव्य कुछ नहीं है, वितिगिच्छा समावण्णा='विचिकित्सा-चित्तविप्लुति / अर्थात् विचिकित्सा का अर्थ चित्त की उछलकूद है, मैंने यह जो संयमभार उठाया है, इसे मैं अन्त तक पार लगा सकूँगा या नहीं ? इस प्रकार के संशय से घिरे हुए। आत्मसंवेदन रुप उपसर्ग विजयी वीर साधक 206. जे उ संगामकालम्मि नाता सूरपुरंगमा। ण ते पिट्ठमुवेहति किं परं मरणं सिया // 6 // 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा० 2 पृ० 44 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 88-86 के आधार पर 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 88-89 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण), पृ० 37 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा 210. एवं समुट्ठिए भिक्खू वोसिज्जाऽगारबंधणं / आरंभ तिरिय कटु अत्तत्ताए परिव्वए / / 7 / / 206. परन्तु जो पुरुष जगत्-प्रसिद्ध एवं शूरवीरों में अग्रगण्य हैं, वे युद्ध के समय पीछे(युद्ध के फल) की बात की कल्पना तक नहीं करते / (वे समझते हैं कि) मरण से बढ़कर और क्या हो सकता है ? 210. इसी प्रकार गृहबन्धन का त्याग करके और आरम्भ को त्यागकर संयम पालन के लिए समुत्थित-समुद्यत भिक्षु आत्मभाव की प्राप्ति के लिए संयम में पराक्रम करे। विवेचन-आत्मसंवेदन रुप उपसर्ग पर विजयी साधक कोन कसे?-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में सग्राम में सच्चे वीर योद्धा की उपमा देकर आत्म-संवेदन रूप उपसर्ग पर विजयी सावक के स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य का निरूपण किया गया है। _ विश्वविख्यात वीर योद्धाओं की मनोवृत्ति-जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध तथा वीरों में अग्रगण्य है, वे युद्ध के अवसर पर कायरों की तरह आगा-पीछा नहीं सोचते कि युद्ध में हार गये या मारे गये तो क्या होगा? न ही उनके मन में युद्ध में पराजित होने पर पलायन का या गुप्त स्थान को पहले से टटोलने का विचार आता है और न वे दुर्गम स्थानों में छिपकर अपनी रक्षा के लिए पीछे की ओर झांकते हैं। बल्कि वे युद्ध के समय अग्रिम मोर्चे पर रहते है, युद्धक्षेत्र छोड़ कर भागने का उन्हें विचार तक नहीं होता। झते हैं----इस यद्ध में अधिक से अधिक हानि मत्य से बढकर और क्या हो सकती है? वह मृत्यु हमारी दृष्टि में सदा स्थायी रहने वाली कीर्ति को अपेक्षा तुच्छ है। इसीलिए इस गाथा में कहा गया है-जे उ संगामकालंमि. "मरणं सिया।" आत्मसंवेदनोपसर्ग-विजेता साधक की मनोवृत्ति---विश्व-विख्यात सुभटों को-सी ही मनोवृत्ति उपसर्ग विजयी संयमवीर की होनी चाहिए, इसे बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं - "एवं समुट्ठिए....... अत्तत्ताए परिव्वए।" इसका तात्पर्य यह है कि विश्वविख्यात वीर सभटों की तरह पराक्रमशाली साध कषायों और इन्द्रिय विषयों रूपी शत्रुओं पर विजय पाने, परीषहों और उपसर्गों का सामना करने, एवं जन्म-मरणचक्र का भेदन करने हेतु संयम भार को लेकर जब उद्यत-उत्थित हो जाता है, तब वह पीछे की ओर मुड़कर नहीं देखता कि मेरे घरवालों का क्या होगा? ये विविध भोगोपभोग के साधन न मिले तो क्या होगा? अथवा 'मैं संयम-पालन न कर सका या कभी संयमभ्रष्ट हो गया तो भविष्य में मेरा क्या होगा? उसके मन में ये दुर्विकल्प उठते ही नहीं। वह दृढ़ता पूर्वक यही चिन्तन करता है कि जब एक बार मैंने गार्हस्थ्यबन्धन को काटकर फेंक दिया है और आरम्भ-समारम्भों को तिलांजलि दे दी है, और संयमपालन के लिए कटिबद्ध हुआ हूँ. तब वापस पीछे मुड़कर देखने और भविष्य की निरर्थक चिन्ता करने का मेरे मन में कोई विकल्प ही नहीं उठना चाहिए। मेरा प्रत्येक कदम वीर की तरह आगे की ओर होगा. पीछे की ओर नही। अधिक से अधिक होगा तो किसी प्रतिकल परीषह या उपसर्ग को सहने में प्राणों की बलि हो जायेगी। परन्तु सच्चे साधक के लिए तो 'समाधिमरण' सर्वश्रेष्ठ अवसर है, कर्मों को या जन्ममरण के बन्धनों को काटने का। अत्तत्ताए परिन्नए-ऐसे संयमवीर साधक का यह मूलमन्त्र है / इसका अर्थ है-'आत्मत्व के लिए 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 86 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 211 से 213 211 पराक्रम करें।' आत्मत्व कहते हैं -- आत्मभाव-आत्मा के स्वभाव को। आत्मा का पूर्णतया शुद्ध स्वभाव समस्त कर्मकलंक से रहित होने-मोक्ष प्राप्त होने पर होता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मत्व की यानी मोक्ष की प्राप्ति के लिए सुविहित साधु को अप्रमत्त होकर पुरुषार्थ करना चाहिए। अथवा साधुजीवन का ध्येय आत्मा का मोक्ष या संयम है। चूर्णिकार ने आतत्थाए पाठ मानकर यही अर्थ किया हैआतो मोक्षः संजमो वा अस्यार्थस्य-भातस्थाए / अर्थात् आत्मा मोक्ष या संयम को कहते हैं, वही आत्मा का आत्मत्व स्वभाव है / जिसे प्राप्त करने लिए वह सर्वतोमुखी प्रयत्न करे। आत्मा पर कषायादि लग कर उसे विकृत करते हैं, स्वस्वरूप में स्थिर नहीं रहने देते / इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कोहं माणं च मायं च लोहं पंचेदियाणि य। दुज्जयं चेषमप्पाणं, सस्वमप्ये जिए-जियं / " "क्रोध, मान, माया और लोभ; ये चार कषाय तथा पांचों इन्द्रियाँ, ये आत्मा के लिए दुर्जेय हैं। अतः आत्मा को जीत लेने (यानी आत्मा पर लगे कषाय विषयसंग आदि को हावी न होने देने) पर सभी को जीत लिया जाता है। पाठान्तर -- 'ते पिठुमुवेहंति, कि परं मरणं सिया ?' के बदले चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-'ण ते पिट्टतो पेहंति, कि परं मरणं भवे ।"-अर्थात्-वे पीछे मुड़कर नहीं देखते। यही सोचते हैं कि मृत्यु से बढ़कर और क्या होगा?" : उपसर्ग : परवादिकृत आक्षेप के रुप में 211. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविणं / जे ते उ परिभासंति अंतए ते समाहिए / / 8 // 212. संबद्धसमकप्पा हु अन्नमन्न सु मुच्छिता / पिडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य // 6 // 213. एवं तुम्भे सरागत्था अन्नमन्नमणुव्वसा।। नट्ठसप्पसम्भावा संसारस्स अपारगा // 10 // 211. साध्वाचार--(उत्तम आचार) पूर्वक जीने वाले उस (सुविहित) भिक्षु के विषय में कई (अन्यदर्शनी) (आगे कहे जाने वाले) आक्षेपात्मक वचन कहते हैं, परन्तु जो इस प्रकार (-के आक्षेपात्मक वचन) कहते हैं, वे समाधि से बहुत दूर हैं। 5 (क) उत्तराध्ययन अ०६, गा० 36 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 89 (ग) सयगडंग चणि (म० पा० टिप्पण) पु० 38 6 सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 38 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा 212. (उपकार्य-उपकारक रूप से--) सम्बद्ध गृहस्थ के समान व्यवहार (अनुष्ठान) वाले आप लोग परस्पर (एक दूसरे में) मूच्छित (आसक्त) हैं क्योंकि आप रुग्ण (ग्लान साधु) के लिए भोजन लाते और देते हैं। 213. इस प्रकार (परस्पर उपकार के कारण) आप सराग (स्वजनों के प्रति रागी) और एक दूसरे के वश में रहते हैं / अतः आप सत्पथ (सन्मार्ग) और सद्भाव (परमार्थ) से भ्रष्ट (दूर) हैं, तथा संसार (चतुर्गतिक भ्रमणरूप संसार) के पारगामी नहीं हो सकते। विवेचन-स्वसंवेदनरूप उपसर्ग-परबादिकृत आक्षेप के रूप में प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय (211 से 213 तक) में अन्य दर्शनियों द्वारा सुविहित साधुओं पर किये जाने वाले मिथ्या आक्षेपों का वर्णन है। यद्यपि इन मिथ्या आक्षेपों का सम्यग्दृष्टि एवं मोक्षविशारद, तत्त्व-चिन्तक साधुओं के मन पर कोई असर नहीं होता, किन्तु जो साधक अभी तक सिद्धान्तनिष्ठ, तत्त्वज्ञ एवं साध्वाचारदृढ़ नहीं है, उनका चित्त उक्त आक्षेपों को सुनकर संशयग्रस्त या कषायोत्तेजनाग्रस्त हो सकता है, इस कारण ऐसे आक्षेपवचनों को उपसर्ग माना गया है। शास्त्रकार ऐसे आत्मसंवेदनरूप उपसर्ग की स होने पर साधु को अपना मन समाधिस्थ रखने हेतु संकेत करते हैं-तमेगे परिभासन्ति "अन्तर से समाहिए' आशय यह है कि जो साधुताजीवी भिक्षुओं पर ऐसा मिथ्या आक्षेप करते हैं, ज्ञानादि से मोक्षरूप अथवा कषाय की उपशान्ति रूप समाधि से दूर हैं, अर्थात्-वे बेचारे असमाधि में हैं, सांसारिक भ्रमणा में हैं। शास्त्रकार का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि ऐसे मिथ्या-आक्षेपवादियों के द्वारा किये गये असत् आक्षेपों को सुनकर सुविहित साधु को न तो उत्तेजित होकर अपनी चित्त समाधि भंग करनी चाहिए और न उनके मिथ्या-आक्षेपों को सुनकर, क्षुब्ध होना चाहिए, अर्थात् स्वयं को समाधि से दूर नहीं करना चाहिए, ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप समाधि में स्थिर रहना चाहिए। वृत्तिकार और चूर्णिकार 'एगे' शब्द की व्याख्या करते हुए इन आक्षेपकों को गोशालकमतानुसारी आजीवक या दिगम्बर परम्परा के भिक्षु बताते हैं, वृत्तिकार आगे कहते हैं- उत्तम साधु यह तटस्थ (राग-द्वेष-पक्षपात रहित) चिन्तन करे कि ये जो साध्वाचार की निन्दा या आलोचना करते हैं, या आक्षेपात्मक वचन बोलते हैं, उनका धर्म पुष्ट-सुदृढ़ नहीं है, तथा वे समाधि से दूर हैं। वे परस्पर उपकार से रहित दर्शन (दृष्टि) से युक्त हैं, लोहे की सलाइयों की तरह परस्पर मिलते नहीं, दूर-दूर अलग अलग रहते हैं / पृथक्-पृथक् विचरण करते हैं / तात्पर्य यह है कि उत्तम साध्वाचार परायण एवं वीतरागता का पथिक साधु उन निन्दकों या आलोचकों के प्रति तरस खाएँ, भड़के नहीं; उनकी आक्षेपात्मक बातों पर कोई ध्यान न दे, मोक्षमार्ग पर अबाध गति से चलता रहे। हाँ, अपने संयमाचरण में कोई त्रुटि या भूल हो तो उसे अवश्य सुधार ले, उसमें अवश्य सावधानी रखे / यही इस गाथा द्वारा शास्त्रकार ने ध्वनित किया है। आक्षेप कितने और किस प्रकार के ? उत्तम साधुओं पर लगाये जाने वाले मिथ्या आक्षेपों के कुछ नमूने यहाँ शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं, वैसे उनकी कोई निश्चित गणना नहीं की जा सकती, ऐसे और आक्षेप भी अन्य आक्षेपकों द्वारा किये जा सकते हैं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 211 से 213 213 कुछ आक्षेप इस प्रकार हैं :-(1) परस्पर उपकार्य-उपकारक सम्बन्ध से बँधे हुए गृहस्थों कासा इनका व्यवहार है, (2) ये परस्पर एक-दूसरे में आसक्त हैं, (3) रोगी साधु के प्रति अनुरागवश ये उसके लिए भोजन लाते हैं, और देते हैं। (4) आप लोग स्पष्टतः सरागी हैं, (5) परस्पर एक-दूसरे के वश---अधीन हैं / (6) सद्भाव और सन्मार्ग से दूर हैं, (7) आप संसार को पार नहीं कर सकते। परोक्ष आक्षेप की झांकी-कोई-कोई परोक्ष में आक्षेप करते हैं, जैसे-देखो तो सही ! ये लोग घरबार कुटुम्ब परिवार और रिश्ते-नाते छोड़कर साधु बने हैं, परन्तु इनमें अब भी एक-दूसरे साधुओं के साथ पुत्र कलत्र आदि स्नेह-पाशों से बन्धे हुए गृहस्थों का-सा व्यवहार है। गृहस्थ लोग परस्पर एक-दूसरे के सहायक उपकारक होते हैं, वैसे ही ये साधु भी परस्पर सहायक उपकारक होते हैं। जैसे गृहस्थ-जीवन में पिता-पुत्र में, भाई-भाई में, भाई-बहन में परस्पर गाढ़ अनुराग होता है, वैसे ही इन साधुओं में गुरुशिष्य का, गुरू भाइयों का तथा गुरु-भाईयों गुरु-बहनों का परस्पर गाढ़ अनुराग होता है। इन्होंने गृहस्थी के नाते-रिश्ते छोड़े, यहाँ नये रिश्ते-नाते बना लिये / आसक्ति तो वैसी की वैसी ही बनी रही, केवल आसक्ति के पात्र बदल गये हैं। फिर इनमें और गृहस्थों में क्या अन्तर रहा ? फिर ये परस्पर आसक्त होकर एक-दूसरे का उपकार भी करते हैं, जैसे कि कोई साधु बीमार हो जाता है तो ये उस रुग्ण साधु के प्रति अनुराग वश उसके योग्य पथ्ययुक्त आहार अन्वेषण करके लाते हैं और उसे देते हैं / यह गृहस्थ के समान व्यवहार नहीं तो क्या है ? “यही बात शास्त्रकार कहते हैं'--संबद्ध...."दलाहय / कोई आक्षेपकर्ता साधओं से कहते हैं-- "अजी ! आप लोग गृहस्थों की तरह परस्पर राग-भाव से ग्रस्त हैं, अपने माने हुए लोगों का परस्पर उपकार करते हैं, इसलिए रागयुक्त हैं-राग-सहित स्वभाव में स्थित (सरागस्थ) हैं / बन्धनबद्ध या एक-दूसरे के अधीन रहना तो गृहस्थों का व्यवहार है। इसी कारण आप लोग सत्पथ (मोक्ष के यथार्थ मार्ग) तथा सद्भाव (परमार्थ) से भ्रष्ट हैं। इसीलिए आप चतुर्गति परिभ्रमणरूप संसार के पारगामी नहीं हो सकते। मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। / पाठान्तर और व्याख्या-'जे तेउ (तेव) परिभासन्ति अन्तए ते समाहिए'-वृत्तिकार के अनुसार-'ये ते अपुष्टधर्माणः, एवं वक्ष्यमाणं परिभाषन्ते, त एवम्भूताः अन्तके पर्यन्ते-दूरे समाधेः मोक्षाख्यात् वर्तन्त इति / " वे अपुष्ट धर्मा (आक्षेपक) ऐसा (आगे कहे जाने वाला आक्षेपात्मक वचन)कहते हैं, वे मोक्ष नामक समाधि से दूर हैं। चूणिकार 'जे ते एवं भासन्ति, अन्तए (ते) समाहिते' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं -- अन्तए नाम नाभ्यन्तरतः, दूरतः ते समाहिए, णाणादिमोक्खा परमसमाधी, अत्यन्त असमाधौ वर्तन्ते, 'असमाहिए' अकारलोपं कृत्वा संसारे इत्यर्थः।" अर्थात्-अन्तए का अर्थ हैं--आभ्यन्तर से नहीं, अपितु वे समाधि से दूरतः हैं। ज्ञानादिमोक्षरूप परमसमाधि होती है। अतः ऐसा अर्थ सम्भव है कि वे अत्यन्त असामधि में हैं। असमाहिए पाठ में अकार का लोप करने से असमाहिए (असमाधि में) का फलितार्थ होता है-संसार में हैं। सारेह= अन्वेषयत=अन्वेषण करते हैं। दलाय-ग्लान के योग्य आहार का 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्राक 60 के आधार पर 8 वृत्तिकार के कथनानुसार यह चर्चा दिगम्बर पक्षीय साधुओं और श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं के बीच है। बृत्तिकार का यह कथन उपयुक्त प्रतीत होता है। -जैन साहित्यका बहत् इतिहास भा०१ पृ० 143 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा अन्वेषण करके उसके उपकारार्थ लाकर देते हैं / 'च' शब्द से आचार्यादि की वैयावृत्य करने आदि उपकार परवादिकृत आक्षेप निवारण : कौन, त्रयों और कैसे करें? 214. अह ते परिभासेज्जा भिक्खू मोक्ख विसारए / एवं तुम्भे पभासेंता दुपक्खं चेव सेवहा // 11 // 215 तुब्भे भुजह पाएसु गिलाणाऽभिहडं ति य / तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देसादि जं कडं / / 12 / / 216, लित्ता तिव्वाभितावेण उज्जया असमाहिया। नातिकंडुइतं से अरुयस्सावरज्झतो // 13 // 217. तत्तेण अणुसिट्ठा ते अपडिण्णेण जाणया। ण एस णियए मग्गे असमिक्खा बई किती // 14 // 218. एरिसा जा वई एसा अग्गे वेणु व करिसिता। गिहिणो अभिहडं सेयं भुजितुन तु भिक्खुणो / / 15 / / 216. धम्मपण्णवणा जा सा सारंभाण विसोहिया। न तु एताहि दिट्ठीहि पुत्वमासि पकप्पियं / / 16 // 220. सव्वाहि अणुजुत्तोहिं अचयंता जवित्तए। ततो वायं णिराकिच्चा ते भुज्जो वि पगम्भिता !! 17 // 221. रागदोसाभिभूतप्पा मिच्छत्तेण अभिदुता। ... अक्कोसे सरणं जंति टंकणा इव पव्वयं // 18 // 222. बहुगुणप्पगप्पाई कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणऽण्णो ण विरुज्झज्जा तेण तं तं समायरे // 16 // 223 इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेइयं / कुज्जा भिक्ख्न गिलाणस्स अगिलाए समाहिते / / 20 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 90 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 38 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 214 से 223 214. इसके पश्चात् मोक्षविशारद (ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष की प्ररूपणा करने में निपुण) साधु उन (अन्यतीथिकों) से (इस प्रकार) कहे कि यों कहते (आक्षेप करते हुए आप लोग दुष्पक्ष (मिथ्यापक्ष) का सेवन करते (आश्रय लेते) हैं। 315. आप सन्त लोग (गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के) पात्रों में भोजन करते हैं; रोगी सन्त के लिए गृहस्थों से (अपने स्थान पर) भोजन मँगवा कर लेते हैं; तथा आप बीज और सचित्त (कच्चे) जल का उपभोग करते हैं एवं जो आहार किसी सन्त के निमित्त (उद्देश्य से) बना है उस औद्देशिक आदि दोषयुक्त आहार का सेवन करते हैं। 216. आप लोग तीव्र कषायों अथवा तीब्र बन्ध वाले कर्मों से लिप्त (सद्विवेक से-) रहित तथा समाधि (शुभ अध्यवसाय) से रहित हैं। (अतः हमारी राय में) घाव (बण) का अधिक खुजलाना अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे दोष (विकार) उत्पन्न होता है। 217. जो प्रतिकूल ज्ञाता नहीं है अथवा जिसे मिथ्या (विपरीत) अर्थ बताने को प्रतिज्ञा नहीं है; तथा जो हेय-उपादेय का ज्ञाता साधु है; उसके द्वारा उन (आक्षेपकर्ता अन्य दर्शनियों) को सत्य (तत्त्व वास्तविक) बात की शिक्षा दी जाती है कि यह (आप लोगों द्वारा स्वीकृत) मार्ग (निन्दा का रास्ता) नियत (युक्ति-संगत) नहीं है, आपने सुविहित साधुओं के लिए जो (आक्षेपात्मक) वचन कहा है, वह बिना विचारे कहा है, तथा आप लोगों का आचार भी विवेक शून्य है। 218. आपका यह जो कथन है कि साधु को गृहस्थ के द्वारा लाये हुए आहार का उपभोग (सेवन) करना श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाये हुए का नहीं; यह बात बांस के अग्रभाग की तरह कमजोर है (वजनदार नहीं है / ) 216. (साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए), यह जो धर्म-प्रज्ञापना (धर्म-देशना) है, वह आरम्भ-समारम्भयुक्त गृहस्थों की विशुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, इन दृष्टियों से (सर्वज्ञों ने) पूर्वकाल में यह प्ररूपणा नहीं की थी। 220. समग्र युक्तियों से अपने पक्ष की सिद्धि (स्थापना) करने में असमर्थ वे अन्यतीर्थी तब वाद को छोड़कर फिर अपने पक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं / 221. राग और द्वेष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, जो व्यक्ति मिथ्यात्व से ओतप्रोत हैं, वे अन्य तीर्थी शास्त्रार्थ में हार जाने पर आक्रोश (गाली या अपशब्द आदि) का आश्रय लेते हैं। जैसे (पहाड़ पर रहने वाले) टंकणजाति के म्लेच्छ (युद्ध में हार जाने पर) पर्वत का ही आश्रय लेते हैं / 222. जिसकी चित्तवृत्ति समाधि (प्रसन्नता या कषायोपशान्ति) से युक्त है, वह मुनि, (अन्यतीर्थी के साथ विवाद के समय) अनेक गुण निष्पन्न हों, जिससे इस प्रकार का अनुष्ठान करे और दूसरा कोई व्यक्ति अपना विरोधी न बने / 223. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके समाधि युक्त भिक्षु रुग्ण साधु की सेवा (वैयावृत्य) ग्लानि रहित होकर करे। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 सूत्रकृतोग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिक्षा विवेचन–परवादिकृत-आक्षेपरूप उपसर्ग-निवारण कोन, क्यों और कैसे करें- इससे पूर्व परवादिकृत आक्षेपरूप उपसर्ग के कुछ नमूने प्रस्तुत किये गये हैं। अब सूत्रगाथा 214 से 223 तक 10 सूत्रगाथाओं में बताया गया है कि परवादिकृत पूर्वोक्त आक्षेपों का निराकरण करे या नहीं ? करे तो कौन करे ? कैसे करे ? किस पद्धति से करे? आक्षेप निवारण करे या नहीं? सर्वप्रथम यह प्रश्न होता है कि सूसाधुओं की या उनके आचारविचार पर कोई अन्यतीर्थी छींटाकशी करे, नुक्ता-चीनी करे, अथवा निन्दा, आलोचना या मिथ्या आक्षेप करे तो क्या वे उसे चुपचाप सुन लें, सहले, या उसका प्रतिवाद करें, या उनके गलत आक्षेपों का निराकरण करें और भ्रान्ति में पड़े हुए लोगों को यथार्थ वस्तुस्थिति समझाए ? यद्यपि इससे पूर्व गाथा 211 में इस प्रकार के मिथ्या आक्षेपकों को समाधि से दूर मानकर शास्त्रकार ने साधुओं को उनके प्रति उपेक्षा करने, ध्यान न देने की बात ध्वनित की है। / परन्तु आक्षेपक जब व्यक्तिगत आक्षेप तक सीमित न रहकर उसे समूह में फैलाए, उसे निन्दा और बदनामी का रूप देने लगें, जैसा कि पूर्वोक्त सूत्र-गाथाओं में वर्णित है, तब शास्त्रकार उक्त मिथ्या आक्षेपों का प्रतिवाद करने का निर्देश करते हैं-"अह ते परिभासेज्जा मिक्खू मोक्ख विसारए।" शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि अगर वस्तुतत्त्व प्रतिपादन में निपुण तत्त्ववेत्ता स्वयं की व्यक्तिगत आलोचना या निन्दा को चुपचाप समभावपूर्वक सह लेता है, बदले में कुछ नहीं कहता तो यह अपनी आत्मा के लिए निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण होने से ठीक है, परन्तु जब समग्न साधु-संस्था या संघ पर मिथ्या आक्षेप होता है, तब उसे चुपचाप सुन लेना अच्छा नहीं, ऐसा करने से वस्तु तत्व से अनभिज्ञ साधारण जनता प्रायः यही समझ लेती है कि इनके धर्म, संघ या सावु वर्ग में कोई दम नहीं है / ये तो गृहस्थों की तरह अपने-अपने दायरे में, अपने-अपने गुरु-शिष्यों में मोहवश बन्धे हुए हैं। इस प्रकार एक ओर धर्मतीर्थ (संघ) की अवहेलना हो, दूसरी ओर साधु-संस्था के प्रति जनता में अश्रद्धा बढ़े, तथा मिथ्यावाद को उत्तेजना मिले तो यह दोहरी हानि है। इससे संघ में नवीन मुमुक्षु साधकों का प्रवेश तथा सद्गृहस्थों द्वारा व्रत में धारण रुकना सम्भव है। इसलिए शास्त्रकार ने इस गाथा द्वारा मार्ग-दर्शन दिया है कि ऐसे समय साधु तटस्थ भावपूर्वक आक्षेपकर्ताओं से प्रतिवाद के रूप में कहे / आक्षेप निवारणकर्ता भिक्षु की योग्यता-शास्त्रकार ने आक्षेप का प्रतिवाद करने का निर्देश किया है, किन्तु साथ ही कोन साधु प्रतिवाद कर सकता है ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने सूत्रगाथा 214, 216, 221 और 222 में आक्षेप निवारक भिक्षु के विशेष गुणों के सम्बन्ध में क्रमश: प्रकाश डाला है। वे गुण क्रमश: इस प्रकार हैं-(१) वह साधु मोक्षविशारद हो, (2) वह अप्रतिज्ञ हो, (3) वह हेयोपादेय का सम्यग् ज्ञाता हो, (4) क्रुद्ध, द्वषो विरोधियों का प्रतिवाद क्रोध-द्वेष-वधादिपूर्वक न करे, (5) आत्मसमाधि से युक्त हो, (6) अनेक गुणों का लाभ हों, तभी प्रतिवाद करता हो, (7) दूसरे लोग विरोधी न बन जाएँ, ऐसा आचरण करता हो। 10 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या; पृ० 456 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 तृतीय उद्देशक : गाथा 214 से 223 मोक्ख विसारए- प्रतिवादकर्ता साधु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करने में प्रवीण होना चाहिए। अगर वह साधु स्वयं ही शिथिल आचार का पोषक हुआ तो वह आक्षेपकों के आक्षेप का निराकरण ठीक से न कर सकेगा और न ही उसके द्वारा किये गये निराकरण का साधारण जनता पर या आक्षेपकों पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए आक्षेप-निवारक साधु का मोक्ष-प्ररूपणा में विशारद होना आवश्यक है। अपडिण्णण-जो किसी प्रकार की मिथ्या अर्थ बताने की प्रतिज्ञा–से रहित है, वह अप्रतिज्ञ होता है, प्रतिवादकर्ता साधु इस प्रकार की प्रतिज्ञावाला न हो कि मुझे अपनी बात की सिद्धि के लिए असत्य अर्थ का भी समर्थन कर देना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार असत्य बातों का समर्थक साधु होगा तो वह आक्षेपकों के प्रति न्यायी, एवं विश्वस्त नहीं रहेगा। वह स्व-मोह एवं पर-द्वष में पड़ जायगा। राग और द्वेष आदि सिद्धान्त-प्रतिकूल विचारों के प्रवाह में बह जायेगा। अथवा अप्रतिज्ञ यानी उसकी जानकारी सिद्धान्त प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए। सिद्धान्त-प्रतिकूल जानकारी वाला साधक स्वयं अपने सिद्धान्त से च्युत हो जायेगा, आक्षेपकों का निराकरण सिद्धान्तानुकूल नहीं कर सकेगा। जाणया-फिर वह प्रतिवादकर्ता साधक स्वयं हेयोपादेय का सम्यक् ज्ञाता होना चाहिए तभी वह आक्षेपकों को उपादेय तत्त्व के अनुरूप शिक्षा दे सकेगा तथा आक्षेपकों की बातों में हेयोपादेय तत्त्व का विश्लेषण करके समझा सकेगा। रागदोसाभिभूतप्पा" अवकोसे सरणं जंति-प्रतिवादकर्ता साधु को इस बात को समझने में कुशल होना चाहिए कि प्रतिपक्षी विवाद में न टिक पाने के कारण अपनी हार की प्रतिक्रिया स्वरूप अपशब्द, गाली, या डंडे, मुक्के या शस्त्रादि द्वारा प्रहार करने आदि पर उतर आया है, तो उन्हें राग-द्वेष कषाय, मिथ्यात्व, आक्रोश आदि विकारों के शिकार जानकर उनसे विवाद में नहीं उलझना चाहिए न ही आक्रमण के बदले प्रत्याक्रमण या आक्रोश प्रहार आदि हिंसक तरीकों का आश्रय लेना चाहिए। विश्वबन्धु साधु को उस समय उनके प्रति उपेक्षा भाव रखकर मौन हो जाना ही श्रेयस्कर है। जैसा कि वृत्तिकार कहते हैं 'अक्कोस-हणण-मारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं / लामं मन्नह धीरो जइत्तराणं अभावंमि॥" अर्थात्-गाली देना, रोष करना, मारपीट या प्रहार करना अथवा धर्मभ्रष्ट करना; ये सब कार्य निपट नादान बच्चों के से हैं। धीर साधु पुरुष ऐसे लोगों की बातों का उत्तर न देना ही लाभदायी समझते हैं। ___ इस दृष्टि से शास्त्रकार ने प्रतिवादकर्ता साधु का आवश्यक गुण ध्वनित कर दिया है कि वह इतना अवसरज्ञ हो कि आक्षेपक यदि हिंसा पर उतर आए तो उसके साथ प्रतिहिंसा से पेश न आकर शान्त एवं मौन हो जाए। ___ अत्तसमाहिए-प्रतिवादकर्ता साधु में आत्म-समाधि में दृढ़ रहने का गुण होना चाहिए। कैसी भी परिस्थिति हो, वह अपनी आत्मसमाधि-मानसिक शान्ति, प्रसत्रता या चित्त की स्वस्थता न खोए। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा बाशय यह है कि वह आक्षेपकों के साथ विवाद करते समय उखड़े नहीं, झल्लाए नहीं, विक्षुब्ध न हो / मथवा वह आत्म-समाधान पर दृढ़ रहे, जिस प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त आदि से स्वपक्ष सिद्धि होती हो, उसी का प्रतिपादन करे। बहुगुणप्पगप्पाइ कुज्जा-प्रतिवादकर्ता साध 'बहुगुणप्रकल्पक' होना चाहिए। जिस विवाद से प्रतिपक्षी के हृदय में स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता, धर्म के प्रति आकर्षण, साधु संस्था के प्रति श्रद्धा, वीतराग देवों के प्रति बहुमान आदि अनेक गुण निष्पन्न होते हों, उसे बहुगुण प्रकल्प कहते हैं। वृत्तिकार की दृष्टि से बहुगुणप्रकल्प का अर्थ है-(१) जिन बातों से स्वपक्ष सिद्धि और परपक्ष के दोष की अभिव्यक्ति हो अथवा (2) जिन अनुष्ठानों से माध्यस्थ्यभाव आदि प्रकट हो, ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का प्रयोग करे या वचन प्रयोग करे। इस दृष्टि से प्रतिवादकर्ता साधु उसी प्रकार का विवाद करता हो, जो बहुगुणप्रकल्प हो। प्रशान्तारमा मुनि को ऐसा प्रतीत हो कि प्रतिपक्षी विवाद में पराजित होता जा रहा है, और इस विवाद से आत्मीयता, मैत्री, स्नेह-सद्भावना, देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा आदि गुण बढ़ने के बजाय रोष, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, प्रतिक्रिया, अश्रद्धा आदि दोषों के बढ़ने की सम्भावना है, तब वह उस विवाद को वहीं स्थगित कर दे। यह गुण प्रतिवादकर्ता साधु में अवश्य होना चाहिए / प्रतिपक्षी को कायल, अश्रद्धालु एवं हैरान करने तथा उसे बार-बार चिढ़ाने से उपयुक्त बहुगुण नष्ट होने की सम्भावना है। जेणऽण्णो ण विरुज्झेज्जा तेण तं तं समायरे-प्रतिवादकर्ता में यह खास गुण होना चाहिए कि वह प्रतिपक्षी के प्रति ऐसा वचन न बोले, न ही ऐसा व्यवहार या आचरण करे, जिससे वह विरोधी, विद्वेषी या प्रतिक्रियावादी बन जाए। धर्मश्रवण करने आदि सदभावों में प्रवृत्त अन्यतीर्थी या अन्य व्यक्ति में अपने प्रतिवाद रूप वचन अनुष्ठान से विरोध, विद्वेष, चित्त में दुःख या विषाद उत्पन्न हो, वैसा वचन या अनुष्ठान न करे। इन गुणों से युक्त साधक ही आक्षेपकर्ताओं के आक्षेपरूप उपसर्ग पर यथार्थरूप से विजय प्राप्त कर सकता है।" प्रतिपक्षी के पूर्वोक्त आक्षेपों का उत्तर किस पद्धति से दे?-पूर्वगाथाओं में प्रतिवादी के द्वारा सुविहित साधुओं पर परोक्ष एवं प्रत्यक्षरूप से मिथ्या आक्षेपों का निदर्शन बताया गया है / और यह भी कहा जा चुका है कि प्रतिपक्षी के आक्षेपों का प्रतिवाद मोक्ष विशारद आदि सात गुणों से सम्पन्न साधु यथायोग्य अवसर देखकर कर सकता है / अब प्रश्न यह है कि प्रतिपक्षी के पूर्वोक्त आक्षेपों का उत्तर पूर्वोक्त गणसम्पन्न साध को किस पद्धति से देना चाहिए? इस विषय में शास्त्रकार ने सूत्रगाथा 214 से 216 तक प्रकाश डाला है। आक्षेपों के उत्तर के मुख्य मुद्दे ये हैं-(१) आपके आक्षेपयुक्त वचनों से आप द्विपक्ष या दुष्पक्ष का सेवन करते प्रतीत होते हैं, (2) आप गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के बर्तनों में भोजन करते हैं, (3) रोगी संत के लिए गृहस्थ से आहारादि मँगवाते हैं, (4) सचित्त बीज और जल 11 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 61 से 13 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 456 से 462 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय उद्देशक : गाथा 214 से 223 216 का उपभोग करते हैं, (5) औद्देशिक आदि दोषों से बने आहार का सेवन करते हैं। (6) आप लोग तीव्र कषाय या कर्मबन्ध से लिप्त हैं, (7) सद्विवेक से शून्य हैं, (8) शुभ अध्यवसाय (समाधि) से रहित हैं, (6) जिस प्रकार घाव के अधिक खुजलाने से विकारवृद्धि होती है, इसी तरह मिथ्या-आक्षेपात्मक चर्चा भी बार-बार रागद्वेष युक्त होकर छेड़ने से कोई लाभ नहीं, वह कषायादि वर्द्धक ही है। (10) निन्दा आदि करने का मार्ग भगवान् की नीति के अनुकल या युक्तिसंगत नहीं है। (11) आपके आक्षेपात्मक वचन बिना सोचे विचारे कहे गए हैं, (12) आपके कार्य भी विवेक-विचार शून्य हैं, (13) “साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है किन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं," यह कथन बांस के अग्रभाग की तरह दमदार नहीं है, (14) साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए यह धर्मदेशना गृहस्थों को ही शुद्धि करने वाली है साधुओं को नहीं, इस दृष्टि से पूर्वकालिक सर्वज्ञों ने प्ररूपणा नहीं की थी। दुपक्खं चेव सेवहा-वृत्तिकार ने 'दुपक्खं' आदि वाक्य की व्याख्या चार प्रकार से की है-(१) दुष्पक्ष-आप मिथ्या, असत् पक्ष का आश्रय लेते हैं (2) द्विपक्ष-राग और द्वेष रूप दो पक्षों का सेवन करते हैं। क्योंकि आप अपने दोषयुक्त पक्ष का भी समर्थन करते हैं, इस कारण आपका अपने पक्ष में राग है, तथा हमारा सिद्धान्त दोष रहित है उसे आप दूषित बतलाते हैं, इसलिए उस पर आपका द्वेष आप लोग द्विपक्षी का आश्रय लेते हैं। जैसे-आप लोग सचित्त बीज, कच्चा पानी और उद्विष्ट सेवन करने के कारण गृहस्थ हैं और साधु का वेष रखने के कारण साधु हैं। (4) अथवा आप दो पक्षों का सेवन करते हैं। जैसे--स्वयं असद् अनुष्ठान करते हैं और सद् अनुष्ठान करने वाले दूसरों की निन्दा करते हैं / तात्पर्य यह है कि आपने जो साधु वर्ग पर सरागस्थ और परस्पर आसक्त होने का आक्षेप लगाया, वह गलत है, दुष्पक्ष है-मिथ्यापूर्वपक्ष से युक्त है। लित्ता तिब्वामितावेणं""असमाहिया-इस गाथा में तीन प्रत्याक्षेप आक्षेपकर्ताओं पर लगाए हैं-१. तीव्र अभिताप से लिप्त, 2. सद्विवेक से विहीन, तथा 3. समाधि (शुभ अध्यवसाय) से रहित / ये तीनों प्रत्याक्षेप इस प्रकार प्रमाणित होते हैं-(१) षट्कायिक जीवों का उपमर्दन करके जो आहार उनके निमित्त तैयार किया जाता है, उसका सेवन करने से, झूठी बात को भी दृढ़तापूर्वक पूर्वाग्रहवश पकड़ने से; मिथ्यादृष्टित्व के स्वीकार से एवं सुविहित साधुओं की निन्दा करने के कारण वे लोग तीव्र कषाय या तीन कर्मबन्धन के अभिताप से लिप्त हैं। सुविवेक से विहीन इसलिए हैं कि भिक्षापात्र न रखकर किसी एक गृहस्थ के घर में भोजन करने के कारण तथा रुग्ण साधु के लिए गृहस्थ से बनवाकर भोजन मँगाने के कारण वे उद्दिष्ट आदि दोष युक्त आहार करते हैं। तथा शुभ अध्यवसाय से रहित इसलिए हैं कि वे उत्तम साधुओं से द्वेष करते हैं, उनको झूठमूठ बदनाम करते हैं / नातिकजुइत सेयं अरुयस्साबरमती-इस प्रत्याक्षेप वाक्य में सुसाधु द्वारा सामान्य नीति की प्रेरणा है। इसका अर्थ है-घाव को अधिक खुजलाना अच्छा नहीं होता उससे विकार उत्पन्न होता है, इस 12 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा०२ 10 57 से 63 तक का सार Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा न्याय से हम लोग आपके दोषों को अधिक कुरेदना ठीक नहीं समझते / इससे आप में राग-द्वेष वृद्धिरूप दोष उत्पन्न होने की सम्भावना है। ___ण एस णियए मग्गे'--इसका आशय यह है कि आक्षेपकर्ताओं के प्रति प्रत्याक्षेप करते हुए सुसाधु कहते हैं आपके द्वारा अपनाया हुआ सुसाधुओं की निन्दा करने का यह मार्ग या रवैया भगवान् के द्वारा नियत-निश्चित या युक्तिसंगत नहीं है, अथवा चूणिकार सम्मत 'णितिए पाठान्तर के अनुसार "यह मार्ग भगवान् की नीति के अनुकूल (नैतिक) नहीं है।" तत्तेण अणुसिटुाते-जो साधक हेयोपादेय ज्ञाता है, तथा रोषद्वष रहित होकर सत्य बातें कहने के लिए कृतप्रतिज्ञ है, वह उन गोशालक मतानुसारी आजीवक आदि श्रमणों से तू-तू मैं-मैं, वाक्कलह, व्यर्थ विवाद या झगड़ा करने की अपेक्षा बस्तु तत्त्व की दृष्टि से, जिनेन्द्र के अभिप्राय के अनुसार यथार्थ परमार्थ प्ररूपणा के द्वारा बहुत ही मधुर शब्दों में नम्रतापूर्वक सच्ची और साफ-साफ बातें समझा दे, उन्हें हितकर और वास्तविक बातों की शिक्षा दें। यही इस पंक्ति का आशय है। असमिक्खा वई किती-'आपका यह कथन अविचारपूर्वक है कि जो भिक्षु रोगी साधु को आहार लाकर देते हैं, वे गृहस्थ के समान हैं। तथा आप जो कार्य, आचरण या व्यवहार करते हैं, वह भी विवेक विचार शून्य हैं। एरिसा सा वई"न तु भिक्खूणं - इस गाथा का निष्कर्ष यह है कि "साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है, मगर साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं," आपकी इस बात में भी वांस के अग्रभाग की तरह कोई दम नहीं है, क्योंकि एक तो इस कथन के पीछे कोई प्रमाण, कोई तकंसगत तथ्य या कोई हेतु सहित युक्ति नहीं है। वीतराग महषियों द्वारा चलाई हुई प्राचीन परम्परा से भी यह संगत नहीं है। आपका यह कथन इसलिए निःसार है कि गृहस्थों के द्वारा बना कर लाये हुए आहार में षट्कायिक जीवों का घात स्पष्ट है, साथ ही वह आहार आधाकर्म, औद्द शिक आदि दोषों से युक्त अशुद्ध होता है, जबकि साधुओं के द्वारा अनेक घरों से गवेषणा करके लाया हुआ भुक्त-शिष्ट आहार उद्गमादि दोषों से रहित, साधु के लिए आरम्भ-समारम्भ से वर्जित एवं अमृत भोजन होता है। ___धम्मपण्णवणा जा सा'"पुष्वमासि पकप्पियं-सर्वज्ञों की एक धर्मदेशना है-'साधुओं को दान देकर उपकार करना चाहिए' यह गृहस्थों की शुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, क्योंकि साधु तो आने ही तप-संयम का आचरण करके शुद्ध होते हैं, यह वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों की धर्म देशना का गलत अर्थ लगाना है। इसी गलत अर्थ को लेकर आक्षेपकर्तागण यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि रोगादि अवस्था में साधु को आहारादि लाकर देने का (साधु के प्रति) उपकार गृहस्थ को ही करना चाहिए, साधुओं को नहीं, परन्तु पूर्वकालीन सर्वज्ञों की धर्म देशना ऐसी नहीं रही है, आप (आक्षेपकर्ताओं) अपनी मिथ्या दृष्टि के कारण सर्वज्ञोपदिष्ट कथन का विपरीत अर्थ करते हैं / सर्वज्ञपुरुष ऐसी तुच्छ या विपरीत बात की प्ररूपणा नहीं करते अतः रोगी साधु की वैयावृत्य साधु को नहीं करनी चाहिए, इत्यादि आजीवकादि आक्षेपकों का आक्षेप शास्त्र-विरुद्ध, युक्ति-विरुद्ध एवं अयथार्थ है। वस्तु स्थिति यह है कि आप (आजीवकादि) लोग रुग्ण साधु की वैयावृत्य करने के लिए गृहस्थ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 214 से 223 221 प्रेरणा देते हैं. तथा इस कार्य का अनुमोदन करके रुग्ण साध का उपकार करना स्वीकार भी करते है. अतः आप एक ओर रुग्ण साध के प्रति उपकार भी करते हैं, दूसरी ओर इस उपकार का विरोध भी करते हैं / यह 'वदतो ध्याघात' सा है। ___रुग्ण साधु की सेवा प्रसन्नचित्त साध का धर्म : प्रतिवादी द्वारा किये गए आक्षेप का निवारण करने के पश्चात् शास्त्रकार २२३वीं सूत्रगाथा में स्वपक्ष को स्थापना के रूप में स्वस्थ साधु द्वारा ग्लान (रुग्ण, वृद्ध, अशक्त आदि) साधु की सेवा को अनिवार्य धर्म बताते हुए कहते हैं "इमं च धम्म"कुज्जा भिक्खु गिलाणस्स अगिलाए समाहिते-इसका आशय यह है कि साध के लिए इस सेवाधर्म का प्रतिपादन मैं (सुधर्मास्वामी) ही नहीं कर रहा हूँ, अपितु काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् देव, मनुष्य आदि की परिषद् में किया था। ग्लान साधु की सेवा दूसरा साधु किस प्रकार करे ?-इसके लिए यहाँ दो विशेषण अंकित किये हैं(१) अगिलाए (2) समाहिते / अर्थात्- ग्लानि रहित एवं समाहित-समाधियुक्त–प्रसन्नचित्त होकर / इन - दो विशेषताओं से युक्त होकर रुग्ण साधु की सेवा करेगा, तभी वह धर्म होगा-संवर-निर्जरा का कारण होगा, कदाचित् पुण्यबन्ध हो तो शुभगति का कारण होगा। ग्लानिरहित एवं समाधि युक्त होकर सेवा करने के विधान के पीछे एक अन्य आशय भी वृत्तिकार अभिव्यक्त करते हैं-यदि साधु स्वयं समाधियुक्त होकर अग्लानभाव से रुग्ण साधु की सेवा नहीं करेगा या सेवा से जी चुराएगा; तो भविष्य में कदाचित् वह भी किसी समय अशुभ कर्मोदयवश रुग्ण, अस्वस्थ या अशक्त हो सकता है, उस समय उसकी सेवा से दूसरे साधु कतराएँगे, तब उक्त साधु के मन में असमाधिभाव उत्पन्न होगा / अतः स्वयं को तथा रुग्ण साधु को जिस प्रकार से समाधि उत्पन्न हो उस प्रकार से आहारादि लाकर देना व उसकी सेवा करना स्वस्थ साधु का मुख्य धर्म है / 14 परास्तवादियों के साथ विवाद के दौरान मुनि का धर्म-यहाँ सूत्रगाथा 220 से 222 तक में अन्यमतवादियों के मिथ्या आक्षेपों का उत्तर देते समय कैसी विकट परिस्थितियों की सम्भावना है, और वैसी स्थिति में मुनि का धर्म क्या है ? यह संक्षेप में निर्देश किया गया है। यहाँ तीन परिस्थितियों की सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं -- (1) परास्तवादी वाद को छोड़कर धृष्टतापूर्वक अपने पक्ष को ही यथार्थ मानने पर अड़ जाएँ, (2) रागद्वेष एवं मिथ्यात्व से ग्रस्त होकर प्रतिवाद आक्रोश (गाली-गलौज, मारपीट आदि) का आश्रय लें, अथवा (3) विवाद के दौरान कठोरता, अपशब्द-व्यंग्यवचन आदि के प्रयोग, या बाध्य) करने की नीति को देखकर कोई अन्यतीर्थी धर्मजिज्ञासु विरोधी न बन जाए। वृत्तिकार का आशय यह प्रतीत होता है कि ऐसी परिस्थिति में मुनि को इस प्रकार मन:समाधान से युक्त एवं कषायोत्तेजना से रहित होकर ऐसे हठाग्रहियों से विवाद न करना ही श्रेयस्कर है। 13 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 61 से 64 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 456 से 462 14 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 63 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 468 के आधार पर Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 सूत्रकृतगि-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा पाठान्तर और व्याख्या-परिभासेज्जा=कहे, बतलाए। चूर्णिकार 'एडिभासेज्ज' पाठान्तर मानते हैं, जिसका अर्थ होता है-प्रतिवाद करे प्रत्याक्षेप करे। उज्जया= उज्जात यानी उज्जड़ या अक्खड़ लोग, वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-- उझिया अर्थ किया है- सद्विवेकशुन्याः-सद्विवेक से शून्य / किसीकिसी प्रति में 'उज्जुया', 'उज्जुत्ता' पाठान्तर हैं, जिनका अर्थ होता है-लड़ाई करने को उद्यत अथवा अपनी जिद्द पर अड़े हुए। 'ण एस णियए मर्ग'=वृत्तिकार के अनुसार- आपके द्वारा स्वीकृत यह मार्ग कि “साधुओं को निश्चित न होने के कारण परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव नहीं होता" नियत निश्चित या युक्ति संगत नहीं है / चूर्णिकार 'ण एस णितिए मग्गे' पाठान्तर मानकर दो अर्थ प्रस्तुत करते हैं'न एष भगवतां नीतिको मार्गः, नितिको नाम नियः / भगवान् की (अनेकान्तमयी) नीति के अनुरूप यह मार्ग नहीं है, अथवा नितिक का अर्थ 'नित्य है, यह मार्ग नित्य (उत्सर्ग) मार्ग नहीं है, अर्थात् अपवाद मार्ग है / 'अग्गे वेणुव करिसिता' =वृत्तिकार के अनुसार--'अग्रे वेणुवत् वंशवत् कर्षिता दुर्यलेत्यर्थः / ' अर्थात् बांस के अग्रभाग की तरह आपका कथन दुर्बल है, वजनदार नहीं। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है'अग्णे बेलुम्ब करिसिति=बिल्यो हि मूले स्थिरः अग्नेकषितः / अर्थात् बिल्व की तरह मूल में स्थिर और अग्रभाग में दुर्बल वायं णिराकिच्चा-वृत्तिकार के अनुसार-~-'सम्यम्हेतु दृष्टान्तर्यो वादो-जल्पस्तं परित्यज्य' अर्थात सम्यक् हेतु, दृष्टान्त आदि से युक्त जो वाद-जल्प है, उसका परित्याग करके। चूर्णिकार सम्मत एक पाठान्तर है-वादं निरे किच्चा--अर्थ इस प्रकार है-निरं णाम पृष्ठतः वादं निरेकृत्वा अर्थ है वाद को पीठ करके यानी पोछे धकेलकर / वृत्तिकार ने कहा है-अनेक असत्वादियों की अपेक्षा एक सत्यवादी ज्ञानी का कथन प्रमाणभूत होता है / 'अचयंता जवित्तए' =स्वपक्ष में अपने आपको संस्थापित करने में असमर्थ / पाठान्तर है- "अचयंता जहित्तते" अर्थ होता है-अपने पक्ष को छोड़ने में असमर्थ / अगिलाए समाहिते= वृत्तिकार के अनुसार 'अग्लान तया समाहितः समाधि प्राप्तः / अर्थात् स्वयं अग्लान भाव को प्राप्त एवं समाधि युक्त होकर / चूर्णिकार 'अगिलाणेण समाधिए' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-अगिलाणेण-अनादितेन अव्यथि तेन समाधिएत्ति समाविहेतोः / ' अर्थात-समाधि के हेत अग्लान यानी अव्यथित होते (मन में किसी प्रकार का दुःख या पीड़ा महसूस न करते हुए)। टंकणा इव पव्वयं--वृत्तिकार के अनुसार पहाड़ में रहने वाली म्लेच्छों की एक जाति विशेष टंकण 15 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 463 से 467 तक का सारांश (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 62-63 एरंडकहरासी जहा य गोसीसचन्दनपलस्स / मोल्ले न होज्ज सरिसो कित्तियमेत्तो गणिज्जती // 1 // तह वि गणणातिरेगो जह रासी सो न चन्दनसरिच्छो / तह निविण्णाण महाजणो वि सोज्झइ विसंवयति // 2 // एकको सचवखुगो जह अंधलयाणं सरहिं बहुएहिं / होइ बरं दट्ठन्वो गहु ते बहु गा अपेच्छंता // 3 // एवं बहुगा वि मूढा ण पमाणं जे गई ण याणंति / संसारगमणगुविलं णिउणस्स य बंधमोक्खस्स // 4 // -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति में उद्धत पनांक 63 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय उद्द शक : गाया 224 223 कहलाती है। सूत्रकृतांग अंग्रेजी अनुवाद के टिप्पण में टंकण जाति को मध्यप्रदेश के ईशानकोण में रहने वाली पर्वतीय जाति बतलाई है। जैसे दुर्जेय टंकण जाति के भील किसी प्रबल शक्तिशाली पुरुष की सेना द्वारा हराकर खदेड़ दिये जाते हैं, तब वे आखिर पर्वत का ही आश्रय लेते हैं, वैसे ही विवाद में परास्त उपाय न देखकर आक्रोश का ही सहारा लेते हैं।" उपसर्ग विजय का निर्देश 224 संखाय पेसलं धम्म दिमिं परिनिव्वुडे / उसग्ग नियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि // 21 // त्ति बेमि / 224. सम्यग् दृष्टिसम्पन्न (पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता-द्रष्टा), प्रशान्त (रागद्वेष रहितकषायोपशान्तियुक्त) मुनि (इस सर्वज्ञप्रणीत श्रु त-चारित्र रूप) उत्तम धर्म को जानकर उपसर्गों पर नियन्त्रण (उन्हें वश में करता हुआ मोक्ष प्राप्ति-पर्यन्त संयम में पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त उपसर्ग-विजय करे-तृतीय उद्देशक के अन्त में उपसर्ग विजय के निर्देश के सन्दर्भ में तीन तथ्यों को अभिव्यक्त किया है-(१) उत्तम धर्म को जानकर, (2) दृष्टिमान् एवं उपशान्त मुनि (3) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में उद्यम करे / संक्षेप में उपसर्ग विजय, क्या करके, कौन और कब तक करता रहे ? इन तीन तथ्यों का उद्घाटन किया गया है। पाठान्तर और व्याख्या-पेसलं सुन्दर-अहिंसादि में प्रवृत्ति होने के कारण प्राणियों की प्रीति का कारण / उवसग्गो नियामिता वृत्तिकार के अनुसार-"उपसर्गान् अनुकूल-प्रतिकूलान् नियम्य संयम्य सोढा, नोपसर्गरुपसर्गितोऽसमंजसं विदध्यात् / " अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों पर नियमन-संयम करके सहन (वश में) करे / उपसर्गों से पीड़ित होने पर असमंजस (उलझन)में न पड़े। चूर्णिकार 'उवसग्गे अधियासतो' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं उपसर्गों को सहन करता हआ। 'आमोक्खाए' चुणिकार के अनुसार-मोक्षापरिसमाप्ते"मोक्षो द्विविधः भवमोक्षो सब्वकम्ममोक्खो य, उभयहेतोरपि आमोक्षाय परिव्रजे-अर्थात मोक्ष की परिसमाप्ति –पूर्णता तक""मोक्ष दो प्रकार का है-भव मोक्ष जन्ममरण रूप संसार से मुक्ति, सर्व कर्ममोक्ष-समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष / इन दोनों मोक्षों की प्राप्ति के हेतु संयम में पराक्रम करे। बत्तिकार 'आमोक्खाय' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-"आमोक्षाय अशेषकर्मक्षयप्राप्ति यावत् मोक्ष प्राप्ति समस्त कर्मक्षय प्राप्ति तक / 14 IOD -शश 'अथात 17 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 64 (ख) "This hill-tribe lived some-where in the north-east of Madhyapradesa, see Peterburg Dictionary. S. V." . -Sacred Books of the East Vol-XIV, p. 268 (ग) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 38 से 40 तक 18 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा० 2, पृ०७० 16 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 40 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 64 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 सूत्रकृतांग : तृतीय अध्ययन : उपसर्गपरिज्ञा चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक महा पुरुषों की दुहाई देकर संयम-भ्रष्ट करने वाले उपसर्ग 225. आहंसु महापुरिसा पुवि तत्ततयोधणा। उदएण सिद्धिमावण्णा तत्थ मंदे विसीयती // 1 // 226. अभुजिया णमी वेदेही रामगुत्ते य भुजिया / बाहुए उदगं भोच्चा तहा तारागणे रिसो // 2 // 227. आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी / पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य / / 3 / / 228. एते पुन्वं महापुरिसा आहिता इह संमता। भोच्चा बोओदगं सिद्धा इति मेतमणुस्सुतं // 4 // 226. तत्थ मंदा विसीयंति वाहछिन्ना व गद्दभा। पिट्ठतो परिसप्पंति पीढसप्पी व संभमे // 5 // 225. कई (परमार्थ से अनभिज्ञ) अज्ञजन कहते हैं कि प्राचीनकाल में तप्त (तपे तपाए) तपोधनी (तपरूप धन से सम्पन्न) महापुरुष शीतल (कच्चे) पानी का सेवन करके सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त हुए थे। (ऐसा सुनकर) अपरिपक्व बुद्धि का साधक उसमें (शीतजल के सेवन में) प्रवृत्त हो जाता है। 226. वैदेही (विदेह देश के राजा) नमिराज ने आहार छोड़कर और रामगुप्त ने आहार का उपभोग करके, तथा बाहुक ने एवं तारायण (तारायण या नारागण) ऋषि ने शीतल जल आदि का सेवन करके (मोक्ष पाया था / ) 227. आसिल और देवल ऋषि ने, तथा महर्षि द्वैपायन एवं पाराशर ऋषि (आदि) ने शीतल (सचित्त) जल बीज एवं हरी वनस्पतियों का उपभोग करके (मोक्ष प्राप्त किया था।) 228. पूर्वकाल में ये महापुरुष सर्वत्र विख्यात थे। और यहाँ (आर्हत प्रवचन में) भी ये (इनमें से कोई-कोई त (माने गये) हैं। ये सभी सचित्त बीज एवं शीतजल का उपभोग करके सिद्ध (मुक्त) हुए थे; ऐसा मैंने (कुतीर्थिक या स्वयूथिक ने) (महाभारत आदि पुराणों से) परम्परा से सुना है। 226. इस प्रकार की भ्रान्तिजनक (बुद्धिभ्रष्ट या आचारभ्रष्ट करने वाले) दुःशिक्षणरूप उपसर्ग के होने पर मन्दबुद्धि साधक भारवहन से पीड़ित गधों की तरह दुःख का अनुभव करते हैं / जैसे लकड़ी के टुकड़ों को पकड़कर चलने वाला (पृष्ठसपी) लंगड़ा मनुष्य अग्नि आदि का उपद्रव होने पर (भगदड़ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 225 से 226 225 के समय) भागने वाले लोगों के पीछे-पीछे (सरकता हुआ) चलता है, उसी तरह मन्दमति साधक भी संयमनिष्ठ मोक्षयात्रियों के पीछे-पीछे रेंगता हुआ चलता है (अथवा वह उन दुःशिक्षकों का पिछलग्गू हो जाता है / ) विवेचन - महापुरुषों की दुहाई देकर संयमभ्रष्ट करने वाले प्रस्तुत पंचसूत्रगाथाओं (सूत्रगाथा 225 से 226 तक) में एक ऐसे अनुकूल उपसर्ग और मन्दबुद्धि साधकों पर उसकी प्रतिक्रिया का वर्णन किया गया है, जिसमें कुछ शिथिल साधकों द्वारा अपनी अनाचाररूप प्रवृत्तियों को आचार में समाविष्ट करने हेतु प्रसिद्ध पूर्वकालिक ऋषियों की दुहाई देकर कुतर्कों द्वारा मन्दसाधक की बुद्धि को भ्रष्ट किया जाता है और उन्हें अनाचार में फंसाने का प्रयत्न किया जाता है। प्रस्तुत पंचसूत्री में कुछ ऋषियों के नाम लिए बिना, तथा कुछ प्रसिद्ध ऋषियों के नाम लेकर इस उपसर्ग के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं (1) पूर्वकाल में वल्कलचीरी, तारागण आदि महापुरुषों ने पंचाग्नि आदि तप करके शीतजल; कन्दमूल-फल आदि का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की थी। (2) वैदेही नमिराज ने आहार त्यागकर (3) रामगुप्त ने आहार का उपभोग करके, (4) बाहुकऋषि ने शीतल जल का उपभोग करके, (5) इसी तरह तारायण या नारायण ऋषि ने भी जल सेवन करके, (6, 7, 8, 6) असिल, देवल, द्वैपायन एवं पाराशर महर्षि ने शीत (कच्चा) जल, बीज और हरी वनस्पति का उपभोग करके, सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की है, ऐसा मैंने महाभारत आदि पुराणों से सुना है / पूर्वकाल (वेता-द्वापर आदि युगों) में ये महापुरुष प्रसिद्ध रहे हैं और आर्हत प्रवचन में ये माने गये हैं।' ये महापुरुष कहाँ तथा किस रूप में प्रसिद्ध हैं ?--जमिवैदेही-भागवत-पुराण में निमि का चरित्र अंकित है। वहाँ निमि के 'जनक', 'वैदेह' और 'मिथिल' नाम क्यों पड़े ? इसका भी कारण बताया गया है। बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटक में 'निमिराजचरिया' के नाम से निमि का चरित मिलता है। जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में 'नमिपव्वज्जा' अध्ययन में नमिराजर्षि और इन्द्र का संवाद अंकित है।' 1 जैन साहित्य का बहद् इतिहास, भा० 1 2 (क) सुयगडंग सुत्तं (मू० पा० टिप्पण) प्रस्तावना एवं टिप्पण 10 14, 15 तथा 40-41 (ख) णमी वेदेही–देखिये श्रीमद् भागवत० (3 / 13 / 1 से 1 से 13 श्लो० तक) में-'श्री शक उवाच निमिरिक्ष्वाकुतनयो वशिष्ठमवृतत्विजम् / आरभ्य""वृतोऽस्मि भोः // 1 // तं निर्वृत्या""करोन्मखम् / / 2 / / निमिश्चलंमिदं विद्वान्'""यावता गुरुः // 3 // शिष्यव्यतिक्रम"निमेः पण्डितमानिन: // 4 // निमिः प्रतिददो शापं."धर्ममजानतः // 5 // इत्युससर्ज एवं देहं निमिध्यात्मकोविदः"प्रपितामहः ।।.."देवा उच:-विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् / उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः // 11 // जन्मना जनकः सोऽभूद् बैदेहस्तु विदेहजः / मिथिलो मथनाज्जातो, मिथिला येन निर्मितः // 13 // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग : तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा रामगुत्त-रामपुत्त-इसिभासियाई (ऋषिभाषित) के रामपुत्तिय नामक २३वें अध्ययन में रामपुत्त नाम मिलता है / वृत्तिकार के अनुसार रामगुप्त एक राजपि थे। बाहुक-आहेतऋषि -इसिभासियाइं के १४वें बाहुक अध्ययन में बाहुक को आहतऋषि कहा गया है / महाभारत के तीसरे आरण्यकपर्व में नल राजा का दूसरा नाम 'बाहुक' बताया गया है, पर वह तो राजा का नाम है। तारागण-तारायण या नारायण ऋषि-इसिभासियाई के ३६वें तारायणिज्ज नामक अध्ययन में तारायण या तारागण ऋषि का नामोल्लेख आता है। आसिल (असित ?) देविल (देवल) ऋषि-वृत्तिकार ने असिल और देविल दोनों अलग-अलग नाम वाले ऋषि माने हैं। किन्तु 'इसिभासियाई' के तृतीय दविल अध्ययन में असित दविल आर्हतऋषि के रूप में एक ही ऋषि का नामोल्लेख है / सूत्रकृतांग चूणि का भी यही आशय प्रतीत होता है। महाभारत में भी तथा भगवद्गीता में आसित देवल के रूप में एक ही नाम का कई जगह उल्लेख है। इस पर से ऋषि का देवल गोत्र और असित नाम प्रतीत होता है। वायुपुराण के प्रथम खण्ड में ऋषिलक्षण के प्रकरण के अनुसार असित और देवल ये दोनों पृथक्-पृथक् ऋषि मालूम होते हैं। दीवायण महारिसी और पारासर-इसिभासियाई के ४०वें 'दीवाणिज्ज' नामक अध्ययन में द्वीपायन ऋषि का नामोल्लेख मिलता है, वहाँ पाराशर ऋषि का नामोल्लेख नहीं है / महाभारत में 'पायन' ऋषि का नाम मिलता है। व्याम, पाराशर (पराशर पुत्र) ये द्वैपायन के ही नाम हैं। ऐसा वहाँ उल्लेख है। वृत्तिकार ने द्वैपायन और पाराशर इन दोनों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। इसी तरह औपपातिक HI देखिये सुसपिटक चरियापिटक पालि, निमिराज चरिया (पृ० 360) में "पुनापरं यदा होमि मिथिलायं पुरिसुत्तमे। निमि नाम महाराजा, पण्डितो कुसलस्थिको // 1 // तदाहं मापयित्वा न चतुस्सालं चतुम्मुखं / तत्थ दानं पवसीसि मिगपक्खिनरादिनं / 2 // " IHI देखिए-उत्तराध्ययन नमि पविज्जा अध्ययन 9 में तओ न मि रायरिसी देविदं इण मधवी 3 रामगुत्ते-(1) इतिभासियाई अ०१३ रामपत्तिय अध्ययन देखिये / (II) राम गुप्तश्च राजर्षिः -वृत्तिकार शीलांकाचार्य 4 इसिभासियाई में 14 वाँ अध्ययन बाहकज्झयणं देखिये। 5 इसिभासिघाई में 36 तोतारायणिज्जज्झयणं देखिये। 6 (क) (1) इसिभासियाई में तीसरे दविलज्झयणं में- "असिएण दविलेणं अरहना इसिणा बुइतं / " (II) आसिलो नाम महषिः देविलो छैपायनश्च तथा पाराशराख्यः।। -~~-भीला. वृत्ति (III) असितो देवलो व्यास: स्वयंचव ब्रदीप मे // --भगवद्गीता अ० 10/13 (IV) वायुपुराण में ऋषि लक्षण में काश्यपश्चैव वस्मारो विभ्रमोरेभ्य एव च / असितो देवलश्चैव षडेते ब्रह्मवादिनः / / (v) देवलस्त्वसितोऽब्रवीत् (महा. भीष्म पर्व 616416) "मारवस्य च संवादं देवलस्यासितस्य च / " (शान्ति पर्व 12 / 26711) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 225 से 226 225 (उववाइय) सूत्र में आठ माहन-परिव्राजकों में 'परासर' और 'दीवाप' इन दो परिवाजकों (ऋषियों) के नामोल्लेख हैं। मोक्षप्राप्ति का कारण शीतलजलादि था या और कुछ ?–भ्रान्ति उत्पादक एवं बुद्धिमञ्चक अन्यतीथिक लोग मोक्ष के वास्तविक कारणों से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए वे प्रसिद्ध ऋषियों के नाम के साथ कच्चे पानी, पंचाग्नि आदि तप. हरी वनस्पति आदि के उपभोग को जोडकर उसी को बताते हैं। वृत्तिकार कहते हैं कि वे परमार्थ से अज्ञ यह नहीं जानते कि वल्कल चोरी आदि जिन ऋषियों या तापमों को सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हुई थी, उन्हें किसी निमित्त से जातिस्मरण आदि ज्ञान उत्पत्र हुआ था, जिससे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र प्राप्त हुआ था, किन्तु सर्वविरति परिणामरूप भालिग के बिना केवल जीवोपमर्दक शीतजल-बीज-वनस्पति आदि के उपभोग से सर्वथा कर्मक्षय नहीं हो सकता। चूणिकार भी यही बात कहते हैं कि अज्ञलोग कहते हैं--इन प्रत्येकवुद्ध ऋषियों को वनवास में रहते हुए बीज, हरितवनस्पति आदि के उपभोग से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था, जैसे कि भरतचन्नवी को शीशमहल में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था। वे कुतीर्थी यह नहीं जानते कि किस भाव में प्रवर्त्तमान व्यक्ति को केवलज्ञान होता है? किस रत्नत्रय से सिद्धत्व प्राप्त होता है, इस सैद्धान्तिक तत्त्व को न जानते हुए वे विपरीत प्ररूपणा कर देते हैं। कसे चारित्र से पतित या बद्धिभ्रष्ट हो जाते हैं ?--ऐसे अज्ञानियों द्वारा महापुरुषों के नाम से फैलाई हुई गलत बातों को सुनकर अपरिपक्व बुद्धि या मन्दपरिणामी साधक चक्कर में आ जाते हैं, वे उन बातों को सत्य मान लते हैं, प्रासुक जल पीने तथा स्नान न करने से घबराये हुए वे साधक पूर्वापर का विचार किये बिना झटपट शीतल जल, आदि का उपभोग करने लगते हैं, शिथिलाचार को सम्यक्आचार में परिगणित कराने के लिए पूर्वोक्त दुहाई देने लगते हैं कि जब ये प्रसिद्ध ऋषि सचित्त जल पीकर निरन्तर भोजी रहकर, एवं फल बीज वनस्पति (कन्दमूल आदि) खाकर मुक्त हुए हैं. महापुरुष बने हैं, तो हम वैसा क्यों नहीं कर सकते ? जैसा कि २२८वों सूत्रगाथा में कहा है-एने पुत्र सिद्वा इति मे समगुस्सुतं / " इस प्रकार के हेत्वाभास (कुतर्क) द्वारा शिथिल श्रमण साध्वाचार से भ्रष्ट हो जाते हैं। उनकी बुद्धि चकरा जाती है, वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चारित्रभ्राट या मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं और अन्त में संसारसागर में डूब जाते हैं / यही बात शास्त्रकार ने २२५वीं सूत्रगाथा में स्पष्ट कह दी हैं-आहंसु महापुरिसा ....... मन्दो विसीयती।" 7 (क) “दीवायण महारिसी ! पारासरे..." - (1) तत्थ खलु इमे अट्ठमाण-परिवायग्गा भवंति-- कण्हे य करकडे य अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए। ओववाइय सुत / (ख) महाभारले-परासरसुतः (पारशरः) श्रीमान् व्यासो वाक्य मुवाचह।" - शान्तिपर्व 121327.20 न) एतद्विगायक विशेष विवेच: 'पुरातत्त्व (मासिक पत्रिका) प्रकाशित 'सूत्रकृतांग मां आवतां विशेष नामो' शीर्षक लेख में उपलब्ध है। -संपादक 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 (ख) सूयगडंग चूणि पृ० 66 (क) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० 1 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 473-474 के अनुसार Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 228 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा इस उपसर्ग से पीड़ित साधकों को अबक्शा -- अदूरदर्शी भोले-भाले मन्दपराक्रमी साधक जब भ्रान्तिजनक मिथ्यादृष्टि दुःशिक्षकों के चक्कर में आकर ऐसे उपसर्ग के आने पर झट फिसल जाते हैं। ऐसे साधकों की अवदशा को शास्त्रकार दो दृष्टान्तों द्वारा प्रतिपादित करते हैं---तत्य मन्दा विसोयन्ति"......... पिट्ठसप्पीय सम्भमे आशय यह है-ऐसे मन्द पराक्रमी साधक संयम के भार को वहन करने में इसी प्रकार की तीन पीड़ा महसूस करते हैं, जिस प्रकार वोझ से पीड़ित गधे चलने में दुःख महसूस करते हैं / अथवा ऐसे संयम में शिथिल हतोत्साह साधक अग्निकाण्ड आदि का उपद्रव होने पर हड़बड़ी में भागने वालों के पीछे लकडी के टकडों को हाथ में पकडकर सरक-सरक कर चलने वाले उस तेजी से मोक्ष की ओर जाने वाले साधकों के पीछे रोते-पीटते रेंगते हुए बेमन से चलते हैं। ऐसे कच्ची बुद्धि वाले साधक उपसर्ग पीड़ित होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-आंहसु=कहते हैं / आहिता='आ समन्तात् ख्याता:--आख्याताः, प्रख्याताः राषित्वेन प्रसिद्धिमुपगता अर्थात्-पूरी तरह ख्यात यानी प्रख्यात, राजर्षि के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त / इह सम्मता= इहापि आईत-प्रवचने सम्मता अभिप्रेता-अर्थात् यहाँ ऋषिभाषित आदि आहत प्रवचन में भी इनमें से कई माने गये हैं। सम्भमे-अग्निकाण्ड आदि होने पर भगदड़ के समय / सुख से ही सुख प्राप्ति : मिथ्या मान्यता रूप उप्सर्ग 230. इहमेगे उ भासंति सातं सातेण विज्जती / जे तत्थ आरियं मगं परमं च समाहियं // 6 // 231. मां एवं अवमन्नता अप्पेणं लुम्पहा बहुं / एतस्स अमोक्खाए अयहारि व्व जूरहा // 7 // 232. पाणाइवाए वट्टता मुसावाए असंजता / अदिनादाणे वट्टता मेहुणे य परिग्गहे // 8 // 230. इस (मोक्ष प्राप्ति के) विषय में कई (मिथ्यादृष्टि बौद्ध) कहते हैं- 'सुख (साता) सुख से (साता से) ही प्राप्त होता है।' (परन्तु) अनन्तसुख रूप मोक्ष के विषय में जो आर्य (समस्त हेय धर्मों से दूर रहने वाला एवं तीर्थंकर प्रतिपादित) मार्ग (मोक्षमार्ग) है, तथा जो परमसमाधि रूप (ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मक) है, (उसे) जो (छोड़ देते हैं, वे व्यामूढ़मति हैं।) 231. इस (जिनप्ररूपित मोक्षमार्ग) को तिरस्कृत करते हुए ('सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है', इस भ्रान्त मान्यता के शिकार होकर ठुकराते हुए) तुम (अन्य साधक) अल्प (तुच्छ) विषय सुख के लोभ से अत्यन्त मूल्यवान मोक्षसुख को मत बिगाड़ो (नष्ट मत करो)। (सुख से ही सुख प्राप्त होता है) इस मिथ्या मान्यता को नहीं छोड़ने पर सोने को छोड़ कर लोहा लेने वाले वणिक् की तरह पछताओगे। 10 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 16 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : माथा 230 से 232 232. आप (सुख से सुख प्राप्ति के मिथ्यावाद के प्ररूपक) लोग प्राणातिपात (हिंसा) में प्रवत्त होते हैं, (साथ ही) मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन (अब्रह्मचर्य) सेवन आर परिग्रह में भी प्रवृत्त होते हैं, (इस कारण आप लोग) असंयमी हैं / विवेचन--'सुख से हो सुख प्राप्ति : एक मिथ्यामान्यता रूप उपसर्ग-प्रस्तुत तीन' सूत्रगाथाओं (230 स 232 तक) में मोक्षमार्ग से भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग का निदर्शन प्रस्तुत किया गया है। इस मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के सम्बन्ध में यहाँ दो तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं-(१) 'सुख से ही सुख मिलता है, इस मिथ्या मान्यता के शिकार मूढ़मति साधक रत्नत्रयात्मक अनन्त सुखात्मक मोक्ष मार्ग को छोड़ देते हैं, (2) ऐसे मिथ्यावाद के प्ररूपक तथा ऐसे उपसर्ग से पीड़ित लोग पांचों आस्रवों में प्रवृत्त होते देर नहीं लगाते / " __'सुख से ही सुख की प्राप्ति'---यह मान्यता किसकी, कैसे और क्यों? चूर्णिकार ने यह मत बौद्धों का माना है, वत्तिकार ने भी इसी का समर्थन किया है, किन्तु साथ ही यह भी बताया है कि कुछ जैन श्रमण, जो केशलोच, पादविहार, रात्रिभोजन-त्याग, कठोर तप आदि कष्टों से सन्तप्त हो जाते हैं, वे भी इस मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के प्रवाह में बह जाते हैं और मोक्षमार्ग से भटक जाते हैं। वे कहते हैं--सुख द्वारा सुख प्राप्त किया जा सकता है, अतः सुखप्राप्ति के लिए कष्ट सहन करने की आवश्यकता नहीं है / जो लोग सुख प्राप्ति के लिए तपरूप कष्ट उठाते है, वे भ्रम में हैं। बौद्धग्रन्थ 'सुत्तपिटक' मज्झिम निकाय के चूल दुक्खखंध सुत्त में निर्ग्रन्थों के साथ गौतम-बुद्ध का जो वार्तालाप हुआ है, उसमें निम्रन्थों के कथन का जो उत्तर दिया है, उस पर से यह बौद्धमत है, इतना स्पष्ट हो जाता है / 12 इसके अतिरिक्त 'इसिभासियाइ' के ३८वें अध्ययन-'साइपुत्तिज्ज' में इस मान्यता का स्पष्ट उल्लेख है-'जो सुख से सुख उपलब्ध होता है; वही अत्यन्त सुख है, सुख से जो दुःख उपलब्ध होता है, मुझे उसका समागम न हो।' सातिपुत्र बुद्ध का यह कथन है-"मनोज्ञ भोजन एवं मनोज्ञ शयनासन का सेवन करके मनोज घर में जो भिक्षु (मनोज्ञ पदार्थ का) ध्यान करता है, वही समाधि (सुख) युक्त है / अमनोज्ञ भोजन एवं अमनोज्ञ शयनासन का उपभोग करके अमनोज्ञ घर में (अमनोज्ञ पदार्थ का) जो भिक्षु ध्यान करता है, वह दुःख का ध्यान है।"१४ 11 सूत्र कृतांग शीलांक बृत्ति भाषानुवाद सहित भा० 2, पृ०७७ से 82 का सारांश 12 ..'न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगंतव्व, दुक्खेन खो सुखं अधिगंतव्य " / -सुत्तपिटक मज्झिमनिकाय चूलदुक्खखंध सूत्र पृ० 128/126 13 (क) "जं सुहेण सुहं लद्धं अच्चंत सुखमेव तं / जं सूखेण दुहं लद्धं मा मे तेण समागमो।" --सातिपुत्तण बुद्धण अरहता-बुइतं मणुष्ण भोयण भुच्चा, मणुष्णं सयणासणं / मषुण्ण सि अगारंसि झाति भिक्खु समाहिए // 2 // अमणुण्णं भोयणं भुच्चा, अमणुण्णं सयणासणं / अमणुण्ण सि गेहंसि दुक्खं भिक्खू झियायती // 3 // -इसिभासियाई अ० 3810 85 (ख) सूयगडंग मूलपाठ टिप्पण युक्त (जम्बूविजय जी) प्रस्तावना एवं परिशिष्ट पृ० 16 एवं 365 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन--उपसर्गपरिज्ञा यहाँ 'सातिपुत्त' शब्द का अर्थ गौतम बुद्ध विवक्षित हो तो इस शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'शाक्यपुत्र' करना चाहिए / परन्तु इसिभासियाई को टीका में अन्त में शारिपुत्रीयमध्ययनम् कहा गया है / यहाँ 'सातिपुत्र' शब्द का अर्थ यदि 'शारिपुत्र' अभीष्ट हो तो यहाँ बुद्ध का अर्थ बौद्ध (बुद्ध) शिष्य करना चाहिए, जैसा कि इसिभासियाइं को टीका में भी 'इति बौद्धषिणा भाषितम् कहा गया है। __ 'सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त प्रमाणों के अतिरिक्त, बौद्ध यह कुतर्क प्रस्तुत करते हैं-- न्यायशास्त्र का एक सिद्धान्त है --'कारण के अनुरूप हो कार्य होता है, इस दृष्टि से जिस प्रकार शालिधान के बीज से शालिधान का ही अंकुर उत्पन्न होता है, ' जौ का नहीं; उसी प्रकार इहलोक के सुख से ही परलोक का या मुक्ति का सुख मिल सकता है, मगर लोच आदि के दुःख से मुक्ति का सुख नहीं मिल सकता।' इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- 'समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख से सभी उद्विग्न हो उठते हैं, इसलिए सुखार्थी को स्वयं को (दूसरों को भी) सुख देना चाहिए सुख प्रदाता ही सुख पाता है। अतः मनोज्ञ आहार-विहार आदि करने से चित्त में प्रसन्नता (साता) प्राप्त होती है, चित्त प्रसन्न होने पर एकाग्रता (ध्यान विषयक) प्राप्त होती है, और उसी से मुक्ति की प्राप्ति होती है किन्तु लोच आदि काया कष्ट से मुक्ति नहीं हो सकती। इसी म्रान्त मान्यता के अनुसार उत्तरकालीन बौद्ध भिक्षुओं को वैषयिक सुख युक्त दिनचर्या के प्रति कटाक्ष रूप में यह प्रसिद्ध हो गया "मृद्री शय्या, पातरुत्थाय पेया, भक्त मध्ये पानकं चापराह्न। द्राक्षाखण्डं शर्करा चाद्ध रात्र, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्र ण दृष्टाः / " "भिक्षु को कोमल शय्या पर सोना चाहिए, प्रातःकाल उठते ही दूध आदि पेय पदार्थ पीना, मध्याह्न में भोजन और अपराह्न में शर्बत, दूध आदि का पान करना चाहिए, फिर आधी रात में किशमिश और मिश्री खाना चाहिए, इस प्रकार की सुखपूर्वक दिनचर्या से अन्त में शाक्यपुत्र (बुद्ध) ने मोक्ष देखा (बताया) है।१४ यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म की एक शाखा के भिक्षुओं में उपर्युक्त प्रकार का आचारशैथिल्य आ गया था। वृत्तिकार ने इस सूत्रगाथा (230) की वृत्ति में इस तथ्य का विशेष रूप से स्पष्ट उल्लेख किया है / सम्भव है, नौवीं-दसवीं सदी में बौद्ध भिक्षुओं के आचारशिथिल जीवन का यह आँखों देखा वर्णन हो। थेरगाथा में वौद्ध भिक्षुओं की आचारशिथिलता का वर्णन इसी से मिलता-जुलता है। सम्भव है-थेरगाथा के प्रणयन काल में बौद्ध भिक्षुओं में यह शैथिल्य 14 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 66 में उद्धृत (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 476-477 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाया 230 से 232 231 आचुका होगा, जिसकी प्रतिध्वनि थेरगाथा में स्पष्ट अंकित है। इसीलिए शास्त्रकार ने इस भ्रान्त मान्यता का उल्लेख किया है-'इहमेगेउ 'सातं सातेण बिज्जती / कितनी भ्रान्त और मिथ्या मान्यता है यह ?- इसी गाथा के उत्तरार्द्ध में इस मान्यता को भ्रान्त और मिथ्या बताया गया है। वृत्तिकार ने इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा है कि इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए बौद्धग्रन्थों में जो युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं, वे निःसार हैं / मनोज्ञ आहार आदि को, जो सुख का कारण कहा है, वह भी ठीक नहीं, मनोज्ञ आहार से कभी-कभी हैजा (विसूचिका), अतिसार एवं उदरशल आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए मनोज्ञ आहार एकान्ततः सुख का कारण नहीं है। न ही मनोज्ञ शयनासन ही सुख का कारण है, क्योंकि उससे प्रमाद, अब्रह्मचर्य आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, जो दुःख के कारण हैं। वास्तव में इन्द्रिय-विषयजन्य सुख दुःख के क्षणिक प्रतीकार का हेतु होने से वह सुख का आभास-मात्र है, उसमें अनेक दुःख गर्भित होने से, वह परिणाम में विष-मिश्रित भोजन के समान दुःख रूप ही है, दुःख का ही कारण है। फिर जो सुख इन्द्रियों या पदार्थों के अधीन है, वह पराधीन है। इन्द्रियों के विकृत या नष्ट हो जाने पर या पदार्थों के न मिलने या वियोग हो जाने से वह सुख अत्यन्त दुःख रूप में परिणत हो जाता है / अतः वैषयिक सुख परवश होने से दुःख रूप ही है।। इसके विपरीत त्याग, तप, वैराग्य, यम, नियम, संयम, ध्यान, साधना, भोजनादि परतन्त्रता से मुक्ति, स्वाधीन सुख हैं, ये ही वास्तविक सुख या मोक्षसुख हैं। अतः दुःखरूप विषयजन्य पराधीन सुख परमानन्दरूप, ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक स्वाधीन मोक्षसुख का कारण कैसे हो सकता है ? इसीलिए कहा है दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः; सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः / उत्कीर्णवर्णपदपक्तिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् // " अर्थात् - विवेकमूढ़ लोग अपनी विपरीत गति, मति और दृष्टि के कारण दुःखरूप पंचेन्द्रिय विषयों में सख मानते हैं। किन्तु जो यम-नियम, तप, त्याग आदि सुखरूप हैं, उन्हें वे दुःखरूप समझते किसी धातु पर उत्कीर्ण की (खोदी) हुई अक्षर, पद, एवं पंक्ति देखने पर उलटी दिखाई देती है, लेकिन उसे मुद्रित कर दिये जाने से वह सीधी हो जाती है। इसी तरह संसारी जीवों की सुख-दुःख के विषय में उलटी समझ होती है / अतः विषय-भोग को दुःखरूप और यम-नियमादि को सुखरूप समझने से उनका यथार्थरूप प्रतीत होता है। तथाकथित बौद्धभिक्षुओं ने केशलोच, प्रखरतप, भूमिशयन, भिक्षाटन, भूख-प्यास, शर्दी-गर्मी आदि 15 देखिये थेरगाथा में उत्तरकालीन बौद्ध भिक्षओं के शिथिलाचार की झांकी-- अञ्जथा लोयनाथम्हि तिढ़ते पुरिसुत्तमे। इरियं असि भिक्खूनं अञथा दानि दिस्सति // सब्वासवपरिक्खीणा महाझायी महाहिता / निब्धता, दानि ते थेरा परित्ता दानि तादिसा / / -थेरगाथा 121, 628 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा परीषह का सहन, आदि दुःख के कारण माने हैं, वे उनके लिए हैं जो मन्दपराक्रमी हैं, परमार्थदर्शी नहीं हैं, अतीव दुर्बल हृदय हैं / परन्तु जो महान् दृढ़धर्मी साधक हैं, परमार्थदर्शी हैं, आत्म स्वभाव में लीन एवं स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त हैं, उनके लिए ये सब साधनाएँ दुःखरूप नहीं हैं, बल्कि स्वाधीनतारूप सुख की जननी हैं / अतः सम्यग्ज्ञानपूर्वक की गई ये सब पूर्वोक्त साधनाएँ मोक्ष सुख के साधन हैं। परमार्थचिन्तक महान् आत्मा के लिए ये बाह्य कष्ट भी सुखरूप है, दुःखरूप नहीं। कहा भी है-- "तण संथारनिसको वि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो / जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी घि?" "राग, मद और मोह से रहित मुनिवर तण (घास) की शय्या पर सोया (बैठा) हुआ भी जिस परमानन्दरूप मुक्ति सख का अनभव करता है, वह चक्रवर्ती के भाग्य में भी कहाँ है ?" उन वाह्यदु:खों को तत्त्वज्ञ मुनि सुखजनक कैसे मानते हैं ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-"जे तत्थ आरियं परमं च समाहिए।" तात्पर्य यह है कि परम समाधिकारक (सम्यग्दर्शानादि रत्नत्रय रूप) मोक्षमार्ग है, वैषयिक सुख नहीं। ऐसे मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के चक्कर में आने का दुष्परिणाम-(१) इस उपसर्ग के प्रभाव में आने पर साधक लोहवणिक् की तरह बहुत पश्चात्ताप करता है, तथा (2) हिंसादि आश्रवों में प्रवृत्त हो जाता है। 231 वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार इस उपरार्ग के शिकार लोगों पर अनुकम्पा लाकर उपदेश देते हैं-इस मिथ्यामान्यता के चक्कर में पड़कर वीतराग प्ररूपित मोक्षमार्ग (अनन्तसुख मार्ग) को या जिन सिद्धान्त को ठुकरा रहे हो, और तुच्छ विषय-सुखों में पड़कर मोक्षसुख की बाजी हाथ से खो रहे हो यह, तुच्छ वस्तु के लिए महामूल्यवान् वस्तु को खोना है ! छोड़ो इस मिथ्या मान्यता को। अगर मिथ्या मान्यता को हठाग्रहवश पकड़े रखोगे, तो बाद में तुम्हें उसी तरह पछताना पड़ेगा, जिस तरह सोना आदि बहुमूल्य धातुएँ छोड़कर हठाग्रहवश सिर्फ लोहा पकड़े रखने वाले लोहवणिक को बहुत पछताना पड़ा था। सावधान ! इस मिथ्याछलना के चक्कर में पड़कर अपना अमूल्य जीवन बर्बाद मत करो ! अन्यथा तुम्हें बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ेगी। 232 वी गाथा में शास्त्रकार इस कुमान्यता के शिकार दुराग्रही व्यक्ति को इसके दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं-आप लोग जब इस कुमान्यता की जिद्द पकड़ लेते हैं तो एकमात्र वैषयिक सुख के पीछे हाथ धोकर पड़ते हैं, तब अपने लिए आप विविध सुस्वादु भोजन बनवाकर या स्वयं पचन-पाचन के प्रपंच आदि में, आलीशान भवनों के बनाने, सुखसाधनों को जुटाने आदि की धुन में अहिंसा महाव्रत को ताक में रख देते हैं, बात-बात में जीवहिंसा का आश्रय लेते हैं। स्वयं को प्रजित एवं भिक्षाशील कहकर गृहस्थों का सा आचरण करते हैं, दम्भ दिखावा करते हैं, यह असत्य भाषण में प्रवृत्त होते हैं। सुखवृद्धि के लिए नाना प्रकार के सुख साधनों को जुटाते हैं, हाथी, घोड़ा, ऊँट, जमीन, आश्रम आदि 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 16-17 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 230 से 232 अपने स्वामित्व में रखते हैं, उन पर ममत्व करके आप परिग्रह-सेवन भी करते हैं। सुख प्राप्ति की धुन में रति-याचना करने वाली ललना के साथ काम-सेवन भी कर लेना सम्भव है / और सुख साधन आदि जुटाने की धुन में आप दूसरे के अधिकार को हरण एवं बेईमानी भी कन्ते हैं। यों सर्व प्रसिद्ध पाँचों पापाश्रवों में आप बेहट के प्रवृत्त होते हैं। फिर भला आपको संयमी कौन कहेगा / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- “पाणाइवाते." परिग्गहे" 'सुख से सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार की मिथ्या मान्यता के कारण बौद्ध भिक्षुओं में पूर्णरूप से शिथिलाचार त्याप्त हो गया था, वे हिंसा आदि पांचों पापों में प्रवृत्त हो गये थे। शास्त्रकार द्वारा प्रतिपादित उक्त पांचों पापों का वौद्ध भिक्षुओं पर आक्षेप थेरगाथा में अंकित वर्णन से यथार्थ सिद्ध हो जाता है। थेरगाथा में यह भी शंका व्यक्त की गई है कि यदि ऐसी ही शिथिलता बनी रही तो बौद्ध शामन विनष्ट हो जाएगा। आज भिक्षुओं में ये पाप वासनाएँ उन्मत्त राक्षसों-मी खेल रही हैं। बासनाओं के बम होकर वे सांसारिक विषय भोगों की प्राप्ति के लिए यत्र-तत्र दौड़ लगाते हैं / असद्धर्म को श्रेष्ट मानते हैं / भिक्षा के लिए कुकृत्य करते हैं। वे सभी शिल्प सीखते हैं / गृहस्थों के समान आजीविका करते हैं / वे भिक्षु औषधों के विषय में वैद्यों की तरह, काम-धाम में गृहस्थों की तरह, विभूषा करने में गणिकावत् ऐश्वर्य में क्षत्रिय तुल्य हैं। वे धूर्त हैं, प्रवचक हैं, ठग हैं, असंयमी हैं। वे लोभवश धन संग्रह करते हैं, स्वार्थ के लिए धर्मोपदेश देते हैं. संघ में संघर्ष करते हैं आदि / 57 शिथिलाचारी बौद्धों के जीवन का यह कच्चा चिट्ठा बताता है कि एक मिथ्यामान्यता का उपसर्ग साधक को कितना विचार भ्रष्ट कर देता है। पाठातर और पटिन इ.ब्दों की व्याख्या-जे तत्थ आरियं मम परमं च समाहियं - वत्तिकार के अनुसार उस मोक्ष विचार के अवसर पर आर्यमार्ग (जैनेन्द्र प्रतिपादित मोक्ष मार्ग) जो परम समाधि युक्त (ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक) है, उसे जो कई (शाक्यादि) अज्ञ छोड़ देते हैं, वे सदा संसावशवर्ती होते हैं। चाणकार ने जितस्थ आययिं गं परमं च समाधिता पाठान्तर मान कर अर्थ किया है--जिता नाम दुःख प्रव्रज्या कुर्वाणा अपि न मोरं गच्छत वयं सुखेनैव मोक्ष गच्छाम इत्यतो भवन्तो जिता: तेनास्मदीयार्यमार्गेण परमं ति समाधित्ति मनःसमाधिः परमा असमाधीए शारीरादिना दुःखेनेत्यर्थः' जिता कहते हैं-दुःखपूर्वक प्रव्रज्या करते हए, मोक्ष नहीं जा सकते हए भी हम सुखपूर्वक मोक्ष चले जाएँगे, इस प्रकार आप जित हैं, उस हमारे आर्य मार्ग से होने वाली मन:समाधि (को छोड़कर) शारीरिक दुःख से असमाधि (प्राप्त करते हैं)। इहमेगे उ भासंति= दार्शनिक क्षेत्र में कई कहते हैं / वहीं 'भासंति' के वदले 'मन्नति' पाठ है। उसका अर्थ 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66.67 17 (क) देखिये थेरगाथा में अंकित बौद्ध साधुओं की पापाचार प्रवत्ति का निey-...-. ..."भेसज्जेसू यथा वेज्जा, किच्चाकिच्चे यया गिही / गणिका व विभुसाय, इस्सरे खत्तिओ यथा / नेकनिका वचनका यूटसक्खा अपाटुका है बहूहि परिकप्पेहि आमिसं परिभुञ्जरे / (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखवोधिनी व्याख्या टिप्पण पु० 483 -थेरगाथा ह३८-९९६ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-- उपसर्गपरिज्ञा होता है-मानते हैं / 'मन्नंति' पाठ मान्यता को सूचित करता है, इसलिए यह अधिक सगत प्रतीत होता है। अनुकूल कुत्तर्क से वासना तृप्ति रूप सुखकर उपसर्ग 233. एवमेगे तु पासत्था पण्णवेति अणारिया। इत्थीवसं गता बाला जिणससाणपरम्मुहा / / 6 / / 234. जहा गंडं पिलागं वा परिपोलेज्ज मुहत्तगं / एवं विष्णवणित्थीसु दोसो तत्थ कुतो सिया ? // 10 // 235. जहा मंधादए नाम थिमितं भुजती दगं / एवं विण्णवणित्थोसु दोसो तत्थ कुतो सिया ? // 11 // 236. जहा विहंगमा पिंगा थिमितं भुजती दगं / एवं विष्णवणित्थीसु दोसो तत्थ कुतो सिया ? // 12 // 237. एवमेगे उ पासत्था मिच्छादिट्ठो अणारिया / अज्झोक्वन्ना कामेहिं पूतणा इव तरुणए / 13 / / 233 स्त्रियों के वश में रहे हुए अज्ञानी जिनशासन से पराङ मुख अनार्य कई पाशस्थ या पार्श्वस्थ इस प्रकार (आगे की गाथाओं में कही जाो वाली बातें) कहते हैं : 234. जैसे फुसी या फोड़े को दबा (-कर उसका मवाद निकाल) दे तो (एक) मुहूर्त में हो (थोड़ो देर में ही) शान्ति हो जाती है, इसी तरह समागम की प्रार्थना करने वालो (युवती) स्त्रियों के साथ (समागम करने पर थोड़ी ही देर में शान्ति हो जाती है।) इस कार्य में दोष कैसे हो सकता है ? 235. जैसे मन्धादन-भेड़ बिना हिलाये जल पी लेती है, इसी तरह (किसी को पीड़ा दिये बिना) रति प्रार्थना करने वाली युवती स्त्रियों के साथ (सहवास कर लिया जाए तो) इसमें (कोई) दोष कैसे हो सकता है ? 236. जैसे पिंगा नामक पक्षिणी बिना हिलाये पानी पी लेती है, इसी तरह कामसेवन के लिए प्रार्थना करने वाली तरुणी स्त्रियों के साथ (समागम कर लिया जाए तो) इस कार्य में क्या दोष है ? 236. पूर्वोक्त रूप से मैथून-सेवन को निर्दोष-निरवद्य मानने वाले कई पाशस्थ (पावस्थ) मिथ्यादृष्टि हैं, अनार्य हैं; वे काम-भोगों में वैसे ही अत्यासक्त हैं, जैसे पूतना डाकिनी (दुधमुंहे) बच्चों पर आसक्त रहती है। 18 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66-67 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 41 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक पाया 233 से 237 235 विवेचन--समागम प्रार्थना पर स्त्री समागम निर्दोष : एक मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग-प्रस्तुत पाँच सूत्र गाथाओं में एक ऐसे अनुकूल उपसर्ग का विश्लेषण किया गया है, जो अत्यन्त भयंकर हेत्वाभासों द्वारा कुतकं देकर वासना तृप्ति रूप सुखकर एवं अनुकूल उपसर्ग के रूप में उपपन्न किया गया है। ऐसे भयंकर अनुकूल उपसर्ग के शिकार कौन ?-सूत्र गाथा 233 में इस भयंकर मान्यता के प्ररूपक तथा इस उपसर्ग से पीड़ित कौन और कैसे हैं ? इसका संक्षेप में परिचय दिया गया है। प्रस्तुत सूत्र गाथा में उनके लिये 5 विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं--(१) पाशस्थ या पार्श्वस्थ, (2) अनार्य, (3) स्त्रीवसंगत, (4) वाल और (5) जिनशासनपराङ्मुख / ____एगे-- वत्तिकार ने 'एगे' पद की व्याख्या करते हुए मान्यता के प्ररूपक एवं इस उपसर्ग के शिकार प्राणातिपात आदि में प्रवृत्त नीलवस्त्रधारी विशिष्ट बौद्ध साधकों, अथवा नाथवादिक मण्डल में प्रविष्ट शैवसाधक विशेषों तथा जैन संघीय ऐसे कुशील एवं पाश्वस्थ श्रमणों को बताया है। उन्हें 'पासत्या' आदि कहा गया है / इन सब का अर्थ इस प्रकार हैं-(१) पासत्या-इसके दो रूप संस्कृत में बनते हैं-पार्श्वस्थ और पाशस्थ / प्रथम पाश्वस्थ रूप का अर्थ है--जिसका आचार-विचार शिथिल हो। शीलांकाचार्य ने इनमें नीलवस्त्रधारी विशिष्ट बौद्ध-साधकों एवं नाथवादी सम्प्रदाय के शैव साधकों को भी समाविष्ट किया है। इन्हें पाश्वस्थ इसलिए भी बताया है कि ये उत्तम अनुष्ठान से दूर रहते थे, कुशील सेवन करते थे, स्त्री परीषह से पराजित थे। पाशस्थ इसलिए बताया है कि ये स्त्रिया के मोहपाश में फंसे हुए थे। अगारिया-- ये अनार्य कर्म करने के कारण अनार्य हैं। अनार्य कर्म हैं -हिंसा, असत्य, चोरी-ठगीबेईमानी, मैथुन सेवन एवं परिग्रह / पिछली सूत्रगाथा 232 में तथा उसके टिप्पण में थेरगाथा के प्रमाण देकर तथाकथित बौद्ध साधकों के हिंसादि में प्रवृत्त होना सिद्ध कर आए हैं। इसीलिए उन्हें अनार्य कहा है। इत्थीयसंगा-जो तरुण कामिनियों की गुलामी करते हों, जो उनके मोहक जाल में फंसकर उनके वशवर्ती बन गये हों, वे स्त्री वंशगत हैं। स्त्रियों के वे कितने अधिक गुलाम थे? यह उन्हीं के शब्दों में देखिये-- प्रिया दर्शनमेवाऽस्तु किमन्यैर्दशनान्तरः / प्राप्यते येन निर्वाणं सरागणाऽपि चेतसा / / "मुझे प्रिया का दर्शन होना चाहिए, फिर दूसरे दर्शनों से क्या प्रयोजन ? क्योंकि प्रिया दर्शन से सराग चित्त होने पर भी निर्वाण-सुख प्राप्त होता है।' बाला---अध्यात्म जगत् में बाल वे हैं- जो अपने हिताहित से अज्ञ हों, जो हिंसादि पापकर्म करने की नादानी करके अपने ही विनाश को निमन्त्रण देते हों, जो बात-बात में रोष, द्वेष, ईर्ष्या, मोह, कषाय आदि से उत्तेजित हो जाते हैं / 16 16 (क) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भा० 1, पृ० 144 (ख) सूबगडंग सुत्त, मूलपाठ टिप्पण युतं, प्रस्तावना, पृ० 16 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग -तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजर _ जिणसासण परम्मुहा' -- राग-द्वेष विजेता जिन कहलाते हैं, उनका शासन है-उनकी आज्ञा--कषाय, मोह और राग-द्वेष को उपशान्त करने की आज्ञा से विमुख-अर्थात् - संसाराभिसक्त तथा जैनमार्ग को कठोर समझकर उससे घृणा, द्वेष करने वाले जिनशासन पराङ्मुख कहलाते हैं। काम-भोगों में अत्यासक्त-सुत्रगाथा 237 में इन भ्रष्ट साधकों को, फिर वे चाहे जैन श्रमण ही क्यों न हों, उन्हें पाशस्थ, मिथ्यादृष्टि एवं अनायं बताया गया है। और कहा गया है कि पिशाचिनी पूतना जैसे छोटे बच्चों पर आसक्त रहती है, वैसे ही ये मिथ्यात्वी अनार्य एवं पाशस्थ तरुणियों के साथ कामभोगों के सेवन में अत्यधिक आसक्त रहते हैं। शास्त्रकार कहते हैं- "त्वमेग उपूतणा इव तरुणए।" चणिकार 'पूयणा व तण्णए' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते है --- ''यणा नाम औरणीया, तस्या अतीव तण्णगे छावके स्नेहः / " 'पूयणा' कहते हैं-भेड़ को, उसका अपने बच्चे पर अत्यधिक स्नेह (आसक्ति) रहता है। वृत्तिकार ने एक उदाहरण देकर इसे सिद्ध किया है --- "एक बार अपनी सन्तान पर पशुओं की आसक्ति की परीक्षा के लिए सभी पशुओं के बच्चे एक जल रहित कुंए में रख दिये गए। उसी समय सभी मादा पशु अपने-अपने बच्चों की आवाज सुनकर कुए के किनारे आकर खड़ी हो गई। परन्तु भेड़ अपने बच्चों की आवाज सुनकर उनके मोह में अन्धी होकर कुए में कूद पड़ी। इस पर से समस्त पशुओं में भेड़ की अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक आसक्ति सिद्ध हो गई।" इसी तरह पूर्वोक्त भ्रान्त मान्यताओं के शिकार साधक कामभोगों में अत्यन्त आसक्त होते हैं।" जहा गंडं पिलागं वा....."को सिया? ---प्रथम अज्ञानियों की मायता- यह है कि जैसे किसी के शरीर में फोड़ा-फुसी हो जाने पर उसकी पीड़ा शान्त करने के लिए उसे दवा कर मवाद आदि निकालने से थोड़ी ही देर में उसे सुख-शान्ति हो जाती है, ऐसा करने में कोई दोष नहीं माना जाता; वैसे ही कोई युवती अपनी काम-पीड़ा शान्त करने के लिए समागम की प्रार्थना करती है तो उसके साथ समागम क रके उसकी काम-पीड़ा शान्त करने में दोष ही क्या? दोष तो बलात्कार में होता है। जहा मधादए ... को सिया? दूसरे अज्ञानियों को मान्यता-जैसे भड़ घुटनों को पानी में झुका कर पानी को गंदा किये, या हिलाए बिना ही स्थिरतापुर्वक धीरे से चुपचाप पानी पीकर अपनी तृप्ति कर लेती है, उसकी इस चेष्टा से किसी जीव को पीड़ा नहीं होती, इसी प्रकार सम्भोग की प्रार्थना करने वाली नारी के साथ सम्भोग करने से किसी जीव को कोई पीड़ा नहीं होती और उसकी व अपनी कामतृप्ति हो जाती है, इस कार्य में दोष ही क्या है ? जहा विहंगमा पिंगा...."को सिया?-तीसरे अज्ञानियों की मान्यता-जैसे कपिजल नाम की चिडिया आकाश में ही स्थित रहकर दूसरे अगों द्वारा जलाशय के जल को हुए विना या हिलाये बिना केवल अपनी चोंच की नोक से जलपान कर लेती है, उसका जलपान जीवघात एवं दोष से रहित है / इसी प्रकार किसी नारी द्वारा समागम प्रार्थना किये जाने पर कोई पुरुष रागद्वे परहित बुद्धि से, उस स्त्री के अन्य अगों को कुशा से ढक कर न छूते हुए सिर्फ पुत्रोत्पत्ति के उद्देश्य से (काम के उद्देश्य से नहीं) 20 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 67 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुबोधिनी व्याख्या पृ० 485.486 ९वं 461 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 233 से 237 237 ऋतुकाल में उसके साथ समागम करता है, तो उसमें उसे कोई दोष न होने से उसके तथारूप मैथुन सेवन में दोष नहीं है / 21 ___ खण्डन- इन तीनों गाथाओं में तथाकथित पावस्थों की तीनों मान्यताओं का मूल स्वर एक ही है-'रति-प्राथिनी स्त्री के साथ समागम निर्दोष है जिसे प्रत्येक गाथा के अन्त में दोहराया गया है"एवं विष्णवणित्योसु दोसो तत्य कुतो सिया ? ये तीनों मान्यताएं मिथ्या एवं सदोष : क्यों और कैसे ?- विद्वान् नियुक्तिकार तीन गाथाओं द्वारा इस मिथ्या मान्यता को बहुत बड़ा उपसर्ग ध्वनित करते हुए इसका खण्डन करते हैं--(१) जैसे कोई व्यक्ति तलवार से किसी का सिर काट कर चुपचाप कहीं छिप कर बैठ जाए तो क्या इस प्रकार उदासीनता धारण करने से उसे अपराधी मान कर पकड़ा नहीं जाएगा ? (2) कोई मनुष्य यदि विष की पूंट पीकर चुपचाप रहे या उसे कोई पीते देखे नहीं, इतने मात्र से क्या उसे विषपान के फलस्वरूप मत्यु के मुंह में नहीं जाना पड़ेगा ? (3) यदि कोई किसी धनिक के भण्डार से बहुमूल्य रत्न चुरा कर पराङ्मुख होकर चुपचाप बैठ जाए तो क्या वह चोर समझ कर पकड़ा नहीं जाएगा? तात्पर्य यह है कि कोई मनुष्य मूर्खतावश या दुष्टतावश किसी की हत्या करके, स्वयं विषपान किसी की चोरी करके मध्यस्थ भाव धारण करके बैठ जाए तो वह निर्दोष नहीं हो सकता। दोष या अपराध करने का विचार तो उसने कुकृत्य करने से पहले ही कर लिया, फिर उस कुकृत्य को करने में प्रवत्त हआ, तब दोष-संलग्न हो गया, तत्पश्चात उस दोष को छिपाने के लिए वह उदासीन होकर या छिपकर एकान्त में बैठ गया, यह भी दोष ही है / अतः दोष तो कुकृत्य करने से पूर्व, कुकृत्य करते समय और कुकृत्य करने के पश्चात् यों तीनों समय है / फिर उसे निर्दोष कैसे कहा जा सकता है ? इसी तरह कोई व्यक्ति किसी स्त्री की मैथुन सेवन करने की प्रार्थना मात्र से उसके साथ मैयुन में उस कुकृत्य में प्रवृत्त हो जाता है तो उस रागभाव रूप पाप का विचार आए बिना नहीं रहेगा तत्पश्चात् मैथुन क्रिया करते समय भी तीव्र रागभाव होना अवश्यम्भावी है। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए मैथुन-सेवन वजित है, क्योंकि यह महादोषोत्पत्ति स्थान है / 22 अतः राग होने पर ही उत्पन्न होने वाला, समस्त दोषों का स्थान, हिंसा का कारण एवं संसार 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 67-68 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 487-488 (ग) देखिये उन्हीं के धर्मशास्त्र में लिखा है--- धर्मार्थ पुत्रकामाय स्वदारेस्वधिकारिणे / ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते / / 22 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 53.54-55 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 18 मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहणसंसगं निग्गथा वज्जयंति णं / / -दशवकालिक 6 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन---उपसर्गपरिज्ञा भ्रमणवर्द्ध क मैथुनसेवन--चाहे वह स्त्री-पुरुष दोनों की इच्छा से ही क्यों न हो, कथमपि निर्दोष नहीं हो सकता। कठिन शब्दों की व्याख्या-विग्णवणीत्थीसु--स्त्री की विज्ञापना-समागम प्रार्थना होने पर / मंधादए-- मन्धादन-भेड़ / थिमित-हिलाए बिना-स्थिरतापूर्वक / भुजती-उपभोग करती है, पीती है। चूर्णिकार 'पियति' पाठान्तर माना है / पिंगा विहंगमा-कपिजल नामक आकाशचारी पक्षिणी 24 कौन पश्चाताप करता है, कौन नहीं ! 238. अणागयमपस्संता पच्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति खोणे आउम्मि जोव्वर्ण // 14 // 236. जेहि काले परक्कतं न पच्छा परितप्पए / ते धोरा बंधणुमुक्का नावखंति जीवियं / / 15 / / 238. भविष्य में होने वाले दुःख को न देखते हुए जो लोग वर्तमान सुख के अन्वेषण खिोज) में रत रहते हैं, वे बाद में आयु और युवावस्था क्षीण (नष्ट) होने पर पश्चात्ताप करते हैं / 236. जिन (आत्महितकर्ता) पुरुषों ने (धर्मोपार्जन-) काल में (समय रहते) धर्माचरण में पराक्रम किया है, वे पीछे पश्चात्ताप नहीं करते। बन्धन से उन्मुक्त वे धीरपुरुष असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते। विवेचन-कौन पश्चात्ताप करते हैं, कौन नहीं ?-- इस गाथादन (स० गा० 238, 236) में पूर्वोक्त उपसर्गों के सन्दर्भ में यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति पश्चात्ताप करते हैं, कौन नहीं करते--(१) जो वर्तमान में किये हुए दुष्कृत्यों से अथवा काम-भोग सुखासक्ति से भविष्य में प्राप्त होने वाले दुःखरूप कुफल का विचार नहीं करते, (2) दूरदर्शी न होकर केवल वर्तमान सुख की तलाश में रहते हैं / ये मात्र प्रयोवादी लोग यौवन और आयु ढल जाने पर पश्चात्ताप करते हैं, परन्तु (1) जो श्रेयोवादी दूरदर्शी लोग धर्मोपार्जन काल में धर्माचरण में पुरुषार्थ करते हैं, (2) जो वर्तमान कामभोगजनित क्षणिक सुख के लिए असंयमी जीवन जीना नहीं चाहते, (3) जो परीषह-उपसर्ग सहन करने में धीर हैं, और (4) जो स्नेहबन्धन या कर्मबन्धन से दूर रहते हैं, वे पश्चात्ताप नहीं करते। पश्चात्ताप करने का कारण और निवारण- जो व्यक्ति पूर्वोक्त भ्रान्त मान्यताजनित उपसों के शिकार 23 प्राणिनां बाधक चतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः / / नलिका तप्त कणकप्रवेशज्ञाततस्तथा // 1 // मूलं चैतदधर्मस्य भवभावप्रवर्धनम् / तस्माद् विषान्नवट त्याज्यमिदं पायमनिच्छता // 2 // 24 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 67.68 25 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा०२ पृ. 60-61 का सारांश Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 . चतुर्थ उद्देशक : गाथा 240 से 241 होकर वैषयिक सुखों में और कामजनित सुखों में संलग्न हो जाते हैं, उक्त सुखों की पूर्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, टगी, कामासक्ति और परिग्रह आदि दुष्कर्मों को निःसंकोच होकर करते हैं। उन दुष्कर्मों को करते समय भविष्य में उनके दुष्परिणाम के रूप में नरक एवं तिर्यञ्च में मिलने वाली यातनाओं का कोई विचार नहीं करते। जिनकी दृष्टि केवल वर्तमान के क्षणिक वैषयिक एवं कामजन्य सुखों की प्राप्ति में टिकी रहती है। काम-भोगों के सेवन से जव सारा शरीर जर्जर हो जाता है, शक्तिक्षीण हो जाती है, कोई न कोई रोग आकर घेर लेता है, इन्द्रियाँ काम करने से जवाब दे देती हैं, यौवन ढल जाता है, बुढ़ापा आकर झांकने लगता है, मृत्यु द्वार पर दस्तक देने लगती है, तब वे अत्यात पछताते हैं - अपसोस ! हमने अपना बहुमृत्य जीवन यों ही बर्बाद कर दिया, कुछ भी धर्माचरण न कर सका, संसार की मोहमाया में उलझा रहा, साधुवेष धारण करके भी लोक वंचना की। एक जैनाचार्य ने उनके पश्चात्ताप को इन शब्दों में व्यक्त किया है- "मैंने मनुष्य जन्म पाकर अच्छे कामों को नहीं अपनाया-सदाचरण नहीं किया, यों मुट्टियों से आकाश को पीटता रहा और चावलों का भुस्सा कूटता रहा। ___ “वास्तव में वैभव के नशे में, यौवन के मद में जो कार्य नहीं करने चाहिए, वे किये। किन्तु जव उम्र ढल जाती है और वे अकृत्य याद आते हैं, तब हृदय में वे कांटे-से खटकने लगते हैं।' इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-'अणागयमपस्संता "खीणे आउम्मिजोब्बणे / किन्तु जो विवेक सम्पन्न पुरुष समय पर पराक्रम करते हैं, धर्म पुरुषार्थ को मुख्य रखकर प्रवृत्ति करते हैं, एक क्षण भी धर्म रहित होकर असंयम या अधर्म में नहीं खोते, जो विघ्न बाधाएँ, विपत्तियाँ आने पर भी धर्माचरण नहीं छोड़ते, धैर्यपूर्वक परीषह-उपसर्ग को सहन करते हैं, इहलौकिक, पारलौकिक काम-भोगों या विषय सुखों की वांछा नहीं करते, स्नेहबन्धन में फंसाने के चाहे जितने अनुकूल उपसर्ग हो, वे स्नेहबन्धन से उन्मुक्त रहते हैं, वे असयमी जोबन जीने की वांछा कदापि नहीं करते इसीलिए वे कर्म विदारण करने में समर्थ धीर रहकर तपस्या में रत रहते हैं। ऐसे जीवन-रण से निःस्पृह संयमानूठान में दत्तचित्त पुरुष यौवन पार होने के वाद बुढ़ापे में पश्चात्ताप नहीं करते। शास्त्रकार कहते हैं-जेहि काले "मावखंति जीवियं / नारी-संयोग रूप, उपसर्ग : दुस्कर, दुष्तर एवं सुतर ! 240. जहा नदो वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता / एवं लोगसि नारीओ दुत्तरा अमतीमता // 16 // 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० 462 से 464 तक "हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कण्डनं कृतम् / यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थ नादरः कृतः // " "विहवावलेवन डिएहि जाई कीरति जोवण मएणं / वयपरिणामे सरियाई ताई हिआए खुडुक्कंति // " Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गवरिज्ञा 241. जेहिं नारीण संजोगा पूयणा पिटुतो कता। सवमेयं निराकिच्चा ते ठिता सुसमाहिए // 17 // 240. जैसे वैतरणी नदी दुस्तर मानी गई है, इसी तरह इस लोक में कामिनियाँ अमतिमान (अविवेकी) साधक पुरुष के लिए दुस्तर मानी हैं। 241. जिन साधकों ने स्त्रियों के संसर्ग तथा पूजना (काम-विभूषा) से पीठ फेरली है, वे साधक इन समस्त उपसर्गों को निराकृत (पराजित) करके सुसमाधि (स्वस्थ चित्तवृत्ति में स्थित रहते हैं। विवेचन-स्त्रीसंसगरूप उपसर्ग : किसके लिए दुस्तर किसके लिए सुतर ?-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में से प्रथम गाथा में अविवेकी के लिए स्त्री संगरूप उपसर्ग दुस्तर बताया गया है जबकि द्वितीय गाथा में स्त्री संसर्ग एवं कामविभूषा के त्यागी साधकों को स्त्रीसंगरूप भयंकर उपसर्ग ही नहीं, अन्य समस्त उपसर्ग सुतर-सुजेय हो जाते हैं / 27 स्त्री संगरूप उपसर्ग कितना और कैसा दुस्तर ? - जैसे नदियों में वैतरणी नदी अत्यन्त प्रबल वेगवाली एवं विषमतट वाली होने से अतीव दुस्तर या दुर्लध्य मानी जाती है, वैसे ही पराक्रमहीन अविवेकी साधक के लिए स्त्री संसर्ग रूप उपसर्गनद का पार करना अत्यन्त दुस्तर है। बल्कि जो साधक विषय-लोलुप काम-भोगासक्त एवं स्त्रीसंग रूप उपसर्ग से पराजित हो जाते हैं. वे अंगारों पर पडी हई मछली की तरह कामराग, दृष्टिराग एवं स्नेहराग रूपी आग में जलते-तड़पते हुए अशान्त-असमाधिस्थ रहते हैं। इसी कारण बड़े-बड़े पहुंचे हुए साधकों के लिए भी स्त्री संग पर विजय पाना कठिन है / वे अपने आपको पहुँचे हुए पुराने साधक समझ कर इस अनुकूल स्त्रीसंगरूप उपसर्ग से असावधान रहते हैं, वे कामिनियों के कटाक्ष के आगे पराजित हो जाते हैं। वे चाहे शास्त्रज्ञ, प्रवचनकार, विद्वान् एवं क्रियाकाण्डी क्यों न हों, अगर वे इस उपसर्ग के आते ही तुरन्त इससे सावधान होकर नहीं खदेड देंगे तो फिर यह उपसर्ग उन पर भी हावी हो जाएगा। किसी अनुभवी ने ठीक ही कहा है सन्मार्गे तावदास्ते प्रभावति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणाम, लज्जा तावविधत्त, विनयमपि समालम्बते तावदेव / म चापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्षमाणा एते. यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति / / पुरुष तभी तक सन्मार्ग पर टिकता है, इन्द्रियों पर भी तभी तक प्रभुत्व (वश) रखता है, लज्जा भी तभी तक करता है, एवं विनय भी तभी तक करता है. जब तक स्त्रियों द्वारा भ्रकुटि रूपी धनुष को कान तक खींचकर चलाये हुए नीलीननियों वाले दष्टिबाण उस पर नहीं गिरे। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- 'जहा नदी वेयर णो दुत्तरा अमतीमता / ' 27 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 के आधार पर Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 242 से 246 241 यह तो बहुत ही असम्भव-सा है कि साधक के साथ स्त्रियों का बिलकुल ही सम्पर्क न हो, भिक्षाचरी, उपाश्रय-निवास, प्रवचन आदि अवसरों पर स्त्री सम्पर्क होता है, परन्तु जो साधक सावधान एवं मोक्ष मार्ग की साधना में दृढ़ रहता है, वह स्त्री सम्पर्क होने पर भी स्त्रियों के प्रति मोह, आसक्ति, मन में काम-लालसा, कामोत्तेजना या कामोत्तेजक वस्त्राभूषणादि या शृगार-साज-सज्जा आदि को अनर्थकर तथा परिणाम में कटुफल वाले समझकर इनसे बिलकुल दूर रहता है, स्त्री-संगरूप उपसर्ग के आते ही तुरन्त सावधान होकर उससे पीठ फेर लेता है, मन में जरा भी काम सम्बन्धी विकार नहीं लाता, वह स्त्रीसंगरूप उपसर्ग को तो पार कर ही जाता है, अन्य अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। ऐसे उपसर्ग विजेता साधक किसी भी प्रकार के उपसगों के समय न तो क्षुब्ध होते हैं। न ही उन्हें अपने पर हावी होने देते हैं, न ही अपने धर्मध्यान या चित्त समाधि का त्याग करते हैं, बल्कि वे साधक सुसमाधि में स्थिर रहते हैं / यही बात शास्त्रकार करते हैं --"हि नारीणठिया सुसमाहिए।८।। कठिन शब्दों की व्याख्या--पूयणा-वृत्तिकार के मतानुसार-पूजना=कामविभूषा, चूर्णिकार के अनुसार-'यूयणा =शरीर पूजना, अथवा पूतनाः- “पातयन्ति धर्मात पासयंति वा चारित्रमिति पूतना:पूतीकुर्वन्तीत्यर्थः' अर्थात्-पूयणा के तीन अर्थ फलित होते हैं--(१) शरीर पूजना-शारीरिक मण्डन विभूषा, अथवा (2) पूतना जो धर्म से पतित करती हो, वह पूतना है, अथवा (3) जो चारित्र को गन्दा (मलिन) करती हो वह पूतना है / पितो कता परित्यक्त त्यर्थः, परित्याग कर दिया है / उपसर्ग-विजेता साधु : कौन और कैसे ? 242. एते ओघ तरिस्संति समुई व ववहारिणो / जत्थ पाणा विसण्णा सं कच्चंती सयकम्मुणा / / 18 / / 243. तं च भिवखू परिण्णाय सुन्वते समिते चरे। मुसावायं विवज्जेज्जाऽदिण्णादाणाइ वोसिरे // 16 // 244. उड्महे तिरियं वा जे केई तस-थावरा / सम्वत्य विरति कुज्जा संति निव्वागमाहितं // 20 // 245. इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं / कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिते / / 21 / / 246. संखाय पेसलं धम्म दिठ्ठिमं परिनिव्वुडे / उवसग्गे नियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि // 22 // त्ति बेमि / / 28 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 465.466 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 43 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा 242. ये (अनुकल-प्रतिकूल-उपसर्ग-विजेता पूर्वोक्त साधक) (दुस्तर) संसार को भी पार लेंगे, जैसे समुद्र के आश्रय से व्यापार करने वाले (वणिक् ) समुद्र को पार कर लेते हैं, जिस संसार (समुद्र) में पड़े हुए प्राणी अपने-अपने कर्मों से पीड़ित किये जाते हैं / 243. भिक्षु उस (पूर्वोक्त अनुकूल-प्रतिकूल-उपसर्ग-समूह को जानकर (ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उससे मुक्त रह कर) उत्तम ब्रतों से युक्त तथा पंच समितियों से सहित रह कर विचरण करे, मृषावाद (असत्य) को छोड़ दे, और अदत्तादान का व्युत्सर्ग (मन-वचन-काया से त्याग) कर दे। 244. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक) में जो कोई बस-स्थावर प्राणी हैं, उनके नाश (वध) से विरति (निवृत्ति) कर लें। (ऐसा करने से) शान्तिरूप निर्वाणपद की प्राप्ति कही गई है। 245. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म को स्वीकार करके समाधियुक्त भिक्षु अग्लान भाव से ग्लान साधु की वैयावृत्त्य (सेवा) करे। 246. सम्यम्-दृष्टि सम्पन्न एवं परिनिर्वृत (प्रशान्त) साधक (मुक्ति प्रदान करने में) कुशल इस धर्म को सम्यक प्रकार से जानकर उपसर्गों पर नियन्त्रण (विजय प्राप्त करता हआ मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम में पराक्रम (पुरुषार्थ) करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- उपसर्गविजेता साधु : कौन और कैसे ?-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में उपसर्ग विजेता साधक की योग्यता, प्रतिफल और कर्तव्य का निर्देश किया गया हैं / उपसर्गविजेता के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से यहाँ अध्ययन का उपसंहार करते हुए विचार किया गया है- (1) उपसर्गबिजेता साधक स्वकर्म पीड़ित संसार-सागर को सामुद्रिक व्यवसायी की तरह पार कर लेते हैं, (2) पूर्वगाथाओं में उक्त उपसर्गों को जानकर उनसे बचे, (3) उत्तमव्रत धारक हो, (4) पंच समितियों से युक्त हो, 5) मृषावाद का परित्याग करे, (6) अदत्तादान का त्याग करे, (7) समस्त प्राणियों की हिंसा से विरत हो, (8) शान्ति ही निर्वाण प्राप्ति का कारण है, (9) भगवान् महावीर द्वारा प्रज्ञप्त धर्म का स्वीकार करे, (10) ग्लान साधु की अग्लान भाव से सेवा करे, (11) मुक्ति प्रदान-कुशल धर्म को पहचाने-परखे, (12) सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न हो, (13) राग-द्वेष, कषाय आदि से परिशान्त हो, (14) उपसर्गों के आने पर शीघ्र नियन्त्रण में करे, और (15) मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम में निष्ठापूर्वक पराक्रम करे। उपसर्गविजेता बनने के लिए पहला कदम-संसार-सागर को पार करना बड़ा कठिन है, संसार तभी पार किया जा सकता है, जबकि कर्मों का सर्वथा क्षय हो। कर्मों का क्षय करने के लिए पूर्वगाथाओं में उक्त अनुकूल और प्रतिकूल समस्त उपसर्गों पर विजय पाना आवश्यक है। जो मोक्षयात्री साधक इन समस्त उपसर्गों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे बहुत आसानी से उसी तरह संसार-समुद्र को धर्मरूपी या संयमरूपी जहाज से पार कर लेते हैं, जिस तरह सामुद्रिक व्यापारी समुद्र की छाती पर माल से लदी अपनी जहाजे चला कर लवण समुद्र को पार कर लेते हैं / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- एते 30 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित, भा॰ 2, पृ० 14 से 66 तक का सारांश Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 242 से 246 ओघ तरिस्संति "सयकम्मुणा / ' परन्तु जो दुस्तर नारी-संगरूपी उपसर्ग पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, वे स्त्रकृत असाता वेदनीय रूप पापकर्म के उदय से संसार-सागर को पार नहीं कर सकते, वे संसार में रहते हुए दुःख भोगते हैं। संसार उन्हीं के लिए दुस्तर है, जिनके लिए नारीसंग दुस्तर है। एक कवि ने कहा है "संसार ! तव दुस्तारपदवी न दवीयसी। अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदिरे ! मदिरेक्षणा // "31 "अरे संसार ! यदि बीच में ये दुस्तर नारियां न होती तो तेरी यह जो दुस्तार पदवी है, उसका कोई महत्त्व न होता !" यह उपसर्ग-विजयी साधक बनने के लिए पहला कदम है। दूसरा कदम --अनुकूल और प्रतिकूल जितने भी उपसर्गों का निरूपण पिछली सूत्रगाथाओं में किया गया है, उन्हें भली-भांति जाने / कौन-कौन-से उपसर्ग, कैसे-कैसे किस-किस रूप में आते हैं ? उन सबको ज्ञपरिज्ञा से अच्छी तरह समझ ले, तत्पश्चात् प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनसे सावधान होकर बचे, उन उपसर्गों के आते ही दृढ़तापूर्वक उन पर विजय पाए, उन्हें अपने पर हावी न होने दे। यह उपसर्ग विजेता के लिए द्वितीय कदम है, जिसके लिए शास्त्रकार ने कहा है-'तं व भिक्खू परिणाय / ' तीसरा कदम-उपसर्गविजयी बनने के लिए साधक को सुन्दर व्रतों (यम-नियमों) से युक्त होना आवश्यक है। शास्त्रकार ने भी कहा है-"सुव्वते "चरे।" 'चरे' क्रिया लगाने के पीछे आशय यह है कि साधक केवल महाव्रत या यम-नियम ग्रहण करके ही न रह जाए, उनका आचरण भी दृढ़तापूर्वक करे, तभी वह उपसर्गों पर सफलता से विजय पा सकेगा। चोया कदम-साधक को उपसर्गविजयी बनने के लिए पांच समितियों और उपलक्षण से तीन गुप्तियों का पालन करना आवश्यक है। अगर इनका अभ्यास जीवन में नहीं होगा तो साधु उपसर्गों के समक्ष टिक न सकेगा। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-'समिते चरे'। इस वाक्य से शास्त्रकार का आशय उत्तरगुणों के दृढ़तापूर्वक आचरण से है जबकि 'सुन्वते' शब्द से मूलगुणों का आचरण द्योतित किया गया है। पाँचवाँ, छठा और सातवां कदम-पूर्वोक्त कदम में महाव्रतों का विधेयात्मक रूप से आचरण करने का निर्देश था, किन्तु कई साधक वैसा करते हुए भी फिसल जाते हैं, इसलिए निषेधात्मक रूप से भी व्रताचरण करने हेतु यहाँ तीन निर्देशसूत्र है-(१) मुलावायं च वजिलज्जा, (2) अदिन्नादाणं च वोसिरे, और (3) सम्वत्थ विरति कुज्जा / अर्थात् ---उपसर्गों पर विजय पाने के लिए यह आवश्यक है कि साधक मृषावाद (असत्य) का मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से सर्वथा त्याग करे; इसी तरह अदत्तादान (चौर्यकर्म) का भी व्युत्सर्ग करे, साथ हो 'च' शब्द से मैयुनवृत्ति (अब्रह्मचर्य) और परिग्रहवृत्ति को भी सर्वथा छोड़े, और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है-जीव हिंसा से सर्वथा विरत होने की। अर्थात्- समस्त लोक और सर्वकाल में जो भी बस-स्थावर आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के 31 सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका, भा॰ 2, पृ० 185 में उद्धृत Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा प्राणी हैं, उनकी हिंसा किसी भी अवस्था में मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से नहीं करनी चाहिए। आठवाँ कदम - उपसर्ग-विजय के लिए साधक को सतत तपश्चर्या का अभ्यास हना चाहिए, ताकि वह स्वकृत कर्मों की आग को शान्त कर सके। भगवान् ने कर्माग्नि की शान्ति को ही निर्वाण प्राप्ति का कारण बताया है -'संति निव्वाण नाहियं / इसलिए उपसर्ग-विजयी के लिए कर्मरूप अनल की शान्ति को आठवां कदम बताया गया है। नौवाँ कदम-उपसर्ग-विजय के लिए भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुत-चारित्र रूप, मूलगुणउत्तरगुण रूप या क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म को दढ़तापूर्वक स्वीकार करना आवश्यक है। यहाँ क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म के स्वीकार का संकेत प्रतीत होता है, क्योंकि उपसर्ग-विजय के लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों का साधु जीवन में होना अनिवार्य है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं / ' वसा कदम-उपसर्ग-विजय के लिए अग्लान साधक को ग्लान (रुग्ण, अशक्त, वृद्ध आदि) साधु की परिचर्या (सेवा) अग्लान भाव से करना आवश्यक है / ग्लान साधु की सेवा करने में वह बेचैनी ग्लानि या झंझलाहट अनुभव न करे, प्रसन्नमन से, स्वय को धन्य एवं कृतकृत्य मानता हआ सेवा करे, तभी वह ग्लान-सेवा कर्म-निर्जरा का कारण बनेगी। ग्लान-सेवा का अवसर प्राप्त है। पर उससे जी चुराना, मुख मोड़ना या बेचैनी अनुभव करना, एक प्रकार का अरति परीषह रूप उपसर्ग है। ऐसा करना साधक की उक्त उपसर्ग से पराजय है / इसीलिए कहा गया - 'कुज्जा भिखू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए।" ग्यारह्वाँ कदम-उपसर्ग-विजयी के लिए यह भी आवश्यक है कि उस धर्म को भली-भांति परख ले पहिचान ले, जो मुक्ति प्रदान करने में (कमों से मुक्ति दिलाने में) कुशल हो। संसार में अनेक प्रकार के नित्य और नैमित्तिक धर्म प्रचलित हैं। कई दर्शन या मत तो अमुक कामना-वासनामूलक बातों को भी धर्मसंज्ञा देते हैं, कई अमुक (तथाकथित स्वमान्य शास्त्रविहित कर्मकाण्डों या सिर्फ ज्ञान ही धर्म बताते हैं, उसी के एक-एक अंग को मुक्ति का कारण बताते हैं, जबकि जैनदर्शन यह कहता है जिससे शुभ कर्म की वृद्धि हो, ऐसे सत्कर्म धर्म नही, पुण्य हैं। धर्म वही है--जिससे कर्मों का निरोध या कर्मक्षय होता हो। इस दृष्टि से न तो सिर्फ ज्ञान ही मोक्ष का कारण है. और न ही एकान्त चारित्र (क्रिया), किन्तु सम्यग्दर्शनपर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष के कारण हैं, ये तीनों ही जहाँ हो, वहीं धर्म है / अगर साधक धर्म को पहिचानने-परखने के मामले में गड़बड़ा जाएगा तो वह धर्म के नाम से धर्मभ्रम (पशुबलि, काम-प्रार्थी नारी समागम, कामनामूलक क्रियाकाण्ड आदि) को पकड़कर उपसर्गो की चपेट में आ जाएगा। इसीलिए उपसर्ग-विजय के लिए ग्यारहवाँ कदम बताया गया है-संखाय पेसलं धम्म / बारहवाँ कदम-अगर साधक मिथ्या या विपरीत दृष्टि (दर्शन) से ग्रस्त हो जाएगा तो वह फिर अनुकूल उपसर्गों के चक्कर में आ जाएगा। इसलिए उपसर्ग-विजयी बनने हेतु साधक का सम्यग्दृष्टिसम्पन्न होना परम आवश्यक बताया गया है। सम्यम्हष्टिसम्पन्न होने पर साधक व्यवहार में सुदेव Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 242 से 246 245 सुगुरु और सद्धर्म तथा सच्छास्त्र के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखेगा, हेय-ज्ञ य-उपादेय तत्त्वों को जान सकेगा, तथा सर्वत्र आत्महित की दृष्टि ही मुख्य रखेगा। वह फिर चारित्र भ्रष्ट करने वाले अनुकूल उपसगों के चक्कर में नहीं आएगा। इसीलिए कहा गया है- 'दिष्टिमं / ' तेरहवां कदम-उपसर्गों पर सफलतापूर्वक विजय पाने हेतु साधक के रागद्वेष एवं कषाय आदि परिशान्त होने आवश्यक है। अगर उसका राग-द्वेष या क्रोधादि कषाय बात-बात में भड़क उठेगा, या समय-असमय वह राग-द्वेष-कषायादि से उत्तेजित हो जाएगा तो वह अनेक आत्म-संवेदनकृत उपसर्गों से घिर जाएगा, फिर उन उपस गर्गों से छुटकारा पाना कठिन हो जाएगा। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-- 'परिनिबुडे' / चौदहवां कदम-इतना सब करने पर भी साधक के जीवन में अनुकूल या प्रतिकूल कई उपसर्ग अकस्मात् आ सकते हैं, उस समय साधक को फौरन ही विवेकपूर्वक उन उपसर्गों पर काबू पाना आवश्यक है / अगर वह उस समय गाफिल होकर रहेगा तो उपसर्ग उस पर हावी हो जाएगा, इसलिए उपसर्ग के आते ही मन से उसे तुरन्त निर्णय करना होगा कि मुझे इस उपसर्ग को अपने पर विजयी नहीं होने देना है, यानी इस उपसर्ग से पराजित नहीं होना है, अपितु इस पर नियन्त्रण (विजय) पाना है / इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- 'उवसणे नियामित्ता' / पन्द्रहवा कदम - सबसे अन्तिम कदम उपसर्ग-विजयी बनने के लिए यह है कि उस साधक को उपसर्गों के बार-बार आक्रमण होने पर मन में अश्रद्धा, अविश्वास और अधीरता लाकर संयम (संयमी जीवन) को छोड़ बैठना नहीं चाहिए अपितु दृढ़ विश्वास और धैर्य के साथ उपसर्गों को सहन करते हुए, मोक्ष प्राप्ति (कर्मों के सर्वथा क्षय) होने तक संयम पर डटे रहना चाहिए। उसकी संयमनिष्ठा इतनी पक्की होनी चाहिए। इसो तथ्य की ओर शास्त्रकार का संकेत हैं- "आमोक्खाए परिष्वएज्जासि / " उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन की परिसमाप्ति में अन्तिम दो गाथाओं की (जो कि इसी अध्ययन के तृतीय उद्देशक के अन्त में दी गई थीं) पुनरावृत्ति करके भो शास्त्रकार ने पाँच सूत्रगाथाओं में उपसर्गविजयी बनने के लिए पंचदशसूत्री कदमों का मार्ग निर्देश किया / 12 पाठान्तर और व्याख्या-विसण्णा स कच्चंति सयकम्मुणा=वृत्तिकार के अनुसार--'विषण्णा: सन्तः कृत्यन्ते-पोड्यन्ते स्वकृतेन-आत्मनाऽनुष्ठितेन पापेन कर्मणा असवेदनीयोदयरूपेण--अर्थात् जिस संसार में विषण्णफँसे हए प्राणी स्वकृत असातावेदनीयरूप पापकर्म के उदय से पीडित होते हैं। चाणकार 'विसण्णासी व कच्चंती सह कम्मुणा' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं--'यस्मिन्-यत्र एते पाषण्डाः"विषयजिता विषण्णा आसते गृहिणश्च, इह परत्र च कच्चंति सहकम्मुणा'-जिस संसार में ये पाषण्ड व्रतधारी (साधक) बयों से पराजित होकर विषण्ण-~-दुःखी रहते हैं, और अपने कर्मों से यहाँ और वहाँ पीडित होते हैं। विवज्जेज्जाइदिग्णादाणाइ वोसिरे-वत्तिकार 'बजिजज्जा अदिनादाणं च बोसिरे' पाठान अर्थ करते हैं-'अदत्तादानं च व्युत्सजेत्' दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृल्लीयात् / ' अर्थात--अदत्तादान का 32 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 100, 101 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 466 से 505 के आधार पर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 सूत्रकृताग--तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा व्युत्सर्ग-त्याग करे, यानी दांत कुरेदने के लिए तिनका भी बिना दिया हुआ, ग्रहण न करे।' वृत्तिकार यहाँ 'आदि' शब्द मानकर अर्य करते हैं--'आदिग्रहणान्मथुनादेः परिग्रहः' आदि शब्द यहाँ (मूलपाठ में) ग्रहण किया गया है, इसलिए मैथुन आदि का ग्रहण करना अभीष्ट है। चूर्णिकार तो 'विवज्जेज अदिण्णादि च वोसिरे -पाठान्तर मानकर उपयुक्त अर्थ स्वीकार करते हैं / 'सम्वत्थ विरति कुन्जा' =वृत्तिकार के अनुसार-सर्वत्र-काले, सर्वावस्यास्वित्यनेनाऽपि काल मावभेदभिन्नः प्राणातिपात उपात्तो द्रष्टव्यः -- अर्थात् सव्वत्थ का अर्थ है-सर्वत्र यानी सब काल में, सभी अवस्थाओं में प्राणातिपात नहीं करना चाहिए, यह कहकर शास्त्रकार ने काल और भाव रूप से प्राणातिपात का ग्रहण किया दिखता है।' चर्णिकार इसके बदले 'सम्वत्थ विरति विज्ज' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते है-'सम्वत्य-सर्वत्र विज्ज -विद्वान, सर्वत्रविरति-सर्वविरति विद्वान “कुर्याद' इति वाक्यशेष. - अर्थात विज्जं-विद्वान सर्वत्र अथवा सर्वत्रविरति-सर्वविरति, 'कुर्याद्' यह वाक्य शेष है, अर्थ होता है-करे / समाहिते-समाधि प्राप्त / 33 चतुर्थ उद्देशक समाप्त // उपसर्ग परिज्ञा : तृतीय अध्ययन सम्पूर्ण / / 33 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 100, 101 का सार (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 43, 44 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन प्राथमिक 3 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'स्त्रीपरिज्ञा' है। - स्त्री शब्द के निक्षेप की दृष्टि से अनेक अर्थ होते हैं। नाम स्त्री और स्थापना स्त्री प्रसिद्ध है। द्रव्य स्त्री दो प्रकार की हैं-आगमतः और नोआगमत:। जो स्त्री पद के अर्थ को जानता है किन्तु उसके उपयोग से रहित है, वह आगम-द्रव्यस्त्री है। नोआगम-द्रव्यस्त्री के तीन भेद हैंज्ञशरीर द्रव्यस्त्री, भव्य शरीर द्रव्यस्त्री और ज्ञशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त-द्रव्यस्त्री। इनमें से ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तव्यतिरिक्त द्रव्यस्त्री के तीन प्रकार हैं-(१) एक भविका (जो जीव एक भव के बाद ही स्त्री शरीर को प्राप्त करने वाला हो) (2) बद्धायुष्का (जिसने स्त्री की आयु बांध ली हो) और (3) अभिमुख-नाम-गोत्रा (जिस जीव के स्त्रीनाम-गोत्र अभिमुख हो)। इसी तरह चिन्हस्त्री, वेदस्त्री और अभिलापस्त्री आदि भी द्रव्यस्त्री के प्रकार हैं। जो चिन्हमान से स्त्री है, अथवा स्त्री के स्तन आदि अंगोपांग तथा स्त्रो की तरह की वेशभूषा आदि धारण करने वाला जीव है वह चिन्हस्त्री है। अथवा जिस महान् आत्मा का स्त्रीवेद नष्ट हो गया है, इसलिए जो (छद्मस्थ, केवली या अन्यजीव) केवल स्त्रीवेष धारण करता है, वह भी चिन्हस्त्री है। जिसमें पुरुष को भोगने की अभिलाषारूप स्त्रीवेद का उदय हो, उसे वेदस्त्री कहते हैं / स्त्रीलिंग का अभिलापक (वाचक) शब्द अभिलाप स्त्री है। जैसे-माला, सीता, पद्मिनी आदि। D भावस्त्री दो प्रकार की होती है-आगमतः, नो-आगमतः / जो स्त्री पदार्थ को जानता हुआ उसमें उपयोग रखता है वह आगमतः भावस्त्री है। जो स्त्रीवेदरूप वस्तु में उपयोग रखता है, अथवा स्त्रीवेदोदय प्राप्त कर्मों में उपयोग रखता है-स्त्रीवेदनीय कर्मों का अनुभव करता है, वह नो आगमत: भावस्त्री है। - प्रस्तुत अध्ययन में चिन्हस्त्री, वेदस्त्री आदि द्रव्यस्त्री सम्बन्धी अर्थ ही अभीष्ट है। परिज्ञा का भावार्थ है-तत्सम्बन्धी सभी पहलुओं से ज्ञान प्राप्त करना / परिज्ञा के शास्त्रीय दृष्टि से दो अर्थ फलित होते हैं-ज्ञपरिज्ञा द्वारा वस्तु तत्त्व का यथार्थ परिज्ञान और प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसके प्रति आसक्ति, मोह, रागद्वेषादि का परित्याग करना / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा " 'स्त्रीपरिज्ञा का विशिष्ट अर्थ हुआ-स्त्री के स्वरूप, स्वभाव आदि का परिज्ञान और उसके प्रति आसक्ति, मोह आदि के परित्याग का जिस अध्ययन में वर्णन है, वह स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन है। - स्त्रीसंगजनित उपसर्ग किस-किस प्रकार से साधुओं पर आता है ? साधुओं को उक्त उपसर्ग से कैसे बचना चाहिए? इत्यादि परिज्ञान कराना इस अध्ययन का उद्देश्य है।' 0 स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में स्त्रीजन्य उपसर्ग के सन्दर्भ में यह बताया गया है कि स्त्रियों के साथ संसर्ग रखने, उनके साथ चारित्र भ्रष्ट करने वाली बातें करने तथा उनके कामोत्तेजक अंगोपांगों को विकार भाव से देखने आदि से मन्दपराक्रमी साधु शीलभ्रष्ट हो जाता है। तनिक-सी असावधानी रखने पर श्रमणत्व का विनाश हो सकता है; वह साधु दीक्षा तक को छोड़ सकता है / प्रथम उद्देशक में 31 गाथाएँ हैं / - द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि शीलभ्रष्ट साधु को स्वपक्ष और परपक्ष की ओर से कैसे कैसे अपमान, तिरस्कार आदि दुःखों के प्रसंग आते हैं ? शीलभंग से हुए अशुभ कर्मबन्ध के कारण अगले जन्मों में उसे दीर्घकाल तक संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। विचित्र छलनापूर्ण मनोवृत्ति वाली स्त्रियों द्वारा अतीव बुद्धिमान् प्रचण्ड शूरवीर एवं महातपस्वी कैसे-कैसे चक्कर में फंसा लिये जाते हैं ? यह दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है। द्वितीय उद्देशक में 22 गाथाएँ हैं। [ / इस अध्ययन में स्त्रियों को अविश्वसनीय, कपट की खान आदि दुर्गुणों से युक्त बताया गया है, वह मात्र पुरुष को जागृत और काम विरक्त करने की दृष्टि से है, वहाँ स्त्रियों की निन्दा करने की दष्टि कतई नहीं है, विशेषतः श्रमण को सावधान करने की दष्टि से ऐसा बताया गया है। वास्तव में पुरुष की भ्रष्टता का मुख्य कारण तो उसकी स्वयं की काम-वासना है, उस वासना के उत्तेजित होने में स्त्री निमित्त कारण बन जाती है। इसलिए 'स्त्रीपरिज्ञा' का तात्पर्य स्त्री संसर्ग निमित्तक उपसर्ग की परिज्ञा समझना चाहिए।' 0 इसी कारण नियुक्तिकार और वत्तिकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं-स्त्रियों के संसर्ग से जितने दोष पुरुष में उत्पन्न होते हैं, प्रायः उतने ही दोष पुरुषों के संसर्ग से स्त्री में उत्पन्न हो सकते हैं / अतः वैराग्यमार्ग में स्थित श्रमणों को स्त्री-संसर्ग से सावधान रहने की तरह दीक्षित साध्वियों को भी पुरुष-संसग से सावधान (अप्रमत्त) रहना चाहिए / 1 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 56 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 102 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 58 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 102 3 जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग 1, पृ० 145 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 246 " प्रस्तुत अध्ययन में स्त्री-संसर्ग से पुरुष साधक में होने वाले दोषों के समान ही पुरुष के संसर्ग से स्त्री में होने वाले दोष भी बताये गये हैं, तथापि इसका नाम 'पुरुष-परिज्ञा' न रखकर 'स्त्रीपरिज्ञा' इसलिए रखा गया है कि अधिकतर दोष स्त्री संसर्ग से ही पैदा होते है। तथा इसके प्रवक्ता पुरुष हैं, यह भी एक कारण हो सकता है। तथापि नियुक्तिकार ने स्त्री शब्द के निक्षेप की तरह 'पुरुष' के भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव की दृष्टि से 10 निक्षेप बताये हैं, जिन्हें पुरुषपरिज्ञा की दृष्टि से समझ लेना चाहिए / - यह अध्ययन सूत्रगाथा 247 से प्रारम्भ होकर सूत्र गाथा 266 पर समाप्त होता है / 4 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति माथा 63 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 5 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 57 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 102 6 सूयगडंग सुत्त (मू० पा० टिप्पण) पृ० 45 से 53 तक Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इत्थीपरिण्णा'-चउत्थं अज्झयणं पढमो उद्देसओ स्त्रीसंगरूप उपसर्ग : विविध रूप: सावधानी की प्रेरणाएँ 247. जे मातर च पितरं च, विष्पजहाय पुटवसंयोग। एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणे विवित्तेसी // 1 // 248. सुहमेण तं परक्कम्म, छन्नपदेण इथिओ मंदा। उवायं पि ताओ जाणिसु, जह लिस्संति भिक्खुणो एगे // 2 // 246. पासे भिसं निसीयंति, अभिक्खणं पोसवत्थ परिहिति / कायं अहे वि वंसेंति, बाहुमुटु कक्खमणुवज्जे // 3 // 250. सयणा-ऽऽसणेण जोग्गेण, इत्थीओ एगया निमंतेति / एताणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि // 4 // 251. नो तासु चक्खु संधेज्जा, नो वि य साहसं समभिजाणे / नो सद्धियं पि विहरेज्जा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ // 5 // 252. आमंतिय ओसवियं वा, भिक्खु आयसा निमंतति / एताणि चेव से जाणे, सद्दाणि विरूवरूवाणि // 6 // 253. मणबंधणेहि, णेगेहि, कलुणविणीयमुवगसित्ताणं / अदु मंजुलाई भासंति, आणवयंति भिन्नकहाहि / / 7 // 254. सोहं जहा व कुणिमेणं, णिब्भयमेगचर पासेणं / एवित्थिया उ बंधति, संवुडं एगतियमणगारं // 8 // 255. अह तत्थ पुणो नमयंति, रहकारु व्व णेमि आणुपुठवीए। बद्ध मिए व पासेणं, फंदंते वि ण मुच्चती ताहे // 6 // Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 प्रथम उद्देशक : माथा 247 से 277 256. अह सेऽणुतप्पती पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं / एवं विवेगमायाए, संवासो न कप्पती दविए // 10 // 257. तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कंटगं गच्चा। ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाति ण से वि णिग्गंथे / / 11 / / 258. जे एवं उंछ अणुगिद्धा, अण्णयरा हु ते कुसीलाणं / सुतवस्सिए वि से भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थोसु // 12 // 256. अवि धूयराहि सुण्हाहि, धातीहि अदुव दासीहि / महतोहि वा कुमारोहि, संथवं से णेव कुज्जा अणगारे / / 13 // 260. अदु णातिणं व सुहिणं वा, अप्पियं दठ्ठ एगता होति / गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणुस्सोऽसि // 14 // 261. समणं पि वठ्ठदासीणं, तत्थ वि ताव एगे कुष्पंति / अदुवा भोषणेहिं गत्थेहि, इत्योदोससंकिणो होति // 15 // 262. कुव्वंति संथवं ताहि, पन्भट्ठा समाहिजोगेहि / तम्हा समणा ण समेति, आतहिताय सण्णिसेज्जाओ॥ 16 // 263. बहवे गिहाई अवहटु, मिस्सोभावं पत्थुता एगे। धुवमग्गमेव पवदंति, वायावीरियं कुसोलाणं / / 17 // 264. सुद्ध रवति परिसाए, अह रहस्सम्मि दुक्कडं करेति / जाणंति य णं तहावेदा, माइल्ले महासढेऽयं ति // 18 // 265. सय बुक्कडं च न वयइ, आइट्ठो वि पकत्थती बाले। वेयाणवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो // 16 // 266. उसिया वि इत्थिपोसेसु, पुरिसा इस्थिवेदखेतण्णा। पण्णासमन्निता वेगे, णारीण वसं उवकसंति // 20 // 267. अवि हत्थ-पादछेदाए, अदुवा वद्धमंस उक्कते। अवि तेयसाऽभितवणाई, तच्छिय खारसिंचणाई च // 21 // 268. अदु कण्ण-णासियाछेज्जं, कंठच्छेदणं तितिक्खंति / इति एत्थ पावसंतत्ता, न य बेंति पुणो न काहि ति // 22 // Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा 266. सुतमेतमेवमेसि, इत्थीवेदे वि हु सुअक्खायं / एवं पिता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति // 23 // 270. अन्न मणेण चितेंति, अन्न वायाइ कम्मुणा अन्नं / तम्हा ण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा / / 24 // 271. जुवती समणं बूया उ, चित्तलंकारवत्थगाणि परिहेता। विरता चरिस्स हं लूहं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो॥ 25 // 272. अदु साविया पवादेण, अहगं साधम्मिणी य समणाणं / जतुकुम्भे जहा उवज्जोती, संवासे विदू वि सीएज्जा // 26 // 273. जतुकुम्भे जोतिमुवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुपयाति / एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति // 27 // 274. कुवंति पावगं कम्म, पुट्ठा वेगे एवमाहंसु / नाहं करेमि पावं ति, अंकेसाइणो ममेस त्ति // 28 // 275. बालस्स मंदयं बितियं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामए विसण्णेसी / / 26 / / 276. संलोकणिज्जमणगारं, आयगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु।। वत्थं व ताति ! पातं वा, अन्न पाणगं पडिग्गाहे // 30 // 277. णीवारमेय बुज्झज्जा, णो इच्छे अगारमागंतु। बद्ध य विसयपासेहि, मोहमागच्छतो पुणो मंदे // 31 // त्ति बेमि / / 247. जो पुरुष (इस भावना से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं) “माता-पिता तथा समस्त पूर्व संयोग (पूर्व सम्बन्ध) का त्याग करके, मैथुन (सेवन) से विरत होकर तथा अकेला ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त (सहित) रहता हुआ विविक्त (स्त्री, पशु एवं नपुंसक रहित) स्थानों में विचरण करूंगा।" 248. उस साधु के निकट आकर हिताहितविवेकरहित स्त्रियाँ छल से, अथवा गूढार्थ वाले पदों (छन्न शब्दों, पहेली व काव्य) से उसे (शील भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं / ) वे स्त्रियाँ वह उपाय भी जानती हैं, जिससे कई साधु उनका संग कर लेते हैं। 246. वे साधु के पास बहुत अधिक बैठती हैं, बार-बार कामवासना-पोषक सुन्दर वस्त्र पहनती हैं, शरीर के अधोभाग (जांघ आदि) को भो (साधु को कामोत्तेजित करने हेतु) दिखाती हैं, तथा बाहें ऊंचो करके कांख (दिखाती हुई साधु के) सामने से जातो हैं / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 253 250. कभी (वे चालाक) स्त्रियाँ (उपभोग करने योग्य शयन, आसन आदि (सुन्दर पलंग, शय्या, कुर्सी या आराम कुर्सी आदि) का उपभोग करने के लिए साधु को (एकान्त में) आमंत्रित करती हैं। वह (परमार्थदर्शी विवेकी) साधु इन (सब बातों) को कामजाल में फंसाने के नाना प्रकार के बन्धन समझं। 251. साधु उन स्त्रियों पर आँख न गड़ाए (मिलाए) न उनके साथ कुकर्म करने का साहस भी स्वीकार करे; न ही उनके साथ-साथ (ग्राम-नगर आदि में) विहार करे। इस प्रकार (ऐसा करने पर) साधु की आत्मा सुरक्षित होती है। 252. विलासिनी स्त्रियाँ साधु को संकेत करके (अर्थात्--मैं अमुक समय आपके पास आऊँगी, इत्यादि प्रकार से) आमंत्रित करके तथा (अनेक प्रकार के वार्तालापों से) विश्वास दिला कर अपने साथ सम्भोग करने के लिए निमंत्रित-प्रार्थना करती हैं / अतः वह (विवेकी साधु) (स्त्री सम्बन्धी) इन सब शब्दों-बातों को नाना प्रकार के पाशबन्धन समझे / 253. चालाक नारियां साधु के मन को बाँधने वाले (मनोमोहक-चित्ताकर्षक) अनेक उपायों के द्वारा तथा करुणोत्पादक वाक्य और विनीत भाव से साधु के समीप आकर मधुर-मधुर सुन्दर बोलती हैं, और काम सम्बन्धी बातों से साधु को अपने साथ कुकर्म करने की आज्ञा (अनुमति) दे देती हैं। 254. जैसे वन में निर्भय और अकेले विचरण करने वाले सिंह को मांस का लोभ देकर सिंह पकड़ने वाले लोग पाश से बाँध लेते हैं, इसी तरह मन-वचन-काय से संवृत-गुप्त रहने वाले किसी-किसी शान्त साधु को स्त्रियाँ अपने मोहपाश में बाँध लेती हैं। 255. रथकार जैसे रथ को नेमि चक्र के बाहर लगने वाली पुट्ठी को क्रमशः नमा (झुका) लेता है, इसी तरह स्त्रियां साधु को अपने वश में करने के पश्चात् अपने अभीष्ट (मनचाहे) अर्थ में क्रमश: झुका लेती हैं / मृग की तरह पाश में बंधा हुआ साधु (पाश से छूटने के लिए ) कूद-फाँद करता हुआ भी उस (पाश) से छूट नहीं पाता। 256. जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, वैसे ही स्त्री के वश में होने के पश्चात् वह साधु पश्चात्ताप करता है। अतः मुक्तिगमन-योग्य (द्रव्य) साधु को स्त्रियों के साथ संवास (एक स्थान में निवास) या सहवास-संसर्ग करना उचित-कल्पनीय नहीं है। 257. स्त्रियों को विष से लिप्त कांटे के समान समझ कर साधु स्त्रीसंसर्ग से दूर रहे। स्त्री के वश में रहने वाला जो साधक गृहस्थों के घरों में अकेला जाकर (अकेली स्त्री को) धर्मकथा (उपदेश) करता है, वह भी 'निर्ग्रन्थ' नहीं है। 258, जो पुरुष (साधक) इस (स्त्रीसंसर्गरूपी) झूठन या त्याज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त है, वह अवश्य ही कुशीलों (पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि चारित्रभ्रष्टों) में से कोई एक है / इसलिए वह साधु चाहे उत्तम तपस्वी भी हो, तो भी स्त्रियों के साथ विहार न करे। 256. अतः अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं, धाय-माताओं अथवा दासियों, या बड़ी उम्र की स्त्रियों अथवा कुआरी कन्याओं के साथ भी वह अनगार सम्पर्क-परिचय न करे। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा 260. किसी समय (एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को) देखकर (उस स्त्री के) ज्ञाति (स्व) जनों अथवा सुहृदों-हितैषियों को अप्रिय लगता है। (वे कहते हैं-) जैसे दूसरे प्राणी काम-भोगों में गद्ध-आसक्त हैं (वैसे ही यह साधु भी है।) (वे साधु से कहते हैं-)'तुम इस (स्त्री) का रक्षण-पोषण करो, (क्योंकि) तुम इसके पुरुष हो।' 261. (रागद्वेषवजित) उदासीन तपस्वी (श्रमण) साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देखकर कोई-कोई व्यक्ति ऋद्ध हो उठते हैं / अथवा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन साधु के लिए बनाकर रखते या देते देखकर वे उस स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लगते हैं (कि यह उस साधु से अनुचित संबंध रखती है)। 262. समाधियोगों (धर्मध्यान) से भ्रष्ट पुरुष ही उन स्त्रियों के साथ संसर्ग करते हैं। इसलिए श्रमण आत्महित के लिए स्त्रियों के निवास स्थान (निषद्या) पर नहीं जाते। 263. बहुत-से लोग घर से निकल कर प्रवजित होकर भी मिश्रभाव-अर्थात्-कुछ गृहस्थ का और कुछ साधु का, यों मिला-जुला आचार अपना लेते हैं। इसे वे मोक्ष का मार्ग ही कहते हैं / (सच है) कुशीलों के वचन में ही शक्ति (वीर्य) होती है, (कार्य में नहीं)। 264. वह (कुशील पुरुष-साधक) सभा में (स्वयं को) शुद्ध कहता है, परन्तु एकान्त में दुष्कृत (पापकर्म) करता है। तथाविद् (उसकी अंगचेष्टाओं-आचार-विचारों एवं व्यवहारों को जानने वाले व्यक्ति) उसे जान लेते हैं कि यह मायावी और महाधूर्त है। 265. बाल (अज्ञ) साधक स्वयं अपने दुष्कृत-पाप को नहीं कहता, तथा गुरु आदि द्वारा उसे अपने पाप को प्रकट करने का आदेश दिये जाने पर भी वह अपनी बड़ाई करने लगता है। "तुम मैथुन की अभिलाषा (पुरुषवेदोदय के अनुकूल कामभोग की इच्छा) मत करो, “इस प्रकार (आचार्य आदि के द्वारा) बार-बार प्रेरित किये जाने पर वह कुशील ग्लानि को प्राप्त हो (मुस) जाता है (झेंप जाता है या नाराज हो जाता है)। 266. जो पुरुष स्त्रियों की पोषक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रह चुके हैं, अतएव स्त्रियों के कारण होने वाले खेदों के ज्ञाता (अनुभवी) हैं एवं प्रज्ञा (औत्यात्तिकी आदि बुद्धियों) से सम्पन्न (युक्त) हैं, ऐसे भी कई लोग स्त्रियों के वश में हो जाते हैं / / 267. (इस लोक में परस्त्री-सेवन के दण्ड के रूप में) उसके हाथ-पैर भी छेदे (काटे) जा सकते हैं, अथवा उसकी चमड़ी और मांस भी उखेड़ा (काटा) जा सकता है, अथवा उसे आग में डालकर जलाया जाना भी सम्भव है, और उसका अंग छीलकर उस पर क्षार (नमक आदि) का पानी भी छिड़का जा सकता है। 268. पाप-सन्तप्त (पाप की आग में जलते हुए) पुरुष इस लोक में (इस प्रकार से) कान और नाक का छेदन एवं कण्ठ का छेदन (गला काटा जाना) तो सहन कर लेते हैं, परन्तु यह नहीं कहते कि हम अब फिर ऐसे पाप नहीं करेंगे। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक : गाथा 247 से 277 255 266. 'स्त्रीसंसर्ग बहुत बुरा होता है', यह हमने सुना है, कई अनुभवियों का भी यही (कथन) कहना है / स्त्रीवेद (वशिक काम शास्त्र) का भी यही कहना है कि अब मैं ऐसा नहीं करूंगी', यह कह कर भी वे (काम कला-निपुण स्त्रियां) कर्म से अपकृत्य करती हैं। 270. स्त्रियाँ मन से और कुछ सोचती हैं, वाणी से दूसरी बात बोलती हैं और कर्म से और ही करती हैं / इसलिए स्त्रियों को बहुत माया (कपट) वाली जानकर उन पर विश्वास (श्रद्धा) न करे। 271. कोई युवती विचित्र आभूषण और वस्त्र पहन कर श्रमण से यों कहे कि- "हे कल्याण करने वाले या संसार से पार करने वाले, अथवा हे भय से बचाने वाले साधो ! मैं विरत (संसार से विरक्त) हो गई हूँ, मैं अब संयम पालन करूँगी, आप मुझे धर्मोपदेश दीजिए।" 272. अथवा श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट आकर कहती है -- "मैं श्रमणों की सामिणी हूँ।" (किन्तु) जैसे अग्नि के पास लाख का घड़ा पिघल जाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष भी स्त्री के साथ रहने से शिथिलाचारी हो जाते हैं। 273. जैसे अग्नि को छूता हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर नाश को प्राप्त (नष्ट) हो जाता है, इसी तरह स्त्रियों के साथ संवास (संसर्ग) से अनगार पुरुष (भी) शीघ्र ही नष्ट (संयमभ्रष्ट) हो जाते हैं। 274. कई भ्रष्टाचारी पापकर्म करते हैं, किन्तु आचार्य आदि के द्वारा पूछे जाने पर यों कहते हैं कि मैं पापकर्म नहीं करता, किन्तु 'यह स्त्री (बाल्यकाल में) मेरे अंक में सोती थी।' 275. उस मूर्ख साधक की दूसरी मूढ़ता यह है कि वह पुनः-पुनः किये हुए पापकर्म को, 'नहीं किया', कहता है / अतः वह दुगुना पाप करता है / वह जगत् में अपनी पूजा चाहता है, किन्तु असंयम की इच्छा करता है। 276. दिखने में सुन्दर आत्मज्ञानी अनगार को स्त्रियाँ निमंत्रण देती हुई कहती हैं-हे भवसागर से नाता (रक्षा करने वाले) साधो ! आप मेरे यहां से वस्त्र, पात्र, अन्न (आहार) या पान (पेय पदार्थ) स्वीकार (ग्रहण) करें। 277. इस प्रकार के प्रलोभन को साधु, सूअर को फंसाने वाले चावल के दाने के समान समझे। ऐसी स्त्रियों की प्रार्थना पर वह (उनके) घर जाने की इच्छा न करे / (किन्तु) विषय-पाशों से बंधा हुआ मूर्ख साधक पुनः पुनः मोह को प्राप्त हो जाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-स्त्रीसंगरूप उपसर्ग : विविध रूप, दुष्परिणाम एवं फत्तं व्यनिर्देश-प्रस्तुत उद्देशक की 31 सूत्रगात्राओं (सू० गा० 247 से 277 तक) में स्त्रीसंगरूप उपसर्ग के विविध रूपों का परिचय देते हुए शास्त्रकार ने बीच-बीच में स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधक की अवदशा, स्त्रीसंसर्गभ्रष्टता के दुष्परिणामों एवं इस उपसर्ग से बचने के कर्तव्यों का निरूपण भी किया गया है।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति (भाषानुवाद सहित), भाग 2, पृ० 106 से 147 तक का सारांश Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा स्त्रीसंगरूप पस्र्ग एक : रूप अनेक-वास्तव में साधु मन में जब कामवासना के मलिन विचारों को धुलाता रहता है, तब वह किसी भी स्त्री के हावभाव, मधुर आलाप, नम्र वचन, चाल-ढाल या अंगोपांग को देखकर उसके प्रति कामासक्त हो सकता है। फिर भी साधु को भूमिका इससे काफी ऊंची हैं और स्त्रकार इस अध्ययन के प्रारम्भ में सर्वप्रथम उसकी उच्च भूमिका का स्मरण कराते हैं-'जब कोई व्यक्ति घर-बार, माता-पिता आदि स्वजनों, कुटुम्बीजनों, धन-सम्पत्ति तथा समस्त सांसारिक वस्तुओं से पहले का मोहसम्बन्ध छोड़कर एकाकी बन मुनिधर्म में दीक्षित होता है, तब यही प्रतिज्ञा करता है कि मैं आज से सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञानपूर्वक सम्यक्चारित्र (पंचमहाव्रत पंचसमिति, त्रिगुप्ति आदि) में अथवा स्व-(आत्म) हित में विचरण करूगा। तब से वह समस्त प्रकार के मैथुन से मन-वचन-काया से विरत हो जाता है और विविक्त (स्त्री-पशु-नपुसकसंसर्गरहित) स्थान की गवेषणा करता है, अथवा विविक्त-पवित्र साधुओं के मार्ग के अन्वेषण में तत्पर रहता है, या कर्मों से विविक्त-रहित मोक्ष का अभिलाषी रहता है। फिर भी उक्त ब्रह्मचर्यपरायण साधु के समक्ष अत्यन्त सूक्ष्म रूप में कई विवेकमूढ़ नारियाँ आकर उसे नाना रूप से शीलभ्रष्ट कर सकती हैं। साधु को सहसा उस स्त्रीजन्य सूक्ष्म उपसर्ग का पता ही नहीं लगता, वह ठगा जाता है, उक्त उपसर्ग के प्रवाह में बह जाता है। अतः शास्त्रकार श्रमण को सावधान करने और उस उपसर्ग में फँसने से बचाने की दृष्टि से स्त्रीजन्य उपसर्ग के विभिन्न रूपों को यहाँ प्रस्तुत करते हैं / 1. प्रथम रूप-- विवेकमूढ़ स्त्रियाँ साधु के पास आकर बैठ जाती हैं, और इधर-उधर के पुराने गार्हस्थ्य या दाम्पत्य संस्मरण याद दिलाकर साधक को शीलभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं। जैसे नाना प्रकार से छल करने में निपुण, कामवासना पैदा करने में चतुर, मागधवेश्या आदि नारियों ने कूलबालुक जैसे तपस्वी रत्नों को शीलभ्रष्ट कर दिया था / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-सुहुमेण तं परिक्कम्म / ' अर्थात् अन्य कामुक स्त्रियाँ भाई, पुत्र, स्वजन या अन्य सांसारिक रिश्ते के बहाने से साधु के पास आकर धीरे-धीरे उससे अनुचित अनैतिक सम्बन्ध कर लेती हैं / यह स्त्रीजन्य उपसर्ग का प्रथम रूप है। 2. दूसरा रूप-कई कामुक रमणियाँ साधु को शीलभ्रष्ट करने हेतु गूढ़ अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग करके अपने मनोभाव जताकर फंसा लेती हैं। वे इसी प्रकार का द्वयर्थक श्लोक, कविता, पहेली, भजन या गायन साधु के पास आकर सुनाती हैं / और उसी के माध्यम से अपना कामुक मनोभाव प्रकट कर देती हैं / अपरिपक्व साधक उसके मोहजाल में फँसकर अपने संयम से हाथ धो बैठता है।' 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 पर से। 3 वृत्तिकार इसी प्रकार का एक ग ढार्थक श्लोक उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं ‘काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीसु / मिथ्या न मापऽहं विशालनेत्रा ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु // " इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों की योजना करने से 'कामेमि ते' (मैं तुम्हें चाहती हैं) यह वाक्य बन जाता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक / गाथा 247 से 277 257 इसके अतिरिक्त गुप्त नाम के द्वारा या गूढार्थक मधुर वार्तालाप करके अपने जाल में साधु को फंसा लेती हैं / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं -- “छन्नपए।' 3. ततीय रूप -- प्रायः कामुक रमणियाँ साधु को अप कामजाल में फंसाने के अनेक तरीके जानती हैं, जिसमें भोलेभाले साधक वेदमोहनीय कर्मोदयवश फंसकर उनमें आसक्त हो जाते हैं / शास्त्रकार यही बात कहते हैं-उवायं पि साउ......"लिस्संति भिक्खुणो / कामुक स्त्रियों द्वारा साधु को जाल में फंसाये जाने के कुछ तरीके सूत्र गाथा 246 में बताये हैं-पासे भिसं........ कक्खमणुष्वज्जे / अर्थात्--(१) वे साधु के पास अत्यन्त सटकर कोई गुप्त बात कहने के बहाने बैठ जाती है, या बहुत अधिक देर तक बैठती हैं, (2) बारबार कामोत्तेजक वस्त्रों को ढीला होने का बहाना बना कर पहनती हैं, (3) शरीर के अधोभाग (जांघ, नाभि, टाँग, नितम्ब आदि) दिखाती हैं, (4) बाँहें ऊँची करके काँख को दिखाती हुई सामने से जाती हैं, ताकि साधु उसे देखकर काम-विह्वल हो जाए। इसके अतिरिक्त हाथ से इशारे करना, आँखें मटकाना, स्तन दिखाना, कटाक्ष करना आदि तो कामुक कामिनियां के कामजाल में फंसाने के सामान्य सूत्र हैं। 4. चौथा रूप-कभी-कभी ऐसी चालाक नारियाँ कामजाल में फंसाने के लिए साधु को अत्यन्त भावभक्तिपूर्वक किसी को दर्शन देने आदि के बहाने से पधारने की प्रार्थना करती हैं, या घर पर एकान्त कमरे में अनुनय-विनय करके ले जाती हैं। जब अविवेकी साधु उसकी प्रार्थना या मनुहार पर उसके घर पर या एकान्त में चला जाता है, तब वे साधु को शीलभ्रष्ट करने हेतु कहती हैं- जरा इस पलंग या गद्दे पर या शय्या पर विराजिए। इसमें कोई सजीव पदार्थ नहीं है, प्रासुक है। अच्छा, और कुछ नहीं तो, कम से कम इस आराम-कुर्सी पर तो बैठ जाइए। इतनी दूर से पधारे हैं तो जरा इस गलीचे पर बैठकर सुस्ता लीजिए। भोला साधु स्त्री के वाग्जाल में फँस जाता है / यही बात शास्त्रकार कहते है सयणासणेण जोम्गेण ....."णिमंतति / __5. पांचवां रूप-कई कामलोलुप कामिनियाँ साधु को अपने कामजाल में फंसाने के लिए पहले साधु को इशारा करती हैं, या वचन देती हैं कि 'मैं अमुक समय में आपके पास आऊँगी, आप भी वहाँ तैयार रहना।' इस प्रकार का आमंत्रण देकर फिर वे साधु को अनेक विश्वसनीय वचनों से विश्वास दिलाती हैं, ताकि वह संकोच छोड़ दे। वे साधु का भय एवं संकोच मिटाने के लिए झूठमूठ कहती हैं"मैं अपने पति से पूछकर, अपने पति को भोजन कराकर, उनके पैर धोकर तथा उन्हें सुलाकर आपके पास आई मेरा यह तन, मन, धन, आभषण आदि सब आपका है। आप शरीर का मनचाहा उपभोग कीजिए, मैं तो आपके चरणों की दासी हूँ। या विविध वाग्जाल बिछाकर साधु को विश्वस्त करके रमणियाँ अपने साथ रमण करने के लिए प्रार्थना करती हैं / शास्त्रकार कहते हैं--आमंतिय उस्सविया." ........"आयसा निमंतति / 6. छठा रूप-कई चतुर ललनाएँ साधु को अपने साथ समागम के हेतु मनाने के लिए मन को काम-पाश में बांध देने वाले विविध आकर्षणकारी दृश्यों, संगीतों, रसों, सुगन्धियों और गुदगुदाने वाले कोमल स्पर्शों से लुभाकर अपनी ओर खींचती हैं। इसके लिए वे मधुर-मधुर वचन बोलती हैं, आकर्षक शब्दों से सम्बोधित करती हैं, कभी साधु की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से कटाक्ष फेंककर अथवा आँखें या मुंह मटकाकर देखती हैं, कभी अपने स्तन, नाभि, कमर, जंघा आदि अंगों को दिखाती हैं, कभी मनोहर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा हावभाव, अभिनय या अंगविन्यास करती हैं, जिससे कि साधु उस पर मुग्ध हो जाए। कभी वे करुणा उत्पन करने वाले मधुर आलाप करती हैं-हे प्राणनाथ ! हे करुणामय, हे जीवनाधार, हे प्राणप्रिय, हे स्वामी, हे कान्त ! हे हृदयेश्वर ! आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। आप ही मेरे इस तन-मन के स्वामी हैं, आपको देखकर ही मैं जीती हूँ। आपने मुझे बहुत रुलाया, बहुत ही परीक्षा कराई, अब तो हद हो चुकी / अब मेरी बात मानकर मेरी मनोकामना पूर्ण करिये / अव भी आप मुझे नहीं अपनाएँगे तो मैं निराधार हो जाऊँगी, मैं यहीं सिर पछाड़कर मर जाऊँगी / आपको नारी-हत्या का पाप लगेगा। आपने अस्वीकार किया तो मेरी सौगन्ध है आपको ! बस, अब तो आप मुझे अपनी चरणदासी बना लें, मैं हर तरह से आपकी सेवा करूंगी। निश्चिन्त होकर मेरे साथ समागम कीजिए।' इस प्रकार की करुणाजनक एवं विश्वासोत्पादक मीठी-मीठी बातों से अनुनय-विनय करके माधक के हृदय में कामवासना भड़काकर अपने साथ सहवास के लिए उसे मना लेती हैं। कभी वे मीठी चुटकी लेती हैं-'प्रियवर ! अव तो मान जाइए न ! यों कब तक रूठे रहेंगे ? मुझे भी तो रूठना आता है !' कभी वे मन्द हास्य करती हैं--'प्राणाधार ! अब तो आपको मैं जाने नहीं दूंगी। मुझे निराधार छोड़कर कहाँ जाएँगे?" कभी वे एकान्त में कामवासना भड़काने वाली बातें कहकर साधु को काम-विह्वल कर देती हैं। वे येन-केनप्रकारेण साधु को मोहित एवं वशीभूत करके उसे अपना गुलाम बना लेती हैं, फिर तो वे उसे अपने साथ सहवास के लिए बाध्य कर देती हैं / इसी तथ्य को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं- मणबंधहि...... आणवयंति भिन्नकहाहिं। __सातवाँ रूप--जैसे वन में स्वच्छन्द विचरण करने वाले एकाकी एवं पराक्रमी वनराज सिंह को पकड़ने वाले चतुर शिकारी मांस आदि का लोभ देकर विविध उपायों से बांध लेते हैं, या पिंजरे में बंद कर लेते हैं, फिर उसे तरह-तरह की यातनाएँ देकर पालतू पशु की तरह काबू में कर लेते है। ठीक इसी तरह कामकला चतुर कामिनियाँ मन-वचन-काया को गुप्त (सुरक्षित) रखने वाले कठोर संयमी साधु को भी पूर्वोक्त अनेकविध उपायों से अपने वश में कर लेती हैं, मोहपाश में जकड़ लेती हैं। जब वे इतने कठोर संयमी सुसंवत साधु को भी अपना पथ बदलने को विवश कर सकती हैं तो जिनके मनवचन-काया सुरक्षित नहीं हैं, उनको काबू में करने और डि गाने में क्या देर लगती हैं ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- सोहं जहा व.....मुच्चए ताहे / 8. आठवाँ रूप-जिस प्रकार बढ़ई रथ के चक्र से बाहर की पुट्ठी को गोलाकार बनाकर धीरेधीर नमा देता है, उसी तरह साधु को अपने वश में करके उससे अभीष्ट (मनचाहे) कार्यों की ओर मोड़ लेती हैं / कामकलादक्ष कामिनियों के मोहपाश में एक वार बंध जाने के बाद फिर चाहे जितनी उछलकूद मचाए, उससे उसी तरह नहीं छट सकता, जिस तरह पाश में बंधा हुआ मृग पाश से छटने के लिए बहुत छटपटाता है, मगर छट नहीं सकता। नारी के मोहपाश का बन्धन कितना जबर्दस्त है, इसे एक कवि के शब्दों में देखिये "बन्धनानि खलु सन्ति बहनि, प्रेमरज्जकृतबन्धनमन्यत् / दारुभेदनिपुणोऽपि षडविनिष्क्रियो भवति पंकजकोषे // " -संसार में बहुत से बन्धन हैं, परन्तु इन सब में प्रेम (मोह) रूपी रस्सी का बन्धन निराला ही Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाया 247 से 277 256 है। कठोर काष्ठ को भेदन करने में निपुण भौंरा कमल सौरभ के प्रेप (मोह) के वशीभूत होकरउ सके कोष में ही निष्क्रिय होकर स्वयं बंद हो जाता है। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- 'अह तत्य पुणो नमयंती ........" ण मुच्चति ताहे / ' 6. नौवाँ रूप-स्त्रियों के मायावी स्वभाव का वर्णन करते हुए शास्त्रकार स्त्रीजन्य उपसर्ग को समझने के लिए कहते हैं-'अन्न मणेण ......"कम्मुणा अन्नं / ' इसका आशय यह है कि स्त्रियाँ पाताल के उदर के समान अत्यन्त गम्भीर होती हैं। उन्हें समझना अत्यन्त कठिन है। वे मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और ही बोलती हैं और शरीर से चेष्टाएँ दूसरी ही करती हैं, उनका कहना, सोचना और करना अलग-अलग होता है।' 10. दसवाँ रूप-कई वार साधु को अपने कामजाल में फंसाने के लिए कोई नवयौवना कामिनी आकर्षक वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर साधु के पास आकर कहतो है-'गुरुदेव ! आप तो संसार-सागर में डूवते जीवों का उद्धार करने और पार लगाने वाले हैं। मुझे उबारिये / मैं अब इस गृहपाश (बन्धन) से विरक्त हो गई हूँ। मेरा पति मेरे अनुकूल में नहीं है, अथवा उसने मुझे छोड़ दिया है। अतः अब मैं सयम या मुनिधर्म का आचरण करूंगी। आप मुझे धर्मोपदेश दीजिए, ताकि मुझे इस दुःख का भाजन न बनना पड़े।' इसी तथ्य को शास्त्रकार २७१वीं सूत्रगाथा में कहते हैं-जुवती समण.........."णे भयंतारो। 11. ग्यारहवाँ रूप--मायाविनी नारी साधु को फंसाने के लिए श्राविका के रूप में उसके पास आती है और कहती है - मैं आपकी श्राविका हूँ, साधुओं की सामिणी हूँ। मुझसे आप किसी बात का संकोच न करिये / जिस चीज की आवश्यकता हो मुझे कहिए / यों वह बारबार साधु के सम्पर्क में आती है, घन्टों उसके पास बैठती है और चिकनीचुपड़ी बातें बनाकर वह श्राविकारूपधारी मायाविनी नारी कूलबालुक की तरह साधु को धर्मभ्रष्ट कर देती है। इसी बात को शास्त्रकार (२७२वीं सूत्रगाथा में) अभिव्यक्त करते हैं-अदु साविधा...'"साधम्मिणी य समणाणं / 12. बारहवाँ रूप- कई बार व्यभिचारिणी स्त्रियां भद्र एवं संयमी साधु को अतिभक्ति का नाटक करके फंसा लेतो हैं / कई कामुक नारियाँ सुन्दर, सुडौल, स्वस्थ एवं सुरूप आत्मज्ञानी अनगार को सभ्य 1. वृत्तिकार ने दुर्ग्राह्य स्त्री स्वभाव को समझाने के लिए एक कथा दी है-एक युवक था दत्तावैशिक / उसे अपने कामजाल में फंसाने के लिए एक वेश्या ने अनेक उपाय किये / परन्तु दत्तावैशिक ने मन से भी उसकी कामना नहीं की। यह देख वेश्या ने एक नया पासा फेंका / उसने दयनीय चेहरा बनाकर रोते-रोते युवक से कहा-'मेरा दुर्भाग्य है कि आपने इतनी प्रार्थना करने के बावजूद भी मुझे छिटका दिया। अव मुझे इस संसार में जीकर क्या करना है? मैं अब शीघ्र ही अग्नि प्रवेश करके जल मरूंगी।' यह सुनकर दत्तावैशिक ने कहा-'स्त्रियाँ माया करके अग्निप्रवेश भी कर सकती हैं। इस पर वेश्या ने सुरंग के पूर्वद्वार के पास लकड़ियाँ इकट्ठी करके उन्हें जला दिया और सुरंगमार्ग से अपने घर चली गई। दत्तावैशिक ने सुना तो कहा-'स्त्रियों के लिए ऐसी माया करना बाएँ हाथ का खेल है।' वह यों कह ही रहा था कि कुछ धूतों ने उसे विश्वास दिलाने के लिए उठाकर चिता में फेंक दिया, फिर भी दत्तावैशिक ने विश्वास नहीं किया। इस प्रकार के स्त्रीसंग उपसर्ग को भलीभांति समझ लेना चाहिए। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 सूत्रकृतांग- चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिना तरीके से फंसाने हेतु प्रार्थना करती हैं-संसारसागर से नाता ! मुनिवर ! वस्त्र, पात्र, अन्न-पान आदि जिस किसी वस्तु की आपको आवश्यकता हो, आपको और कहीं पधारने की आवश्यकता नहीं। आप मेरे यहाँ पधारें। मैं आपको सब कुछ दूंगी। यदि साधु उसके वाग्जाल में फंसकर उसकी प्रार्थना स्वीकार करके बार-बार उसके यहाँ जानेआने लगता है और वस्त्रादि स्वीकार कर लेता है तो निःसंदेह वह एक दिन उस स्त्री के मोहजाल में फंस सकता है / इसीलिए शास्त्रकार २७६वीं गाथा द्वारा इसे स्त्रीसंगरूप उपसर्ग बताते हुए कहते हैंसंलोकणिज्जमणगारं..."पाणगं परिग्गाहे / ये ही कुछ निदर्शन हैं, स्त्रीजन्य उपसर्ग के, जो इस उद्देशक में बताये गए हैं / इनके सिवाय और भी अनेकों रूप हो सकते हैं, जिनसे चारित्रनिष्ठ साधु को प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिए। स्त्रीजन्य उपसर्गों से सावधान रहने की प्रेरणाएं-इस समग्र उद्देशक में बीच-बीच में स्त्रीजन्य उपसर्ग के पर्वोक्त विविध रूपों से सावधान रहने और इस उपसर्ग पर विजय पाने की विभिन्न प्रेरणाएँ शास्त्रकार ने दी हैं / वे प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं प्रथम प्रेरणा-शास्त्रकार ने इस उपसर्ग से बचने के लिए साधु को सर्वप्रथम प्रेरणा दी है-साधुदीक्षा ग्रहण करते समय की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण कराकर / प्रतिज्ञा स्मरण कराने का उद्देश्य यह है कि साधु अपनी गृहीत प्रतिज्ञा को स्मरण करके स्त्रीजन्य उपसर्ग से अपने आपको बचाए। इसीलिए 'जे भातरं पितर...."आरतमेहुणो विवित्त सी' इस गाथा द्वारा शास्त्रकार साधु को अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कराते हुए ‘उवायं पिताओ जागिसु जह लिस्संति भिक्खुणो एगे' इस गाथाधं द्वारा स्त्रीजन्य उपसर्ग से पराजित होने से बचने की प्रेरणा देते हैं। द्वितीय प्रेरणा-स्त्रियों द्वारा अंग-प्रदर्शन, हावभाव, निकट आकर किसी बहाने से बैठने आदि अथवा भावभक्तिपूर्वक शय्या, आसन आदि पर बैठने आदि के नाना प्रकार के प्रलोभनों, कामोत्तेजक बातों से साध सावधान रहे / विवेकी साधु इन सब बातों को व कामजाल में फंसाने के नाना प्रकार के बंधन (पाश बन्धन) समझे और इन लुभावने फंदों से अपने आपको बचाए / शास्त्रकार इनसे सावधान रहने की प्रेरणा देते हुए २५०वीं सूत्रगाथा में कहते हैं-एताणि चेव से जाणे, पासाणि विरूष रूयाणि / तृतीय प्रेरणा–प्रायः साधु दृष्टि राग के कारण शीलभ्रष्ट होता है, अगर वह अपनी दृष्टि पर संयम रखे, स्त्री के अंगों पर चलाकर अपनी नजर न डाले, उसकी दृष्टि से दृष्टि न मिलावे, उसके द्वारा कटाक्षपात आदि किये जाने पर स्वयं उसकी ओर से दृष्टि हटा ले। दशवकालिक सूत्र में बताया गया है कि 'साधु स्त्री का भित्ती पर अंकित चित्र भी न देखे, शृंगारादि से विभूषित नारी को भी न देखे, कदाचित् उस पर दृष्टि पड़ जाए तो जैसे सूर्य की ओर देखते ही दृष्टि हटा ली जाती है, उसी तरह उस 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 113 तक में से। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 261 पर से दृष्टि हटा ले / ' प्रयोजनवश कदाचित् स्त्री की ओर देखना पड़े तो इसके लिए वृत्तिकार कहते हैं "कार्येऽपोषन् मतिमान् निरीक्षते योषिदंगमस्थिरया / अस्निग्धतया दृशाऽवजया एकुपितोऽपि कुपित इव // " अथात्-जरूरत पड़ने पर बुद्धिमान साधक स्त्री के अंग की ओर जरा-सी अस्थिर (उडती) अस्निग्ध, सूखी एवं अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखे, ताकि अकुपित होते हुए भी बाहर से कुपित-सा प्रतीत हो। __ तात्पर्य यह है कि साधक टकटकी लगाकर, दृष्टि जमाकर स्त्री के रूप, लावण्य एवं अंगों को न देखे / यही बात स्त्रीजन्य उपसर्ग से बचने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-~-'नो तासु चक्खु संघेन्जा' / चौथी प्रेरणा-कई कामक ललनाएँ साध को आश्वस्त-विश्वस्त करके उसे वचनबद्ध कर लेती हैं। भोलाभाला साध उनके मायाजाल में फंस जाता है। शास्त्रकार पहले से ही ऐसे अवसर पर सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं- 'मो वि य साहसं समभिजाणे' / इसका आशय यह है कि साधु किसी भी मूल्य पर स्त्री के साथ अनाचार सेवन करने का साहसिक कुकर्म करना स्वीकार न करे, ऐसा कुकर्म करने के लिए हर्गिज वचनबद्ध न हो, क्योंकि नरक-गमन, इहलोक-निन्दा, भयंकर दण्ड आदि कुशीलसेवन के दुष्परिणामों का ज्ञाता साधु यह भलीभांति समझ ले कि स्त्री के साथ समागम करना युद्ध में उतरने के समान जोखिम भरा दुःसाहस का कार्य है। पाँचवी प्रेरणा-स्त्रीजन्य उपसर्ग से शीलभ्रष्ट होने का खतरा निम्नोक्त कारणों से भी है-(१) स्त्रियों के साथ ग्राम, नगर आदि विहार करने से (2) उनके साथ अधिक देर तक या एकान्त में बैठनेउठमे, वार्तालाप करने आदि से। इसीलिए शास्त्रकार इस खतरे से सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं'नो सद्वियं पि बिहरेज्जा' / 'विहार' से केवल भ्रमण या गमन ही नहीं, साथ-साथ उठना-बैठना, क्रीड़ा करना (खेलना) आदि क्रियाएँ भी सूचित होती हैं / शास्त्रकार का तात्पर्य यह भी प्रतीत होता है कि स्त्रीसंसों को हर हालत में टालने का प्रयत्न करना चाहिए। छठी प्रेरणा-स्त्रीजन्य उपसगं केवल स्त्री के द्वारा दिये गए प्रलोभनों आदि से ही नहीं होता, कभी-कभी दुबैलमनाः साधु स्वयं किसी स्त्री को देखकर, पूर्वभुक्त कामभोगों का स्मरण करके या स्वयं किसी स्त्री का चिन्तन करके अथवा किसी स्त्री को लुभाकर फंसाने से भी होता है। ऐसी स्थिति में, जबकि साध स्वयमेव विचलित हो रहा हो, कौन उसे उबार सकता है ? शास्त्रकार इसका समाधान देते है-- 'एवमप्पा सुरक्खिओ होइ।' इसका आशय यह है कि ये (पूर्वोक्त) और इनके समान अन्य कई प्रकार के कामोत्तेजक या शीलनाशक खतरे हैं, जिनसे साधु को स्वयं बचना चाहिए। आत्महितैषी साधक को स्वयं अपनी आत्मा की सुरक्षा करनी चाहिए / साधक की आत्मा स्वयमेव ही इस प्रकार से सुरक्षित हो सकती है। 3. 'चित्तभित्ति न निज्झाए नारिं वा सु अलंकियं / भक्खरं पिव दळूणं, दिट्ठिं पडिसमाहरे॥'- दशवकालिक अ०८, गा० 55 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 सूत्रकृतांग-चतुर्य अध्ययन -स्त्रीपरिज्ञा सातवी प्रेरणा-जब भी कोई नारी कामुकतावश साधु के समक्ष अमुक समय पर अमुक जगह आने का वादा करे या साधु को संकेत दे, या इधर-उधर की बातें बनाकर साधु को विश्वास दिलाकर समागम के लिए मनाने लगे तो विवेकी साधु तुरन्त सम्भल जाए / वह स्त्री की उन सब बातों को नाना प्रकार के कामजाल (पाशबन्धन) समझे। वह इन सब बातों में न आए, बाग्जाल में न फंसे / साधक इस प्रकार की स्त्रियों को मोक्षमार्ग में अगला के समान बाधक समझकर उनके संसर्ग से दूर / स्त्रीसमागम तो दूर रहा, स्त्रीसमागम का चिन्तन भी भयंकर कर्मबन्ध का कारण है / अतः इन्हें प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दे / यही प्रेरणा शास्त्रकार देते हैं-- एताणि चेव से जागे सद्दाणि विरूवरूवाणि / आठबी प्रेरणा--स्त्रियों की मनोज्ञ एवं मीठी-मीठी वातों, चित्ताकर्षक शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि के प्रलोभनों, करुणोत्पादक वचनों अथवा विभिन्न मोहक बातों से साधु सावधान रहे। ऐसे सब प्रलोभनों या आकर्षणों को साधु कामपाश में बांधने के वन्धन समझे, जिस बंधन में एक बार बंध जाने के बाद उससे छटना अत्यन्त कठिन है। और फिर स्त्री के मोहपाश में बंधने के बाद मनुष्य को पश्चात्ताप के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, क्योंकि गृहस्थी का चलाना, निभाना और चिन्तामुक्त रहना टेढ़ी खीर है। इसलिए साधु को समय रहते चेत जाना चाहिए। उसे मोहपाश में बाँधने और कामजाल में फंसाने के स्त्री-प्रयुक्त सभी उपसर्गों से सावधान रहना चाहिए, स्त्रियों के संसर्गजनित मोहपाश में कतई न बंधना चाहिए। मुक्तिगमनयोग्य साधु को विवेक बुद्धि से सोचकर स्त्री-संवास या स्त्री-संग करना कथमपि उचित नहीं है, इसे प्रारम्भ से ही तिलांजलि दे देनी चाहिए / यही प्रेरणा २५६वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में शास्त्रकार देते हैं-'एवं विवेकमायाए संवासो न कप्पती दविए।' नौवीं प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग को शास्त्रकार विषलिप्त काँटा बताकर उसे सर्वथा त्याज्य बताते हैं / एक तो काँटा हो, फिर बह विषलिप्त हो, जो चुभने पर केवल पीड़ा ही नहीं देता, जानलेवा भी बन जाता है / यदि वह शरीर के किसी अंग में चुभ कर टूट जाए तो अनर्थ पैदा करता है, इसी तरह पहले स्त्री का स्मरण, कीर्तन ही अनर्थकारी है, फिर प्रक्षण, गुह्यभाषण, मिलन, एकान्त-उपवेशन, सह-विहार आदि के माध्यम से उसका संसर्ग किया जाए तो विषलिप्त काँटे की तरह केवल एक बार ही प्राण नहीं लेता, अनेक जन्मों तक जन्म-मरण एवं नाना दुःख देता रहता है / एक प्राचीन आचार्य ने कहा है "वरि विसखइयं, न विसयसुहु, इक्कसि विसिणि मरंति। विसयामिस-घाइया पुण, णरा णरएहि पडंति // " 'विष खाना अच्छा, किन्तु विषयसुख का सेवन करना अच्छा नहीं; क्योंकि विष खाने से तो जीव एक ही बार मरण का कष्ट पाता है, किन्तु विषय रूपी माँस के सेवन से मनुष्य नरक के गड्ढे में गिर कर बार-बार कष्ट पाता है / ' विष तो खाने से मनुष्य को मारता है, लेकिन विषय स्मरणमात्र से मनुष्य के संयमी जीवन की हत्या कर डालते हैं। इसीलिए स्त्री विषयों में फंसाने में निमित्त है, इसलिए शास्त्रकार २५७वीं सूत्रगाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा साधक को उससे सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं- तम्हाउ वज्जए" "कंटगं गच्चा / दसवीं प्रेरणा-साधु परकल्याण की दृष्टि से धर्मकथा करता है, परन्तु यदि वह किसी अकेली स्त्री के घर अकेला जाकर धर्मकथा करता है तो उसकी निर्ग्रन्थता एवं स्वकल्याण (शील-रक्षण) खतरे में Jain Education international . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 263 पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अकेली स्त्री के पास अकेले साधु के बैठकर धर्मोपदेश देने से कभी-नकभी मोह या काम (वेद) की ग्रन्थि में बंध जाने की सम्भावना है। आभ्यन्तरग्रन्थ का शिकार वह साध धीरे-धीरे उस स्त्री का वशवर्ती या गूलाम होकर फिर किसी न किसी बहाने से स्त्रीसंसर्ग करने का प्रयत्न करेगा, निषिद्ध आचरण करने से वह निर्ग्रन्थ धर्म से भ्रष्ट हो जाएगा। फिर वह सच्चे माने में नहीं रह जाएगा / अतः साधु को अपनी निग्रन्थता सुरक्षित रखने के लिए २५७वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध द्वारा शास्त्रकार सावधान करते हैं-'ओए कुलाणि" "ण से वि णिग्गंथे / ' वृत्तिकार इस सम्बन्ध में कुछ स्पष्टीकरण करते हैं कि यदि कोई स्त्री बीमारी के या अन्य किसी गाढ कारण से साध के स्थान पर आने में असमर्थ हो, अतिवद्ध एवं अशक्त हो, और उस साध के दसरे सहायक (साथी) साधु उस समय न हों तो अकेला साधु भी उस महिला के यहाँ जाकर दूसरी स्त्रियों या पुरुषों की उपस्थिति में उस महिला को बैराग्योत्पादक धर्मकथा या मंगलपाठ सुनाए तो कोई आपत्ति नहीं है। ग्यारहवीं प्रेरणा-स्त्रियाँ कूलवालुक जैसे महातपस्वियों को भी तपस्या से भ्रष्ट कर देती हैं। इसलिए चाहे कोई उत्कृष्ट तपस्वी हो मगर उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं तो तपस्वी हूँ, तपस्या से मेरा शरीर कृश है, मेरी इन्द्रियाँ शिथिल या शान्त हो गई हैं, अब मुझे क्या खतरा है स्त्रियों से ? तपस्वी साधु इस धोखे में न रहे कि स्त्रीसंसर्ग से कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता। स्त्री जलती हुई आग है, उसके पास साधकरूपी घृत रहेगा, तो पिवले विना न रहेगा। तपस्वी यह भलीभांति समझ ले कि वर्षों तक किया हुआ तप रत्रीसंसर्ग से एक क्षण में नष्ट हो सकता है / अतः आत्महितैषी तपस्वी चारित्रभ्रष्ट करने वाली स्त्रियों के साथ न भ्रमण-गमन करे, न साथ रहे, न ही क्रीड़ा या विनोद करे, न बैठे-उठे, न विहार करे / यही प्रेरणा शास्त्रकार ने २५८वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में दी है-~-'सुतवस्सिए वि भिक्खू णो विहरे सह णमित्थीसु। ____ बारहवीं प्रेरणा-साधु कई बार यह समझ बैठता है कि यह छोटी-सी लड़की है, यह कुमारी कन्या है, अथवा यह मेरी गृहस्थ पक्षीय पुत्र, पुत्रवधू, धायमाता या दासी है। यह मेरे-से भी उम्र में बहुत बड़ी है या साध्वी हैं इनके साथ एकान्त में बैठने, बातचीत करने, या सम्पर्क करने में मेरा शीलभंग कैसे हो जाएगा? अथवा किसी को मेरे पर क्या शंका हो सकती है ? यद्यपि अपनी कन्या, या पुत्रवधू, अथवा धायमाता अथवा मातृसमा चाची, ताई आदि के साथ एकान्त में रहने पर साधु का चित्त सहसा विकृत नहीं हो सकता, फिर भी नीतिकारों ने कहा है - 'मात्रा स्वस्रदुहित्रा बा न विविक्तासनो भवेत् / बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति / " अर्थात्-'माता, वहन या पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी बलवती होती हैं, वे विद्वान् पुरुष को (मोह की ओर) खींच लेती हैं। वास्तव में मोहोदय वश कामवासना का उदय कब, किस घड़ी हो जाएगा? यह छद्भस्थ साधक के लिए कहना कठिन है। दूसरी बात है-स्त्री (चाहे वह पुत्री, माता या बहन ही क्यों न हो) के साथ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा एकान्त में बैठे देखकर सामान्य लोगों को शंका उत्पन्न हो सकती है। यही प्रेरणा शास्त्रकार ने 256 वीं सूत्रगाथा में अभिव्यक्त की हैं --- 'अवि धूयराहि""संथवं से पेव फुज्जा अणगारे / ' तेरहवीं प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग करने से साधु का समाधियोग (धर्मध्यान के कारण होने वाली चित्त की समाधि अथवा श्रुत-विनय-आचार-तपरूप समाधि का योग मन-वचन काय का शुभ व्यापार) नष्टभ्रष्ट हो जाता है। स्त्रियों के आवास स्थानों में बार-बार जाना, उनके साथ पुरुषों की उपस्थिति के बिना बैठना, सलाप करना, उन्हें रागभाव से देखना ये सब वेदमोहोदय जनित स्त्री-संस्तव-गाढपरिचय साधु को समाधि योग से भ्रष्ट करने वाले हैं / इसीलिए शास्त्रकार २६२वीं सूत्र गाथा में प्रेरणा देते हैं ---"कुवंति संथवं ताहि"तम्हा समणा ण समेंति "सण्णिसेज्जाओ।" चौदहवीं प्रेरणा-साधु को अपने ब्रह्मचर्य-महाव्रत की सभी ओर से सुरक्षा करनी आवश्यक है। इसलिए चाहे स्त्री सच्चरित्र हो, श्राविका हो, धर्मात्मा नाम से प्रसिद्ध हो, सहसा विश्वास न करे। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ वाड़ के पालन में जरा भी शिथिलता न दिखाए। इसमें किसी स्त्री की अवमानना या निन्दा करने की दृष्टि नहीं, किन्तु शीलभ्रष्टता से अपनी रक्षा की दृष्टि है। कई स्त्रियाँ बहुत मायाविनी भी होती है, वे विरक्ता के रूप में, श्राविका या भक्ता के रूप में साधु को छलकर या फुसला कर शीलभ्रष्ट कर सकती हैं। इसीलिए २७०वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार स्त्रीसंगरूप अनर्थ (उपसर्ग) से बचने के लिए प्रेरणा देते हैं - "अन्नं मणेण""तम्हा ण सद्दे हे ' णच्चा / " पन्द्रहवीं प्रेरणा-जिस तरह लाख का घड़ा, आग के पास रखते ही पिघल जाता है, वह शीघ्र ही चारों ओर से तपकर गल (नष्ट हो जाता हैं, वैसे ही ब्रह्मचारी भी स्त्री के साथ निवास, करने से भ्रष्ट शिथिलाचारी एवं संयम भ्रष्ट हो जाता है चाहे वह कितना ही विद्वान श्रुतधर क्यों न हो। स्त्री का संबास एवं संसर्ग तो दूर रहा, स्त्री के स्मरण मात्र से ब्रह्मचारी का संयम नष्ट हो जाता है। इसलिए ब्रह्मचारी के लिए स्त्री संसर्ग से दूर रहना ही हितावह है ! शास्त्रकार भी 272 एवं 273 इन दो सूत्रगाथाओं द्वारा इस प्रेरणा को व्यक्त करते हैं - 'जतुकुम्भे जहा उवज्जोती. "सीएज्जा' 'जतुकुम्भ णासमुक्यंति / सोलहवीं प्रेरणा-पूर्वोक्त गाथाओं में वणित कामुक एवं मायाविनी स्त्रियों द्वारा दिये जाने वाले विविध प्रलोभनों को साधु सूअर को फंसाने के लिए डाले जाने वाले चावलों के दानों की तरह समझे / स्त्री संसर्ग सम्बन्धी जितने भी आकर्षण या प्रलोभन हैं उन सबसे मुमुक्षु साधु बचे, सतर्क रहे, आते ही उन्हें मन से खदेड़ दे, उनके पैर न जमने दे / फिर वह उस मोहपाश को तोड़ नहीं सकेगा, वह अज्ञ साधक पुनः-पुनः मोह के भंवरजाल में गिरता रहेगा। उसका चित्त मोहान्धकार से घिर जाएगा, वह कर्तव्य विवेक न कर सकेगा / अत: शास्त्रकार साधु को प्रेरणा देते हैं कि किसी भी स्त्री के बुलावे और मनुहार पर अपने विवेक से दीर्घदृष्टि से विचार करे और उक्त प्रलोभन में न फंसे, अथवा एक बार संयम लेने के बाद साधु पुनः गृहरूपी भंवर में पड़ने की इच्छा न करे। 4 देखिये तुलना करके - हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्ण-नास-विगप्पियं / अवि वाससयं नारि, बंभयारी विवज्जए॥-दशबैका लिक अ.८ गा. 56 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम मद्देशक : गाथा 247 से 277 215 इसी प्रेरणा को शास्त्रकार २७७वीं सूत्रगाथा द्वारा अभिव्यक्त करते हैं'.-"गोवारमेव""पुणोमते।' स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधक को अबदशा-प्रस्तुत उद्देशक में शास्त्रकार ने स्त्री संगरूप उपसर्ग के अनेक रूप और उनसे सावधान रहने की यत्र-तत्र प्रेरणाएँ दी हैं, इनके बावजूद भी जो साधक स्त्रीसंग से भ्रष्ट हो जाता है, उसकी कैसी अवदशा होती है, उसके कुछ नमूने शास्त्रकार ने इस उद्दे शक में दिये हैं, शेष द्वितीय उद्देशक में प्रतिपादित हैं। पहली अवदशा - जब साधु मायाविनी स्त्रियो के मोहक वागविलासों, मधुरालापों, करुणाजनक सम्बोधनों एवं वाक्यों से प्रभावित होकर उनका वशवर्ती हो जाता है, अथवा किसी स्त्री के रूप-रंग, अंगविन्यास आदि देखकर स्वयं कामज्वर से पीड़ित हो जाता है, तब वे कामिनियाँ उस साधक की दुर्बलता को जानकर उसे इतना वाध्य कर देती हैं कि फिर उस शीलभ्रष्ट साधक को उनके इशारे पर नाचना पड़ता है। वे स्त्रियाँ जैसी आज्ञा देती हैं, वैसे ही उन्हें चुपचाप करना पड़ता है। इसी अवदशा को शास्त्रकार २५३वीं सूत्रगाथा में अंकित करते हैं-आणवयंति भिन्त्रकहाहि / दूसरी अवदशा-उसके पश्चात् वे स्त्रियाँ पूर्वोक्त अनेक उपायों से मन-वचन-काया को संवृत-सुरक्षित (गुप्त) रखने वाले उस कठोर संयमी साधु को अपने मोहपाश में इस तरह बांध लेती हैं, जिस तरह वन में एकाकी और निर्भय विचरण करने वाले पराक्रमी सिंह को मांस आदि का लोभ देकर सिंह को पकड़ने वाले चतुर शिकारी विविध उपायों से उसके गले में फंदा डालकर बांध लेते हैं। फिर वे उसे अनेक यातनाएँ देकर पालत जानवर की तरह काबू में कर लेते हैं। साधक की इस अवदशा को शास्त्रकार २५४वीं सूत्रगाथा द्वारा प्रकट करते हैं-'सोहं जहा व "एगतियमणगारं " तीसरी अबदशा-नारियों के मोहपाश में बंध जाने के पश्चात् साधु को वे अपने मनचाहे अर्थ में इस तरह झका लेती है. जिस तरह रथकार रथ के चक्र के बाहर की पटठी को क्रमशः गोलाकार बना कर नमा देता है / स्त्री के मोहपाश में बँधा हुआ साधु फिर चाहे जितनी उछलकूद मचा ले, वह पाश से मुक्त नहीं हो सकता। यह उक्त साधु की तीसरी अवदशा है, जिसे सूचित करते हुए २५५वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार कहते हैं-'अह तत्थ पुणो नमयंति...."फंदते वि ण मुच्चए ताहे / ' / चौथी अवदशा--साधु की उस समय होती है, जब वह स्त्रीसंसर्गरूपी झूठन या त्याज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त हो जाता है / उसी के सेवन में प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रकार कहते हैं-ऐसा कुशील पाशस्थ या पार्श्वस्थ, अवसत्र, संसक्त और अपच्छन्द रूप कुशील साधकों में कोई एक है, अथवा वह काथिक, पश्यक, सम्प्रसारक और नामक रूप कुशोलों में से कोई एक कुशील है। यह निश्चित है कि स्त्रीसंग आदि निन्द्य कृत्यों से ऐसी कुशील दशा प्राप्त हो जाती है। ऐसा कुशोल साधु सामाजिक एवं राजकीय दृष्टि से निन्द्य एवं दण्डनीय होता है / इसो तथ्य को शास्त्रकार २५८वीं सूत्रगाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा व्यक्त करते हैं-'जे एय......"ते कुसीलाणं / ' पांचवी अववशा–साधु को एकान्त स्थान में किसी स्त्री के साथ बैठे हुए या वार्तालाप करते हुए 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 113 के अनुसार / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन- स्त्रीपरिज्ञा देखकर उस स्त्री के ज्ञाति (पारिवारिक) जनों और सुहृदजनों (हितषियों) के हृदय में दुःख उत्पन्न होता है। उन्हें उस अकेली स्त्री का साधु के पास बैठे रहना बहुत बुरा लगता है / वे इसे अपनी जाति या कुल की बदनामी या कलंक समझते हैं / वे साध के इस रवैये को देखकर उसके सम्बन्ध में अनेक प्रकार की शंका-कुशंका एवं निन्दा करते हैं। उस स्त्री के स्वजनों द्वारा बार-बार रोक-टोक करने और समझाने पर भी जब वह अपनी इस बुरी आदत को नहीं छोड़ता तो वे कु द्ध होकर उससे कहते हैं-अब तो आप ही इसका भरण-पोषण करिये, क्योंकि यह आपके पास ही अधिकतर बैठी रहती है, अतः अब तो आप ही इसके स्वामी हैं। अथवा उस स्त्री के जातिजन उस साधु पर ताना कसते हुए कहते हैं-'हम लोग तो इसके भरण-पोषण करने वाले हैं, इसके पति तो तुम हो, क्योंकि यह अपने सब कामकाज छोड़कर सदा तुम्हारे पास ही बैठी रहती है। कितनी निन्दा, भर्त्सना बदनामी, अपमान और अवदशा है, स्त्री संसर्ग के कारण ! यही अवदशा शास्त्रकार ने २६०वीं सूत्रगाथा में अभिव्यक्त की है। छठी अवदशा-तपस्वी साधु को भी किसी स्त्री के साथ एकान्त में बैठे या वार्तालाप करते देखकर कई लोग सहन नहीं करते, वे क्रोधित हो जाते हैं / अथवा 'समणं दठ्ठदासोणं' का यह अर्थ भी हो सकता है-तपस्वी साधु को अपनी स्वाध्याय, ध्यान एवं संयमक्रियाओं के प्रति उदासीन (लापरवाह) होकर जब देखो, तब किसी स्त्री के साथ एकान्त में बैठकर बातचीत करते देखकर कई लोगों में रोष पैदा हो जाता है। इसी अवदशा को शास्त्रकार सवगाथा 261 के पूर्वाद्ध में अभिव्यक्त करते हैं-'समणं वठ्ठदासी णं....."एगे कुप्पंति।' सातवीं अबदशा-वे साधु के लिए भाँति-भांति के पकवान बनाते और देते देखकर कई लोग उस स्त्री के प्रति चरित्रहीन या बदचलन होने की शंका करते हैं / इसी बात को शास्त्रकार २६१वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में व्यक्त करते हैं-'अदुवा भोयणेहि णत्यहि इत्यीदोससंकिणो होति / ' अथवा इस पंक्ति का यह अर्थ भी सम्भव है-'अब यह स्त्री उस साधु के आने पर चंचलचित्त होकर श्वसुर आदि को आधा आहार या एक के बदले दूसरा भोज्य पदार्थ परोस देती है, इसलिए वे उस स्त्री के प्रति एकदम शंकाशील हो जाते हैं कि यह स्त्री अवश्य ही उस साधु का संग करती होगी, क्योंकि यह उस साधु के लिए विशिष्ट आहार बना कर रखती है या देती है। वृत्तिकार ने इस अर्थ का समर्थक एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है कि एक स्त्री भोजन की थाली पर बैठे अपने पति व श्वसुर को भोजन परोस रही थी, किन्तु उसका चित्त उस समय गाँव में होने वाले नट के नृत्य को देखने में था। अतः अन्यमनस्क होने से उसने चावल के बदले रायता परोस दिया ! उसके श्वसुर और पति इस बात को ताड़ गए। उसके पति ने क्र द्ध होकर उसे बहुत पीटा और परपुरुषासक्त जानकर उसे घर से निकाल दिया। निष्कर्ष यह है कि स्त्रीसंसर्ग या स्त्री के प्रति लगाव के कारण साधु के चरित्र पर लांछन आता है, लोग उसके प्रति दोष की आशंका से शंकित रहते हैं। आठवीं अवदशा-बहुत-से साधु घरवार आदि छोड़कर साधु ओर गृहस्थ के मिलेजुले आचार का Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 267 पालन करते हैं, और उसी को संयमपथ या मोक्षमार्ग बताते हैं / अथवा उसी की विशेषता बताते हैं, उसी के समर्थन में तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। अपने द्वारा स्वीकृत मार्ग को ही वे ध्रुव (धोरी या उत्सर्ग) मार्ग बतलाते हैं / वे द्रव्यसाधु ऐसी प्ररूपणा इसलिए करते हैं कि घरवार, कुटुम्ब कबीला और धनसम्पत्ति आदि पूर्वसंग छोड़ देने के बावजूद भी मोह कर्मोदयवश वे पुनः स्त्रियों से संसर्ग, भक्तभक्ताओं से अतिपरिचय, परिजनों से मोहममता आदि के कारण न तो वे पूरे साधुजीवन के मौलिक आचार का पालन कर पाते हैं और न ही वे गृहस्थजीवन के आचार का पूर्णतया पालन करते है। इसी कारण वे ऐसे स्वकल्पित मिश्रमार्ग को अपना लेते हैं। उन कुशीलों के द्वारा मिश्र मार्ग का यह प्रतिपादन केवल वाणी की ही शूरवीरता समझनी चाहिए। उनके द्वारा इस मिश्रमार्ग को अपनाने के पीछे कोई शास्त्रसम्मत आचार का वल नहीं है। यह साधु-जीवन की एक विडम्बना ही है, जिसे शास्त्रकार इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं- 'बहवे गिहाई... "वायावीरियं कुसोलाणं / ' नौवीं अवदशा--स्त्रीसंगरूप उपसर्ग से पराजित कुशील साधक को पतन दशा यहाँ तक हो जाती है कि वह शीलभ्रष्ट, अशुद्ध एवं दोषयुक्त होते हुए भी भरी सभा में अपने आपको शुद्ध, निर्दोष एवं दूध का धोया कहता है / वह भरी सभा में जोर से गर्जता हुआ कहता है--मैं शुद्ध-पवित्र हूँ, मेरा जीवन निष्पाप है / परन्तु उसके काले कारनामों को जानने वाले जानते हैं कि उसकी शुद्धता की दुहाई धोखा है, प्रवंचना है, छलावा है। वह छिप-छिपकर एकान्त में पापकर्म करता है, यह मायावी और महाधूर्त है। शास्त्रकार सुत्रगाथा 264 द्वारा इसी बात को कहते हैं-'सद्ध रवति ......"महासढेऽयं ति। आशय यह है कि उसकी विसंगत दिनचर्या से, उसके शिथिल आचार-विचार से, तथा उसकी अंगचेष्टाओं पर से यह भलीभाँति जानते हैं कि यह केवल वचन के गुब्बारे उछालता है। यह जितना और जो कुछ कहता है, आचरण में उतना ही विपरीत है / मोहान्धपुरुष अँधेरे में छिपकर कुकृत्य करता है, और सोचता है कि मेरे पापकर्म को कौन जानता है ? मगर नीतिकार कहते हैं "आकारिंगित र्गत्या चेष्टया भाषणेन च / नेत्र-वस्त्रविकारेण लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः // " अर्थात्-आकृति से इशारों से, गति (चाल-ढाल) से, चेष्टा से, भाषण (बोली) से, तथा आँख और मुंह के विकारों से किसी व्यक्ति के अन्तर्मन में रही हुई बात परिलक्षित हो जाती है। साधारण मनोविज्ञान के अभ्यासियों या सतत सम्पर्क में रहने वालों से उस व्यक्ति के दुष्कर्म छिपे नहीं रह सकते। दसवीं अवदशा-ऐसा दुष्कर्मी द्रव्यलिंगी अज्ञपुरुष अपने दुष्कर्म (पाप) को स्वयं आचार्य या गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करता, वह चाहे जितना पापकर्म करता हो, वाहर से तो वह धर्मात्मा ही कहलाना चाहता है / मिष्ठ कहलाने की अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वह गुप्त रूप से पाप या कुशील सेवन करता है, ताकि कोई उसे पापी न कह सके किन्तु उसके प्रच्छन्त्र पापों के जानकार गुरु, आचार्य या कोई हितैषी व्यक्ति उसे अपने पापों या दुष्कृत्यों को प्रकट करने या कहने के लिए आदेश या प्रेरणा देते हैं तो वह उनकी बातों को ऊपर ही ऊपर उड़ा देता है, या सुनी-अनसुनी कर देता है / इसके पश्चात् आचार्य या गुरु उसकी थोथी बातें सुनकर सखेद बार-बार कहासुनी करते या प्रेरणा देते हैं कि 'तुम आज से मन से भी मैथुनसेवन की इच्छा मत करो, तब वह एकदम मुर्दा जाता Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 सूत्रकृतांग : चतुर्थ अध्ययन : स्त्रीपरिज्ञा है, झेंप जाता है, या उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लग जाती हैं या उसका चेहरा फीका हो जाता है, अथवा मर्माहत-सा खित्र होकर कहता है---मुझ पर पाप की आशंका की जातो है, तब मुझे पापरहित होकर क्या करना है, यों ही सही !' इस प्रकार कुशील साधक की संघ और समाज में बड़ी दुर्गति होती है। शास्त्रकार सू० गा० 265 में इसी अवदशा को सूचित करते हैं-'सयं दुक्कडं...गिलाई से मुज्जो।' ग्यारहवीं अवदशा-स्त्रीजन्य आकर्षण इतना प्रबल होता है कि बड़े-बड़े इन्द्रिय-विजेता पुरुष भी महामोहान्ध होकर नारियों के वश में हो जाते हैं / वे स्त्रियों के इतने गुलाम हो जाते है कि वे स्वप्न में बड़बड़ाती हुई स्त्री भला या बुरा जो भी कार्य करने को उनसे कहती हैं, वे उसे करते हैं। ऐसे भुक्तभोगी परिपक्व साधक की भी जब इतनी विडम्बना हो जाती है, तब सामान्य कच्चे साधक की तो बात ही क्या ? इसी अवदशा को शास्त्रकार सू० गा० 266 में व्यक्त करते हैं-'उसिया वि... .."उवकसति / ' भारहवीं अवदशा-जो व्यक्ति (साधुवेषी) स्त्रियों से संसर्ग रखते हैं वे रंगे हाथों पकड़े जाएँ तो सामाजिक लोगों या राजपुरुषों द्वारा उनके हाथ-पैर काट डाले जाने की सम्भावना है, अथवा उसकी चमड़ी उधेड़ी जा सकती है, तथा माँस भी काटा जा सकता है। यह भी सम्भव है कि उस स्त्री के स्वजन वर्ग द्वारा उकसाए हुए राजपुरुप उक्त परस्त्रीलम्पट साधु वेषी को भट्टी पर चढ़ाकर आग में जला दें, या उसका अंग छीलकर उस पर नमक आदि खार पदार्थ छिड़क दें / इसी अवदशा को व्यक्त करते हुए शास्त्रकार २६७वीं सूत्रगाथा में कहते हैं—'अवि हत्यपादछेदाए "च्छिध खारसिचणाई च / ' तेरहवीं अबदशा-ऐसे पाप-संतप्त (पापाग्नि से जलते हए) साधवेषी पुरुष अपने कृत पाप के फलस्वरूप इस लोक में कान और नाक का छेदन या गले का छेदन तक सहन कर लेते हैं, तथा परलोक में नरक आरि दुर्गतियों में अनेक प्रकार की यातनाएँ भी सह लेते हैं, लेकिन यह निश्चय नहीं कर सकते कि अब भविष्य में पापकर्म नहीं करेंगे / अर्थात् - इहलोक एवं परलोक के भयंकर दुःख उन्हें मंजूर हैं, लेकिन पापकर्म छोड़ना मजूर नहीं / शास्त्रकार इसी अवदशा को सू० गा० 267 में अभिव्यक्त करते हैं'अदु कण्णणासियाच्छेज्ज..."पुणो न काहिति / ' चौदहवीं अवदशा- ससार में फंसाने वाली नारी में आसक्त, उत्तम सदाचार से भ्रष्ट एवं इहलोक परलोक के नाश से नहीं डरने वाले कई उद्धत साधुवेषी पुरुष मैथुन सेवन आदि पाप कर्म करते हैं, किन्तु आचार्य, गुरु आदि के द्वारा पूछे जाने पर विल्कुल इन्कार करते हुए कहते हैं-मैं ऐसे वैसे कुल में उत्पन्न ऐरा गैरा साध नहीं है; जो पाप कर्म के कारणभूत अनूचित कर्म करू / यह तो मेरी पुत्री के समान है, यह बाल्यकाल में मेरो गोदी में सोती थी। अत: उस पूर्वाभ्यास के कारण ही यह मेरे साथ ऐसा आचरण करती है / वस्तुतः मैं संसार के स्वभाव को भलीभांति जानता हूँ। प्राण चले जाएं, मगर मैं व्रत-नाश नहीं करूंगा।' इस प्रकार कपट करके पाप को छिपाने वाला साधु मोह कर्म से और अधिक लिप्त हो जाता है। कितनी भयंकर अधोदशा है, स्त्रीमोहियों की ! इसे ही शास्त्रकार 274 वीं सू. मा. में व्यक्त करते हैं-कुवंति पावगं अंबे साइणी ममेस ति' / पन्द्रहयो अवदशा - रागद्वेष से आकुलबुद्धि वाले अतत्त्वदर्शी मूढ साधक की यह दूसरी मूढ़ता है कि एक तो वह लम्पटतापूर्वक अकार्थ करके चतुर्थ महाव्रत का नाश करता है. दूसरे, वह किये हुए उक्त दुष्कृत्य का स्वीकार न करके मिथ्या भाषण करता हुआ कहता है- मैंने यह दुष्कर्म हर्गिज नहीं किया है, Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 266 भला मैं ऐसा कुलीन और समझदार व्यक्ति इस प्रकार का दुष्कृत्य कैसे कर सकता हूँ? मेरी भी तो इज्जत हैं (' इस प्रकार वह पापकर्म करके भी समाज में सम्मान और शान के साथ जीना चाहता है।) ऐसा व्यक्ति सदाचारी, त्यागी, तपस्वी एवं संयमी न होते हुए भी वैसा कहलाने हेतु मायाचार करता है। वह अपने कृत पापकर्म को छिपाकर बाहर से ऐसा डौल रचता है, ताकि उसकी ओर कोई अंगुली न उठा सके। ऐसे साधक की अन्तरात्मा हरदम भयभीत, शंकित और दबी हुई रहती है कि कहीं मेरी पोलपट्टी खुल न जाए। यह कितनी भयंकर विडम्बना है, साधक जीवन की ! शास्त्रकार सूत्रगाथा 275 में इसी अवदशा को व्यक्त करते हुए कहते हैं- 'बालस्समंदयं ...पूयणकामेविसण्णेसी। ये और इस प्रकार की कई अवदशाएँ स्त्रीजन्य उपसर्ग से पराजित साधक के जीवन में चरितार्थ होती हैं। अगर साधक इस अध्ययन में बताये हुए स्त्री संग रूप उपसर्ग के विभिन्न रूपों से सावधान हो जाए और अप्रमत्त होकर शास्त्रकार द्वारा दी गई प्रेरणाओं के अनुसार संयमनिष्ठ रहे तो वह इन अवदशाओं का भागी नहीं होता, अन्यथा उसकी अवदशा होती ही है। पाठान्तर और व्याख्या-विवित्त सा== वृत्तिकार के अनुसार-विविक्त स्त्री-नपुसंकादि रहित स्थान को अन्वेषण परायण, विवित्त सु पाठान्तर का अर्थ है -विविक्त-स्त्री-पशु-नपुसंक-वजित स्थानों में विचरण करूगा / चूर्णिकार ने 'विवित्त सी' शब्द के तीन अर्थ किये हैं - 'विविक्तान्येषतीति विवित्त सी, विविक्तानां साधूनां मार्गमेषतीति विवित सी अथवा कर्मविवित्तो मोक्खो, तमेवैषतीति विवित्तमेसी।' अर्थात-विविक्तैषी-एकान्त पवित्र स्थानों को ढंढ़ने में तत्पर, अथवा विविक्तैषी-विविक्तों य साधुओं के मार्ग का अन्वेषण करने वाला या विविक्त-कर्म से विविक्त--रहित अवस्था=मोक्ष, उसे जो चाहता है, वह विविक्तैषी है। परक्कम-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-'पराक्रम्य" यानी साधु के समीप आकर. अथवा पराक्रम्य अर्थात् --शील से स्खलित, होने योग्य बनाकर उस (साधु) पर हावी होकर / पाठान्तर है'परिक्कम', जिसका अर्थ होता है-साधु को चारों ओर से घेरकर, अथा उसके शील पर चारो ओर से आक्रमण करके लिस्संति स्त्रीसंग में लिप्त हो जाते हैं, या फिसल जाते हैं / उवायं पिता ओ जाणि सु== वृत्तिकार के अनुसार- साधु को छलने का उपाय भी वे जान चुकी होती हैं। 'जाणिसु' के बदले जाणंति पाठान्तर है, उसका अर्थ होता हैं-'जानती हैं।' यही पाठान्तर तथा अर्थ चूर्णिकार मान्य है। पोसवत्थ-वृत्तिकार के अनुसार-काम को पुष्ट - उत्तेजित करने वाले सुन्दर वस्त्र। चूर्णिकार के अनुसार पोसवत्थं णाम णिवसणं अर्थात पोषवस्त्र का अर्थ है--कामांगों को आच्छादित करने वाला वस्त्र / बाहमुबट काखमणबज्जे-वृत्तिकार के अनुसार-बाहें उघाडकर या ऊची करके कांख दिखाकर साधु के अनुकूल - अभिमुख (सामने से) होकर जाती है। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - बाहट्ट कक्ख परामुसे अर्थात् - बाहें उठाकर कांख को ठूती या सहलाती है / काँख पर हाथ फिराती है। सयणाऽऽसणेण जोग्गेण ---शयन-पलंग, शय्या, गद्दा या शयनगृह आदि, आसन --कुर्सी, आरामकुर्सी या चौकी, गलीचा आदि उपभोग योग्य वस्तुओं के उपभोग के लिए। समभिजाणे-स्वीकार न करे, वचनबद्ध न हो। पाठान्तर है-समणुजाणे / ' अर्थ समान है। 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 111 तक के अनुसार / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 सूत्रकृतांग-चतुर्य अध्ययन--स्त्रीपरिज्ञा आवसा निमंतेति --वृत्तिकार के अनुसार अपने साथ सम्भोग के लिए आमंत्रित करती हैं। चूणिकार 'आयसा' का संस्कृत रूपान्तर 'आत्मसात् करते हैं, तदनुसार अर्थ होता है-अपने साथ घुल मिलाकर हार्दिक आत्मीयता बताकर समागम के लिए आमंत्रित करती हैं। उवगसित्ताणं-वृत्तिकार के अनुसार'उपस श्लिष्य-समीपमागत्य' निकट आकर / चाणकार सम्मत पाठान्तर है-उपक्कमित्ता, अर्थ किया गया है-अल्लिइला=पास में अड़कर। आणवयति-वृत्तिकार के अनुसार आज्ञा करती है, प्रवृत्त करती है, साधु को अपने वश में जानकर नौकर की तरह उस पर आज्ञा (हुक्म) चलाती हैं। चूणिकारसम्मत पाठान्तर है-'आणमति' अर्थ किया गया है-'भुक्तभोगः कुमारगो वा तत्प्रयोजनात्यन्तपरोक्षः आनम्यते / अर्थात्-भुक्तभोगी या कुआरे साधु को अपने प्रयोजन से अत्यन्त परोक्ष यानी अंधेरे में रखकर अपने साथ सहवास के लिए झुका लेती है। विवेगमायाए-वृत्तिकार के अनुसार विवेक ग्रहण करके, चूर्णिकार सम्मत पाठ है--विवागमाताते=अपने कुकृत्य का विपाक-फल प्राप्त कर या जानकर / सुतवस्सिए वि= वृत्तिकार के अनुसार---विकृष्टतपोनिष्ट तप्तदेहोऽपि' अर्थात् लम्बी-लम्बी उत्कट तपस्या के द्वारा जिसने अपने शरीर को अच्छी तरह तपा लिया है, ऐसा सुतपस्वी भी, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-सुतमस्सितो वि== श्रुतमाश्रितोऽपि, अर्थात्-जो सदैव शास्त्राश्रित-शास्त्रों के आधार पर चला है. ऐसा साधु भी। 'जो विहरे सह गमित्थीसु' वृत्तिकार के अनुसार--समाधि की शत्रु स्त्रियों के साथ विहार न करेन कहीं जाए, न बैठे-उठे। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है—णो विरहे सहणमियीसुविरहो नाम नक्त दिवा वा शून्यागारादि पइरिक्कजणे वा स्वगृहे, सहणं ति देसीभासा, सहेत्यर्थः / विरहे-का अर्थ है रात्रि या दिन में सूने मकान आदि निर्जन स्थान में या स्त्री के अपने जनशून्य घर में स्त्रियों के साथ (सहण देशीय शब्द है, उसका 'साथ' अर्थ होता है) न रहे / ओए='ओजः एकः असहायः सन्' साधु ओज यानी अकेला (किसी साथी साधु के बिना) होकर / 'समणं पि दट्ठदासीणं वृत्तिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं(१) श्रमण को एकान्त स्थान में अकेली स्त्री के साथ आसीन बैठे) देखकर, (2) श्रमण को भी अपने ज्ञान, ध्यान, तथा दैनिक चर्या के प्रति उदासीन (लापरवाह) होकर केवल अमुक स्त्री के साथ बातचीत करते देखकर / (3) अथवा उदासीन-राग-द्वषरहित मध्यस्थ, श्रमण-तपस्वी (विषयसुखेच्छारहित) को भी एकान्त में स्त्री के साथ बातें करते देखकर / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है - 'समणं मपि वठ्ठदासोणा' =श्रमणम्प्रत्यपि दृष्टवा उदासीनां 'उदासीणा णाम येषामप्यसौ भार्या न भवति' = श्रमण के प्रति भी अमुक स्त्री को उदासीन (उनके प्रति भी भार्याभाव से रहित) देखकर। 'तम्हा समणा ण समें ति आतहिताय सणि सेज्जाओ'-वृत्तिकार के अनुसार चूंकि स्त्रियों के साथ संसर्ग अतिपरिचय (संस्तव) से समाधि योग का नाश होता है, इसलिए श्रमण (सुसाधुगण) सुखोत्पादक एवं मनोऽनुकूल होने से निषद्या (स्त्रियों की बैठक या निवासस्थली) के समान निषद्या या स्त्रियों के द्वारा बनाया हुआ विलास का अड्डा-माया हो, अथवा स्त्रियों को बस्ती (आवासस्थान) हो, वहाँ आत्महित की दृष्टि से नहीं जाते / चूणिकार लगभग ऐसा ही पाठ मानकर अर्थ करते है-तम्हा समणा.." ण समें ति-- ण समुपागच्छन्ति, आतहियाओ-आत्मने हितम् आत्मनि वा हितम् / सण्णिसेज्जाओ-सणसेज्जा नाम गिहिसेज्जा संथवसंकथाओ य / इस (स्त्रीसंस्तव अनर्थकारी होने के कारण श्रमण आत्मा के लिए अथवा आत्मा में हित के कारण सनिषद्या या सन्निशय्याओं के पास नहीं फटकते-उनके आसपास चारों ओर नहीं जाते। सन्निषद्या का सीधा अर्थ है-गृहस्थ शय्या तथा स्त्रियों के साथ संस्तव-संकथाएँ आदि जहाँ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 271 हों। कहीं पाठान्तर है-'तम्हा समणा उ जहाहि आयहियाओ सन्निसेज्जाओ।'-- स्त्री सम्बाध अनर्थकर होता है इसलिए हे श्रमण ! आत्महित (स्वकल्याण) की दृष्टि से खास तौर से (सविषद्याओं) स्त्रियों की बस्तियों (आवास स्थानों) का, अथवा स्त्रियों के द्वारा की हुई सेवाभक्ति रूप माया (विलास स्थली) का त्याग कर दो। मिस्सीभावं पत्युता=वृत्तिकार के अनुसार द्रव्य से साधुवेष होने से, किन्तु भाव से गृहस्थ के समान आचार होने से मिश्रभाव-मिश्रमार्ग को प्रस्तुत-प्राप्त या मिश्रमार्ग की प्रशंसा करने वाले। पाठान्तर है-'मिस्सीभावं पण्णता' (पणता) अर्थ होता है--मिश्रमार्ग की प्ररूपणा करने वाले, अथवा मिश्रमार्ग की ओर प्रणत- झुके हए। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'मिस्सीभावपण्या=पण्हता नाम गौरिव प्रस्नता। गाय के स्तन से दध झरने की तरह विचारधारा) झरने को प्रस्तुत (पण्डत) कहते हैं। जिनकी वाणी से मिश्रमार्ग की विचारधारा ही सतत झरती रहती है, वे / धुवमागमेव ध्रुव के दो अर्थ हैं--मोक्ष या संयम, उसका मार्ग ही बताते-कहते हैं। तहावेदा=वृत्तिकार के अनुसार-उस मायावी साधु के तथारूप अनुष्ठान (काली करतूत) को जो जानते हैं, वे तथावेद-तद्विद कहलाते हैं / चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-'तधावेता' अर्थ है - '...."तथा वेदयन्तीति तथावेदाः कामतंत्रविद इत्यर्थः / तथाकथित वेत्ता अर्थात् - काभतंत्र (कामशास्त्र) के वेत्ता (ज्ञाता)। इथिवेदखे दण्णा= इसके दो अर्थ फलित होते हैं- (1) स्त्रीवेद के खेदज्ञ निपुण, (2) स्त्रियों के वेद-वैशिक कामशास्त्र के अनुसार स्त्रीसम्बन्ध जनित खेद (चिन्ताओं) को जानने वाले। आइट्रोवि वत्तिकार के अनुसार आदिष्ट या प्ररित किया जाता हआ, चणिकारसम्मत पाठ हैआउट्ठोवि, अर्थ किया गया है --आकष्टो नाम चोदितः, अर्थात्-आकष्ट-आचार्यादि के द्वारा झिड़कने पर अथवा अपने पाप प्रकट करने के लिए प्रेरित किये जाने पर / वद्धमंस उक्कते=वृत्तिकार के अनुसार चमड़ी और मांस भी उखाड़े या काटे जा सकते हैं। चूर्णिकार के अनुसार-'पृष्ठोवंध्राणि उत्कृत्यन्ते' अर्थात् -पीठ की चमड़ी उधेड़ी जाती है। तच्छिय खारसिंवणाई-वृत्तिकार के अनुसार-वसूले आदि से उसके अंगों को छीलकर उस पर खार जल का सिंचन भी करते हैं / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर हैतच्छेत्तु (वासीए) खार सिंचणाई च / अर्थ समान है। विरता चरिस्स ह लह =मैं संसार से विरक्त (विरत) हो गई हूँ, रूक्ष संयम का आचरण करूगी। 'लह' के बदले कहीं-कहीं पाठान्तर हैं-'मोणं' अर्थ किया गया है-मुनेरयं मौनः संयमः, अर्थात्-मुनि का धर्म- मौन=संयम / 'अहगं साम्मिणी य तुम्भं (समणाणं)-वृत्तिकार और चूणिकार दोनों द्वारा सम्मत पाठ 'तुभं' है / अर्थ किया गया है -- 'मैं श्राविका हूँ, इस नाते आप श्रमणों को सामिणी हूँ।' एबित्थियाहिं अणगारा संवासेण णासमुवयंति' वृत्तिकार के अनुसार--इसी प्रकार स्त्रियों के साथ संवासपरिभोग से अनगार भी (शीघ्र ही) नष्ट (संयम शरीर से भ्रष्ट) हो जाते हैं / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर थगास अणगारासंवासेण णासमवयंति'-अर्थात इसी प्रकार अपने दूसरे के और दोनों के दोषों से अनगार स्त्रियों के साथ संवास से शीघ्र ही चारित्र से विनष्ट हो जाते हैं / णिमंतणेणाऽऽहंसु निमन्त्रणपूर्वक कहती हैं, या कह चुकती हैं णीवारमेवं बुज्झज्जा=वृत्तिकार के अनुसार-स्त्रियों के द्वारा इस प्रकार के (वस्त्रादि आमन्त्रणरूप) प्रलोभन को साधु नीवार (चावल के दाने) डालकर सूअर आदि को वश में करने के समान समझे। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'णीयारमंत बुझज्जा' गाय को नीरा (निकिर= चारादाना) डालकर निमंत्रित किये जाने के समान साधु भी वस्त्रादि के प्रलोभन से निमंत्रित किया Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 सूत्रकृतांग : चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिक्षा जा रहा है, यह समझ ले / णो इच्छे अगारमागंतु-वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-(१) साधु उस मायाविनी स्त्री के घर बार-बार जाने की इच्छा न करे, अथवा (2) साधु संयम भ्रष्ट होकर अपने घर जाने को इच्छा न करे / चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर हैं-(१) णो इच्छेज्ज अगारंगतु, (2) 'णो इच्छेज्ज अगारमावत' पहले पाठान्तर का अर्थ पूर्ववत् है / दूसरे पाठान्तर का अर्थ है-साधु ऐसी मायाविनी स्त्रियों के गृहरूपी भंवर में पड़ने की इच्छा न करे / ' बिइओ उद्देसओ स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना-- 277. ओए सदा ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा। भोगे समणाण सुणेहा, जह भुजति भिक्खुणो एगे // 1 // 276 अह तं तु भेदमावन्न', मुच्छितं भिक्खु काममतिवट्ट। पलिभिदियाण तो पच्छा, पादुद्धटु मुद्धि पहणंति // 2 // 280. जइ केसियाए मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए। केसाणि वि हं लुचिस्सं, नऽन्नत्थ मए चरिज्जासि // 3 // 281. अह णं से होति उवलद्धो, तो पेसंति तहाभूतेहिं / ला उच्छेदं पेहाहि, वग्गुफलाइं आहराहि त्ति // 4 // 282. दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सती रातो। पाताणि य मे रयावेहि, एहि य ता मे पट्ठि उम्मद्दे // 5 // 283 वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नपाणं च आहराहि त्ति / गंधं च रओहरणं च, कासवगं च समाजाणाहि // 6 // 284. अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कुहयं च मे पयच्छाहि / लोद्धं च लोडकुसुमं च, वेणुपलासि च गुलियं च // 7 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 113 तक के अनुसार (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० दि० जम्बूविजय जी सम्पादित) पृ० 45 से 50 तक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक: माथा 275 से 265 273 285. कुट्ठ अगुरु तगरुच, संपिठं समं उसीरेण / तेल्लं मुहं भिलिजाए, वेणुफलाइं सन्निधाणाए / / 8 / / 286. नंदीचुण्णगाई पहाहि, छत्तोवाहणं च जाणाहि / सत्थं च सूवच्छेयाए, आणीलं च वत्ययं रयावेहि // 6 // 287. सुणि च सागपागाए, आमलगाइं दगाहरणं च / तिलगकरणिमंजणसलागं, घिसु मे विधूणयं विजाणाहि // 10 // 288. संडासगं च फणिहं च, सोहलिपासगं च आणाहि / आदंसगं पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पवेसेहि // 11 // 286. पूयफलं तंबोलं च, सूईसुत्तगं च जाणाहि / कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगलणं च // 12 // 260. चंदालगं च करगं च, वच्चधरगं च आउसो ! खणाहि / सरपादगं च जाताए, गोरहगं च सामणेराए // 13 // 261. घडिगं च सडिडिमयं च, चेलगोलं कुमारभूताए। वासं समभियावन्न', आवसहं च जाण भत्तं च // 14 // 262. आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्साई संकमट्ठाए। अदु पुत्तदोहलहाए, आणध्या हवंति दासा वा / / 15 / / 263. जाते फले समुप्पन्न , गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि / अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा // 16 / / 264. राओ वि उठ्ठिया संता, दारगं संठवेति धाती वा। सुहिरीमणा वि ते संता, वत्थधुवा हवंति हंसा वा // 17 // 265 एवं बहुहिं कयपुवं, भोगत्थाए जेभियावन्ना। दासे मिए व पेस्से वा, पसुभूते वा से ण वा केइ // 18 // 278. रागद्वेषरहित (ओज) साधु भोगों में कदापि अनुरक्त न हो। (यदि चित्त में) भोग-कामना प्रादुर्भूत हो तो (ज्ञान-ज्ञानबल) द्वारा) उससे विरक्त हो जाय / भोगों के सेवन से श्रमणों की जो हानि अथवा विडम्बना होती है, तथा कई साधु जिस प्रकार भोग भोगते हैं, उसे सुनो। 276. इसके पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट, स्त्रियों में मूच्छित-आसक्त, कामभोगों में अतिप्रवृत्त (दत्त Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा चित्त) उस साधु को वे स्त्रियां बाद में अपने वशीभूत जानकर अपना पैर उठाकर उसके सिर पर प्रहार करती हैं। 280. (नारी कहती है.-.) हे भिक्षो ! यदि मुझ केशों वाली स्त्री के साथ (लज्जावश) विहार (रमण) नहीं कर सकते तो मैं यहीं (इसी जगह) केशों को नोच डालूंगी; (फिर) मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं विचरण मत करना। 281. इसके पश्चात् (जब स्त्री यह जान लेती है कि) यह (साधुवेषी) मेरे साथ घुलमिल गया है, या मेरे वश में हो गया है. तब वह उस (साधुवेषी) को (दास के समान) अपने उन-उन कार्यों के लिए प्रेरित करती-भेजती है / (वह कहती है—) तुम्बा काटने के लिए छुरी (मिले तो) देखना, और अच्छेअच्छे फल भी लेते आना / 282. (किसी समय स्त्री नौकर की तरह आदेश देती है-) 'सागभाजी पकाने के लिए इन्धनलकड़ियां (ले आओ), रात्रि (के घोर अन्धकार) में तेल आदि होगा, तो प्रकाश होगा। और जरा पात्रों (बर्तनों) को रँग दो या मेरे पैरों को (महावर आदि से) रंग दो। इधर आओ, जरा मेरी पीठ मल दो।' 283. अजी ! मेरे वस्त्रों को तो देखो, (कितने जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं ? इसलिए दूसरे नये वस्त्र ले आओ); अथवा मेरे लिए (बाजार में अच्छे-से) वस्त्र देखना अथवा देखो, ये मेरे वस्त्र, (कितने गंदे हो गए हैं इन्हें धोबी को दे दो।) अथवा पेरे वस्त्रों की जरा देखभाल करना, कहीं सुरक्षित स्थान में इन्हें रखो, ताकि चहे, दीमक आदि न काट दें। मेरे लिए अन्न और जल (पेय पदार्थ) माँग लाओ। मेरे लिए कपूर, केशतेल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ और रजोहरण (सफाई करने के लिए बुहारी या झाड़न) लाकर दो। मैं केश-लोच करने में असमर्थ हूँ, इसलिए मुझे नाई (काश्यप) से बाल कटाने की अनुज्ञा दो। 284. हे साधो ! अब मेरे लिए अंजन का पात्र (सुरमादानी, कंकण-बाजूवंद आदि आभूषण और घुघरदार वीणा लाकर दो, लोध्र का कल और फूल लाओ तथा चिकने बास से बनी हुई बंशी या वाँसुरी लाकर दो, पौष्टिक औषध गुटिका (गोली) भी ला दो। 285. (फिर वह कहती है-प्रियतम !) कुष्ट (कमलकुष्ट) सगर और अगर (ये सुगन्धित पदार्थ) उशीर (खसखस) के साथ पीसे हुए (मुझें लाकर दो।) तथा मुख (चेहरे पर लगाने का मुखकान्ति वर्द्धक) तेल एवं वस्त्र आदि रखने के लिए बांस की बनी हुई संदूक लाओ। 286. (प्राणवल्लभ !) मुझे ओठ रंगने के लिए नन्दीचूर्णक ला दीजिए, यह भी समझ लीजिए कि छाता और जूता भी लाना है / और हाँ, सागभाजी काटने के लिए शस्त्र (वाकू या छुरी) भी लेते आए। मेरे कपड़ें गहरे या हल्के नीले रंग से रंगवा दें। २८७.'(शीलभ्रष्ट पुरुष से स्त्री कहती है-प्रियवर ! ) सागभाजी आदि पकाने के लिए तपेली या 'बटलोई (सफणि) लाओ। साथ ही आँवले, पानी लाने-रखने का घडा (वर्तन), तिलक और अंजन लगाने की सलाई भी लेते आना। तथा ग्रीष्मकाल में हवा करने के लिए एक पंखा लाने का ध्यान रखना। . : 288. (देखो प्रिय !) नाक के वालों को निकालने के लिए एक चींपिया, केशों को संवारने के लिए Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 278 से 265 . 275 कंघी और चोटी बाँधने के लिए ऊन की बनी हुई जाली (सिंहलीपासक) ला दीजिए। और एक दर्पण (चेहरा देखने का शीशा) ला दो, दाँत साफ करने के लिए दत्तौन या दाँतमंजन भी घर में लाकर रखिये। 286. (प्राणवल्लभ !) सुपारी, पान, सुई-धागा, पेशाब करने के लिए पात्र (भाजन), सूप (छाजला), ऊखल एवं खार गालने के लिए बर्तन लाने का ध्यान रखना। 260 आयुष्मन् ! देवपूजन करने के लिए ताँबे का पात्र (चन्दालक) और करवा (पानी रखने का टंटीदार बर्तन) अथवा मदिरापान ला दीजिए। एक शौचालय भी मेरे लिए खोदकर बना दीजिए। अपने पुत्र के खेलने के लिए एक शरपात (धनुष) तथा श्रामणेर (श्रमणपुत्र-आपके पुत्र) की बैलगाड़ी खींचने के लिए एक तीन वर्ष का बैल ला दो। 261. शीलभ्रष्ट साधु से उसकी प्रेमिका कहती है--प्रियवर ! अपने राजकुमार-से पुत्र के खेलने के लिए मिट्टी की गुड़िया, झुनझुना, बाजा, और कपड़े की बनी हुई गोल गेंद ला दो। देखो, वर्षाऋतु निकट आ गई है, अत: वर्षा से बचने के लिए मकान (आवास) और भोजन (भक्त) का प्रबन्ध करना मत भूलना। 292. नये सूत से बनी हुई एक मॅचिया या कुर्सी, और इधर-उधर घूमने-फिरने के लिए एक जोड़ी पादुका (खड़ाऊ) भी ला दें। और देखिये, मेरे गर्भस्थ-पुत्र-दोहद की पूर्ति के लिए अमुक वस्तुएँ भी लाना है। इस प्रकार शीलभ्रष्ट पुरुष स्त्री के आज्ञापालक दास हो जाते हैं, अथवा स्त्रियाँ दास की तरह शीलभ्रष्ट पुरुषों पर आज्ञा चलाती हैं। 263. पुत्र उत्पत्र होना गार्हस्थ्य का फल है / (पुत्रोत्पत्ति होने पर उसको प्रेमिका रूठकर कहती हैं-) इस पुत्र को गोद में लो, अथवा इसे छोड़ दो, (मैं नहीं जानती)। इसके पश्चात् कई शीलभ्रष्ट साधक तो सन्तान के पालन-पोषण में इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर वे जिंदगी भर ऊंट की तरह गार्हस्थ्य-भार ढोते रहते हैं। 264. (वे पुत्रपोषणशील स्त्रीमोही पुरुष) रात को भी जागकर धाय की तरह बच्चे को गोद में चिपकाए रहते हैं / वे पुरुष मन में अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी (प्रेमिका का मन प्रसत्र रखने के लिए) धोवी की तरह स्त्री और बच्चे के वस्त्र तक धो डालते हैं। 265 इस प्रकार पूर्वकाल में बहुत से (शील भ्रष्ट) लोगों ने किया है। जो पुरुष भोगों के लिए सावध (पापयुक्त) कार्य में आसक्त हैं, वे पुरुष या तो दासों की तरह हैं, या वे मृग की.तरह भोले-भाले नौकर हैं, अथवा वे पशु के समान हैं , या फिर वे कुछ भी नहीं (नगण्य अधम व्यक्ति) हैं। .. ... ... विवेचन-स्त्री संग से भ्रष्ट साधकों को विडम्बना-सूत्रगाथा 278 से 265 तक में स्त्रियों के मोह में फंसकर काम-भोगों में अत्यासक्त साधकों की किस-किस प्रकार से इहलोक में विडम्बना एवं दुर्दशा होती है, और वे कितने नीचे उतर आते हैं, इसका विशद वर्णन शास्त्रकार ने किया है। ये विडम्बनायें क्यों और कितने प्रकार की ?--साधु तो निग्रंथ एवं वीतरागता के पथ पर चलने वाला तपस्वी एवं त्यागी होता है, उसके जीवन की सहसा विडम्बना होती नहीं, निःस्पृह एवं निरपेक्ष जीवन की दुर्दशा होने का कोई कारण नहीं किन्तु बशर्ते कि वह प्रतिक्षण जागरूक रहकर रागभाव और Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा उसके कारणों से दूर रहे। वीतरागता के पथिक द्रव्य और भाव से एकाकी साधक में रागभाव आ जाता है या अन्य पदार्थों में आसक्ति होती है, तव साधु जीवन की विडम्बना होती है, विशेषतः स्त्री सम्बन्धी राग, आसक्ति या मोह का बन्धन तो अत्यधिक विडम्बनाकारक है। इसीलिए शास्त्रकार सूत्रगाथा 278 में निर्देश करते हैं-"ओए सदा ण रज्जेज्जा / " ___ इस चेतावनी के बावजूद साधु के चित्त में पूर्व संस्कारवश या मोहकर्म के उदयवश काम-भोग पासमा प्रादुर्भूत हो जाए, तो ज्ञान रूपी अंकुश से मारकर तुरन्त उन काम-भोगों से विरक्त-विरत हो आना चाहिए / जैसे मुनि रथनेमि को महासती राजीमती को देखकर कामवासना प्रादुभूत हो गई थी, लेकिन ज्यों ही महासती राजीमती का ज्ञान-परिपूर्ण वचन रूप अंकुश लगा कि वे यथापूर्व स्थिति में आगए थे, एकदम कामराग से विरत होगए थे। वैसे ही साधु का मन कदाचित् स्त्री सम्बन्धी भोगवांसना से ग्रस्त हो जाए तो फौरन वह ज्ञान बल द्वारा बलपूर्वक उसे रोके, उसमें बिल्कुल दिलचस्पी न लै, यथापूर्व स्थिति में आ जाए तो वह शील भ्रष्टता एवं उसके कारण होने वाली विडम्बनाओं से बर्च सकती है। स्त्रो सम्बन्धी भोगवासना चित्त में आते ही श्रमण इस प्रकार से चिन्तन करे कि "वह स्त्री मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ। फिर मेरा उसके प्रति रागभाव क्यों ? यह तो मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो वीतरागभाव है। इसप्रकार वह आत्मत्राता श्रमण रागभाव को अपने हृदय से खदेड़ दे।" और फिर काम-भोग तो किम्पाकफल के समान भयंकर हानिकारक है। किम्पाकफल तो एक ही बार, और वह भी शरीर को ही नष्ट करता है, लेकिन स्त्रीजन्य कामभोग बार-बार जन्म-जन्मान्तर मैं शरीर और आत्मा दोनों को नष्ट करते हैं। इसीलिए शास्त्राकार कहते हैं-'भोमकामी पुणो निरज्जेज्जा। शास्त्रकार की इतनी चेतावनी के बावजूद जो साधु काम-भोगों को कामना को न रोककर उल्टे ऑसक्ति पूर्वक काम-भोगों के प्रवाह में बह जाता है, लोग उसकी हंसी उड़ाते हैं, कहते हैं-'वाह रे साधु ! कल तो हमें काम-भोगों को छोड़ने के लिए कह रहा था, आज स्वयं ही काम-भोंगों में बुरी तरह लिपट गया ! यह कैसा साधु है ! इस प्रकार वह साधु जनता के लिए अविश्वसनीय, अश्रद्धेय, अनादरणीय और निन्दनीय बन जाता है। उसके साथ-साथ उससे सम्बन्धित गुरु, आचार्य तथा अन्य सम्बन्धित श्रमण भी लोक विडम्बना, लोकनिन्दा एवं घोर आशातना के पात्र बन जाते हैं। इसी आशय को व्यक्त करने के लिए शास्त्रकार एकवचन युक्त श्रमण शब्द का प्रयोग न करके बहुवचनयुक्त 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 के अनुसार 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 के अनुसार (ख) "तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं / अंकुसेण बहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ // " -दशबै० अ०२ गा० 10, तथा उत्तरा अ० 62 गा० 46 (ग) "न सा महं, नो वि अहंपि तीसे इच्चेव ताओ विणएज्ज राग।" -दशव० अ०२ गा०४ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 278 से 265 277 श्रमण शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं-भोगे समणाण....।' जो साधु स्त्री सम्बन्धी कामभोग-सेवन से होने वाली घोर हानि एवं हंसो की उपेक्षा करके धृष्ट होकर भोग-सेवन में प्रवृत्त हो जाते हैं, उनकी कैसी-कैस / दुर्दशा या विडम्बना होती है ? यह विस्तार से बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं'....सुहा, जह मुजति भिक्खुणो एगे।' अर्थात-शास्त्रकार स्त्री सम्बन्धी भोगों में आसक्त शीलभ्रष्ट साधकों का बुरा हाल अगली 17 गाथाओं में स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।' चार प्रकार की मुख्य विडम्बनायें-चारित्रभ्रष्ट, स्त्रियों में मूछित, काम-भोगों में प्रवृत्त साधुवेषी साधक की जो भयंकर विडम्बनाएं होती हैं, उन्हें मुख्यतया चार प्रकारों में बांटा जा सकता है(१) स्त्री वशीभूत साधक के सिर पर स्त्री लात मारती है, (2) अपने साथ रहने के लिए विवश कर देती हैं, (3) घुल-मिल जाने पर नित नई चीजों की फरमाइश करती हैं; और (4) नौकर की तरह उस पर हुक्म (आज्ञा) चलाती है। पहली विडम्बना--जब मायाविनी नारियाँ शीलभ्रष्ट साधु को उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति, रंग-ढंग, चाल-ढाल और मनोभावों पर से जान लेती हैं कि यह पूरी तरह हमारे वश में हो गया है / अब हम जैसे इसे कहेंगी, वैसे ही यह बिना तर्क किये मान लेगा, तब वे सर्वप्रथम उसे पक्का गुलाम बनाने की दृष्टि से उसके प्रति किये हुए उपकारों का बखान करती हुई तरह-तरह की बातें कहती हैं / वे नारियाँ जब रूठने का-सा स्वांग करके नाराजी दिखलाती हैं, तब स्त्रियों का दास बना हुआ वह शीलभ्रष्ट साधु उन रुष्ट कामिनियों को मनाने और उन्हें प्रसन्न करने के लिए अनुनय-विनय करता हैं, उनके निहोरे करता है, दोन बनकर उनके चरणों में गिरता है, उनकी झूठ-मूठ प्रशंसा भी करता है। इतने पर भी रूठी हुई स्त्रियाँ उस कामासक्त साधु की वशवर्तिता और चारित्र दुर्बलता जानकर नही मानती और नाराज होकर उसके सिर पर लात दे मारती हैं, किन्तु स्त्री-मोहित मूढ साधक उन कुपित स्त्रियों की मार भी हंसकर सह लेता है। यह कितनी भयंकर विडम्बना है, कि वह श्रमणसिंह होता हुआ भी स्त्री परवशता के कारण स्त्रियों के आगे दीन-हीन कायर और गुलाम बन जाता है / शास्त्राकार सूत्रगाथा 276 में भ्रष्ट साधक की इसी विडम्बना को व्यक्त करते हैं- 'अह तं तु. पायमुटटु मुद्धि पहणंति।' दूसरी विडम्बना- कई कामुक नारियाँ एक वार शीलभ्रष्ट होने के बाद उस साधु को अपने केशों की लटें दिखलाती हुई कहती है-“अगर मेरे इन केशों के कारण तुम मेरे साथ रमण करने में लज्जित होते हो तो लो, मैं अभी इसी जगह इन केशों को नोंच डालती हूँ।" (केश लुञ्चन तो उपलक्षण मात्र है, कामिनी साधु को बचनबद्ध करने के लिए कहती है-) मैं ये केश भी उखाड़ डालूंगी, और इन आभूषणों को भी उतारने में नहीं हिचकुंगी, और भी विदेशगमन, धनोपार्जन आदि कठोर से कठोर दुष्कर काम भी मैं तुम्हारे लिए कर लूंगी, सभी कष्टों को सह लूंगी, बशर्ते कि तुम मेरी एक प्रार्थना को स्वीकार करो, और मुझे वचन दो तुम मेरे सिवाय अन्य किसी भी स्त्री के साथ विहरण नहीं करोगे 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 पर से Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 सूत्रकृतांग- चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाओगे / मैं तुम्हारा वियोग क्षणभर भी नहीं सहन कर सकूँगी। तुम मुझे जो भी आज्ञा दोगे, मैं उसका पालन निःसंकोच करूंगी।" इस प्रकार कामुक नारी भद्र साधु को वचनवद्ध करके विडम्बित करती है, कामजाल में फंसा कर उसका जीवन दुःखित कर देती है इसी विडम्बना को धोतित करने के लिए सूत्रगाथा 280 द्वारा शास्त्रकार कहते हैं-'जइ केसियाए 'नन्नऽत्य मए चरिज्जासि / ' तीसरी विडम्बना-स्त्रियाँ अपने प्रति मोहित शीलभ्रष्ः साधु को कोमल ललित वचनों से दुलार कर आश्वस्त-विश्वस्त करके वचनबद्ध कर लेती हैं, और जब वे भली-भांति समझ लेती हैं कि अब यह साधु मेरे प्रति पक्का अनुरागी हो गया है, तब वह उस साधु को प्रतिदिन नई-नई चीजों की फरमाइश करती है, कभी गृहोपयोगी, कभी अपने साज-सज्जा शृगार की और कभी अपनी सुख सुविधा की वस्तु को माँग करती रहती है, अपनी प्रेमिका की नित नई फरमाइशें सुन-सुनकर वह घबरा जाता है, तब उसे आटे-दाल का भाव मालूम होता है कि गृहस्थी बसाने में या किसी स्त्री के साथ प्रणय सम्बन्ध जोड़ने पर कितनी हैरानी होती है ? अर्थाभाव या आर्थिक संकट के समय कितनी परेशानी भोगनी पड़ती है। प्रेमिका द्वारा की गई मांगों को ठुकरा भी नहीं सकता, पूर्ति से इन्कार भी नहीं कर सकता बरबस उन माँगों की पूर्ति करते-करते उसकी कमर टूट जाती है, थोड़े-से विषय सुख के बदले कई गुना दुःख पल्ले पड़ जाता है / यह भयंकर विडम्बना नहीं तो क्या है ? कामिनियाँ यो एक पर एक फरमाइशें प्रायः मोहमूढ एवं स्त्रीवशवर्ती भ्रष्ट साधक से किया करती हैं। इन सब फरमाइशों के अन्त में लाओ-लाओ का संकेत रहता है / अगर वह किसी माँग की पूर्ति नहीं करता है तो प्रेमिका कभी झिड़कती है, कभी मीठा उलाहना देती है, कभी आँखें दिखाती हैं, तो कभी झूठी प्रशंसा करके अपनी मांग पूरी कराती है। ललनासक्त पुरुष को नीचा मुह किये सब कुछ सहना पड़ता है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है। फिर तो रात-दिन वह तेली के बैल की तरह घर के कार्यों में ही जुता रहता है, साधना ताक में रख दी जाती है / इसी तथ्य को शास्त्रकार (सूत्रगाथा 281 से 262 तक) 12 गाथाओं द्वारा प्रकट करते हैं--"अहणं से होती "अदु पुत्तदोहलढाए""" चौथी विडम्बना-पूर्वोक्त तीनों विडम्बनाओं से यह विडम्बना भयंकर है। इस विडम्बना से पीड़ित होने पर शीलभ्रष्ट साधक को छठी का दूध याद आ जाता है। प्रमिका नारी जब जान लेती है कि यह भूतपूर्व साधु अब पूरा गृहस्थी बन गया है, मुझ पर पूर्ण आसक्त है, और अब यह घर छोड़कर कहीं जा नहीं सकता, तब वह उस पुरुष को मौका देखकर विभिन्न प्रकार की आज्ञा देती है जैसे(१) जरा मेरे पैरों को महावर आदि से रंग दो, या मेरे पात्रों को रंग दो, (2) इधर आओ, मेरी पीठ में दर्द हो रहा है, जरा इसे मल दो, (3) मेरे वस्त्रों की अच्छी तरह देखभाल करो, इन्हें सुरक्षित स्थान में रखो, ताकि चूहे, दीमक आदि नष्ट न करें, (4) मुझ से लोच को पीड़ा सही नहीं जाती, अत: नाई से बाल कटवा देने होंगे, (5) मैं शौच के लिए बाहर नहीं जा सकती, अतः शौचादि के लिए एक शौचालय (व!गृह) यहीं खोदकर या खुदवाकर बना दो, (6) पुत्र उत्पन्न होने पर उसे संभालने, रखने और 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 से 118 तक Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 द्वितीय उद्देशक : गाया 278 से 295 खिलाने की क्रिया द्वारा कठोर आदेश-या तो अपने लाल को संभालो नहीं तो छोड़ दो, मैं नहीं संभाल सकती। (7) स्त्रीमोही पुरुष (प्रिया की आज्ञासे) रात-रात भर जागकर धाय की तरह बालक को छाती से चिपकाए रखता है। प्रिया का मन प्रसन्न रखने के लिए निर्लज्ज होकर धोवी की तरह उसके और वच्चे के कपड़े धोने पड़ते हैं। निष्कर्ष यह है कि अपने पर गाढ अनुरक्त देख कर स्त्री कभी पुत्र के निमित्त से, कभी अन्यान्य प्रयोजनों से, कभी अपनी सुख-सुविधा के लिए पुरुष को एक नौकर समझ कर जब-तब आदेश देती रहती है और स्त्रीमोही तथा पुत्रपोषक पुरुष महामोहकर्म के उदय से इहलोक और परलोक के नष्ट होने की परवाह न करके स्त्री का आज्ञा-पालक बन कर सभी आज्ञाओं का यथावत् पालन करता है / शास्त्रकार इसी तथ्य को स्पष्टतः व्यक्त करते हैं- "आणप्पा हवंति दासा व / ऐसे विडम्वनापात्र पुरुष पांच प्रकार के-शास्त्रकार ने स्त्री वशीभूत पुरुषों की तुलना पाँच तरह से की है-(१) दास के समान, (2) मृग के समान, (3) प्रेष्य (नौकर) के समान, (4) पशु के समान और (5) सबसे अधम नगण्य / दास के समान -- इसलिए कहा गया कि स्त्रियाँ निःशंक होकर उन्हें गुलाम (दास) की तरह (पूर्व गाथाओं में उक्त) निकृष्टकामों में लगाती हैं। मृग के समान- इसलिए कहा गया कि जैसे जाल में पड़ा हुआ मग परवश हो जाता है वैसे ही कामजाल में पड़ा हुआ स्त्री, वशीभूत पुरुष भी इतना परवश हो जाता है कि स्वेच्छा से वह भोजनादि कोई भी क्रिया नहीं कर पाता। कोतदास या प्रेष्य के समानइसलिए कहा गया है कि उसे नौकर की तरह काम में लगाया जाता है / पशु के समान इसलिए कहा गया है कि स्त्री-वशीभूत पुरुष भी पशु की तरह कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से शून्य तथा हितप्राप्ति एवं अहितत्याग से रहित होते हैं। जैसे पशु आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृति को ही जीवन का सर्वस्व समझते हैं, वैसे ही स्त्रीवशीभूत पुरुष भी अहर्निश भोग प्राप्ति, सुखसुविधाओं की अन्वेषणा कामभोगों के लिए स्त्री की गुलामी, ऊँट की तरह रातदिन तुच्छ सांसारिक कार्यों में जुटे रहने एवं उत्तम निरवद्य अनुष्ठानों से दूर रहने के कारण पशु-सा ही है / अथवा स्त्रीवशीभूत पुरुष दास, मृग, प्रेष्य और पशु से भी गया वीता, अधम और नगण्य है / वह पुरुष इतना अधम है कि उसके समान कोई नीच नहीं है, जिससे उसकी उपमा दी जा सके / अथवा उभयभ्रष्ट होने के कारण वह पुरुष किसी भी कोटि में नहीं है, कुछ भी नहीं है / अथवा इहलोक-परलोक का सम्पादन करनेवालों में से वह किसी में भी नहीं है / इसी बात को शास्त्रकार अभिव्यक्त करते हैं- "दासे मिए व पेस्से वा पसुभूतेवासे ण वा कहे।" कठिन शब्दों की व्याख्या -- ओए ओज, द्रव्य से परमाणुवत् अकेला और भाव से राग-द्वषरहित / सदा सदा के लिए या कदापि / भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा=वृत्तिकार के अनुसार यदि मोहोदयवश कदाचित् साधु भोगाभिलाषी हो जाए तब स्त्री सम्बन्धी भोगों से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुःखों का विचार करके पुनः उन स्त्रियों से विरक्त हो जाऐ, चूर्णिकार के अनुसार भोगकामी पुनः विशेष रूप से रक्तगृद्ध हो जाता है। तो पेसति तहाभूतेहि--मदन रूप कामों में जिसकी मति (बुद्धि या मन) की वृत्ति-प्रवृत्ति है, अथवा काम-भोगों में जो अतिप्रवृत्ति है, कामाभिलाषी है। पलिभिदिया= यह मेरी बात 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 116 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिमा मान लेता है, अर्थात् मेरे वश में हो गया है, इस प्रकार भलीभांति जान कर अथवा अपने द्वारा उसके लिए किये हुऐ कार्यों को गिना कर, उक्लद्धो-स्त्री जब पुरुष की आकृति, चेष्टा इशारे आदि से यह जान लेती है कि यह साधु मेरे वशीभूत हो गया है / 'तो पेसंति तहाभूएहि तब उसके अभिप्राय को जानने के पश्चात नौकर के द्वारा करने योग्य तुच्छ एवं छोटे से छोटे कार्य में नियुक्त करती है अथवा तथाभूत कार्यों का अर्थ यह भी है साधुवेष में रहन वाले पुरुष के योग्य कार्यों में प्रवृत्त करती है। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है 'ततो णं देसेति तहारुवेहि' अर्थ होता है वशीभूत हो जाने के बाद तथारूप कार्यों के लिए आदेश देती है / पहाहि == देखना, प्राप्त करना / वाफलाई आहराहिति = वल्गु-अच्छे-अच्छे नारियल, केला आदि फलों को ले आना / अथवा वगफलाई (पाठान्तर) का 'याफसानि' संस्कृत में रूपान्तर करके अर्थ हो सकता है धर्मकथारूप या ज्योतिष व्याकरणादि रूप वाणी (व्याख्यान) से प्राप्त होने वाले स्त्रादि रूप फलों को ले आइए। 'दारूणि सागपागाए'-सागभाजी पकाने के लिए लकडियाँ (इन्धन), पाठान्तर है अन्नपाकाय= चावल आदि, अन्न पकाने के लिए चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है 'अण्णपायाय' अर्थ उपर्युक्त ही है / पाताणि मे रयावेहि =मेरे पात्रों को रंग दो रंग-रोगन कर दो, अथवा मेरे पैर महावर आदि से रंग दो / कासवगं च मे समणुजाणाहि सिर मूडने के लिए काश्यप नाई को आज्ञा दो अथवा नाई से बाल कटाने की अनुज्ञा दो, (ताकि मैं अपने लम्बे केशों को कटवा डालूँ / ) 'कोसं च मोयमेहाए-मोक=पेशाब करने के लिए कोश-भाजन / कुक्कुयं चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-तुम्बवीणा; वृत्तिकार के अनुसार अर्थ है-खुनखुना / वेणुपलासियंबशी या बांसुरी / गुलियं-औषध गुटिका-सिद्ध गुटिका, जिससे यौवन नष्ट न हो / 'तेल्लं मुहभिलिंगजाए=मुख पर अभ्यंगन करने --मलने के लिए ऐसा तेल लाएँ, जो मुख की कान्ति बढाए / वेणुफलाई सन्निधाणाए=बांस के फलक की बनी हुई पेटी लादें सुफणि =जिस सुखपूर्वक तक्रादि पदार्थ पकाये या गर्म किये जा सकें ऐसा बर्तन-तपेली या बटलोई। घिसम्= ग्रीष्म ऋतु में। चंदालगं=देवपूजन करने के लिए तांबे का छोटा लोटा, जिसे मथुरा में 'चन्दालक' (चण्डुल) कहते हैं / फरगं= कदक-करवा पानी रखने का धातु का एक बर्तन अथवा मद्य का भाजन। बच्चघर-व!ग्रह-पाखाना, शौचालय / चूर्णिकार के अनुसार- 'वच्वघरगं हाणिगा' --ब!गृह का अर्थ स्नानिका-स्नानघर / खणाहि-बनाओ। सरपादन-जिस पर रखकर बाण (शर) फेंके जाते धनुष। गोरहग तीन वर्ष का बैल, अथवा बैलों से खींचा जाने वाला छोटा रथ। सामणेराए=श्रामणेर श्रमण पुत्र के लिए। घडिंग-मिट्टी की छोटी कुलडीया, घड़िया अथवा छोटी-सी गुड़िया। सडिडिमयं =ढोल आदि के सहित बाजा या झुनझुना / चेलगोलं= कपड़े की बनी हुई गोल गेंद। कुमारभूताय राजकुमार के समान अपने कुमार के लिए / 'आवसहं च जाण भत्तं च-वर्षाकाल में निवास करने योग्य भकान (आवास) और चावल आदि भोजन का प्रवन्ध कर लो। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-'आवसथं जाणाहि भत्ता / " अर्थात् --हे स्वामी (पतिदेव) ! वर्षाकाल सुख बिताने योग्य मकान के प्रबन्ध का ध्यान रखना / “पाउल्लाई संकमाए' =वृत्तिकार के अनुसार--मूज की बनी हुई या काष्ट की बनी हुई पादुकाखडाऊ, इधर-उधर घूमने के लिए लाओ, चूर्णिकार के अनुसार--कठ्ठपाउगाओ= काठ-पादुका / 'माणप्पा हवंति दासा वा'=खरीदे हुए दास की तरह ऐसे पुरुषों पर स्त्रियों द्वारा आज्ञा की जाती है। संठवेति धाती वा-धाय की तरह बच्चे को गोद में रखते हैं / चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर हैं-तण्णवेंति धाव इवा =अर्थ होता है-रोते हुए बच्चे को धाय की तरह अनेक प्रकार के मधुर आलापों से समझा-बुझाकर रखते (चुप करते) हैं / सुहिराममा वि ते संतामन में अत्यन्त लज्जित होते हुए भी वे, लज्जा को छोड़कर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देसक / गाथा 278 से 265 281 स्त्री के मन को प्रसन्न रखने हेतु स्त्री वचनानुसार सबसे नीच (हलका) काम भी कर लेते हैं। हंसा वा= धोबियों की तरह / 'भोगत्थाए जैऽभियावन्ना'काम भोगों के लिए ऐहिक-पारलौकिक दुःखों का विचार किये बिना भोगों के अभिमुख-अनुकूल सावद्य अनुष्ठानों में प्रवृत्त / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर हैभोगत्वाए इत्थियामि आवमा' अर्थ होता है-काम भोगों की प्राप्ति के लिए स्त्रियों में अत्यासक्त।' उपसंहार 296. एयं खु तासु विण्णप्पं, संथवं संवासं च चएज्जा / तज्जातिया इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाता / / 16 / / 267. एवं भयं ण सेयाए, इति से अप्पगं निरु भित्ता। णो इथि गो पसुभिक्खू, णो सयपाणिणा णिलिज्जेज्जा // 20 // 298. सृधिसुद्धलेस्से मेधावी, परकिरियं च वज्जए णाणी। मणसा बयसा कायेणं, सब्वफाससहे अणगारे // 21 // 296. इच्चेवमाह से वोरे, धूतरए धूयमोहे से भिक्खू / तम्हा अज्झत्थविसुद्ध, सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वएज्जासि / / 22 // त्ति बेमि / ॥इत्थोपरिण्णा चउत्थमज्झयणं समत्त / 266. उनके (स्त्रियों के) विषय में इस प्रकार की बातें बताई गई हैं, (इसलिए) साधु स्त्रियों के साथ संस्तव (संसर्ग- अतिपरिचय) एवं संवास (सहवास) का त्याग करे। स्त्रीसंसर्ग से उत्पन्न होने वाले ये काम-भोग पापकारक या वज्रवत् पापकर्म से आत्मा को भारी करने वाले हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 267. स्त्री संसर्ग करने से जो (पूर्वोक्त) भय खतरे पैदा होते हैं, वे कल्याणकारी (श्रेयस्कर) नहीं होते। यह जानकर साधु स्त्रीसंसर्ग को रोककर स्त्री और पशु से युक्त स्थान में निवास न करे न ही इन्हें अपने हाथ से स्पर्श करे, अथवा अपने हाथ से अपने गुप्तेन्द्रिय का पीड़न न करे। 268. विशुद्ध लेश्या (चित्त की परिणति) वाला मेधावी-मर्यादा में स्थित ज्ञानी साधु मन, वचन और काया से परक्रिया (स्त्री आदि से सम्बन्धित विषयोपभोगादि पर-सम्बन्धी क्रिया, अथवा स्त्री आदि पर व्यक्ति से अपने पैर दबवाना, धुलाना आदि क्रिया) का त्याग करे। (वास्तव में, जो समस्त (स्त्री, शीतोष्ण, दंशमशक आदि परीषहों के) स्पर्शों को सहन करता है, वही अनगार है। 266. जिसने स्त्री आदि संगजनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था, जिसने मोह (राग-द्वेष) को पराजित कर दिया था, उन वीर प्रभु ने ही यह (पूर्वोक्त स्त्री परिज्ञा सम्बन्धी तथ्य) कहा है। इस 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 से 116 तक (ख) सूत्रकृतांग चूंणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 50 से 53 तक Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा लिए विशुद्धात्मा (सुविशुद्धचेता) (स्त्रीसंसर्ग से) अच्छी तरह विमुक्त वह भिक्षु मोक्षपर्यन्त (संयमानुष्ठान में) में प्रवृत्त-उद्यत रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--स्त्रोसंग से विमुक्त रहने का उपदेश-स्त्रीपरिज्ञा---अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने चार गाथाओं (सू० गा० 266 से 266 तक) द्वारा ज्ञपरिक्षा से पूर्वोक्त गाथाओं में कथित स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका सर्वथा त्याग करने का उपदेश दिया है। स्त्रीसंग-स्याग क्यों, कैसे और कौन करें ?-प्रस्तुत चतु:सूत्री में स्त्रीसंगत्याग के तीन पहलू हैं-(१) साधु स्त्रीसंगत्याग क्यों करें ? (2) कैसे किस-किस तरीके से करें ? और (3) स्त्री-संगत्यागी किन विशेषताओं से युक्त हो? क्यों करें ? समाधान- साध के लिए स्त्रीसंग परित्याग का प्रथम समाधान यह है कि प्रथम उद्देशक एवं द्वितीय उद्देशक की पूर्वगाथाओं में स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों, पापकर्म के गाढ़ बन्धनों, शीलभ्रष्ट साधक की अवदशाओं एवं विभिन्न विडम्वनाओं को देखते हुए साधु को स्त्रीसंग तथा स्त्रीसंवास से दूर रहना अत्यावश्यक है। जैसा कि सूत्रगाथा 266 के पूर्वार्द्ध में कहा गया है- 'एवं खु तासु बिष्णप्पं संथवं संवासं च चएज्जा। दूसरा समाधान--स्त्रीसंसर्ग इसलिए वर्जनीय है कि तीर्थंकरों गणधरों आदि ने स्त्रीसंसर्ग से उत्पत्र होने वाले तज्जातीय जितने भी कामभोग हैं, उन्हें पापकर्म को पैदा करने वाले या वज्र के समान पापकर्मों से आत्मा को भारी करने वाले बताए हैं ! उत्तराध्ययन सूत्र (अ० 14 / 13) में भगवान् महावीर ने कहा है "खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुवखा पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।" काम-भोग क्षणमात्र सुख देने वाले हैं चिरकाल तक दुःख / वे अत्यन्त दुःखकारक और अल्प सुखदायी होते हैं, संसार से मुक्ति के विपक्षीभूत कामभोग अनर्थों की खान है। तीसरा समाधान-पूर्वगाथाओं के अनुसार स्त्रियों द्वारा कामजाल में फंसाने की प्रार्थना, अनुनय, मायाचार आदि विविध तरीके तथा उनके साथ किया जाने वाला विभिन्न प्रकार का संसर्ग-संवास भय है-खतरनाक है. बद्र साध के संयम को खतरे में डाल देता है. इसलिए साधु के लिए वह कथमपि श्रयस्कर-कल्याणकर नहीं है, इस कारण स्त्रीसंग सर्वथा त्याज्य है। इसे ही शास्त्रकार सूत्रगाथा 267 के प्रथम चरण में कहते हैं- 'एयं भयं ण सेयाए / ' .... चौथा समाधान-बीर प्रभु ने स्त्रीसंसर्ग को महामोहकर्मबन्ध का तथा अन्य कर्मों का कारण माना और स्वयं स्त्रीसंसर्गज नित कमरज से मुक्त बने, तथा राग-द्वेष-मोह-विजयी हुए। इसीलिए स्त्रीपरिज्ञाअध्ययन में जो बातें कही गई हैं, वे सब विश्वहितंकर शासनेश श्रमण भगवान् महावीर ने विशेष रूप से साधकों के लिए कही हैं। वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के संघ (तीर्थ) के सभी साधु-साध्वियों के लिए लागू होती हैं / अतः भगवान् महावीर द्वारा रस्त्रीसंगत्याग ब्रह्मचर्य महाव्रती साधु के लिए समादिष्ट Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 266 से 296 283 होने से तदनुसार चलना अनिवार्य है / सू० गा० 296 में शास्त्रकार कहते हैं- "इच्चेवमाह से वीरे धूतरए धूयमोहे..."तम्हा ....." / " कुछ प्रेरणाएँ - इसके पश्चात् स्त्रीसंगत्याग का दूसरा पहलू है-साधु स्त्रीसंगत्याग कैसे या किस तरीके से करे ? वैसे तो इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में, तथा द्वितीय उद्देशक की पूर्वगाथाओं में यत्रतत्र स्त्रीसंगत्याग की प्रेरणा दी गई है, फिर भी परमहितैषी शास्त्रकार ने पुनः इसके लिए कुछ प्रेरणाएँ अध्ययन के उपसंहार में दी हैं। प्रथम प्रेरणा-उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन में स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीपरिचय, स्त्रीसहवास तथा स्त्री-मोह से जो-जो अनर्थ परम्पराएँ बताई गई हैं, उन्हें ध्यान में रखकर आत्महितषी साधु स्त्रीसंस्तव, (संसर्ग) स्त्रीसंवास (सहनिवास) आदि का त्याग करे / सू० गा० 266 में 'संथवं संवासं च चएज्जा' इस पंक्ति द्वारा स्पष्टतः स्त्रीसंगत्याग की प्रेरणा दी गई हैं। द्वितीय प्रेरणा-स्त्रीसंसर्गजनित अनेक खतरों में से कोई भी खतरा पैदा होते ही साधु तुरन्त अपने आपको उससे रोके / बिजली का करेन्ट छू जाते ही जैसे मनुष्य सावधान होकर फौरन दूर हट जाता है, उसका पुनः स्पर्श नहीं करता, वैसे ही स्त्रीसंगजनित (प्रथम उद्देशक में वर्णित) कोई भी उपद्रव-उपसर्ग पैदा होता दीखे कि साधक उसे खतरनाक (भयकारक) एवं आत्मविनाशकारी समझकर तुरन्त सावधान हो जाए, उससे दूर हट जाए, अपने-आपको उसमें पड़ने से रोक ले और संयमपथ में स्थापित करे। उसका स्पर्श बिलकुल न करे। शास्त्रकार ने इन शब्दों में प्रेरणा दी है-'इति से अपगं निमित्ता।" . तृतीय प्रेरणा- स्त्रीसंगपरित्याग के सन्दर्भ में तृतीय प्रेरणा सू० गा० 297 के उत्तराद्ध द्वारा दी गई है-'यो इस्थि, जो पसुभिक्खू, णो सयपाणिणा णिलिज्जेज्जा।' इस पंक्ति में णिलिज्जेजा (निलीयेत) इस एक ही क्रिया के चार अर्थ फलित होने से स्त्रीसंगत्याग के सन्दर्भ में क्रमश: चार प्रेरणाएँ निहित हैं(१) भिक्षु स्त्री और पशु को अपने निवास स्थान में आश्रय न दे, (2) स्त्री और पशु से युक्त संवास का आश्रय न ले, क्योंकि साधु के लिए शास्त्र में स्त्री-पशु-नपुसक-वजित शयनासन एवं स्थान ही विहित है, (3) साधु स्त्री और पशु का स्पर्श या आश्लेष भी अपने हाथ से न करे, और (4) साधु स्त्री या पशु के साथ मैथुन सेवन की कल्पना करके अपने हाथ से स्वगुप्तेन्द्रिय का सम्बाधन (पीड़न या मर्दन) न करेहस्तमैथुन न करे। चौथी प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग-त्याग के सिलसिले में शास्त्रकार चौथी प्रेरणा सू० गा० 218 के द्वितीय चरण द्वारा देते हैं-'परकिरियं च वज्जए णाणी / ' अर्थात-ज्ञानी साधु परक्रिया का त्याग करे। प्रस्तुत सन्दर्भ में परक्रिया के लगभग चार अर्थ प्रतीत होते हैं-(१) आत्मभावों से अन्य परभावों-अनात्मभावों की क्रिया, अथवा आत्महित में बाधक क्रिया, परक्रिया है, (2) स्त्री आदि आत्मगुण बाधक (पर) पदार्थ के लिए जो क्रिया की जाती है, अर्थात्-विषयोपभोग द्वारा (देकर) जो परोपकार किया जाता है, (क) सूत्रकृतांग शीलांक बृत्ति पत्रांक 116 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन--स्त्रीपरिजा वह भी परक्रिया है, (3) विषयभोग की सामग्री देकर दूसरे की सहायता करना भी परक्रिया है, और (4) दूसरे से-गृहस्थ नर-नारी से अपने पैर आदि दबवाना, पैर धुलाना आदि सेवा लेना भी परक्रिया है। स्त्रीसंगपरित्याग के सन्दर्भ में उपर्युक्त चारों अर्थों की छाया में काम-विकार-सेवन की दृष्टि से परक्रिया का मन-वचन-काया से सर्वथा त्याग करे, यही इस प्रेरणा का आशय है। तात्पर्य यह है कि औदारिक एवं दिव्य कामभोगरूप परक्रिया के लिए वस्तुतत्त्व ज्ञानी साधु मन से भी विचार न करे, दूसरे को भी मन से परक्रिया के लिए प्रेरित न करे, ऐसा (परक्रिया का) विचार करने को मन से भी अच्छा न समझे / इसी प्रकार वचन और काया से भी इस प्रकार की परक्रिया का त्याग तीन करण से समझ लेना चाहिए / इस प्रकार औदारिक कामभोगरूप फरक्रिया त्याग के 6 भेद हुए, वैसे ही दिव्य (वैक्रिय) कामभोगरूप परकिया त्याग के भी ह भेद होते हैं। यों१८ प्रकार की परक्रिया (अब्रह्मचर्य-मैथुनसेवनरूप) का साधु त्याग करे, और 18 प्रकार से ब्रह्मचर्यव्रत को सुरक्षित रखे / ' अथवा परक्रियात्याग का अर्थ दशविध ब्रह्मचर्य समाधि स्थान भंग करने वाली स्त्री-संगरूप उपसर्ग की कारणभूत अब्रह्मचर्यवर्द्धक 10 प्रकार की क्रियाओं का त्याग भी हो सकता है। वे दस अब्रह्मचर्यवर्द्धक परक्रियाएं ये हैं (1) निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी स्त्री-पशु-नपुसक संसक्त शयनासन या स्थान का सेवन करे। (2) स्त्रियों के शृगार, विलास आदि की कामवर्द्धक विकथा करे। (3) स्त्रियों के साथ एक आसन या शय्या पर बैठे या स्त्रियाँ जिस आसन या स्थानादि पर बैठी हों, उस पर तुरन्त ही बैठे। स्त्रियों के साथ अतिसंसर्ग, अतिसंभाषण करे / (4) स्त्रियों की मनोहर, मनोरम इन्द्रियों या अंगोपांगों को कामविकार की दृष्टि से देने, टकठकी लगाए निरीक्षण करे। (5) दीवार, कपड़े के पर्दे, या भीत के पीछे होने वाले स्त्रियों के नृत्य, गीत, क्रन्दन विलाप, रुदन हास्य, विलास आदि शब्दों को सुने / (6) स्त्रियों के साथ पूर्वरत, पूर्वक्रीड़ित कामभोगों का स्मरण करे / (7) सरस, स्निग्ध एवं स्वादिष्ट कामवर्द्धक आहार करे। (8) अतिमात्रा में आहार-पानी करे। (e) शरीर का शृंगार करे, मंडन-विभूषा करे। 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 116, 120 (ख) देखिये आचा० श्रुत० 13 वा अध्ययन परक्रियासप्तक आचा० विवेचन पृ० 344 सू० 660 से 726 तक / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 द्वितीय उद्देशक : गाथा 296 से 296 (10) मनोज्ञ शब्द रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का आसक्तिपूर्वक सेवन-उपभोग करे। निष्कर्ष यह है, इन दस प्रकार की ब्रह्मचर्यबाधक परक्रियाओं का सर्वथा परित्याग करने की प्रेरणा भी शास्त्रकार का आशय हो सकता है। पाठान्तर और कठिन शब्दों की व्याख्या-णिलिज्जेज्जा-वृत्तिकार के अनुसार-निलीयेत=लीन-आश्रित -संसक्त हो, आश्रय ले या आश्लेष करे, सम्बाधन (पीड़न या मर्दन) करे, या स्त्री आदि का स्पर्श करे।" चणिकार के अनुसार-णिज्जिं ति हत्थकम्मं न कुर्यात् / निलंजनं नाम स्पर्श करणं अधवा स्वेन पाणिना तं प्रदेश न लीयते / अर्थात--ण णिलेज्ज का अर्थ है-हस्तकर्म न करे अथवा निलंजन कहते हैं-स्पर्श करने को। (स्त्री आदि का स्पर्श न करे) अथवा अपने हाथ से उस गुह्यप्रदेश का पीड़न (मर्दन) न करे। से भिक्खू= भिक्षु, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-सभिक्खू / अर्थ किया है-'सोमणो भिक्ख समिक्खू' अर्थात्-अच्छाभ भिक्षु / " द्वितीय उद्देशक समाप्त // स्त्री परिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण / / 10 आलओ थीजणाइण्णो, थीकहाय मणोरमा। संथवो चेव नारीणं, तासिं इंदियदरिसणं // 11 // कुइयं रुइयं गीयं हासि यं भुत्ताऽऽसियाणि य। पणीय भतपाणं च अइमाय पाणभोयणं // 12 // गतभूसणमिळं च कामभोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्सं विसं तालउडं जहा // 13 // 11 सू० कृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक 120 --- उतरा० अ०१६ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक-विभक्ति : पंचम अध्ययन प्राथमिक - सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के पंचम अध्ययन का नाम निरयविभक्ति अथवा नरकविभक्ति है / ' 3 कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जो जीव हिंसा, असत्य, चोरी, कुशीलसेवन, महापरिग्रह, महारम्भ, पंचेन्द्रियजीवहत्या, मांसाहार आदि पापकर्म करता रहा है, उससे भारी पापकर्मों का बन्ध होता है, तथा उस पापकर्मबन्ध का फल भोगने हेतु नरक (नरक-गति) में जन्म लेना पड़ता है / और यह सर्वज्ञ जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित आगमों से सिद्ध है / ' // वैदिक, बौद्ध और जैन, तीनों परम्पराओं में नरक के महादुःखों का वर्णन है। योगदर्शन के व्यासभाषय में 6 महानरकों का वर्णन है। भागवतपुराण में 27 नरक गिनाए गए हैं। बौद्धपरम्परा के पिटकग्रन्थ सुत्तनिपात के कोकालियसुत्त में नरकों का वर्णन है। अभिधर्मकोष के तृतीयकोश स्थान के प्रारम्भ में 8 नरकों का उल्लेख है। इन सब स्थलों को देखने से प्रतीत होता है-नरकविषयक मान्यता सभी आस्तिक दर्शनों में अति प्राचीन काल से चली आ रही है, और भारतीय धर्मों की तीनों शाखाओं में नरक-वर्णन एक-दूसरे से काफी मिलता-जुलता है। उनकी शब्दावली भी बहुत कुछ समान है। 10 यों तो नरक एक क्षेत्रविशेष (गति) का नाम है, जहाँ जोव अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए जाता है, स्थिति पूर्ण होने तक रहता है / अथवा घोर वेदना के मारे जहाँ जीव चिल्लाता है, सहायता के लिए एक-दूसरे को सम्बोधित करके बुलाता है, वह नरक है। अथवा घोर पापकर्मी जीवों को जहाँ दुर्लध्य रूप से बुला लिया जाता है, वह नरक है। 1 वृत्तिकार के अनुसार इस अध्ययन का नाम 'नरकविभक्ति' है। 2 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 572 3 जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1 पृ. 146 4 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 574 में देखिये नरक की परिभाषा (अ) नरान् कायन्ति शब्दयन्ति, योग्यताया अनतिक्रमेणाऽऽकारयन्ति जन्तुन् स्व-स्व स्थाने इति नरकाः। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 287 - नरक का पर्यायवाची 'निरय' शब्द है, जिसका अर्थ होता है- सातावेदनीयादि शुभ या इष्टफल जिसमें से निकल गए हैं, वह निरय है। / नियुक्तिकार ने निक्षेप की दृष्टि से नरक के 6 अर्थ किये हैं- 'नामनरक' और 'स्थापनानरक' हैं। द्रव्यनरक के मुख्य दो भेद-आगमतः, नो आगमतः / जो नरक को जानता है. किन्त उसमें उपयोग नहीं रखता, वह आगमतः द्रव्यनरक है। नो आगमतः द्रव्यनरक (ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तरूप) वे जीव हैं जो इसी लोक में मनुष्य या तिर्यञ्च के भव में अशुभ कर्म करने के कारण अशुभ हैं, या बंदीगृहों; बन्धनों या अशुभ, अनिष्ट क्षेत्रों में परिवारों में नरक-सा कष्ट पाते हैं, अथवा द्रव्य और नोकर्मद्रव्य के भेद से द्रव्यनरक दो प्रकार का है। जिनके द्वारा नरक वेदनीय कर्म बंधे जा चुके हैं, वे एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र (कर्म) की दृष्टि से द्रव्य नरक है, नोकर्मद्रव्य की दृष्टि से 'द्रव्यनरक' इसी लोक में अशुभ शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श हैं / नारकों के रहने के 84 लाख स्थान 'क्षेत्रनरक' है। जिस नरक की जितनी स्थिति है, वह 'कालनरक' है। नरकयोग्य कर्म का उदय या नरकायु का भोग 'मावनरक' है। अथवा नरक में स्थित जीव या नरकायु के उदय से उत्पन्न असातावेदनीयादि कर्मोदय वाले जीव भी 'भावनरक' कहे जा सकते हैं / प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रनरक, कालनरक और भावनरक की दृष्टि से निरूपण किया गया है। विभक्ति कहते हैं--विभाग यानी स्थान को। इस दृष्टि से 'नरक (निरय) विभक्ति' का अर्थ हुआ वह अध्ययन, जिसमें नरक के विभिन्न विभागों-स्थानों के क्षेत्रीय दुःखों, पारस्परिक दुःखों तथा परमाधार्मिक असुरकृत दुःखों का वर्णन हो / तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि भयंकर पापकर्म करने वाले जीवों का विभिन्न नरकावासों में जन्म लेकर भयंकर शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पशंकृत क्षेत्रीय दुःखों के अतिरिक्त पारस्परिक एवं परमाधार्मिककृत कैसे-कैसे घोर दुःख सहने पड़ते हैं ? इन अनिष्ट विषयों से नारकों को कैसी वेदना का अनुभव होता है ? उनके मन पर क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं, इन सबका सम्पूर्ण वर्णन नरकविभक्ति' अध्ययन के दोनों उद्देशकों में है। प्रथम उद्देशक में 27 और द्वितीय उद्देशक में 25 गाथाएँ हैं।" - स्थानांग सूत्र में नरकगति के चार और तत्त्वार्थ सूत्र में नरकायु के दो मुख्य कारणों का उल्लेख है। तथा जो लोग पापी हैं---हिंसक, असत्यभाषो, चोर, लुटेरे, महारम्भी-महापरिग्रही हैं, असदाचारी-व्यभिचारी हैं, उन्हें इन नरकावासों में अवश्य जन्म लेना पड़ता है। अतः धीर साधक नरकगति या नरकायुबन्धन के इन कारणों और उनके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दारुण दुःखों 5 निर्गतमयं शुभमस्मादिति निरयः, अथवा निर्गतमिष्टफलं सातावेदनीयादि रूपं येभ्यस्ते निरयाः / 6 सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 64-65 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 122 (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा०१ पृ० 146 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययम-मरकविभक्ति को सुन-समझकर इनसे बचे, हिंसादि पापों में प्रवृत्त न हो, और स्व-पर कल्याणरूप संयमसाधना में अहर्निश संलग्न रहे, यही इस अध्ययन का उद्देश्य है। D 'नरकविभक्ति' का एक अर्थ यह भी है-नरक के प्रकार, भूमियां उनकी लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि विभिन्न नारकों की स्थिति, लेश्या, नरकों के विविध दुःख, दुःखप्रदाता नरकपाल आदि समस्त विषयों का विभाग रूप से जिस अध्ययन में निरूपण हो। - नरक सात हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा / इनके सात रुढ़िगत नाम गोत्र हैं--घम्मा, वंशा, शेला, अंजना, अरिष्टा, मघा और माघवती। ये ही सात नरकभूमियाँ हैं, जो एक-दूसरी के नीचे असंख्य योजनों के अन्तर पर घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश के आधार पर स्थित हैं / वे नरकभूमियाँ क्रमशः 30 लाख, 25 लाख, 15 लाख, 10 लाख, पाँच कम एक लाख और पांच आवासों में विभक्त हैं। - नरकवासियों को उत्कष्ट स्थिति-नरक में क्रमशः 1, 3, 7, 10, 17, 22 और 33 सागरोपमकाल की स्थिति है। O नारकों को आकृति-प्रकृति-नारक जीवों की लेश्या, परिणाम, आकृति अशुभतर होती है, उनकी वेदना असह्यतर होती है, उनमें विक्रियाशक्ति होती हैं जिससे शरीर के छोटे-बड़े विविध रूप बना सकते हैं। 0 नरक में प्राप्त होने वाले विविध दुःख-मुख्यतया तीन प्रकार के हैं-(१) परस्परकृत / (2) क्षेत्र जन्य और (3) परमाधार्मिककृत / ' 0 नारकों को दुःख देने वाले परमाधार्मिक असुर--नरकपाल 15 प्रकार के हैं-(१) अम्ब, (2) अम्बर्षि, (3) श्याम, (4) सबल, (5) रौद्र, (6) उपरुद्र, (7) काल, (8) महाकाल, (6) असिपत्र, (10) धनुष, (11) कुम्भ, (12) बालु, (13) वैतरणी, (14) खरस्वर और (15) महाघोष / ये असुर स्वभाव से बड़े क्रूर होते हैं / ये नारकों को पूर्वकृत पापकर्म याद दिलाकर उन्हें विविध प्रकार से भयंकर यातना देते हैं। 0 सूत्रगाथा 300 से प्रारम्भ होकर 351 सूत्रगाथा पर पंचम अध्ययन समाप्त होता है। 8 (क) महारंभेण महापरिगहेण पंचेन्दियवहेणं कुणिमाहारेणं-स्था०४ (ख) 'बह्वारम्भ परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' -तत्त्वार्थ अ०३० 6 (क) सूत्रकृ० नियुक्ति गा० 68 से 84 तक (ख) सूत्रकृ० शी• वृत्ति पत्रांक 123 से 125 तक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं-'णिरयविभत्ती' पढमो उद्देसओ नरक जिज्ञासा और संक्षिप्त समाधान 300. पुच्छिस्स हं केवलियं महेसि, कहऽभितावा गरगा पुरस्था। अजाणतो मे मुणि बूहि जाणं, कहं णु बाला जरगं उर्वति // 1 // 301. एवं मए पुढे महाणुभागे, इणमब्बवी कासवे आसुपण्णे / पवेदइस्सं दुहमठ्ठदुग्गं, आदोणिय दुक्कडियं पुरत्था // 2 // 302. जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माई करेंति रुद्दा / ते घोररुवे तिमिसंधयारे, तिव्वाभितावे नरए पडंति // 3 // 303. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिसतो आयसह पडुच्चा। जे लूसए होति अदत्तहारी, ण सिक्खती सेवियस्स किचि / / 4 / / 304. पागभि पाणे बहुणं तिवाती, अणिम्वुडे घातमुवेति बाले। णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कटु उवेति दुग्गं / / 5 // 300. (श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं-) मैंने पहले केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूछा था कि नरक किस प्रकार को पीड़ा (अभिताप) से युक्त हैं ? हे मुने ! आप इसे जानते हैं, (अतः) मुझ अज्ञात (न जानने वाले) को कहिये, (कि) मूढ़ अज्ञानी जीव किस कारण से नरक पाते हैं ? __301. इस प्रकार मेरे (श्री सुधर्मा स्वामी के) द्वारा पूछे जाने पर महानुभाव (महाप्रभावक) काश्यपगोत्रीय आशुप्रज्ञ (समस्त वस्तुओं में सदा शोघ्र उपयोग रखने वाले) भगवान महावीर ने कहा कि यह (नरक) दुःखहेतुक या दुःखरूप (दुःखदायक) एवं दुर्ग (विषम, गहन अथवा असर्वज्ञों द्वारा दुर्विज्ञेय) है। वह अत्यन्त दीन जीवों का निवासस्थान है, वह दुष्कृतिक (दुष्कर्म-पाप करने वालों या पाप का फल भोगने वालों से भरा) है। यह आगे चलकर मैं बताऊँगा। 302. इस लोक में जो कई रौद्र, प्राणियों में हिंसादि घोर कर्म से भय उत्पन्न करने वाले जो Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन- नरक विभक्ति अज्ञानी जीव अपने जीवन के लिए हिंसादि पापकर्म करते हैं, वे घोर रूप वाले, घोर अन्धकार से युक्त तीव्रतम ताप (गर्मी) वाले नरक में गिरते हैं / 303-304. जो जीव अपने विषयसुख के निमित्त त्रस और स्थावर प्राणियों की तीव्र रूप से हिंसा करता है, जो (लूषक) अनेक उपायों से प्राणियों का उपमर्दन करता है, तथा अदत्तहारी (बिना दिये परवस्तु का हरण कर लेता) है, एवं (आत्महितैषियों द्वारा) सेवनीय (या श्रेयस्कर) संयम का थोड़ा-सा भी अभ्यास (सेवन) नहीं करता, जो पुरुष पाप करने में धृष्ट है, अनेक प्राणियों का घात करता है, जिसकी क्रोधादिकषायाग्नि कभी बुझती नहीं, वह अज्ञानी जीव अन्तकाल (मत्यु के समय) में नीचे घोर अन्धकार (अन्धकारमय नरक) में चला जाता है, (और वहाँ) सिर नीचा किये (करके) वह कठोर पीड़ास्थान को प्राप्त करता है। विवेचन-मरक के सम्बन्ध में स्वयं उद्भावित जिज्ञासा-प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं (300 से 304 तक) में से प्रथम सूत्रगाथा में श्री सुधर्मास्वामी द्वारा नरक सम्बन्धी स्वयं उद्भूत जिज्ञासा है और अवशिष्ट चार गाथाओं में द्वितीय जिज्ञासा का समाधान अंकित किया गया है। जिज्ञासा : नरक के सम्बन्ध में-पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी ने नरक के सम्बन्ध में अपने अनुभव श्री जम्बूस्वामी आदि को बताते हुए कहा कि मैंने केवलज्ञानी महर्षि भगवान् महावीर के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की थी-"भगवन् ! मैं नरक और वहाँ होने वाले तीव्र संतापों और यातनाओं से अनभिज्ञ हूँ। आप सर्वज्ञ हैं / आपसे त्रिकाल-त्रिलोक की कोई भी बात छिपी नहीं है। आपको अनुकूलप्रतिकूल अनेक उपसर्गों को सहन करने का अनुभव है। आप समस्त जीवों की गति-आगति, क्रिया-प्रतिक्रिया, वत्ति-प्रवृत्ति आदि को भलीभांति जानते हैं / अतः आप यह बताने की कृपा करें कि (1) नरक कैसी-कैसी पीड़ाओं से भरे हैं ? और (2) कौन जीव किन कारणों से नरक को प्राप्त करते हैं ? ___समाधान : द्वितीय जिज्ञासा का--- श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-मेरे द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर महानुभाव, आशुप्रज्ञ एवं काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने (द्वितीय) जिज्ञासा का समाधान दो विभागों में किया--(१) नरकभूमि कैसी है ? (2) नरक में कौन-से प्राणी जाते हैं ? सर्वप्रथम चार विशेषणों द्वारा नरकभूमि का स्वरूप बताया है-'दुहमचुग्गं आदीणियं दुक्कडिय'अर्थात्-(१) नरक दु:खहेतुक (दुःख का कारण दुःख देने के लिए निमित्त रूप) हैं, या दुःखार्थ (दुःखप्रयोजनभूत-- केवल दुःख देने के लिए ही बना हुआ) है। अथवा दुःखरूप (बुरे कर्मों के फलों के कारण) है, अथवा नरक स्थान जीवों को दुःख देता है, इसलिए वह दुःखदायक है, या असातावेदनीय कर्म के उदय से मिलने के कारण नरक भूमि तीव्र-पीड़ारूप हैं, इसलिए यह दुःखमय है / (2) नरक दुर्ग हैनरक भूमि को पार करना दुर्गम होने से, तथा विषम एवं गहन होने से यह दुर्ग है / अथवा असर्वज्ञों द्वारा दुर्गम्य-दुर्विज्ञेय है, क्योंकि नरक को सिद्ध करने वाला कोई इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। (3) नरक आदीनिक- अत्यन्त दीन प्राणियों का निवास स्थान है। यानी चारों ओर दीन जीव निवास करते हैं। तथा (4) नरक दुष्कृतिक है, दुष्कृत-दुष्कर्म करने वाले जीव वहां रहते हैं, इसलिए दुष्कृतिक है, अथवा दुष्कृत (बुरा कम, पाप, या दुष्कृत (पाप) का फल विद्यमान रहता है, इसलिए वह दुष्कृतिक है। अथवा जिन पापीजनों ने पूर्व जन्म में दुष्कृत किये हैं, उनका यहाँ निवास होने के कारण नरक दुष्कृतिक कहलाता है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : 300 गाथा से 304 261 इसके पश्चात् यह बताया गया है कि नरक में कौन-से प्राणी और किन कारणों से जाते हैं ?तीन गाथाओं में इसका समाधान दिया है, जो (1) बाल है (2) रौद्र है (3) जीवितार्थ पापकर्म करते हैं, (4) अपने सुख के लिए वस-स्थावर प्राणियों की तीव्रतम रूप से हिंसा करते हैं, (5) जो निर्दयतापूर्वक प्राणियों का उपमर्दन करते हैं, (6) जो चोरी-अपहरण, लूटमार या डकैती द्वारा बिना दी हुई परवस्तु का हरण करते हैं, (7) जो सेवनीय संयम का जरा भी अभ्यास (सेवन) नहीं करते, (8) जो धृष्ट होकर बहुत-से प्राणियों का वध करते हैं, (8) जिनकी कषायाग्नि कभी शान्त नहीं होती, (10) जो मूढ़ हर समय घात में लगा रहता है वह अन्तिम समय (जीवन के अन्तिम काल) में नीचे घोर अन्धकार (अन्धकारमय नरक) में जाता है, जहाँ नीचा सिर किये कठोर पीड़ा स्थान को पाता है। वह घोररूप है, गाढ़ अन्धकारमय है, तीव्र ताप युक्त है, जहाँ वह गिरता है।' नरकयात्री कौन और क्यों ?-नरक में वे अभागे जीव जाते हैं, जो हित में प्रवत्ति और अहित से निवृत्ति के विवेक से रहित अज्ञानी हैं, रागद्वेष की उत्कटता के कारण जो आत्महित से अनजान तिर्यञ्च और मनुष्य है, अथवा जो सिद्धान्त से अनभिज्ञ होने के कारण महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय जीवों के वध एवं मांसभक्षण आदि सावद्य अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं, वे बाल हैं। जो प्राणी स्वयं रौद्र है, कर्म से भी वचन से भी, विचारों एवं आकृति से भी रौद्र (भयंकर) हैं, जिन्हें देखते ही भय पैदा होता है। जो सुख और ऐश में जीवनयापन करने के लिए पापोपादानरूप घोर कर्म करते हैं, हिंसा, चोरी, डकैती, लूटपाट, विश्वासघात, आदि भयंकर पापकर्म करते हैं / इसके अतिरिक्त जो जीव महामोहनीय कर्म के उदय से इन्द्रिय सखों का लोलप बनकर बेखटके त्रस और स्थावर जीवों की निर्दयतापूर्वक रौद्रपरिणामों से हत्या करता हे, नाना उपायों से जीवों का उपमर्दन (वध, बन्ध, शोषण, अत्याचार आदि) करता है तथा अदत्ताहारी है-यानी चोरी, लूटपाट, डकैती, अन्याय, ठगी, धोखाधड़ी आदि उपायों से बिना दिया परद्रव्य हरण करता है, अपने श्रेय के लिए जो सेवन (अभ्यास) करने योग्य, या साधुजनों द्वारा सेव्य संयम है, उसका जरा भी सेवन (अभ्यास) नहीं करता है, अर्थात्-पापकर्म के उदय के कारण जो काकमांस जैसी तुच्छ, त्याज्य, घणित एवं असेव्य वस्तु से भी विरत नहीं होता। इसी प्रकार जो प्राणिहिंसा आदि पाप करने में बड़ा ढीठ है जिसे पापकर्म करने में कोई लज्जा, संकोच या हिचक नहीं होती। जो बेखटके बहुत-से निरपराध और निर्दोष प्राणियों की नि प्रयोजन हिंसा कर डालता है / जब देखो तब प्राणियों के प्राणों का अतिपात (धात) करने का जिसका स्वभाव ही बन गया है, अर्थात् जो लोग क्रूरसिंह, और सर्प के समान बेखटके आदतन प्राणियों का वध करते हैं, अथवा अपने स्वार्थ या किसी मतलब से धर्मशास्त्र के वाक्यों का मनमाना अर्थ लगाकर या किसी कुशास्त्र का आश्रय लेकर हिंसा, असत्य, मद्यपान, मांसाहार, शिकार, मैथुन-सेवन आदि की प्रवृत्ति को स्वाभाविक कहकर निर्दोष बताने की धृष्टता करते हैं। अथवा कई हिंसापोषक मिथ्यावादी लोग कहते हैं-'वेदविहिता हिंसा हिंसा न भवति'-वेद विहित यज्ञादि में होने वाली पशुवधरूप हिंसा आदि हिंसा नहीं होती। कई मनचले शिकार को क्षत्रियों या राजाओं का धर्म बताकर निर्दोष प्राणियों का वध करते हैं। तथा जिनकी कषायाग्नि कभी शान्त नहीं 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 126 के अनुसार Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 सूत्रकृतांग-पचम अध्ययन-नरकविभक्ति होती, जो जानवरों की कत्ल एवं मछलियों का वध करके अपनी जीविका चलाते हैं, जिनके परिणाम सदैव प्राणिवध करने के बने रहते हैं, जो कभी प्राणिवध आदि पापों से निवृत और शान्त नहीं होते, ऐसे पापकर्मी मूढ़ जीव अपने किये हुए पापकर्मों का फल भोगने के लिए नरक में जाते हैं। इसी तथ्य को शास्त्रकार ने संक्षेप में तीन गाथाओं में व्यक्त किया है-~'जे केई बाला"नरए पडंति' 'तिव्वंतसे" सेयवियस्स किंचि', और 'पागम्भिपाणे घातमुवेति बाले / 2 वे पापो कैसे-कैसे नरक में जाते हैं ?- नरक तो नरक ही है, दुःखागार है, फिर भी पापकर्म की तीव्रता-मन्दता के अनुसार तीब-मन्द पोड़ा वाली नरकभूमि उन नरकयोग्य जीवों को मिलती है / प्रस्तुत में सुत्र गाथ 302 और 304 में विशिष्ट पापकमियों के लिए विशिष्ट नरकप्राप्ति का वर्णन किया गया है-(१) ते घोररूवे तमिसंधयारे तिव्वाभितावे नरए पडंति' तथा (2) णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले उवेइ दुग्गं ।'-पहले प्रकार के पापकर्मी एवं रौद्र बालजीव जिस प्रकार के नरक में गिरते हैं. उसके तीन विशेषण शास्त्रकार ने प्रयुक्त किये हैं-(१) घोर रूप, (2) तमिस्रान्धकार (3) तीव्राभिताप / नरक में इतने विकराल एवं क्रूर आकृति वाले प्राणी एवं परमाधार्मिक असुर हैं, तथा विकराल दृश्य हैं, इस कारण नरक को घोररूप कहते हैं / नरक में अन्धकार इतना गाढ़ और घोर है कि वहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता, अपनी आँखों से अपना शरीर भी नहीं दिखाई देता। जैसे उल्लू दिन में बहुत ही कम. देखता है, वैसे ही नारकीय अवधि (या विभंग) ज्ञान से भी दिन में मन्द-मन्द देख सकता है। इस संबंध में आगम-प्रमाण भी मिलता है / इसके अतिरिक्त नरक में इतना तीब्र दुःसह ताप (गर्मी) है उसे शास्त्रकार खैर के धधकते लाल-लाल अंगारों को महाराशि से भी अनन्तगुना अधिक ताप बताते हैं। चौथी और पांचवी गाथा में बताए अनुसार जो पापकर्म करते हैं, वे नरक-योग्य जीव अपने मृत्यु काल में नीचे ऐसे नरक में जाते हैं, जहाँ घोर निशा है. अर्थात् -जहाँ उन्हें द्रव्यप्रकाश भी नहीं मिलता और ज्ञानरूप भावप्रकाश भी नहीं / वे नारकीय जीव अपने किये हुए पापकर्मों के कारण नीचा सिर करके भयंकर दुर्गम यातनास्थान में जा पहुंचते हैं, अर्थात्-ऐसे घोर अन्धकारयुक्त नरक में जा गिरते हैं, जहाँ गुफा में घुसने की तरह सिर नीचा करके जीव जाता है / नारकों को भयंकर वेदनाएँ 305. हण छिदह भिदह णं दहद, सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं / ते नारगा ऊ भयभिन्नसण्णा, कंखंति के नाम दिसं क्यामो // 6 // 306. इंगालरासि जलियं सजोति, ततोवमं भूमि अणोक्कमंता / ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया // 7 // 307. जइ ते सुता वेतरणीऽभिदुग्गा, निसितो जहा खुर इव तिक्खसोता। तरंति ते वेयरणि भिदुग्गं, उसुचोदिता सत्तिसु हम्ममाणा // 8 // 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 126-127 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 126-127 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 प्रथम उद्देशक : गाथा 305 से 324 308 कोलेहि विज्झंति असाहुकम्मा, नावं उते सतिविप्परगा। ___ अन्न स्थ सूलाहि तिसूलियाहिं, दोहाहि विद्ध ण अहे करेंति // 6 // 306. केसिंच बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलेंति महालयंसि / फलंबुयावालुय मुम्मुरे य, लोर्लेति पच्चंति या तत्थ अन्न // 10 // 310. असूरियं नाम महभितावं, अंधतमं दुप्पतरं महतं / उड्ढं अहे य तिरिय दिसासु, समाहितो जत्थगणो झियाति / / 11 / / 311. जंसि गुहाए जलणेऽतियट्ट, अजाणओ डन्झति लुत्तपण्णे / सया य कलुणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणोयं अतिदुक्खधम्मं // 12 // 312. चत्तारि अगणीओ सभारभित्ता, हि कूरकम्माऽभितवेति बालं। ते तत्थ चिट्ठतऽभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोतिपत्ता // 13 // 313. संतच्छणं नाम महभितावं, ते नारगा जत्थ असाहुकम्मा / हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्या // 14 // 314. रुहिरे पुणो बच्चसमूसियंगे, भिन्नुत्तमंगे परियत्तयंता / पयंति गं गेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अओकवल्ले // 15 // 315. णो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जती तिव्यभिवेदणाए। तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खो इह दुक्कडेणं // 16 / / 316. तहिं च ते लोलणसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणि वयंति / न तत्थ सातं लभतोऽभिदुग्गे, अरहिताभितावा तह वी तवेति // 17 // 317. से सुन्धती नगरवहे व सद्दे, बुहोवणोताण पदाण तत्थ। उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति / / 18 // 318. पाणेहि गं पाव विओजयंति, तं भे पवक्खामि जहातहेणं / दंडेहि तत्था सरयंति बाला, सत्वेहिं दंडेहि पुराकरहि // 16 // 316. ते हम्ममाणा गरए पडंति, पुण्णे दुरूबस्स महभितावे। ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खो, तुति कम्मोवगता किमोहि।। 20 / / 320. सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म / ___ अंदुसु पक्खिप्प विहत्तु देहं, वेहेण सोसं सेऽभितावयंति // 21 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 सूत्रकृतांग--पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति 321. छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उट्टे वि छिदंति दुवे वि कण्णे / जिब्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेतं. तिक्खाहिं सूलाहिं तिवातयंति // 22 // 322. ते तिप्पमाणा तलसंपुड व्व, रातिदियं जत्थ थणंति बाला / गलंति ते सोणितपूयमंसं, पज्जोविता खारपदिद्वितंगा // 23 // 323. जइ ते सुता लोहितपूयपाइ, बालागणोतेयगुणा परेणं / कुम्भी महंताधियपोरुसीया, समूसिता लोहितपूयपुण्णा // 24 / / 324. पक्खिप्प तासुपपर्यति बाले, अट्टस्सरं ते कलुणं रसते / तण्हाइता ते तउ तंबतत्तं, पज्जिज्जमाणट्टतरं रसंति / / 25 // 305 नरक में उत्पन्न वे प्राणी (अन्तर्मुहूर्त में शरीर धारण करते ही) मारो काटो (छेदन करो) भेदन करो, 'जलाओ' इस प्रकार परमाधार्मिकों के (कठोर) शब्द प्लुनकर भय से संज्ञाहीन हुए चाहते है कि हम किस दिशा में भाग जाएँ। 306. जलती हुई अंगारों की राशि तथा ज्योति (प्रकाशित होती हुई ज्वाला) सहित तप्त भूमि के सदृश (अत्यन्त गर्म ) नरक भूमि पर चलते हुए अतएव जलते हुए वे नरक के जीव करुण रुदन करते हैं। उनकी करुण ध्वनि स्पष्ट मालूम होती है। ऐसे घोर नरकस्थान में (इसी स्थिति में) वे चिरकाल तक निवास करते हैं। 307. तेज उस्तरे (क्षुर) की तरह तीक्ष्ण धारा वाली अतिदुर्गम वैतरणी नदी का नाम शायद तुमने सुना होगा, वे नारकीय जीव वैतरणी नदी को इस प्रकार पार करते हैं, मानो बाण मार कर प्रेरित किये हुए हो, या भाले से बींधकर चलाये हुए हो। 308. नौका (पर चढ़ने के लिए उस) के पास आते ही नारकी जीवों के कण्ठ में असाधु का (परमाधामिक) कोल चुभोते हैं, (इससे) वे (नारकीय जीव) स्मृति विहीन (होकर किंकर्तव्य विमूढ़) हो जाते हैं, तब दूसरे नरकपाल उन्हें (नारकों को) लम्बे-लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींधकर नीचे (जमीन पर) पटक देते हैं। 306. किन्हीं नारकों के गले में शिलाएँ बाँधकर उन्हें अगाध जल में डुबा देते हैं। वहाँ दुसरे परमाधार्मिक उन्हें अत्यन्त तपी हुई कलम्बुपुष्प के समान लाल सूर्ख रेत में और मुर्मुराग्नि में इधरउधर फिराते हैं और पकाते (भूजते) हैं। 310. जिसमें सूर्य नहीं है, ऐसा असूर्य नामक नरक महाताप से युक्त है तथा जो घोर अन्धकार से पूर्ण है, दुष्प्रतर (दुःख से पार करने योग्य) है, तथा बहुत बड़ा है, जिसमें ऊपर नीची एवं तिरछी (सर्व) दिशाओं में प्रज्वलित आग निरन्तर जलती रहती है / 311. जिस नरक में गुफा (के आकार) में स्थापित अग्नि में अतिवृत्त (धकेला हुआ) नारक अपने Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक :गाया 305 से 324 265 पाप को नहीं जानता हुआ संज्ञाहीन होकर जलता रहता है। (वह नरक) सदैव करुणाप्राय है, सम्पूर्ण ताप का स्थान है, जो पापी जीवों को बलात् (अनिवार्य रूप से विवशता से) मिलता है, उसका स्वभाव ही अत्यन्त दुःख देना है। 312. जिस नरकभूमि में न रकर्म करने वाले (परमाधार्मिक असुर) (चारों दिशाओं में) चार अग्नियाँ जलाकर अज्ञानी नारक को तपाते हैं। वे नारकी जीव जीते-जी आग में डाली हुई मछलियों की तरह ताप पाते-तड़फड़ाते हुए उसी जगह पड़े रहते हैं। 313. (वहाँ) संतक्षण नामक एक महान् ताप देने वाला नरक है, जहाँ बुरे कर्म करने वाले वे (नारक) नरकपाल हाथों में कुल्हाडी लिये हुए उनके (नारकों के) हाथों और पैरों को बांधकर लकड़ी के तख्ते की तरह छीलते हैं। 314. फिर रक्त से लिप्त जिनके शरीर के अंग मल से सूज (फल) गये हैं, तथा जिनका सिर चूर-चूर कर दिया गया है, और जो (पीड़ा के मारे) छटपटा रहे हैं, ऐसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक असुर (ऊपर-नीचे) उलट-पलट करते हुए जीवित मछली की तरह लोहे की कडाही में (डालकर) पकाते हैं। 315. वे नारकी जीव उस नरक (की आग) में (जलकर) भस्म नहीं हो जाते और न वहाँ की तीव्र वेदना (पीड़ा) से मरते हैं, किन्तु नरक की उस वेदना को भोगते हुए वे वहीं रहते हैं और इस लोक में किये हुए दुष्कृत-पाप के कारण वे दुःखी होकर वहाँ दुःख पाते रहते हैं / 316. नारकी जीवों के संचार से अत्यन्त व्याप्त (भरे हुए) उस नरक में तीव्ररूप से अच्छी तरह तपी हुई अग्नि के पास जब वे नारक जाते हैं, तब उस अतिदुर्गम अग्नि में वे सुख नहीं पाते / (यद्यपि वे नारक) तीव्र ताप से रहित नहीं होते, तथापि नरकपाल उन्हें और अधिक तपाते हैं / 317. इसके पश्चात् उस नरक में नगरवध (शहर में कत्लेआम) से समय होने वाले कोलाहल के से शब्द तथा दुःख से भरे (करुणाजनक) शब्द भी (सुनाई पड़ते हैं। जिनके मिथ्यात्वादि-जनित कर्म उदय में आए हैं, वे (परमाधार्मिक नरकपाल) जिनके पापकर्म उदय (फल देने की) दशा में आये हुए हैं, उन नारकी जीवों को बड़े उत्साह के साथ बार-बार दुःख देते हैं। 318. पापी नरकपाल नारकी जीवों के प्राणों का पांच इन्द्रियों, मन-वचन-कायाबल आदि प्राणोंअवयवों को काट कर अलग-अलग कर देते हैं, इसका कारण मैं तुम्हें यथातथ्य (यथार्थ) रूप से बताता अज्ञानी नरकपाल नारको जीवों को दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत सभी पापों का स्मरण कराते हैं। 316. परमाधामिकों द्वारा मारे जाते हुए वे नारकी जीव महासन्ताप देने वाले विष्ठा और मूत्र आदि बीभत्सरूपों से पूर्ण दूसरे नरक में गिरते हैं। वे वहाँ विष्ठा, मूत्र आदि का भक्षण करते हुए चिरकाल (बहुत लम्बे आयुष्यकाल) तक कर्मों के वश होकर रहते हैं और कृमियों (कीड़ों) के द्वारा काटे जाते हैं। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 सूत्रकृतांग-पचम अध्ययन-नरकविभक्ति 320. नारकी जीवों के रहने का सारा का सारा स्थान सदा गर्म रहता है, और वह स्थान उन्हें गाढ़ बन्धन से बद्ध (निधत्त-निकाचित) कर्मों के कारण प्राप्त होता है। अत्यन्त दुःख देना ही उस स्थान का धर्म-स्वभाव है / नरकपाल नारकी जीवों के शरीर को बेड़ी आदि में डाल कर, उनके शरीर को तोड़-मरोड़ कर और उनके मस्तक में छिद्र करके उन्हें सन्ताप देते हैं। 321. नरकपाल अविवेकी नारकी जीव की नासिका को उस्तरे से काट डालते हैं, तथा उनके ओठ और दोनों कान भी काट लेते हैं और उनकी जीभ को एक बित्ताभर बाहर खींचकर उसमें तीखे शूल भोंककर उन्हें सन्ताप देते हैं। 322. उन (नारकी जीवों) के कटे हुए नाक, औठ, जीभ आदि) अंगों से सतत खून टपकता रहता है, (इस भयंकर पीड़ा के मारे) वे विवेक मूढ़ सूखे हुए ताल (ताड़) के पत्तों के समान रातदिन वहाँ (नरक में) रोते-चिल्लाते रहते हैं / तथा उन्हें आग में जलाकर फिर उनके अंगों पर खार (नमक आदि) लगा दिया जाता है. जिससे उनके अंगों से मवाद, मांस और रक्त चूते रहते हैं। 323-324. रक्त और मवाद को पकाने वाली, नवप्रज्वलित अग्नि के तेज से युक्त होने से अत्यन्त दुःसहताप युक्त, पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली, ऊँची, बड़ी भारी एवं रक्त तथा मवाद से भरी हुई कुम्भी का नाम कदाचित् तुमने सुना होगा। आर्तनाद करते हुए तथा करुण रुदन करते हुए उन अज्ञानी नारकों को नरकपाल उन (रक्त एवं मवाद से परिपूर्ण) कुम्भियों में डालकर पकाते हैं। प्यास से व्याकुल उन नारकी जीवों को नरकपालों द्वारा गर्म (करके पिघाला हुआ) सीसा और ताम्बा पिलाये जाने पर वे आर्तस्वर से चिल्लाते हैं। विवेचन....नरक में नारकों को प्राप्त होने वाली भयंकर वेदनाएँ ---सूत्रगाथा 305 से 324 तक बीस गाथाओं में नरक में नारको जीवों को अपने पूर्वकृत पापकर्मानुसार दण्ड के रूप में मिलने वाले विभिन्न दुःखों और पीड़ाओं का करुण वर्णन है / नारकों को मिलने वाले भयंकर दुःखों को दो विभागों में बांटा जा सकता है-(१) क्षेत्रजन्य दुःख और (2) परमाधामिककृत दुःख। क्षेत्रजन्य दुःख-क्षेत्रजन्य दुःख नरक में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। वहाँ के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सभी अमनोज्ञ, अनिष्ट, दुःखद एवं दुःसह्य होते हैं / शास्त्रकार द्वारा इस उद्देशक में वर्णित शब्दादि जन्य दुःखों का क्रमशः विवेचन इस प्रकार है-अमनोज्ञ भयंकर दुःसह शब्द-तिर्यञ्च और मनुष्य भव का त्याग कर नरकयोग्य प्राणियों की अण्डे से निकले हुए दोम पक्षविहीन पक्षी की तरह नरक में अन्तमुहूर्त में शरीरोत्पत्ति होती है, तत्पश्चात् ज्योंही वे पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, त्यों ही उनके कानों में परमाधार्मिकों के भयंकर अनिष्ट शब्द पड़ते हैं—यह पापी महारम्भ-महापरिग्रह आदि पापकर्म करके आया है, इसलिए इसे मुद्गर आदि से मारो, तलवार आदि से काटो, इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो, इसे शुल आदि से बींध दो, भाले में पिरो दो, इसे आग में झौंक कर जला दो; ये और इस प्रकार के कर्णकटु मर्मवेधी भयंकर शब्दों को सुनते ही उनका कलेजा कांप उठता है, वे भय के मारे बेहोश हो जाते हैं। रा में आते ही किंकर्तव्य विमूढ़ एवं भय-विह्वल होकर मन ही मन सोचते हैं कि अब कहाँ किस दिशा में भागे, कहाँ हमारी रक्षा होगी? कहाँ हमें शरण मिलेगी? हम इस दारुणदुःख से कैसे छुटकारा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 297 . प्रथम उद्देशक : गाथा 305 से 324 पायेंगे? इस प्रकार का शब्दजन्य दुःख नरक में है। जिसके लिए सूत्रगाथा 305 में शास्त्रकार कहते हैं- "हण छिदह के नाम दिसं वयामो ?" नरक में होने वाला नगरवध-सा भयंकर कोलाहल-नरक के जीवों पर जब शीत, उष्ण आदि के भयंकर क्षेत्रीय दुःख, पारस्परिक दुःख और परमाधार्मिक कृत दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है, तब वे करुण आर्तनाद करते हैं -हेमात ! हे तात ! बड़ा कष्ट है ! मैं अनाथ और अशरण हूँ, कहाँ जाऊँ? कैसे इस कष्ट से बचूँ ? मेरी रक्षा करो ! इस प्रकार के करुणाजनक शब्दों में वे पुकार करते हैं। उस समय का चीत्कार नगर में होने वाले सामूहिक हत्याकाण्ड की तरह इतना भयंकर व डरावना होता है कि उसे सुनकर कान के पर्दे फट जाते हैं / वास्तव में नरक का वह कोलाहल नगरवध के समय होने वाले कोलाहल से भी कई गुना बढ़कर तेज, दुःसह, मर्मभेदी, करुणोत्पादक एवं अति दुःखद होता है। नरक में अनिष्ट कुरूपजन्य दुःख---यों तो नरक में नारकों को भोंडे, भद्दे कुरूप शरीर मिलते हैं, उनकी एवं परमाधार्मिकों की डरावनी क्रू र आकृति से भी उन्हें वास्ता पड़ता है। इसके अतिरिक्त नरक भूमियों का दृश्य भी अत्यन्त भयावह होता है, वह भी नारकों के मानस में अत्यन्त दुःख उत्पन्न करता है / शास्त्रकार ने इस उद्देशक में नरक के भयंकर रूप सम्बन्धी चर्चा सूत्रगाथा 310 में की है। (1) सघन अन्धकार पूर्ण दुस्तर और विशाल नरक-असूर्य नाम का एक नरक है, जहाँ सूर्य बिलकुल नहीं होता। यों तो सभी नरकों को असूर्य कहते हैं। असूर्य होने के कारण नरक घोर अन्धकार पूर्ण होता है, तथापि वह प्रचण्ड तम से युक्त होता है। नरक इतना दुस्तर होता है कि उसका ओर-छोर नहीं दिखता / इतना विशाल और दीर्व होने के कारण उसे पार करना कठिन होता है। ऐसे विशाल लम्बे, चौड़े और गहरे नरक में पापी प्राणी जाते हैं, रहते हैं, स्वकृत पापकर्मों का दुःखद फल भोगते हैं। साथ ही वहाँ ऊँची, नीची एवं तिरछी सभी दिशाओं में व्यवस्थित रूप से लगाई गई ई गई आग निरंतर जलती रहती हैं। उस आग की लपटें दूर-दूर तक ऊपर उठती हैं। बेचारे नारक जीव वहाँ के इस भयंकर दृश्य को देख एक क्षण भी कैसे चैन से रह सकते हैं ? शास्त्रकार कहते हैं-'असरियं नाम"अंधतमं दुप्पतरं महंत "जत्थागणी झियाति / रक्त और मवाद से परिपूर्ण कुम्भी : बीभत्स-सामान्य मनुष्य को यदि थोड़ी-सी देर के लिए भी खून और मवाद से भरी कोठरी या भूमि में छोड़ दिया जाए तो वह उसकी दुर्गन्ध को सह नहीं सकेगा, उसकी नाक फट जाएगी, दुर्गन्ध के मारे / उसे वह दुःख असह्य प्रतीत होगा, किन्तु नरक में तो कोसों तक भूमि, मूत्र, खून, मवाद एवं विष्ठा की कीचड़ से लथपथ है / दूर-दूर तक उसकी बदबू उठती है। प्रस्तुत उद्देशक में सूत्र गाथा 323 में एक कुम्भी का वर्णन किया गया है, जो देखने में भी अत्यन्त घृणास्पद और बीभत्स है, उसको दुर्गन्ध भी असह्य होती है, क्योंकि वह रक्त और मवाद से लबालब भरी होती हैं, वह पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाण वाली ऊँट के आकार की बहुत ऊँची होती है। वह कुम्भी चारों ओर तीन आग से जलती रहती है। रोते-चिल्लाते नारकों को उस कुम्भी में जबरन डालकर पकाया जाता है / दुर्गन्ध का कितना दारुण दुःसह दुःख होता होगा उन नारकों को ? शास्त्रकार उस कुम्भी का वर्णन करते हुए कहते हैं - "जइ ते सुना... "लोहितपूय पुण्या।" Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 सूत्रकृतांग--पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति नरक में मल मूत्र आदि का भक्षण : कितना असह्या रसास्वाद?--नरक में नारकीय जीवों को रहने के लिए मल-मूत्र, मवाद आदि गंदी वस्तुओं से भरे स्थान मिलते हैं / नरक की कालकोठरी जेल की कालकोठरी से अनन्त गुना अधिक भयंकर होती है वहाँ नारकों को खाने-पीने के लिए मल, मूत्र, मवाद, रक्त आदि घिनौनी कुरूप वस्तुएँ मिलती हैं। इसी प्रकार की घिनौनी चीजों का भक्षण करते हुए एवं बीभत्स स्थान में रहते हुए नारकी जीव रिबरिबकर अपनी लम्बी आयु (कम से कर 10 हजार वर्ष की, अधिक से अधिक 33 सागरोपम तक की दीर्घकालिक) पूरी करते हैं। उन मल, मूत्र, रक्त एवं मवाद आदि में भयानक कोड़े उत्पन्न होते हैं, जो नारकों को रात-दिन काटते रहते हैं / यह है-नरक में रसादि जन्य तीब्र दुःख ! शास्त्रकार कहते हैं- "ते हम्मनाणा दुरूवस्स "दुक्खभक्खी "तुति किमोहिं / " दुःसह स्पर्शजन्य तीब्र वेदना-नरक में स्पर्शजन्य दुःख तो पद-पद पर है। वह स्पर्श अत्यन्त दुःसह और दारुण दुःखद होता है / शास्त्रकार ने सू० गा० 306, 307, 311, 316, 320 एवं 324 में नारकों को पापकर्मोदयवश प्राप्त होने वाले दुःसह स्पर्शजन्य दुःख की झांकी प्रस्तुत की है। (1) नरक की तप्त भूमि का स्पर्श कैसा और कितना दुःखदायो ?-- नरक की भूमि को शास्त्रकार ने खैर के धधकते अंगारों की राशि की, तथा जाज्वल्यमान अग्निसहित पृथ्वी की उपमा दी है। इन दोनों प्रकार की-सी तपतपाती नरकभूमि होती है, जिस पर चलते और जलते हुए नारकीय जीव जोर-जोर से करुण क्रन्दन करते हैं। यहाँ नरकभूमि की तुलना इस लोक की बादरअग्नि से की गई है। परन्तु वास्तव में यह तुलना केवल समझाने के लिए है, नरक का ताप तो इस लोक के ताप से कई गुना अधिक है। अतः महानगर के दाह से भी कई गुने अधिक ताप में नारक रोते-बिलखते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपनी आयुपर्यन्त रहते हैं / यही बात शास्त्रकार सू० गा० 306 में कहते हैं-"इंगालरासि तत्य चिरद्वितीया / " नरक में गुहाकोर अग्नि में सदा जलते हुए नारक-नरक में गुफानुमा नरकभूमि में आग ही आग चारों ओर रखी होती है। बेचारे नारक पापकर्मोदयवश उससे अनभिज्ञ होते हैं, वे बलात् इस अग्निमयी भूमि में धकेल दिये जाते हैं, जहाँ वे उस पूर्णतापयुक्त करुणाजनक स्थान में संज्ञाहीन होकर जलते रहते हैं। वह स्थान नारकों को अपने पूर्वकृतपापकर्मवश अवश्य हो मिलता है, उष्णस्पर्श मय वह स्थान स्वभाव से ही अतिदुःखद होता है / एक पलक मारने जितना समय भी यहाँ सुख में नहीं बीतता / सदैव दुःख ही दुःख भोगते रहना पड़ता है / अत्यन्त शीतस्पर्श से बचने का उपाय भी कितना दुःखद ?-नारकी जीव नरक के भयंकर दुःसह शीत के दुःख से बचने के लिए अत्यन्त प्रदीप्त सुतप्त अग्नि के पास जाते हैं / परन्तु वह आग तो अत्यन्त दाहक होती है / बेचारे गये थे सुख की आशा से, किन्तु वहाँ पहले से भी अधिक दुःख मिलता है, वे नरक को उस प्रचण्ड (तीव्रताप युक्त) आग में जलने लगते हैं, जरा भी सुख नहीं पाते। फिर ऊपर से नरकपाल उन तपे हुए नारकों को और अधिक ताप तरह-तरह से देते रहते हैं। यही तथ्य शास्त्रकार ने 316 सू० गा० में व्यक्त किया है-'तहिं च ते " गाढं सुतत्त अणि वयंति "तह वी तति / " सदैव पूर्णतया उष्ण नरकस्थान : दुःखों से परिपूर्ण-नारकों के आवासस्थान का कोई भी कोना ऐसा नहीं होता, जो गर्म न हो / समूचा स्थान सदैव उष्ण रहता है। उसमें नरक के जोव सदा सिकते रहते है / उस स्थान का तापमान बहुत अधिक होता हैं / वहाँ का सारा वायुमण्डल तापयुक्त एवं दुःखमय Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 305 से 324 266 होता है / सुख उन्हें कहीं ढूंढे भी नहीं मिलता, क्योंकि नरकभूमि का स्वभाव ही दुःख देना है। यह दुःखद स्थान नारकों को गाढबन्धन (निधत्त-निकाचितरूप बन्धन) से बद्ध कर्मों के वश मिलता है / यही बात सू० गा० 320 के पूर्वाद्धं में स्पष्ट बताई है-सदा कसिणं पुण घम्मट्ठाणं गाढोयणीयं अतिदुक्खधम्मं / " वैतरणी नदी को तीक्ष्ण जलधारा का स्पर्श कितना दुःखदायो ?-वैतरणी नरक की मुख्य विशाल नदी है। उसमें रक्त के समान खारा और गर्म जल बहता रहता है। उसकी जलधारा उस्तरे के समान बड़ी तेज है / उस तीक्ष्ण धारा के लग जाने में नारकों के अंग कट जाते हैं। यह नदी बहुत ही गहन एवं दुर्गम है / नारकी जीव अपनी गर्मी और प्यास को मिटाने हेतु इस नदी में कूदते हैं, तो उन्हें भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ता है। कई बार बैलों को आरा भौंककर चलाये जाने या भाले से बांधकर चलाये जाने की तरह नारकों को सताकर इस नदी में कूदने और इसे पार करने को बाध्य कर दिया जाता है। कितना दारुण दुःख है--तीक्ष्ण स्पर्श का और विवशता का। इसी तथ्य को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं'जइ ते सुया बेयरणो "खुर इवतिक्खसोया"...सत्तिसु हम्ममाणा।' परमाधार्मिक कृत दुःख और भी भयंकर-जब से कोई जीव नरक में जाता है, तभी से परमाधार्मिक असुर उसके पीछे भूत की तरह लग जाते हैं, और तीसरे नरक तक वे आयु पूर्ण होने तक उसके पीछे लगे रहते हैं, वे तरह-तरह से उस नारक को यातनाएँ देते रहते हैं / वे परमाधार्मिक 15 प्रकार के हैं, जिनका परिचय अध्ययन के प्राथमिक में दिया गया है। नरक में नारकी जीव के उत्पन्न होते ही वे मारो, काटो, जला दो, तोड़ दो आदि शब्दों से नारक को भयभीत और संज्ञाशून्य कर देते हैं / शास्त्रकार ने इन नरकपालों द्वारा नारकों को दिये जाने वाले दुःख की संक्षिप्त झांकी इस उद्देशक की सू० गा० 305, 307, 308, 306, 312, 313, 314, 316, 317, 318, 321, 322 तथा 324 में दी हैं। ____ संक्षेप में इनका परिचय इस प्रकार है-(१) नरक में उत्पन्न होते ही नारक को ये भयंकर शब्दों से भयभीत कर देते हैं, (2) वैतरणी नदी में बलात् कूदने और तैरने को वाध्य कर देते हैं। (3) नौका पर चढ़ते समय नारकों के गले में कील भौंककर स्मृति रहित कर देते हैं. (4) लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींध कर जमीन पर पटक देते हैं, (5) नारकों के गले में शिलाएँ बाँधकर अगाध जल में डुबो देते हैं, (6) तपी हुई रेत, या भाड़ की तरह तपी हुई आग में डालकर पकाते हैं, फेरते हैं. (7) चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ लगाकर नारकों को तपाते हैं, (8) नारकों के हाथ पैर बांधकर उन्हें कुल्हाड़े से काटते नारकों का सिर चूर-चूरकर देते हैं, अंग मल से फूल जाता है। (10) पीड़ा से छटपटाते हए नारकों को उलट-पलट करके जीवित मछली की तरह लोहे की कड़ाही में पकाते हैं, (11) नारकी जीवों को बार-बार तीव्र वेग से पीड़ित करते हैं। (12) पापी परमार्मिक नारकों के विविध प्राण-अंगोपांग काटकर अलग-अलग कर देते हैं, (13) पापात्मा परमाधामिक असुर पूर्व जन्म में नारकों द्वारा किये गए दण्डनीय पापकर्मों को याद दिलाकर उनके पापकर्मानुसार दण्ड देते हैं। (14) नरकपालों की मार खाकर हैरान नारक मल-मूत्रादि बीभत्स रूपों से पूर्ण नरक में गिरते हैं, (15) नारकों के शरीर को बेड़ी आदि बंधनों में जकड़ कर उनके अंगोपांगों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, मस्तक में छेद करके पीड़ा देते हैं, (16) नारकों के नाक, कान और ओठ को उस्तरे से काट डालते हैं। (17) जीभ एक बित्ताभर 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 128 से 133 तक के आधार पर Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरक विभक्ति बाहर खींचकर उसमें तीखे शूल भौंककर अत्यन्त दुःख देते हैं। (18) जिन कटे हुए अंगों से रक्त, मवाद और मांस चते रहते हैं, उन पर ये असर खार छिड़कते रहते हैं, (16) रक्त और मवाद से भरी कृम्भियों में डालकर आर्तनाद करते हुए नारकों को पकाते हैं, (20) पिपासाकुल नारकों को ये बलात् गर्म किया हुआ सीसा और ताँबा पिलाते हैं। ये और इस प्रकार की विविध यातनाएँ परमाधार्मिक नरकपाल नारकों को देते रहते हैं। उन्हें नारकों को दुःख देने में आनन्द आता है। वे नारकों को उनके पूर्वजन्म कृत पापकर्मों का इस प्रकार स्मरण दिलाते हैं- 'मूर्ख ! तू बड़े हर्ष के साथ प्राणियों का मांस निर्दयतापूर्वक काट-काटकर खाता था, उनका रक्त पीता था, तथा मदिरापान एवं परस्त्री गमन आदि कुकर्म करता था। अपने किये हुए पापकर्मों को याद कर अब उन पापकर्मों का फल भोगते समय क्यों रोता-चिल्लाता हैं ? न भस्मीभूत, न मत, चिरकाल तक दुखित - जब उन नारकों को नरकपाल आग में डालते हैं, उनके अंग तोड़फोड़ डालते हैं, उन्हें इतने जोर से मारते-पीटते, शूलों से बींधते काटते-छेदते हैं, तब वे भस्मीभूत या मृत हो जाते होंगे? इस शंका के समाधानार्थ शास्त्रकार सू० गा० 315 में कहते हैं - "नो चेव ते तत्थ मसीभवंति दुक्खो इह दुक्कडेण / " इसका आशय यह है कि इतनी वर्णनातीत अनुपमेय वेदना का अनुभव करते हुए भी जब तक अपने कर्मों का फल भोग शेष रहता है, या आयुष्य बाकी रहता है, तब तक वे न तो भस्म होते हैं और न हो वे मरते हैं। जिस नारक का जितना आयुष्य है उतने समय तक नरक के तीव्र से तीव्र दुःख उन्हें भोगने ही पड़ते हैं। पाठान्तर और व्याख्या--'कोलेहि विझंति' =णिकार के अनुसार--'कोलो नाम गलओ कोल मछली पकड़ने वाले कांटे या किसी अस्त्र विशेष का नाम है। तदनुसार अर्थ होता है- मछली पकड़ने वाले कांटो से या अस्त्र विशेष से वीध डालते हैं, वृत्तिकार के अनुसार पाठान्तर है-कोलेहि विशति - अर्थ किया गया है-'कोलेज कण्ठं विध्यन्ति'-कण्ठो में (कीलें) चभो देते हैं। 'सजीव मच्छे व अओकबाले = जीती हुई मछली की तरह लोह की कड़ाही में, चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - 'सज्जोव्व मच्छे व अओकवल्ले' / 'सज्जोमच्छे' के चूणिकार ने दो अर्थ किये हैं-(१) जीता हुआ मत्स्य, और (2) सद्यः तत्काल मरा हुआ मत्स्य / उसकी तरह लोह के कड़ाह में तड़फड़ाता हुआ। तहि च ते लोलण-संपगाढे-वृत्तिकार के अनुसार-नारकों की हलचल से भरे (व्याप्त) उस महायातना स्थान नरक में वे (नारक). चर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-'तहिं पि ते लोलुअसंपगाढे-दुःख से चंचल-लोलुप नामक उस नरक में अत्यन्त गाढ़-- निरन्तर यानी उस लोलुय नरक में भी ठसाठस भरे हुए वे नारक / 'सरह दुहेति' = वृत्तिकार के अनुसार नारकों को वे सोत्साह दुःख देते हैं। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है- 'सहरिस दुहति'--- अर्थ होता है-सहर्ष दुःख देते है। 'अदुस-बेडियो में। तलसंपुडब-वत्तिकार के अनुसार हवा से प्रेरित ताल (ताड) के पत्तों के ढेर की तरह / चूर्णिकार सम्मत पाठ है-तलसंपुउच्च-हथेली से बंधी हुई या हाथों में ली हुई अर्चा यानी देह (यहाँ शरीर को अर्चा कहा गया है) बाले / पपयंति (पपतंति)=जोर से गिराते हैं। वत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-पययंति =प्रपचति-अच्छी तरह से पकाते है। 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 128 से 133 तक का सारांश 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 128 से 133 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 55 से 57 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 325 से 326 301 नरक में नारक क्या खोते या पाते? 325. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुटव सते सहस्से / चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, जहा कडे कम्मे तहा सि भारे // 26 // 326. समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा, इ8 हि कंतेहि य विष्पहूणा। ते दुन्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आयसंति // 27 // 325. इस मनुष्यभव में स्वयं ही स्वयं की वंचना करके तथा पूर्वकाल में सैकड़ों और हजारों अधम (व्याध आदि नीच) भवों को प्राप्त करके अनेक क्रूरकर्मी जीव उस नरक में रहते हैं। पूर्व जन्म में जिसने जैसा कम किया है, उसके अनुसार ही उस नारक को वेदनाएँ (भार) प्राप्त होती हैं। 326. अनार्य पुरुष पाप (कलुष) उपार्जन करके इष्ट और कान्त (प्रिय) (रूपादि विषयों) से रहित (वंचित) होकर कर्मों के वश हुए दुर्गन्धयुक्त, अशुभ स्पर्श वाले तथा मांस (रुधिर आदि) से परिपूर्ण कृष्ण (काले रूप वाले) नरक में आयुपूर्ण होने तक निवास करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-नरक में नारक क्या खोते, क्या पाते ?-प्रस्तुत सूत्रगाथा द्वय में इस उद्देशक का उपसंहार करके शास्त्रकार ने नरक में नारकीय जीवों के द्वारा खोने-पाने का संक्षेप में वर्णन किया हैं। दोनो सूत्रगाथाओं में पूर्वकृत कर्मों के अनुसार नारकों के लाभ-हानि के निम्नोक्त तथ्य प्रकट किये गये हैं--(१) मनुष्यजन्म में जो लोग जरा-सी सुखप्राप्ति के लिए हिंसादि पापकर्म करके दूसरों को नहीं, अपने आपको ही वंचित करते, (2) बे उसी के फलस्वरूप सैकड़ों हजारों वार शिकारी, कसाई, आदि नीच योनियों में जन्म लेकर तदनन्तर यातना स्थान रूप नरक में निवास करते हैं, (3) जिसने जिस अध्यवसाय से जैसे जघन्य-जधन्यतर-जघन्यतम पापकर्म पूर्वजन्मों में किये हैं. तदनुसार ही उसे नरक में वैसी ही वेदनाएँ मिलती हैं / (4) वे अनार्य पुरुष अपने थोड़े-से सुखलाभ के लिए पापकर्मों का उपार्जन करते हैं। (5) उसके फलस्वरूप नरक में इष्ट, कान्त, मनोज्ञ रूप, रस गन्ध स्पर्श आदि विषयों से वंचित रहते हैं. और अनिष्ट रूप, रस, गन्ध स्पर्श आदि प्राप्त करके अपनी पूरी आयु तक नरक में दुःख भोगते रहते हैं। जहा कडं कम्म तहासि मारे -- इस पंक्ति का आशय यह है कि 'जैसा जिसका कर्म, वैसा ही फल' के सिद्धान्तानुसार नरक में नारकों को पीड़ा भोगनी पड़ती है। उदाहरणार्थ-जो लोग पूर्वजन्म में मांसाहारी थे, उन्हें नरक में उनका अपना ही मांस काटकर आग में पकाकर खिलाया जाता है, जो लोग मांस का रस पीते थे, उन्हें अपना ही मवाद एवं रक्त पिलाया जाता है, अथवा सीसा गर्म करके पिलाया जाता है तथा जो मच्छीमार बहेलिये आदि थे, उन्हें उसी प्रकार से मारा काटा एवं छेदा जाता है जो असत्यवादी थे, उन्हें उनके पूर्वजन्म के दुष्कृत्यों को याद दिलाकर उनकी जिह्वा काटी जाती है, जो पूर्वजन्म में परद्रव्यापहारक चोर, लुटेरे डाकू आदि थे, उनके अंगोपांग काटे जाते हैं, जो परस्त्रीगामी थे Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति उनका अण्डकोष काटा जाता हैं, तथा शाल्मलिवृक्ष (अत्यन्त कठोर स्पर्श वाला) का आलिंगन कराया जाता है, जो लोग महापरिग्रही थे या तीव्र कषाय वाले थे, उन्हें अपने दुष्कर्मों का स्मरण कराकर वैसा ही दुःख दिया जाता है। इट्टहि कंतेहि य विप्पहूणा-इस पंक्ति के दो अर्थ वृत्तिकार करते हैं- (1) इष्ट एवं कमनीय शब्दादि विषयों से रहित (वंचित) होकर वे नरक में रहते हैं, अथवा (2) जिनके लिए उन्होंने पापकर्म किये थे, उन इष्ट माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि से तथा कान्त (कमनीय) विषयों से रहित होकर वे एकाकी नरक में आयुपर्यन्त रहते हैं।" पाठान्तर और व्याख्या-भवाहमे पुब्बसते सहस्से वृत्तिकार के अनुसार- बहुत-से भवो में जो अधम -मच्छीमार कसाई पारधि आदि नीच भव हैं, उन्हें पूर्वजन्मों में सैकड़ों हजारों वार पाकर विषय सम्मुख एवं सुकृत विमुख होकर या भागकर / चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-'भवाहमे पुथ्या सतसहस्से' सैकड़ोंहजारों पूर्व तक यानी तैतीस सागरोपम तक भवों में अधम-निकृष्ट भव पाकर या भोगकर / प्रथम उद्देशक समाप्त बोओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक तीव्र वेदनाएँ और नारकों के मन पर प्रतिक्रिया 327. अहावरं सासयदुक्खधम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं / बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेदेति कम्माइं पुरेकडाई // 1 // 328. हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिाह / गेण्हेत्तु बालस्स विहन्न देहं, वद्ध थिरं पिटुतो उद्धरंति // 2 // 326. बाहू पकत्तंति य मूलतो से, थूलं वियासं मुहे आडहंति / रहंसि जुत्तं सरयंति बालं, आरुस्स विझति तुदेण पट्टे // 3 // 330. अयं व तत्तं जलितं सजोति, ततोवमं भूमिमणोक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोदिता सत्तजुगेसु जुत्ता // 4 // 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 134 8 सूयगडंग सुत्त (मू० पा० टिप्पण) पृ० 58 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 134 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 द्वितीय उद्देशक : गाथा 327 से 334 331. बाला ब्ला भूमिमणोक्कमंता, पविज्जलं लोहपहं व तत्तं। जंसोऽभिदुग्गंसि पवज्जमाणा, पेसे व दंडेहि पुरा करेंति // 5 // 332. ते संपगाढंसि पवज्जमाणा, सिलाहि हम्मंतिऽभिपातिणीहि / संतावणो नाम चिरद्वितीया, संतप्पति जत्थ असाहुकम्मा // 6 // 333. कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततो विडड्ढा पुणरुप्पतति / ते उड्डकाएहि पखज्जमाणा, अवरेहि खज्जति सणप्फएहि // 7 // 334. समूसितं नाम विधुमठाणं, जे सोगतत्ता कलुणं थणंति / अहो सिरं कट्ट, वित्तिऊणं, अयं व सत्थेहि समोसवेति // 8 // 335. समूसिया तत्थ विसूणितंगा, पक्खोहि खजति अयोमुहेहि / संजीवणी नाम चिरद्वितीया, जंसि पया हम्मति पावचेता / / 6 // 336. तिक्खाहि सलाहि भितावयंति, वसोवगं सोअरियं व लद्ध। ते सूलविद्धा कलुणं थणंति, एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा // 10 // 337. सदा जलं ठाण निहं महंत, जंसी जलती अगणी अकट्ठा / चिळंती तत्था बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरद्वितीया / / 11 // 338. चिता महंतीउ समारभित्ता, छुम्भंति ते तं कलुणं रसंतं / आवट्टति तत्थ असाहुकम्मा, सप्पि जहा पतितं जोतिमझे // 12 // 336. सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म / हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुं व दंडेहि समारभंति // 13 // 340. भजति बालस्स वहेण पछि, सोसं पि भिदंति अयोधणेहि / ते मिन्नदेहा व फलगावतट्ठा, तत्ताहिं आराहि णियोजयंति // 14 // 341. अभिजुजिया रुद्द असाहुकम्मा, उसुचोदिता हत्थिवह वहति / एग दुरुहित्तु दुए तयो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से // 15 // 342. बाला बला भूमि अणोक्कमंता, पबिज्जलं कंटइल महतं / विबद्ध तप्पेहि विवष्णचित्ते, समीरिया कोट्ट बलि करेंति // 16 // 343. वेतालिए नाम महभितावे, एगायते पव्वतमंतलिक्खे / हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहत्तगाणं // 17 // Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति 344. संबाहिया दुक्कडिणो थणंति, अहो य रातो परितप्पमाणा। एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ॥ 18 // 145. भंजति णं पुवमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतु। ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति // 16 // 346. अणासिता नाम महासियाला, पगभिणो तत्थ सयायकोवा / खज्जंति तत्था बहुकरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा // 20 // 347 सदाजला नाम नदी भिदुग्गा पविज्जला लोहविलोणतत्ता। जंसी भिदुग्गसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेति / / 21 / / 327. इसके पश्चात् शाश्वत (सतत) दुःख देने के स्वभाव वाले नरक के सम्बन्ध में आपको मैं अन्य बातें यथार्थरूप से कहूँगा कि दुष्कृत (पाप) कर्म करने वाले अज्ञानी जीव किस (जिस) प्रकार पूर्व (जन्म में) कृत स्वकर्मों का फल भोगते हैं। 328. परमाधार्मिक असुर नारकीय जीवों के हाथ और पैर बांधकर तेज उस्तरे और तलवार के द्वारा उनका पेट फट डालते हैं। तथा उस अज्ञानी जीव की लाठी आदि के प्रहार से) क्षत विक्षत देह को पकड़कर उसकी पीठ की चमड़ी जोर से उधेड़ लेते हैं। 326. वे नरकपाल नारकीय जीव की भुजा को मूल से काट लेते हैं, तथा उनका मुख फाड़कर उसमें लोह के बड़े-बड़े सपे हुए गोले डालकर जलाते हैं / (फिर) एकान्त में उनके जन्मान्तरकृत कर्म का स्मरण कराते हैं, तथा अकारण ही कोप करके चाबुक आदि से उनकी पीठ पर प्रहार करते हैं / 330. तपे हुए लोह के गोले के समान, ज्योति-सहित जलती हुई तप्त भूमि की उपमायोग्य भूमि पर चलते हुए वे नारकी जीव जलते हुए करुण क्रन्दन करते हैं। लोहे का नोकदार आरा भोंककर (चलने के लिए) प्रेरित किये हुए तथा गाड़ी के तप्त जुए में जुते (जोते हुए वे नारक (करुण विलाप करते हैं।) 331. अज्ञानी नारक जलते हुए लोहमय मार्ग के समान तपी हुई तथा (रक्त और मवाद के कारण) थोड़े पानी वाली (कीचड़ से भरी) भूमि पर परमाधार्मिकों द्वारा बलात् चलाये जाने से (बुरी तरह रोते-चिल्लाते हैं / ) (नारकी जीव) जिस (कुम्भी या शाल्मलि आदि) दुर्गम स्थान पर (परमाधामिकों द्वारा) चलाये जाते हैं, (जब वे ठीक से नहीं चलते हैं, तब) (कुपित होकर) डंडे आदि मारकर बैल की तरह उन्हें आगे चलाते हैं। 332. तीव (गाढ़) वेदना से भरे नरक में पड़े हुए वे (नारकी जीव) सम्मुख गिरने वाली शिलाओं के (द्वारा) नीचे दबकर मर जाते हैं। सन्तापनी (सन्ताप देने वाली) यानी कुम्भी (नामक नरक भूमि) चिरकालिक स्थिति वाली है, जहाँ दुष्कर्मी-पापकर्मी नारक (चिरकाल तक) संतप्त होता रहता है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 327 से 347 333. (नरकपाल) अविवेकी नारक को गेंद के समान आकार वाली (नरक-कुम्भी) में डालकर पकाते हैं, जलते (चने की तरह भूने जाते) हुए वे नारकी जीव वहाँ से फिर ऊपर उछल जाते हैं, जहां वे द्रोणकाक नामक (विक्रिया-जात) कौओं द्वारा खाये जाते हैं, (वहाँ से दूसरी ओर भागने पर) दूसरे (सिंह, व्याघ्र आदि) नरक वाले हिंस्र पशुओं द्वारा खाये जाते हैं। 334. (नरक में) ऊँची चिता के समान आकार वाला (समुच्छित) धूम रहित अग्नि का एक स्थान है, जिस (स्थान) को (पाकर) शोक संतप्त नारकी जीव करुणस्वर में विलाप करते हैं / (नरकपाल) (नारक के) सिर को नीचा करके उसके शरीर को लोहे की तरह शस्त्रों से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। 335. उस नरक में अधोमुख करके ऊपर लटकाए हुए तथा शरीर की चमड़ी उधेड़ ली गई है, ऐसे नारकी जीवों को लोहे की तीखी चोंच वाले (काकगृध्र आदि) पक्षीगण खा जाते हैं। जहां यह पापात्मा नारकीय प्रजा मारी-पीटी जाती है, किन्तु संजीवनी (मरण-कष्ट पाकर भी आयु शेष रहने तक जलाए रखने वाली) नामक नरक भूमि होने से वह (नारकीय प्रजा) चिरस्थिति वाली होती है। 336. वशीभूत हुए श्वापद (जंगली जानवर) के समान प्राप्त हुए नारकी जीव को परमाधार्मिक तीखे शूलों से (बींधकर) मार गिराते हैं। शूल से बींधे हुए, भीतर और बाहर दोनों ओर से ग्लानउदास, एवं एकान्त दुःखी नारकीय जीव करुण क्रन्दन करते हैं। 337. (वहाँ) सदैव जलता हुआ एक महान् प्राणिघातक स्थान है, जिसमें बिना काष्ठ (लकड़ी) की आग जलती रहती है। जिन्होंने पूर्वजन्म में बहुत क र (पाप) कर्म किये हैं, वे कतिपय नारकीय जीव वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं और जोर-जोर से गला फाड़कर रोते रहते हैं। 338. परमाधामिक बड़ी भारी चिता रचकर उसमें करुण रुदन करते हुए नारकीय जीव को फैक देते हैं / जैसे आग में पड़ा हुआ घी पिघल जाता है, वैसे ही उस (चिता की अग्नि) में पड़ा हुआ पापकर्मी नारक भी द्रवीभूत हो जाता है / 336. फिर वहाँ सदैव सारा का सारा जलता रहने वाला एक गर्म स्थान हैं, जो नारक जीवों को निधत्त, निकाचित आदि रूप से बद्ध पाप कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है, जिसका स्वभाव अतिदुःख देना है। उस दुःखपूर्ण नरक में नारक के हाथ और पैर बांधकर शत्रु की तरह नरकपाल डंडों से पीटते हैं। 340. अज्ञानी नारक जीव की पीठ लाठी आदि से मार-मार तोड़ देते हैं और उसका सिर भी लोहे के धन से चूर-चूर कर देते हैं / शरीर के अंग-अंग चूर कर दिये गये वे नारक तपे हुए आरे से काष्ठफलक (लकड़ी के तख्ते) की तरह चीर कर पतले कर दिये जाते हैं, फिर वे गर्म सीसा पीने आदि कार्यों में प्रवृत्त किये जाते हैं। 341. नरकपाल पापकर्मा नारकीय जीवों के पूर्वकृत जीव हिंसादि रौद्र पापकार्यों का स्मरण कराकर बाण मारकर प्रेरित करके हाथी के समान भार वहन कराते हैं। उनकी पीठ पर एक, दो या तीन Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति नारकियों को चढ़ाकर उन्हें चलने के लिए प्रेरित करते हैं / (बीच-बीच में) क्रुद्ध होकर तीखा नोकदार शस्त्र उनके मर्मस्थान में चुभोते हैं। 342. बालक के समान पराधीन बेचारे नारकी जीव नरकपालों द्वारा बलात् कीचड़ से भरी और कांटों से परिपूर्ण विस्तृत भूमि पर चलाये जाते हैं। पापकर्म से प्रेरित नरकपाल अनेक प्रकार के बन्धनों से बांधे हुए विषण्ण-(या विवर्ण= उदास) चित्त या संज्ञाहीन (मूच्छित) नारक जीवों को खण्डश: काट-काट कर नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं। 343. आकाश में बड़े भारी ताप से युक्त एक ही शिला से बनाया हुआ अतिविस्तत वैतालिकवैविय पर्वत है। उस पर्वत पर रहने वाले अतिक र कर्मा नारकी जीव हजार मुहूर्तों से अधिक काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं। 344. निरन्तर पीड़ित किये जाते हुए दुष्कर्म किये हुए पापात्मा नारक दिन-रात परिताप (दुःख) भोगते (संतप्त हो) हुए रोते रहते हैं। उस एकान्त कूट (दुःखोत्पत्ति स्थान), विस्तृत और विषम (ऊबड़ खाबड़ या कठिन) नरक में पड़े हुए प्राणी गले में फांसी डालकर मारे जाते समय केवल रोदन करते हैं। 345. मुद्गर और मूसल हाथ में लेकर नरकपाल पहले के शत्रु के समान रोष के साथ नारकीय जीवों के अंगों को तोड़-फोड़ देते हैं। जिनकी देह टूट गई है, ऐसे नारकीय जीव रक्त वमन करते हुए अधोमुख होकर जमीन पर गिर पड़ते हैं। 346. उस नरक में सदा कोधित और क्षुधातुर बड़े ढीठ विशालकाय सियार रहते हैं। वे वहाँ रहने वाले जन्मान्तर में बहुत पाप (क र) कर्म किये हुए तथा जंजीरों से बंधे हुए निकट में स्थित नारकों को खा जाते हैं। 347. (नरक में) सदाजला नाम की अत्यन्त दुर्गम (गहन या विषम) नदी है, जिसका जल क्षार, मवाद और रक्त से मलिन रहता है, अथवा वह भारी कीचड़ से भरी है, तथा वह आग से पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल वाली है उस अत्यन्त दुर्गम नदी में पहुंचे हुए नारक जीव (बेचारे) अकेले-असहाय और अरक्षित (होकर) तैरते हैं। विवेचन -नरक में मिलने वाली तीन वेदनाएँ और नारकों के मन पर प्रतिक्रिया-प्रस्तुत 21 सूत्रगाथाओं) मू० गा० 327 से 347 तक) में नारकों को नरक में दी जाने वाली एक से एक बढ़कर यातनाओं का वर्णन है, साथ ही नारकों के मन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का भी निरूपण किया गया है। यद्यपि नारकीय जीवों को मिलने वाली ये सब यंत्रणाएँ मुख्यतया शारीरिक होती है, किन्तु नारकों के मन पर इन यन्त्रणाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है, जो आँखों से आँसुओं के रूप में और वाणी से रुदन विलाप और रक्षा के लिए पुकार के रूप में प्रकट होता है। नारकों को ये सव यातनाएँ और भयंकर वेदनाएँ उनके पूर्वजन्म में किये हुए पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, इसलिए नरकों को यातना स्थान कहना योग्य ही है / वास्तव में पूर्वजन्मकृत पापकर्मों के फलभोग के ही ये स्थान है। इसीलिए शास्त्रकार ने नरक को सासयदुक्खधम्म- 'सतत दुःख देने के स्वभाव वाला' कहा है।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा०२ पृ० 13 का सारांश Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 327 से 347 परमाधामिकों द्वारा दी जाने वाली यातनाएँ-नारकों को नरकपालों द्वारा दी जाने वाली यंत्रणाएँ मुख्यतया इस प्रकार है-(१) हाथ-पैर बांधकर तेज धार वाले उस्तरे व तलवार से पेट काटते हैं, ( घायल शरीर को पकड़ कर उसकी पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं, (3) भुजाएँ जड़ से काटते हैं, (4) मुह फाड़कर उसमें तपा हुआ लोह गोलक डालकर जला डालते हैं, (5) पूर्वजन्म कृत पापकर्मों का एकान्त में स्मरण कराकर गुस्से में आकर उनकी पीठ पर चाबुक फटकारते हैं, (6) लोहे के गोले के समान तपी हुई भूमि पर चलाते हैं, (7) गाड़ी के तपे हुए जुए में जोतकर तथा आरा भोंककर चलाते हैं, (8) जलते हुए लोहपथ के समान तप्त एवं रक्त-मवाद के कारण कीचड़ वाली भूमि पर जबरन चलाते हैं, जहाँ रुका कि नरकपाल डंडे आदि से मारकर आगे चलाते हैं, (6) सम्मुख गिरती हुई शिलाओं के नीचे दबकर मर जाते हैं, (10) संतापनी नामक नरक कुम्भी में रहकर चिरकाल तक संताप भोगते है, (11) गेंद के आकार वाली कन्दुकुम्भी में डालकर नारक को पकाते हैं / (12) वहाँ से ऊपर उछलते ही द्रोणकाक उन्हें नोचकर खा जाते हैं, शेष बचे हुए नारकों को सिंह-व्याघ्र आदि जंगली जानवर खा जाते हैं। (13) चिता के समान ऊँची निर्धूम अग्नि में अत्यन्त पीड़ा पाते हैं, जहाँ क्र र नरकपाल उनका सिर नीचा करके उनके शरीर को लोह की तरह शस्त्र से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं, (14) शरीर की चमड़ी उधेड़ कर औंधे लटकाए हुए नारकों को लोहे की तीखी चोंच वाले पक्षी नोचनोचकर खाते हैं, (15) हिंस्र पशु की तरह नारकीय जीव के मिलते ही वे तीखे शूलों से बांधकर उन्हें मार गिराते हैं, (16) सदैव बिना लकड़ी के जलता हुआ एक प्राणिघातक स्थान है, जहां नारक चिरकाल तक रहकर पीड़ा पाते हैं / (17) बहुत बड़ी चिता रच कर करुण विलाप करते हुए नारक को उसमें भौंक देते हैं / (18) सदैव पूरे के पूरे गर्म रहने वाले अतिदुःखमय नरक स्थान में हाथ-पैर बांधकर शत्रु की तरह मारते-पीटते हैं / (16) लाठी आदि से मार-मार कर पीठ तोड़ देते हैं, लोहे के भारी धन से सिर फोड़ देते हैं, उनके शरीर चूर-चूर कर देते हैं, फिर लकड़ी के तख्ते को चीरने की तरह गर्म आरों से चीर देते हैं, तब खौलता हुआ सीसा आदि पीने को बाध्य करते है, (20) नारक के पूर्वकृत रौद्र पापकर्मों का स्मरण करा कर उससे हाथी की तरह भारवहन कराया जाता है, एक दो या तीन नारकों को उसकी पीठ पर चढाकर चलाया जाता है, न चलने पर उसके मर्मस्थान में तीखा नो दार आरा आदि शस्त्र चुभोया जाता है / (21) परवश नारकों को कीचड़ से भरी एवं कंटीली विस्तीर्ण भूमि पर बलात् चलाया जाता है, (22) विविध बंधनों से बांधे हुए संज्ञा हीन नारकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें नगरबलि की तरह इधर-उधर फेंक देते हैं। (23) वैतालिक (वैक्रियक) नामक एक-शिलानिर्मित आकाशस्थ महाकाय पर्वत बड़ा गर्म रहता है, वहाँ नारकों को चिरकाल तक मारा-पीटा जाता है। (24) उनके गले में फांसी का फंदा डालकर दम घोटा जाता है, (25) मुद्गरों और मूसलों से रोषपूर्वक पूर्वशत्रुवत् नारकों के अंग-भंग करते हैं, शरीर टूट जाने पर वे औंधे मुंह रक्तवमन करते हुए गिर जाते हैं / (26) नरक में सदा खूख्वार, भूखे, ढीठ तथा महाकाय गीदड़ रहते हैं, जो जंजीरों से बंधे हुए निकटस्थ नारकों को खाते रहते हैं / (27) सदाजला नामक विषम या गहन दुर्गम नदी है, जिसका पानी रक्त, मवाद, एवं खार के कारण मैला व पंकिल है, उसके पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल में नारक अकेले और अरक्षित होकर तैरते हैं। इन और प्रथम उद्देशक में कथित, यातनाओं के अतिरिक्त अन्य सैकड़ों प्रकार की यातनाएँ नरक Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 305 सूत्रकृतांग : पंचम अध्ययन : नरक विभक्ति गत जीव पाते हैं और उन्हें रो-रोकर सहन करते हैं, क्योंकि उन्हें सहे विना और कोई चारा नहीं है। __ निष्कर्ष यह है कि दिन-रात नाना दुःखों और चिन्ताओं से सन्तप्त पापकर्मा नारकों के पास उन दुःखों से बचने का कोई उपाय नहीं होता, अज्ञान के कारण न वे समभाव पूर्वक उन दुःखों को सहन कर सकते हैं, और न ही उन दुःख का अन्त करने के लिए वे आत्महत्या करके मर सकते हैं, क्योंकि नारकीय जीवों का आयुष्य निरूपक्रमी होता है, उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। वे पूरा आयुष्य भोग कर ही मरते हैं, बीच में नहीं। यही कारण है कि वे इतने-इतने भयंकर दारुण दुःखों और यातनाओं के समय, या यों कहें कि इतनी-इतनी बार मारे, काटे, पोटे और अग-भंग किये जाने पर मरना चाहते हए भी नहीं मर सकते। सिवाय रोने-धोने करुण-क्रन्दन, विलाप, चीत्कार या प्रकार करने के उनके पास कोई चारा नहीं। परन्तु उनकी करुण पुकार, प्रार्थना, विलाप या रोदन सुनकर कोई भी उनकी सहायता या रक्षा करने नहीं आता, न ही कोई सहानुभूति के दो शब्द कहता है, किसी को उनकी दयनीय दशा देखकर दया नहीं आती, प्रत्युत परमाद्यामिक असुर उन्हें रोने पीटने पर और अधिक कर बनकर अधिकाधिक यातनाएँ देते हैं। उनके पूर्व जन्मकृत पापकर्मों की याद दिलाकर उन्हें लगातार एक पर एक यातनाएँ देते रहते हैं, जो उन्हें विवश होकर भोगनी पड़ती हैं। एक प्रश्न उठता है कि नरक में नारकी जीव का शरीर चूर-चूर कर दिया जाता है, उनकी चमड़ी उधेड़ दी जाती है, मृत शरीर की तरह उन्हें अंधे मुंह लटका दिया जाता है, वे अत्यन्त पीसे, काटे, पीटे और छोले जाते हैं, फिर भी मरते क्यों नहीं ? इसका समाधान सू० गा० 335 के उत्तराद्ध द्वारा करते वणो नाम चिरट्रितिया।' अर्थात- नरक की भूमि का नाम संजीवनी भी है। वह संजीवनी औषधि के समान जीवन देने वाली है, जिसका रहस्य यह है कि मृत्यु-सा दुःख पाने पर भी आयुष्यबल शेष होने के कारण वहाँ नारक चूर-चूर कर दिये जाने या पानी की तरह शरीर को पिघाल दिये जाने पर भी मरते नहीं, अपितु पारे के समान बिखर कर पुनः मिल जाते हैं। नारकी को उत्कृष्ट आयु 33 सागरोपम काल की है। इसीलिए शास्त्रकार नरकभूमि को 'चिरस्थितिका' (अत्यन्त दीर्घकालिक स्थिति वाली) कहते हैं। इसलिए नारकी जीव के मन पर उन भयंकर दुःखों को तीव्र प्रतिक्रिया होने पर भी वे कुछ कर नहीं सकते, विवश होकर मन मसोस कर पीड़ाएँ भोगते जाते हैं / पाठान्तर और व्याख्या-उवरं विकतंति खुरासिएहि-वृत्तिकार के अनुसार-उस्तरा, तलवार आदि 2 सूत्रकृतांग शीलाक वृत्ति पत्रांक 135 से 136 तक का संक्षिप्त सार 3 (क) सूत्रकृतांग मुलपाठ टिप्पण (जम्बूविजयजी) पृ० 58 से 62 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 137 का सारांश (घ) 'औपपातिक चरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येय वज्युिपोऽनपवायुए:'--तत्वार्थ सूत्र अ०२ सू० 53 4 (क) 'संजीवणा-संजीवन्तीति संजीविनः सर्व एव नरकाः संजीवणा।' -सूत्रकृ० चुणि (मू० पा० टि.) पृ० 56 (ख) 'संजीवनी-जीवनदात्री नरकभूमि:'-सूत्रकृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक 137 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : माथा 327 से 347 के अनेक प्रकार के तीखे शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते हैं / चूर्णिकार के अनुसार-'असिता णिसिता तिव्हा अथवा ण सिता मुण्डा इत्यर्थः असित यानी तेज, तीक्ष्ण अथवा मुंड-नंगे, यानी बंद नहीं, खुले; शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते हैं / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर भी है- 'उदराई फोर्डेति खुरेहि तेसि'-दुरी से उनके उदर फोड़ (फाड़) देते हैं / विहन्नदेह वृत्तिकार के अनुसार--विविधं हतं पीडितं देहभ-विविध रूप से हतपीड़ित-क्षतविक्षत देह को। चूणिकार सम्मत पाठान्तर है -णि देह =अर्थ किया गया है--विहणेति विहणित्ता देह देह को विशेष रूप से क्षतविक्षत (धायल करके / वद्ध' - 'वध चर्मशकलम्"=वर्ध कहते हैं चमड़ी के टुकड़े को / थूलं =बड़े भारी लोह के गोल आदि को / जुत्तं सरयति युक्तियुक्त - नारकों के अपने-अपने दण्ड रूप दु:ख के अनुरूप (उपयुक्त) पूर्वकृत पाप का स्मरण कराते हैं / जैसे कि -गर्म किया हुआ सीसा पिलाते समय वे याद दिलाते हैं कि तू खूब मद्य पीता था न ?' 'आरु-स विझंति' -वृत्तिकार के अनुसार-अकारण ही भयंकर कोप करके ... पीठ में चाबुक आदि के द्वारा ताड़ना करते हैं। चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-आरुठभ विधति = अर्थात् उनकी पीठ पर चढ़कर आरा आदि नोंकदार शस्त्र बींध (भोक) देते है। 'पविज्जलं --वृत्तिकार के अनुसार - 'रुधिरपूयादिना पिच्छिलां-रक्त और मवाद आदि होने के कारण पिच्छिल-कोचड़ वाली भूमि पर / चणिकार के अनुसार - विविधेग प्रज्वल नाम पिच्छिलेण पूयसोणि एण अणुलित्ततला, विगतं ज्वलं विज्जलं, विज्जल / अर्थात्---विविध प्रकार से प्रज्वल या पिच्छिल, मवाद और रक्त से जिसका तल अनुलिप्त हो, ऐसी अथवा जलरहित होने से वि-जल / जल के नाम पर उसमें मवाद औरखून होते हैं, इसलिए पंकिल भूमि / वृत्तिकारसम्मत - 'निपातिणीहि' के बदले 'अभिपातिभोहि' पाठ अधिक संगत प्रतीत होता है, अर्थ होता है-सम्मुख गिरने वाली शिलाओं से / 'निपानिणोहि' का अर्थ भी वही किया गया है / 'ततो विडड्ढा पुणरुपतंति-वृत्तिकार के अनुसार--- उस पाकस्थान से जलते हुए वे इस तरह ऊपर उछलते हैं, जिस तरह भाड़ में भुजे जाते हुए चने उछलते हैं / चूणिकार के अनुसार पाठान्तर और अर्थ इस प्रकार हैवे अज्ञानी नारक भय से भुजियों (पकौड़ों) की तरह जलते (पकते) हुए कूद जाते हैं। जं सोगतत्तावृत्तिकार-जिस पर पहुंचकर वे शोकसंतप्त नारक / चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर है--'जसि विउक्कता' और 'जसो वियंता'-प्रथम का अर्थ है-जिस पर विविध प्रकार से ऊपर चलते हुए वे नारक, द्वितोय का अर्थ है-'यत्र उबियंता-छुभमाना इत्यर्थः जहाँ क्षब्ध होते हए या छूते हुए नारक / 'सो अरियं व लद्धसूअर आदि को पाकर जैसे मारते हैं, वैसे ही नारकी जीव को पाकर / चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर हैं ... (1) सोवरिया व ...... और (2) साबरिया व" प्रथम पाठान्तर का अर्थ है - (1) शौरिका इव वशोपगं महिष वधयंति जैसे कसाई वशीभूत भैसे का वध कर डालते हैं, द्वितीय पाठान्तर का अर्थ है- 'शाबरिया -शाबराः- म्लेच्छजातयः, ते यथा विधति'""तथा / शबर (म्लेच्छजातीय) लोग जैसे वन्य पशु को पाते ही तीर आदि से बींध डालते हैं, वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है–सावयं यं व लव-वश में हुए श्वापदवन्य कालपृष्ठ सूअर आदि को स्वतन्त्र रूप से पाकर सताते हैं, तद्वत्"....! निहं प्राणिघातस्थान / 'चिठंती तत्था बहुकूरफम्मा'—अतिक र कर्मा पापी नारक वहाँ स्वकृत-पापफल भोगने के लिए रहते हैं। वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है-चिढ़ती बद्धा बहुकूरकम्मा=अतिक र कर्मा...... बंधे हुए रहते हैं। फलगावतट्ठा-काठ फलक (पाटिये) की तरह दोनों ओर से करवत आदि से छीले हए या कृश (पतले) किये हुए। आचारांग सूत्र में फलगावती पाठ कई जगह आता है, परन्तु वहाँ निष्कम्प दशा 5 ‘फलगावतट्ठी'-आचा० प्र० श्रु० विवेचन सू० 198, 224, २२८-पृ० 231, 278, 287 में देखें Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरक विभक्ति सुस्थिरता आदि सन्दर्भ में होने से उपयुक्त अर्थ ही ठीक है। अभिजु जिया रुद्द असाहुकम्मा=वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं- (1) रौद्रकर्मणि अभियुज्य- व्यापार्य, यदि वा रौद्र सत्त्वोपघातकार्य, अभियुज्य --स्मारयित्वा / अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में दुष्कर्म किये हैं, उन्हें रौद्र-हिंसादि भयंकर कार्य में प्रेरित करके या नियुक्त करके अथवा रौद्र = (पूर्वजन्मकृत) प्राणिघात वगैरह कर्म का स्मरण कराकर / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-रोद्ध असाधु कम्मा (म्मी)--अर्थ किये हैं--रौद्रादीनि कर्माणि असाधूनि येषां ते'- अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में रौद्र-भयंकर खराब कर्म (पाप) किये हैं उन्हें / हत्यिवहं वहति वृत्तिकार के अनुसार जैसे हाथी पर चढ़कर उससे भार-वहन कराते हैं, वैसे ही नारकों से भी सवारी ढोने का काम लेते हैं। अथवा जैसे हाथी भारी भार वहन करता है, वैसे ही नारक से भी भारी भारवहन कराते हैं। चर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-हत्थितुल्ल वहति नारक हाथी की तरह भार ढोते हैं, अथवा नारकों को हस्तिरूप (वैक्रिय शक्ति से) बनाकर उनसे भारवहन कराते हैं। 'आवस्स विज्झंति ककाणओ से'-अत्यन्त प करके उनके मर्मस्थान को नोंकदारशस्त्र से बांध देते हैं / या चाबुक आदि के प्रहार से उन्हें सताते हैं / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'आम विधंति फिकाणतो से ---अर्थ किया गया हैं-नारक पर चढ़कर, क्यों नहीं ढोता ? यो रोषपूर्वक कहकर उसको कृकाटिका=गर्दन नोकदार शस्त्र से बींध देते हैं / कोट्ट बलि कति =वृत्तिकार के अनुसार-कूटकर टुकड़े-टुकड़े करके बलि कर देते हैं, या नगरवलि की तरह इधर-उधर फेंक देते हैं। अथवा कोट्रबलि यानी नगरबलि कर देते हैं। लगभग यही अर्थ चूणिकारसम्मत पाठान्तर 'कुट (कोट्ट) बलि करेंति' के अनुसार हैं / परं सहस्साण मुत्तगाणं सहस्रसंख्यक मुहुर्त से पर-प्रकृष्ट (अधिक) काल तक ! चूणिकार --परं सहस्राणामिति परं सहस्रेभ्योऽनेकानि सहस्राणीत्यर्थः / अर्थात् - हजारों से पर यानी अनेक सहस्त्र महत्तों तक-लम्बे समय तक / सयायकोवा-वत्तिकार के अनसारसदावकोपाः-नित्यकुपित / चूर्णिकार के अनुसार-भक्षण करके सदा अतृप्त रहते हैं, अथवा सदा अकोप्य-अनिवार्य या अप्रतिषेध्य अर्थात् सदैव निवारण नहीं किये जा सकते। नरक में सतत दुःख प्राप्त और उससे बचने के उपाय 348 एयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीय / ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणहोति दुक्खं // 22 // 346 जं जारिसं पुध्वमकासि कम्म, तहेव आगच्छति संपराए / एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता, वेदेति दुक्खी तमणंतदुक्खं // 23 // 350 एताणि सोच्चा गरगाणि धीरे, न हिंसते कंचण सव्वलोए। एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोगस्स वसं न गच्छे // 24 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 135 से 136 तक के अनुसार (ख) सूत्रकृतांग चूंणि (मू० पा० टि०) पृ० 58 से 62 तक Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 348 से 351 351 एवं तिरिक्खे मणुयामरेसु, चतुरंतऽणतं तदणुविवागं / स सव्वमेयं इति वेदयित्ता, कखेज्ज कालं धुवमाचरंतो // 25 // त्ति बेमि / गणिरयविभत्ती पंचमं अज्झयणं सम्मत्त / 348. वहाँ (नरक में) चिरकाल तक की स्थिति (आयुष्य) वाले अज्ञानी नारक को ये (पूर्वगाथाओं में कहे गए) स्पर्श (दु:ख) निरन्तर पीड़ित (स्पर्श) करते रहते हैं। पूर्वोक्त दुःखों से आहत होते (मारे जाते) हुए नारकी जीव का (वहाँ) कोई भी रक्षक (वाण) नहीं होता। वह स्वयं अकेला ही उन दुःखों को भोगता है। 346. (जिस जीव ने) जो व जैसा कर्म पूर्वजन्म (पूर्व) में किया है, वही संसार-दूसरे भव में आता है / जिन्होने एकान्तदुःख रूप नरकभव का कर्म उपार्जन किया (बांधा) है, वे (एकान्त) दुःखी जीव अनन्तदुःख रूप उस नरक (रूप फल) को भोगते हैं। 350. बुद्धिशील धीर व्यक्ति इन नरकों (के वर्णन) को सुनकर समस्त लोक में किसी भी प्राणी) की हिंसा न करे, (किन्तु) एकान्त (एकमात्र) (जीवादि तत्त्वों, आत्मतत्त्व या सिद्धान्त पर) दृष्टि (विश्वास रखता हुआ), परिग्रहरहित होकर लोक (अशुभ कर्म करने और उसका फल भोगने वाले जीवलोक) को समझे (अथवा कषायलोक का स्वरूप जाने) किन्तु कदापि उनके वश में (अधीन) न हो, अर्थात् उनके प्रवाह में न बहे। 351. (पापकर्मी पुरुष की पूर्वगाथाओं में जैसी गति बताई है) इसी तरह तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों में भी जाननी चाहिए। चार गति रूप अनन्त संसार है, उन चारों गतियो में कृतकों के अनुरूप विपाक (कर्मफल) होता है, इस प्रकार जानकर बुद्धिमान पुरुष मरणकाल की प्रतीक्षा या समीक्षा करता हुआ ध्रुव (मोक्षमार्ग, संयम या धर्मपथ) का सम्यक् आचरण करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - नरक में प्राप्त होने वाले दुःख तथा उनसे बचने के लिए उपाय -प्रस्तुत चार गाथाओं में से प्रस्तत उद्देशक तथा अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने प्रारम्भ की दो सूत्रगाथाओं (348, 346) में नारकीय जीव को कैसे-कैसे, कितने-कितने दुःख कब तक और मिलते हैं ? उन दुःखों से उस समय कोई छुटकारा हो सकता है या नहीं ? उन दुःखों में कोई हिस्सेदार हो सकता है या नहीं ? उन दुःखों से कोई भगवान देवी या देव शक्ति उसे बचा सकती है या नहीं ? इन रहस्यों का उद्घाटन इस प्रकार किया हैं नरक में पूर्वोक्त तीनों प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं---इस अध्ययन के प्रथम और द्वितीय उद्देशक में पूर्वगाथाओं में उक्त सभी प्रकार के दुःख नारकों को नरक में मिलते हैं, उन दुःखों में से कई दुःख परमाधार्मिककृत होते हैं, कई क्षेत्रजन्य होते हैं और कई दुःख नारकों द्वारा परस्पर-उदीरित होते हैं। इन दुःखो में लेशमात्र भी कमी नहीं होती। अपनी-अपनी भवस्थिति तक सतत दुःखों का तांता-समस्त संसारी जीवो में नारकों की स्थिति सर्वार्थ सिद्ध विमान को छोड़कर) सर्वाधिक लम्बी होती है। शास्त्रानुसार सातों नरकों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः 1, 3, 7, 10, 17, 22 और 33 सागरोपम काल की है। इसलिए जिस नारक की जितनी उत्कृष्ट Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 सूत्रकृतांग-पचम अध्ययन-नरक विभक्ति स्थिति का आयुष्यबन्ध है, उतनी स्थिति तक उसे दुःखागाररूप नरक में रहना पड़ता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। अत: नारकों को दुःख भी उत्कृष्ट प्राप्त होते हैं, और वे दुःख भी निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं। कोई भी पल ऐसा नहीं रहता, जिसमें उन्हें दःख न मिलता हो। इसीलिए शास्त्रकार सू० गा० 348 के पूर्वार्द्ध में कहते हैं-'एआई फासाइनिरंतरं तत्य चिरद्वितीयं / ' जिस समय नारको पर दुख पर दःख बरसते रहते हैं, उस समय उनका कोई त्राता, शरणदाता रक्षक या सहायक नहीं होता, कोई भी प्राणी, यहाँ तक कि उन नारकों के निकटवर्ती परमाधार्मिक असुर भी उन्हें शरग, सहायता देना या बचाना तो दूर रहा, जरा-सी सान्त्वना भी नहीं देते, प्रत्युत वे उसकी पुकार पर और रुष्ट होकर उस पर बरस पड़ते हैं। उस दुःखपीडित दयनीय अवस्था में कोई भी उनके आंसू पोंछने वाला नहीं होता। एक बात और है- प्रायः नारकों की तामसी बुद्धि पर अज्ञान, मोह एवं मिथ्यात्व का आवरण इतना जबर्दस्त रहता है कि उन्हें उक्त दारुण दुःख को समभाव से सहने, या भोगने का विचार ही नहीं आता, किन्तु कोई क्षायिक सम्यम् ष्टि जीव वहाँ हो, तो वह उन दुःखों को समभाव से सह या भोग सकता हैं, इस कारण ऐसे नारकों को दुःख का वेदन कम होता है, परन्तु दु:ख तो उतना का उतना मिलता है या दिया जाता है, जितना उसके पूर्वकृत पापकर्मानुसार बंधा हुआ (निश्चित) है। निष्कर्ष यह कि प्रत्येक नारक के. निकाचित रूप से पाप कर्म बंधा होने से बीच में दःख को घटाने या मिटाने का कोई उपाय संवर-निर्जरा या समभाव के माध्यम से कामयाब नहीं होता। उतना (निर्धारित) दुःख भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं / यह आशय भी इस पंक्ति से ध्वनित होता है / दुःख भोगने में कोई सहायक या हिस्सेदार नहीं-जिन नारकों ने पूर्वजन्म में अपने परिवार या प्रियजनों के लिए अतिभयंकर दुष्कर्म किये, अब नरक में उनका दष्कर्मों का फल भोगते समय उन नारकों का कोई हिस्सेदार नहीं रहता जो उनके दुःख को वांट ले, न ही कोई सहायक होता है, जो उनके बदले स्वयं उस दुःख को भोग ले / बल्कि स्वयं अकेला वह उन दारुण दुःखों को विवश होकर भोगते समय पूर्व जन्मकृत दुष्कर्मों का स्मरण करके इस प्रकार पश्चात्ताप करता है 'मया परिजनस्वार्थ कृतं कर्म सुदारुणम् / एकाकी तेन दोऽह, गतास्ते फलभोगिनः / ' --"हाय ! मैंने अपने परिवार के लिए अत्यन्त भयंकर दुष्कर्म किये, किन्तु फल भोगते समय मैं अकेला यहाँ दुःख से संतप्त हो रहा हूँ इस समय सुखरूप फल भोगने वाले वे सब पारिवारिक जन मुझे अकेला छोड़कर चले गए।" इसी रहस्य का उद्घाटन शास्त्रकार करते हैं-'एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं / ' अर्थात्-जीव सदैव स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता (भोगता) है। __नरक में एकान्तदुःखरूप फल चिरकाल तक क्यों ? ---प्रश्न होता है -क्या किसी ईश्वर देव-देवी या शक्ति द्वारा नारकों को एकान्तदुःखरूप नरक मिलता है या और कोई कारण है ? जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से शास्त्रकार इसका समाधान करते हैं-'जं जारिसं पुष्व'""आगच्छति संपराए'-आशय यह है कि जिस प्राणी ने पूर्वजन्म में जैसे तीव्र, मन्द, मध्यम अनुभाग (रस) वाले, तथा जघन्य, मध्यम 17. सूत्र कतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140-141 का सार Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 348 से 351 उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्म किये हैं, उसे अपने अगले भव या जन्म में उसी तरह का फल मिलता है। अर्थात् -- तीव्र, मन्द या मध्यम जैसे अध्यवसायों (परिणामों से जो कर्म बांधे गए हैं, तदनुसार उनकी स्थिति बंधकर तीव्र, मन्द या मध्यम विपाक (फल) उत्पन्न करते हुए वे उदय में आते हैं। इस प्रकार यह कर्म सिद्धान्त इतना अकाट्य है कि इसमें किमी भी ईश्वर, देवी या देव शक्ति के हस्तक्षेप की, या किसी के पक्षपात की, अथवा किसी को कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं रहती। नरक दुःखों से बचने के लिए उपाय--पिछली दो सूत्रगाथाओं (350-351) में नरक गति तथा अन्य गतियो में मिलने वाले भयंकर दुःखों से बचने के लिए क्या करे और क्या न करे. इसका मष्ट मार्गदर्शन शास्त्रकार ने दिया है। इन दोनों सूत्रगाथाओं द्वारा नो प्रेरणास्त्र फलित होने हैं-(१) पूर्वगाथाओं में उक्त नरक दुःखों का वर्णन सुनकर धीर पुरुप नरक गमन के कारणों से बचने का उपाय योचे, (2) समग्र लोक में किसी भी जीव की हिंसा न करे, (3) परिग्रह रहित हो. ('3' शब्द से परिग्रह के अतिरिक्त मृषावाद, अदत्तादान एवं मैथुन सेवन से विरत होने की प्रेरणा भी परिलक्षित होती है।, (4) एकमात्र आत्मतत्त्व या जीवादि तत्त्वों पर दृष्टि या श्रद्धा रखे, (5) अशुभ कर्म करने तथा नाका फल भोगने वाले जीवलोक या कषायलोक को स्वरूपतः जाने, (6) किन्तु उस लोक के अधीन न हो, प्रवाहवश न बने। (7) चातुर्गतिरूप अनन्त संसार और चारों गतियो में कृतकर्मों के अनुरूप फल आदि का वस्तुस्वरूप जाने, (8) मोक्ष दृष्टि रखकर संयम या धर्म का आचरण करे, (8) मरण (पछिलतमरण) के काल (अवसर) की आकांक्षा (मनोरथ) करे। ईश्वरादि कोई भी शक्ति घोर पापी को नरक से बचा नहीं सकती--इस लोक में घोर पापकर्म करने वाले कुछ व्यक्ति यह सोचते हैं कि हम चाहे जितना पापकर्म कर ले, खुदा, गॉड ईश्वर या पैगम्बर या किसी शक्ति आदि से अन्तिम समय में प्रार्थना, मिन्नत, प्रशंसा, स्तुति, निवेदन, पाप-स्त्रीकृति (confess) या खुशामद आदि करने मात्र से हमारे सब पाप माफ हो जाएँगे, और हमें पाप से मुक्ति मिल जाने से नरक (दोजख) में नहीं जाना पड़ेगा। इस प्रकार पापकर्मों को करते हुए भी तथा उनका त्याग या आलोचना-प्रायश्चित्तादि से उनकी गुद्धि किये बिना ही हम पूर्वोक्त उपाय से नरक-गमन मे या नरकादि के दुःखों से बच जाएंगे। परन्तु यह निरी भ्रान्ति है, इसी भ्रान्ति का निराकरण करने हेतु शास्त्रकार स० गा० 350 द्वारा स्पष्ट कहते हैं-'एताणि सोच्चा नरमाणि ...."वसं न गच्छे / ' अगर नरकगति के कारणभूत दुष्कर्मों या हिंसादि पापकर्मों का त्याग नहीं किया जाएगा तो कोई भी शक्ति घोरपापी को नरक-गमन से या नरकदुःखों से नहीं बचा सकेगी। तिर्यञ्चादि गतियों में भी नारकीयदुःखमय यातावरण-कई लोग यह सोचते हैं कि इतने घोर द:ख तो नरकगति में ही मिलते हैं, दूसरी गतियों में नहीं। यह भी एक भ्रान्ति है, जो कई धर्म-सम्प्रदायों में चलती है। पूर्वकृत अशुभ कर्म जब उदय में आते हैं तो नरक के अतिरिक्त नियंत्रादि गतियों में भो तीव्रदुःख मिलते हैं। तिर्यंचगति में परवश होकर भयंकर द:ख उठाना पड़ता है, मनुष्यगति में इष्ट-वियोग अनिष्टसंयोग, रोग, शोक, पीड़ा, मनोवेदना, अपमान, निर्धनता, कलेश, राजदण्ड, चिन्ता आदि नाना 6 मुत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140 के आधार पर 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140-141 का सारांश Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन- नरकधिभक्ति दुःखों से वास्ता पड़ता है और देवगति में भी ईर्ष्या, कलह, ममत्वजनित दुःख, वियोगदुःख, नीचजातीय देवो में उत्पत्ति आदि अनेकों दुःख है। मतलब यह है कि नरकगति की तरह तिर्यञ्च, मनुष्य या देवगति में भी दुःखमय वातावरण प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं-"एवं तिरिक्वे मणयामरेसू"""इति वेदयित्ता..."."" इसका आशय यह है कि चार' गतियों में भावनरक की प्राप्ति या नारकीय द:खमय वातावरण सम्भव है, इसलिए चतुर्गतिपर्यन्त अनन्त संसार को दःखमय समझो। इन चारों गतियों के कारणों तथा चारों गतियों में कृत-कर्मों के अनुरूप विपाक (कर्मफल) को समझे। तथा मृत्युपर्यन्त इस प्रकार की संसार दृष्टि के चक्कर में न आकर एक मात्र ध्रुव यानी मोक्ष दृष्टि रखकर संयमाचरण करे तथा पण्डितमरण के अवमर की प्रतीक्षा करे / पाठान्तर और व्याख्या-धुबमादरंतो व अर्थात् मोक्ष या संयम; उसका अनुष्ठान करता हुआ। चणिकारसम्मत पाठान्तर है-धुतमाचरंति-~"धूयतेऽनेन कर्म इति धुतं चारित्रमित्युक्तम् / आचार इति क्रियायोगे, आचरन्, आचरंतो वा चरणामिति / " अर्थात्-जिससे कर्म धुना-नष्ट किया जाय, उसे धुनचारित्र कहते हैं। उसका आचरण करता हुमा अर्थात् क्रियान्वित करता हुआ। खेज्ज कालं = काल की आकांक्षा करे। इसका रहस्य आचारसंग सुत्र को वृत्ति के अनुसार है-पण्डितमरण के काल (अवसर) की प्रतीक्षा करे। द्वितीय उद्देशक समाप्त // निरय (नरक) विभक्ति : पंचम अध्ययन सम्पूर्ण // 8 (क) “च उहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणिय (आउय) त्ताए कम्म गरेंति, तंजहा 1. माइल्लताए, 2. नियडिल्लताए, 3. अलियवयणेणं, 4, कुडनुल्ल-क डमाणेणं / " (ख) 'चउहिं ठाणेहि जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा--- 1. पगति भद्दताए, 2. पगति विणीययाए; 3. साणुक्कोसयाए, 4. अमच्छरिताए।' (ग) चहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्ताए कम्म पगरेति तंजहा१. सरागसंजमेणं, 2. संजमासंजमेणं, 3. वालतवो कम्मेणं, 4. अकामणिज्जराए।" -ठाणं, स्था० 4, उ०४, सू० 626, 630, 630 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 141 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ०६२ 10 देखिये आवारांग मून विवेचन प्र० श्रु० सु० 116, अ०३, उ०२ पृ० 100 में 'कालकं खी' शब्द का विवेचन Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरस्तव (वीरस्तुति)-छठा अध्ययन प्राथमिक - सूत्रकृतांगसूत्र (प्र० श्रु.) के छठे अध्ययन का नाम 'महावीरस्तव' (वोरस्तुति) है। 0 पूर्णता का आदर्श सम्मुख रहे बिना अपूर्ण साधक का आगे बढ़ना कठिन होता है, इसलिए इस अध्ययन की रचना की गई है ताकि अपूर्ण साधक पूर्णता के आदर्श के सहारे कर्मबन्धन के मिथ्यात्वादि कारणों से दूर रहकर शुद्ध संयम तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्ग पर शीघ्र गति से बढ़कर पूर्ण (ध्रुव या मोक्ष) को प्राप्त कर सके। - पहले से लेकर पांचवें अध्ययन तक कहीं मिथ्यात्व से, कहीं अविरति (हिंसा, असत्य, परिग्रह, अब्रह्मचर्य) आदि से, कहीं प्रमाद-(उपसर्गों के सहन करने या जीतने में होने वाली असावधानी) से, कहीं कषाय (द्वेष, लोभ, ई, क्रोध, अभिमान, माया आदि) से होने वाले कर्मवन्धन और उनसे छुटने का निरूपण है, कहीं घोर पापकर्मबन्ध से प्राप्त नरक और उसके दःखों का व उनसे बचने के उपाय सहित वर्णन है। अतः इस छठे अध्ययन में कर्मवन्धनों और उनके कारणों से विरत; उपसर्गों और परीषहों के समय पर्वतसम अडोल रहने वाले स्थिरप्रज्ञ, भव्यजीवों को प्रति बोध देनेवाले, स्वयं मोक्षमार्ग में पराक्रम करके प्रवल कर्मबन्धनों को काटने वाले श्रमण शिरोमणि तीथंकर महावीर की स्तुति के माध्यम से मुमुक्षु साधक के समक्ष उनका आदर्श प्रस्तुत करना इस अध्ययन का उद्देश्य है। ताकि स्तुति के माध्यम से भगवान महावीर के आदर्श जीवन का स्मरण करके साधक आत्मबल प्राप्त कर सके, तथा उन्होंने जिस प्रकार संसार पर विजय पाई थी, उसी प्रकार विजय पाने का प्रयत्न करे।' श्रमण भगवान महावीर का मूल नाम तो, 'वर्धमान' था. लेकिन अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गो और परीषहों से अपराजित, कष्टसहिष्णु, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, त्याग में अद्भुत पराक्रम एवं आध्यात्मिक वीरता के कारण उनकी ख्याति 'वीर अथवा 'महावीर' के रूप में 1 इसका प्रचलित नाम वृत्तिकार सम्मत 'वीरस्तुति' है।-सूत्र कृ० शी० वृत्ति अनुवाद भाग 2 पृ० 247 2 (क) बीरस्तुति (उपाध्याय अमरमुनि) के आधार पर पृ० 2, (ख) सूत्र कृ• नियुक्ति गा० 85 उत्तरार्द्ध Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव O 'वीर' शब्द के निक्षेप दृष्टि से 6 अर्थ नियुक्तिकार ने बताए हैं-(१) नामवीर, (2) स्थापना वीर, (3) द्रव्यवीर, (4) क्षेत्रवीर, (5) कालवीर और (6) भाववीर / नाम-स्थापना वीर सुगम है / 'द्रव्यवीर' वह है, जो द्रव्य के लिए युद्धादि में वीरता दिखाता है, अथवा जो द्रव्य वीर्यवान हो / तीर्थकर अनन्त बल-वीर्य युक्त होते हैं, चक्रवर्ती भी सामान्य मनुष्यों या राजाओं आदि से बढ़कर बल-वीर्यवान होते हैं। इसलिए ये द्रव्यवीर कहे जा सकते हैं। अपने क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम दिखाने वाला क्षेत्रवीर' है। जो अपने युग या काल में अद्भुत पराक्रमी होता है अथवा काल (मृत्यु) पर विजय पा लेता है, वह कालवीर है। भाववीर वह है, जिसकी आत्मा रागद्वेष, क्रोवादि कषाय, पंचेन्द्रिय-विषय, काम, मोह, मान, तथा उपसर्ग, परीषह आदि पर परम विजय प्राप्त कर लेती है। - यहाँ 'वीर' शब्द से मुख्यतया 'भाववीर' ही विवक्षित है / महती भाववीरता के गुणों के कारण यहाँ 'महावीर' शब्द व्यक्तिवाचक होते हुए भी गुणवाचक है। - आभूषण, चन्दन, पुष्पमाला आदि सचित्त-अचित्त द्रव्यों द्वारा अथवा शरीर के विविध अंगों के नमन, संकोच तथा वाचा-स्फुरण आदि द्रव्यों से जो स्तुति की जाती है, वह द्रव्यस्तुति है, और विद्यमान गुणों का उत्कोर्तन, गुणानुवाद आदि हृदय से किया जाता है, वहीं भावस्तृति है। प्रस्तुत में तीर्थकर महावीर की भावस्तुति ही विवक्षित है। यही 'महावीरस्तव' का भावार्थ है। 0 प्रस्तुत अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी के ज्ञानादि गुणों के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी द्वारा उठाए हुए प्रश्न का गणधर श्री सुधर्मास्वामो द्वारा स्तुति सूचक शब्दों में प्रतिपादित गरिमा महिमा-मण्डित सांगोपांग समाधान है। 10 उद्देशक रहित प्रस्तुत अध्ययन में 26 सूत्रगाथाअ द्वारा भगवान महावीर के अनुपम धर्म, ज्ञान, दर्शन, अहिंसा, अपरिग्रह, विहारचर्या, निश्चलता, क्षमा, दया, श्रु त, तप, चारित्र, कषाय-विजय, ममत्व एवं वासना पर विजय, पापमुक्तता, अद्भुत त्याग आदि उत्तमोत्तम गुणों का भावपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अप्टविध कर्मक्षय के लिए उनके द्वारा किये गये पुरुषार्थ, 3 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास आ० 1 पृ० 146 4 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 83, 84, (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 142 (य) जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिण / एग जिणेज अप्पाणं एस से परमो जओ। पंचेदियाणि काहं, माणं माय, तेहब लोहं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं, सबमप्पे जिए जियं / / 5 (क) सूत्र वृ० नियुक्ति गा० 85 पूर्वार्द्ध --उत्तरा० अ० 6, गा० 34, 36 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक प्राणियों की गति-आगति, स्वभाव, शरीर, कर्म आदि के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, अनन्तज्ञानादि सम्पत्रता आदि का भी वर्णन है। महावीर को श्रेष्ठता के लिए संसार के श्रेष्ठ माने जाने वाले सुमेरु, चन्द्र, सूर्य, स्वयम्भरमण समुद्र, देवेन्द्र, शंख आदि पदार्थों से उपमा दी गई है। तथा निर्वाणवादियों, साधुओं, मुनियों, तपस्वियों, सुज्ञानियों, शुक्लध्यानियों, धर्मोपदशकों, अध्यात्मा विद्या के पारगामियों, चारित्रवानों एवं प्रभावको में सर्वश्रेष्ठ एवं अग्रणी नेता माना गया है। 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्र गाथा 352 से प्रारम्भ होकर 380 पर समाप्त होता है। 6 सूयगडंग सुत्त मूलपाठ-टिप्पण-सहित पृ० 63 से 67 तक का सारांश Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरत्थवो (वीरत्थुइ) : छठु अज्झयणं महावीरस्तव (वीरस्तुति) : छठा अध्ययन भगवान महावीर के सम्बन्ध में जिज्ञासा 352. पुच्छिसु णं समणा माहणा य, अगारिणो य परतिस्थिया य / से के इणेगंतहिय धम्ममाहु, अणेलिसं साधुसमिक्खयाए // 1 // 353. कहं च गाणं कह दंसणं से, सोल कहं नातसुतस्स आसो। जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुतं बूहि जहा णिसंतं // 2 // 352. श्रमण और ब्राह्मण (मान), क्षत्रिय आदि सद्गृस्थ (अगारी) और अन्यतीथिक (शाक्य आदि) ने पूछा कि वह कौन है, जिसने एकान्त हितरूप अनुपम धर्म; अच्छी तरह सोच-विचार कर कहा है? 353. उन ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर का ज्ञान कैसा था ? उनका दर्शन कैसा था ? तथा उनका शील (यम-नियम का आचरण) किस प्रकार का था? हे मुनिपुङ्गव ! आप इसे यथार्थ रूप से जानते हैं, (इसलिए) जैसा आपने सुना है, जैसा निश्चय किया है, (वैसा) हमें कहिए / __ विवेचन-भगवान महावीर के उत्तम गुणों के सम्बन्ध में जिज्ञासा -प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय (352-353) में श्री जम्बूस्वामी द्वारा अपने गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से भगवान महावीर स्वापो के उत्तमोत्तम गुणों एवं आदर्शों के सम्बन्ध में सविनय पूछे गए प्रश्न अंकित है। मुख्यतया चार प्रश्न उठाए गए हैं-(१) एकान्तहितकर अनुपम धर्म के सम्प्ररूपक कौन हैं ? (2) ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का ज्ञान कैसा था ? (3) उनका दर्शन कैसा था? और (4) उनका शील कसा था? जिज्ञासाओं के स्रोत-श्री जम्बूस्वामी स्वयं तो भगवान महावीर स्वामी के आदर्श जीवन के सम्बन्ध में जानते ही थे, फिर उनके द्वारा ऐसो जिज्ञासाएँ प्रस्तुत करने का क्या अर्थ है ? इसी के समाधानार्थ शास्त्रकार यहाँ स्पष्ट करते हैं-'पुच्छिसु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतिस्थिआ य।' आशय यह है कि जम्बूस्वामी से श्रमण भगवान महावीर की वाणी सुनी होगी, उस पर से कुछ मुमुक्षु श्रमणों आदि ने जम्बूस्वामी से ऐसे प्रश्न किये होंगे, तभी उन्होंने श्री सुधर्मास्वामी के समक्ष ये जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की हैं। इसलिए इन जिज्ञासाओं के स्रोत श्रमण, ब्राह्मण आदि थे।' 1 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 142 के आधार पर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा / 352 से 353 पाठान्तर एवं कठिन शब्दों को व्याख्या--साधुसमिक्खयाए = वृत्तिकार के अनुसार-(साधु) सुन्दररूप से समीक्षा-पदार्थ के यथार्थ तत्त्व (स्वरूप) का निश्चय करके अथवा समत्वदृष्टिपूर्वक। चणिकार सम्मत पाठान्तर है--साधुसमिक्खदाए अर्थ किया है - केवलज्ञान के प्रकाश में सम्यक रूप से देखकर / 'कहं च णाणं' =वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं--(१) भगवान ने इतना विशुद्धज्ञान कहाँ से या कैसे प्राप्त किया था? (2) भगवान महावीर का ज्ञान-विशेष अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध-कैसा था ? 'कह दसणं से ?' वत्तिकार ने इसके भी दो अर्थ किये हैं-(१) विश्व के समस्त चराचर या सजीवनिर्जीव पदार्थों को देखने या उनकी यथार्थ वस्तु स्थिति पर विचार करने की उनकी दृष्टि (दर्शन) कैसी थी? (2) उनका दर्शन-सामान्य रूप से अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध-कैसा था? सील-यम(महाव्रत), नियम-(समिति-गुप्ति आदि के पोषक नियम, त्याग, तप आदि) रूप शील-आचार नातसुतस्स =ज्ञातवंशीय क्षत्रियों के पुत्र का / अगारिणो वृत्तिकार के अनुसार-क्षत्रिय आदि गृहस्थ / चूणिकार के अनुसार-'अकारिणस्तु क्षत्रिय-विट्-शूद्राः' अकारी का अर्थ है-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र / माणावृत्तिकार के अनुसार-ब्राह्मण-ब्रह्मचर्यादि अनुष्ठान में रत। चणि कार के अनुसार-'माहणा-श्रावका ब्राह्मणजातीया वा' अर्थात्- माहन का अर्थ है -श्रावक या ब्राह्मणजातीय। अनेक गुणों से विभूषित भगवान महावीर की महिमा 354. खेयण्णए से कुसले आसुपन्न, अणतणाणी य अणंतदंसी। जसंसियो चक्लुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्म च धिई च पेहा / / 3 / / 355. उड्डअहे य तिरि दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे, दीवे व धम्म समियं उदाहु // 4 // 356. से सम्वदंसो अभिभूय णाणो, निरामगंधे धिइमं ठितप्पा। अणुत्तरे सव्वजगसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अणाऊ / / 5 // 357. से भूतिपण्णे अणिएयचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू।। अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोणिदे व तमं पगासे // 6 // 358. अणुत्तरं धम्ममिणं, जिणाणं णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इंदे व देवाण महाणुभावे, सहस्सनेता दिवि णं विसि? // 7 // 2 वैशाली (बसाढ़ जि० मुजफ्फरपुर) के जरिया भूमिहार 'ज्ञात' ही है। आज भी उम प्रदेश के लाखों जैथरियाकाश्यप गोत्री हैं। ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय लिच्छवी गणतंत्रियों की शाखा थे। -अर्थागम (हिन्दी) प्रथम खण्ड पृ० 163 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 142-143 (ख) सूपगडंगसुत्त चूणि (मूलपाठ-टिप्पण) पृ० 63 4 सूयगडंगसुत्त कतिपय विशिष्ट टिप्पण (जम्बूविजय जो सम्पादित) पु० 365 5 शीलांक टीका में--"खेयण्णए से कुसले महेसी" पाठान्तर हैं। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग : षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव 356. से पप्णया अवखये सागरे वा, महोदधी वा वि अणंतपारे। ___ अणाइले वा अकसायि मुक्के, सक्के व देवाहिपती जुतीमं // 8 // 360. से बोरिएणं पडिपुष्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेठे / सुरालए वा वि मुदागरे से, विरायतेऽणेगगुणोववेते // 6 // 354. भगवान महावीर खेदज्ञ (संसार के प्राणियों के दुःख के ज्ञाता) थे, कर्मों के उच्छेदन में कुशल थे, आशुप्रज्ञ (सदा सर्वत्र उपयोगवान् थे, अनन्तज्ञानी (सर्वज्ञ) और अनन्तदर्शी (सर्वदर्शी) थे। वे उत्कृष्ट यशस्वी (सुर, असुर और मानवों के यश से बढ़कर यश वाले) थे, जगत् के नयनपथ में स्थित थे, उनके धर्म (स्वभाव या श्रुत-चारित्र रूप धर्म) को तुम जानो (समझो) और (धर्मपालन में) उनकी धीरता को देखो। 355. ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशाओं में, जो त्रस और स्थावर प्राणी (रहते) हैं, उन्हें नित्य (जीवद्रव्य की दृष्टि से) और अनित्य (पर्याय-परिवर्तन की दृष्टि से) दोनों प्रकार का जानकर उन (केवलज्ञानी भगवान) ने दीपक या द्वीप के तुल्य सद्धर्म का सम्यक् कथन किया था। 356. वे (वीरप्रभू) सर्वदर्शी थे, चार ज्ञानों को पराजित करके केवलज्ञान सम्पन्न बने थे, निरामगन्धी (मूल-उत्तरगुणों से विशुद्ध चारित्न पालक) थे, (परीषहोपसर्गों के समय निष्कम्प रहने के कारण) धतिमान थ, स्थितात्मा (आत्मस्वरूप में उनकी आत्मा स्थित थी) थे, समस्त जगत् में वे (सकल पदार्थों के बेत्ता होने से) सर्वोत्तम विद्वान् थे (सचित्तादि रूप वाह्य और कर्मरूप आभ्यन्तर) ग्रन्थ से अतीत (रहित) थे, अभय (सात प्रकार के भयों से रहित) थे तथा अनायु (चारों गतियों के आयुष्यबन्ध से रहित) थे। 357. वे भूतिप्रज्ञ (अतिशय प्रवृद्ध या सर्वमंगलमयी अथवा विश्व-रक्षामयी प्रज्ञा से सम्पत्र), अनियताचारी (अप्रतिबद्धविहारी), ओघ (संसार-सागर) को पार करने वाले, धीर (विशालबुद्धि से सुशोभित) तथा अनन्तचक्षु (अनन्तज्ञेय पदार्थों को केवलज्ञान रूप नेत्र से जानते) थे। जैसे सूर्य सबसे अधिक तपता है, वैसे ही भगवान सबसे अधिक उत्कृष्ट तप करते थे, अथवा ज्ञानभानु से सर्वाधिक देदीप्यमान थे। वैरोचनेन्द्र (प्रज्वलित अग्नि) जैसे अन्धकार मिटाकर प्रकाश करता है, वैसे ही भगवान अज्ञानान्धकार मिटाकर पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रकाशित करते थे। 358. आशुप्रज्ञ काश्यप गोत्रीय, मुनिश्री वर्धमान स्वामी ऋषभदेव आदि जिनवरों के इस अनुत्तर (सबसे प्रधान) धर्म के नेता है / जैसे स्वर्ग (देव) लोक में इन्द्र हजारों देवो में महाप्रभावशाली, नेता एवं (रूप, बल, वर्ण आदि में सबसे) विशिष्ट (प्रधान) है, इसी तरह भगवान भी सबसे अधिक प्रभावशाली, सबके नेता और सबसे विशिष्ट हैं। 356. वह (भगवान) समुद्र के समान प्रज्ञा से अक्षय हैं, अथवा वह स्वयम्भूरमण महासागर के समान प्रज्ञा से अनन्तपार (अपरम्पार) हैं, जैसे समुद्रजल निर्मल (कलुषतारहित) है, वैसे ही भगवान का ज्ञान भी (ज्ञानावरणीय कर्ममल से सर्वथा रहित होने से) निर्मल है, तथा वह कषायों से सर्वथा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा 354 से 36. 121 र हित, एवं धाति कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हैं, (इसी तरह) भगवान इन्द्र के समान देवाधिपति है तथा द्युतिमान (तेजस्वी) हैं। 360. वह (भगवान महावीर) वीर्य से परिपूर्णवीर्य हैं. पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ सुदर्शन (सुमेरु) पर्वत के समान, वीर्य से तथा अन्य गुणों से सर्वश्रेष्ठ हैं। जैसे देवालय (स्वर्ग) वहाँ के निवासियों को अनेक (प्रशस्त रूप-रस-गन्धस्पर्श प्रभादादि) गुणों से युक्त होने से मोदजनक है, वैसे ही अनेक गुणों से युक्त भगवान भी (पास में आने वाले के लिए) प्रमोदजनक होकर विराजमान हैं। विवेचन-अनेक गुणों से विभूषित्त भगवान महावीर की महिमा-प्रस्तुत 7 सूत्रगाथाओं (354 से 360 तक) में श्री सुधर्मास्वामी द्वारा पूर्वजिज्ञासा के समाधान के रूप में भगवान महावीर के सर्वोत्तम विशिष्ट गणों का उत्कीर्तन किया गया है। वे विशिष्ट गण क्रमशः इस प्रकार प्रतिपादित हैं--(१) खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ, (2) कुशल (3) आशुप्रज्ञ, (4) अनन्तज्ञानी, (5) अनन्तदर्शी, (6) उत्कृष्ट यशस्वी, (7) विश्वनयनपथ में स्थित, (8) प्रशंसनीय धर्म तथा धैर्यवान, (10) उन्ने द्वीप या दीप के तुल्य धर्म का कथन लोक के समस्त बस-स्थावर जीवों को नित्य-अनित्य जानकर किया, (11) सर्वदर्शी, (12) केवलज्ञानसम्पन्न, (13) निर्दोष चारित्रपालक (निरामगन्धी), (14) धृतिमान, (15) स्थितात्मा, (16) जगत् के सर्वोत्तम विद्वान, (17) बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थों से अतीत, (18) अभय, (16) अनायु (आयुष्यबन्ध रहित), (20) भूतिप्रज्ञ, (21) अप्रतिबद्ध विचरणशील, (22) संसार सागर पारंगत, (23) धीर, (24) अनन्तचक्षु (25) सूर्यवत् सर्वाधिक तपनशील, (26) प्रज्ज्वलित अग्निवत् अज्ञान तिमिर-निवारक, एवं पदार्थ स्वरूप प्रकाशक, (27) आशुप्रज्ञमुनि, (28) पूर्व जन प्ररूपित अनुत्तरधर्म के नेता, (26) स्वर्ग में हजारों देवो में महाप्रभावशाली, नेता एव विशिष्ट इन्द्र के समान सर्वाधिक प्रभावशाली, नेता एवं विशिष्ट, (30) समुद्रवत् प्रज्ञा से अक्षय, (31) स्वयम्भरमण-महोदधि के समान गम्भीरज्ञानीय प्रज्ञा से अनन्तपार, (32) समुद्र के निर्मल जलवत् सर्वथा निर्मल ज्ञान-सम्पन्न, (33) अकषायी, (34) धाति कर्मबन्धनों से मुक्त (35) इन्द्र के समान देवाधिपति, (36) तेजस्वी, (37) परिपूर्णवीर्य (38) पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ सुमेरुवत् गुणों में सर्वश्रेष्ठ, (39) अनेक प्रशस्त गुणों से युक्त होने से स्वर्गवत् प्रमोदजनक / कठिन शब्दों को ध्याख्या- खेय, ए= इसके तीन अर्थ है- (1) खेदज्ञ= संसारी प्राणियों के कर्मविपाकज दुःखों के ज्ञाता, (2) यथार्थ आत्मस्वरूप परिज्ञान होने से आत्मज (क्षेत्रज्ञ) तथा (3) क्षेत्र-आकाश (लोकालोक रूप) के स्वरूप परिज्ञाता। 'जाणाहि धम्मं च धिई च पेहा=(१) भगवान के अनुत्तर धर्म को जानो और धर्मपालन में पति को देखो, (2) भगवान् का जैसा धर्म, जैसी धृति या प्रेक्षा है, उसे तुम यथार्थरूप में जान लो। (3) अथवा यदि तुम उनके धर्म, और धृति को जानते हो तो हमें बतलाओ। दोवेव धम्म=(१) प्राणियों को पदार्थ का स्वरूप प्रकाशित (प्रकट) करने से दीप के समान, (2) अथवा संसार समुद्र में पड़े हुए प्राणियों को सदुपदेश देने से उनके लिए आश्वासनदायक या आश्रयदाता द्वीप के समान धर्म का / 5 सूत्रकृतांग (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) 50 63-64 का सारांश 6 तलना करें-भगवद्गीता के क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग नामक 13 वें अध्याय में प्रतिपादित क्षेत्रज्ञ' के वर्णन से / (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 143 से 146 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पु० 63-64 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 सूत्रकृतांग-पाठ अध्ययन-महावीर स्तव पर्वतश्रेष्ठ सुमेरु के समान गुणों में सर्वश्रेष्ठ महावीर-- 361. सयं सहरसाण उ जोयणाणं, तिगंडे से पंडगवेजयंते / से जोरणे णदणदते सहस्से, उड्ढरिसते हे सहरसमेगं // 10 // 362. पुढे णभे चिठति भूमिए ठिते, ज सूरिया अणुपरियट्टयंति। से हेमवणे बहुणंदणे य, जंसी रंति वेदयंती महिंदा // 11 // 363. से पवते सहमहापगासे, विराय ती कंचणमट्ठवण्णे / अत्तरे गिरिसु य पत्वदुग्गे, गिरीवरे से जालते व भोमे // 12 // 364. महीड मज्झम्मि टिते गिदे, पण्णायते सरिय सुद्धलेस्से। एवं सिरीए उ स भूरिवणे, मणोरमे जोयति अच्चिमाली // 13 // 365. सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पवुच्चती महतो पवतस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाती-जसो-दसण-णाणसोले // 14 // 361. वह सुमेरुपर्वत सौ हजार एक लाख) योजन ऊँचा है। उसके तीन कण्ड (विभाग) हैं। उस पर सर्वोच्च पण्डकवन पताका की तरह सुशोभित है। वह निन्यानवे हजार योजन ऊँचा उठा है, और एक हजार योजन नीचे (भूमि में) गड़ा है। 362. वह सुमेरुपर्वत आकाश को छुता हुआ पृथ्वी पर स्थित है / जिसकी सूर्यगण परिक्रमा करते हैं। वह सुनहरे रंग का है, और अनेक नन्दनवनों से युक्त (या बहुत आनन्ददायक) है। उस पर महेन्द्रगण आनन्द अनुभव करते हैं / 363. वह पर्वत (सुमेरु, मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि आदि) अनेक नामों से महाप्रसिद्ध है, तथा सोने की तरह चिकने शुद्ध वर्ण से 'सुशोभित है। वह मेखला आदि या उपपर्वतों के कारण सभी पर्वतों में दुर्गम है / वह गिरिवर मणियों और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश की तरह प्रकाशित रहता है / 364. वह पर्वतराज पृथ्वी के मध्य में स्थित है तथा सूर्य के समान शुद्ध तेज वाला प्रतीत होता है। इसी तरह वह अपनी शोभा से अनेक वर्ण वाला और मनोरम है, तथा सूर्य की तरह (अपने तेज से दसों दिशाओं को) प्रकाशित करता है। 365. महान् पर्वत सुदर्शन गिरि का यश (पूर्वोक्त प्रकार से) बताया जाता है, ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर को भी इसी पर्वत से उपमा दी जाती है। (जैसे सुमेरुपर्वत अपने गुणों के कारण समस्त पर्वतों में श्रेष्ठ हैं, इसी तरह) भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं। विवेचन-पर्वतश्रेष्ठ सुमेह के समान गुणों में सर्वश्रेष्ठ महावीर --प्रस्तुत पांच सूत्रों में भगवान् को पर्वतराज सुमेरु से उपमा दी गई है। सुमेरुपर्वत की उपमा भगवान् के साथ इस प्रकार घटित होती है Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 361 से 365 323 -जैसे सुमेरुपर्वत ऊर्ध्व, अधः और मध्य तीनों लोकों से स्पृष्ट है, वैसे ही भगवान का प्रभाव भी त्रिलोक में व्याप्त था। जैसे सुमेरु तीन विभाग से सुशोभित है-भूमिमय, स्वर्णमय, वैडूर्यमय, वैसे ही भगवान् भी सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से सुशोभित थे। सुमेरुशिखर पर पताकावत् पण्डकवन सुशोभित है, वैसे वीर प्रभु भो तीर्थंकर नामक शोर्षस्थ पद से सुशोभित थें / सूर्यगण आदि सदैव सुमेरु के चारों ओर परिक्रमा देते हैं, वैसे भगवान के भी चारों ओर देव तथा चक्रवर्ती आदि सम्राट भी प्रदक्षिणा देते थे, उनका उपदेश सुनने के लिए उत्सुक रहते थे। सुमेरु स्वर्णवर्ण का है. भगवान भी स्वर्ण-सम कान्ति वाले थे। सुमेरु ऊर्ध्वमुखी है, वैसे ही भगवान् के अहिंसादि सिद्धान्त भी सदैव ऊर्ध्वमुखी थे। सुमेरु के नन्दनवन में स्वर्ग से देव और इन्द्रादि आकर आनन्दानुभव करते हैं, भगवान के समवसरण में सुर-असुर, मानव, तियंञ्च आदि सभी प्राणी आकर आनन्द और शान्ति का अनुभव करते थे / सुमेरुपर्वत अनेक नामों से सुप्रसिद्ध है, वैसे ही भगवान भो वीर, महावोर, वर्धमान, सन्मति, वैशालिक, ज्ञातपूत्र त्रिशलानन्दन आदि नामों से सुप्रसिद्ध थे / सुमेरु की कन्दरा से उठने वाली देवों की कोमल ध्वनि दूर-दूर गूंजती रहती है, वैसे वीरप्रभु की अतीव ओजस्वी, सारगर्भित, गम्भीर दिव्यध्वनि भी दूर-दूर श्रोताओं को सुनाई देती थी, सुमेरुपर्वत अपनी ऊंची-ऊँची मेखलाओं एवं उपपर्वतों के कारण दुर्गम हैं, वैसे भगवान भी प्रमाण, नय, निक्षेप अनेकान्त (स्याद्वाद) की गहन भंगावलियों के कारण तथा गौतम आदि अनेक दिग्गज विद्वान् अन्तेवासियों के कारण वादियों के लिए दुर्गम एवं अजेय थे। जैसे सुमेरुगिरि अनेक तेजोमय तरु समूह से देदीप्यमान है, वैसे ही भगवान् भी अनन्तगुणों से देदीप्यमान थे। जैसे सुमेरु, पर्वतों का राजा है, वैसे भगवान् महावीर भी त्यागी, तपस्वी साधु-श्रावकगण के राजा थे, यानी संघनायक थे / सुमेरुपर्वत से चारों ओर प्रकाश को उज्ज्वल किरणे निकलकर सर्वदिशाओं को आलोकित करती रहती हैं, वैसे ही भगवान के ज्ञानालोक की किरणें भी सर्वत्र फैलकर लोक-अलोक सबको आलोकित करती थी, कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं, जो उनके अनन्त ज्ञानालोक से उदभासित न होता हो। जैसे सुमेरुपर्वत ठीक भूमण्डल के मध्य में है, वैसे ही भगवान भी धर्म-साधकों की भक्ति-भावनाओं के मध्यबिन्दु थे / पर्वतराज सुमेरु जैसे लोक में यशस्वी कहलाता हैं, वैसे ही जिनराज भगवान तीनों लोकों में महायशस्वी थे। जिस प्रकार मेरुगिरि अपने गुणों के कारण पर्वतों में श्रेष्ठ, हैं वैसे ही भगवान भी अपनी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील आदि सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ थे। इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं'एतोवमे समणे नायपुते "जाति-जसो-दसण-णाण-सोले / विविध उपमाओं से भगवान की श्रेष्ठता 366. गिरीवरे वा निसहाऽऽयताणं, रुयगे व सेठे वलयायताणं / ततोवमे से जगभूतिपण्णे, मुणोण मज्झे तमुदाहु पण्णे // 15 // 367. अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं शियाई / सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं, संखेंद वेगंतवदातसुक्कं // 16 // 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्तिपत्र 147-48 का सार Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव 368. अणुत्तरगं परमं महेसो, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। ___ सिद्धि गति साइमत पत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण // 17 // 366. रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जंसी रति वेदयंती सुवण्णा। वणेसु या नंदणमाहु सेठे, णाणेण सोलेण य भूतिपन्ने // 18|| 370. थणियं व सहाण अणुत्तरे तु, चंदो व ताराण महाणुभागे। गंधेसु या चंदणमाहु सेठे, सेठे मुणोणं अपडिण्णमाहु // 16 // 371. जहा सयंभू उदहीण सेठे, णागेसु या धरणिदमाहु सेठे। खोतोदए वा रसवेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयंते // 20 // 372. हत्थोस एरावणमाहु णाते, सोहे मियाणं सलिलाण गंगा। पक्खोस या गरुले वेणु देवे, णिन्वाणवादोणिह, णायपुत्ते // 21 // 373. जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु।। खत्तीण सेढे जह दंतवक्के, इसीण सेढे तह वद्धमागे / / 22 / / 374. दाणाण सेट्ठ अभयप्पदाणं, सच्चेस या अणवज्ज वदंति / ___तवेसु या उत्तमबंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुते // 23 // 375. ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुधम्मा व सभाण सेट्ठा / निव्याणसेट्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि णाणी // 24 // 366. जैसे लम्बे पर्वतों में निषधपर्वत श्रेष्ठ है तथा वलयाकार (चूड़ी के आकार के) पर्वतों में रुचक पवंत थंप्ठ है, वही उपमा जगत् में सबसे अधिक प्रज्ञावान् भगवान् महावीर की है। प्राज्ञपुरुषों ने मुनियों (के मध्य) में श्रमण महावीर को श्रेष्ठ कहा है। 367. भगवान महावीर ने अनुत्तर संसारतारक सर्वोत्तम) धर्म का उपदेश देकर सर्वोत्तम श्रेष्ठ ध्यान-शुक्लध्यान की साधना की (भगवान् का) वह ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तुओं के समान शुक्ल था, दोषरहित शुक्ल था, शंख और चन्द्रमा (आदि शुद्ध श्वेत पदार्थों) के समान एकान्त शुद्ध श्वेत (शुक्ल) था। 368. महर्षि महावीर ने (विशिष्ट क्षायिक) ज्ञान, शील (चारित्र) और दर्शन (के बल) से समस्त (ज्ञानावरणीय आदि) कर्मों का विशोधन (सर्वथा क्षय) करके सर्वोत्तम (अनुत्तर लोकाग्रभाग में स्थित) सादि अनन्त परम सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की। 366. जैसे वृक्षों में (देवकुरुक्षेत्र स्थित) शाल्मली (सेमर) वृक्ष ज्ञात (जगत्-प्रसिद्ध) है, जहाँ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 366 से 375 325 (भवनपतिजाति के) सुपर्ण (कुमार) देव आनन्द का अनुभव करते हैं, अथवा जैसे वनों में नन्दनवन (देवों के क्रीड़ास्थान) को श्रेष्ठ कहते हैं, इसी तरह ज्ञान और चारित्र में प्रभूतज्ञानी (अनन्तज्ञानी) भगवान महावीर को सबसे प्रधान (सर्वश्रेष्ठ) कहते हैं। 370. शब्दों में जैसे मेघ गर्जन प्रधान है, तारों में जैसे महाप्रभावशाली चन्द्रमा श्रेष्ठ है, तथा सुगन्धों में जैसे चन्दन (सुगन्ध) को श्रेष्ठ कहा है, इसी प्रकार मुनियों में कामनारहित (इहलोक-परलोक के सुख की आकांक्षा सम्बन्धी प्रतिज्ञा से रहित) भगवान महावीर को श्रेष्ठ कहा है। 371. जैसे समुद्रों में स्वयंम्भूरमण समुद्र श्रेष्ठ है, नागों (नागकुमार देवों) में धरणेन्द्र को श्रेष्ठ कहा है, एवं इक्षुरसोदक समुद्र जैसे रसवाले समस्त समुद्रों को पताका के समान प्रधान है, इसो तरह विशिष्ट (प्रधान) तपोविशेष (या उपधानतप) के कारण (विश्व की त्रिकालावस्था के ज्ञाता) मुनिवर भगवान महावीर समग्रलोक को पताका के समान मुनियों में सर्वोपरि हैं। 372. हाथियों में (इन्द्रवाहन) ऐरावत हाथी को प्रधान कहते हैं; मृगों में मृगेन्द्र (सिंह) प्रधान है, जलों-नदियों में गंगानदी प्रधान है, पक्षियों में वेणुदेव ‘गरुड़पक्षी' मुख्य है, इसी प्रकार निर्वाणवादियों में-मोक्षमार्ग नेताओं में ज्ञातृ पुत्र भगवान महावीर प्रमुख थे। 372. जैसे योद्धाओं में प्रसिद्ध विश्वसेन (चक्रवर्ती) या विष्वक्सेन (वासुदेव श्री कृष्ण श्रेष्ठ है, फूलों में जैसे अरविन्द कमल को श्रेष्ठ कहते हैं और क्षत्रियों में जैसे दान्तवाक्य (चक्रवर्ती) या दन्तवक्त्र (दन्तवक्र राजा) श्रेष्ठ है, वैसे ही ऋषियों में वर्धमान महावीर श्रेष्ठ है। 374. (जैसे) दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्य वचनों में निष्पाप (जो परपीड़ा-उत्पादक न हो) सत्य (वचन) को श्रेष्ठ कहते हैं, तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है, इसी प्रकार लोक में उत्तम श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर-स्वामी हैं। 375. जैसे समस्त स्थिति (आयु) बालों में सात लव की स्थिति वाले पंच अनुत्तर विमानवासो देव श्रेष्ठ हैं, जैसे सुधर्मासभा समस्त सभाओं में श्रेष्ठ है, तथा सब धर्मों में जैसे निर्वाण (मोक्ष) श्रेष्ठ धर्म है, इसी तरह (ज्ञानियों में) ज्ञातपुत्र महावीर से बढ़कर (श्रेष्ठ) कोई ज्ञानी नहीं है। विवेचन-विविध उपमाओं से भगवान की श्रेष्ठता-प्रस्तुत 10 सूत्रगाथाओं (स० गा० 366 से 375 तक) में विविध पदार्थों से उपमित करके भगवान महावीर की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है / संसार के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले पदार्थों से उपमा देकर भगवान की विभिन्न विशेषताओं, महत्ताओं और श्रेष्ठताओं का निम्नोक्त प्रकार से निरूपण किया हैं। (1) सर्वाधिक प्राज्ञ भगवान महावीर मुनियों में श्रेष्ठ हैं, जैसे दीर्घाकार पर्वतों में निषध और वलयाकार पर्वतों में रुचक है। (2) भगवान का सर्वोत्तम ध्यान शुक्लध्यान है, जो शंख, चन्द्र आदि अत्यन्त शुक्ल वस्तुओं के समान विशुद्ध और सर्वथा निर्मल था। (3) भगवान् ने क्षायिक ज्ञानादि के 6 सूयगडंगसुत्तं मूलपाठ (टिप्पणयुक्त) पृ० 65-66 का सारांश Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीरस्तव बल से सर्वकर्मों का क्षय करके परमसिद्धि-आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था प्राप्त की। (4) भगवान ज्ञान और चारित्र में सर्वश्रेष्ठ हैं, जैसे वृक्षों में देवकुरु क्षेत्र का शाल्मलीवृक्ष तथा वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ माना जाता है / (5) मुनियों में लौकिक सुखाकांक्षा की प्रतिज्ञा (संकल्प-निदान) से रहित भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं, जैसे कि ध्वनियों में मेघध्वनि, तारों में चन्द्रमा और सुगन्धित पदार्थों में चन्दन श्रेष्ठ कहा जाता है, (6) तपःसाधना के क्षेत्र में सर्वोपरि मुनिवर महावीर है. जैसे समुद्रों में स्वयम्भूरमण, नागदेवों में धरणेन्द्र एवं रसवाले समुद्रों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ माना जाता है, (7) निर्वाणवादियों में भगवान महावीर प्रमुख हैं, जैसे हाथियों में ऐरावत, मगों में सिंह, नदियों में गंगानदी तथा लियों में गरुडपक्षी प्रधान माना जाता हैं। (8) ऋषियों में वर्धमान महावीर श्रेष्ठ हैं, जैसे योद्धाओ में विश्वसेन या विष्वक्सेन, फूलो में अरविन्द, क्षत्रियों में दान्तवाक्य या दन्तवक्र' श्रेष्ठ माना जाता है, (6) तीनों लोकों में उत्तम ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर है, जैसे कि दानों में अभयदान, सत्यों में निर. वद्य सत्य और तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम माना जाता है। (10) समस्त ज्ञानियों में ज्ञातपुत्र महावीर सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी हैं, जैसे कि स्थिति वालों में लवसप्तम अर्थात् अनुत्तर विमानवासी देव, सभाओं में सुधर्मासभा एवं धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ धर्म है। यों विविध उपमाओं से भगवान महावीर की श्रेष्ठता सिद्ध की गई है। भगवान महावीर की विशिष्ट उपलब्धियाँ 376. पुढोवमे धुणति विगतगेही, न सन्निहिं कुब्वति आसुपण्णे / तरतु समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वोरे अणंतचक्खू // 25 // 377. कोहं च माणं च तहेव माय, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा / एताणि वंता अरहा महेसी, ण कुयति पावं ण कारवती // 26 // 378. किरियाकिरियं देणइयाणुवायं, अण्णाणियाण पडियच्च ठाणं / से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्ठिते संजम दोहरायं // 27 // 376. से वारिया इत्थि सराइभत्त, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोग विदित्ता आरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारं // 28 // 10 'वीससेणे' इसके संस्कृत में दो रूप होते हैं - "विश्वसेनः, विष्वक्सेनः।" वृत्तिकार ने प्रथम रूप मानकर विश्वसेन का अर्थ चक्रवर्ती किया है, जबकि चूणिकार ने दोनों रूप मानकर प्रथम का अर्थ-चक्रवर्ती और द्वितीय का वासुदेव किया है। देखिये अमरकोश प्रथम काण्ड में विष्णुनारायणो कृष्णो वैकुण्ठो विष्ट रश्रवाः / पीताम्बरोऽच्युतः शाङ्गी विष्वक्सेनो जनार्दनः / / 11 दंतवक्के-चूणि और वृत्ति में 'दान्तवाक्य' का अर्थ चक्रवर्ती किया गया है। भागवत पुराण (दशमस्कन्ध के 78 वें अध्याय) में श्री कृष्ण की फूफी के पुत्र गदाधारी 'दन्तवक्त्र' का उल्लेख मिलता है। महाभारत के आदिपर्व (1/61/ 57) में 'दन्तवक्त्र' तथा सभापर्व (2/28/3) में 'दन्तवक्र' राजा का उल्लेख है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 377 से 379 327 376. भगवान महावीर पृथ्वी के समान (समस्त प्राणियों के लिए आधारभूत) है। वे (आठ प्रकार के) कर्ममलों को दूर करने वाले हैं। वे (बाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों में गृद्धि (आसक्ति) से रहित हैं। वे आशुप्रज्ञ (धन-धान्य आदि पदार्थों का) संग्रह (सनिधि) नहीं करते हैं / अथवा वे (क्रोधादि विकारों की) सन्निधि (निकटता-लगाव) नहीं करते। (चातुर्गतिक) महान् संसार समुद्र को समुद्र के समान पार करके (भगवान निर्वाण के निकट पहुँचे हैं।) वे अभयंकर (दूसरों को भय न देने वाले, न ही स्वयं भय पाने वाले) हैं; वीर (कर्म-विदारण करने के कारण) हैं और अनन्त (चक्षु ज्ञानी) हैं। 377. महर्षि महावीर क्रोध, मान और माया तथा चौथा लोभ (आदि) इन (समस्त) अध्यात्म(अन्तर) दोषों का वमन (परित्याग) करके अर्हन्त (पूज्य, विश्ववन्द्य, तीर्थंकर) बने हैं। वे न स्वयं पापाचरण करते हैं और न दूसरों से कराते हैं। 378. भगवान महावीर क्रियावाद, अक्रियावाद, (विनय) वैनयिकों के वाद और (अज्ञानिकों के अज्ञान) वाद के पक्ष को सम्यक् रूप से जानकर तथा समस्त वादों (के मन्तव्य) को समझ कर आजीवन (दीर्घरात्र तक) संयम में उत्थित (उद्यत) रहे / 376. वे वीरप्रभु रात्रि-भोजन सहित स्त्रीसंसर्ग का त्यागकर दुःखों के (कारणभूत कर्मों के) क्षय के लिए (सदा) विशिष्ट तप में उद्यत रहते थे। उन्होने इहलोक और परलोक को जानकर सब प्रकार के पापों का सर्वथा त्याग कर दिया था। विवेचन-भगवान महावीर को विशिष्ट उपलब्धियां--प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (376 से 376 तक) में भगवान महावीर के जीवन की विशिष्ट उपलब्धियों का निरूपण शास्त्रकार ने किया है। वे विशिष्ट उपलब्धियाँ ये हैं-(१) पृथ्वी के समान वे प्राणियों के आधारभूत हो गए, (2) अष्टविध कर्मों का क्षय करने वाले हुए, (3) बाह्याभ्यन्तर पदार्थों में गृद्धि-रहित हो गए, (4) वे धनधान्यादि पदार्थों का संग्रह या क्रोधादि विकारों का सान्निध्य नहीं करते थे, (5) संसारसमुद्र को पार करके निर्वाण के निकट पहुंच गए, अभयंकर, (7) वीर तथा (8) अनन्तचक्षु हो गए। (8) क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आन्तरिक (आध्यात्मिक) विकारों का त्याग करके महर्षि एवं अर्हन्त हो गए, (10) अब हिंसादि पापों का आचरण न तो वे स्वयं करते हैं, न कराते हैं। (11) क्रियावाद आदि समस्त वादों को स्वयं जानकर दूसरों को समझाते / (12) जीवनपर्यन्त शुद्ध संयम में उद्यत रहे, (13) अपने जीवन और शासन में उन्होंने रात्रिभोजन और स्त्रीसंसर्ग (अब्रह्मचर्य) वजित किया, (14) दुःख के कारणभूत कर्मों के क्षय के लिए वे सदैव विशिष्ट तपःसाधना करते रहे, (15) इहलोक-परलोक (चातुर्गतिक संसार) के स्वरूप और कारणों को जानकर उन्होंने सब प्रकार के पापों का सर्वथा निवारण कर दिया। पाठान्तर और व्याख्या-उवट्ठिते संजम दोहराय दीर्घरात्र तक यावज्जीव संयम में उत्थित रहे, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'उबढिते सम्म स दोहराय'-वे जीवनपर्यन्त मोक्ष के लिए सम्यक्रूप से 12 क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी के 363 भेदों तथा उनके स्वरूप का विश्लेषण समवसरण (१खें) अध्ययन में यथास्थान किया जाएगा। --सम्पादक 13 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 151 का सारांश Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 सूत्रकृताग-पाठ अध्ययन- महावीरस्तव उपस्थित-उद्यत रहे। 'आरं परं (पारं) च' आरं= इहलोक अथवा मनुष्यलोक, पारं (पर)=परलोक या नारकादिलोक / चपि.कारस मत पाटान्तर है-परं परं च' अर्थ प्रायः समान है।" फलश्रति-- 380. सोरचा य धम्म अरहंतभासियं, समाहितं अट्ठपोवसुद्ध। तं सद्दहता य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति // 26 // त्ति बेमि। // महावीरस्थवो छठें अज्मयणं सम्मत्त / / 380. श्री अरिहन्तदेव द्वारा भाषित, सम्यक रूप से उक्त युक्तियों और हेतुओं से अथवा अर्थों और पदों से शुद्ध (निर्दोष) धर्म को सुनकर उस पर श्रद्धा (श्रद्धापूर्वक सम्यक् आचरण) करने वाले व्यक्ति आयुष्य (कर्म) से रहित-मुक्त हो जाएंगे, अथवा इन्द्रों की तरह देवों का आधिपत्य प्राप्त करेंगे। -यह मैं कहता हूँ। विवेचन-फलश्रुति-प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार इस अन्तिम गाथा में भ० महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुत-चारित्ररूप धर्म का श्रवण, श्रद्धान एवं आचरण करने वाले साधकों को उसकी फलश्रति बताते हैं-सोच्वा य धम्म ....."आगमिस्संति / // महावीरस्तव षष्ठ अध्ययन समाप्त // 10 14 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 151 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 67 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशील परिभाषित (कुशील परिभाषा)-सप्तम अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र. श्रु०) के सप्तम अध्ययन का नाम कुशील-परिभाषित या कुशील परिभाषा' है। 1 'शील' शब्द स्वभाव, उपशमप्रधान चारित्र, सदाचार, ब्रह्मचर्य आचार-विचार आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। चेतन अथवा अचेतन, जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, या वस्त्र-भोजनादि के विषय में जिसका जो स्वभाव (प्रकृति) बन गया है, उसे द्रव्य शील कहते हैं। - भाव शील दो प्रकार का है-ओघ शील और आभीक्षण्य शील / सामान्यतया जो शील-आचार विचार (अच्छा या बुरा) पालन किया जाता है. उसे ओघ भावशील कहते हैं, परन्तु वही शील निरन्तर क्रियान्वित किया जाता है, तब वह आभीक्ष्ण्य भाव शील कहलाता है। - क्रोधादि कषाय, चोरी, परनिन्दा, कलह अथवा अधर्म में प्रवृत्ति अप्रशस्त भाव शील है, और अहिंसादि धर्म के विषय में, सम्यग्ज्ञान, विशिष्ट तप, सम्यग्दर्शन आदि के विषय में प्रवृत्ति प्रशस्त भावशील है। [] प्रस्तुत अध्ययन में आचार-विचार के अर्थ में भाव शोल को लेकर सुशील और कुशील शब्द विव क्षित है। जिसका शील प्रशंसनीय है, शुद्ध है, धर्म और अहिंसादि से अविरुद्ध है लोकनिन्द्य नहीं है, वह सुशील है, और इसके विपरीत कुशील है। वैसे तो कुशील के अगणित प्रकार सम्भव है, परन्तु यहां उन सबकी विवक्षा नहीं है। [] प्रस्तुत अध्ययन में तो मुख्यतया साधुओं की सुशीलता और कुशीलता को लेकर ही विचार किया गया है / वृत्तिकार के अनुसार ध्यान, स्वाध्याय आदि तथा धर्मपालन के आधार रूप शरीर रक्षणार्थ मुख्यतया आहार प्रवृत्ति को छोड़कर साधुओं की और कोई प्रवृत्ति नहीं ! अप्रासुक एवं उद्गमादि दोषयुक्त आहार सेवन करना अहिंसा और साधुधर्म की दृष्टि से विरुद्ध है / अत: जो सचित्त जल, अग्नि, वनस्पति आदि का सेवन करते हैं, इतना ही नहीं, अपने धर्मविरुद्ध आचार को स्वर्ग-मोक्षादि का कारण बताते हैं, वे कुशील हैं। -सू० कृ० मूल पाठ टिप्पण पृ० 67 1 वृत्तिकार के अनुसार अध्ययन का नाम 'कूशीलपरिभाषा' है। 2 (क) सूत्रकृतांगनियुक्ति गा० 86-87, 88 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 153-154 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताग-सप्तम अध्ययन-कुशील परिभाषित - जो प्रासुक एवं अचित्तसेवी हैं, अप्रासुक एवं दोषयुक्त आहार सेवन नहीं करते, वे सुशील हैं। - नियुक्तिकार ने वृ छ वृशीलों के नाम गिनाये हैं। वे कुशील परतीथिक भी है, स्वयूथिक भी। स्वयूथिक भी जो पार्श्वस्थ, अवसन्न, स्वछन्द आदि हैं वे कुशील हैं। 0 अतः ऐसे कुशीलों के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से किया गया भाषण या निरूपण, साथ ही कुशील के अनुष्ठान के दुर्गतिगमनादि परिणामों का प्रतिपादन कुशील परिभाषा या कुशील परि भाषित अध्ययन का विषय है। 1 उद्देशकरहित प्रस्तुत अध्ययन में 30 गाथाओं तथा ऐसे स्वतीथिक-परतीर्थिक कुशीलों का वर्णन किया गया है, जिनका शील (आचारविचार) अहिंसा, सत्य, संयम, अपरिग्रहवत्ति या ब्रह्मचर्य के अनुकूल नहीं है, जो सरलभाव से अपने दोषों को स्वीकार एवं भूलों का परिमार्जन करके अपने पूर्वग्रह पर दृढ़ रहते हैं, शिथिल या कुत्सित एवं साधुधर्म विरुद्ध आचार-विचार को सुशील बताते हैं। साथ ही इसमें बीच-बीच में सुशील का भी वर्णन किया गया है / 7 साधक को सुशील और कुशील का अन्तर समझाकर कुशीलता से बचाना और सुशीलता के लिए प्रोत्साहित करना इस अध्ययन का उद्देश्य हैं / - यह अध्ययन सूत्र गाथा 381 से प्रारम्भ होकर 410 पर पूर्ण होता है / 3 (क) अफासुयपडिसेविय णामं भुज्जो य सीलवादी य / फासु वयंति सील अफासुया मो अभुजंता // 6 // जह णाम गोयमा चंडीदेवमा, वारिभद्दगा चेव / जे अग्निहोत्तवादी जलसोयं जेय इच्छति // 10 // -सूत्र०-नियुक्ति ---गौतम (मसग जातीय पाषंडी या गोनतिक) चण्डीदेवक, वारिभद्रक, अग्निहोत्रवादी, जलशौचवादी (भागवत) आदि कुशील के उदाहरण हैं / (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 154 4 सूत्रकृतांग चूणि पृ० 151, पत्र 4 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं 'कुसीलपरिभासियं' कुशीलपरिभाषित (छुशीलपरिभाषा) : सातवाँ अध्ययन कुशीलकृत जीवहिंसा और उसके दुष्परिणाम 381. पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण-रुक्ख-बीया य तसा य पाणा। जे अंडया जे य अराउ पाणा, संसेयया जे रसयाभिधाणा // 1 // 382 एताई कयाई पवेदियाई, एतेस जाण पडिलेह सार्य। एहिं कायेहि य आयवंडे, एतेसु या विप्परियासुविति' / / 2 / / 283 जातीवहं अणुपरियट्टमाणे, तस-थावरेहि विणिधायमेति / से जाति-जातो बहूकूरकम्मे, जं कुव्वतो मिज्जति तेण बाले // 3 // 384. अस्ति च लोगे अदुवा परस्था, सतग्गसो वा तह अन्नहा वा / मंसारमावन्न परं परं ते, बंधति वेयंति य दृष्णियाई॥४॥ 381-382. पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, तृण, वृक्ष, बीज और त्रस प्राणो तथा जो अण्डज हैं, जो जरायुज प्राणी हैं, जो स्वेदज (पसोने से पैदा होने वाले) और रसज (दूध, दही आदि रसों की विकृति से पैदा हो वाले) प्राणी हैं। इन (पर्वोक्ता सबको सर्वज्ञ वीतरागों ने जोवनिकाय (जीवों के काय-शरीर) बताए हैं। इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकायादि प्राणियों) में सुख की इच्छा रहती है, इसे समझ लो और इस पर कुशाग्र बुद्धि से विचार करो। जो इन जीवनिकायों का उपमर्दन-पीड़न करके (मोक्षाकांक्षा रखते हैं, वे) अपनी आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं (पृथ्वोकायादि जीवों) में विविध रूप में शीघ्र या बार-बार जाते (या उत्पन्न होते) हैं। 383. प्राणि-पोड़क वह जीव एकेन्द्रिय आदि जातियों में बार-बार परिभ्रमण (जन्म, जरा, मरण आदि का अनुभव करता हुआ) करता हुआ बस और स्थावर जीवों में उत्पत्र होकर कायदण्ड विपाकज 1 तुलना कीजिए--'भूतेहिं जाण पडिलेह सात' -आचारांग विवेचन प्र० श्रु० अ०-२ उ-२ सू० 112 पृ० 64 2 तुलना कीजिए -'विप्परियासमुवेति' -आचा-विवेचन प्र० श्रु० अ० 2 उ० 3 सू० 77, 76, 82 पृ० 51 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 अत्रकृसांग --सप्तम अध्ययन-कुशील परिभाषित कर्म के कारण विवात (नाश) को प्राप्त होता है। वह अतिक रकर्मा अज्ञानी जीव बार-बार जन्म लेकर जो कम करता है, उसी से मरण-शरण हो जाता है। 384. इस लोक में अथवा परलोक में, एक जन्म में अथवा सैकड़ों जन्मों में वे कर्म कर्ता को अपना फल देते हैं, अथवा जिस प्रकार वे कर्म किये हुए हैं, उसी प्रकार या दूसरे प्रकार से भी अपना फल देते हैं / संसार में परिभ्रमण करते हुए वे कुशील जीव उत्कट से उत्कट (बड़े से बड़ा) दुःख भोगते हैं और आर्तध्यान करके फिर कर्म बांधते हैं, और अपनी दुर्नीति (पाप) युक्त कर्मों का फल भोगते रहते हैं। विवेचन-कुशील कृत जीवहिंसा और उसके दुष्परिणाम-प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं में शास्त्रकार ने कुशील के सन्दर्भ में निम्नलिखित तथ्यों का उद्घाटन किया है-(१) संसारी जीवों के मुख्य दो प्रकार हैं-स्थावर और त्रस / स्थावर के 5 भेद- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय / तृण, वृक्ष आदि वनस्पति के अन्तर्गत है / ये सब एकेन्द्रिय और तद्र प शरीर वाले होते हैं। ये त्रसजीव हैं / अण्डज, जरायुज स्वेदज, और रसज / त्रसजीव द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं। इन सब को आत्मवत् जानो / (2) कुशील व्यक्ति विविध रूपों में स्थावर और त्रसजीवों का उत्पीड़न करके अपनी आत्मा को ही दण्डित करता है, (3) वह इन्हीं जीवों में बार-बार उत्पन्न होता है, और जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःखों का अनुभव करता हुआ विनष्ट होता है / (4) कर्म कर्ता को इस जन्म में या अगले जन्मों में, इस लोक या परलोक में, उसी रूप में या दूसरे रूप में अपना फल दिये बिना नहीं रहते। (5) कुशील जीव कर्मानुसार संसार में परिभ्रमण करते हुए उत्कट से उत्कट दुःख भोगते हैं, (5) कर्मफल भोगते समय वे आर्तध्यान करके फिर कर्म बाँध लेते हैं, फिर उन दुष्कर्मों का फल भोगते हैं। निष्कर्ष यह है कि कुशील जीवों को पीड़ित करके अपनी आत्मा को ही पीड़ित (दण्डित) करता है।' कठिन शब्दों की व्यास्था--आयदंडे आत्मदण्ड=आत्मा दण्डित को जाती है। आयतदण्डरूप मानने पर अर्थ होता है-दीर्घकाल तक दण्डित होते हैं / विपरियासुधिति= (इन्हीं पृथ्वीकायादि जीवों में) विविध-अनेक प्रकार से, चारों ओर से शीघ्र ही जाते हैं, बार-बार उत्पन्न होते हैं, (2) अथवा विपर्यास यानी विपरोतता या अदला-बदली को प्राप्त होते हैं, सुखार्थीजन सुख के लिए जीवसमारम्भ करते हैं, परन्तु उन्हें उस आरम्भ से दुःख ही प्राप्त होता है, अथवा कुतीथिकजन मोक्ष के लिए जीवों के द्वारा जो आरम्भादि क्रिया करते हैं, उन्हें उससे संसार ही मिलता है, मोक्ष नहीं / जाइवहं-इसके दो रूप होते हैं -जातिपथ और जातिवध / जातिपथ का अर्थ-एकेन्द्रियादि जातियों का पथ / जातिवध का अर्थजाति-उत्पत्ति, वध=मरण, अर्थात जन्म और मरण / अणुपरियट्टमाणे-दो अर्थ-प्रथम अर्थ के अनुसार पर्यटन-परिभ्रमण करता हुआ, दूसरे के अनुसार-जन्ममरण का बार-बार अनुभव करता हुआ। 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 154-155 का सारांश 2 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा०) 10 68 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 154-155 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमा 305 से 386 333 कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिसा के विविध रूप 385. जे मायरं च पियरं चं हेच्चा, समणवदे अगणि समारभेज्जा। अहाहु से लोगे कुसीलधम्मे, भूताई जे हिंसति आतसाते // 5 // 386. उज्जालओ पाण तिवातएज्जा, निवावओ अगणि तिवातइज्जा / तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म, ण पंडिते अगणि समारभेज्जा // 6 // 387. पुढवी वि जीवा आउ वि जीवा, पाणा य संपातिम संपयंति। ___संसेदया कट्ठसमस्सिता य, एते दहे अगणि समारभंते // 7 // 388. हरिताणि भूताणि विलंबगाणि, आहारदेहाई पुढो सिताई। __ जे छिदतो आतसुहं पडुच्चा, पागभि पाणे बहुणं तिवाती / / 8 // 389. जाति च वुड्ढि च विणासयंते, बोयादि अस्संजय आयदंडे / अहाहु से लोए अणज्जधम्मे, बोयादि जे हिंसति आयसाते // 6 // 385. जो अपने माता और पिता को छोड़कर श्रमणवत को धारण करके अग्निकाय का समारम्भ करता है, तथा जो अपने सुख के लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह लोक में कुशील धर्म वाला है, ऐसा (सर्वज्ञ पुरुषों ने) कहा है / 386. आग जलाने वाला व्यक्ति प्राणियों का घात करता है और आग बुझाने वाला व्यक्ति भी अग्निकाय के जीवों का घात करता है। इसलिए मेधावी (मर्यादाशील) पण्डित (पाप से निवृत्त साधक) (अपने) (श्र तचारित्ररूप श्रमण) धर्म का विचार करके अग्निकाय का समारम्भ न करे। 387. पृथ्वी भी जीव है, जल भी जीव है तथा सम्पातिम (उड़ने वाले पतंगे आदि) भी जीव है जो आग में पड़ (कर मर) जाते हैं / और भी पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव एवं काठ (लकड़ी आदि इन्धन) के आश्रित रहने वाले जीव होते हैं। जो अग्निकाय का समारम्भ करता है, वह इन (स्थावर-वस) प्राणियों को जला देता है। 388. हरी दूब अंकुर आदि भी (वनस्पतिकायिक) जीव हैं, वे भी जीव का आकार धारण करते हैं / वे (मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फल, फूल आदि अवयवों के रूप में) पृथक्-पृथक् रहते हैं। जो व्यक्ति अपने सुख की अपेक्षा से तथा अपने आहार (या आधार-आवास) एवं शरीर-पोषण के लिए इनका छेदनभेदन करता है, वह धृष्ट पुरुष बहुत-से प्राणियों का विनाश करता है। 386. जो असंयमी (गृहस्थ या प्रवजित) पुरुष अपने सुख के लिए बीजादि (विभिन्न प्रकार के बीज वाले अन्न एवं फलादि) का नाश करता है, वह (बोज के द्वारा) जाति (अंकुर की उत्पत्ति) और (फल के रूप में) वृद्धि का विनाश करता है। (वास्तव में) वह व्यक्ति (हिंसा के उक्त पाप द्वारा) अपनी Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कुशोल परिभाषित ही आत्मा को दण्डित करता है। संसार में तीर्थंकरों या प्रत्यक्षदर्शियों ने उसे अनार्यधर्मी (अनाड़ी या अधर्मसंसक्त) कहा है। विवेचन -कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिंसा के विविध रूप---प्रस्तुत 5 सूत्रगाथाओं (385 से 386 तक ) द्वारा शास्त्रकार ने कुशीलधर्मा कौन है ? वह किसलिए, और किस-किस रूप में अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों का घात करता है? इसका विशद निरूपण किया है। __भूताई जे हिसति आतसाते--इस पंक्ति का आशय यह है कि जो अपनी सुख-सुविधा के लिए, परलोक में सुख मिलेगा, या स्वर्ग अथवा मोक्ष का सुख मिलेगा, इस हेतु से, अथवा धर्मसम्प्रदाय परम्परा या रीतिरिवाज के पालन से यहां सभी प्रकार का सुख मिलेगा, इस लिहाज से अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी आदि के जीवों की हिंसा करते हैं / अथवा स्वर्गप्राप्ति की कामना से विविध अग्निहोम या पंचाग्निसेवनतप आदि क्रियाएँ करते हैं, फल फूल आदि वनस्पतिकाय का छेदन-भेदन करते हैं, वे सब कुशीलधर्मा है / अग्नि जलाने और वुझाने में अनेक स्थावर-बस जीवों की हिंसा-जो व्यक्ति इह लौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रयोजन से अग्नि जलाता है, वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा तो करता ही है, अग्नि जहाँ जलाई जाती है, वहाँ की पृथ्वी के जीव भी आग की तेज आँच से नष्ट हो जाते हैं, अग्नि बुझाने से अग्निकाय के जीवों का धात तो होता ही है, साथ ही बुझाने के लिए सचित्त पानी का प्रयोग किया जाता है, तब या भोजन पकाने में जलकायिक जीव नष्ट हो जाते हैं, कंडे लकड़ी आदि में कई त्रस जीव बैठे रहते हैं, वे भी आग से मर जाते हैं, पतंगे आदि कई उड़ने वाले जीव भी आग में भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार आग जलाने और बुझाने में अनेक जीवों की हिंसा होती है, इसी बात को शास्त्रकार ने 386-387 इन दो सूत्रगाथाओं द्वारा व्यक्त किया है-"उजालो... अगणि समारभेज्जा / पुढधी पि जीवा ''अगणि समारभंते।" वृत्तिकार ने भगवती सूत्र का प्रमाण प्रस्तुत करके सिद्ध किया है कि भले ही व्यक्ति आग जलाने में महाकर्म युक्त और बुझाने में अल्प कर्मयुक्त होता है, परन्तु दोनों हो क्रियाओं में षट्कायिक आरम्भ होता है / विलंबगाणिजो जीव का आकार धारण कर लेते हैं। कुशील द्वारा हिंसाबरण का कटु विपाक 360. गम्भाइ मिज्जति बुया-बुयाणा, परा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउखए पलीणा / / 10 / / 361. संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं, दळु भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिते व लोए, सकम्मुणा विपरियासुवेति // 11 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 156 के आधार पर 4 वही, पत्रांक 156-57 के आधार पर 5 भगवतीसूत्र शतक 7 / सूत्र 227-228 (अंगसुत्तणि भाग 2) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 390 से 391 335 360. (देवी-देवों की चर्चा या धर्म के नाम पर अथवा सुख-वृद्धि आदि किसी कारण से हरित वनस्पति का छेदन-भेदन करने वाले) मनुष्य गर्भ में ही मर जाते हैं, तथा कई तो स्पष्ट बोलने तक की वय में और कई अस्पष्ट बोलने तक की उम्र में ही मर जाते हैं / दूसरे पंचशिखा वाले मनुष्य कुमारअवस्था में ही मृत्यु के गाल में चले जाते हैं, कई युवक होकर तो कई मध्यम (प्रौढ़) उम्र के होकर अथवा बूढ़े होकर चल बसते हैं। इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी (इन अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में) आयुष्य क्षय होते ही शरीर छोड़ देते हैं। __361. हे जीवो ! मनुष्यत्व या मनुष्यजन्म की दुर्लभता को समझो। (नरक एवं तिथंच योनि के भय को देखकर एवं विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवेक का अलाभ (प्राप्ति का अभाव) जानकर बोध प्राप्त करो। यह लोक ज्वरपीड़ित व्यक्ति की तरह एकान्त दुःखरूप है। अपने (हिंसादि पाप) कर्म से सुख चाहने वाला जीव सुख के विपरीत (दुःख) ही पाता है। विवेचन-कुशील द्वारा हिंसाचरण का कटु विपाक - प्रस्तुत गाथाद्वय में दो विभिन्न पहलुओं से कुशीलाचरण का दुष्परिणाम बताया गया है। सूत्र गाथा 360 में कहा गया है कि जो वनस्पतिकायिक आदि प्राणियों का आरम्भ अपने किसी भी प्रकार के सुखादि की वांछा से प्रेरित होकर करता है, वह उसके फलस्वरूप गर्भ से लेकर वृद्धावस्था तक में कभी भो मत्यु के मुख में चला जाता है। सत्र गाथा 391 में सामान्य रूप से कुशीलाचरण का फल सुखाशा के विपरीत दुःख प्राप्ति बतलाया गया है तथा संसार को एकान्तदुःखरूप समझकर नरक-तियंचगति में बोधि-अप्राप्ति के भय का विचार करके बोधि प्राप्त करने का निर्देश दिया गया है। पाठान्तर और व्याख्या-."जरिते व लोए'=वृत्तिकार के अनुसार-लोक को ज्वरग्रस्त की तरह समझो। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'जरिए हु लोगे' लोक को (विविध दुःखों की भट्टी में) ज्वलित की तरह या ज्वरग्रस्त की तरह ज्वलित समझो। 'मझिम थेरगाए' के वदले 'मज्झिम पोरुसा य' पाठान्तर है / अर्थ है-पुरुषों की चरमावस्था को प्राप्त / मोक्षवादी कुशीलों के मल और उनका खण्डन 362. इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवज्जणेणं / एगे य सीतोदगसेवणेणं, हुतेण एगे पवदंति मोक्खं // 12 // 363. पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं / ते मज्ज मंसं लसुणं च भोच्चा, अन्नत्थ वासं परिकप्पयंति // 13 // -उत्तरा० अ० 19/15 6 देखिये -जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोग। य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति पाणिणो / / 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 158 का सारांश 8 जरित्तेति 'आलित्तणं भंते ! लोए, पलितणं भंते लोए' अथवा ज्वरित इव ज्वलितः / -सूत्र कृ. चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 70 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तांग-सप्तम अध्ययन-कुशील परिमाषित 364, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरप्ति, सायं च पातं उदगं फुसंता। उदगरस पासण सिटाय स्थिी, सिनि.सु पाणा हवे दगंसि // 14 // 395. मच्छा य कुम्मा य सिरोसिधा य, मग्गू य उट्टा दगरक्खसा य / अट्ठाणमेयं कुसला वदंति, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति // 15 // 366. उदगं जती कम्म मलं हरेज्जा, एवं सुहं इच्छामेत्तता वा। अंधश्व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा // 16 // 367. पावाई कम्माई पकुव्वतो हि, सिओदगं तु जइ त हरेज्जा / सिज्झिसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु // 17 / / 368. हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पातं अणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तम्हा, अणि फुसंताण कुकम्मिणं पि // 18 // 366. अपरिक्ख दिह्र ण हु एव सिद्धी, एहिति ते घातमबुज्झमाणा। भूतेहिं जाण पडिलेह सातं, विज्ज गहाय तस-थावरेहि // 16 // 400. थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू / तम्हा विदू विरते आयगुत्ते, वळु तसे य पडिसाहरेज्जा // 20 // 392. इस जगत् में अथवा मोक्षप्राप्ति के विषय में कई मूढ़ इस प्रवाद का प्रतिपादन करते हैं कि . आहार का रस-पोषक-नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष प्राप्त होता है, और कई शीतल (कच्चे जल के सेवन से तथा कई (अग्नि में घृतादि द्रव्यों का) हवन करने से मोक्ष (की प्राप्ति) बतलाते हैं। 363. प्रातःकाल में स्नानादि से मोक्ष नहीं होता, न ही क्षार (खार) या नमक न खाने से मोक्ष होता है। वे (अन्यतीर्थी मोक्षवादी) मद्य, मांस और लहसुन खाकर (मोक्ष से) अन्यत्र (संसार में) अपना निवास बना लेते हैं। 364. सायंकाल और प्रातःकाल जल का स्पर्श (स्नानादि क्रिया के द्वारा) करते हुए जो जलस्नान से सिद्धि (मोक्ष प्राप्ति) बतलाते हैं, (वे मिथ्यावादी हैं)। यदि जल के (बार-बार) स्पर्श से मुक्ति (सिद्धि) मिलती तो जल में रहने वाले बहुत-से जलचर प्राणी मोक्ष प्राप्त कर लेते। 365. (यदि जलस्पर्श से मोक्ष प्राप्ति होती तो) मत्स्य, कच्छप, सरीसृप (जलचर सर्प), मद्गू तथा उष्ट्र नामक जलचर और जलराक्षस (मानवाकृति जलचर) (आदि जलजन्तु सबसे पहले मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु ऐसा नहीं होता।) अतः जो जलस्पर्श से मोक्षप्राप्ति (सिद्धि) बताते हैं, मोक्षतत्त्वपारंगत (कुशल) पुरुष उनके इस कथन को अयुक्त कहते हैं। 366. जल यदि कर्म-मल का हरण-नाश कर लेता है, तो वह इसी तरह शुभ-पुण्य का भी हरण Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 392 से 400 कर लेगा। ( अत : जल कर्ममल हरण कर लेता है, यह कथन) इच्छा (कल्पना) मात्र है। म अज्ञानान्ध नेता का अनुसरण करके इस प्रकार (जलस्नान आदि क्रियाओं) से प्राणियों का घात करते हैं। __ 367. यदि पापकर्म करने वाले व्यक्ति के उस पाप को शीतल (सचित्त) जल (जलस्नानादि) हरण कर ले, तब तो कई जलजन्तुओं का घात करने वाले (मछुए आदि) भी मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। इसलिए जो जल (स्नान आदि) से सिद्धि (मोक्ष प्राप्ति) बतलाते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। 268. सायंकाल और प्रातःकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो लोग (अग्निहोत्रादि कर्मकाण्डी) अग्नि में होम करने से सिद्धि (मोक्षप्राप्ति या सुगतिममनरूप स्वगप्राप्ति) बतलाते हैं, वे भी मिथ्यावादी हैं। यदि इस प्रकार (अग्निस्पर्श से या अग्निकार्य करने) से सिद्धि मिलती हो, तब तो अग्नि का स्पर्श करने वाले (हलवाई, रसोइया, कुम्भकार, लुहार, स्वर्णकार आदि) कुकमियों (आरम्भ करने वालों, आग जलाने वालों) को भी सिद्धि प्राप्त हो जानी चाहिए। 366. जलस्नान और अग्निहोत्र आदि क्रियाओं से सिद्धि मानने वाले लोगों ने परीक्षा किये बिना ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है / इस प्रकार सिद्धि नहीं मिलती / वस्तुतत्त्व के बोध से रहित वे लोग घात (संसार भ्रमणरूप अपना विनाश) प्राप्त करेंगे। अध्यात्मविद्यावान् (सम्यग्ज्ञानी) यथार्थ वस्तुस्वरूप का ग्रहण (स्वीकार) करके यह विचार करे कि त्रस और स्थावर प्राणियों के घात से उन्हें सुख कैसे होगा? यह (भलीभांति) समझ ले। 400. पापकर्म करने वाले प्राणी पृथक पृथक रुदन करते हैं, (तलवार आदि के द्वारा) छेदन किये जाते हैं, त्रास पाते हैं / यह जानकर विद्वान् भिक्षु पाप से विरत होकर आत्मा का रक्षक (गोप्ता या मन-वचन-काय-गुप्ति से युक्त) बने / वह त्रस और स्थावर प्राणियों को भलीभाँति जानकर उनके धात की क्रिया से निवृत्त हो जाए। विवेचन-मोक्षवादी कुशीलों के मत और उनका खण्डन-प्रस्तुत ह सूत्रगाथाओं में विविध मोक्षवादी कुशीलों के मत का निरूपण और उनका खण्डन किया है। साथ ही यह भी बताया है कि सुशील एवं विद्वान् साधु को प्राणिहिंसाजनित क्रियाओं से मोक्ष-सुख-प्राप्ति की आशा छोड़कर इन क्रियाओं से दूर रहना चाहिए। ___ आहार-रसपोषक लवणत्याग से मोक्ष कैसे नहीं ?-रस पर विजय पाने से सव पर विजय पा ली; इस दृष्टि से सर्वरसों के राजा लवणपञ्चक (सैन्धव, सौवर्चल, विड्, रोम और सामुद्र इन पांच रसों) को छोड़ देने से रसमात्र का त्याग हो जाता है। अत: लवण (रस) परित्याग से मोक्ष निश्चित है। किसी प्रति में 'आहारसंपज्जण वज्जणेणं' के बदले 'आहारओ पंचकवज्जणेण' पाठ भी मिलता है, तदनुसार अर्थ किया गया है-आहार में से इन पाँच (लहसुन, प्याज, ऊंटनी का दूध, गौमांस और मद्य) वस्तुओं के त्याग से मोक्ष मिलता है / यह लवणरसत्याग से मोक्षवादियों का कथन है। शास्त्रकार सूत्रगाथा 362 में इसका निराकरण करते हुए कहते हैं--........"स्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएण' / इस पंक्ति का आशय यह है कि केवल नमक न खाने से ही मोक्षप्राप्ति नहीं होती, ऐसा सम्भव होता तो जिस देश में लवण नहीं होता, वहाँ के निवासियों को मोक्ष मिल जाना चाहिए; Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कशीलपरिमाषित क्योंकि वे द्रव्यतः लवणत्यागी हैं, परन्तु ऐसा होता नहीं / भावतः लवणत्याग कर देने मात्र से भी मोक्ष नहीं होता, क्योंकि लवणत्याग के पीछे रसपरित्याग का आशय हो, तब तो दुग्ध, दधि, घृत, शर्करा (या मिष्ठान्न) आदि वस्तुएँ भी रसोत्पादक हैं, उनका भी भाव से त्याग होना चाहिए, लेकिन बहुत-से लवणत्यागी स्वादलोलुपतावश मद्य, मांस, लहसुन आदि तामसिक पदार्थों का निस्सकोच सेवन करते हैं, तब उन्हें मोक्ष कैसे होगा? बल्कि जीवहिंसाजन्य पदार्थों के सेवन से संसार में ही निवास होगा। वास्तव में देखा जाए तो मोक्ष तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र की भावपूर्वक साधना से होता है। ___ सचित्त जल-शौच से मोक्ष कैसे नहीं ?-वारिभद्रक आदि भागवत जलशौचवादियों का कथन है कि जल में जैसे वस्त्र, शरीर, अंगोपांग आदि के बाह्यमल को शुद्धि करने की शक्ति है, वैसे आन्तरिक मल को दूर करने की भी शक्ति है / इसलिए शीतल जल का स्पर्श (स्नानादि) मोक्ष का कारण है। इसका निराकरण शास्त्रकार ने चार गाथाओं (सु० गा० 364 से 367 तक) द्वारा पांच अकाट्य युक्तियों से किया है-(१) केवल सचित्त जलस्पर्श कर्मक्षयरूप मोक्ष का कारण नहीं है / बल्कि सचित्त जलसेवन से जलकायिक एवं तदाश्रित त्रस जीवों का उपमर्दन होता है, अतः जीवहिंसा से मोक्ष कदापि सम्भव नहीं है, (2) जल में बाहायल को भी पूर्णतः साफ करने की शक्ति नहीं है, आन्तरिक कर्ममल को साफ करने की शक्ति तो उस में हो ही कैसे सकती है ? आन्तरिक पापमल का नाश तो भावों की शुद्धि से ही हो सकता है। भावों की शुद्धि से रहित व्यक्ति चाहे जितना जलस्नान करे उससे उसके पाप मल का नाश नहीं हो सकता / यदि शीतल जलस्नान ही पाप को मिटा देता है तो तब तो जलचर प्राणियों का सदैव घात करने वाले एवं जल में ही अवगाहन करने वाले पापी मछुए या पापकर्म करने वाले अन्य प्राणी जलस्नान करके शीघ्र मोक्ष पा लेंगे, उनके सभी पापकर्म धुल जाएंगे। फिर तो नरकलोक आदि संसार में कोई भी पापी नहीं रहेगा / परन्तु ऐसा होना असम्भव है। (3) यदि जलस्नान से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है, तब तो मनुष्य तो दूर रहे, मत्स्य आदि समस्त जलचर प्राणियों को शीघ्र मोक्ष प्राप्त हो जाएगा, क्योंकि वे तो चौबीसों घंटे जल में ही रहते हैं। अतएव यह मान्यता मिथ्या और अयुक्त हैं। (4) जल जैसे पाप (अशुभ कर्ममल) का हरण करता है, वैसे पुण्य (शुभ कर्ममल) का भी हरण कर डालेगा। तव तो जल से पाप की तरह पूण्य भी धूलकर साफ हो जाएगा। और एक दिन मोक्ष के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों को भी वह धोकर साफ कर देगा। ऐसी स्थिति में जलस्पर्श मोक्षसाधक होने के बदले मोक्षबाधक सिद्ध होगा। (5) जितना अधिक जलस्पर्श होगा, उतना ही अधिक जलकायिक तथा तदाश्रित अनेक त्रसप्राणियों का घात होगा। __अग्निहोत्र क्रिया से मोक्ष क्यों नहीं ?–अग्निहोत्री मीमांसक आदि का कथन है कि अग्नि जैसे बाह्य द्रव्यों को जला डालती है, वैसे ही उसमें घी आदि होमने से वह आन्तरिक पापकों को भी जला देती है। जैसा कि श्रुतिवाक्य है-स्वर्ग की श्रतिवाक्य है-स्वर्ग की कामना करने वाला अग्निहोत्र करे। स्वर्गप्राप्ति के अतिरिक्त वैदिक लोग निष्काम भाव से किये जाने वाले अग्निहोत्र आदि कर्म को मोक्ष का भी प्रयोजक मानते हैं। इस युक्तिविरुद्ध मन्तव्य का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं- 'एवं सिया सिद्धि......'कुम्मिण पि / " इसका आशय यह है कि यदि अग्नि में द्रव्यों के डालने से या अग्निस्पर्श से मोक्ष मिलता हो, तब तो आग जलाकर कोयला बनाने वाले, कुम्भकार, लुहार, सुनार, हलवाई आदि सभी अग्निकाय का आरम्भ करने वालों को मोक्ष मिल जाएगा। परन्तु न तो इन अग्निकायारम्भजीवियों को मोक्ष मिल सकता है, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 401 से 406 और न ही अग्निस्पर्शवादियों को, क्योंकि दोनों ही अग्निकायिक जीवों का घात करते हैं। जीवघातकों का संसार में ही वास या भ्रमण हो सकता है, मोक्ष में नहीं / कर्मों को जलाने की शक्ति अग्नि में नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले तप में है / उसी की साधना से मोक्षप्राप्ति हो सकती हैं। इस कुशील आचार एवं विचार से, सुशील आत्मरक्षक विद्वान् साधु को बचना चाहिए, क्योंकि जीवहिंसाजनक इन कर्मकाण्डों से नरकादि गतियों में नाना दुःख उठाने पड़ते हैं / इस प्रकार गाथाद्वय (369-400) द्वारा शास्त्रकार ने सावधान किया है / अपरिक्ख दिह्र-बिना ही परीक्षा किये इस दर्शन (जलपर्श-अग्निहोत्रादि से मोक्षवाद) का स्वीकार किया है। कशील साधक की आचार भ्रष्टता 401. जे धम्मलद्धवि णिहाय भुजे, वियडेण साहटु य जो सिगाति / ___जो धावति लूसयतो व वत्थं, अहाहु से णागणियस्स दूरे // 21 // 402. कम्मं परिण्णाय दणंसि धीरे, विण्डेण जीवेज्ज य आदिमोक्खं / से बीय-कंदाति अभुजमाणे, विरते सिणाणादिसु इत्थियासु / / 22 // 403. जे मायरं पियरं च हेच्चा, गारं तहा पुत्त पसु धणं च / कुलाई जे धावति सादुगाई, अहाऽऽहु से सामणियस्स दूरे // 23 // 404. कुलाई जे धावति सादगाई, आवाति धम्म उदराणुगिद्ध। अहाहु से आयरियाण सतंसे, जे लावइजना असणस्स हेउं // 24 // 405. निक्खम्म दीणे परभोयणम्मि, मुहमंगलिओदरियाणुगिद्ध / नोवारगिद्ध व महापराहे, अदूर एवेहति घातमेव / / 25 / / 406. अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे। पासत्थयं चेव कुसीलयं च, निस्सारिए होति जहा पुलाए // 26 // 401. जो (स्वयूथिक साधुनामधारी) धर्म (श्रमण की औद्देशिक आदि दोषरहित धर्ममर्यादा) से प्राप्त आहार को भी संचय (अनेक दिनों तक रख) करके खाता है, तथा अचित्त जल से (अचित्त स्थान में भी) अंगों का संकोच करके जो स्नान करता है और जो अपने वस्त्र को (विभूषा के लिए) धोता है तथा (शृगार के लिए) छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को (फाड़कर) छोटा करता है, वह निर्गन्थ भाव (संयमशीलता) से दूर है, ऐसा (तीर्थंकरों और गणधरों ने कहा है। 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 158 से 161 6 सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पु०७१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन- कुशील परिभाषित 402. (अतः) धीर साधक जलस्नान में कर्मबन्ध जानकर आदि (संसार) से मोक्षपर्यन्त प्रासुक (अचित्त) जल से प्राण धारण करे, तथा वह बीज, कन्द आदि (अपरिणत-अप्रासूक आहार) का उपभोग न करे एवं स्नान आदि (शृगार-विभूषा कर्म) से तथा स्त्री आदि (समस्त मैथुनकर्म) से विरत रहे / 403. जो साधक माता और पिता को तथा घर, पुत्र, पशु और धन (आदि सब) को छोड़कर (प्रवजित होकर स्वादलोलुपतावश) स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में दौड़ता है, वह श्रमणभाव से दूर है, यह तीर्थंकरों ने कहा है। 404. उदर भरने में आसक्त जो साधक स्वादिष्ट भोजन (मिलने) वाले घरों में जाता है, तथा (वहाँ जाकर) धर्मकथा (धर्मोपदेश) करता है, तथा जो साधु भोजन के लोभ से अपने गुणों का बखान करता है, वह भी आचार्य या आयं के गुणों के शतांश के समान है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 405. जो व्यक्ति (घरबार, धन-धान्य आदि छोड़कर) साधुदीक्षा के लिए घर से निकलकर दूसरे (गृहस्थ) के भोजन (स्वादिष्ट आहार) के लिए दीन बन कर भाट की तरह मुखमांगलिक (चापलूस) हो जाता है, वह चावल के दानों में आसक्त बड़े सूअर की तरह उदरभरण में आसक्त हो कर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है / 406. अत्र और पान अथवा वस्त्र आदि इहलौकिक पदार्थ के लिए सेवक की तरह आहारादि दाता के अनुकूल प्रिय भाषण करता है (ठकुरसुहाती बात करता है) वह धीरे-धीरे पाश्वस्थभाव (आचारशैथिल्य) और कुशीलता (दूषितसंयमित्व) को प्राप्त हो जाता है। (और एक दिन) वह भूमि के समान निःसार-निःसत्त्व (संयमप्राण से रहित-थोथा) हो जाता है। विवेचन----कुशील साधक की आचारस्रष्टता-प्रस्तुत छह सूत्रगाथाओं (401 से 406 तक) द्वारा कुशील साधु की आचारभ्रष्टता का परिचय एवं सुशील धीर साधक को इससे बचने का कुछ स्पष्ट, निर्देश दिया गया है। आचारभ्रष्टता के विविध रूप-प्रस्तुत 6 गाथाओं में से पांच गाथाओं में कुशील साधक की आचारभ्रष्टता के दस रूप बताये गए हैं--(१) धर्मप्राप्त आहार का संचय करके उपभोग करना, (2) विभूषा की दृष्टि से प्रासुक जल से भी अंग संकोच करके भी स्नान करना, (3) विभूषा के लिए वस्त्र धोकर उजला बनाना. (4) शृगार के लिए छोटे वस्त्र को बड़ा और बडे को फाडकर छोटा बनाना(५) संयम ग्रहण करने के बाद मनोबलहीन एवं रसलोलुप बनकर स्वादिष्ट भोजन मिलने वाले घरों में बारबार जाना, (6) उदरभरण में आसक्त होकर स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होने वाले घरों में जाकर धर्मकथा करना, (7) स्वादिष्ट भोजन के लोभवश अपनी ओर आकर्षित करने हेतु अपने गुणों का अत्युक्तिपूर्वक बखान करना, (8) गृहस्थ से स्वादुभोजन लेने हेतु दीनता दिखलाना, (6) उदरपोषणासक्त बनकर मुखमांगलिकता करना, (10) अत्र, पान और अन्य वस्त्रादि आवश्यकताओं के लिए सेवक की तरह दाता के अनुरूप प्रिय-मधुर बोलना। आचारभ्रष्ट के विशेषण-ऐसे आचारभ्रष्ट साधक को प्रस्तुत गाथाओं में निर्ग्रन्थत्त्व (नग्नत्त्व) से दूर, श्रमणत्व से दूर, आचार्य या आर्य गुणों का शतांश, पाशस्थ या पार्श्वस्थ, कुशील एवं निःसार कहा गया है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 407 से 410 सुशील धीर साधक के लिए 5 निर्देश-(१) जलस्नान में कर्मबन्ध जानकर उसका परित्याग करे, (2) प्रासुक (विकट) जल से संसार से विमुक्तिपर्यन्त जीवन निर्वाह करे, (3) बीज, कंद आदि अशस्त्रपरिणत सचित्त वनस्पति का उपभोग न करे, (4) स्नान, अभ्यंगन, उद्वर्तन आदि शरीरविभूषाक्रियाओं से विरत हो, (5) स्त्रीसंसर्ग आदि से भी दूर रहे। कठिन शम्बों की व्याख्या-धम्मल विणिहाय भुजे=दो अर्थ फलित होते हैं-(१) भिक्षादोषरहित धर्मप्राप्त आहार का संग्रह करके खाता है, (2) धर्मलब्ध आहार को छोड़कर अन्य स्वादिष्ट (अशुद्ध) आहार-सेवन करता है। लसयतीव वत्थं =विभूषार्थ वस्त्र को छोटा या बड़ा (विकृत) करता है। आदिभोक्खंदो अर्थ-(१) आदि संसार, उससे मोक्ष तक, (2) धर्मकारणों का आदिभूत-शरीर, उसकी विमुक्ति (छूटने) तक।" सशील साधक के लिए आचार विचार के विवेकसूत्र 407. अण्णापिडेणऽधियासएज्जा, नो पूयणं तवसा आवहेज्जा। सद्देहि रूवेहिं असज्जमाणे, सन्वेहि काहिं विणीय गेहिं / / 27 // 408. संवाई संगाई अइच्च धोरे, सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे / अखिले अगिद्ध अणिएयचारो, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा // 28 // 406. भारस्स जाता मुणि भुजएज्जा, कंखेज्ज पावस्स विवेग भिक्खू / दुक्खेण पुढे धुयमातिएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा // 26 // 410. अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी, समागमं कंखति अंतगस्स।१२ णिद्धय कम्मण पवंचुवेति, अक्खक्खए या सगडं ति बेमि // 30 // // कुसीलपरिभासियं-सत्तमं अज्झयणं सम्मत्त। 407. सुशील साधु अज्ञातपिण्ड (अपरिचित घरों से लाये हुए भिक्षान्न) से अपना निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा न करे, शब्दों और रूपों में अनासक्त रहता हुआ तथा समस्त काम-भोगों से आसक्ति हटाकर (शुद्ध संयम का पालन करे / ) 408. धीर साधक सर्वसंगों (सभी आसक्तिपूर्ण सम्बन्धों) से अतीत (परे) होकर सभी परीषहोपसगंजनित शारीरिक मानसिक दुःखों को (समभावपूर्वक) सहन करता हुआ (विशुद्ध संयम का तभी पालन कर पाता है जब वह) अखिल (ज्ञान-दर्शन-चारित्र से पूर्ण) हो, अगृद्ध (विषयभोगों में अनासक्त) 10 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 161 से 163 तक का सारांश 11 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 72-73 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 161-162 12 तुलना-"यदि हम्ममाणे फलगावठिी कालोवणीते कखेज्ज कालं" -आचारांगसूत्र सूत्र 1080 232 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कुशील परिभाषित हो, अनियतचारी (अप्रतिबद्धविहारी) और अभयंकर (जो न स्वयं भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करे) तथा जिसकी आत्मा विषय-कषायों से अनाविल (अनाकुल) हो / 406. मुनि पंचमहाव्रतरूप संयम भार की यात्रा (निर्वाह) के लिए आहार करे। भिक्षु अपने (पूर्वकृत) पाप का त्याग करने की आकांक्षा करे / परोषहोपसर्गजनित दुःख (पीड़ा) का स्पर्श होने पर घुत संयम या मोक्ष का ग्रहण (स्मरण अथवा ध्यान) करे / जैसे योद्धा संग्राम के शीर्ष (मोर्चे) पर डटा रहकर शत्रु-योद्धा का दमन करता है, वैसे ही साधु भी कर्मशत्रुओं के साथ युद्ध में डटा रहकर उनका दमन करे। 410. साधु परीषहों और उपसगों से प्रताड़ित (पीड़ित) होता हुआ भी (उन्हें सहन करे।), जैसे लकड़ी का तख्ता दोनों ओर से छीले जाने पर राग-द्वेष नहीं करता, वैसे ही बाह्य और आभ्यन्तर तप से कष्ट पाता हुआ भी साधक राग-द्वेष न करे। वह अन्तक (मृत्यु) के (समाधि-पूर्वक) समागम की प्रतीक्षा (कांक्षा) करे। जैसे अक्ष (गाड़ी की धुरी) टूट जाने पर गाड़ी आगे नहीं चलती, वैसे ही कर्मक्षय कर देने पर जन्म मरण, रोग, शोक आदि प्रपंच की गाड़ी भी आगे नहीं चलती। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- सुशील साधक के लिए आचार-विचार के विवेकसूत्र - प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (407 से 410 तक) में सुशील साधक के लिए आचार-विचार सम्बन्धी 16 विवेकसूत्र प्रस्तुत किये गए हैं-(१) अज्ञातपिण्ड द्वारा निर्वाह करे, (2) तपस्या के साथ पूजा-प्रतिष्ठा की कामना न करे, (3) मनोज-अमनोज्ञ शब्दों एवं रूपों पर रागद्वेष से संसक्त न हो, (4) इच्छा-मदनरूप समस्त कामों (कामविकारों-मनोज्ञअमनोज्ञ विषयों) के प्रति आसक्ति हटाकर रागद्वेष न करे / (5) सर्वसंगों से दूर रहे, (6) परीषहोपसर्गजनित समस्त दुःखों को समभाव से सहन करे, (7) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से परिपूर्ण हो, (8) विषयभोगों में अनासक्त रहे, (8) अप्रतिबद्धविहारी हो, (6) अभयंकर हो, (10) विषय-कषायों से अनाकुल रहे, (11) संयमयात्रा निराबाध चलाने के लिए ही आहार करे, (12) पूर्वकृत पापों का त्याग करने की इच्छा करे, (13) परीषहोपसर्गजनित दुःख का स्पर्श होने पर संयम या मोक्ष (धुत) में ध्यान (स्मरण) रखे। (14) संग्राम के मोर्चे पर सुभट की तरह कर्मशत्रुका दमन करे, (15) परीषहोपसर्गों से प्रताड़ित साधक उन्हें सहन करे, (16) जैसे लकड़ी के तख्ते को दोनों ओर से छीलने पर वह राग-द्वेष नहीं करता, ही बाह्य और आभ्यन्तर तप से दोनों ओर से कष्ट पाता हुआ भो साधक राग-द्वेष न करे, (17) सहज भाव से समाधिपूर्वक समागम की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करे। (18) धुरी टूट जाने पर गाड़ी आगे नहीं चलतो, वैसे ही कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जन्म, जरा, मत्यु, रोग, शोक आदि प्रपंच की गाड़ी आगे नहीं चलती। निष्कर्ष पूर्वोक्त आचार-विचार युक्त सुशील सर्वथा कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। पाठान्तर और व्याख्या-'सद्देहि स्वेहि ..."विणीय हि' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, सम्वेसु कामेसु णियत्तएज्जा' अर्थ होता है-अन्न और पान में अनासक्त रहे, समस्त कामभोगों पर नियन्त्रण करे। 'अणिए अ चारी' के बदले चूणिसम्भत पाठान्तर है-'ग सिलोगकामी' अर्थात्प्रशंसाकांक्षी न हो। ॥कशील परिभाषित सप्तम अध्ययन समाप्त / / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य-अष्टम अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० ध्रु०) के अष्टम अध्ययन का नाम 'वीर्य' है। 0 वीर्य शब्द शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम, तेज, दीप्ति, अन्तरंग शक्ति, आत्मबल, शरीरस्थित एक धातु शुक्र आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' नियुक्तिकार ने शक्ति अर्थ में द्रव्य वीर्य के मुख्य दो प्रकार बताए हैं-सचित्त द्रव्य वीर्य और अचित्तद्रव्य वीर्य / इसी तरह क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य और भाववीर्य भी बताए हैं। प्रस्तुत अध्ययन में भाववीर्य का निरूपण है / वीर्य शक्तियुक्त जीव को विविध वीर्य सम्बन्धी लब्धियां भाववीर्य हैं। वह मुख्यतया 5 प्रकार का है-मनोवीर्य, वाग्वीयं, कायवीर्य, इन्द्रियवीर्य और आध्यात्मिकवीर्य / जीव अपनी योगशक्ति द्वारा मनोयोग्य पुद्गलों को मन के रूप से, भाषायोग्य पुद्गलों को भाषा के रूप में, काययोग्य पुद्गलों को काया के रूप में और श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गलों को श्वासोच्छवास के रूप में परिणत करता है तब वह मनोवीर्य, वाग्वीर्य, कायवीर्य तथा इन्द्रियवीर्य कहलाता है। ये चारों ही वीर्य सम्भववीर्य और सम्भाव्यवीयं के रूप में दो-दो प्रकार के होते हैं। / आध्यात्मिक वीर्य आत्मा की आन्तरिक शक्ति से उत्पत्र सात्विकबल है। आध्यात्मिक वीर्य अनेक प्रकार का होता है / 'वीर्य प्रवाद' नामक पूर्व में उसके अगणित प्रकार बताए गए हैं। नियुक्ति कार ने आध्यात्मिक वीर्य में मुख्यतया दस प्रकार बताए हैं0 (1) उद्यम (ज्ञानोपार्जन तपश्चरण आदि में आन्तरिक उत्साह), (2) धृति (संयम और चित्त में स्थैर्य), (3) धीरत्व (परीषहों और उपसर्गों के समय अविचलता), (4) शौण्डीर्य (त्याग की उत्साहपूर्ण उच्चकोटि की भावना), (5) क्षमाबल, (6) गाम्भीर्य (अदभूत साहसिक या चामत्कारिक कार्य करके भी अहंकार न आना, या परीषहोपसर्गों से न दबना), (7) उपयोगबल (निराकार उपयोग (दर्शन), एवं साकार उपयोग (ज्ञान) रखकर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप स्वविषयक निश्चय करना, (8) योगबल (मन, वचन और काया से व्यापार करना) (8) तपोबल (बारह प्रकार के तप में पराक्रम करना, खेदरहित तथा उत्साहपूर्वक तप करना) और, (10) संयम में पराक्रम (17 प्रकार के संयम के पालन में तथा अपने संयम को निर्दोष रखने में पराक्रम करना। 1 पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 814 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रातांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य - भाववीर्य के अन्तर्गत आने वाले उपर्युक्त सभी वीर्य तीन कोटि के होते हैं-पण्डितवीर्य, बाल पण्डितवीर्य और बालवीर्य / पण्डितवीर्य संयम में पराक्रमी निमल साधुतासम्पन्न सर्वविदित साधुओं का होता हैं, बालपण्डितवीर्य व्रतधारी संयमासंयमी देशविरतिश्रावक का होता है, और बालवीर्य असंयमपरायण हिंसा आदि से अविरत या व्रतभंग करने वाले का होता है। शास्त्रकार ने अकर्मवीर्य और सकर्मवीर्य इन दो कोटियों में समग्र भाव वीर्य को समाविष्ट किया है। अकर्मवीर्य को कर्मक्षयजनित पण्डितवीर्य और सकर्मवीर्य को कर्मोदयनिष्पन्न बालवीर्य कहा गया हैं / अकर्मवीर्य का 'अकम' शब्द अप्रमाद एवं संयम का तथा सकर्मवीर्य का 'कर्म' शब्द प्रमाद एवं असंयम का सूचक है। प्रस्तुत अध्ययन में सकर्मवीर्य का परिचय देते हुए कहा गया है कि जो लोग प्राणघातक शस्त्रास्त्रविद्या, शास्त्र या मंत्र सीखते हैं, मायावी हैं, कामभोगासक्त एवं असंयमी हैं, वे संसारपरिभ्रमण करते हैं, दुःखी होते हैं, इसी प्रकार 'अकर्मवीर्य' का विवेचन करते। हुए कहा गया है कि पण्डित अपने वीर्य का सदुपयोग करते हैं, संयम में लगाते हैं। अध्यात्म बल (धर्मध्यान आदि) से समस्त पापप्रवृत्तियों, मन और इन्द्रिय को, दुष्ट अध्यवसायों को तथा भाषा के दोषों को रोक (संवरकर) लेते हैं / संयमप्रधान पण्डितवीर्य ज्यों-ज्यों बढ़ता है, त्यों-त्यों संयम बढ़ता है, पूर्णसंयमी बनने पर उससे निर्वाणरूप शाश्वत सुख मिलता है / अध्ययन के अन्त में पण्डितवीर्य सम्पन्न साधक की तपस्या, भाषा, ध्यान एवं चर्या आदि का निर्देश किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य साधक को 'सकर्मवीर्य' से हटाकर 'अकर्मवीर्य' की ओर मोड़ना है। 0 उद्देशक रहित इस अध्ययन में 26 (चूणि के अनुसार 27) गाथाएँ हैं। 0 यह अध्ययन सूत्रगाथा 411 से प्रारम्भ होकर 436 पर समाप्त होता है। 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा०६१ से 17 तक (ख) सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 165 से 167 तक का सारांश 3 (क) सूयगडंगसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ०७४ से 78 तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा०१ प०१४६ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरियं : अटुमं अज्झयणं वीर्य : अष्टम अध्ययन वीय का स्वरूप और प्रकार-- 411 दुहा चेयं सुथक्खायं, वीरियं ति पवुच्चति / कि नु वीरस्स वीरत्त, केण वोरो ति बुच्चति // 1 / / 412. कम्ममेगे पवेदेति, अम्मं वा वि सुव्वता / एतेहि दोहि ठाणेहि, जेहिं दिस्संति मच्चिया // 2 // 413. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं। तब्भावादेसतो वा वि, बालं पंडितमेव वा / / 3 // 411. यह जो वीर्य कहलाता है, वह (तीर्थकर आदि ने) थुत (शास्त्र) में दो प्रकार का कहा है। (प्रश्न होता है-) वीर पुरुष का वीरत्व क्या है ? और वह किस कारण से वीर कहलाता है ? 412. (श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं-) हे सुब्रतो ! कई लोग कर्म को वीर्य कहते हैं अथवा कई अकर्म को वीर्य कहते हैं / मर्त्यलोक के प्राणी इन्हीं दो भेदों (स्थानों) में देखे जाते हैं। 413. (तीर्थंकर आदि ने) प्रमाद को कर्म कहा है, तथा इसके विपरीत अप्रमाद को अकर्म (कहा है)। इन दोनों (कर्म अथवा प्रमाद तथा अकर्म) की मत्ता (अस्तित्व) की अपेक्षा से बालवीर्य अथवा पण्डितवीर्य (का व्यवहार) होता है। विवेचन-तीर्थकरोक्त वीर्य : स्वरूप और प्रकार-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रथम गाथा में श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया गया है-भगवान् महावीर द्वारा उक्त दो प्रकार के वीर्य का स्वरूप (वीर पुरुष का वीरत्व) क्या है, वह किन कारणों (किन-किन वीर्यों) से वीर कहलाता है ? द्वितीय गाथा में कहा गया है-एकान्त कर्म प्रयत्न से निष्पादित और अकर्म को वीर्य बताने वाले अन्य लोगों का मत प्रदर्शित करके, इन्हीं दो (कर्म और अकर्म) में से तीर्थंकरोक्त दृष्टि से करण में कार्य का उपचार करके औदयिक भावनिष्पन्न अष्टविध कर्मजन्य को सकर्मवीर्य तथा जो कर्मोदय निष्पन्न न होकर जीव का वीर्यान्तरायजनित सहज वीर्य हो, उसे अकर्मवीर्य बताया है। सारे संसार के जीवों का वीर्य इन्हीं दो भेदो में विभक्त है। इसके पश्चात् ततीय गाथा में तीर्थंकरोक्त द्विविध वीर्य को विशेष स्पष्ट करने की Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 सूत्रकृतांग- अष्टम अध्ययन-वीर्य दृष्टि से दोनों की शास्त्रीय संज्ञा बता दी है। कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा गया है, अर्थात प्रमादजनित कर्मों से युक्त जीव का कार्य बालवीय और अप्रमाद जनित अकर्मयुक्त जीव का कार्य पण्डितवीर्य है।' पाठान्तर और व्याख्या-कम्पमेगे पति अकम्म वावि सुव्वता' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है'कम्ममेवं पभासंति अकम्मं वावि सुब्बता / ' अर्थात् - इस प्रकार सुव्रत तीर्थंकर कर्म को वीर्य कहते हैं और अकर्म को भी। दोनों वीर्यो का आधार : प्रमाद और अप्रमाद--जिसके कारण प्राणि वर्ग अपना आत्मभान भूलकर उत्तम अनुष्ठान से रहित हो जाता है, उसे 'प्रमाद' कहते हैं। वह पांच प्रकार का है-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा / तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्मबन्धन का एक विशिष्ट कारण बताया है। प्रमाद के कारण जीव आत्मभान रहित होकर कर्म बाँधता है, वह अपनी सारी शक्ति (वीर्य) धर्म-विषति, अधर्म या पापयुक्त कार्यों में लगाकर कर्मबन्धन करता रहता है। इसीलिए प्रमादयुक्त सकर्मा जीव का जो भी क्रियानुष्ठान होता है, उसे बालवीर्य कहा है। इसके विपरीत प्रमादरहित पुरुष के कार्य के पीछे मतत आत्मभान, जागृति एवं विवेक होने के कारण उसके कार्य में कर्मबन्धन नहीं होता, वह अपनी सारी शक्ति अप्रमत्त होकर कर्मक्षा करने, हिंसादि आस्रवों तथा कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहने एवं स्व-भावरमण में लगाता है। इसलिए ऐसे अप्रमत्त एवं अकर्मा साधक के पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है। निष्कर्ष यह है कि बालवीर्य और पण्डितवीर्य का मुख्य आधार क्रमशः प्रमाद और अप्रमाद है। बालजनों का सकर्मबीर्य : परिचय और परिणाम 414. सत्थमेगे सुसिक्खंति, अतिवायाय पाणिणं / एगे मंते अहिज्जति, पाणभूयत्रिहेडिणो // 4 // 415. माइणो कटु मायाओ, कामभोगे समारभे। हंता छेत्ता पत्तित्ता, आयसायाणुगामिणो / / 5 / / 416. मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो।। आरतो परतो यावि, दुहा वि य असंजता // 6 // 417. वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहि रज्जतो। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो // 7 // 418. संपरागं णियच्छति, अत्तदुक्कडकारिणो। रोग-दोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बहु॥८॥ 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 167-168 का सारांश 2 सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ०७४ 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 168 का सारांश Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 414 से 416 347 416. एतं सकम्मविरियं, बालाणं तु पवेदितं / एतो अकम्मविरियं पंडियाणं सुणेह मे // 6 // 414. कई लोग प्राणियों का वध करने के लिए तलवार आदि शस्त्र (चलाना) अथवा धनुर्वेद आदि शास्त्र सीखते हैं। कई अज्ञजीव प्राणियों और भूतों के घातक (कष्टदायक) मंत्रों को पढ़ते हैं। 415. माया करने वाले व्यक्ति माया (छल-कपट) करके कामभोगो में प्रवृत्त होते हैं / अपने सुख के पीछे अन्धी दौड़ लगाने वाले वे लोग प्राणियों को मारते, काटते और चीरते हैं। 416. असंयमी व्यक्ति मन से, वचन से और काया से अशक्त होने पर भी (लौकिक शास्त्रों की उत्रित मानकर) इस लोक और परलोक दोनों के लिए दोनों तरह से (स्वयं प्राणिवध करके और दूसरों से कराके) जीवहिंसा करते हैं / 417. प्राणिघातक, वैरी (शत्रु) बनकर अनेक जन्मों के लिए (जीवों से) वैर बाँध लेता (करता) है, फिर वह नये वैर में संलग्न हो जाता है / (वास्तव में) जीवहिंसा (आरम्भ) पाप की परम्परा चलाती है। (क्योकि हिंसादिजनित) पापकार्य अन्त (विपाक-फलभोगकाल) में अनेक दुःखों का स्पर्श कराते हैं। ___418. स्वयं दुष्कृत (पाप) करने वाले जीव साम्परायिक कर्म बाँधते हैं, तथा वे अज्ञानी जीव राग और द्वेष का आश्रय लेकर बहुत पाप करते हैं। 416. (पूर्वार्द्ध) यह अज्ञानी जनों का सकर्मवीर्य (बालवीर्य) कहा गया है / ' विवेचन-बालजनों का सकर्मवीयं : परिचय और परिणाम-इन षट्सूत्रगाथाओं में सकर्मवीर्य का प्रयोग प्रमादी-अज्ञजनों द्वारा कैसे-कैसे और किन-किन प्रयोजनों से किया जाता है ? इसका परिचय और इसका दुष्परिणाम प्रस्तुत किया गया है / / ये सकर्मवीर्य कैसे ?--पूर्वोक्त गाथाओं में बताए हुए जितने भी पराक्रम हैं, वे सभी सकर्मवीर्य या बालवीर्य इसलिए हैं, कि ये प्राणिघातक हैं, प्राणिपीड़ादायक हैं, कषायवर्द्धक हैं, वैरपरम्परावद्धंक हैं, रागद्वेषवर्द्धक हैं, पाप कर्मजनक हैं। 'सत्य' शब्द के विभिन्न आशय--वृत्तिकार ने 'सत्थं' शब्द के दो संस्कृत रूपान्तर किये हैं-शस्त्र और शास्त्र / तलवार आदि शस्त्र तो प्राणिघातक हैं ही, निम्नोक्त शास्त्र भी प्राणिविघातक हैं-(१) धनर्वेद (जिसमें जीव मारने का लक्ष्यवेध किया जाता है), (2) आयुर्वेद-जिसमें कतिपय रोगों का निवारण प्राणियों के रक्त, चर्वी, हड्डी, मांस एवं रस आदि से किया जाता है। (3) दण्ड-नीतिशास्त्र (जिसमें अपराधी को शूली या फांसी पर चढ़ाने की विधि होती है, (4) अर्थशास्त्र (कौटिल्य)-जिसमें धन लेने के लिए दूसरों को ठगने का उपाय बताया गया हो, (5) कामशास्त्र (जिसमें मैथुन प्रवृत्ति सम्बन्धी अशुभ विचार है)। इन सभी शास्त्रों का आश्रय लेकर अज्ञजन विविध पापकर्मों में प्रवृत्त होकर पापकर्म का बन्ध करते हैं। 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 168-166 का सारांश Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-बोर्य प्राणिविघातक मंत्र-जो अथर्ववेदीय मंत्र अश्वमेध, नरमेध, सर्वमेध आदि जीववधप्रेरक यज्ञों के निमित्त पढ़े जाते हैं, अथवा जो प्राणियों के मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के लिए पढ़े जाते हैं, वे सब मंत्र प्राणिविघातक हैं। पाठान्तर एवं व्याख्यान्तर- 'काममोगे समारभे' के बदले पाठान्तर है-आरंभाय तिउट्टइ---अर्थात्बहुत-से भोगार्थी जीव तीनों (मन, वचन और काया) से आरम्भ में या आरम्भाथं प्रवृत्त होते हैं। 'संपरायं णियच्छति' वृत्तिकारसम्मत इस पाठ और व्याख्या के बदले चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर और व्याख्यान्तरसंपरागं णिय (गच्छति- सम्पराग यानी संसार को प्राप्त करते हैं। 'अत्तदुक्कडकारिणो'-वृत्तिकारसम्मत इस पाठ और व्याख्या के बदले चाणकारसम्मत पाठान्तर एवं व्याख्यान्तर--'अत्ता दुक्कडकारिणो'= आत्तं अर्थात् विषय-कषाय से आत्तं (पीड़ित) होकर दुष्कृत (पाप) कर्म करने वाले / ' पण्डित (अकमी) वीर्य-साधना के प्रेरणासूत्र 420. दविए बधणुम्मुक्के, सव्वतो छिण्णबंधणे / पणोल्ल पावगं कम्म, सल्लं कंतति अंतसो // 10 // 421. णेयाउयं सुयक्खातं, उवादाय समोहते। भुज्जो भुज्जो दुहावासं, असुभत्तं तहा तहा // 11 // 422. ठाणो विविहठाणाणि, चइस्संति न संसओ। अणितिए अयं वासे, णायएहि य सुहीहि य // 12 / / 423. एवमायाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं / / 13 / / 424. सहसम्मुइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा। समुट्ठिते अणगारे, पच्चक्खायपावए // 14 // 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति में उद्धृत अन्य ग्रन्थों के प्रमाण - (क) मुष्टिनाऽऽच्छादेयल्लक्ष्यं मुष्टो दृष्टि निवेशयेत् / हतं लक्ष्य विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते / / (ख) षट्शतानि नियुन्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्यवचनान्नयूनानि पशुभिस्त्रिभिः // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 166 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) 175 -सूत्र शी० वृत्ति पनांक 168 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया 420 से 431 346 425. जं किचुववकम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो / तस्सेव अंतरा खिष्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिते // 15 // 426. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे / एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे / / 16 / / 427. साहरे हत्थ-पादे य मणं सदियाणि य / पावग च परीणाम, भासादोसं च तारिसं // 17 // 428. अणु माणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए। सातागारवणिहुते, उवसंतेऽणिहे चरे // 18 // 426. पाणे य णाइवातेज्जा, अदिण्णं पि य गादिए। सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमतो // 16 // 430. अतिक्कम ति वायाए, मगसा वि ण पत्थए / सब्बतो संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे // 20 // 431. कडं च कज्जमाणं च, आगमेस्सं च पावगं / सव्वं तं णाणुजाणंति, आतगुत्ता जिइंदिया / / 21 // 416 (उत्तरार्द्ध). अब यहाँ से पण्डितों (उत्तम विज्ञ साधुओं के अकर्मवीर्य के सम्बन्ध में मुझसे सुनो। . 420. पण्डित (अकर्म) वीर्य पुरुष द्रव्य (भव्य-मुक्तिगमन योग्य अथवा द्रव्यभूत-अकषायी) होता है, कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त होता है / जो सब प्रकार से कषायात्मक बन्धन काट चुका है, तथा वह पापकर्मों (पापकर्म के कारणभूत आश्रवों) को हटाकर अपने शल्य-तुल्य शेष कर्मों को भी सर्वथा काट देता है। 421. (पण्डितवीर्य) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष के प्रति ले जाने वाला है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। (पण्डितवीर्य सम्पन्न साधक) इसे ग्रहण करके मोक्ष (ध्यान, स्वाध्याय आदि मोक्ष साधक अनुष्ठानों) के लिए सम्यक् उद्यम करता है / (पण्डित साधक धर्मध्यानारोहण के लिए यों अनुप्रेक्षा करे-) (बालवीर्य अतीत और भविष्य के अनन्त भवों तक) बार-बार दुःख का आवास है / बालवीर्यवान' ज्योंज्यों नरकादि दुःखस्थानों में भटकता है, त्यों-त्यों उसका अध्यवसाय अशुद्ध होते जाने से अशुभ कर्म ही बढ़ता है। 422. ... ...निःसन्देह उच्च स्थानों (देवलोक में इन्द्र, सामानिक, बायस्त्रिश आदि तथा मनुष्यलोक में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि पदों) पर स्थित सभी जीव एक दिन (आयुष्य क्षय होते ही) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य अपने-अपने (विविध) स्थानों को छोड़ दंगे। ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों के साथ जो संवास है, वह भी अनियत-अनित्य है।" 423. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से विचार करके मेधावी साधक इन सबके प्रति अपनी गृद्धि (आसक्ति) हटा दे तथा समस्त (अन्य) धर्मों से अदूषित (अकोपित) आर्यो (तीर्थंकरों) के इस सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रात्मक मोक्षमार्ग को स्वीकार (आश्रय) करे / 424. सन्मति (निर्मल बुद्धि) से धर्म के सार (परमार्थतत्त्व) को जानकर अथवा सुनकर धर्म के सार भूत चारित्र के या आत्मा के ज्ञानादि निज गुणों के उपार्जन में उद्यत अनगार (पण्डितवीयं-सम्पन्न व कर्मक्षय के लिए कटिबद्ध साधक) पाप (-युक्त अनुष्ठान) का त्याग कर देता है / 42. पण्डित (वीर्य सम्पन्न) साधु यदि किसी प्रकार अपनी आयु का उपक्रम (क्षय-कारण) जाने तो उस उपक्रमकाल के अन्दर (पहले से) ही शीघ्र संलेखना रूप या भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण आदि रूप पण्डितमरण की शिक्षा का प्रशिक्षण ले-ग्रहण करे। 426. जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में छिपा लेता है, इसी प्रकार से मेधावी (मर्यादावान् पण्डित) पापों (पापरूप कार्यों) को अध्यात्म (सम्यग् धर्मध्यानादि की) भावना से समेट ले (संकुचित कर दे। 427. पादपोपगमन, इंगितमरण या भक्त परिज्ञादि रूप अनशन काल या अन्तकाल में पण्डित साधक कछुए की तरह अपने हाथ-पैरों को समेट ले (समस्त व्यापारों से रोक ले), मन को अकुशल (बुरे) संकल्पों से रोके, इन्द्रियों को (अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में रागद्वेष छोड़कर) संकुचित कर ले। (इहलोक-परलोक में सुख प्राप्ति को कामना रूप) पापमय परिणाम का तथा वैसे (पापरूप) भाषा-दोष का त्याग करे। 428. पण्डित साधक थोड़ा-सा भी अभिमान और माया न करे। मान और माया का अनिष्ट फल जानकर सद्-असद्-विवेकी साधक साता (सुख सुविधाप्राप्ति के) गौरव (अहंकार) में उद्यत न हो तथा उपशान्त एवं निःस्पृह अथवा माया रहित (अनिह) होकर विचरण करे / 426. वह प्राणियों का घात न करे तथा अदत्त (बिना दिया हुआ पदार्थ) भी ग्रहण न करे एवं माया-मृषावाद न करे, यही जितेन्द्रिय (वश्य) साधक का धर्म है। 430. प्राणियों के प्राणों का अतिक्रम (पीड़न) (काया से करना तो दूर रहा) वाणी से भी न करे, तथा मन से भी न चाहे तथा बाहर और भीतर सब ओर से संवत (गुप्त) होकर रहे, एवं इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु आदान (मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादि रूप संयम) की तत्परता के साथ समाराधना करे। सूत्रगाथा 421 के उत्तरार्द्ध एवं 422 में धर्मध्यानारोहण में अबलम्बन के लिए क्रमशः संसार (संसारदुःख स्वरूप की) अनुप्रेक्षा, और अनित्यानुप्रेक्षा विहित है / 422 वी गाथा में पठित दो 'य'कार से अशरण आदि शेष अनुप्रक्षाओं का आलम्बन सूचित किया गया है / -सूत्र० कृ० शी वृत्ति पत्रांक 170-171 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२.से४३१ 351 431. (पाप से) आत्मा के गोप्ता (रक्षक) जितेन्द्रिय साधक किसी के द्वारा (अतीत में) किया हुआ, (वर्तमान में) किया जाता हुआ और भविष्य में किया जाने वाला जो पाप है, उस सबका (मनबचन काया से) अनुमोदन-समर्थन नहीं करते। विवेचन-पण्डित (अकर्म) वीर्य साधना के प्रेरणा सूत्र-प्रस्तुत 13 सूत्रगाथाओं (सू० गा० 416 से 431 तक) में पण्डितवीर्य की साधना के लिए 26 प्रेरणासून फलित होते हैं--(१) वह भव्य (मोक्षगमन योग्य) हो, (2) अल्पकषायी हो, (3) कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त हो, (4) पापकर्म के कारणभूत आश्रवों को हटाकर और कषायात्मक बन्धनों को काटकर शल्यवत् शेष कर्मों को काटने के लिए उद्यत रहे / (5) मोक्ष की ओर ले जाने वाले (नेता) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए पुरुषार्थ करे, (6) ध्यान, स्वाध्याय आदि मोक्षसाधक अनुष्ठानों में सम्यक् उद्यम करे, (7) धर्मध्यानारोहण के लिए बालवीर्य की दुःख-प्रदता एवं अशुभ कर्मबन्धकारणता का तथा सुगतियों में भी उच्च स्थानों एवं परिजनों के साथ संवास की अनित्यता का अनुप्रेक्षण करे, (8) इस प्रकार के चिन्तनपूर्वक इन सबके प्रति अपनी आसक्ति या ममत्वबुद्धि हटा दे, (9) सर्वधर्ममान्य इस आर्य (रत्नत्रयात्मक मोक्ष ) मार्ग को स्वीकार करे, (10) न बुद्धि से धर्म के सार को जान-सुनकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में उद्यम करे, (11) पापयुक्त अनुष्ठान का त्याग करे, (12) अपनी आयू का उपक्रम किसी प्रकार से जान जाए तो यथाशीघ्र संलेखना रूप या पण्डित मरणरूप शिक्षा ग्रहण करे, (13) कछुआ जैसे अंगों का संकोच कर लेता है, वैसे ही पण्डितसाधक पापरूप कार्यों को सम्यक् धर्मध्यानादि की भावना से संकुचित कर ले, (14) अनशनकाल में समस्त व्यापारों से अपने हाथ-पैरों को, अकुशल संकल्पों से मन को रोक ले तथा इन्द्रियों को अनुकल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष छोड़कर संकुचित कर ले, (15) पापरूप परिणाम वाली दुष्कामनाओं का तथा पापरूप भाषादोष का त्याग करे, (16) लेशमात्र भी अभिमान और माया न करे; (17) इनके अनिष्ट फल को जानकर सुखप्राप्ति के गौरव में उद्यत न हो, (18) उपशान्त तथा निःस्पह या मायारहित होकर विचरण करे, (16) वह प्राणिहिंसा न करे, (20) अदत्त ग्रहण न करे; (21) मायासहित असत्य न बोले, (22) प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़न काया से ही नहीं, वचन और मन से भी न करे, (23) बाहर और अन्दर से संवृत (गुप्त) होकर रहे, (24) इन्द्रिय-दमन करे, (25) मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादिरूप संयम की आराधना करे; (26) पाप से आत्मा को बचाए, (27) जितेन्द्रिय रहे और (28) किसी के द्वारा अतीत में किये हुए वर्तमान में किया जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का मन-वचन-काया से अनुमोदन भी न करे। कठिन शब्दों की व्याख्या-दविए =वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं--(१) द्रव्य=भव्य (मुक्ति ) व्यभूत=अकषायी, और (3) वीतरागवत् अल्पकषायी वीतराग। यद्यपि छठे सातवें गुणस्थान (सरागधर्म) में स्थित साधक सर्वथा कषायरहित नहीं होता, तथापि अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने से तथा संज्वलन कषाय का भी तीन उदय न होने से वह अकषायी वीतराग के समान ही होता है। नेयाउयं वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं-नेता=सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग अथवा श्रुतचारित्ररूप धर्म, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला है। सम्य 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 170 से 173 तक का सारांश Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 सूत्रतांगमष्टम अध्ययन-बोयं धम्ममकोवियं इसके दो अर्थ वत्तिकार ने किये हैं--(१) सभी कुतीथिक धर्मों द्वारा अकोपित-अदुषित (2) सभी धर्मों-अनुष्ठानरूप स्वभावों से जो अगोपित-प्रकट है। सिक्खं सिक्खेज्ज=शिक्षा से यथावत् मरणविधि जानकर आसेवनशिक्षा से उसका अभ्यास करे। पाटातर और ध्याख्या-'अणुमाणं.."पंडिए' (गा० 428) के बदले पाठान्तर है-'अइमाणं च........ परिणाय पण्डिए', अर्थ होता है- अतिमान और अतिमाया; ये दोनों दुःखावह होते हैं, यह जानकर पण्डितसाधक इनका परित्याग करे / आशय यह है--सरागावस्था में कदाचित् मान या माया का उदय हो जाए, तो भी उस उदयप्राप्त मान या माया का विफलीकरण कर दे। इसी.पंक्ति के स्थान में दो पाठान्तर मिलते हैं- (1) 'सुयं मे इहमेगेसि एवं बीरस्स बीरियं तथा (2) 'आयतर्से सुमादाय एवं वीरस्स बोरिय' / प्रथम पाठान्तर का भावार्थ-जिस वल से संग्राम में शत्रुसेना पर विजय प्राप्त की जाती है, वह परमार्थ रूप से वीर्य नहीं है, अपितु जिस वल से काम-क्रोधादि आन्तरिक रिपुओं पर विजय प्राप्त की जाती है, वही वास्तव में नीर-महापुरुष का वीर्य हैं, यह वचन मैंने इस मनुष्यजन्म में या संसार में तीर्थंकरों से सुना है। द्वितीय पाठान्तर का भावार्थ-आयत यानी मोक्ष / आयतार्थ =मोक्षरूप अर्थ या मोक्ष रूप प्रयोजन साधक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग / उसको सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके जो धृतिबल से काम-क्रोधादि पर विजय पाने के लिए पराक्रम करता है, यही वीर का वीर्य हैं। अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम ही बालवीर्य और पण्डित्तवीर्य 432. जे याऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्मत्तदंसिणो। ___ असुद्ध तेसि परक्कतं, सफलं होइ सव्वसो // 22 // 433 जे य बुद्धा महाभागा, बीरा सम्मत्तदसिणो। सुद्ध तेसि परक्कंतं, अफलं होति सव्वसो // 23 // 434. तेसि पि तवोऽसुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जं नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेदए // 24 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 170-171 (ख) सिद्धान्त सूत्र -"किसका वोत्तजे सरामधम्ममि कोइ अकसायी। संते वि जो कसाए विगिण्टइ, लोऽवि ततुल्लो // " --सू० क. वृति प० 170 में उधत 10 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 172 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 176 11 माथा संख्या 18 से आगे 16 वीं गाया चणि में अधिक है, वह इस प्रकार है.... "उड्ढमधे तिरिय दिसासु जे पाणा तस-थावरा / सव्वत्थ विरति कुज्जा, संतिनिव्वाणमाहितं // " यह गाथा इसी सूत्र के तृतीय अध्ययन (सू० 244) में तथा 11 वें अध्ययन (सू० 507) में मिलती है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा 432 से 434 353 432. जो व्यक्ति अबुद्ध (धर्म के वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ) हैं, किन्तु जगत में महाभाग (महापूज्य या लोकविश्रुत) (माने जाते) हैं, एवं शत्रुसेना (या प्रतिवादी) को जीतने में वीर (वाग्वीर) हैं, तथा असम्यक्त्वदर्शी (मिथ्यादृष्टि) हैं, उन (सम्यक्तत्त्व परिज्ञानरहित) लोगों का तप, दान, अध्ययन, यमनियम आदि में किया गया पराक्रम (वीर्य) अशुद्ध है, उनका सबका सब पराक्रम कर्मबन्धरूप फलयुक्त होता है। 433. जो व्यक्ति पदार्थ के सच्चे स्वरूप के ज्ञाता (बुद्ध। हैं. महाभाग (महापूज्य) हैं, कर्मविदारण करने में सहिष्णु या ज्ञानादि गुणों से विराजित (वीर) हैं तथा सम्यक्त्वदर्शी (सम्यग्दृष्टि-परमार्थतत्त्वज्ञ) हैं उनका तप, अध्ययन, यम, नियम आदि में समस्त पराक्रम शुद्ध और सर्वथा कर्मबन्धरूप फल से रहित (निरनुबन्ध) (सिर्फ कर्मक्षय के लिए) होता है। 434. जो महाकुलोत्पन्न व्यक्ति प्रवजित होकर पूजा-सत्कार के लिये तप करते हैं, उनका तप (रूप पराक्रम) भी शुद्ध नहीं है। जिस तप को अन्य (दानादि में श्रद्धा रखने या श्राद्ध-श्रावक आदि) व्यक्ति न जाने, (इस प्रकार से गुप्त तप आत्मार्थो को करना चाहिए।) और न ही (अपने मुख से) अपनी प्रशंसा करनी चाहिए।१२।। विवेचन-अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम हो बालवीर्य और पण्डितबीर्य-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में शास्त्रकार अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम के आधार पर बालवीर्य और पण्डितवीर्य का अन्तर समझाते हैं। गाथाओं पर से भगवान महावीर की त्रिविध शूद्धि की स्पष्ट दृष्टि परिलक्षित होती है-(१) साधन भी शुद्ध हो, (2) साध्य भी शुद्ध हो, (3) साधक भी शुद्ध हो / साधक चाहे जितना प्रसिद्ध हो; लोक-पूजनीय हो, परन्तु यदि उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है, वह परमार्थ तत्त्व से अनभिज्ञ है तो वह अशुद्ध है। उसके द्वारा तप, दान, अध्ययन, यम, नियम आदि शुद्ध कहलाने वाले साधनों के लिये किया जाने वाला पराक्रम, भले ही वह मोक्ष रूप शुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर किया गया हो, अशुद्ध ही है, वह कर्मबन्धन से मोक्ष दिलाने वाला न होकर कर्मबन्ध रूप (संसार, फल का दायक होगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति परमार्थ तत्त्व का ज्ञाता (प्रबुद्ध) है, लोकप्रसिद्ध पूजनीय भी है, सम्यग्दष्टि है, वह शुद्ध है, उसके द्वारा मोक्षरूप शुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर कर्मक्षयहेतु से तप, अध्ययन, यम नियमादि शुद्ध साधनों के विषय में किया जाने वाला पराक्रम शुद्ध है, वह कर्मबन्धरूप फल (ससार) का नाशक एवं मोक्षदायक होगा / अशुद्ध पराक्रम वालवीर्य का और शुद्ध पराक्रम पण्डितबीर्य का द्योतक है। तीसरी गाथा (सू० गा० 434) में भी अशुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर महाकुलीन प्रवजित साधक द्वारा तपस्यारूप शुद्ध साधन के लिए किया जाने वाला पराक्रम अशुद्ध बताया गया है, क्योंकि जो तपस्या मोक्षरूप साध्य की उपेक्षा करके केवल इहलौकिक-पारलौकिक सुखाकांक्षा, स्वार्थसिद्धि, प्रशंसा, प्रसिद्धि या पूजा आदि को लक्ष्य में रखकर की जाति है, उस तपस्वी का वह पराक्रम अशुद्ध, कर्मबन्धकारक, संसार-फलदायक होता है, वह कर्मनिर्जरा (कर्मक्षय) रूप मोक्ष नहीं दिलाता / दशवैकालिक सूत्र में इहलौकिक-पार 12 चूणि में इसके आगे एक गाथा अधिक मिलती है "तेसि तु तवो सुद्धो निक्खंता जे महाकुला / अवमाणिते परेण तु ण सिलोगं वयंति ते.".-अर्थ स्पष्ट , 13 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 पर से Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य लौकिक कामना, एवं कीति आदि की लालसा से तपश्चरण का निषेध है, सिर्फ निर्जरार्थ (कर्मक्षयार्थ) तप का विधान है।" अबुद्धा-इसकी दो व्याख्याएँ वत्तिकार ने की हैं-(१) जो व्यक्ति अबुद्ध है अर्थात्-धर्म के परमार्थ से अनभिज्ञ हैं, वे व्याकरणशास्त्र, शुष्कतर्क आदि के ज्ञान से बड़े अहंकारी बनकर अपने आपको पण्डित मानते हैं, किन्तु उन्हें यथार्थ वस्तुतत्व का बोध न होने के कारण अबुद्ध हैं। (2) अथवा बालवीर्यवान् व्यक्तियों को अबुद्ध कहते हैं।१५ बालजनों का परात्रम- अनेक शास्त्रों के पण्डित एवं त्यागादि गुणों के कारण लोकपूज्य एवं वाणीवीर होते हुए सम्यक्तत्त्वज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि बालजन ही हैं। उनके द्वारा तप, दान, अध्ययन आदि में किया गया कोई भी पराक्रम आत्मशूद्धकारक नहीं होता, प्रत्युत कमंबन्धकारक ह से आत्मा को अमृद्ध बना देता है। जैसे कुवैद्य की चिकित्सा से रोगनाश न होकर उलटे रोग में वृद्धि होती है, वैसे ही उन अज्ञानी मिथ्यादृष्टिजनों की तप आदि समस्त भ्यिाएँ भव-भ्रमणरोग के नाश के वदले भवभ्रमण में वृद्धि करती हैं। पण्डितवीर्य-साधना का आदर्श 435. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वते / खतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगेही सदा जते // 25 // 436. झाणजोगं समाहट्ट , कायं विउसेज्ज सव्वसो / तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वएज्जासि // 26 // त्ति बेमि / // वीरियं : अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं // 435. सुव्रत (महाव्रती) साधु उदरनिर्वाह के लिए थोड़ा-सा आहार करे, तदनुसार थोड़ा जल पीए; इसी प्रकार थोड़ा बोले / वह सदा क्षमाशील, (या कष्टसहिष्णु), लोभादि से रहित, शान्त, दान्त, (जितेन्द्रिय) एवं विषय भोगों में अनासक्त रहकर सदैव सर्व प्रवृत्तियों में यतना करे अथवा संयम पालन में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करे। 14 तुलना कीजिए-'नो इहलोगळ्याए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोमट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्ति-वन्न-सह सिलोगळ्याए तवमहिटिज्जा; नम्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा / -दशवकालिक सूत्र अ०६ उ०४ सू०४ 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 (ख) शास्त्रावगाह-परिघट्टन तत्परोऽपि / नैवाऽबूधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् / 16 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 (ख) सम्यग्दृष्टि का समस्त अनुष्ठान संयम-तपःप्रधान होता है, उनका संयम अनाश्रव (संवर) रूप और तप निर्जरा फलदायक होता है। कहा भी है-'संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले।' Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 435 से 436 355 436. साधु ध्यानयोग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके पूर्ण रूप से काया का व्युत्सर्ग करे (अनिष्ट प्रवृत्तियों से शरीर को रोके) 1 परीषहोपसर्ग सहनरूप तितिक्षा को प्रधान (सर्वोत्कृष्ट) साधना समझकर मोक्ष पर्यन्त संयम-पालन में पराक्रम करे। ~~यह मैं कहता हूँ। विवेचन-पण्डितवीर्य-साधना का आदर्श-अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने सूत्रगाथाद्वय द्वारा पण्डितवीर्य की साधना का आदर्श प्रस्तुत किया हैं। साधक के पास मन, वचन और काया, ये तीन बड़े साधन हैं, इन तीनों में बहुत बड़ी शक्ति है। परन्तु अगर वह मन की शक्ति को विषयोपभोगों की प्राप्ति के चिन्तन, कषाय या राग-द्वेष-मोह आदि में या दुःसंकल्प, दुर्ध्यान आदि करने में लगा देता है तो वह आत्मा के उत्थान की ओर गति करने के बजाय पतन की ओर गति करता है। इसी प्रकार वचन की शक्ति को कर्कश, कठोर, हिंसाजनक, पीड़ाकारी, सावद्य , निरर्थक, असत्य या कपटमय वाणी बोलने में लगाता है, वाणी का समीचीन उपयोग नहीं करता है तो भी वह अपनी शक्ति बालवीर्य साधना में लगाता है, काया को भी केवल खाने-पीने, पुष्ट बनाने, सजाने संवारने, या आहार-पानी, वस्त्र, मकान आदि पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग में लगाता है, तो भी वह अपनी शक्ति का अपव्यय करता है। इसलिए शास्त्रकार पण्डितवीर्य साधक के समक्ष उसके त्याग-तप-प्रधान जीवन के अनुरूप एक आदर्श की झांकी प्रस्तुत करते हैं। एक आचार्य भी इसी आदर्श का समर्थन करते हैं - "जो साधक थोड़ा आहार करता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी निद्रा लेता है, अपने संयम के उपकरण और साधन बहुत ही कम रखता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। एक ओर साधक को धर्मपालन के लिए शरीर को स्वस्थ एवं सक्षम रखना है, दूसरी ओर संयम, तप और त्याग का भी अधिकाधिक अभ्यास करना है, इस दृष्टि से निम्नोक्त तथ्य गाथाद्वय में से प्रतिफलित होते हैं (1) साधक अल्पतम आहार, अल्प पानी, अल्प निद्रा, अल्प भाषण; अल्प उपकरण एवं साधन से जीवननिर्वाह करे; वह द्रव्य-भाव से उनोदरी तप का अभ्यास करे। (2) शरीर से चलने फिरने, उठने-बैठने, सोने-जागने, खाने-पीने आदि की जो भी प्रवृत्ति करनी हैं, वह भी निरर्थक न की जाए,१४ जो भी प्रवृत्ति की जाए, वह दशवकालिक सूत्र के निर्देशानुसार सदैव यतनापूर्वक ही की जाए। 17 (क) सूत्रकृतांग शीलाँक वृत्ति पत्राक 174-175 के आधार पर (ख) 'थोवाहारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनि य / थोवोवहि-उवकरणो तस्स हु देवा वि पणमंति ॥'-सू० कृ० शो० वृत्ति में उद्धृत पत्रांक 175 18 सदा जते (जए)-तुलना करें (क) जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए / ____ जयं भुजतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ।।--दशवका० अ० 4/8 (ख) यतं चरे यतं तिठे, यतं अच्छे यतं सये। यतं समिञ्जए भिक्खु यतमेनं पसारए / -सुत्तपिटक खुद्दकनिकाय इतिवृत्तक पृ० 262 (ग) सूयगडंग चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 366 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य / (3) पाँचों इन्द्रियों का उपयोग भी अनासक्तिपूर्वक अत्यन्त अल्प किया जाए, इन्द्रियों के मनोज्ञअमनोज्ञ विषयों पर रागद्वेष न किया जाए, इन्द्रियों का दमन किया जाए। (4) काया से ममत्व का व्युत्सर्ग किया जाए, उसे सभी प्रकार से बुरी प्रवृत्तियों से रोका जाए। केवल संयमाचरण में लगाया जाए। (5) काया इतनी कष्टमाहिष्णु बना ली जाए कि प्रत्येक परीषह और उपसर्ग समभाव पूर्वक सह सके। तितिक्षा को ही इस साधना में प्रधान समझे। (6) मन को क्षमाशील, कषायादि रहित, विषय-भोगों में अनासक्त, इहलौकिक-पारलौकिक निदानों (सुखाकांक्षाओं), यश, प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि की लालसा से दूर रखना है / (7) मन-वचन-काया को समस्त व्यायारों से रोककर मन को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानो में से किसी एक के द्वारा धर्मध्यान या शुक्लध्यान के अभ्यास में लगाना है। (8) सारी शक्तियां जीवनपर्यन्त आत्मरमणता या मोक्ष-साधना में लगानी है। पण्डितवीर्य की साधना में शरीर गौण होता है, आत्मा मुख्य / अत: शरीर की भक्ति छोड़कर ऐसे साधक को आत्म-भक्ति पर ही मुख्यतया ध्यान देना चाहिए। तभी उसकी शक्ति सफल हो सकेगी, उसका समग्र जीवन भी पण्डितवीर्य की साधना में लगेगा और उसकी मृत्यु भी इसी साधना (पण्डितमरण की साधना) में होगी।५६ वोत गेही- इसके दो अर्थ किये गए हैं -(1) विषयों की आकांक्षारहित (2) चूर्णिकार के अनुसारनिदानादि में गृद्धि से विमुक्त, जो परिपूर्ण होने पर न तो राग (मोह) करता है और न ही किसी पदार्थ को पाने की आकांक्षा करता है / ॥वीर्य : अष्टम अध्ययन समाप्त / / 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175 20 (क) सूयगडंग चणि मू० पा० टिप्पण 78 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : नवम अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र. श्रु०) के नवम अध्ययन का नाम 'धर्म' है। - धर्म शब्द शुभकर्म, कर्तव्य, कुशल अनुष्ठान, सुकृत, पुण्य, सदाचार, स्वभाव, गुण, पर्याय, धर्मा स्तिकाय, द्रव्य, मर्यादा, रीति, व्यवहार आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' - नियुक्तिकार ने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की दृष्टि से धर्म के चार निक्षेप किये हैं। नाम और स्थापना धर्म तो सुगम है / द्रव्यधर्म सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य के स्वभाव अर्थ में है। अथवा षड्द्रव्यो में जो जिसका स्वभाव है, वह उसका द्रव्य धर्म है। इसके अतिरिक्त कुल, ग्राम, नगर, राष्ट्र आदि से सम्बन्धित जो गृहस्थों के नियमोपनियम, मर्यादाएँ, कर्तव्य अथवा दायित्व के रूप में कुलधर्म, ग्रामधर्म आदि हैं उन्हें तथा अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार के पुण्य हैं, उन्हें भी द्रव्यधर्म समझना चाहिए। 9 भावधर्म के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर / लौकिक धर्म दो प्रकार है-गृहस्थों का और पाषण्डियों का / लोकोत्तर धर्म सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन में भावधर्म का ही अधिकार है, क्योंकि वहीं वस्तुतः धर्म है।' / प्रस्तुत अध्ययन में ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पत्र साधु के लिए वीतरागप्ररूपित लोकोत्तर धर्म (आचार-विचार) का निरूपण किया गया है / विशेषतः षड्जीवनिकाय के आरम्भ, परिग्रह आदि में ग्रस्त व्यक्ति इह-परलोक में दुःखमुक्त नहीं हो सकते, इसलिए साधु को परमार्थ (मोक्षमार्ग) का विचार करके निर्ममत्व, निरारम्भ, निरहंकार, निरपेक्ष एवं निष्परिग्रह होकर संयम धर्म में उद्यम करने का निर्देश किया गया है, तथा मृषावाद, मैथुन, परिग्रह, अदत्तादान, माया, लोभ, क्रोध, मान आदि को तथा शोभा के लिए प्रभालन, रंजन, वस्तीकर्म, विरेचन, वमन, अंजन, 1 पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 485 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 66 से 101, (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175-176 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म गन्ध, माल्य, स्नान, दन्त-प्रक्षालन, बस्तु-परिग्रह (संग्रह), हस्तकर्म, औद्दशिक आदि दोषयुक्त आहारसेवन, रसायन-सेवन, मर्दन ज्योतिषप्रश्न सांसारिक बातें, शय्यातरपिण्ड ग्रहण, द्यूतक्रीड़ा, धर्मविरुद्ध कथन, जूता, छाता, पंखे से हवा करना, गृहस्थ पात्र-वस्त्र-सेवन, कुर्सी-पलंग का उपयोग गृहस्थ के घर में बैठना, उनका कुशल पूछना, पूर्वक्रीड़ितस्मरण, यश-कीर्ति, प्रशंसा, वन्दन-पूजन, असंयमोत्पादक अशन-पान तथा भाषादोष साधु के संयम धर्म को दूषित करने वाले आचार व्यवहार के त्याग का उपदेश है। - उद्देशकरहित इस अध्ययन की कुल 36 (चूणि के अनुसार 17) गाथाएँ हैं। . यह अध्ययन सूत्रगाथा 437 से प्रारम्भ होकर 472 पर समाप्त होता है / 0000 3 (क) सूयगडंग सुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 76 से 84 तक का सारांश (ख) जनसाहित्य का बृहद् इतिहास भाग 1 पृ० 146-150 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मे-नवमं अज्झयणं धर्म : नवम अध्ययन जिनोक्त श्रमणधर्माचरण-क्यों और कैसे? 437. कतरे धम्मे अक्खाते माहणेण मतीमता। . अंजु धम्म अहातचं जिणाणं तं सुणेह मे // 1 // 438. माहणा खत्तिया बेस्सा, चंडाला अदु बोक्कसा'। एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभणिस्सिता // 2 // 436. परिग्गहे निविठ्ठाणं, वेरं तेसि पवडई। आरंभसंभिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा / / 3 // 440. आघातकिच्चमाधानायओ विसएसिणो। अन्न हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि कच्चति / / 4 / / 441. माता पिता ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा। णालं ते तव ताणाए, लुप्पंतस्स सकम्मुणा // 5 // 442. एयमटुंसपेहाए, परमट्ठाणुगामियं / निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहितं // 6 // 1 तुलना करें-"खत्तिया माहणा वेस्सा सुद्दा चण्डालपुक्कसा।" -सुत्तपिटक खुद्दकनिकाय जातकपालि भा०-१ पृ० 116 2 तुलना--(क) उत्तराध्ययन सूत्र अ०६/३ में यह गाथा प्रायशः मिलती है। (ख) 'नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा--आचा० प्र० श्रु० सू०६४, 66, 67, 81 -आचासंग विवेचनयक्त प्र० श्र० अ०२, उ०१, 4 पृ० 41, 43, 44, 45 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म 443. रेच्चा वित्तं च पुत्ते य, पायो य परिग्गह। चेच्चाण अंतगं सोयं निरवेक्खो परिव्वए // 7 // 437. केवलज्ञानसम्पन्न, महामाहन (अहिंसा के परम उपदेष्टा) भगवान महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म बताया है ? जि.नवरों के द्वारा उपदिष्ट उस सरल धर्म को यथार्थ रूप से मुझसे सुनो। 438-436. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल अथवा बोक्कस (अवान्तर जातीय वर्णसंकर), एषिक (शिकारी, हस्तितापस अथवा कन्दमूलादि भोजी पाषण्डी), वैशिक (माया-प्रधानकलाजीवी-जादूगर) तथा शूद्र और जो भी आरम्भ में आसक्त जीव हैं, एवं जो विविध परिग्रह में मूच्छित हैं, उनका दूसरे प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है। वे काम-भोग में प्रवृत्त (विषयलोलुप) जीव आरम्भ से परिपूर्ण (आरम्भमग्न) हैं। वे दुःखों से या दुःखरूप कर्मों से मुक्त नहीं हो सकते , 440. विषय (सांसारिक) सुख के अभिलाषी ज्ञातिजन या अन्य लोग दाहसंस्कार आदि मरणोत्तर (-आघात) कृत्य करके मृतक व्यक्ति के उस धन को हरण कर (ले) लेते हैं, परन्तु नाना पापकर्म करके धन संचित करने वाला वह मृत व्यक्ति अकेला अपने पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख भोगता है। 441. अपने पापकर्म से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हारी रक्षा करने में माता, पिता, पुत्रवधू, पत्नी, भाई और औरस (सगे) पुत्र (आदि) कोई भी समर्थ नहीं होते। 442. स्वकृत पाप से दुःख भोगते हुए प्राणी की रक्षा कोई नहीं कर सकता, इस बात को तथा परमार्थ रूप मोक्ष या संयम के अनुगामी (कारण) सम्यग्दर्शनादि हैं, इसे सम्यक् जान-देख कर ममत्वरहित एवं निरहंकार (सर्वमदरहित) होकर भिक्षु जिनोक्त धर्म का आचरण करे। 443. धन और पुत्रों को तथा ज्ञातिजनों और परिग्रह का त्याग करके अन्तर के शोक-संताप को छोड़कर साधक निरपेक्ष (निस्पृह) होकर संयमपालन में प्रगति करे / विवेचन-जिनोक्त श्रमण धर्माचरण : क्यों और कैसे करें ?-प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं में विभिन्न पहलुओं से यह बताया गया है कि जिनोक्त श्रमण धर्म का पालन क्यों और कैसे करना चाहिए? चार मुख्य कारणों से श्रमण धर्म का स्वीकार एवं पालन श्रेयस्कर--(१) जो मानव चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय या चांडाल आदि कोई भी हों, आरम्भ-परिग्रहासक्त हैं, उनका प्राणियों के साथ दीर्घकाल तक वैर बढ़ता जाता है, (2) विषय-सुख-लोलुप आरम्भमग्न जीव दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। (3) ज्ञातिजन व्यक्ति की मरणोत्तर क्रिया करके पापकर्म द्वारा संचित उसका धन ले लेते हैं, किन्तु उन कृतपापों का फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है, (4) पापकर्म के फलस्वरूप पीड़ित होते हुए व्यक्ति को उसके स्वजन बचा नहीं सकते। इन सब बातों पर दीर्घ दृष्टि से विचार कर पूर्वोक्त चारों अनिष्टों से बचने के लिए व्यक्ति को सांसारिक गार्हस्थ्य प्रपंचों में न फंसकर जिनोक्त मोक्षमार्ग रूप (संयम) धर्म में प्रवजित होना तथा उसी का पालन करना श्रेयस्कर है। श्रमण धर्म का पालन कैसे करें ?- इसके लिए साधक (1) ममत्वरहित हो, (2) अहंकार शून्य हो, (3) धन, धाम, परिग्रह, स्त्री-पुत्रादि तथा ज्ञातिजनों के प्रति ममत्व का त्याग करे, (4) सांसारिक भोगों Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 444 से 446 से निरपेक्ष-नि:स्पृह रहे, (5) अपने द्वारा त्यक्त सजीव निर्जीव पदार्थों के सम्बन्ध में अन्तर में शोक (चिन्ता) न करे।' पाठान्तर और व्याख्याएं-'चेच्चाण अंतग सोय = वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं-(१) अन्तर में ममत्वरूप दुष्परित्याज्य शोक को छोड़कर, (2) संयमी जीवन का अन्त-विनाश करने वाला मिथ्यात्वादि पंचाश्रवस्रोत अथवा शोक (चिन्ता) छोड़कर, (3) आत्मा में व्याप्त होने वाले-आन्तरिक शोक-संताप को छोड़कर / इसके बदले पाठान्तर है-'चिच्चा णगंग सोय' इसके भी दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं-(१) जिसका अन्त कदापि नहीं होता, ऐसे अनन्तक उम कर्माश्रवस्रोत या (2) स्वदेहादि के प्रति होने वाले शोक को छोड़कर / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है - 'चेच्च ण अत्तगं सोतं'-अर्थात् - आत्मा में होने वाले श्रोत कर्माश्रवद्वारभूत स्रोत को छोड़कर अथवा अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व के अनन्त यों को छोडकर / निरवेक्लो-निरपेक्षका आशय यह है कि साध जिन सजीव निर्जीव वस्तओं पर से ममत्व छोड़ चुका है, उनसे या उनकी कोई भी या किसी भी प्रकार की अपेक्षा-आशा न रखे। एक आचार्य ने कहा है-जिन साधकों ने परपदार्थों या परिग्रह की अपेक्षा रखी वे ठगा गए, जो उनसे निरपेक्ष रहे, वे निर्विघ्नता से संसार सागर को पार कर गए। जो साधक भोगों की अपेक्षा रखते हैं, वे घोर संसारसमुद्र में डूब जाते हैं, जो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे सुखपूर्वक संसाररूपी अटवी को पार कर लेते हैं।' मलगुणगत-दोष त्याग का उपदेश 444. पुढवाऽऽऊ अगणि वाऊ तण रुक्ख सबीयगा। अंडया पोय-जराऊ-रस-संसेय-उब्भिया // 8 // 445. एतेहिं छहिं काएहि, तं विज्जं परिजाणिया / मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही / / 6 / 1 सूत्रकृतांग शीला वृत्ति पत्रांक 177-178 के आधार पर 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृति पत्रांक 178 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पु० 80 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 178 (ख) छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं / तम्हा पवयणसारे निरावयवखेण होयव्वं / / 1 / / भोगे अवयक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे। भोहि निरवयक्खा, तर ति संसारकतारं / / 2 / / -~-सूत्रकृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक 178 में उद्धत Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धम 446. मुसावायं बहिद्ध च, उम्गहं च अजाइयं / सत्थादाणाइं लोगसि, तं विज्जं परिजाणिया।॥ 10 // 444-445. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज आदि वनस्पति एवं अण्डज पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज्ज आदि त्रसकाय, ये सब षट्कायिक जीव है। विद्वान साधक इन छह कायों से इन्हें (ज्ञपरिज्ञा से) जीव जानकर, (प्रत्याख्यान परिज्ञा से) मन, वचन और काया से न इनका आरम्भ (वध) करे और न ही इनका परिग्रह करे। 446. मषावाद, मैथुनसेवन, परिग्रह (अवग्रह या उद्ग्रह), अदत्तादान, ये सव लोक में शस्त्र के समान हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं / अतः विद्वान् मुनि इन्हें जानकर त्याग दे। विवेचन-श्रमण धर्म के मूल गुण-गत मोष-वर्जन-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (444 से 446 तक) में साधु के अहिंसादि पंचमहाव्रतरूप मूलगुणों के दोषों-हिंसा, असत्य आदि के त्याग करने का उपदेश है। पड़ नीवनिकाय का वर्णन-दशकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि आगमों में विस्तृत रूप से किया गया है / पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक के भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त आदि कई भेद तथा प्रकार हैं / प्रस्तुत शास्त्र में भी पहले इसी से मिलता-जुलता पाठ आ चुका है। षट्कायिक जीवों का भेद-प्रभेद सहित निरूपण करने के पीछे शास्त्रकार का यही आशय है कि जीवों को भेद-प्रभेदसहित जाने बिना उनकी रक्षा नहीं की जा सकती। ___ कठिन शब्दों की व्याख्या-बहिद्ध-मैथुनसेवन. उग्गह-परिग्रह, अजाइया- अदत्तादान / अथवा 'बहिन" का अर्थ मैथुन और परिग्रह है तथा 'उग्गहं अजाइया' का अर्थ अदत्तादान है। 'पोयया'--पोतरूप से पैदा होने वाले जीव, जैसे-हाथी, शरभ आदि / 'उम्भिया' - उद्भिज्ज जीव, जैसे- मेंढक, टिड्डी, खंजरीट आदि / उतरगुण-गत-दोष त्याग का उपदेश--- 447. पलिउंचणं भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य / धूणाऽऽदाणाई लोगसि, तं विज्ज परिजाणिया // 11 // 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 178-176 का सारांश 5 देखिये--(अ) दशवैकालिक सूत्र का 'छज्जीवणिया' नामक चतुर्थ अध्ययन (आ) उत्तराध्ययन सूत्र का 'जीवाजीवविभत्ति' नामक ३६वां अध्ययन (इ) आचारांग सूत्र प्र० श्रु० का 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन (ई) सूत्रकृतांग प्र. श्रु० का कुशील-परिभाषा नामक ७वें अध्ययन की प्रथम गाथा 6 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 176 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 447 से 46. 363 448. धोयणं रयणं चेव, वत्थीकम्म विरेयणं / वमणंजण पलिमंथं तं विज्जं परिजाणिया॥१२॥ 446. गंध मल्ल सिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा। परिग्गहित्यि कम्मं च, तं विज्जं परिजाणिया // 13 // 450. उद्देसियं कोयगडं, पामिच्च चेव आहडं / पूर्ति अणेसणिज्जं च, तं विज्ज परिजाणिया॥ 14 // 451. आसूणिमक्खिरागं च, गिद्ध वधायकम्मगं / उच्छोलणं च कक्कं च, तं विज्ज परिजाणिया // 15 // 452. संपसारी ककिरिओ, पसिणायतणाणि य / सागारियपिडं च, तं विज्जं परिजाणिया / / 16 / / 403. अट्टापदं ण सिक्खेज्जा, वेधादीयं च णो वदे। हत्थकम्मं विवादं च, तं विज्जं परिजाणिया // 17 // 454. पाणहाओ य छत्तं च, णालियं वालवीयणं / परकिरिय अन्नमन्न च, तं विजं परिजाणिया // 18 // 455. उच्चारं पासवणं, हरितेसु ण करे मुणी। वियडेण वा वि साहटु, णायमेज्ज कयाइ वि // 16 // 456. परमत्त अन्नपाणे च, ण भुजेज्जा कयाइ वि / परवत्थमचेलो वि, तं विज्जं परिजाणिया / / 20 / / 457. आसंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे / संपुच्छणं च, सरणं च तं विज्ज परिजाणिया / / 21 // 458. जसं कित्ति सिलोगं च, जा य वंदणपूयणा। सव्वलोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया // 22 // 456. जेणेहं णिध्वहे भिक्खू, अन्न-पाणं तहाविहं / अणुप्पदाणमन्ने सि, तं विज्जं परिजाणिया // 23 / / 460. एवं उदाह निग्गंथे, महावीरे महामुणी। अणतणाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं / / 24 // Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म 447. माया (परिकुञ्चन-बक्रताकारिणी किया), और लोभ (भजन) तथा क्रोध और मान को लाट कर डालो (धुन दो); क्योंकि ये सब (वषाय) लोक में कर्मबन्ध के कारण है, अतः विद्वान् साधक ज्ञपरिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग करे। 448. (विभूषा की दृष्टि से) हाथ, पैर और वस्त्र आदि धोना, तथा उन्हें रंगना, वस्तिकर्म करना (एनिमा वगैरह लेना); विरेचन (जुलाब) लेना, दवा लेकर वमन (के) करना, आँखों में अंजन (काजल आदि) लगाना; ये (और ऐसे अन्य) शरीरसज्जादि संयमविघातक (पलिमंथकारी) हैं, इनके (स्वरूप और दुष्परिणाम) को जानकर विद्वान् साधु इनका त्याग करे। 446. शरीर में सुगन्धित पदार्थ लगाना, पुष्पमाला धारण करना, स्नान करना, दांतों को धोनासाफ करना, परिग्रह (सचित्त परिग्रह--द्विपद, चतुष्पद या धान्य आदि, अचित्त परिग्रह--सोने-चांदी आदि के सिक्के, नोट, सोना-चांदी, रत्न, मोती आदि या इनके आभूषणादि पदार्थ रखना। स्त्रीकर्म (देव, मनुष्य या तिर्यञ्च स्त्री के साथ मैथुन-सेवन) करना, इन अनाचारों को विद्वान् मुनि (कर्मबन्ध एवं संसार का कारण) जानकर परित्याग करे / 450. औद्देशिक (साधु के उद्देश्य से गृहस्थ द्वारा तैयार किया गया दोषयुक्त क्रीतकृत-खरीदकर लाया या लाकर बनाया हुआ), पामित्य (दूसरे से उधार लिया हुआ), आहृत (साधु के स्थान पर सामने लाया हुआ), पूर्तिकर्म (आधाकर्मो आहारमिश्रित दूषित) और अनैपणीय (एषणा दोषों से दूषित) आहार को अशुद्ध और संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे। 451. घृतादि या शक्तिवर्द्धक रसायन आदि का सेवन करना आँखों में (शोभा के लिए) अंजन लगाना, रसों या शब्दादि विषयों में गृद्ध (आसक्त होना, प्राणिउपधातक कर्म करना, (या दूसरों के कार्य बिगाड़ना), हाथ-पैर आदि धोना, शरीर में कल्क (उबटन पीठी या क्रीम स्नो जैसा सुगन्धित पदार्थ लगाना; इन सबको विद्वान् साधु संसार-भ्रमण एवं कर्मबन्धन के कारण जानकर इनका परित्याग करे। 452. असंयमियों के साथ सांसारिक वार्तालाप (या सांसारिक वातों का प्रचार-प्रसार) करना, घर को सुशोभित करने आदि असंयम कार्यों की प्रशंसा करना, ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देना और शय्यातर (सागारिक) का पिण्ड (आहार) ग्रहण करना विद्वानू साधु इन सब को संसार का कारण जानकर त्याग दे। 453. साधु अष्टापद (जुआ, शतरंज आदि खेलना) न सीखे, धर्म की मर्यादा (लक्ष्यवेध-) से विरुद्ध वचन न बोले तथा हस्तकर्म अथवा कलह करके हाथापाई न करे और न ही शुष्क निरर्थक विवाद (वाक्कलह) करे इन सबको संसार भ्रमण का कारण जानकर इनका त्याग करे।। 454. जूता पहनना, छाता लगाना, जुआ खेलना, मोरपिच्छ, ताड़ आदि के पंखे से हवा करना, परक्रिया (गृहस्थ आदि से पैर दबवाना) अन्योन्यक्ति या (साधुओं का परस्पर में ही काम करना); इन सबको विद्वान् साधक कर्मबन्धजनक जानकर इनका परित्याग करे। 455. मुनि हरो वनस्पति (हरियाली) वाले स्थान में मल-मूत्र-विसर्जन न करे, तथा बीज आदि Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 447 से 460 सचित्त वनस्पति को हटाकर अचित्त जल से भी कदापि आचमन (मुख या शरीर शुद्धि या मलद्वारशुद्धि) न करे। 456. गृहस्थ के बर्तन (परपात्र) में कदापि आहार-पानी का सेवन न करे; साधु अचेल (वस्त्ररहित या जीर्ण वस्त्र वाला) होने पर भी परवस्त्र (गृहस्थ का वस्त्र धारण न करे। विद्वान् मुनि ऐसा करना कर्मबन्धजनक जानकर उसका परित्याग करे। 457. साधु खाट पर और पलंग पर न बैठे, न ही सोए / गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच (छोटी संकरी गली) में न बैठ, गृहस्थ के घर के समाचार, कुशल-क्षेम आदि न पूछे अथवा अपने अंगों को (शोभा की दृष्टि से) न पोछे तथा अपनी पूर्वकामक्रीड़ा का स्मरण न करे / विद्वान् साधु इन्हें श्रमणधर्मभंगकारक समझकर इनका परित्याग करे। 458. यश, कीति, श्लोक प्रशंसा) तथा जो वन्दना और पूजा-प्रतिष्ठा है, तथा समग्रलोक में जो काम-भोग हैं, इन्हें विद्वान् मुनि सयम के अपकारी समझकर इनका त्याग करे। 456. इस जगत में जिस (अन्न, जल आदि पदार्थ) से साधु के संयम का निर्वाह हो सके वैसा ही आहार-पानी ग्रहण करे। वह आहार-पानी असंयमी को न देना अनर्थकर (असंयमवर्द्धक) जानकर तत्त्वज्ञ मुनि नहीं देवे / (संयम दूषित या नष्ट हो जाए) उस प्रकार का अन्न जल अन्य साधकों को न दे। उसे संयम-विघातक जानकर साधु उसका त्याग करे। 460. अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी, निम्रन्थ महामुनि श्रमण भगवान् महावीर ने इसप्रकार चारित्रधर्म और श्रुतधर्म का उपदेश दिया हैं। विवेचन--उत्तरगुणगत-दोषत्याग का उपदेश-सूत्रगाथा 447 से लेकर 460 तक श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त श्रमणों के चारित्र धर्म को दूषित करने वाले उत्तरगुणगत-दोषों के त्याग का उपदेश है। इन सभी गाथाओं के अन्तिम चरण में तं विज्जं परिजाणिया' कहकर शास्त्रकार ने उनके त्याग का उपदेश दिया है / उसका आशय व्यक्त करते हुए वृत्तिकार कहते हैं- उस अनाचरणीय सयमदूषक कृत्य को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबन्ध का एवं संसार-परिभ्रमण का कारण जानकर विद्वान साधक प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग करे। इनमें से साधु के लिए अधिकांश अनाचारों (अनाची!) का वर्णन है जिनका दशवकालिक एवं आचाराँग आदि शास्त्रों में यत्र तत्र उल्लेख हुआ है." 7 (क) सूत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 176 से 182 तक का सारांश (ख) तुलना--(अ) दशवकालिक अ०३ गाथा 6, 2, 3, 4, 5 (आ) दशवै० अ०६, गा० 46 से 67 तक (ग) णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोतरताई वत्थाई धारेज्जा...। -आचारांग प्र० श्रु० विवेचन अ०८, उ०४ सू० 214 पृ० 261 (घ) णो दतपक्खालणेण दंते पक्खाले ज्जा, णो अंजणं णो धमण....। -सू० कृ० द्वितीय श्रुत० सूत्र 681 (ग) तुलना करिए.--'सेव्यथिद-अठ्ठपदं ""सेय्यथिदं आदि पल्लंक""मालागंधविलेपन... चित्रुपाहनं अञ्जनं. वाल-विनि....."मंडनविभूसनहानानुयोगा पटि विरतो......। -सुत्तपिटक दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त पृ० 86 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म कठिन शब्दों की व्याख्या-घूणाऽऽदाणाई-कर्मों को ग्रहण करने के कारण अथवा कर्मों को जन्म देने वाले / आसूणि-वृत्ति और चूर्णि में इसकी दो व्याख्याएँ मिलती हैं--(१) जिस घृतपान आदि पौष्टिक या शक्ति वद्धक आहारविशेष से या भस्म पारा आदि रसायन विशेष के सेवन से शरीर हृष्टपुष्ट होता हो, (2) श्वान-सी तुच्छ प्रकृति का साधक जरा-सी आत्म-श्लाघा या प्रशंसा से फूल (सूज) जाता हो, गर्वस्फीत हो जाता हो। ककिरिओ- (आरम्भजनित) गृहनिर्माणदि बहुत सुन्दर किया है अथवा असंयतों के साथ विवाह-सगाई कामभोग आदि वासना एवं मोह में वृद्धि करने वाली बातें करना या इस प्रकार के असंयम कार्य की प्रशंसा करना / पसिणायतणाणि-दो व्याख्याएँ ---(1) ज्योतिषसम्बन्धी प्रश्नादि के उत्तर; आयतन ---प्रकट करना-बताना / (2) संसारी लोगों के परस्पर व्यवहार, मिथ्याशास्त्र अथवा प्रश्न के सम्बन्ध में यथार्थ बातें बताकर निर्णय देना / सागारियपिडं- तीन अर्थ:-सागारिकशय्यातर का पिण्ड (आहार) अथवा (2) सागारिक पिण्ड यानी सूतक गृहपिण्ड या (3) निन्द्य-जुगुप्सित दुराचारी का पिण्ड / अापदं न सिक्खेज्जा-- तीन व्याख्याएँ-(१) जिस पद-शास्त्र से धन, धान्य, सोना आदि प्राप्त किया जा सके, ऐसे शास्त्र का अध्ययन न करे, (2) द्यूतक्रीड़ा विशेष न सीखे (3) अर्थ यानी धर्म या मोक्ष में आपद्कर-प्राणिहिंसा की शिक्षा देने वाला शास्त्र न सीखे, न ही दूसरों को सिखाए और न पूर्वशिक्षित ऐसे शास्त्र की आवृत्ति या अभ्यास करे। वेधादीय-तीन अर्थ-(१) वेध का अर्थ है सद्धर्म के अनुकूलत्व और अतीत का अर्थ है-उससे रहित यानी सद्धर्मविरुद्ध, (2) अधर्मप्रधान, (3) वेध का अर्थ वस्त्रवेध-जुए, सट्टे, अंक आदि जैसे (किसी चूत विशेष से सम्बन्धित बातें न बताए / वियडेण वा वि साहटु-विकट-विगतजीव-प्रासुक जल से, बीज या हरियाली (हरी वनस्पति) को हटाकर। 'परमत्ते अन्न पाणं च पर [गृहस्थ] के पात्र में अन्नपानी का सेवन न करे / स्थविरकल्पी साधु के लिए गृहस्थ का पात्र परपात्र है, उसमें आहार करने या पेय पदार्थ पीने से पहले या पीछे गृहस्थ द्वारा उसे सचित्त जल से धोये जाने कदाचित् चुराये जाने या गिरकर टूट जाने की आशंका रहती हैं। इसलिए यह साध्वाचार-विरुद्ध है। स्थविरकल्पी साधु के लिए हाथ की अंजलि में खाना-पीना भी परपात्र में खाना-पीना है, वह भी निषिद्ध है, क्योंकि स्थविरकल्पी साधु-साध्वियों की अंजलि छिद्रयुक्त होती है, उसमें आहार-पानी आदि नीचे गिर जाने से अयत्ना होने की सम्भावना है। जिनकल्पी के लिए हाथ की अंजलि-स्वपात्र है, लकड़ी आदि के पात्र या गृहस्थ के पात्र में खाना-पीना परपात्र भोजन करना है। इसी तरह परवस्थमचेलो बि'स्थविरकल्पी साधु के लिए गृहस्थ के वस्त्र परवस्त्र हैं- और जिनकल्पी के लिए दिशाएँ ही वस्त्र हैं, इसलिए सूत आदि से बने सभी वस्त्र परवस्त्र हैं। परवस्त्र का उपयोग करने में वे ही पूर्वोक्त खतरे हैं। आसंदी पलियंके य=आसंदी-वर्तमान युग में आरामकुर्सी या स्प्रिंगदार कुर्सी अथवा लचीली छोटी खाट तथा नीवार वाला स्प्रिंगदार लचीला पलंग। इन पर सोने बैठने या लेंटने से कामोत्तेजना होने की तथा छिद्रों में बैठे हुए जीवों की विराधना होने की आशंका है। इसलिए इनका उपयोग जित किया गया है / निसिज्जं च गिहतरे गृहान्तराल में बैठना ब्रह्मचर्य-विराधना की आशंका या लोकशंका अथवा अशोभा की दृष्टि से निषिद्ध किया है / संपुच्छणं = दो अर्थ मूलार्थ में दिये / इस तरह के सांसारिक पूछ-ताछ से अपना स्वाध्याय, ध्यान-साधना का अमूल्य समय व्यर्थ में नष्ट होता है। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाचा 461 से 463 367 जे गेहं निव्यहे तीन अर्थ- [1] द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस शुद्ध अन्न-जल से, अथवा दुर्भिक्ष, रोग, आतंक आदि कारणों से किंचित् अशुद्ध अन्न-जल से इस लोक में इस संयमयात्रादि का निर्वाह हो, अथवा [2] वैसा ही अन्न-जल संयम का निर्वाह कर के लिए दूसरों को दे। [3] जिस कार्य के करने से अर्थात् असंयमो गृहस्थ आदि को आहार देने से साधु का संयम दूषित हो, वैसा कार्य साधु न करे। साधुधर्म के भाषात्रिबेकसूत्र-- 461. भासमाणो न भासेज्जा, णेय वंफेज्ज मम्मयं / मातिहाणं विवज्जेज्जा, अणुवियि वियागरे // 25 // 462. तथिमा ततिया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पती। जं छन्न तं न वत्तव्वं, एसा आणा नियंठिया / / 26 / / 463 होलावायं सहीवाय, गोतावायं च नो बदे। तुमं तुम ति अमणुण्णं, सव्वसो तं ण वत्तए / 27 / / 461. किसी बोलते हुए के बीच में न बोले / (अथवा भाषा समिति से युक्त) साधु (धमोपदेश या धर्म सम्बन्धी) भाषण करता हुआ भी भाषण न करने वाले (मौनी) के समान है) साधु मर्मस्पर्शी भाषा न बोले; वह मातृस्थान-माया (कपट) प्रधान वचन का त्याग करे / (जो कुछ भी बोने, पहले उस सम्बन्ध में) सोच-विचार कर बोले। 462. चार प्रकार की भाषाओं में जो तृतीय भाषा (सत्या-मषा) है, उसे साधु न बोले, तथा जिसे बोलने के बाद पश्चात्ताप करना पड़े, ऐसी भाषा भी न बोले। जिस बात को सब लोग छिपाते (गुप्त रखते) हैं अथवा जो क्षण (हिंसा) प्रधान भाषा हो वह भी नहीं बोलनी चाहिए। यह निर्ग्रन्थ (भगवान महावीर) की आज्ञा है। 463. साधु निष्ठुर या नीच सम्बोधन से किसी को पुकारकर (होलावाद) न करे। सखी मित्र आदि कह कर सम्बोधित करके (सखिवाद) न करे तथा गोत्र का नाम लेकर (चाटुकारिता की दृष्टि से) किसी को पुकार कर (गोत्रवाद) न बोले। रे, तू, इत्यादि तुच्छ शब्दों से किसी को सम्बोधित न करे, तथा जो अप्रिय-अमनोज्ञ वचन हो, उन्हें साधु सर्वथा (बिलकुल) न कहे अथवा वैसा दुर्व्यहार (वर्तन) साधु सर्वथा न करे। विवेचन-भाषा विवेक सूत्र-~-प्रस्तुत तीन सूत्र गाथाओं (सूत्र० गा० 461 से 463) में यह विवेक बताया गया है कि साधु को कैसी भाषा बोलनी चाहिए, कैसी नहीं ? मासमाणो न भासेज्जा-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ प्रस्तुत किये हैं- (1) दीक्षा ज्येष्ठ (रत्नाधिक) साधु किसी से बात कर रहा हो, उस समय अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने या बड़े की लघुता प्रकट करने की दृष्टि से बीच में न बोले, क्योंकि ऐसा 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 176 से 181 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 80, 81, 22 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 सूत्रकृतांग-गवम अध्ययम---धर्म करने से बड़ों की आशातना और अपने अभिमान की अभिव्यक्ति होती है। अथवा (2) जो साधु वचनविभाग को जानने में निपुण है, जो वाणी के बहुत से प्रकारों को जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ न बोलने वाले (वचनगुप्ति युक्त-मौनी) के समान है, क्योंकि वह भाषा-समिति का ध्यान रखकर बोलता है, वह धर्मोपदेश, धर्म-पथ प्रेरणा, धर्म में स्थिरता के लिए मार्ग-दर्शन देते समय पूर्ण सतर्क होकर वाणीप्रयोग करता है। व वंफेज मम्मयं-- दो अर्थ - (1) बोला हुआ वचन चाहे सत्य हो या असत्य, किन्तु यदि वह किसी के मन में चुभने या पीड़ा पहुंचाने वाला हो तो उसे न बोले, अथवा (2) 'यह मेरा है', ऐसा सोचकर किसी के प्रति पक्षपात युक्त (मामक) वचन न कहे। भातिट्ठाणं विवज्जेज्जा--दो अर्थ-(१) कपट प्रधान (संदिग्ध, छलयुक्त, द्वयर्थक) वचन का त्याग करे, अथवा (2) दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए साधु मायाचार या दम्भ न करे। निग्रन्थ-आज्ञा से सम्मत एवं असम्मत भाषा= दशवैकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों में चार प्रकार की भाषा बताई है-(१) सत्या, (2) असत्या, (3) सत्या-मृषा और (4) असत्या-मषा। इन चारों में से असत्या भाषा तो वर्जनीय है ही, तीसरी भाषा-सत्यामृषा (कुछ झूठी, कुछ सच्ची भाषा) भी वजित है। जैसे किसी साधक ने अनुमान से ही निश्चित रूप से कह दिया- 'इस गाँव में बीस बच्चों का जन्म या मरण हुआ है।' ऐसा कहने में संख्या में न्यूनाधिक होने से यह वचन सत्य और मिथ्या दोनों से मिश्रित है। असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा भी भाषासमिति युक्त बोलने का विधान है। इन तीनों भाषाओं के अतिरिक्त प्रथम भाषा सर्वथा सत्य होते हुए भी निम्नोक्त कारणों से साधु के लिए निषिद्ध बताई गई है (11) जिस वचन को कहने से किसी को दुःख, पीड़ा, उद्वेग, भय, चिन्ता, आघात, मर्मान्तक वेदना, अपमानदंश, मानसिक क्लेश पैदा हो। (2) जो कर्कश, कठोर, वध-प्रेरक, छेदन-भेदन कारक, अमनोज्ञ एवं ताड़न-तर्जनकारक हो, अर्थात् हिंसा-प्रधान हो। (3) जो भाषा मोह-ममत्वजनक हो, जिस भाषा में स्वत्व मोह के कारण पक्षपात हो / (4) जो भाषा वाहर से सत्य प्रतीत हो, परन्तु भीतर से दम्भ या छल-कपट से भरी हो। (5) जो भाषा हिंसादि किसी पाप में श्रोता को प्रेरित करती (सावद्य) हो, जैसे—“इसे मारोपोटो," "चोरी करो", आदि वचन / 6. 'वयणविहत्तीकुसलोवगयं बहु विहं वियाण तो / दिवस पि भासमाणो साह वयगुत्तय पत्तो / ' 10. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 182-183 (ख) तुलना करें-(अ) दशवकालिक अ०७ गा०६ से 20 तक (आ) आचारांग विवेचन द्वि० श्रु० सू० 524 से 528 तक पृ० 217 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 464 से 472 366 (6) जो भाषा सत्य होते हुए भी किसी को अपमानित, तिरस्कृत या बदनाम करने अथवा नीचा दिखाने, उपहास करने या अपना अहंकार प्रदर्शित करने की दृष्टि से बोली जाए। या जो ऐ नीच, रे दुष्ट, तू चोर है, काना है, पापी है ! आदि तुच्छ वचन रूप हो। (7) जिस भाषा की तह में चाटुकारिता, दीनता या स्व-हीनता भरी हो। (8) जो भाषा सत्य होते हुए भी मन में सन्देहास्पद हो, द्वयर्थक हो, निश्चयकारी हो, या जो भाषा सहसा अविचारपूर्वक बोली गई हो। (E) जिस भाषा के बोलने से बाद में पश्चात्ताप हो अथवा बोलने के पश्चात् उसके फलस्वरूप जन्म-जन्मान्तर तक संताप (पीड़ा) पाना पड़े। (10) जिस बात को सभ्य लोग प्रयत्नपूर्वक छिपाते हैं, उसे प्रकट करने वाली, या किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाली हो, इस प्रकार की सब भाषा निषिद्ध है / " लोकोत्तर धर्म के कतिपय आचारसूत्र 464. अकुसोले सया भिक्खू, णो य संसग्गिय भए / सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा पडिबुज्झेज्ज ते विदू / / 28 / / 465. णण्णत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किड्डु, नातिवेलं हसे मुणी // 26 // 466. अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थायिासते // 30 // 467. हम्ममाणो न कुप्पेज्जा, बुच्चमाणो न संजले। सुमणो अहियासेज्जा, ण य कोलाहलं करे / / 31 // 468. लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एसमाहिए। आरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया।। 32 / / 11 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 182-183 का तात्पर्य (ख) चार प्रकार की भाषा के लिए देखें-दशवैकालिक अ०७ गा०१ से 4 तक तथा आचारांग द्वि० श्रु० विवेचन सू० 524 पृ० 217 (ग) धुव्वं बुद्धीए पेहित्ता पच्छा बक्कमुदाहरे। अचक्खओ व नेतारं बुद्धिमन्नड ते गिरा / / -- द शवै नियुक्ति गा० 263 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकतांग-नयम अध्ययन-धर्म 466. सुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुप्पण्णं सुतवस्सियं / __ वीरा जे अत्तपण्णेसी, धितिमंता जितिदिया // 33 // 470. गिहे दीवमपस्संता, पुरिसादाणिया नरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवितं / / 34 // 471. अगिद्ध सद्द-फासेसु, आरंभेसु अणिस्सिते / सव्वेतं समयातीतं, जमेतं लवितं बहुं // 35 // 472. मतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते। गारवाणि य सवाणि, निव्वाणं संधए मुणि // 36 // त्ति बेमि / ॥धम्मो नवमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 464. साधु सदैव अकुशील बनकर रहे, तथा कुशीलजनों या दुराचारियों के साथ संसर्ग न रखे, क्योंकि उसमें (कुशोलों की संगति में) भी सुखरूप (अनुकूल) उपसर्ग रहते हैं, अत: विद्वान् साधक इस तथ्य को भलीभाँति जाने तथा उनसे मावधान (प्रतिवुद्ध-जागृत) रहे। 465. किसी (रोग, अशनित, आतंक आदि) अन्तराय के बिना साधु गृहस्थ के घर में न बैठे। ग्राम-कुमारिका क्रीड़ा (ग्राम के लड़के-लड़कियों का खेल) न खेले, एवं मर्यादा का उल्लंघन करके न हंसे। 466. मनोहर (उदार) शब्दादि विषयों में साधु अनुत्सुक रहे (किसी प्रकार की उत्कण्ठा न रखे। यदि शब्दादि विषय अनायास ही सामने आ जाएँ तो यतनापर्वक आगे बढ़ जाए या संयम में गमन करे, भिक्षाटन आदि साधुचर्या में प्रमाद न करे, तथा परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित (स्पृष्ट) होने पर उन्हें (समभावपूर्वक) सहन करे। 467. लाठी, डंडे आदि से मारा-पीटा जाने पर साधु (मारने वाले पर) कुपित न हो, किसी के द्वारा गाली आदि अपशब्द कहे जाने पर क्रोध न करे, जले-कुढ़े नहीं; किन्तु प्रसत्र मन से उन्हें (चुपचाप) सहन करे, किसी प्रकार का कोलाहल न करे। 468. साधु (अनायास) प्राप्त होने वाले काम-भोगों की अभिलाषा न करे, ऐसा करने पर (ही उसे निर्मल) विवेक उत्पन्न हो गया, यों कहा जाता है। (इसके लिए) साधु आचार्यों या ज्ञानियों (बुद्धजनों) के सदा निकट (अन्तेवासी) रहकर आर्यों के धर्म या कर्त्तव्य अथवा मुमुक्षओं द्वारा आचर्य (आचरणीय) ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धर्म सदा सीखे, (उसका अभ्यास करे)। 466. स्व पर-समय (स्व-पर धर्म सिद्धान्तों) के ज्ञाता एवं उत्तम तपस्वी गुरु की सेवा-शुश्रूषा करता हुआ साधु उनकी उपासना करे। जो साधु कर्मों को विदारण करने में समर्थ वीर हैं, आप्त (वीतराग) पुरुष की केवल ज्ञानरूप प्रज्ञा या आत्मप्रज्ञा का अन्वेषण करते हैं, धृतिमान् हैं और जितेन्द्रिय हैं, वे ही ऐसा आचरण करते हैं। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 464 से 472 371 470. गृहवास में श्रु तज्ञानरूपी दीप का या सर्वज्ञोक्त चारित्ररूपी द्वीप का लाभ न देख जो मनुष्य प्रव्रज्या धारण करके मुमुक्षुपुरुषों द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्ष के योग्य [पुरुषदानीय] बन जाते हैं; वे वीर कर्मवन्धनों से विमुक्त हो जाते हैं, फिर वे असंयमी जीवन की आकांक्षा नही करते। 471. साधु मनोज्ञ शब्द (रूप, रस, गन्ध) एवं स्पर्श में आसक्त (गृद्ध) न हो, सावध आरम्भजनित कार्यों से अनिश्रित (असम्बद्ध) रहे / इस अध्ययन के प्रारम्भ से लेकर यहाँ तक जो बहुत सी बातें निषिद्ध रूप से कही गई हैं, वे सब जिनागम (सिद्धान्त) से विरुद्ध (समयातीत) हैं, अथवा जो बातें विधान रूप से कही गई हैं, वे सब कुतीर्थिकों के सिद्धान्तों से विरुद्ध, लोकोत्तर उत्तम धर्मरूप हैं। 472. पण्डित मुनि अतिमान और माया, तथा ऋद्धि-रस-सातारूप सभी गौरवों को (संसारकारण) जानकर उनका परित्याग करे और स्वयं को (समस्त कर्मक्षय रूप) निर्वाह की साधना से जोड़े या निर्वाण को ही पाने की अभिलाषा रखे / -~-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन -- लोकोत्तर (श्रमण) धर्म के कतिपय आचारसूत्र-सूत्रगाथा 464 से 472 तक नौ गाथाओं द्वारा मुनिधर्म के कुछ विशिष्ट आचारसूत्रों का उल्लेख किया है-(१) साधु न तो स्वयं कुशील बने और न ही कुशीलजनों से सम्पर्क रखे, (2) कुशीलजनसंसर्ग से होने वाले अनुकूल उपसर्गों से सावधान रहे, (3) अकारण गृहस्थ के घर में न बैठे, (4) बच्चों के खेल में भाग न ले, (5) मर्यादा का अतिक्रमण करके न हंसे, (7) मनोज्ञ शब्दादि विषयों में कोई उत्कण्ठा न रखे, अनायास प्राप्त हों तो भी यतनापूर्वक आगे बढ़ जाए, उन पर संयम रखे, (8) साधुचर्या में अप्रमत्त रहे, (6) परीषहोपसर्गों से पीड़ित होने पर उन्हें समभाव से सहे, (10) प्रहार करने वाले पर क्रुद्ध न हो, न ही उसे अपशब्द कहे, न ही मन में कुढ़े, बल्कि प्रसत्र मन से चुपचाप सहन करे, (11) उपलब्ध हो सकने वाने काम-भोगों की लालसा न करे, (12) आचार्यादि के चरणों में रहकर सदा आर्य धर्म सीखे, विवेकसम्पन्न बने, (13) स्व-परसिद्धान्तों के सुज्ञाता उत्तम तपस्वी गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा एवं उपासना करे, (14) कर्मक्षय करने में वीर बने, (15) आप्त पुरुषों की केवलज्ञानरूप प्रज्ञा का या आत्मप्रज्ञा का अन्वेषक बने, (16) धृतिमान् हो, (17) जितेन्द्रिय हो, (18) गृहवास में उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्र का लाभ न देखकर मुनि धर्म में दीक्षित साधु असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे बल्कि वीरतापूर्वक कर्मबन्धनों से मुक्त बने, (19) मनोज्ञ शब्दादि में आसक्त न हो, (20) सावध आरम्भजनित कार्यों से असम्बद्ध रहे (21) सिद्धान्तविरुद्ध सब आचरणों से दूर रहे, (22) मान, माया, एवं सर्व प्रकार के गौरव को संसार का कारण जानकर परित्याग करे, और (23) निर्वाण रूप लक्ष्य का सन्धान करे / ये ही वे मौलिक आचार सूत्र हैं, जिन पर चलकर मुनि अपने श्रमण धर्म को उज्ज्वल एवं परिष्कृत बनाता है / 12 12 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 183, 184 का सारांश Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म कुशीलों को संगति से सुखमोयेच्छारूप उपपई -कुशोल व्यक्ति अपनी संगति में आने वाले सुविहित साधक को बहकाते हैं- "अजो ! आप शरीर को साफ और सशक्त रखिये / शरीर सुदृढ़ होगा तभी आप धर्मपालन कर सकेंगे। शरीर साफ रखने से मन भी साफ रहेगा। शरीर को बलवान् बनाने हेतु आधाकर्मी, औद्देशिक पौष्टिक आहार मिलता हो तो लेने में क्या आपत्ति है ? पैरों की रक्षा के लिए जूते पहन लेने या वर्षा मर्मी से सुरक्षा के लिए छाता लगा लेने में कौन-सा पाप है ? शरीररक्षा करना तो पहला धर्म है / अतः निरर्थक कष्टों से बचाकर धर्माधाररूप शरीर को रक्षा करनी चाहिए।" कभी-कभी वे आकर्षक युक्तियों से सुसावक को प्रभावित कर देते हैं- "आजकल तो पंचम काल है, हीनसंहनन है, इतनी कठोर क्रिया करने और इतने कठोर परोपहों और उपसर्गों को सहने की शक्ति कहाँ है ? अतः समयानुसार अपनी आचारसंहिता बना लेनी चाहिए आदि आदि।" अल्प पराक्रमी साधक कुशीलों के आकर्षक वचनों से प्रभावित हो, धीरे-धीरे उनके समान ही सुकुमार सुखशील बन जाते हैं / इसीलिए इन उपसों को सुखरूप कहा है। ये उपसर्ग पहले तो बहुत सुखद, सुहावने और मोहक लगते हैं, परन्तु बाद में ये संयम की जड़ों को खोखली कर देते हैं। साधु को ये उपसर्ग पराश्रित, इन्द्रियविषयों का दास और असंयमनिष्ठ बना देते हैं। अकारण गृहस्थ के घर में बैठने से हानि--अकारण गृहस्थ के घर पर बैठने से किसी को साधु के चारित्र में शंका हो सकतो है. किसी अन्य सम्प्रदाय का साधुढे पो व्यक्ति साधु पर मिथ्या दोषारोपण भी कर सकता है। दशवकालिक सूत्र में तीन कारणों से गृहस्थ के घर पर बैठना कल्पनीय बताया है-(१) वृद्धावस्था के कारण अशक्त हो, (2) कोई रोग ग्रस्त हो या अचानक कोई चक्कर आदि रोग खड़ा हो जाए (3) या दीर्धतपस्वी हो।१४ मर्यादातिकान्त हास्य : कर्मबन्ध का कारण-कभी-कभी हंसी-मजाक या हंसना कलह का कारण बन जाता है। इसीलिए आगम में हास्य और कुतुहल को कमों के बन्ध का कारण बताया है। उत्तराध्ययन एवं भगवती सूत्र में भी हास्य और क्रीड़ा को साधु के लिए बजित तथा कर्म बन्धकारक बताया है।५ "लद्ध कामे ण पत्थेज्जा"-इस पंक्ति के दो अर्थ फलित होते हैं-(१) दीर्घकालीन साधना के फलस्वरूप उपलब्ध काम-भोगों-सुख-साधनों का प्रयोग या उपयोग करने की अभिलाषा न करे, (2) 13 सूत्रकृतांग शी० वृत्ति प० 183 14 (क) सूत्र कृतांग शो० वृत्ति पत्रांक 183 (ख) दशवकालिक उ०६ गा० 57 से 60 तक 15 (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 183 / (ख) हासं कोडं च वज्जए'-उत्तरा अ० 1 / गा०६ (ग) 'जीवेणं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयमाण वा कइ कम्मपगडीयो बंध? गोयमा! मत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा" —'शगवती शतक 5 / सूत्र 71 ( / अंग सुत्ताणि) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 464 से 472 373 अनायास प्राप्त लब्धियों या सिद्धियों से भी लाभ उठाने की मन में इच्छा न करे। प्राप्त शक्तियों या उपलब्धियों को वज्रस्वामीवत् विवेकपूर्वक पचाए / ' गुरु की शुश्रूषा और उपासना में अन्तर- यह है कि शुश्रूषा-गुरु के आदेश-निर्देशों को सुनने की इच्छा है, उसका फलितार्थ है-गुरु की सेवा-वैयावृत्य करके उनके मन को प्रसन्न करना, उनके आदेशों का पालन करना, जबकि उपासना गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करना है, गुरु के शरीर की नहीं, गुणों की उपासना करना ही बास्तविक उपासना है / जैसे कि कहा है- “गुरु की उपासना करने से साधक ज्ञान का भाजन बनता है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थिरतर हो जाता है। वे धन्य हैं जो जीवनपर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते।" ॥धर्म : नवम अध्ययन समाप्त // 0000 16 सूत्र कृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 184 17 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति०१८४ (ख) "नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्तय / धन्ना आवकहाए गुरकुलवासं न मुञ्चति / -सू० कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 185 में उद्धृत Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि-दशम अध्ययन प्राथमिक सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के दसवें अध्ययन का गुणनिष्पन्न नाम 'समाधि' है / " समाधि शब्द चित्त की स्वस्थता, सात्त्विक सुखशान्ति, सन्तुष्टि, मनोदुःख का अभाव, आनन्द, प्रमोद, शुभध्यान, चित्त की एकाग्रतारूप ध्यानावस्था, समता, रागादि से निवृत्ति, आत्म प्रसन्नता आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' - नियुक्तिकार ने नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से 6 प्रकार से समाधि का निक्षेप किया है / नाम समाधि और स्थापना समाधि सुगम है। द्रव्यसमाधि मुख्यतया चार प्रकार से होती है-(१) जिस द्रव्य के खाने-पीने से शान्ति प्राप्त हो, (2) मनोज्ञ शब्दादि विषयों की प्राप्ति होने पर श्रोत्रादि इन्द्रियों की तुष्टि हो, (3) परस्पर विरोधी दो या अनेक द्रव्यों के मिलाने से स्वाद की वृद्धि (पुष्टि) होती हो अथवा (4) तराजू पर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों पलड़े समान हो / क्षेत्रसमाधि वह है-जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति-समाधि प्राप्त हो, कालसमाधि का अर्थ है--जिस ऋतु, मास या काल में शान्ति प्राप्त हो / भावसमाधि का अर्थ हैचित्त की स्वस्थता, शान्ति, एकाग्रता, समता, संतुष्टि, प्रसन्नता आदि या जिन ज्ञानादि गुणों द्वारा समाधि लाभ हो। 7 प्रस्तुत अध्ययन में भावसमाधि (आत्मप्रसन्नता) के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है, भावसमाधि ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप रूप है / दशवकालिक सूत्र में विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि का (प्रत्येक के चार-चार भेद सहित) उल्लेख है, ये भी भावसमाधि के अन्तर्गत हैं / दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार उक्त बीस असमाधि स्थानों से दूर रहना भी भावसमाधि है। सम्यक्चारित्र में स्थित साधक चारों भावसमाधियों में आत्मा को स्थापित कर लेता है। 1 पाइअ सहमहण्णवो पृ० 870 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 103 से 106 तक (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 186-187 ३(क) दशवकालिक सूत्र अ० 6, उद्देशक चार में 4 प्रकार की समाधियों का वर्णन / (ख) दशाश्रुतस्कन्ध प्रथम दशा में 20 प्रकार के समाधि स्थान / (ग) दशाश्रुतस्कन्ध में चित्त समाधि प्राप्त होने के 10 स्थान (कारण) --आयारदशा पृ० 1 -आयारदशा पृ०३४ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 375 प्रस्तुत अध्ययन में शास्त्रकार ने श्रमण को चारित्रसमाधि के लिए किसी प्रकार का संचय न करना, समस्त प्राणियों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना, आरम्भादि प्रवृत्तियों में हाथ-पैर आदि को संयत रखना, निदान न करना, हिंसा, चौर्य, अब्रह्मचर्य आदि पापों से दूर रहना, अप्रतिबद्ध विचरण, आत्मवत् प्रेक्षण, एकत्वभावना, क्रोधादि से विरति, सत्यरति, कामना रहित तपश्चरण, तितिक्षा, वाग्गुप्ति, शुद्धलेश्या, स्त्री संपर्गनिवृत्ति, धर्मरक्षा के विचारपूर्वक पापविरति पेक्षता, कायव्युत्सर्ग, जीवन-मरणाकांक्षा रहित होना आदि समाधि प्राप्ति के उपायों का तथा समाधि भंग करने वाला स्त्रीसंसर्ग, परिग्रह-ममत्व, भोगाकांक्षा आदि प्रवृत्तियों से दूर रहने का निर्देश किया है / तथा ज्ञान-समाधि एवं दर्शनसमाधि के लिए शंका, कांक्षा आदि से तथा एकान्त क्रियावाद एवं एकान्त अक्रियावाद से भी दूर रहना आवश्यक बताया है। इस अध्ययन का उद्देश्य साधक को सभी प्रकार की असमाधियों तथा असमाधि उत्पन्न करने वाले कारणों से दूर रखकर चारों प्रकार की भाव समाधि में प्रवृत्त करना है। 0 चारों प्रकार की भावसमाधि की फलश्रुति वृत्तिकार के शब्दों में-(१) दर्शन-समाधि में स्थित साधक का अन्तःकरण जिन-प्रवचन में रंगा होने से वह कुबुद्धि या कुदर्शन-रूपी अन्धड़ से विचलित नहीं होता, (2) ज्ञान-समाधि द्वारा साधक ज्यों-ज्यों नवीन-नवीन शास्त्रों का अध्ययन करता है, त्यों-त्यों अतीव रसप्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति की श्रद्धा में वृद्धि एवं आत्म-प्रसत्रता होती है। (3) चारित्रसमाधि में स्थित मुनि विषयसुख निःस्पृह, निष्किचन एवं निरपेक्ष होने से परम शान्ति पाता है। (4) तपःसमाधि में स्थित मुनि उस्कट तप करता हुआ भी घबराता नहीं, न ही क्षुधा-तृषा आदि परीषहों से उद्विग्न होता है, तथा ध्यानादि आभ्यन्तर तप में लीन साधक मुक्ति का-सा आनन्द (आत्मसुख) प्राप्त कर लेता है, फिर वह सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से पीड़ित नहीं होता। 0 प्रस्तुत अध्ययन उद्देशक रहित है और इसमें कुल 24 गाथाएँ हैं / - यह अध्ययन सूत्रगाथा 473 से प्रारम्भ होकर 466 में पूर्ण होता है। 4 (क) सूयगडंगसुत्त (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 85 से 86 तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 150 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 187 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाही : दसम अज्झयणं समाधि : दशम अध्ययन समाधिप्राप्त साधु की साधना के म लमन्त्र-- 473 आघं मइमं अणुवीति धम्म, अंजू समाहि तमिणं सुणेह / अपडिपणे भिक्खू तु समाहिते, अणिराणभूते सुपरिन्धएज्जा // 1 // 474. उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे यावर जे य पाणा। ___हत्थेहि पाएहि य संजमेत्ता, अदिण्णमन्न सु य नो गहेजा // 2 // 475. सुअक्खातधम्मे वितिगिच्छतिग्णे, लाढे चरे आयतुले पयासु / आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठो, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू // 3 // 476. सबिदियऽभिनिम्बुडे पयासु, चरे मुणो सम्वतो विप्पमुक्के / पासाहि पाणे य पुढो वि सते, दुक्खेण अट्टे परिपच्चमाणे // 4 // 477. एतेस बाले य पकुब्वमाणे, मावदृती कम्मसु पावएसु / अतिवाततो कीरति पावकम्म, निउंजमाणे उ करेति कम्मं // 5 // 478. आवीणभोई वि करेति पावं, मंता तु एगंतसमाहिमाहु। बुद्ध समाहीय रते विवेगे, पाणातिपाता विरते ठितप्पा // 6 // 476. सम्वं जगं तू समयाणपेही, पियमप्पियं कस्सइनो करेज्जा। उट्ठाय दोणे तु पुणो विसण्णे, संपूयणं चेव सिलोयकामी // 7 // 480. आहाकडं चेव निकाममोणे, निकामसारी य विसण्णमेसी। इत्थोसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुवमाणे // 8 // 481. वेराणुगिद्ध णिचयं करेति, इतो चुते से दुहमठ्ठदुग्गं / तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्म, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के / / 6 // Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया : 473 से 487 482. आयं न कुज्जा इह जीवितही, असज्जमाणो य परिव्वएज्जा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धि, हिंसपिगतं वा ण कह करेज्जा // 10 // 483. आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेज्जा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चेवाण सोयं अणपेक्खमाणे // 11 // 484. एगत्तमेव अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो ण मुसं ति पास / एसप्पमोक्खो अमुसे वरे वो अकोहणे सच्चरते तवस्सो // 12 // 485. इत्थीसु या आरत मेहुणा उ, परिग्गहं चेव अकुत्रमाणे / उच्चावएसु विसएस ताई, णिस्संसयं भिक्खू समाहिपत्ते // 13 // 486 अति रति च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सोतफासं / उण्हं च दंसं च हियासएज्जा, सुभि च दुभि च तितिक्खएज्जा // 14 // 487. गुत्तो वईए य समाहिपत्ते, लेसं समाहट्ट परिव्वएज्जा। गिहं न छाए ण वि छावएज्जा, संमिस्सभावं पजहे पयाम् // 15 // 473. मतिमान् (केवलज्ञानो) भगवान महावीर ने (केवलज्ञान से) जानकर सरल समाधि (मोक्षदायक) धर्म कहा है. (हे शिष्यो !) उस धर्म को तुम मुझ से सुनो। जो भिक्षु अप्रतिज्ञ (तप को ऐहिकपारलौकिक फलाकांक्षा से रहित) है, अनिदान भूत (विषयसुख प्राप्तिरूप निदान अथवा कर्मबन्ध के आदिकारणों (आश्रवों) या दुःखकारणरूप हिंसादि निदान या संसार के कारणम्प निदान से रहित है, अथवा अनिदान संसारकारणाभावरूप सम्यग्ज्ञानादि युक्त है, वही समाधिप्राप्त है / ऐसा मुनि शुद्ध संयम में पराक्रम करे। 474. ऊँची-नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, अपने हाथों और पैरों को संयम में रखकर (अथवा उनके हाथ-पैरों को बांधकर) किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं देनी चाहिए, (या हिंसा नहीं करनी चाहिए), तथा दूसरों के द्वारा न दिये हुए पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। 475. श्रुत और चारित्र-धर्म का अच्छी तरह प्रतिपादन करने वाला तथा वीतरागप्ररूपित धर्म में विचिकित्सा-शंका से ऊपर उठा हआ-पारंगत, प्रासुक आहार-पानी तथा एषणीय अन्य उपकरणादि से अपना जीवन-यापन करने वाला, उत्तम तपस्वी एवं भिक्षाजीवी साधु पृथ्वीकाय आदि प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य (होकर) विचरण (-विचार) करे, या व्यवहार करे / इस लोक में चिरकाल तक (संयमी जीवन) जीने की इच्छा से आय (धन की आमदनी-कमाई या आश्रवों को आय-वृद्धि) न करे, तथा भविष्य के लिए (धन-धान्य आदि का) संचय न करे / 476. मूनि स्त्रियों से सम्बन्धित पंचेन्द्रिय विषयों से अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने। तथा बाह्य और आभ्यन्तर सभी संगों (आमक्ति-बन्धनों) से विशेष रूप से मुक्त होकर साधु (संयम Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि पथ पर) विचरण करे / एवं यह देखे कि प्राणी इस संसार में दुःख (असातावेदनीयोदयरूप अथवा स्वकृत अष्ट विधकर्मरूप दुःख) से आर्त (पीड़ित) और सब प्रकार से संतप्त हो (अथवा आर्तध्यान करके मनवचन-काया से संतापानुभव कर रहे हैं। 477. अज्ञानी जीव इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि) प्राणियों को छेदन-भेदन-उत्पीड़न आदि के रूप में कष्ट देकर अत्यन्त पापकर्म करता हुआ (उनके फलस्वरूप) इन्हीं पथ्वीकायादि योनियों में बारबार जन्म लेता है, और उसी रूप में पीड़ित होता है। प्राणातिपात स्वयं करने से प्राणी ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उपार्जन करता है, तथा दूसरों को प्राणातिपातादि पापकर्मों में प्रेरित करके भी पाप (कर्मों का बन्ध) करता है। 478. जो साधक दीनवत्ति (कंगाल भिखारी की तरह या पिण्डोलक की तरह) से भोजन प्राप्त करता है, वह भी पाप करता है। यह जानकर तीर्थंकरों ने एकान्त (भावरूप ज्ञानादि) समाधि का उपदेश दिया है। इसलिए प्रबुद्ध (विचारशील तत्त्वज्ञ) स्थितात्मा (स्थिर बुद्धि) साधक भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात ने विरत रहे। 476. साधु समस्त जगत (प्राणिसमूह) को समभाव से देखे। वह किसी का भी प्रिय (रागभाव प्रेरित व्यवहार) या अप्रिय (उपनाव प्रेरित व्यवहार) न करे / कोई व्यक्ति प्रवजित होकर (परीषहों एवं उपसर्गों की बाधा आने पर) दीन और फिर विषण्ण हो जाता है, अथवा विषयार्थी होकर पतित हो जाता है, कोई अपनी प्रशंसा का अभिलाषी होकर वस्त्रादि से सत्कार (पूजा) चाहता है। 480. जो (व्यक्ति प्रवजित होकर) आधाकर्म आदि दोषदुषित आहार की अत्यन्त लालसा करता है, तथा जो वैसे आहार के लिये निमन्त्रण आदिपूर्वक इधर-उधर खूब भटकता है, वह (पार्श्वस्थ आदि कुशीलों के) विषण्ण भाव को प्राप्त करना चाहता है / तथा जो स्त्रियों में आसक्त होकर उनके अलगअलग हास्य, विलास, भाषण आदि में अज्ञानी (सद-असद्-विवेक रहित) की तरह मोहित हो जाता है, वह (स्त्रियों की प्राप्ति के लिए) परिग्रह (धनादि का संग्रह) करता हुआ पापकर्म का संचय करता है। 481. जो व्यक्ति हिंसादि करके) प्राणियों के साथ जन्म-जन्मान्तर तक वैर बांधता है, वह पापकर्म का निचय (वृद्धि) करता है / वह यहाँ (इस लोक) से च्युत हो (मर) कर परमार्थतः दुर्गम नरकादि दुःख स्थानों में जन्म लेता है। इसलिए मेधावी (मर्यादावान् विवेकी) मुनि (सम्पूर्णसमाधिगुणमूलक-श्र तचारित्ररूप) धर्म का सम्यक विचार या स्वीकार करके बाह्याभ्यन्तरसंगों (बन्धनों) से समग्र रूप से विमुक्त होकर मोक्ष (संयम) पथ में विचरण करे। 482. साधु इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आय (द्रव्योपार्जन या कर्मोपार्जन) न करे तथा स्त्री-पुत्र आदि में अनासक्त रहकर संयम में पराक्रम करे। साधु पूर्वापर विचार करके कोई बात कहे / (शब्दादि विषयों से) आसक्ति हटा ले तथा हिंसायुक्त कथा (उपदेश) न कहे। 483. (समाधिकामी) साधु आधाकर्मी आहार की कामना न करे, और न ही आधाकर्मी आहार की कामना करने वाले के साथ परिचय (संसर्ग) करे। (उत्कट तप से कर्मनिर्जरा होती है, इस प्रकार की) अनुप्रेक्षा करता हुआ साधु औदारिक शरीर को कृश करे (धुने) / शरीर (को पुष्ट या सशक्त Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया 473 से 467 376 बनाने) की अपेक्षा न रखता हुआ साधु (तपस्या से कृश हुए) शरीर का शोक (चिन्ता) छोड़कर संयम में पराकम करे। 484. साधु एकत्व भावना का अध्यवसाय करे / ऐसा करने से वह संग से मुक्त होता है, फिर उसे कर्मपाश (या संसार बन्धन) नहीं छूते। यह (एकत्वभावनारूप) संगत-मुक्ति मिथ्या नहीं, सत्य है, और श्रेष्ठ भी है / जो साधु क्रोध रहित, सत्य में रत एवं तपस्वी है; (वही समाधिभाव को प्राप्त है।) 485. जो साधक स्त्री विषयक मैथुन से निवृत्त है, जो परिग्रह नहीं करता, एवं नाना प्रकार के विषयों में राग-द्वेषरहित होकर आत्मरक्षा या प्राणिरक्षा करता है, नि:सन्देह वह भिक्षु समाधि प्राप्त है। 486. (समाधिकामी) साधु संयम में अरति (खेद) और असंयम में रति (रुचि) को जीतकर तृणादि स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श और दंश-मशक-स्पर्श (परीषह) को (अक्षुब्ध होकर समभाव से) सहन करे, तथा सुगन्ध-दुर्गन्ध (एवं आकोश, वध आदि परीषहों को भी (समभाव से राग-द्वष रहित होकर) सहन करे। 487. जो साधु वचन से गुप्त (मौनव्रती या धर्मयुक्त भाषी) रहता है, वह भाव समाधि को प्राप्त है (ऐसा समाधिस्थ) सा (अशुद्ध कृष्णादि लेश्याओं को छोड़कर) शुद्ध तेजस आदि लेश्याओं को ग्रहण करके संयम पालन में पराक्रम करे तथा स्वयं घर को न छाए, न ही दूसरों से छवाए, (न ही गृहादि को संस्कारित करे।) एवं प्रत्नजित साधु पचन-पाचन आदि गृह कार्यों को लेकर गृहस्थों से, विशेषतः स्त्रियों से मेलजोल (सम्पर्क या मिश्रभाव) न करे। विवेचन--समाधि प्राप्त साधु की साधना के मल मन्त्र-मोक्षदायक समाधि प्राप्त करने की साधना के लिए प्रस्तुत 15 सूत्र गाथाओं में से निम्नलिखित मूल मन्त्र फलित होते हैं ---(1) समाधि प्राप्ति के लिए साध को अप्रतिज्ञ (इह-परलोक सम्वन्धी फलाकांक्षा से रहित) तथा अनिदान (विषय-सुख प्राप्ति रूप निदान से रहित) होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे, (2) सर्वत्र सर्वदा त्रस-स्थावर प्राणियों पर संयम रखे, उन्हें पीड़ा न पहुंचाए, (3) अदत्तादान से दूर रहे, (4) वीतराग प्ररूपित श्रुत-चारित्र रूप धर्म में संशयरहित हो। (5) प्रासुक आहार-पानी एवं एषणीय उपकरणादि से अपना जीवन निर्वाह करे, (6) समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करे, (7) चिरकाल तक जीने की आकांक्षा से न तो आय करे, न ही पदार्थों का संचय करे, (8) स्त्रियों से सम्बद्ध पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त होने से अपनी इन्द्रियों को रोके, जितेन्द्रिय बने, (E) बाह्य-आभ्यन्तर सभी सम्बन्धों से मुक्त होकर संयम में विचरण करे, (10) पथ्वीकायिकादि प्राणियों को दुःख से आर्त और आतध्यान से संतप्त देखे, (11) पृथ्वीकायादि प्राणियों को छेदन-भेदन एवं उत्पीड़न आदि से काट पहुंचाने वाले जीवों को उनके पापकर्म के फलस्वरूप उन्हीं योनियों में बार-बार जन्म लेकर पीड़ित होना पड़ता है, प्राणातिपात से ज्ञानावरणीयादि पापकर्मों का बन्ध होता है / अतः समाधिकामी साधु इनसे दूर रहे। (12) तीर्थंकरों ने भाव समाधि का उपदेश इसी उद्देश्य से दिया है कि साधक न तो दीनवृत्ति से भोजन प्राप्त करे न ही असन्तुष्ट होकर; क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में अशुभ (पाप) कर्म बँधता है। (13) भावसमाधि के लिए साधक तत्त्वज्ञ, स्थिरबुद्धि विवेकरत एवं प्राणातिपात आदि से विरत हो, (14) समाधि प्राप्ति के लिए साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे, रागभाव अथवा द्वेषभाव से प्रेरित होकर न तो किसी का प्रिय बने, न ही किसी का अप्रिय, Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि किसी की भलाई-बुराई के प्रपंच में न पड़े, (15) प्रअजित साधु दीन, विषण्ण पतित और प्रशंसा एवं आदर-सत्कार का अभिलाषी न बने, (16) आधाकर्मादि दोप दूषित आहार की लालसा न करे, न ही वैसे आहार के लिए घूमे, अन्यथा वह विषण्ण भाव को प्राप्त हो जाएगा। (17) स्त्रियों से सम्बन्धित विविध विषयों में आसक्त होकर स्त्री प्राप्ति के लिए धनादि संग्रह करता है, वह पाप कर्म का सचय करके असमाधि पाता है। (18) जो प्राणियों के साथ वैर बांधता है, वह उस पापकर्म के फलस्वरूप यहाँ से मरकर नरकादि दुःख स्थानों में जन्म लेता है, इसलिए मेधात्री मुनि को समाधि-धर्म का सम्यक विचार करके इन सब पापों या ग्रन्थों से मुक्त होकर संयमाचरण करना चाहिए। (16) चिरकाल तक जीने की इच्छा से धन या कर्म की आय न करे, अपितु धन, धाम, स्त्री-पुत्र आदि में अनासक्त रह कर संयम में पराक्रम करे। (20) कोई बात कहे तो सोच-विचार कर कहे, (21) शब्दादि विषयों से आसक्ति हटा ले, (22) हिंसात्मक उपदेश न करे, (23) आधाकर्मी आदि दोषयुक्त आहार की न तो कामना करे और न ही ऐसे दोषयुक्त आहार से संसर्ग रखे, (24) कर्मक्षय के लिए शरीर को कृश करे, शरीर स्वभाव की अनुप्रक्षा करता हुआ शरीर के प्रति निरपेक्ष एवं निश्चिन्त हो जाए / (25) एकत्व भावना ही संगमोक्ष का कारण है, यही भाव समाधि का प्रधान कारण है, (26) भाव समाधि के लिए साधु क्रोध से विरत, सत्य में रत एवं तपश्चर्या परायण रहे / (27) जो साधु स्त्री सम्बन्धी मथुन से विरत रहता है, परिग्रह नहीं करता और विविध विषयों से स्व-पर की रक्षा करता है, निःसंदेह वह समाधि प्राप्त है। (28) जो साधु अरति और रति पर विजयी बनकर तृण स्पर्श, शीतोष्ण स्पर्श, दंशमशक स्पर्श, सुगन्धदर्गन्ध प्राप्ति आदि परीषहों को समभाव से सहन कर लेता है, वह भी समाधि प्राप्त है। (21) जो साध वचनगुप्ति से युक्त हो, शुद्ध लेश्या से युक्त होकर संयम में पराक्रम करता है, न तो घर बनाता है, न बनवाता है और गृहस्थी के विशेषतः स्त्री सम्बन्धी गृहकार्यों से सम्पर्क नहीं रखता, वह भी समाधि प्राप्त है।' निःसंदेह समाधिकामी साध के लिए ये मूल मन्त्र बड़े उपयोगी हैं। पाठान्तर और व्याख्या-'परिपच्चमाणे के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है-'परितप्पमाणे- व्याख्या है.-परितप्त होते हुए प्राणियों को / 'ठितप्पा' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है--ठितच्चा'-- व्याख्या है-स्थिर अर्चा-लेश्या-मनोवृत्ति वाला / 'णिकाममोणे' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'णियायमोणे'-- व्याख्या है- "णियायणा' का अर्थ है-निमन्त्रण ग्रहण करता है, वह 'णियायमीण'। 'निकामसारों के बदले पाठान्तर है-निकामचारो' व्याख्या है-- आधाकर्मादि दोपयुक्त आहार का निकाम-अत्यधिक सेवन करता है या स्मरण करता है / 'जीविती '--दो व्याख्याएँ --- (1) इस लोक में जीवित यानी काम-भोग, यशकीति इत्यादि चाहने वाला, (2) इस संसार में असंयमी जीवन जीने का अभिलाषी / चेन्चाण सोय-(१) शोक....चिन्ता छोड़कर अथवा (2) श्रोत-गृह-स्त्री-पुत्र-धनादि रूप प्रवाह को छोड़कर / 'इत्योसु'- देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी तीनों प्रकार की स्त्रियों में। "णिस्संसयं-- (1) निःसंशय-नि:सन्देह अथवा (2) निःसंश्रय-विषयों का संश्रय-संसर्ग न करने वाला साधार 1 सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 187 से 162 तक का सारांश 2 (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 187 से 162 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 85 से 87 तक Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 488 से 461 381 भावसमाधि से दूर लोगों के विविध त्रिल-- 488. जे केइ लोगंसि उ अकिरियाया, अण्णेण पुट्ठा धुतमादिसति / आरंभसत्ता गढिता य लोए, धम्म न याणं ति विमोक्खहेउं // 16 // 486. पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीणं च पुढो य वायं / जायस्स बालस्स पकुव्व देह' पवड्ढती वेरमसंजतस्स / / 17 / / 460. आउक्खयं चेव अबुझमाणे. ममाति से साहसकारि मदे / ____ अहो य रातो परितप्पमाणे, अट्ट सुमूढे अजरामर व // 18 / / 461. जहाहि वित्तं पसवो य सम्वे, जे बांधवा जे य पिता य मित्ता। लालप्पती सो वि य एइ मोहं, अन्न जणा तं सि हरंति वित्तं // 16 / / 488. इस लोक में जो (सांख्य) लाग आन्ना को अक्रिय (अकर्ता, कूटस्थनित्य) मानते हैं, और दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर मोक्ष (धूत = आत्मा के मोक्ष में अस्तित्व) का प्रतिपादन करते हैं, वे सावध आरम्भ में आसक्त और विषय-भोगों में गृद्ध लोग मोक्ष के कारणभूत धर्म को नहीं जानते। 486. इस लोक में मनुष्यों की रुचि भिन्न-भिन्न होती है, इसलिए कोई क्रियावाद को मानते हैं वाद को। कोई जन्मे हुए बालक के शरीर को खण्डशः काटकर अपना सूख मानते हैं। वस्तुतः असंयमी व्यक्ति का प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है / 460. आरम्भ में आसक्त पुरुष आयुष्य-क्षय को नहीं समझता, किन्तु वह मूढ़ (मन्द) सोसारिक पदार्थों पर ममत्व रखता हुआ पापकर्म करने का साहस करता है / वह दिन-रात चिन्ता से संतप्त रहता है। वह मूढ़ स्वयं को अजर-अमर के समान मानता हुआ अर्थों (धन आदि पदार्थों) में मोहितआसक्त रहता है। 461. समाधिकामी व्यक्ति धन और पशु आदि सव पदार्थों का (ममत्व) त्याग करे / जो बान्धव और प्रिय मित्र हैं, वे वस्तुतः कुछ भी उपकार नहीं करते, तथापि मनुष्य इनके लिए शोकाकुल होकर विलाप करता है और मोह को प्राप्त होता है। (उसके मर जाने पर) उनके (द्वारा अत्यन्त क्लेश से उपाजित) धन का दूसरे लोग ही हरण कर लेते हैं। विवेचन-मायसमाधि से दूर लोगों के विविध चित्र-प्रस्तुत चार सूत्र गाथाओं में उन लोगों का चित्र शास्त्रकार ने प्रस्तुत किया है, जो वस्तुतः भाव समाधि से दूर हैं, किन्तु भ्रमवश स्वयं को समाधि प्राप्त (सुखमग्न) मानते हैं। वे क्रमशः चार प्रकार के हैं -(1) दर्शन समाधि से दूर-आत्मा को निष्क्रिय (अकर्ता) मानकर भी उसके द्वारा घटित न हो सकने वाले शाश्वत समाधि रूप मोक्ष का कथन करते हैं, (2) जाम-समाधि से दूर-मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप धर्म को नहीं जानते, अपितु आरम्भासक्ति एवं विषयभोग गृद्धि रूप अधर्म को ही मोक्ष का कारणभूत धर्म जान कर उसी में रचे-पचे रहते हैं, (3) दर्शन-समाधि से दूर-क्रियावादी और अक्रियावादी / एकान्त क्रियावादी स्त्री, भोगोपभोग्य 1 पाठान्तरजायाए बालस्स पगाभणाए / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 सूत्रकृतांग---दशम अध्ययन --- समाधि पदार्थों एवं विषयभोगों आदि की उपभोग क्रिया को समाधि (सुख) कारक मानते हैं, उक्त पदार्थों के ज्ञान को नहीं / एकान्त अक्रियावादी आत्मा को अकर्ता मानकर तत्काल जन्मे हुए बालक के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसमें आनन्द (समाधि' मानते हैं। किन्तु वस्तुतः दूसरों को पीड़ा देने वाली पापक्रिया आत्मा को अक्रिय मानने-कह। मात्र से टल नहीं जाती, प्राणियों के साथ वैरवर्द्धक उस पाप का फल भोगना ही पड़ता है। (4) चारित्र-समाधि से दूर-अपने आपको आयुष्य क्षय रहित अमर मानकर रात-दिन धन, सांसारिक पदार्थ, स्त्री-पुत्र आदि पर ममत्व करके उन्हीं की प्राप्ति, रक्षा, वृद्धि आदि की चिन्ता में मग्न रहते है, ऐसे लोग समाधि (सुख-शान्ति के मूलभूत कारण ( वैराग्य, संयम, तप, नियम आदि रूप चारित्र) से दूर रहते हैं। मरने पर उनके द्वारा पाप से उपाजित धनादि पदार्थों को दूसरे ही लोग हड़प जाते हैं, न तो इहलोक में उन्हें समाधि प्राप्त होतो है, न ही परलोक में वे समाधि पाते हैं / पानान्तर और व्याख्या-धुतमादिसति' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'धुतमादियंति' -- व्याख्या है-'धुत' अर्थात् वैराग्य की प्रशंसा करते हैं / 'जायस्स बालस्स पकुव्व देह' के बदले यहाँ युक्ति एवं प्रसंग से संगत पाठान्तर है-'जायाए बालस्स पगभणाए' व्याख्या की गई है-हिंसादि पापकर्मों में प्रवृत्त अनुकम्पा रहित अज्ञ (बाल) व्यक्ति की जो (हिंसावाद में) प्रगल्भता-धृष्टता उत्पन्न हुई, उससे उसका प्राणियों के साथ बैर ही बढ़ता है। साहसकारी' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-~~-'सहस्सकारो', व्याख्या दो प्रकार से की गई है-(१) स-हर्ष हिंसादि पाप करता है, (2) सहस्रों (हजारों) पापों को करता है। 'जहाहि वित्त" के बदले पाठान्तर है-'जया हि (य)', व्याख्या दो प्रकार से है-(१) 'वित्तं' आदि पदार्थों का त्याग करके, (2) जैसे कि धन आदि पदार्थ / समाधि प्राप्ति के लिए प्रेरणासूत्र 462. सोहं जहा खुद्दमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेधावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा // 20 // 463. संबुज्झमाणे तु णरे मतीमं, पावातो अप्पाण निवट्टएज्जा। हिंसप्पसूताई दुहाई मंता, वेराणुबंधोणि महन्भयाणि // 21 // 464. मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहि / सयं न कुज्जा न वि कारवेज्जा, करैतमन्नपि य नाणजाणे // 22 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 163 का सार 4 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 87-88 (ख) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 163 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 462 से 466 465. सुद्ध सिया जाए न दूसएज्जा, अमुच्छिते ण य अज्झोववण्णे / धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, न सिलोयकामी य परिश्वएज्जा // 23 // 496. निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी, कायं विओसज्ज नियाणछिण्णे। नो जीवितं नो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के / / 24 / / त्ति बेमि। // समाही : दसम अज्झयणं सम्मत्तं // 462. जैसे वन में विचरण करते हुए मृग आदि छोटे-छोटे जंगली पशु सिंह (के द्वारा मारे जाने) की शंका करते हुए दूर से ही (बचकर) चलते हैं, इसीप्रकार मेधावी साधक (समाधि रूप) धर्म का विचार करके (असमाधि प्राप्त होने की शंका से) पाप को दूर से ही छोड़कर विचरण करे। 463. भाव-समाधि से या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म को समझने वाला (विहितानुष्ठान में प्रवृत्ति करता हुआ) सुमतिमान् पुरुष (हिंसा-असत्यादि रूप) पापकर्म से स्वयं को निवृत्त करे। हिंसा से उत्पत्र अशुभ कर्म नरकादि यातना स्थानों में अत्यन्त दुःखोत्पादक हैं, लाखों जन्मों तक प्राणियों के साथ वैर परम्परा बाँधने वाले हैं, इसीलिए ये महान् भयजनक है। 464. आप्तगामी (आप्त-सर्वज्ञों के द्वारा प्ररूपित मोक्ष मार्ग पर चलने वाला), अथवा आत्महित गामी (आत्म-निःश्रेयसकामी) मुनि असत्य न बोले। इसी तरह वह मृषावाद-विरमण तथा दुसरे महाव्रतों के स्वयं अतिचार (दोष) न करे (लगाए), दूसरे के द्वारा अतिचार-सेवन न कराए तथा अतिचारसेवी का (मन, वचन, काया और कर्म से) अनुमोदन न करे (उसे अच्छा न जाने)। यही निर्वाण (परम शान्ति रूप मोक्ष) तथा सम्पूर्ण भाव-समाधि (कहा गया) है। 465. उद्गम, उत्पाद और एषणादि दोषों से रहित शुद्ध आहार प्राप्त होने पर साधु उस पर राग-द्वेष करके चारित्र को दूषित न करे। मनोज्ञ सरस आहार में भी मूच्छित न हो, न ही बार-बर उस आहार को पाने की लालसा करे : भाव-समाधिकामी साधु तिमान् एवं बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त बने / वह अपनी पूजा-प्रतिष्ठा एवं कीर्ति का अभिलाषी न होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे। 466. समाधिकामी साधु अपने घर से निकल कर (दीक्षा लेकर) अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष (निराकांक्षी) हो जाए, तथा शरीर-संस्कार-चिकित्सा आदि न करता हुआ शरीर का व्युत्सर्ग करे एवं अपने तप के फल की कामना रूप निदान का मूलोच्छेद कर दे / साधु न तो जीवन की आकांक्षा करे और न ही मरण की। वह संसार-वलय (जन्म-मरण के चक्र अथवा कर्मबन्धन या सांसारिक झंझटों के चक्कर) से विमुक्त होकर संयम या मोक्ष रूप समाधि पथ पर विचरण करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-विविध समाधि प्राप्ति के लिए प्रेरणा सूत्र-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए विविध समाधियों की प्राप्ति के लिए कुछ प्रेरणा सूत्र प्रस्तुत किये हैं, जिनके अनुसार चलना भाव समाधिकामियों के लिए अनिवार्य है / इस पंचसूत्री में मुख्यतया आचार Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि समाधि एवं तप:समाधि की प्राप्ति के लिए प्रेरणा सूत्र हैं। समाधि प्राप्ति के ये प्रेरणा सूत्र इस प्रकार है-मूल-गुण रू: आचार समाधि प्राप्ति के लिए -(1) समाधि धर्म की रक्षा के लिए हिंसादि पापों का सर्वथा त्याग करे, (2) समाधि-मर्मज्ञ साधु हिंसादि पापकर्मों से निवृत्त हो जाए, क्योंकि हिंसा से उत्पत्र पापकर्म नरकादि दुःखों के उत्पादक, वैरानुबन्धी और महाभयजनक है। (3) आप्तगामी साधु मनवचन-काया से कृत-कारित- अनुमोदित रूप से असत्य आदि पापों का आचरण न करे। उत्तरगुण रूप आचार समाधि के लिए---(१) निर्दोष आहार प्राप्त होने पर भी मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रतिद्वष करके चारित्र को दुषित न करे, (2) उस आहार में भी न तो मूच्छित हो, न ही उसे बार-बार पाने की लालसा रखे, (3) धृतिमान हो, (4) पदार्थों के ममत्व या संग्रह से मुक्त हो, (5) पुजा-प्रतिष्ठा और कीति की कामना न करे, (6) सहजभाव से शुद्ध संयम-पालन में समुद्यत रहे। तप समाधि प्राप्ति के लिए -- (1) दीक्षा ग्रहण करके साधु अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर रहे (असंयमी जीवन जीने की आकांक्षा न रखे, (2) शरीर को संस्कारित एवं पुष्ट न करता हुआ काय व्युत्सर्ग करे, (3) तपश्चर्यादि के फल की आकांक्षा (निदान) को मन से निकाल दे, (4) न जीने की इच्छा करे, न ही मरने की, (5) संसार चक्र (कर्मवन्ध) के कारणों से या माया से विमुक्त रहकर संयम में पराक्रम करे / 5 पाठान्तर और पाख्या- वेराणुबंधीणि महबमयागि' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'णेवाणभूते द परिवएज्जा', व्याख्या इस प्रकार है- "जैसे युद्ध आदि से निर्वृत-लौटा हुआ पुरुष व्यापार-रहित होने से किसी की हिंसा करने में प्रवृत्त नहीं होता, वैसे हो सावद्य कार्य से रहित पुरुष भी किसी की हिंमा न करता हुआ संयम में पुरुषार्थ करे।" // समाधि : दशम अध्ययन समाप्त / / 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 193 से 165 तक का सारांश 6 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 88 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पनांक 164 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग-एकादश अध्ययन प्राथमिक 0 प्रस्तुत सूत्रकृतांग (प्र० श्रु०) के ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग है। 0 नियुक्तिकार ने 'मार्ग' के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से छह निक्षेप किये हैं। नाम-स्थापना मार्ग सुगम है। द्रव्यमार्ग विभिन्न प्रकार के होते हैं. जैसे-फलकमार्ग, लतामार्ग, आन्दोलकमार्ग, वेत्रमार्ग, रज्जुमार्ग, दवन (वाहन) माग, कोलमार्ग (ठुकी हुई कील के संकेत से पार किया जाने वाला) पाशमार्ग, बिल (गुफा) मार्ग, अजादिमार्ग, पक्षिमार्ग, छत्रमार्ग, जलमार्ग, आकाशमार्ग आदि / इसी तरह क्षेत्रमार्ग (जो मार्ग प्राम, नगर, खेत, आदि जिस क्षेत्र में जाता है, वह) तथा कालमार्ग (जिस काल में मार्ग बना, वह) है, भावमागं वह है, जिससे आत्मा को समाधि या शान्ति प्राप्त हो। / प्रस्तुत अध्ययन में 'भावमार्ग' का निरूपण है / वह दो प्रकार का है-प्रशस्त और अप्रशस्त / सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रशस्त भावमार्ग है। संक्षेप में इसे संयममार्ग या श्रमणाचारमार्ग कहा जा सकता है / अप्रशस्त भावमार्ग मिथ्यात्व, अविरति और अज्ञान आदि पूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रशस्त भावमार्ग को ही तीर्थंकर-गणधरादि द्वारा प्रतिपादित तथा यथार्थ वस्तुस्वरूपप्रतिपादक होने से सम्यग्मार्ग या सत्यमार्ग कहा गया है। इसके विपरीत अन्यतीथिकों या कुमार्गग्रस्त पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील आदि स्वयूथिकों द्वारा सेवित मार्ग अप्रशस्त है, मिथ्यामार्ग है। प्रशस्त मार्ग तप, संयम आदि प्रधान समस्त प्राणिवर्ग के लिए हितकर, सर्वप्राणि रक्षक, नवतत्त्वस्वरूपप्रतिपादक, एवं अष्टादश सहस्रशीलगुणपालक साधुत्व के आचार विचार से ओत-प्रोत है। - नियुक्तिकार ने इसी सत्य (मोक्ष) मार्ग के 13 पर्यायवाचक शब्द बताए हैं-(१) पंथ, (2) मार्ग (आत्मपरिमार्जक), (3) न्याय (विशिष्ट स्थानप्रापक), (4) विधि (सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान का युगपत् प्राप्ति-कारक), (5) धृति (सम्यग्दर्शनादि से युक्त चारित्र में स्थिर रखने वाला, (6) सुगति (सुगतिदायक), (7) हित (आत्मशुद्धि के लिए हितकर), (8) सुख (आत्मसुख का कारण), (9) पथ्य (मोक्षमार्ग के लिए अनुकूल, (10) श्रेय (११वें गुणस्थान के चरम समय में मोहादि उप १(क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 107 से 110 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 196 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग शान्त होने से श्रेयस्कर), (11) निवृत्ति (संसार से निवृत्ति का कारण), (12) निर्वाण (चार घातिकर्मक्षय होकर केवल ज्ञान प्राप्त होने से), और (13) शिव (शैलेशी अवस्था प्राप्तिरूप १४वें गुणस्थान के अन्त में मोक्षपदप्रापक) 12 / नियुक्तिकार ने भावमार्ग की मार्ग के साथ तुलना करते हुए 4 भंग (विकल्प) बताए है। क्षेम, अक्षेम, क्षेमरूप और अक्षेमरूप / जिस मार्ग में चोर, सिंह, व्याघ्र आदि का उपद्रव न हो, वह क्षेम तथा जो मार्ग कांटे, कंकड़, गडढे, पहाड, ऊबड़खाबड़ पगडंडी आदि से रहित, सम तथा, वृक्ष फल, फल. जलाशय आदि से यक्त हो वह क्षेमरूप होता है। इससे विपरीत क्रमश: अक्षम और अक्षेमरूप होता है। इसकी चतुभंगी इस प्रकार है-१ कोई मार्ग क्षेम और क्षेमरूप, 3. कोई मार्ग क्षेम है, क्षेमरूप नहीं, 3. कोई मार्ग क्षेम नहीं, किन्तु क्षेमरूप है, और 4. कोई मार्ग न तो क्षेम होता है, न क्षेमरूप होता है / इसी प्रकार प्रशस्त-अप्रशस्त भावमार्ग पर चलने वाले पथिक की दृष्टि से भी क्षेम, क्षेमरूप आदि 4 विकल्प (भंग) होते हैं--(१) जो संयमपथिक सम्यग्ज्ञानादि मार्ग से युक्त (क्षेम) तथा द्रव्यलिंग (साधूवेष) से भी युक्त (क्षेमरूप) है, (2) जो ज्ञानादि मार्ग से तो युक्त (क्षेम) हैं, किन्तु द्रालगयुक्त (क्षेमरूप) नहीं, (3) तृतीय भंग में निह्नव है, जो अक्षेम किन्तु क्षेमरूप और (4) चतुर्थ भंग में अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ हैं, जो अक्षेम और अक्षेमरूप हैं। साधु को क्षेम और क्षेम हम मार्ग का ही अनुयायी होना चाहिए। - प्रस्तुत अध्ययन में आहारशुद्धि, सदाचार, संयम, प्राणातिपात-विरमण आदि का प्रशस्त भावमार्ग के रूप में विवेचन है तथा दुर्गतिदायक अप्रशस्तमार्ग के प्ररूपक प्रावादकों (क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादो एवं अज्ञानवादी कुल 363) से बचकर रहने तथा प्राणप्रण से मोक्षमार्ग पर दृढ़ रहने का निर्देश है / दानादि कुछ प्रवृत्तियों के विषय में प्रत्यक्ष पूछे जाने पर श्रमण को न तो उनका समर्थन (प्रशंसा) करना चाहिए और न ही निषेध / दसवें अध्ययन में निरूपित भाव समाधि का वर्णन इस अध्ययन में वर्णित भावमार्ग से मिलता-जुलता है। - दुर्गति-फलदायक अप्रशस्त भावमार्ग से बचाना और सुगति फलदायक प्रशस्त भावमार्ग की ओर साधक को मोड़ना इस अध्ययन का उद्देश्य है। 0 उद्देशकरहित इस अध्ययन की गाथा संख्या 38 है। 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्रगाथा संख्या 467 से प्रारम्भ होकर सू० गा० 534 पर पूर्ण होता है। 2 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 112 से 115 तक (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 197 3 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 111 (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 166 4 (क) सूयगडंगसुत्त (मूलपाठ टिपण) पृ० 60 से६५ तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 151 5 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 166 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्गो : एगारसमं अज्झयणं ___ मार्ग-ग्यारहवां अध्ययन मार्गसम्बन्धी जिज्ञासा, महत्व और समाधान 467. कयरे मग्गे अक्खाते, माहणेण मतीमता। जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं // 1 // 468. तं मग्गं अणुत्तरं सुद्ध, सव्वदुक्खविमोक्खणं / जाणासि णं जहा भिक्खू, तं णे बूहि महामुणी // 2 // 466. जइ णे के पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा। तेसि तु कतरं मग्गं, आइक्खेज्ज कहाहि णे // 3 // 500. जइ वो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा / तेसिमं पडिसाहेज्जा, मग्गसारं सुणेह मे // 4 // 501. अणुपुब्वेण महाघोरं, कासवेण पवेदि / जमादाय इओ पुव्वं, समुदं व ववहारिणो // 5 // 502. अरिसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागता / तं सोच्चा पडिबक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे // 6 // 467. अहिंसा के परम उपदेष्टा (महामाहन) केवलज्ञानी (विशुद्ध मतिमान्) भगवान् महावीर ने कौन-सा मोक्षमार्ग बताया है ? जिस सरल मार्ग को पाकर दुस्तर संसार (ओघ) को मनुष्य पार करता है ? 468. हे महामुने ! सब दुःखों से मुक्त करने वाले शुद्ध और अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) उस मार्ग को आप जैसे जानते हैं, (कृपया) वह हमें बताइए। 466. यदि कोई देव अथवा मनुष्य हमसे पूछे तो हम उनको कौन-सा मार्ग बताएँ ? (कृपया) यह हमें बताइए। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग 500. यदि कोई देव या मनुष्य तुमसे पूछे तो उन्हें यह (आगे कहा जाने वाला) मार्ग बतलाना चाहिए। वह साररूप मार्ग तुम मुझसे सुनो। 501-502. काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित उस अतिकठिन मार्ग को मैं क्रमशः बताता हूँ। जैसे समुद्र मार्ग से विदेश में व्यापार करने वाले व्यापारी समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही इस मार्ग का आश्रय लेकर इससे पूर्व बहुत-से जीवों ने संसार-सागर को पार किया है, वर्तमान में कई भव्यजीव पार करते हैं, एवं भविष्य में भी बहुत-से जीव इसे पार करेंगे। उस भावमार्ग को मैंने तीर्थंकर महावीर से सुनकर (जैसा समझा है) उस रूप में मैं आप (जिज्ञासुओं) को कहूँगा / हे जिज्ञासु. जीवो ! उस मार्ग (सम्बन्धी वर्णन) को आप मुझसे सुने।। विवेचन-मार्ग सम्बन्धी जिज्ञासा, महत्त्व और समाधान की तत्परता-प्रस्तुत छह सूत्रगाथ तीन सत्रगाथाओं में श्री जम्बूस्वामी आदि द्वारा गणधर श्री सुधर्मास्वामी से संसार-सागरतारक, द:ख-विमोचक, अनुत्तर, शुद्ध, सरल तीर्थकर-महावीरोक्त भावमार्ग से सम्बन्धित प्रश्न पूछा गया है, साथ ही यह भी बताने का अनुरोध किया गया है, कोई सुलभबोधि संसारोद्विग्न देव या मानव उस सम्यग्मार्ग के विषय में हमसे पूछे तो हम क्या उत्तर दें ? इसके बाद की तीन सूत्रगाथाओं में उक्त मार्ग का माहात्म्य बताकर उस सारभूत मार्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा का समाधान करने की तैयारी श्री सूधर्मास्वामी ने बताई है। कठिन शब्दों को व्याख्या--'पडिसाहिज्जा'-प्रत्युत्तर देना चाहिए / 'मगसारं'= मार्ग का परमार्थ / ' अहिसाम्नार्ग 503. पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी / बाउजीवा पुढो सत्ता, तण रुक्ख सबोयगा॥७॥ 504. अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। इत्ताव ताव जीवकाए, नावरे विज्जती काए // 8 // 505. सव्वाहि अणुजुत्तीहि, मतिमं पडिलेहिया। ___ सव्वे अर्कतदुक्खा य, अतो सम्वे न हिंसया / / 6 // 506. एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं / अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया // 10 // 507. उड्ढ अहे तिरियं च, जे केइ तस-थावरा। सम्वत्थ विरति कुज्जा, संति निध्वाणमाहियं // 11 // 1 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 168-166 पर से। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 503 से 509 508. पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणइ / मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो // 12 // 503. पृथ्वी जीव है, पृथ्वी के आश्रित भी पथक्-पृथक् जीव हैं, जल एवं अग्नि भी जीव है, वायुकाय के जीव भी पृथक्-पृथक् हैं तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज (के रूप में वनस्पतियाँ) भी जीव हैं। 504. इन (पूर्वोक्त पाँच स्थावर जीव निकाय) के अतिरिक्त (छठे) त्रसकाय वाले जीव होते हैं। इस प्रकार तीर्थकरों ने जीव के छह निकाय (भेद) बताए हैं। इतने ही (संसारी) जीव के भेद हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और कोई जीव (का मुख्य प्रकार) नहीं होता। 505. बुद्धिमान पुरुष सभी अनुकूल (संगत) युक्तियों से (इन जीवों में जीवत्व) सिद्ध करके भलीभाँति जाने-देखे कि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है (सभी सुखलिप्सु हैं), अत: किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 506. ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का यही सार-निष्कर्ष है कि वह किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता। अहिंसा प्रधान शास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्त या उपदेश जानना चाहिए। 507. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक में) जो कोई त्रस और स्थावर जीव हैं, सर्वत्र उन सबकी हिंसा से विरति (निवृत्ति) करना चाहिए। (इस प्रकार) जीव को शान्तिमय निर्वाण-मोक्ष (की प्राप्ति कही गई) है। 508. इन्द्रियविजेता साधक दोषों का निवारण करके किसी भी प्राणी के साथ जीवनपर्यन्त मन से, वचन से या काया से वैर विरोध न करे / विवेचन-अहिंसा का मार्ग --इन छहः सूत्रगाथाओं में मोक्षमार्ग के सर्वप्रथम सोपान-अहिंसा के विधिमार्ग का निम्नोक्त सात पहलूओं से प्रतिपादन किया गया है-(१) त्रस-स्थावररूप षटकाय में जीव (चेतना) का अस्तित्व है, (2) किसी भी जीव को दुःख प्रिय नहीं है, (3) हिंसा से जीव को दुःख होता है, अतः किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। (4) ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार अहिंसा है / (5) अहिंसाशास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्तसबस्व है कि लोक में जो कोई त्रस या स्थावर जीव हैं, साधक उनकी हिंसा से सदा सर्वत्र विरत हो जाए। (6) अहिंसा ही शान्तिमय निर्वाण की कुंजी है, (7) अतः मोक्ष-मार्गपालनसमर्थ व्यक्ति को अहिंसा के सन्दर्भ में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, एवं योगरूप दोषों को दूरकर किसी भी प्राणी के साथ मन-वचन-काया से जीवन भर वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। एषणासमिति मार्ग-विवेक 506. संवुडे से महापण्णे, धोरे दत्तेसणं चरे। एसणासमिए णिच्च, वज्जयंते अणेसणं // 13 // 2 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 200 का सारांश Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग 510. भूयाइं समारंभ, समुद्दिस्स य जं कडं / तारिसं तु ण गेण्हेज्जा, अन्न पाणं सुसंजते // 14 // 511. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा, एस धम्मे वुसीमतो। .. जं किंचि अभिकखेज्जा, सब्यसो तं ण कप्पते // 15 // 506. वह साधु महान् प्राज्ञ, अत्यन्त धीर और अत्यन्त संवृत (आश्रवद्वारों का या इन्द्रिय-विषयों का निरोध किया हुआ) है, जो दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि पदार्थ ग्रहण करता है, तथा जो अनेषणीय आहारादि को वजित करता हुआ सदा (गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं ग्रासैषणारूप त्रिविध) एषणाओं से सम्यक् प्रकार से युक्त रहता है। 510. जो आहार-पानी प्राणियों (भूतों) का समारम्भ (उपमर्दन) करके साधुओं को देने के उद्देश्य से बनाया गया है, वैसे (दोपयुक्त) आहार और पानी को सुसंयमी साधु ग्रहण न करे। 511. पूतिकर्मयुक्त (शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार के एक कण से भी मिश्रित) आहार का सेवन साधु न करे / तथा शुद्ध आहार में भी यदि अशुद्धि की शंका हो जाए तो वह आहार भी साधु के लिए सर्वथा ग्रहण करने योग्य (कल्पनीय) नहीं है / शुद्ध संयमी साधु का यही धर्म है। विवेचन- एषणासमिति-मार्म-विवेक- प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में विशुद्ध आहारादि ग्रहण करने का मार्ग बताया गया है। एषणासमिति से शुद्ध आहार क्यों और कैसे ?- साधु की आवश्यकताएँ बहुत सीमित होती है, थोड़ासा आहार-पानी और कुछ वस्त्र-पात्रादि उपकरण / भगवान महावीर कहते हैं कि इस थोड़ी-सी आवश्यकता की पूर्ति वह अपने अहिंसादि महाव्रतों को सुरक्षित रखते हुए एषणासमिति का पालन करते हुए, निर्दोष भिक्षावृत्ति से करे। यदि एषणासमिति की उपेक्षा करके प्राणि-समारम्भ करके साधु के उद्देश्य से निर्मित या अन्य आधाकर्म आदि त्रिविध एषणा दोषों से युक्त, अकल्पनीय-अनेषणीय आहारपानी साधु ग्रहण करेगा तो उसका अहिंसावत दूषित हो जाएगा, बारबार गृहस्थ वर्ग भक्तिवश बैसा आहार-पानी देने लगेगा, इससे आरम्भजनित हिंसा का दोष लगेगा, गलत परम्परा भी पड़ेगी। यदि छल-प्रपंच करके आहारादि पदार्थ प्राप्त करेगा तो सत्यव्रत को क्षति पहुंचेगी, यदि किसो से जबर्दस्ती या दवाब से छीनकर या बिना दिये ही कोई आहारादि पदार्थ ले लिया तो अचौर्य-महाव्रत भंग हो जाएगा, और स्वाद-लोलुपतावश लालसापूर्वक अतिमात्रा में आहारपानी संग्रह कर लिया तो ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह महाव्रत को भी क्षति पहुंचेगी। इसीलिए शास्त्रकार एषणासमिति से शुद्ध आहार ग्रहण करने पर जोर देते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है.--"आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण (मन, बुद्धि, हृदय) शुद्ध होंगे, अन्तःकरण शुद्धि होने पर स्मृति निश्चल और प्रखर रहेगी, आत्मस्मृति की स्थिरता उपलब्ध 3 सुत्रकतांग शीलांक पत्रांक 201 का सारांश Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा 512 से 517 हो जाने पर समस्त ग्रन्थियों से मुक्ति (छुटकारा) हो जाती है।" इसका फलितार्थ यह हैं कि जब साधु एषणादि दोषयुक्त दुप्पाच्य, गरिष्ठ अशुद्ध आहार ग्रहण एवं सेवन करेगा, तब उसकी बुद्धि एवं आत्मस्मृति कुण्ठित, सुस्त हो जाएगी, सात्त्विक विचार करने की स्फूति नहीं रहेगी। फलतः अनेक अन्य दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है ! इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने शुद्ध आहार में एक कण भी अशुद्ध आहार का मिला हो, या अशुद्ध आहार की शंका हो तो उसे ग्रहण या सेवन करने का निषेध किया है, क्योंकि अशुद्ध आहार सयम-विघातक, कर्म ग्रन्थियों के भेदन में रुकावट डालने वाला एवं मोक्षमार्ग में विघ्नकारक हो जाता है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने एषणासमिति को मार्ग बताकर उसे साधुधर्म बताया है। भाषा समिति मार्ग-विवेक 512. ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु णगरेसु वा। अस्थि वा पत्थि वा धम्मो ? अस्थि धम्मो त्ति गो वदे // 16 // 513. अत्थि वा गस्थि वा पुष्णं ?, अत्थि पुण्णं ति णो वदे। अहवा गस्थि पुण्णं ति, एवमेयं महब्भयं // 17 // 514. दाणट्ठयाए जे पाणा, हम्मति तस-थावरा। तेसि सारवखणट्ठाए, तम्हा अस्थि ति णो वए // 18 // 515. जेसि तं उवकाति, अण्ण-पाणं तहाविहं। तेसि लामंतरायं ति, तम्हा पत्थि त्ति णो वदे / / 16 / / 516. जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं / जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करेंति ते // 20 // 517. दुहओ वि ते ण भासंति, अस्थि वा नत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हेच्चाणं, णिव्वाणं पाउणंति ते // 21 // 512-513. ग्रामों या नगरों में धर्म श्रद्धालु श्रावकों के स्वामित्व के स्थान साधुओं को ठहरने के लिए प्राप्त होते हैं / वहां कोई धर्मश्रद्धालु हिंसामय कार्य करे तो आत्मगुप्त (अपने को पापप्रवृत्ति से बचाने वाला) जितेन्द्रिय साधु उस हिंसा का अनुमोदन न करे। 4 "आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रु वा स्मृतिः; स्मृति लम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष: / " -छान्दोग्योपनिषद् खण्ड 16 अ० 7 सू० 2 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 201 (ख) एस धम्मे सीमतो'--सूत्र क० मू० पा० टिप्पण पृ० 62 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-एकावा अध्ययन-मार्ग यदि कोई साधु से पूछे कि इस (पूर्वोक्त प्रकार के आरम्भजन्य) कार्य में पुण्य है या नहीं ? तब साधु पुण्य है, यह न कहे अथवा पुण्य नहीं होता, यह कहना भी महाभयकारक है। __ 514-515. अन्न या पानी आदि के दान के लिए जो त्रस और स्थावर अनेक प्राणी मारे जाते हैं, उनकी रक्षा करने के हेतु से साधु उक्त कार्य में पुण्य होता है, यह न कहे। किन्तु जिन जीवों को दान देने के लिये तथाविध (आरम्भपूर्वक) अन्नपान बनाया जाता है, उनको (उन वस्तुओं के) लाभ होने में अन्तराय होगा, इस दृष्टि से साधु उस कार्य में पुण्य नहीं होता ऐसा भी न कहे। 516. जो दान (सचित्त पदार्थों के आरम्भ से जनित वस्तुओं के दान) की (आरम्भक्रिया करते समय) प्रशंसा करते हैं, वे (प्रकारात र से) प्राणियों के वध की इच्छा (अनुमोदना) करते हैं, जो दान का निषेध करते हैं, वे वृत्ति-छेदन (प्राणियों की जीविका का नाश) करते हैं। 517. अत: (हिंसा रूप आरम्भ से जन्य वस्तुओं के) दान में 'पुण्य होता है' या 'पुण्य नहीं होता', ये दोनों बाते साध नहीं कहते। ऐसे (विषय में मौन या तटस्थ रहकर या निरवध भाषण के द्वारा) कर्मों की आय (आश्रव) को त्यागकर निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं। विवेचन- भाषा-समिति-मार्ग-बिवेष-प्रस्तुत सूत्र गाथाओं में अहिंसा महावती साधु को अहिंसा व्रत की सुरक्षा के लिए भाषा-समिति का विवेक बताया गया है। भाषा विवेक सम्बन्धी गाथाओं का हार्द-साधु पूर्ण अहिंसाव्रती है, वह मन-वचन-काया से न स्वयं हिंसा कर या करा सकता है, न ही हिंसा का अनुमोदन कर सकता है। और यह भी स्वाभाविक है कि धर्म का उत्कृष्ट पालक एवं मार्गदर्शक होने के नाते ग्रामों या नगरों में धर्म श्रद्धालु लोगों द्वारा बनवाए हा धर्मशाला, पथिकशाला, जलशाला, अन्नशाला आदि किसी स्थान में वे लोग साधु को ठहराएँ। वहाँ कोई व्यक्ति दान-धर्मार्थ किसी चीज को आरम्भपूर्वक तैयार करना चाहे या कर रहे हैं उस सम्बन्ध में साधु से पूछे कि हमारे इस कार्य में पुण्य है या नहीं ? साधु के समक्ष इस प्रकार का धर्म संकट उपस्थित होने पर वह क्या उत्तर दे ? शास्त्रकार ने इस सम्बन्ध में भाषा समिति से अनुप्राणित धर्म मार्ग का विवेक बताया है, कि साधु यह देखे कि उस दानार्थ तैयार की जाने वाली वस्तु में त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा अनिवार्य है, या हिंसा हुई है, ऐसी स्थिति में यदि वह उस कार्य को पुण्य है, ऐसा कहता है या उसकी प्रशंसा करता है तो उन प्राणियों की हिंसा के अनुमोदन का दोष उसे लगता है, इसलिए उक्त आरम्भजनित कार्य में 'पुण्य है', ऐसा न कहे। साथ ही वह ऐसा भी न कहे कि 'पुण्य नहीं होता है', क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति साधु के मुंह से 'पुण्य नहीं होता है, ऐसे उद्गार सुनकर उनको उक्त वस्तुओं का दान देने से रुक जाएगा / फलतः जिन लोगों को उन वस्तुओं का लाभ मिलना था, वह नहीं मिल पाएगा, उनके जीविका में बहुत बड़ा अन्तराय आ जाएगा। सम्भव है, वे लोग उन वस्तुओं के न मिलने से भूखे-प्यासे मर जाएँ। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट मार्गदर्शन देते हैं-दुहओ वि तेण मास ति, अस्थि वा नस्थि वा पुणो।' अर्थात्-साधु ऐसे समय में पुण्य होता है, या नहीं होता, इस प्रकार दोनों तरफ की बात न कहे, तटस्थ रहे। इस कारण भी शास्त्रकार 516 वीं सूत्रगाथा में स्पष्ट कर देते हैं। साधु के द्वारा आरम्भजनित उक्त दान की प्रशंसा करना या पुण्य कहना आरम्भक्रियाजनित प्राणिवध को अपने पर ओढ़ लेना है, अथवा अनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले उक्त Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 512 से 517 दान करने से लाभ मिलने वाले प्राणियों का वृत्तिच्छेद-आजीविका-भंग है / वृत्तिच्छेद करना भी एक प्रकार की हिंसा है। प्रश्न होता है- एक ओर शास्त्रकार उन दानादि शुभकार्यों की प्रशंसा करने या उनमें पुण्य बताने का निषेध करते हैं, दसरी ओर वे उन्हीं शभकार्यों का निषेध करने या पुण्य न बताने का भी निषेध करते हैं; ऐसा क्यों ? क्या इस सम्बन्ध में साधु को 'हाँ' या 'ना' कुछ भी नहीं कहना चाहिए ? वृत्तिकार इस विषय में स्पष्टीकरण करते हैं कि इस सम्बन्ध में किसी के पूछने पर मौन धारण कर लेना चाहिए, यदि कोई अधिक आग्रह करे तो साधु को कहना चाहिए कि हम लोगों के लिए 42 दोष वजित आहार लेना कल्पनीय है. अतः ऐसे विषय में कुछ कहने का मुमुक्ष साधुओं का अधिकार नहीं है / किन्तु शास्त्रकार ने सूत्रगाथा 517 के उत्तरार्द्ध में स्वयं एक विवेक सूत्र प्रस्तुत किया है-'आयं रयस्स हेच्चा पाउणंति / " इसका रहस्यार्थ यह है कि जिस शुभकार्य में हिंसा होती हो या होने वाली हो, उसकी प्रशंसा करने या उसे पुण्य कहने से हिसा का अनुमोदन होता है, तथा हिंसाजनित होते हुए भी जिस शुभकार्य का लाभ दूसरों को मिलता हो, उसका निषेध करने या उसमें पाप बताने से वृत्तिच्छेद रूप लाभान्तराय कर्म का बन्ध होता है / इस प्रकार दोनों ओर से होने वाले कर्मबन्धन को मौन से या निरवद्य भाषण से टालना चाहिए। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि जिस दानादि शुभकार्य के पीछे कोई हिंसा नहीं होने वाली है, अथवा नहीं हो रही है, एसी अचित्त प्रासुक आरम्भरहित वस्तु का कोई दान करना चाहे अथवा कर रहा हो, और साधु से उ सम्बन्ध में कोई पूछे तो उसमें उसके शुभपरिणामों (भावों) की दृष्टि से साध 'पुण्य' कह सकता है और अनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले दान का निषेध तो उसे कदापि नहीं करना है, क्योंकि शास्त्र में अनुकम्पा दान का निषेध नहीं हैं। भगवती सूत्र की टीका में भी स्पष्ट कहा है कि "जिनेश्वरों ने अनुकम्पा दान का तो कदापि निषेध नहीं किया है / " ऐसे निरवध भाषण द्वारा साधु कर्मागमन को भी रोक सकता है और उचित मार्ग-दर्शन भी कर सकता है। यही भाषा-विवेक सम्बन्धी इन गाथाओं का रहस्य है।" पाठान्तर और व्याख्या--"अस्थि वा णस्थि वा धम्मो अत्थि धम्मो त्ति णो वदे' के स्थान पर वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है--"हणत गाणु जाणेज्जा आयगुत्त जिइदिए" इसकी व्याख्या वृत्तिकार करते हैं-कोई धर्मश्रद्धालु धर्मबुद्धि से कुआ खुदाने, जलशाला या अन्नसत्र बनाने की परोपकारिणी, किन्तु प्राणियों की उपमर्दन 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 201 से 203 तक का सारांश (स) ....... पृष्टः सदभिमौंन समाश्रयणीयम् निर्वन्ध त्वस्माकं द्विचत्वारिंशद्दोषजित आहारः कल्पते, एवं विधे विषये मुमुक्षुणामधिकार एव नास्तीति / / " -सूत्र 30 शी० वृत्ति पत्रांक 202 (1) ...तमायं रजसो मौनेनाऽनवद्यभाषणेन वा हित्वा-त्यक्त्वा ते अनवद्यभाषिणो निर्वाण."प्राप्नवन्ति / " -सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 203 7 (क) सद्धर्ममण्डनम् (द्वितीय संस्करण) पृ० 63 से 18 तक का निष्कर्ष (ख) 'अणुकंपादा पुण जिणेहि न क्याड पडिसिद्ध' -भगवती सूत्र श० 8 उ० 6, सू० 331 की टीका Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग कारिणी क्रियाएं करने के सम्बन्ध में साधु से पूछे कि इस कार्य में धर्म है या नहीं ? अथवा न पूछे तो भी उसके लिहाज या भय से आत्म-गुप्त (आत्मा की पाप से रक्षा करने वाला) जितेन्द्रिय साधु उस व्यक्ति के प्राणिहिंसा युक्त (सावद्य) कार्य का अनुमोदन न करे, न ही उस कार्य में अनुमति दे / 'अस्थि वा गत्यि वा पुण्णं ?' के बदले पाठान्तर है- तहा गिरं समारम्भ / इन दोनों का भावार्थ समान है। निर्वाणमार्ग : माहात्म्य एवं उपदेष्टा 518. जेव्वाणपरमा बुद्धा, णक्खत्ताणं व चंदिमा। तम्हा सया जते दंते, निव्वाणं संधते मुणी // 22 // धर्म द्वीप 519. वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताण सकम्मुणा। आघाति साहु तं दीवं, पति?सा पवुच्चती // 23 // 520. आयगुत्ते सया दंते, छिष्णसोए अणासवे। जे धम्म सुद्धमासाति, पडिपुण्णमणेलिस / / 24 / / 518. जैसे (अश्विनी आदि 27) नक्षत्रों में चन्द्रमा (सौन्दर्य, सौम्यता परिमाण एवं प्रकाश रूप . गुणों के कारण) प्रधान है, वैसे ही निर्वाण को ही प्रधान (परम) मानने वाले (परलोकार्थी) तत्त्वज्ञ साधकों के लिए (स्वर्ग, चक्रवर्तित्व, धन आदि को छोड़कर) निर्वाण ही सर्वश्रेष्ठ (परम पद) है / इसलिए मुनि सदा दान्त (मन और इन्द्रियों का विजेता) और यत्नशील (यतनाचारी) होकर निर्वाण के साथ ही सन्धान करे, (मोक्ष को लक्ष्यगत रखकर ही सभी प्रवृत्ति करे)। 519. (मिथ्यात्व, कषाय एवं प्रमाद आदि संसार-सागर के स्रोतों के प्रवाह (तीवधारा) में बहाकर ले जाते हुए तथा अपने (कृत) कर्मों (के उदय) से दुःख पाते हुए प्राणियों के लिए तीर्थंकर उसे (निर्वाणमार्ग को) उत्तम (विश्रामभूत एवं आश्वासनदायक) द्वीप परहितरत बताते हैं / (तत्त्वज्ञ पुरुष) कहते हैं कि यही (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्वाण मार्ग ही) मोक्ष का प्रतिष्ठान (संसार भ्रमण से विश्रान्ति रूप स्थान, या मोक्षप्राप्ति का आधार) है। 520. मन-वचन-काया द्वारा आत्मा की पाप से रक्षा करने वाला (आत्मगुप्त), सदा दान्त, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि संसार के स्रोतों का अवरोधक (छेदक), एवं आश्रवरहित जो साधक है, वही इस परिपूर्ण, अनुपम एवं शुद्ध (निर्वाण मार्गरूप) धर्म का उपदेश करता है। विवेचन–निर्वाणमार्ग : माहात्म्य एवं उपदेष्टा---प्रस्तुत सूत्रगाथात्रयी द्वारा शास्त्रकार ने निर्वाणमार्ग के सम्बन्ध में चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं-(१) तत्त्वज्ञ साधक नक्षत्रों में चन्द्रमा की तरह सभी 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 201 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 62 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा 521 से 527 स्थानों या पदों में निर्वाणपथ को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, (2) मुनि को सदैव दान्त एवं यत्नशील रहकर निर्वाण को केन्द्र में रखकर सभी प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए, (3) निर्वाण-मार्ग ही मिथ्यात्व कषायादि संसार स्रोतों के तीव्र प्रवाह में बहते एवं स्वकृतकर्म से कष्ट पाते हुए प्राणियों के लिए आश्वासनआश्रयदायक श्रेष्ठ द्वीप है, यही मोक्षप्राप्ति का आधार है। (4) आत्मगुप्त, दान्त, छिन्नस्रोत और आस्रवनिरोधक साधक ही इस परिपूर्ण अद्वितीय निवणिमार्गरूप शुद्ध धर्म का व्याख्यान करता है। पाठान्तर.-'णेव्याणपरमा' के बदले वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-'निव्वाणं परमं - व्याख्या समान है। अन्यलीथिक समाधि रूप शुद्ध भावमार्ग से दूर 521. तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो। बुद्धा मो ति य मण्णता, अंतए ते समाहिए // 25 // 522. ते य बीओदगं चेव, तमुद्दिस्सा य जं कडं / भोच्चा झाणं झियायंति, अखेतण्णा असमाहिता // 26 // 523. जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं झियाप्ति, झाणं ते कलुसाधमं // 27 // 524, एवं तु समणा एगे. मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा / / 28 / / 5.25. सुद्ध मग्गं विराहिता, इहमेगे उ दुम्मती। उम्मग्गगता दुक्खं, घंतमेसंति ते तधा / / 26 // 526. जहा आसाविणि नावं, जातिअंधे दुरूहिया। इच्छती पारमागंतु, अंतरा य विसीयती॥ 30 // 527. एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। सोयं कसिणमावण्णा, आगंतारो महाभयं // 31 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 201 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 61 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग--एकादश अध्ययन-मार्ग 521. उसी (प्रतिपूर्ण अनुपम निर्वाणमार्गरूप धर्म) को नहीं जानते हुए अविवेकी (अबुद्ध) होकर भी स्वयं को पण्डित मानने वाले अन्यतीथिक हम ही धर्मतत्त्व का प्रतिबोध पाए हुए हैं, यों मानते हुए सम्यग्दर्शनादिरूप भाव समाधि से दूर है। 522. वे (अन्यतीथिक) बीज और सचित्त जल का तथा उनके उद्देश्य (निमित्त) से जो आहार बना है, उसका उपभोग करके (आत) ध्यान करते हैं, क्योंकि वे अखेदज्ञ (उन प्राणियों के खेद-पीड़ा से अनभिज्ञ या धर्मज्ञान में अनिपुण) और असमाधियुक्त हैं / 523-524. जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गा और शिखी नामक जलचर पक्षी मछली को पकड़कर निगल जाने का बुरा विचार (कुध्यान) करते हैं, उनका वह ध्यान पापरूप एवं अधम होता है / इसी प्रकार कई तथाकथित मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य श्रमण विषयों की प्राप्ति (अन्वेषणा) का ही ध्यान करते हैं, अतः वे भी ढंक, कंक आदि प्राणियों की तरह पाप भावों से युक्त एवं अधम हैं। 525. इस जगत् में कई दुर्बुद्धि व्यक्ति तो शुद्ध (निर्वाण रूप) भावमार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं / वे अपने लिए दुःख (अष्टविध कर्मरूप या असातावेदनीयोदय रूप दुःख) तथा अनेक बार घात (विनाश-मरण) चाहते हैं या ढूंढ़ते हैं / 526-527. जैसे कोई जमान्ध पुरुष छिद्र वाली नौका पर चढ़कर नदी पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच (मझधार) में ही डूब जाता है। इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण कमों के आश्रव रूप पूर्ण भाव स्रोत में डूबे हुए होते हैं। उन्हें अन्त में नरकादि दुःख रूप महाभय पाना पड़ेगा। विवेचन–समाधि रूप शुद्ध भाव (निर्वाण) मार्ग से दूर-प्रस्तुत सात सूत्र गाथाओं में अन्यतीथिकों को कतिपय कारण बताते हुए शुद्ध भाव (निर्वाण) मार्ग से दूर सिद्ध किया है / वे कारण ये हैं--(१) निर्वाण मार्ग के कारण हैं-सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र / परन्तु वे धर्म और मोक्ष के वास्तविक बोध से दूर हैं, फिर भी अपने आपको वे तत्त्वज्ञ मानते हैं, (2) अगर उन्हें जीव-अजीव का सम्यग्ज्ञान होता तो वे सचित्त बीज, कच्चे पानी या औद्द शिक दोष युक्त आहार का सेवन न करते, जिनमें कि जीवहिंसा होती है। इसलिए वे जीवों की पीड़ा से अनभिज्ञ अथवा धर्मज्ञान में अनिपुण हैं / (3) अपने संघ के लिए आहार बनवाने तथा उसे प्राप्त करने के लिए अहनिश चिन्तित आर्तध्यान युक्त रहते हैं। जो लोग ऐहिक संख की कामना करते हैं; धन, धान्य आदि परिग्रह रखते हैं, तथा मनोज्ञ आहार, शय्या, आसन आदि रागवद्धक वस्तुओं का उपभोग करते हैं, उनसे त्याग वर्द्धक शुभ.ध्यान कैसे होगा ?deg अतः धर्मध्यान रूप समाधि मार्ग से वे दूर हैं / (4) जलचर मांसाहारी पक्षियों के दुर्ध्यान की तरह वे हिंसादि हेय बातों से 10 (क) सूत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 202-203 (ख) कहा भी हैं--ग्राम-क्षेत्र-गृहादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च / यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् / / -सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 204 में उद्धत Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा 528 से 534 317 दूर न होने से अनार्य हैं / वे सम्यग्दर्शन रहित होने के कारण विषय प्राप्ति का ही दुर्ध्यान करते हैं, (5) सम्यग्दर्शनादि धर्म रूप जो निदोष मोक्ष मार्ग हैं, उससे भिन्न कुमार्ग की प्ररूपणा करने तथा सांसारिक राग के कारण बुद्धि कलुषित और मोह-दूषित होने से समाग की विराधना करके कुमार्गाचरण करने के कारण वे शुद्ध भाव मार्ग से दूर हैं, (6) छिद्र वाली नौका में बैठा हुआ जन्मान्ध व्यक्ति नदी पार न होकर मंझधार में डूब जाता है, इसी प्रकार आश्रव रूपी छिद्रों से युक्त कुदर्शनादि युक्त कुधर्म नौका में बैठे होने के कारण वे भी संसार सागर के पार न होकर बीच में ही डूब जाते हैं। भावमार्ग की साधना 528. इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं / तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए / / 32 // 526. विरते गामधम्मेहि, जे केइ जगतो जगा / तेसिं अत्तुवमायाए, थाम कुव्वं परिवए // 33 // 530. अतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते / सव्वमेयं निराकिच्चा, निव्वाणं संधए मुणो // 34 / / 531. संधते साहुधम्म च, पावं धम्म गिराकरे। उवधाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं न पत्थए // 35 // 532. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागता। संति तेसि पतिट्ठाणं, भूयाणं जगती जहा // 36 // 533. अह णं वतमावणं, फासा उच्चावया फुसे / ण तेसु विणिहण्णेज्जा, वातेणेव महागिरो // 37 // 534. संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे। निव्वुडे कालमाकखो, एवं केवलिणो मयं // 38 // ति बेमि / // मग्गो : एगारसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 528. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस (दुर्गति निवारक मोक्षप्रापक सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप) धर्म को ग्रहण (स्वीकार) करके शुद्ध मार्ग साधक साधु महाघोर (जन्म-मरणादि दीर्घकालिक दुःखपूर्ण) संसार सागर को पार करे तथा आत्मरक्षा के लिए संयम में पराक्रम करे। 526. साधु ग्राम धर्मों (शब्दादि विषयों) से निवृत्त (विरत) होकर जगत् में जो कोई (जीवितार्थी) प्राणी हैं, उन सुखप्रिय प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उन्हें दुःख न पहुँचाए, उनकी रक्षा के लिए पराक्रम करता हुआ संयम-पालन में प्रगति करे। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्म 530. पण्डित मुनि अति-चारित्र विचातक) मान और माया (तथा अति लोभ और क्रोध) को (संसारवृद्धि का कारण) जानकर इस समस्त कषाय समूह का निवारण करके निर्वाण (मोक्ष) के साथ आत्मा का सन्धान करे (अथवा मोक्ष का अन्वेषण करे)। 531. (मोक्ष मार्ग परायण) साधु क्षमा आदि दविध श्रमण धर्म अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप उत्तम धर्म के साथ मन-वचन-काया को जोड़े अथवा उत्तर धर्म में वृद्धि करे। तथा जो पाप धर्म (हिंसादि पाप का उपादान कारण अथवा पापयुक्त स्वभाव) है उसका निवारण करे / भिक्षु तपश्चरण (उपधान) में पूरी शक्ति लगाए तथा क्रोध और अभिमान को जरा भी सफल न होने दे। 532. जो बुद्ध (केवलज्ञानी) अतीत में हो चुके हैं, और जो बुद्ध भविष्य में होंगे, उन सबका आधार (प्रतिष्ठान) शान्ति ही (कषाय-मुक्ति या मोक्ष रूप भाव मार्ग) है, जैसे कि प्राणियों का जगती (पृथ्वी) आधार है। 533. अनगार धर्म स्वीकार करने के पश्चात् साधु को नाना प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल परीषह और उपसर्ग स्पर्श करें तो साधु उनसे जरा भी विचलित न हो, जैसे कि महावात से महागिरिवर मेरु कभी विचलित नहीं होता। 534. आश्रवद्वारों का निरोध (संवर) किया हुआ वह महाप्राज्ञ धीर साधु दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय-कल्पनीय आहार को ही ग्रहण (सेवन) करे / तथा शान्त (उपशान्त कषायनिर्वृत्त) रहकर (अगर काल का अवसर आए तो) काल (पण्डितमरण या समाधिमरण) की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करे; यही केवली भगवान का मत है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-मोक्ष-साधन साधु-धर्म रूप भाव मार्ग की साधना-प्रस्तुत 7 सूत्रगाथाओं में साधु धर्म रूप भाव मार्ग की साधना के सन्दर्भ में कुछ सूत्र प्रस्तुत किये गए हैं-(१) भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित साधु धर्म को स्वीकार करके महाघोर संसार-सागर को पार करे, (2) आत्मा को पाप से बचाने के लिए संयम में पराक्रम करे, (3) साधु धर्म पर दृढ़ रहने के लिए इन्द्रिय-विषयों से विरत हो जाए, (4) जगत् के समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझ कर उनकी रक्षा करता हुआ संयम में प्रगति करे, (5) चारित्र विनाशक, अभिमान आदि कषायों को संसार वर्द्धक जानकर उनका निवारण करे, (6) एकमात्र निर्वाण के साथ अपने मन-वचन-काया को जोड़ दे (7) साधु धर्म को ही केन्द्र में रखकर प्रवत्ति करे. (8) तपश्चर्या में अपनी शक्ति लगाए. (8) क्रोध और मान को न बढाए. अथवा सार्थक न होने दे, (10) भूत और भविष्य में जो भी बुद्ध (सर्वज्ञ) हुए हैं या होंगे, उन सबके जीवन और उपदेश का मूलाधार शान्ति (कषाय-मुक्ति) रही है, रहेगी। (11) भावमार्ग रूप व्रत को स्वीकार करने के बाद परीषह या उपसगं आने पर साधु सुमेरु पर्वत की तरह संयम में अविचल रहे, (12) साधक गृहस्थ द्वारा प्रदत्त एषणीय आहार सेवन करे तथा शान्त रह कर अन्तिम समय में समाधिमरण की प्रतीक्षा करे। यह साधु धर्म रूप भाव मार्ग प्रारम्भ से लेकर अन्तिम समय तक की साधना है।" ॥मार्ग : ग्यारहवाँ अध्ययन समाप्त / / 11 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 205-206 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण-द्वादश अध्ययन प्राथमिक O सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रृ०) के बारहवें अध्ययन का नाम 'समवसरण' है। - समवसरण शब्द के-एकत्रमिलन, मेला, समुदाय, साधु समुदाय, विशिष्ट अवसरों पर अनेक साधुओं के एकत्रित होने का स्थान, तीर्थंकर देव की परिषद्, (धर्मसभा), धर्म-विचार, आगम विचार, आगमन आदि अर्थ होते हैं।' नियंक्तिकार ने निक्षेप दृष्टि से समवसरण के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए इसके नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये 6 निक्षेप किये हैं। नाम और स्थापना तो सुगम है। सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्यों का समवसरण-एकत्रीकरण या मिलन द्रव्य समवसरण है। जिस क्षेत्र या जिस काल में समवसरण होता है, उसे क्रमशः क्षेत्र समवसरण और काल समवसरण कहते हैं। भाव समवसरण है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक आदि भावों का संयोग। . / प्रस्तुत अध्ययन में देवकृत तीर्थंकर देव-समवरण विवक्षित नहीं है, अपितु विविध प्रकार के वादों (मतों) और मतप्रवर्तकों का सम्मेलन अर्थ ही समवसरण पर से अभीष्ट है / नियुक्तिकार ने इसे भावसमवसरण में परिगणित किया है। अर्थात्-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी या भेद सहित इन चारों वादों (मतों) की (एकान्तदृष्टि) के कारण भूल बताकर जिस सुमार्ग में इन्हें स्थापित किया जाता है, वह भाव समवरण है / प्रस्तुत अध्ययन में इन चार मतों (वादों) का उल्लेख है। - जो जीवादि पदार्थों का अस्तित्व मानते हैं, वे क्रियावादी हैं, इसके विपरीत जो जीवादि पदार्थों का अस्तित्व नहीं मानते, वे अक्रियावादी हैं। जो ज्ञान को नहीं मानते, वे अज्ञानवादी और जो विनय से ही मोक्ष मानते हैं, वे विनयवादी हैं / नियुक्तिकार ने क्रियावादी के 180, अक्रियावादी 1 पाइअ सहमहष्णवो पृ० 876 2 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 116 से 118 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 208 से 210 तक Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक के 84, अज्ञानवादी के 67 और विनयवादी के 32 / यो कुल 363 भेदों की संख्या बताई है। वृत्तिकार ने इन चारों वादों के 363 भेदों को नामोल्लेखपूर्वक पृथक्-पृथक् बताया है। ये चारों वाद एकान्तवादी स्वाग्रही होने से मिथ्या हैं, सापेक्ष दृष्टि से मानने पर सम्यक् हो सकते हैं। पूर्वोक्त चारों स्वेच्छानुसार कल्पित एकान्त मतों (वादों) में जो परमार्थ है, उसका निश्चय करके समन्वयपूर्वक सम्मेलन (समवसरण) करना ही इस अध्ययन का उद्देश्य है / 0 प्रस्तुत अध्ययन में कुल 23 गाथाएं हैं। यह अध्ययन सूत्रगाथा 535 से प्रारम्भ होकर 556 पर पूर्ण होता है / 0000 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरणं : बारसमं अज्झयणं समवसरण : बारहवां अध्ययन चार समवसरण : परतीथिंक मान्य चार धर्मवाद 535. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादया जाइं पुढो वयंति / किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमासु चउत्थमेव // 1 // 535. परतीथिक मतवादी (प्रावादुक) जिन्हें पृथक्-पृथक् बतलाते हैं, वे चार समवसरण-वाद या सिद्धान्त ये हैं--क्रियावाद, अक्रियावाद, तीसरा विनयवाद और चौथा अज्ञानवाद / विवेचन-चार समवसरण : परतीथिक-मान्य चार धर्मवाद-शास्त्रकार ने अध्ययन के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषय सूचित कर दिया है / विश्व में प्रधानतः चार प्रकार के सिद्धान्त उस युग में प्रचलित थे, जिनमें सभी एकान्तवादों का समावेश हो जाता है। अन्य दार्शनिक (मतवादी) एकान्त रूप से एक-एक को पृथक्-पृथक् मानते थे। इन सबका स्वरूप शास्त्रकार स्वयं यथास्थान बताएँगे। एकान्त अज्ञानवाद-समीक्षा 536 अण्णाणिया ता कुसला वि संता, असंथुया जो वितिगिछतिण्णा। अकोविया आहु अकोवियाए, अणाणुवीयोति मुसं वदंति / / 2 / / 536. वे अज्ञानवादी अपने आपको (वाद में कुशल मानते हुए भी संशय से रहित (विचिकित्सा को पार किये हुए) नहीं हैं / अतः वे असंस्तुत (असम्बद्ध भाषी या मिथ्यावादी होने से अप्रशंसा पात्र) हैं। वे स्वयं अकोविद (धर्मोपदेश में अनिपुण) हैं और अपने अकोविद (अनिपुण-अज्ञानी) शिष्यों को उपदेश देते हैं / वे (अज्ञान पक्ष का आश्रय लेकर) वस्तुतत्व का विचार किये बिना ही मिथ्याभाषण करते हैं। विवेचन-एकान्त अज्ञानवाद समीक्षा-प्रस्तुत सूत्रगाथा में एकान्त अज्ञानवाद की संक्षिप्त समीक्षा की गई है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 सूत्रकृतां-बारहवां अध्ययन-समवसरण मज्ञानवाद स्वरूप और प्रकार- शास्त्रकार ने अज्ञानवाद की सर्वप्रथम समीक्षा इसलिए की है कि उसमें ज्ञान के अस्तित्व से इन्कार करके समस्त पदार्थों का अपलाप किया जाता है, अतः यह अत्यन्त विपरीतभाषी है / अज्ञानवादी वे हैं, जो अज्ञान को ही कल्याणकारी मानते हैं / अज्ञानवादियों के 67 भेद इस प्रकार हैं-जीवादि ह तत्त्वों को क्रमश: लिखकर उनके नीचे ये 7 भंग रखने चाहिए-(१) सत्. (2) असत, (3) सदसत, (4) अवक्तव्य, (5) सदवक्तव्य, (6) असत्वक्तव्य, और (7) सद्-असद्-अवक्तव्य / जैसे -- जीव सत् है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार क्रमशः असत् आदि शेष छहों भंग समझ लेने चाहिए / जीवादि 6 तत्त्वों में प्रत्येक के साथ सात भंग होने से कुल 63 भंग हुए। फिर 4 भंग ये और मिलाने से 63+4=67 भेद हुए / चार भंग ये हैं- (1) सत् (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है, और यह जानने से भी क्या लाभ ? इसी प्रकार असंत् (अविद्यमान), सदसती (कुछ विद्यमान और कुछ अविद्यमान), और अवक्तव्यभाव के साथ भी इसी तरह का वाक्य जोड़ने से 4 विकल्प होते हैं। अज्ञानवादी कुशल या अकुशल--अजानवादी अपने आपको कुशल (चतुर) मानते हैं। वे कहते हैं कि हम सब तरह से कुशल-मंगल हैं, क्योंकि हम व्यर्थ ही किसी से न तो बोलते हैं, न ज्ञान बघारते हैं, चुपचाप अपने आप में मस्त रहते हैं। ज्ञानवादी अपने-अपने अहंकार में डबे हैं, परस्पर लडते हैं, एकदूसरे पर आक्षेप करते हैं, वे वाकलह से असंतुष्ट और क्षेम कुशल रहित रहते हैं। ___ इसका निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-"अण्णाणिया ता कुसला वि संता....." इसका आशय यह है कि अज्ञानवादी अपने आपको कुशल मानते हैं, किन्तु अज्ञान के कारण कोई जीव कुशलमंगल नहीं होता / अज्ञान के कारण ही तो जीव नाना दुःखों से पीड़ित है; बुरे कर्म करके वह दुर्गति और नीच योनि में जाता है। नरक में कौन-से ज्ञानी हैं ? अज्ञानी ही तो हैं। फिर वे परस्पर लड़तेझगड़ते क्यों हैं ? क्यों इतना दुःख पाते हैं ? उन्हें कुशल क्षेम क्यों नहीं है ? और तिर्यंचयोनि के जीव भी तो अज्ञानी हैं / वे अज्ञानवश हो तो पराधीन हैं। परवशता एवं अज्ञान के कारण ही उन्हें भूखप्यास शर्दी-गर्मी आदि के दुख उठाने पड़ते हैं। अज्ञान में डूबे हैं, तभी तो वे किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकते / अज्ञानी मानव बहुत ही पिछड़े, अन्धविश्वासी, तथा सामाजिक, धार्मिक या अध्यात्मिक क्षेत्र में अप्रगतिशील रहते हैं, अनेक प्रकार के दुख उठाते हैं। इसलिए अज्ञानवादियों के जीवन में कुशल-क्षेम नहीं है, पशु से भी गया बीता जीवन होता है अज्ञानी का। अज्ञानवादी असम्बदुभाषी एवं संशयग्रस्त-अज्ञानवादी अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन ज्ञान से करते हैं लेकिन ज्ञान को कोसते हैं / ज्ञान के बिना पदार्थो का यथार्थ स्वरूप कैसे समझा जा सकता है ? इसलिए वे महाम्रान्ति के शिकार एवं असम्बद्धभाषी हैं। ___अज्ञान का पर्युदास ना समास के अनुसार अर्थ किया जाए तो होता है एक ज्ञान से भित्र, ज्ञान के सदृश दूसरा ज्ञान / इससे तो दूसरे ज्ञान को ही कल्याण साधन मानलिया, अज्ञानवाद कहाँ सिद्ध हुआ? प्रसज्य ना समास के अनुसार अज्ञान का अर्थ होता है-ज्ञान का निषेध या अभाव / यह प्रत्यक्ष से विरुद्ध है; क्योंकि सम्यगज्ञान द्वारा पदार्थ का स्वरूप जान कर प्रवृत्ति करने वाला कार्यार्थी पुरुष अपने कार्य को सिद्ध करता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसलिए ज्ञान का अभाव कितना असत्य Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 535 से 536 है। फिर ज्ञानाभाव (अज्ञान) अभाव रूप होने से तुच्छ, रूपरहित एवं शक्ति रहित हुआ, वह कैसे कल्याणकर होगा? अतः ज्ञान कल्याण साधन है, अज्ञान नहीं। परस्पर विरुद्ध भाषी अज्ञानवावी या ज्ञानवादी-अज्ञानवादियों का कथन है कि सभी ज्ञानवादी पदार्थ का स्वरूप परस्पर विरुद्ध बताते हैं इसलिए वे यथार्थवादी नहीं हैं। जैसे-कोई आत्मा को सर्वव्यापी, कोई असर्वव्यापी. कोई हृदयस्थित, कोई उसे ललाटस्थित और कोई उसे अंगूठे के पर्व के तुल्य मानता है / कोई आत्मा को नित्य और अमूर्त तथा कोई अनित्य और मूर्त मानता है। परस्पर एकमत नहीं किसका कथन प्रमाणभूत माना जाए, किसका नहीं ? जगत् में कोई अतिशयज्ञानी (सर्वज्ञ) भी नहीं, जिसका कथन प्रमाण माना जाए। सर्वज्ञ हो तो भी असर्वज्ञ (अल्पज्ञ) उसे जान नहीं सकता; और सर्व को जानने का उपाय भी सर्वज्ञ बने बिना नहीं जान सकता। यही कारण है कि सर्वज्ञ के अभाव में असर्वज्ञों (ज्ञानवादियों) को वस्तु के यथार्थं स्वरूप का ज्ञान न होने से वे पदार्थों का स्वरूप परस्पर विरुद्ध बताते हैं। इन सब आक्षेपों का उत्तर यह है कि अज्ञानवादी स्वयं मिथ्यादृष्टि हैं। सम्यग्ज्ञान से रहित हैं, वे संशय और भ्रम से ग्रस्त हैं। वास्तव में परस्पर या पूर्वापर विरुद्ध अर्थ बताने वाले लोग असर्वज्ञ के आगमों को मानते हैं परन्तु इससे समस्त सिद्धान्तों को आँच नहीं आती। सर्वज्ञप्रणीत आगमों को मानने वाले वादियों के वचनों में परस्पर या पूर्वापर विरोध नहीं आता। क्योंकि जहां पूर्वापर या परस्पर विरुद्ध कथन होगा, वहाँ सर्वज्ञता ही नहीं होती। सर्वज्ञता के लिए ज्ञान पर आया हुआ आवरण सर्वथा दूर हो जाना तथा असत्य या परस्पर असम्बद्ध या विरुद्ध भाषण के कारणभूत जो राग, द्वेष मोह आदि हैं, उनका सर्वथा नष्ट हो जाना अवश्यम्भावी है। सर्वज्ञ में इन दोषों का सर्वथा अभाव होने से उसके वचन सत्य हैं, परस्पर विरुद्ध नहीं हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ सिद्ध न होने पर भी उसके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। 'सम्भव' और 'अनुमान' प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है, क्योंकि सर्वज्ञ असम्भव है, ऐसा कोई सर्वज्ञता बाधक प्रमाण नहीं है, और न ही प्रत्यक्ष प्रमाण में सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होता है, नहीं सर्वज्ञाभाव के साथ कोई अव्यभिचारी हेतु है। सर्वज्ञाभाव के साथ किसी का सादृश्य न होने से उपमान प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वथाभाव सिद्ध न होने से अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता। आगम प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञ का अस्तित्व बताने वाला आगम विद्यमान है / स्थूलदर्शी पुरुष का ज्ञान सर्वज्ञ तक नहीं पहुंचाता, इस कारण भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं कहा जा सकता। सर्वज्ञ के अस्तित्व का बाधक कोई प्रमाण नहीं मिलता, बल्कि सर्वज्ञसाधक प्रमाण ही मिलते हैं, इसलिए सर्वज्ञ न मानना अज्ञानवादियों का मिथ्या कथन है। फिर सर्वज्ञ प्रणीत आगमों को मानने वाले सभी एकमत से आत्मा को सर्व शरीर व्यापी मानते हैं, क्योंकि आत्मा का गुण चैतन्य समस्त शरीर, किन्तु स्वशरीर पर्यन्त ही देखा जाता है / अतः सर्वज्ञ प्रणीत आगम ज्ञानवादी परस्पर विरुद्धभाषी नहीं हैं। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 सूत्रकृतांग-बारहवां अध्ययन-समवसरण ___ अज्ञानवादी धर्मोपदेश में सर्वथा अनिपुण-शास्त्रकार कहते हैं--अज्ञानवादी अज्ञानवाद का आश्रय लेकर बिना विचारे असम्बद्ध भाषण करते हैं, इसलिए उनमें यथार्थ ज्ञान नहीं है। जो यथार्थ ज्ञानी होता है-वह विचारपूर्वक बोलता है, इसीलिए तो अज्ञानवादियों में मिथ्याभाषण की प्रवृत्ति है। वे धर्म का उपदेश अपने अनिपुण शिष्यों को देते हैं, तो ज्ञान के द्वारा ही देते हैं, फिर भी वे कहते हैं-अज्ञान से ही कल्याण होता है / परन्तु अज्ञान से कल्याण होना तो दूर रहा, उलटे नाना कर्मबन्धन होने से जीव नाना दुःखों से पीड़ित होता है / इसलिए अज्ञानवाद अपने आप में एक मिथ्यावाद है।' एकान्त-विनयवाद की समीक्षा 537. सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहु ति उदाहरंता। ___ जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणइंसु नाम // 3 // 538 अणोक्संखा इति ते उदाहु. अठे स ओभासति अम्ह एवं / 537. जो सत्य है, उसे असत्य मानते हुए तथा जो असाधु (अच्छा नहीं) है, उसे साधु (अच्छा) बताते हुए ये जो बहुत-से विनयवादी लोग हैं, वे पूछने पर भी (या न पूछने पर) अपने भाव (अभिप्राय या परमार्थ) के अनुसार विनय से ही स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति (या सर्वसिद्धि) बताते हैं। 538. (पूर्वाद्ध) वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान न होने से व्यामूढ़मति वे विनयवादी ऐसा कहते हैं। वे कहते हैं- हमें अपने प्रयोजन (स्व-अर्थ) की सिद्धि इसी प्रकार से (विनय से) ही दीखती है। विवेचन-एकान्त विनयवाद को समीक्षा--प्रस्तुत गाथाओं में एकान्त विनयवाद की संक्षिप्त झाँकी दी गई है। विनयवाद का स्वरूप और प्रकार-विनयवादी वे हैं जो विनय को ही सिद्धि का मार्ग मानते हैं। वे कहते हैं-विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है / वे गधे से लेकर गाय तक, चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक एवं जलचर, खेचर, स्थलचर, उरपरिसर्प एवं भुजपरिसर्प आदि सभी प्रा पूर्वक नमस्कार करते हैं। नियुक्तिकार ने विनयवाद के 32 भेद बताए हैं। वे इस प्रकार है- (1) देवता, (2) राजा, (3) यति, (4) ज्ञाति, (5) वृद्ध, (6) अधम, (7) माता और (5) पिता / इन आठों का मन से, वचन से, काया स और दान से विनय करना चाहिए। इस प्रकार 844=32 भेद विनयवाद के हए। विनयवादी : सत्यासत्य विवेक रहित-इसके तीन कारण हैं--(१) जो प्राणियों के लिए हितकर है, सत्य है, वह मोक्ष या संयम है, किन्तु विनयवादी इसे असत्य बताते हैं, (2) सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र मोक्ष 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 211 से 241 का सारांश (ख) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 116 2 (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 208 (ख) सूत्रकृ० नियुक्ति गा० 119 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा :536 से 544 405 का वास्तविक मार्ग है, परन्तु विनयवादी उसे असत्य कहते हैं, (3) केवल विनय से मोक्ष नहीं होता, तथापि विनयवादी केवल विनय से ही मोक्ष मानकर असत्य को सत्य मानते हैं। विनयवादियों में सत् और असत् का विवेक नहीं होता। वे अपनी सद्-असद्विवेकशालिनी बुद्धि का प्रयोग न करके विनय करने की धुन में अच्छे-बुरे, सज्जन-दुर्जन, धर्मात्मा-पापी, सुबुद्धि-दुर्बुद्धि, सुज्ञानी-अज्ञानी, आदि सभी को एक सरीखा मानकर सबको वन्दन-नमन, मान-सम्मान, दान आदि देते हैं / देखा जाए तो यथार्थ में वह विनय नहीं है, विवेकहीन प्रवृत्ति है। ___ जो साधक विशिष्ट धर्माचरण अर्थात्-साधत्व की क्रिया नहीं करता, उस असाधु को विनयवादी केवल वन्दन-नमन आदि औपचारिक विनय क्रिया करने मात्र से साधु मान लेते हैं। धर्म के परीक्षक नहीं, वे औपचारिक विनय से ही धर्मोत्पत्ति मान लेते हैं, धर्म की परीक्षा नहीं करते। विनयवाद के गुण-दोष को मीमांसा-विनयवादी सम्यक् प्रकार से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना ही मिथ्याग्रह एवं मत-व्यामोह से प्रेरित होकर कहते हैं- "हमें अपने सभी प्रयोजनों की सिद्धि विनय से होती प्रतीत है, विनय से ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।" यद्यपि विनय चारित्र का अंग है, परन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना, विवेक-विकल विनय चारित्ररूप मोक्ष मार्ग का अंगभूत विनय नहीं है। अगर विनयवादी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप विनय की विवेकपूर्वक आराधना-साधना करें, साथ ही आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़े हुए जो अरिहन्त या सिद्ध परमात्मा है, अथवा पंच महाव्रत धारी निर्ग्रन्थ चारित्रात्मा हैं, उनकी विनय-भक्ति करें तो उक्त मोक्ष मार्ग के अंगभूत-विनय से उन्हें स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु इसे ठुकरा कर अध्यात्मविहीन, अविवेकयुक्त एवं मताग्रहगृहीत एकान्त औपचारिक विनय से स्वर्ग या मोक्ष बतलाना उनका एकान्त दुराग्रह है, मिथ्यावाद है। विविध एकान्त अक्रियावादियों की समीक्षा ."लवायसंकी य अणागतेहि, णो किरियमाहंसु अफिरियआया // 4 // 539. सम्मिस्सभावं सगिरा गिहीते, से मुम्मुई होति अणाणुवादी। इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहेसु छलायतणं च कम्मं // 5 // 540. ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियाता। जमादिदित्ता बहवो मणूसा, भमति संसारमणोवतग्गं / / 6 / / 541. पाइच्चो उदेति ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्ढती हायती वा / सलिला ण संदति ण वंति वाया, वझे णियते कसिणे हु लोए // 7 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 213-214 का तात्पर्य Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-बारहवां अध्ययन-समवसरण 542. जहा य अंधे सह जोतिणा वि, रूवाई णो पस्सति होणनेते। संतं पि ते एवमकिरियआता, किरियं ण पस्संति निरुद्धपण्णा // 8 // 543. संवच्छर सुविणं लक्खणं च, निमित्तं देहं उप्पाइयं च / अटं ठगमेतं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति अणागताई // 6 / / 544. केई निमित्ता तहिया भवंति, केसिचि तं विप्पडिएति णाणं / ते विज्जभावं अणहिज्जमाणा, आहंसु विज्जापलिमोक्खमेव / / 10 / / 538. (उत्तरार्द्ध) तथा लव यानी कर्मबन्ध की शंका करने वाले अक्रियावादी भविष्य और भूतकाल के क्षणों के साथ वर्तमानकाल का कोई सम्बन्ध (संगति) न होने से क्रिया (और तज्जनित कर्मबन्ध) का निषेध करते हैं / 536. वे (पूर्वोक्त अक्रियावादी) अपनी वाणी से स्वीकार किये हुए पदार्थ का निषेध करते हुए मिश्रपक्ष को (पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों से मिश्रित विरुद्धपक्ष को) स्वीकार करते हैं। वे स्याद्वादियों के कथन का अनुवाद करने (दोहराने) में भी असमर्थ होकर अति मूक हो जाते हैं। वे इस पर-मत को द्विपक्ष-प्रतिपक्ष युक्त तथा स्वमत को प्रतिपक्षरहित बताते हैं / एवं स्याद्वादियों के हेतु वचनों का खण्डन करने के लिए वे छलयुक्त वचन एवं कर्म (व्यवहार) का प्रयोग करते हैं। 540. वस्तुतत्व को न समझने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन (शास्त्रवचन प्रस्तुत) करते हैं। जिन शास्त्रों का आश्रय लेकर बहुत-से मनुष्य अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। 541. सर्वशून्यतावादी (अक्रियवादी) कहते हैं कि न तो सूर्य उदय होता है, और न ही अस्त होता है तथा चन्द्रमा (भी) न तो बढ़ता है और न घटता है, एवं नदी आदि के जल बहते नहीं और न हवाएं चलती हैं। यह सारा लोक अर्थशून्य (वन्ध्य या मिथ्या) एवं नियत (निश्चित-अभाव) रूप है। 542. जैसे अन्धा मनुष्य किसी ज्योति (दीपक आदि के प्रकाश) के साथ रहने पर भी नेत्रहीन होने से रूप को नहीं देख पाता; इसी तरह जिनकी प्रज्ञा ज्ञानावरण के कारण रुकी हुई है, वे बुद्धिहीन अक्रियावादी सम्मुख विद्यमान क्रिया को भी नहीं देखते। 543. जगत् में बहुत-से लोग ज्योतिषशास्त्र (संवत्सर) स्वप्नशास्त्र, लक्षणशास्त्र, निमित्तशास्त्र, शरीर पर प्रादुर्भत-तिल-मष आदि चिन्हों का फल बताने वाला शास्त्र, तथा उल्कापात दिग्दाह, आदि का फल बताने वाला शास्त्र, इन अष्टांग (आठ अंगों वाले) निमित्त शास्त्रों को पढ़ कर भविष्य की बातों को जान लेते हैं। 544. कई निमित्त तो सत्य (तथ्य) होते हैं और किन्हीं-किन्हीं .निमित्तवादियों का वह ज्ञान विपरीत (अयथार्थ) होता है। यह देखकर विद्या का अध्ययन न करते हुए अक्रियावादी विद्या से परिमुक्त होने-त्याग देने को ही कल्याणकारक कहते हैं / Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 536 से 544 407 - विवेचन-अक्रियावादीको समीक्षा-प्रस्तुत सात सत्रगाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने एकान्त अक्रियावादियों द्वारा मान्य अक्रियावाद के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। अक्रियावाद : स्वरूप और भेद-एकान्तरूप से जीव आदि पदार्थों का जिस वाद में निषेध किया जाता है, तथा उसकी क्रिया, आत्मा कर्मबन्ध, कर्मपल आदि जहाँ बित्कुल नहीं माने जाते, उसे अक्रियावाद कहते हैं। अक्रियावाद के 84 भेद होते हैं, वे इस प्रकार हैं-जीव आदि 7 पदार्थों को क्रमश: लिखकर उसके नीचे (1) स्वतः और (2) परतः ये दो भेद स्थापित करने चाहिए। फिर उन 742=14 ही पदों के नीचे (1) काल (2) यहच्छा, (3) नियति, (4) स्वभाव, (5) ईश्वर और (6) आत्मा इन 6 पदों को रखना चाहिए / जैसे - जीव स्वत: यहाछा से नहीं है, जीव परत: काल से नहीं है, जीव स्वतः यदृच्छा से नहीं है, जीव परत: यदृस्टा से नहीं है, इसी तरह नियति स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ भी प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं / यो जीवादि सातों पदार्थों के सात, स्वतः परतः के प्रत्येक के दो और काल आदि के 6 भेद मिलाकर कुल 74 2=1446-84 भेद हुए। एकान्त अक्रियावाद के गुण-दोष को मीमांसा-एकान्त अक्रियावादी मुख्यतया तीन हैं-लोकायतिक, बौद्ध और सांस्य / क्रियावादी लोकातिक के मत में आत्मा ही नहीं है, तो उसकी क्रिया कहां से होगी और उस क्रिया से उत्पन्न कर्मबन्ध भी कहाँ से होगा ? फिर भी लोक व्यवहार में जैसे मुट्टी का बांधना और खोलना उपचार मात्र से माना जाता है, वैसे ही लोकायतिक मत में उपचार मात्र से आत्मा में बद्ध और मुक्त का व्यवहार माना जाता है। अक्रियावादी बौद्ध-ये सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं, क्षणिक पदार्थों में क्रिया का होना सम्भव नहीं है, अतः वे भी अक्रियावादी हैं / वे जो पांच स्कन्ध मानते हैं, वह भी आरोपमात्र से, परमार्थरूप से नहीं / उनका मन्तव्य यह है कि जब सभी पदार्थ क्षणिक हैं, क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं, तब न तो अवयवी का पता लगता है, और न ही अवयव का। इसलिए क्षणिकवाद के अनुसार भूत और भविष्य के साथ वर्तमान क्षण का कोई सम्बन्ध नहीं होता, सम्बन्ध न होने से क्रिया नहीं होती और क्रिया न होने से क्रियाजनित कर्मबन्ध भी नहीं होता। इस प्रकार बौद्ध अक्रियावादी हैं। तात्पर्य यह है कि बौद्ध कर्मबन्ध की आशंका से आत्मादि पदार्थों का और उनकी क्रिया का निषेध करते हैं / अक्रियावादी सांख्य- आत्मा को सर्वव्यापक होने के कारण अक्रिय मानते हैं। इस कारण वे भी वस्तुतः अक्रियावादी हैं। लोकायतिक पदार्थ का निषेध करके भी पक्ष को सिद्ध करने के लिए पदार्थ का अस्तित्व प्रकारान्तर से मान लेते हैं / अर्थात् पदार्थ का निषेध करते हुए भी वे उसके अस्तित्व का प्रतिपादन कर बैठते हैं / जैसे-वे जीवादि पदार्थों का अभाव बताने वाले शास्त्रों का अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए शास्त्र 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 208 (ख) सूत्रकृतांम नियुक्ति गा० 116 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 सूत्रकृतांग-बारहवां अध्ययन-समवसरण के कर्ता आत्मा को, तथा उपदेश के साधनरूप शास्त्र को एवं जिसे उपदेश दिया जाता है, उस शिष्य को तो अवश्य स्वीकार करते हैं, क्योंकि इनको माने बिना उपदेश आदि नहीं हो सकता। परन्तु सर्वशून्यतावाद में ये तीनों पदार्थ नहीं आते / इसलिए लोकायतिक परस्पर विरुद्ध मिश्रपक्ष का आश्रय लेते हैं। वे पदार्थ नहीं है, यह भी कहते हैं, दूसरी ओर उसका अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं। बौद्ध मत के सर्वशून्यतावाद के अनुसार कोई (परलोक में) जाने वाला सम्भव नहीं कोई क्रिया, गतियाँ और कर्मबन्ध भी सम्भव नहीं है, फिर भी बौद्धशासन में 6 गतियां मानी गई हैं। जब गमन करने वाला कोई आत्मा ही नहीं है, तब गमन क्रिया, फलित गतियाँ कैसी? फिर बौद्ध मान्य ज्ञान से अभिन्न ज्ञान सन्तान भी क्षण विध्वंसी होने के कारण स्थिर नहीं हैं। क्रिया न होने के कारण अनेक गतियों का होना सम्भव नहीं, बौद्ध आगमों में सभी कर्मों को अबन्धन माना है, फिर भी तथागत बुद्ध का 500 बार जन्मग्रहण करना बताते हैं / जब कर्मबन्धन नहीं तो जन्म ग्रहण कैसे होगा ? बौद्ध ग्रन्थगत एक श्लोक में बताया है- "माता-पिता को मारकर एवं बुद्ध के शरीर से रक्त निकालकर अर्हद्वध करके तथा धर्मस्तूप को नाट करने से मनुष्य अवीचिनरक में जाता है,"५ यह भी कर्मबन्धन के बिना कैसे सम्भव है ? यदि सर्वशून्य है तो ऐसे शास्त्रों की रचना कैसे युक्तिसंगत हो सकती है ? यदि कर्मबन्धन कारक नहीं है, तो प्राणियों में जन्म-मरण, रोग, शोक उत्तम-मध्यम-अधम आदि विभिनताएँ किस कारण से दृष्टिगोचर होती हैं ? यह कर्म का फल प्रतीत होता है। इन सब पर से जीव का अस्तित्व, उसका कर्तत्व, भोक्त त्व एवं उसका कर्म से युक्त होना सिद्ध होता है, फिर भी बौद्ध सर्वशून्यतावाद को मानते हैं। यह स्पष्ट ही बौद्धों द्वारा मिश्रपक्ष का स्वीकार करना है। अर्थात् एक ओर वे कर्मों का पथक्-पृथक् फल मानते हैं, दूसरी ओर वे सर्वशून्यतावाद के अनुसार सभी पदार्थों का नास्तित्व बताते हैं। सांख्य अक्रियावादी आत्मा को सर्वव्यापी मानकर भी प्रकृति के वियोग से उसका मोक्ष मानते हैं / जब मोक्ष मानते हैं तो बन्धन अवश्य मानना पड़ेगा। जब आत्मा का बन्धमोक्ष होता है तो उनके ही वचनानुसार आत्मा का क्रियावान् होना भी स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि क्रिया के बिना बन्ध और मोक्ष कदापि सम्भव नहीं होते। अतः सांख्य भी मिश्रपक्षाश्रयी हैं, वे आत्मा को निष्क्रिय सिद्ध करते हुए अपने ही वचन से उसे क्रियावान कह बैठते हैं। अक्रियावादियों के सर्वशून्यतावाद का निराकरण-अक्रियावादियों के द्वारा सूर्य के उदय-अस्त का चन्द्र के वृद्धि-ह्रास, जल एवं वायु की गति का किया गया निषेध प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध हैं / ज्योतिष आदि अष्टांगनिमित्त आदि शास्त्रों के पढ़ने से भूत या भविष्य की जानकारी मनुष्यों को होती है, वह किसी न किसी पदार्थ की सूचक होती है, सर्वशून्यतावाद को मानने पर यह घटित नहीं हो सकता। इस पर से शून्यतावादी कहते हैं कि ये विद्याएँ सत्य नहीं हैं, हम तो विद्याओं के पढ़े बिना ही लोकालोक के पदार्थों को जान लेते हैं। यह कथन भी मिथ्या एवं पूर्वापरविरुद्ध है। प्रत्यक्ष दृश्यमान वस्तु को भी स्वप्न, इन्द्रजाल या मृगमरीचिका-सम बताकर उसका अत्यन्ताभाव घोषित करना भी युक्ति-प्रमाण विरुद्ध है। "माता-पितरी हत्वा, बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्पात्य / अर्हद्वधं च कृत्वा, स्तूपं भित्वा, आवीचिनरकं यान्ति // ' –सू० शी०वृत्ति पत्रांक 215 में उद्धत बौद्ध ग्रन्थोक्ति Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 545 से 548 406 छलायतणं च कम्म- इसकी दूसरी व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है-अथवा जिसके षट् आयतन - उपादानकारण आश्रवद्वाररूप हैं, अथवा श्रोत्रादि इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) रूप हैं, वह कर्म षडायतनरूप है, इस प्रकार बौद्ध कहते हैं। बौद्ध ग्रन्थ सुत्तपिटक, संयुक्त निकाय में षडायतन (सलायतन) का उल्लेख है। पाठान्तर और व्याख्या-वसो णियते के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'वने य णितिए' वन्ध्य का अर्थ है- शून्य 'णितिए' का अर्थ है-नित्यकाल / लोक नित्य एवं सर्वशून्य है / / एकान्त क्रियावाद और सम्यक क्रियावाद एवं उसके प्ररूपक 545. ते एवमक्खंति समेच्च लोग, तहा तहा समणा माहणा य / सयंकडं णण्णकडं च दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं // 11 // 546. ते चक्खु लोगसिह णायगा तु, मग्गाऽणुसासंति हितं पयाणं / सहा तहा सासयमाहु लोए, जंसो पया माणव ! संपगाढा // 12 / / 547. जे रक्खसावा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधवा य काया। आगासगामी य पुढोसिया य, पुणो पुणो विपरियासुर्वेति // 13 // 548. जमाह ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं / जंसो विसन्ना विसयंगणाहि दुहतो वि लोयं अणुसंचरति // 14 // 545. वे श्रमण (शाक्यभिक्षु) और माहन (ब्राह्मण) अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर उस-उस क्रिया के अनुसार फल प्राप्त होना बताते हैं / तथा (वे यह भी कहते हैं कि) दुःख स्वयंकृत (अपना ही किया हुआ) होता है, अन्यकृत नहीं। परन्तु तीर्थंकरों ने विद्या (ज्ञान) और चरण (चारित्र-क्रिया) से मोक्ष कहा है। 546 इस लोक में तीर्थंकर आदि नेत्र के समान हैं, तथा वे (शासन) नायक (धर्म नेता या प्रधान) हैं। वे प्रजाओं के लिए हितकर ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं। इस चतुर्दशरज्ज्वात्मक या 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 214 से 218 तक का सारांश (ख) 'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टि-ग्रन्थि-कपोतकाः / न चान्ये द्रव्यतः सन्ति, मुष्टि-ग्रन्थि-कपोतकाः // ' -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति में उद्धृत 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 216 (ख) तुलना---'अविज्जपच्चया""नामरूपपच्चया सलायतनं पटिच्च समुप्पादो। "कतमं च, भिक्खवे, सला यतनं ? चक्खायतनं, मोतायतनं, घाणायतन, जिह्वायतनं, कायायतनं, मनायतनं / इदं वच्चति, भिक्खवे, सलायतनं। --सुत्तपिटक संयुत्त निकाय पालि (भा० 2) पृ० 3.5 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-बारहवां अध्ययन-समवसरण पंचास्तिकायरूप लोक में जो-जो वस्तु जिस-जिस प्रकार से द्रव्याथिकनय की दृष्टि से शाश्वत है उसे उसी प्रकार से उन्होंने कही है। अथवा यह जीवनिकायरूप लोक (संसार) जिन-जिन मिथ्यात्व आदि कारणों से जैसे-जैसे शाश्वत (सुदढ या सुदीघं) होता है, वैसे-वैसे उन्होंने बताया है, अथवा जैसे-जैसे राग-द्वेष आदि या कर्म की मात्रा में अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे संसाराभिवृद्धि होती है, यह उन्होंने कहा है, जिस संसार में (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के रूप में) प्राणिगण निवास करते हैं। 547. जो राक्षस हैं, अथवा यमलोकवासी (नारक) हैं, तथा जो चारों निकाय के देव हैं, या जो देव गन्धर्व हैं, और पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय के हैं तथा जो आकाशगामी हैं एवं जो पृथ्वी पर रहते हैं, वे सब (अपने किये हुए कर्मों के फल स्वरूप) बार-बार विविध रूपों में (विभिन्न गतियों में) परिभ्रमण करते रहते हैं। 548. तीर्थंकरों गणधरों आदि ने जिस संसार सागर को स्वयम्भूरमण समुद्र के जल की तरह अपार / दुस्तर) कहा है, उस गहन संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से छुटकारा पाया जा सके, ऐसा) जानो, जिस संसार में विषयों और अंगनाओं में आसक्त जीव दोनों ही प्रकार से (स्थावर और जंगमरूप अथवा आकाशाश्रित एवं पृथ्वी-आश्रित रूप से अथवा वेषमात्र से प्रव्रज्याधारी होने और अविरति के कारण, एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते रहते हैं। विवेचन-एकान्त क्रियावाद और सम्यक् क्रियावाद एवं उसके प्ररूपक-प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रियावाद की गूढ़ समीक्षा की गई है। एकान्त क्रियावाद : स्वरूप और भेद-एकान्त क्रियावादी वे हैं, जो एकान्तरूप से जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व मानते हैं, तथा ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि क्रिया से ही मोक्षप्राप्ति मानते हैं। वे कहते हैं कि माता-पिता आदि सब हैं, शुभकर्म का फल भी मिलता है, पर मिलता है, केवल क्रिया से ही / जीव जैसी-जैसी क्रियाएँ करता है, तदनुसार उसे नरक-स्वर्ग आदि के रूप में कर्मफल मिलता है। संसार में सुख-दुःखादि जो कुछ भी होता है, सब अपना किया हुआ होता है, काल, ईश्वर आदि दूसरों का किया हुआ नहीं होता। नियुक्तिकार ने क्रियावाद के 180 भेद बताए हैं / वे इस एकार से हैं.-सर्वप्रथम जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इन नौ पदार्थों को क्रमशः स्थापित करके उसके नीचे 'स्वतः' और 'परतः' ये दो भेद रखने चाहिए। इसी तरह उनके नीचे 'नित्य' और 'अनित्य' इन दो भेदों की स्थापना करनी चाहिए। उसके नीचे क्रमश: काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा इन 5 भेदों की स्थापना करनी चाहिए / जैसे--(१) जीव स्वतः विद्यमान है. (2) जीव परतः (दूसरे से) उत्पन्न होता है, 3) जीव नित्य है, (4) जीव अनित्य है, इन चारों भेदों को क्रमशः काल आदि पांचों के साथ लेने से बीस भेद (445=20) होते हैं / इसी प्रकार अजीवादि शेष 8 के प्रत्येक के बीस-बीस भेद समझने चाहिए। यों नौ ही पदार्थों के 2046=180 भेद क्रियावादियों के होते हैं। 8 सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 218 6 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 116 (ख) सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 218 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा 546 से 551 एकान्त क्रियावाद को गुण-दोष समीक्षा-एकान्त क्रियावादियों के मन्तव्य के सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं कि क्रियावादियों का यह कथन किसी अंश तक ठीक है कि क्रिया से मोक्ष होता है, तथा आत्मा (जीव) और सुख आदि का अस्तित्व है, परन्तु उनकी एकान्त प्ररुपणा यथार्थ नहीं है। यदि एकान्तरूप से पदार्थों का अस्तित्व माना जाएगा तो वे कथञ्चित् (परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) नहीं हैं, यह कथन घटित नहीं हो सकेगा, जो कि सत्य है। वस्तु में एकान्त अस्तित्व मानने पर सर्ववस्तुएँ सर्ववस्तुरूप हो जाएंगी। इसप्रकार जगत् के समस्त व्यवहारों का उच्छेद हो जाएगा अतः प्रत्येक वस्तु कथञ्चित अपने-अपने स्वरूप से है, परस्वरूप से नहीं है, ऐसा मानना चाहिए। एकान्त क्रिया से मोक्ष नहीं होता, उसके साथ ज्ञान सम्यग्ज्ञान होना चाहिए / ज्ञानरहित क्रिया मात्र से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। सभी क्रियाएँ ज्ञान के साथ फल देती हैं / दशवकालिक सूत्र में 'पढम नाणं तओ दया' की उक्ति इसी तथ्य का संकेत है। अतः ज्ञान निरपेक्ष क्रिया से या क्रिया निरपेक्ष ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट कहते हैं--तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष कहा है। सम्यक क्रियावाद और उसके मार्गदर्शक--सूत्र गाथा 546 से 548 तक में सम्यक क्रियावाद और उसके मार्गदर्शक का निरूपण किया है, इनसे चार तथ्य फलित होते हैं--(१) लोक शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी है। (2) चारों गतियों के जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख दुःख पाते हैं तथा स्वतः संसार में परिभ्रमण करते हैं, काल, ईश्वर आदि से प्रेरित होकर नहीं। (3) संसार सागर स्वयम्भूरमण समुद्र के समान दुस्तर है, (4) तीर्थकर लोकचक्षु हैं, वे धर्मनायक' हैं, सम्यक् क्रियावाद के मार्गदर्शक हैं, उन्होंने संसार और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप बताकर सम्यक क्रियावाद को प्ररूपणा की है, अथवा जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों के अस्तित्व-नास्तित्व की काल आदि पांचकारणों के समवसरण (समन्वय) की सापेक्ष प्ररूपणा की है। इसलिए वे इस भाव-समवसरण के प्ररूपक हैं / सम्यक् क्रियाबाद और क्रियावादियों के नेता 546. ण कम्मुणा कम्म खर्वेति बाला, अकम्मुणा उ कम्म खति धीरा। मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो णो पकरेंति पावं // 15 // 550. ते तीत-उप्पण्ण-मणागताई, लोगस्स जाणंति तहागताई। तारो अण्णेसि अणण्णणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति // 16 // 551. ते णेव कुव्बंति ण कारर्वेति, मूताभिसंकाए दुगुछमाणा। सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्तिवीरा य भवंति एगे // 17 / / 10 सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 218 से 220 तक का सारांश Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 सूत्रकृतांग-बारहवाँ अध्ययन - समवसरण 546. अज्ञानी जीव (बाल) सावध (पापयुक्त) कर्म करके अपने कर्मों का क्षय नहीं कर सकते। अकर्म के द्वारा (आश्रवों-कर्म के आगमन को रोक कर, अन्ततः शैलेशी अवस्था में) धीर (महासत्व) साधक कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी साधक लोभमय (परिग्रह) कार्यों से अतीत (दूर) होते हैं, वे सन्तोषी होकर पाप कर्म नहीं करते। 550. वे वीतराग पुरुष प्राणिलोक (पंचास्तिकायात्मक या प्राणिसमूह रूप लोक) के भूत, वर्तमान एवं भविष्य (के सुख-दुःखादि वृत्तान्तों) को यथार्थ रूप में जानते हैं। वे दूसरे जीवों के नेता हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं है। वे ज्ञानी पुरुष (स्वयं बुद्ध, तीर्थकर, गणधर आदि) संसार (जन्म-मरण) का अन्त कर देते हैं। 551. वे (प्रत्यक्षज्ञानी या परोक्षज्ञानी तत्त्वज्ञ पुरुष) प्राणियों के घात की आशंका (डर) से पापकर्म से घृणा (अरुचि) करते हुए स्वयं हिंसादि पापकर्म नहीं करते, न ही दूसरों से पाप (हिंसादि) कर्म कराते हैं / वे धीर पुरुष सदैव संयत (पापकर्म से निवृत्त) रहते हुए संयमानुष्ठान की ओर झुके रहते हैं। परन्तु कई अन्यदर्शनी ज्ञान (विज्ञप्ति) मात्र से वीर बनते हैं, क्रिया से नहीं। विवेचन-सम्यक क्रियावाद और क्रियावादियों के नेता-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में सम्यक् क्रियावाद के सम्बन्ध में पांच रहस्य प्रस्तुत किये गए हैं-(१) क्रियावाद के नाम पर पापकर्म (दुष्कृत्य) करने वाले कर्म क्षय करके मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते, (2) कर्मों का सर्वथा क्षय करने हेतु महाप्राज्ञ साधक सावद्यनिरवद्य सभी कर्मों के आगमन को रोक कर अन्त में सर्वथा अक्रिय (योगरहित) अवस्था में पहुँच जाते हैं / अर्थात् कथञ्चित् सम्यक् अक्रियावाद को भी अपनाते हैं। (3) ऐसे मेधावी साधक लोभमयी क्रियाओं से सर्वथा दूर रहकर यथालाभ सन्तुष्ट होकर पाप युक्त क्रिया नहीं करते / (4) ऐसे सम्यक क्रियावादियों के नेता या तो स्वयबुद्ध होते हैं, या सर्वज्ञ होते हैं. उनका कोई नेता नहीं होता। वे लोक के अतीत, अनागत एवं वर्तमान वृत्तान्तों को यथावस्थित रूप से जानते हैं, और संसार के कारणभूत कर्मों का अन्त कर देते हैं / (5) ऐसे महापुरुष पाप कर्मों से घृणा करते हुए प्राणिवध की आशंका से (क्रियावाद के नाम पर) न तो स्वयं पापकर्म करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं / वे सदैव पापकर्म से निवृत्त रहते हुए संयमानुष्ठान में प्रवृत्त रहते हैं, यही उनका ज्ञानयुक्त सम्यक् क्रियावाद है, जबकि अन्यदर्शनी ज्ञान मात्र से ही वीर बनते हैं, सम्यक् क्रिया से दूर रहते।'' सम्यक क्रियावाद का प्रतिपादक और अनुगामी 552. डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आततो पासति सव्वलोए। उहती लोगमिणं महतं, बुद्धऽप्पमत्तेसु परिवएज्जा // 18 // 553. जे आततो परतो यावि गच्चा, अलमप्पणो होति अलं परेसि / तं जोतिभूतं च सताऽवसेज्जा, जे पाउकुज्जा अणवीयि धम्मं // 19 // 11 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 220 से 221 का निष्कर्ष Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया 552 से 556 413 554. अत्ताण जो जाणति जो य लोगं, आगई च जो जाणणागई च। जो सासयं जाणइ असासयं च, जाती मरणं च जणोववातं // 20 // 555. अहो वि सत्ताण विउट्टणं च, जो आसवं जाति संवरं च / दक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासितुमरिहति किरियवादं // 21 // 556. सद्देसु रूवेसु असज्जमाणे, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे / णो जीवियं णो मरणाभिकखी, आदाणगुत्ते वलयाविमुक्के / / 22 / / ति बेमि / / समोसरणं : बारसमं अज्झयणं सम्मत्तं // 552. इस समस्त लोक में छोटे-छोटे (कुन्थु आदि) प्राणी भी हैं और बड़े-बड़े (स्थूल शरीर वाले हाथी आदि) प्राणी भी हैं / सम्यक्वादी सुसाधु उन्हें अपनी आत्मा के समान देखता-जानता है। यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विशाल (महान) प्राणिलोक कर्मवश दुःख रूप है'; इस प्रकार की उत्प्रेक्षा (अनुप्रेक्षाविचारणा) करता हुआ वह तत्त्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त साधुओं से दीक्षा ग्रहण करे-प्रवजित हो। 553. जो सम्यक क्रियावादी साधक स्वयं अथवा दूसरे (तीर्थकर, गणधर आदि) से जीवादि पदार्थों को जानकर अन्य जिज्ञासुओं या मुमुक्षुओं को उपदेश देता है, जो अपना या दूसरों का उद्धार या रक्षण करने में समर्थ है, जो जीवों की कर्म परिणति का अथवा सद्धर्म (श्रुत चारित्र रूप धर्म या क्षमादिदशविध श्रमण धर्म एवं श्रावक धर्म) का विचार करके (तदनुरूप) धर्म को प्रकट करता है, उस ज्योतिः स्वरूप (तेजस्वी) मुनि के सानिध्य में सदा निवास करना चाहिए। 554-555. जो आत्मा को जानता है, जो लोक को तथा जीवों की गति और अनागति (सिद्धि) को जानता है, इसी तरह शाश्वत (मोक्ष) और अशाश्वत (संसार) को तथा जन्म-मरण एवं प्राणियों के नाना गतियों में गमन को जानता है तथा अधोलोक (नरक आदि) में भी जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है. यह जो जानता है, एवं जो आश्रव (कर्मों के आगमन) और संवर (कर्मों के निरोध) को जानता है तथा जो दुःख (बन्ध) और निर्जरा को जानता है, वही सम्यक् क्रियावादी साधक क्रियावाद को सम्यक् प्रकार से बता सकता है / 556. सम्यग्वादी साधु मनोज्ञ शब्दों और रूपों में आसक्त न हो, न ही अमनोज्ञ गन्ध और रस के प्रति द्वेष करे / तथा वह (असंयमी जीवन) जीवन जीने की आकांक्षा न करे, और न ही (परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर) मृत्यु की इच्छा करे / किन्तु संयम (आदान) से सुरक्षित (गुप्त) और माया से विमुक्त होकर रहे। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-सम्यक् क्रियावाद का प्रतिपादक और अनुगामी–प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में सम्यक् क्रियावाद के प्ररूपक एवं अनुगामी की अर्हताएँ बताई गई हैं / मुख्य अर्हताएँ ये हैं--(१) जो लोक में स्थित Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 सूत्रकृतांग-बारहवाँ अध्ययन-समवसरण समस्त छोटे-बड़े प्राणियों को आत्मवत् जानता-देखता है, (2) जो आत्म जागरण के समय विशाल लोक की अनुप्रेक्षा करता है कि 'यह द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विशाल अन्तरहित लोक कर्मवश जन्म-मरण-जरारोग-शोक आदि नाना दुःख रूप है।' (3) जो तत्त्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त साधुओं से दीक्षा ग्रहण करता है, (4) जीवादि नौ पदार्थों को प्रत्यक्षदर्शी या परोक्षदर्शी से जानकर दूसरों को उपदेश देता है, (5) जो स्व-पर-उद्धार या रक्षण करने में समर्थ हैं, (6) जो जिज्ञासु के समक्ष अनुरूप सद्धर्म का विचार करके प्रकट करता है, (7) सम्यक् क्रियावाद के अनुगामी को उसी तेजस्वी मुनि के सानिध्य में रहना चाहिए, (8) जो आत्मा जीवों की गति-आगति, मुक्ति तथा मोक्ष का (शाश्वतता) और संसार (अशाश्वतता) का रहस्य जानता है जो अधोलोक के जीवों के दुःखों को जानता है, आश्रव, संवर, पुण्य-पाप बन्ध एवं निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद का सम्यक् निरूपण कर सकता है / (6) ऐसे सम्यक क्रियावादी पंचेन्द्रिय विषयो में आसक्ति एवं द्वष नहीं रखना चाहिए, उसे जीवन-मरण को भी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए, उसे आदान (मिथ्यात्वादि द्वारा गृहीत कम या विषय कषायों के ग्रहण) से आत्मा को बचाना और माया से मुक्त रहना चाहिए। संक्षेप में, जो साधक आत्मवाद, लोकवाद एवं कर्मवाद को जानता है या नौ तत्वों का सर्वकर्मविमुक्ति रूप मोक्ष के सन्दर्भ में स्वीकार करता है, वही वस्तुतः क्रियावाद का ज्ञाता एवं उपदेष्टा है / 12 // समवसरण : बारहवां अध्ययन सम्पूर्ण / 0000 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 222-223 का सारांश Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याथातथ्य-त्रयोदश अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग (प्र० श्रु०) के तेरहवें अध्ययन का नाम याथातथ्य या यथातथ्य है / - यथातथ्य का अर्थ है-यथार्थ, वास्तविक, परमार्थ अथवा जैसा हो, वैसा / - नियुक्तिकार ने 'तथ्य' शब्द के मुख्यतया चार निक्षेप किये हैं-नाम तथ्य और स्थापना तथ्य सुगम है / सचित्तादि पदार्थों में से जिस पदार्थ का जैसा स्वभाव या स्वरूप हो, उसे द्रव्य की प्रधानता को लेकर द्रव्य तथ्य कहते हैं, जैसे पृथ्वी का लक्षण कठिनता, जल का द्रवत्व। तथा मनुष्यों आदि का जैसा मार्दव आदि स्वभाव है, तथा गोशीर्ष चन्दनादि द्रव्यों का जैसा स्वभाव है, उसे द्रव्यतथ्य कहते हैं। भाव तथ्य औदयिक आदि 6 भावों को यथार्थता को भाव तथ्य जानना चाहिए अथवा आत्मा में रहने वाला 'भावतथ्य' चार प्रकार का है-१. 'ज्ञानतथ्य' (पांच ज्ञानों द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानना) 2. 'दर्शन तथ्य' (जीवादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा करना), 3. 'चारित्रतथ्य' (17 प्रकार के संयम और 12 प्रकार के तप का शास्त्रोक्तरीति से पालन करना) और 4. विनयतथ्य (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार रूप से 42 प्रकार से विनय की यथायोग्य आराधना करना)। - अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त भावतथ्य में से प्रस्तुत अध्ययन में प्रशस्त भावतथ्य का अधिकार है। नियुक्तिकार की दृष्टि में प्रशस्त भावतथ्य का तात्पर्य है - सुधर्मास्वामी आदि आचार्यों की परम्परा से जिस सूत्र का सर्वज्ञोक्त जो अर्थ या व्याख्यान है, सरलता, जिज्ञासा बुद्धि एवं निरभिमानता के साथ उसी प्रकार से अर्थ और व्याख्या करना, तदनुसार वैसा ही आचरणअनुष्ठान करना यथातथ्य है, किन्तु परम्परागत सूत्रार्थ और व्याख्यान के विपरीत कपोलकल्पित कुतर्क-मद से विकृत अर्थ और व्याख्यान करना अयथातथ्य है / 0 प्रस्तुत अध्ययन में पूर्वोक्त भाव तथ्य की दृष्टि से साधुओं का प्रशस्त ज्ञानादि तथ्यरूप शील का तथा असाधुओं के इससे विपरीत शील (स्वभाव एवं स्वरूप) का वर्णन किया गया है / यथातथ्य वर्णन होने के कारण इस अध्ययन को 'याथातथ्य' कहा गया है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 0 अथवा इस अध्ययन की प्रथम गाथा में 'आहत्तहियं' (यथातथ्य) शब्द का प्रयोग हुआ है, इस आदिपद को लेकर इस अध्ययन का नाम 'याथातथ्य' दिया गया है।' / प्रस्तुत अध्ययन में 23 गाथाओं द्वारा साधुओं के गुण-दोषों की वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। - यथातथ्य व्याख्यान और तदनुसार आचरण से साधक को संसार सागर पार करने योग्य बनाना इस अध्ययन का उद्देश्य है। 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्रगाथा 557 से प्रारम्भ होकर 576 पर समाप्त होता है / 1 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 122 से 126 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 230-231 (ग) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 153 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहत्तहियं तेरसमं अज्झयणं याथातथ्य : तेरहवां अध्ययन समस्त यथातथ्य-निरूपण का अभिवचन 557 आहत्तयं तु पवेय इरस, नाणपकारं पुरिसस्स जातं / सतो य धम्म असतो असील, संति असति करिस्सामि पाउं // 1 // 557. मैं (सुधर्मास्वामी) याथातथ्य- यथार्थ तत्त्व को बताऊंगा, तथा ज्ञान के प्रकार (सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र के रहस्य) को प्रकट करूगा, एवं पुरुषों (प्राणियों) के अच्छे और बुरे गुणों को कहूँगा। तथा उत्तम साधुओं के शील और असाधुओं के कुशील का एवं शान्ति (मोक्ष) और अशान्ति (संसार) का स्वरूप भी प्रकट करूंगा। विवेचन-याथातथ्य के निरूपण का अभिवचन-अध्ययन की इस प्रारम्भिक गाथा में, समग्र अध्ययन में प्रतिपाद्य विषयों के यथातथ्य निरूपण का श्रीसुधर्मास्वामी का अभिवचन अंकित किया गया है / प्रस्तुत गाथा में चार विषयों के यथार्थ निरूपण का अभिवचन है (1) ज्ञानादि (सम्यग्ज्ञान, दर्शन, और चारित्र) का रहस्य / (2) सत्पुरुष और असत्पुरुष के प्रशस्त-अप्रशस्त गुण, धर्म, स्वभाव आदि का निरूपण। (3) सुसाधुओं के शील, सदाचार, सदनुष्ठान और कुप्साधुओं के कुशील, अनाचार और असदनुष्ठान का स्वरूप , (4) सुसाधुओं को समस्तकर्मक्षयरूप शान्ति (मुक्ति) की प्राप्ति और कुसाधुओं को जन्म-मरणरूप अशान्ति (संसार) की प्राप्ति का रहस्य व कारण / पाठान्तर-'पुरिसस्स जातं' के बदले पाठान्तर है-'पुरिसस्स माय' अर्थ के अनुसार यह पाठ संगत है।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 232 का सारांश Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 सूत्रकृतीग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य क्रुसाध के कुशील एवं ससाधु के शील का यथा तथ्य निरुपण 558 अहो य रातो य समुट्ठितेहि, तहागतेहि पडिलन्भ धम्मं / समाहिमाघातमझोसयंता, सस्थारमेव फरुमं वयंति // 2 // 556 विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागरेज्जा। अट्ठाणिए होति बहुगुणाणं, जे णाणसंकाए मुसं वदेज्जा // 3 // 560 जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति, आदाणमढें खलु वंचयंति / असाहुणो ते इह साधुमाणी, माण्ण एसिति अणंतर्घतं // 4 // 561 जे कोहणे होत जगट्ठभासी, विमोसियं जे उ उदीरएज्जा। अंधे व रे दं पहं पहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी // 5 // 562 जे विगहीए अन्नायभासी, न से समे होति अझंझपत्ते। ओवायारो य हिरोमणे य, एगतंदिट्ठी य अमाइरूवे // 6 / / 563 से पेसले सुहमे पुरिसजाते, जच्चण्णिए चेव सुउज्जुयारे। बहुं पि अणुसासिते जे तहच्चा, समे हु से होति अझंझपत्ते / / 7 / / 564 जे आवि अप्पं वसुमं ति मंता, संखाय वादं अपरिच्छ कुज्जा। तवेण वा हं सहिते त्ति मंता, अण्णं जणं पस्सति बिंबभूतं // 8 // 565 एगंतकूडेण तु से पलेति, ण विज्जती मोणपदंसि गोते। ज माणणद्वेण विउक्कसेज्जा, वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे // 6 // 566 जे माहणे जातिए खत्तिए था, तह उग्गपुत्ते तह लेच्छती वा। जे पव्वइते परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थन्भति माणबद्ध // 10 // 567 ण तस्स जातो व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जा-चरणं सुचिण्णं / णिक्खम्म जे सेवतिऽगारिकम्म, ण से पारए होति विमोयणाए // 11 // 58. दिन-रात सम्यक् रूप से सदनुष्ठान करने में उद्यत श्रुतधरों तथा तथागतों (तीर्थंकरों से श्रुत-चारित्र) धर्म को पाकर तीर्थंकरों आदि द्वारा कथित समाधि (सम्यग्दर्शनादि मोक्षपद्धति) का सेवन न करने वाले कुसाधु (जामालि, बोटिक आदि निन्हव) अपने प्रशास्ता धर्मोपदेशक (आचार्य या तीर्थकरादि) को कठोर शब्द (कुवाक्य) कहते हैं / Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 558 से 567 416 556. वे स्वमताग्रहग्रस्त कुसाधु (जामालि गोष्ठामाहिल आदि निन्हववत्) विविध प्रकार से त (कुमार्ग-प्ररूपणा से निवारित) इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग (जिनमार्ग) की आचार्य परम्परागत व्याख्या से विपरीत प्ररूपणा करते हैं। जो व्यक्ति अहंकार वश आत्मभाव से (अपनी रुचि या कल्पना से) आचार्य परम्परा के विपरीत सूत्रों का अर्थ करते हैं, वे बहुत से ज्ञानादि सद्गुणों के स्थान (भाजन) नहीं होते / वे (अल्पज्ञान गवित होकर) वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्या भाषण करते हैं। 560. जो कुसाधु पूछने पर अपने आचार्य या गुरु आदि का माम छिपाते हैं, वे आदान रूप अर्थ (ज्ञानादि अथवा मोक्षरूप पदार्थ) से अपने आप को वञ्चित करते हैं / वे वस्तुतः इस जगत् में या धार्मिक जगत् में असाधु होते हुए भी स्वयं को साधु मानते हैं, अतः मायायुक्त वे व्यक्ति अनन्त (बहुत) बार विनाश (या संसारचक्र) को प्राप्त करेंगे। 561. जो कषाय-फल से अनभिज्ञ कुसाधु, प्रकृति से क्रोधी है, अविचारपूर्वक बोलता (परदोषभाषी) है, जो उपशान्त हुए कलह को फिर उभाड़ता (जगाता) रहता है, वह पापकर्मी एवं सदैव कलह ग्रस्त व्यक्ति (चातुर्गतिक संसार में यातनास्थान पाकर) बार-बार उसी तरह पीड़ित होता है, जिस तरह छोटी संकडी पगडंडी पकड़ कर चलने वाला (सुमार्ग से अनभिज्ञ) अंधा (कांटों, हिंस्र पशुओं आदि से) पीड़ित होता है। 562. जो साधक कलहकारी है, अन्याययुक्त (न्याय-विरुद्ध) बोलता है, वह (रागद्वेषयुक्त होने के कारण) सम-मध्यस्थ नहीं हो सकता, वह कलहरहित भी नहीं होता (अथवा वह अकलह प्राप्त सम्यग्दृष्टि के समान नहीं हो सकता)। परन्तु सुसाधु उपपातकारी (गुरुसान्निध्य में रहकर उनके निर्देशानुसार चलने वाला) या उपायकारी (सूत्रोपदेशानुसार उपाय-प्रवृत्ति करने वाला) होता है, वह अनाचार सेवन करते गुरु आदि से लज्जित होता है, जीवादि तत्वों में उसकी दृष्टि (श्रद्धा) स्पष्ट या निश्चित होती है तथा वह माया-रहित व्यवहार करता है। 563. भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर (शिक्षा पाकर) भी जो अपनी लेश्या (अर्चा-चित्तवृत्ति) शुद्ध रखता है, वह सुसाधक मृदुभाषी या विनयादिगुणयुक्त है / वही सूक्ष्मार्थदर्शी है, वही वास्तव में संयम में पुरुषार्थी है, तथा वही उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में ही सहज-सरल-भाव से प्रवृत्त रहता है। वही सम (निन्दा-प्रशंसा में रोष-तोष रहित मध्यस्थ) है, और अकषाय-प्राप्त (अक्रोधी या अमायी) है (अथवा वही सुसाधक वीतराग पुरुषों के समान अझंझा प्राप्त है)। 564-565. जो अपने आपको संयम एवं ज्ञान का धनी मानकर अपनी परीक्षा किये बिना ही किसी के साथ वाद छेड़ देता है, अथवा अपनी प्रशंसा करता हैं, तथा मैं महान् तपस्वी हूँ; इस प्रकार के मद से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति को जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह निरर्थक तुच्छ देखता-समझता है। वह मदलिप्त साधु एकान्तरूप से मोहरूपी कूटपाश में फंस कर संसार में परिभ्रमण करता हैं, तथा जो सम्मान प्राप्ति के लिए संयम, तपस्या, ज्ञान आदि विविध प्रकार का मद करता है, वह समस्त Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 सुत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य आगम-वाणी के त्राता आधारभूत (गोत्र) मौनीन्द्र (सर्वज्ञ वीतराग) के पद-मार्ग में अथवा मौनपद (संयमपथ) में स्थित नहीं है / वास्तव में संयम लेकर जो ज्ञानादि का मद करता है, वह परमार्थतः सर्वज्ञ-मार्ग को नहीं जानता-वह मूढ़ है। 566. जो ब्राह्मण है अथवा क्षत्रिय जातीय है, तथा उग्र (वंशीय क्षत्रिय-) पुत्र है, अथवा लिच्छवी (गण का क्षत्रिय) है, जो प्रवजित होकर परदत्तभोजी (दूसरे-गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार सेवन करने वाला) है, जो अभिमान योग्य स्थानों से पूर्व सम्बन्धित होकर भी अपने (उच्च) गोत्र का मद नहीं करता. वही सर्वज्ञोक्त याथातथ्य चारित्र में प्रवृत्त साधु है। 567. भलीभांति आचरित (सेवित) ज्ञान (विद्या) और चारित्र (चरण) के सिवाय (अन्य) साधक की जाति अथवा कूल (दुर्गति से) उसकी रक्षा नहीं कर सकते। जो प्रव्रज्या लेकर फिर गृहस्थ कर्म (सावध कर्म, आरम्भ) का सेवन करता है वह कर्मों से विमुक्त होने में समर्थ नहीं होता। विवेचन-कुसाधु के कुशील और सुसाधु के सुशील का यथातथ्य निरूपण-प्रस्तुत 10 सूत्रगाथाओं में कुसाधुओं और सुसाधुओं के कुशील एवं सुशील का यथार्थ निरूपण किया गया है। कुसाधुओं के कुशील का यथातथ्य इस प्रकार है-(१) अहनिश सदनुष्ठान में उद्यत श्रुतधरों या तीर्थंकरों से श्रुतचारित्र धर्म को पाकर उनके द्वारा कथित समाधि का सेवन नहीं करते (2) अपने उपकारी प्रशास्ता की निन्दा करते हैं. (3) वे इस विशुद्ध सम्यग्दर्शनादि युक्त जिन मार्ग की परम्परागत व्याख्या से विपरीत प्ररूपणा करते हैं; (4) अपनी स्वच्छन्दकल्पना से सूत्रों का विपरीत अर्थ करते हैं, (5) वीतराग सर्वज्ञ के ज्ञान में कुशंका करके मिथ्याभाषण करते हैं, (6) वे पूछने पर आचार्य या गुरु का नाम छिपाते हैं, अतः मोक्षरूप फल से स्वयं को वंचित करते हैं, (7) वे धार्मिक जगत् में वस्तुतः असाधु होते हुए भी स्वयं को मायापूर्वक सुसाधु मानते हैं, (8) वे प्रकृति से क्रोधी होते हैं, (6) बिना सोचे विचारे बोलते हैं, या परदोषभाषी हैं, (10) वे उपशान्त कलह को पुनः उभारते हैं, (11) वे सदैव कलहकारी व पापकर्मी होते हैं, (12) न्याय विरुद्ध बोलते हैं, (13) ऐसे कुसाधु सम (रागद्वेष रहित या मध्यस्थ अथवा सम्यग्दष्टि के समान नहीं हो पाते। (14) अपने आपको महाज्ञानी अथवा सुसंयमी मान कर बिना ही परीक्षा किये अपनी प्रशंसा करते हैं, (15) मैं बहुत बड़ा तपस्वी है, यह मानकर दूसरों को तुच्छ मानते हैं. (16) बह अहंकारी साधू एकान्तरूप से मोहरूपी कटपाश में फंसकर संसार पी भ्रमण करता है, वह सर्वज्ञ प्रभु के मार्ग या पद में स्थित नहीं है (17) जो संयमी होकर सम्मान-सत्कार पाने के लिए ज्ञान, तप, लाभ आदि का मद करता है, वह मूढ़ है, परमार्थ से अनभिज्ञ है। (18) जिनमें ज्ञान और चारित्र नहीं है, जाति, कुल आदि उनकी रक्षा नहीं कर सकते, अतः प्रव्रज्या ग्रहण कर जो जाति, कुल आदि का मद करता है, एवं गृहस्थ के कमों (सावद्यकर्मों) का सेवन करता है, वह असाधु अपने कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होता। 2 (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 232 से 235 (ख) सूत्र० गाथा 558 से 562, 564 से 567 तक Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया 568 से 573 421 सुसाधुओं के सुशील का याथातथ्य-इस प्रकार है-(१) सुसाधु गुरु के सान्निध्य में रहकर उनके निर्देशानुसार प्रवृत्ति करता है, और सूत्रोपदेशानुसार प्रवृत्ति करता है, (2) वह अनाचार सेवन करने में गुरु आदि से लज्जित होता है, (3) जीवादि तत्त्वों पर उसकी श्रद्धा दृढ़ होती है, (4) वह मायारहित व्यवहार करता है, (5) भूल होने पर आचार्यादि द्वारा अनुशासित होने पर भी अपनी चित्तवृत्ति शुद्ध रखता है, (6) वह मृदुभाषी या विनयादि गुणों से युक्त होता है, (7) वह सूक्ष्मार्थदर्शी एवं पुरुषार्थी होता (8) वह साध्वाचार में सहजभाव से प्रवृत्त रहता है, (6) वह निन्दा-प्रशंसा में सम रहता है. (10) अकषायी होता है अथवा वीतराग पुरुष के समान अझंझाप्राप्त है, (11) जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्च जाति का पूर्वाश्रमी होकर भी उच्च गोत्र का मद नहीं करता, वही याथातथ्य चारित्र में प्रवृत्त सुसाधु है, (12) जो प्रव्रजित होकर परदत्तभोजी होकर किसी प्रकार का जातिमद नहीं करता। साधु की ज्ञानादि साधना में तश्य-अतथ्य विवेक 568 णिक्किंचणे भिक्खू सुलहजीवी, जे गारवं होति सिलोयगामी। आजीवमेयं तु अबुज्झमाणे, पुणो पुणो विपरियासुवेति // 12 // 566 जे भासवं भिक्खु सुसाधुवादी, पडिहाणवं होति विसारए य / __आगाढपण्ण सुविभावितप्पा, अण्णं जणं पण्णसा परिभवेज्जा // 13 / / 570 एवं ण से होति समाहिपत्ते, जे पसा भिक्खु विउक्कसेज्जा। अहवा वि जे लाभमयावलित्ते, अण्णं जणं खिसति बालपण्णे // 14 // 571 पण्णामयं चेव तवोमयं च, णिण्णामए गोयमयं च भिक्खू / आजोवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडित उत्तमपोग्गले से // 15 // 572 एताई मदाई विगिच धोरे, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा। ते सव्वगोत्तावगता महेसी, उच्च अगोत्तं च गति वयंति / / 16 / / 573 भिक्खू मुयच्चा तह दिठ्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा। से एसणं जाणमणेसणं च, अण्णस्स पाणस्स अणाणु गिद्धे // 17 // 568. जो भिक्षाजीवी साधु अकिचन-अपरिग्रही है, भिक्षान्न से उदर पोषण करता है, रूखा-सूखा अन्त-प्रान्त आहार करता है। फिर भी यदि वह अपनी ऋद्धि, रस और साता (सुख सामग्री) का गर्व (गौरव) करता है, तथा अपनी प्रशंसा एवं स्तुति की आकांक्षा रखता है, तो उसके ये सब (अकिंचनता, 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 234-235 (ख) सूत्र० गाथा० 562,563, 566 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य रूक्षजीविता और भिक्षाजीविता आदि गण केवल उसकी आजीविका के साधन हैं। परमार्थ को न जानने वाला वह अज्ञानी पुनः-पुनः विपर्यास-जन्म, जरा, मृत्यु; रोग, शोक आदि उपद्रवों को प्राप्त होता है। 566-570. जो भिक्ष भाषाविज्ञ है- भाषा के गुण-दोष का विचार करके बोलता है, तथा हितमित-प्रिय भाषण करता है, औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से सम्पन्न है, और शास्त्रपाठों की सुन्दर व्याख्या एवं अनेक अर्थ करने में विशारद (निपुण) है, सत्य-तत्त्व निष्ठा में जिसकी प्रज्ञा आगाढ़ (गड़ी हुई) है, धर्म-भावना से जिसका हृदय अच्छी तरह भावित (रंगा हुआ) है, वही सच्चा साधु है, परन्तु इन गुणों से युक्त होने पर भी जो इन गुणों के मद से ग्रस्त होकर दूसरों का अपनी बुद्धि से तिरस्कार करता है, (वह उक्त गुणों पर पानी फेर देता है)। जो भिक्षु प्रज्ञावान् होकर अपनी जाति, बुद्धि आदि का गर्व करता है, अथवा जो लाभ के मद से अवलिप्त (मत्त) होकर दूसरों की निन्दा करता है, या उन्हें झिड़कता है, वह बालबुद्धि मूर्ख समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। 571-572. भिक्षु प्रज्ञा का मद, तपोमद, गोत्र का मद और चौथा आजीविका का मद मन से निकाल देहटा दे / जो ऐसा करता है, वही पण्डित और उत्तम आत्मा है। धीर पुरुष इन (पूर्वोक्त सभी) मदों (मद स्थानों) को संसार के कारण समझकर आत्मा से पृथक् कर दे। सुधीरता (बुद्धि से सुशोभित) के धर्म-स्वभाव वाले साधू इन जाति आदि मदों का सेवन नहीं करते। वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित महर्षिगण, नाम-गोत्रादि से रहित सर्वोच्च मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं। 573. मृतार्च (शरीर के स्नान-विलेपनादि संस्कारों से रहित अथवा प्रशस्त-मुदित लेश्या वाला) तथा धर्म को जाना-देखा हुआ भिक्षु ग्राम और नगर में (भिक्षा के लिए) प्रवेश करके (सर्वप्रथम) एषणा और अनैषणा को अच्छी तरह जानता हुआ अत्र-पान में आसक्त न होकर (शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे)। विवेचन-साधु को ज्ञानादि साधना में तथ्य-अतथ्य-विवेक--प्रस्तुत 6 सूत्रगाथाओं में ज्ञान-दर्शनचारित्र आदि की यथातथ्य साधना से सम्पन्न साधु में कहाँ और कितना अतथ्य और तथ्य प्रविष्ट हो सकता है ? परिणाम सहित ये दोनों चित्र बहुत ही सुन्दर ढंग से शास्त्रकार द्वारा प्रस्तुत किये गए हैं। उच्च साधु : परन्तु अतथ्य का प्रवेश-(१) एक साधु सर्वथा अकिञ्चन है, भिक्षान्न से निर्वाह करता है, भिक्षा में भी रूखा-सूखा आहार प्राप्त करके प्राण धारण करता है, इतना उच्चाचारी होते हुए भी यदि वह अपनी ऋद्धि (लब्धि या भक्तों के जमघट का ठाटबाट), रस और साता (सुख-सुविधा) का गर्व करता है, अपनी प्रशंसा और प्रसिद्धि की आकांक्षा करता है तो उपर्युक्त गुण अतथ्य हो जाते हैं / (2) एक साधु बहुभाषाविद् है, सुन्दर उपदेश देता है, प्रतिभा सम्पन्न है, शास्त्र विशारद है, सत्यग्राही प्रज्ञा से सम्पन्न है, धर्म-भावना से अन्तःकरण रंगा हुआ है, इतने गुणों से युक्त होने पर भी जो इन गुणों के मद Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाचा 574 से 578 423 से ग्रस्त एवं जाति, बुद्धि और लाभ आदि के मद से लिप्त होकर दूसरों का तिरस्कार करता है, दूसरों की निन्दा करता है, उन्हें झिड़कता है, तो उसके ये गुण अतथ्य हो जाते हैं, वह साधक समाधिभ्रष्ट हो जाता है। सामान्य साधु : तथ्य का प्रवेश- (1) जो भिक्षु प्रज्ञा, तप, गोत्र एवं आजीविका का मद मन से निकाल देता है, वही उच्च कोटि का महात्मा और पण्डित है, (2) जो धीर पुरुष सभी मदों को संसार का कारण समझकर उन्हें आत्मा से पृथक कर देते हैं, जरा भी मद का सेवन नहीं करते, वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित उच्चकोटि के महर्षि हैं, वे गोत्रादिरहित सर्वोच्च मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं, (3) जो भिक्षु ग्राम या नगर में भिक्षार्थ प्रवेश करते ही सर्वप्रथम एषणा-अनेषणा का भली-भाँति विचार करता है, तदनन्तर आहार-पानी में आसक्त न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है, वह प्रशस्त लेश्या सम्पन्न एवं धर्मविज्ञ साधु है। ये तीनों सामान्य साधु भी याथातथ्य प्रवेश होने के कारण उच्चकोटि के बन जाते हैं। सुसाधु द्वारा यथातथ्य धर्मोपदेश के प्रेरणासूत्र 574 अरति रति च अभिभूय भिक्खू, बहूजणे वा तह एगचारी। एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गतिरागती य // 18 // 575 सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हितदं पयाणं / जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा // 16 // 576 केसिंचि तक्काइ अबुज्झभावं खुड्ड पि गच्छेज्ज असद्दहाणे। ____ आयुस्स कालातियारं वधातं, लद्धाणुमाणे य परेसु अढे // 20 // 577 कम्मं च छंद च विगिच धीरे, विणएज्ज उ सम्वतो आयभावं / रूबेहि लुप्पंति भयावहेहि, विज्जं गहाय तसथावरेहि // 2 // 578 न पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सवि णो कहेज्जा। सव्वे अणठे परिवज्जयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू // 22 // 574. साधु संयम में अरति (अरुचि) और असंयम में रति (रुचि) को त्याग कर बहुत से साधुजनों के साथ रहता हो या अकेला रहता हो, जो बात मौन (मुनि धर्म या संयम) से सर्वथा अविरुद्ध 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 235, 236 (ख) सूयगडंग (मू० पा० टिप्पण) सू० गा०५६८ से 570 तक पृ० 103 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 237, 238 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) सू० गा० 571 से 573 तक पृ० 103-104 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य संगत हो, वही कहे। (यह ध्यान रखे कि) प्राणी अकेला ही परलोक जाता है, और अकेला ही आता (परलोक से आगति करता) है। 575. स्वयं जिनोक्त धर्म सिद्धान्त (चतुर्गतिक संसार उसके मिथ्यात्वादि कारण तथा समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष, एवं उसके सम्यग्दर्शनादि धर्म रूप कारण आदि) को भलीभाँति जानकर अथवा दूसरे से सुनकर प्रजाओं (जनता) के लिए हितकारक धर्म का उपदेश दे। जो कार्य निन्द्य (गहित) हैं, अथवा जो कार्य निदान (सांसारिक फलाकांक्षा) सहित किये जाते हैं, सुधीर वीतराग धर्मानुयायी साधक उनका सेवन नहीं करते। 576. किन्हीं लोगों के भावों (अभिप्रायों) को अपनी तर्क बुद्धि से न समझा जाए तो वे उस उपदेश पर श्रद्धा न करके क्षुद्रता (क्रोध-आक्रोश-प्रहारादि) पर भी उतर सकते हैं तथा वे (उपदेश देने वाले की दीर्घकालिक) आयु को भी (आघात रहुंचा वर) घटा सकते है (उसे मार भी सकते है)। इसलिए साधु (पहले) अनमान से दूसरों का अभिप्राय (भाव) जानकर फिर धर्म का उपदेश दे। 577. धीर साधक श्रोताओं के कर्म (जीविका, व्यवसाय या आचरण) एवं अभिप्राय को सम्यक् प्रकार से जानकर (विवेक व रके) धर्मोपदेश दे। (उपदेश द्वारा) (श्रोताओं के जीवन में प्रविष्ट) आय भाव को (मिथ्यात्वादि दुष्कर्मों की आय-वद्धि को अथवा अनादिकालाभ्यरत मिथ्यात्वादि आत्मभाव को) सर्वथा या सब ओर से दूर करे / तथा उन्हें यह समझाए कि स्त्रियों के (बाहर से सुन्दर दिखाई देने वाले) रूप से (उसमें आसक्त जीव) विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार विद्वान् (धर्मोपदेशाभिज्ञ) साधक श्रोताओं (दूसरों) का अभिप्राय जानकर वस-स्थावरों के लिए हितकर धर्म का उपदेश करे। 578. साधु (धर्मोपदेश के द्वारा) अपनी पूजा (आदर-सत्कार) और श्लाघा (कीर्ति-प्रसिद्धि या प्रशंसा) की कामना न करे, तथा उपदेश सुनने-न सुनने या सुनकर आचरण करने न करने वाले पर प्रसन्न या अप्रसत्र होकर किसी का प्रिय (भला) या अप्रिय (बुरा) न करे (अथवा किसी पर राग या द्वेष न करे)। (पूर्वोक्त) सभी अनर्थों (अहितकर बातों) को छोड़ता हुआ साधु आकुलता-रहित एवं कषाय-रहित धर्मोपदेश दे। विवेचन-सुसाधु द्वारा यथातथ्य धर्मोपदेश के प्रेरणासूत्र-प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं में सुसाधुओं द्वारा मुनिधर्म को मर्यादा में अबाधक यथातथ्य धर्मोपदेश करने या धर्मयुक्त मार्ग दर्शन देने के कतिपय प्रेरणासूत्र अंकित किये हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं (1) संयम में अरति और असंयम में रति पर विजय पाकर साधु एकान्ततः वही बात कहे, जो . मुनिधर्म या संयम से अविरुद्ध या संगत हो, भले ही वह बहुत से साथी साधुओं के साथ रहता हो या अकेला हो। (2) वह धर्म का महत्त्व बताने हेतु प्रेरणा करे कि जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरकर परलोक में जाता है, धर्म के सिवाय उसका कोई सहायक नहीं है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425 गाथा 576 (3) चतुर्गतिक संसार, उसमें परिभ्रमण के मिथ्यात्वादि हेतु कर्मबन्ध, समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष, उसके सम्यग्दर्शनादि कारण आदि सबको सम्यक् जानकर तथा आचार्यादि से सुनकर साधु जनहित-कारक धर्म का उपदेश करे। (4) जो कार्य निन्द्य एवं निदान युक्त किये जाते हैं, वीतराग-धर्मानुगामी सुधीर साधक न तो उनका स्वयं आचरण करे, और न ही दूसरों को ऐसे अकरणीय कार्यों की प्रेरणा दे। (5) साधु उपदेश देने से पहले श्रोता या परिषद् के अभिप्रायों को अपनी तर्कबुद्धि एवं अनुमान से भली-भाँति जान ले, तत्पश्चात् ही उपदेश दे अन्यथा उपदेशक पर अश्रद्धा करके वे क्षद्रता पर उतर सकते हैं, उस पर पालक द्वारा स्कन्दक मुनिवत् मरणान्तक प्रहारादि भी कर सकते हैं। (6) धीर साधक श्रोताओं के कर्म (आचरण या व्यवसाय) एवं अभिप्राय का समीचीन विचार करके वस-स्थावर जीवों के लिए हितकर धर्म का उपदेश दे। (7) वह इस प्रकार का उपदेश दे, जिससे श्रोताओं के मिथ्यात्वादि-जनित कर्म दूर हों, जैसेबाहर से सुन्दर दिखाई देने वाले नारीरूप में आसक्त जीव विनष्ट हो जाते हैं, इत्यादि बात श्रोताओं के दिमाग में युक्तिपूर्वक ठसाने से उनको विषयों के प्रति आसक्ति दूर हो सकती है। (8) साधु अपनी पूजा, सत्कार प्रशंसा, कीर्ति या प्रसिद्धि आदि प्राप्त करने की दृष्टि से धर्मोपदेश न दे। () उपदेश सुनमे न सुनने अथवा उपदेश के अनुसार आचरण करने न करने वाले पर प्रसन्न या अप्रसन्न होकर या राग या द्वष से प्रेरित होकर साधु किसी का इष्ट (प्रिय) या अनिष्ट न करे, अथवा श्रोता को प्रिय लगने वाली स्त्रीविकथा, राजविकथा, भोजनविकथा, देशविकथा अथवा सावधप्रवृति प्रेरक कथा न करे, न ही किसी समूह को अप्रिय लगने वाली, उस समूह के देव, गुरु की कटु शब्दों में आलोचना, निन्दा, मिथ्या आक्षेप आदि से युक्त कथा करे। (10) पूर्वोक्त सभी अनर्थों का परित्याग करके साधु शान्त, अनाकुल, एवं कषाय-रहित होकर धर्मोपदेश दे। साधु धर्म का यथा तथ्यरूप में प्राणप्रण से पालन करे 576 आहत्तहियं समुपेहमाणे सम्वेहि पाहि निहाय दंडं। नो जीवियं नो मरणाभिकंखो, परिश्वएज्जा वलयाविमुक्के // 23 // // आहत्तहियं : तेरसमं अज्झयणं सम्मत्तं // 6 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 238-236 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य 576. साधु यथातथ्य धर्म को (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म को या स्व-पर सिद्धान्त को यथातथ्यरूप में) भली-भांति जानता-देखता हुआ समस्त प्राणियों को दण्ड देना (प्राण-हनन करना) छोड़कर अपने जीवन एवं मरण की आकांक्षा न करे, तथा माया से विमुक्त होकर संयमाचरण में उद्यत रहे / विवेचन-साधुधर्म का - यथातथ्य रूप में प्राणप्रण से पालन करे--प्रस्तुत सूत्र अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार किसी भी मूल्य पर यथातथ्यरूप में सम्यग्दर्शनादि रूप धर्म का पालन करने, उसी का चिन्तन-मनन करने और जीवन-मरण की आकांक्षा न करते हुए निश्छल भाव से उसी का अनुसरण करने का निर्देश करते हैं / वृत्तिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि धर्म, मार्ग, समवसरण आदि पिछले अध्ययनों में कथित सम्यक्त्व, चारित्र एवं ज्ञान के तत्त्वों पर सूत्रानुसार यथातथ्य चिन्तन, मनन, एव आचरण करे। प्राण जाने का अवसर आए तो भी यथातथ्य धर्म का अतिक्रमण न करे। असंयम के साथ या प्राणिवध करके चिरकाल तक जीने की आकांक्षा न करे तथैव परीषह उपसर्ग आदि से पीड़ित होने पर शीघ्र मृत्यु की आकांक्षा न करे। // याथातथ्य : तेरहवां अध्ययन समाप्त / / 0000 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 240 का सार Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ : चतुर्दश अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु.) के चौदहवें अध्ययन का नाम 'ग्रन्थ है। - ग्रन्थ शब्द गाँठ, पुस्तक एवं बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह के अर्थ में प्रयुक्त होता है। नियुक्तिकार के अनुसार ग्रन्थ शब्द का अर्थ बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह हैं। बाह्यग्रन्थ के मुख्य 10 प्रकार हैं-(१) क्षेत्र, (2) वस्तु, (3) धन-धान्य, (4) ज्ञातिजन, मित्र तथा द्विपद-चतुष्पद जीव, (5) वाहन, (6) शयन, (7) आसन, (8) दासी-दास, (इ) स्वर्ण-रजत, और (10) विविध साधन-सामग्री / इन बाह्य पदार्थों में मूर्छा रखना ही वास्तव में ग्रन्थ है। आभ्यन्तर ग्रन्थ के मुख्य 14 प्रकार हैं-(१) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ, (5) राग (मोह), (6) द्वेष, (7) मिथ्यात्व, (8) काम (वेद), (6) रति (असंयम में रुचि) (10) अरति (संयम में अरुचि), (11) हास्य, (12) शोक, (13) भय और (14) जुगुप्सा। 0 उत्तराध्ययन सूत्र के क्षुल्लकनिर्गन्थीय अध्ययन के अनुसार जो इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों का त्याग कर देता है, जिसे इन द्विविध ग्रन्थों से लगाव, आसक्ति या रुचि नहीं है, तथा निग्रन्थ मागे की प्ररूपणा करने वाले आचारांग आदि ग्रन्थों का जो अध्ययन, प्रशिक्षण करते हैं, वे निम्रन्थशिष्य कहलाते हैं। - निर्ग्रन्थ-शिष्य को गुरु के पास रहकर ज्ञपरिज्ञा से बाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागना चाहिए। इत्यादि ग्रन्थविषयक प्रेरणा मुख्य होने से इस अध्ययन का नाम 'ग्रन्थ' रखा गया है / अथवा इस अध्ययन के प्रारम्भ में गंथं (ग्रन्थ) शब्द का प्रयोग होने से इसका नाम 'ग्रन्थ' है।' - शिष्य दो प्रकार के होते हैं--दीक्षाशिष्य और शिक्षाशिष्य। जो दीक्षा देकर शिष्य बनाया जाता है, वह दीक्षाशिष्य कहलाता है, तथा जो शैक्ष आचार्य आदि से पहले आचरण या (इच्छा, 1 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गाथा 127 से 131 तक (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 241 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 प्राथमिक मिच्छा, तहक्कार आदि) की शिक्षा लेता है, वह शिक्षाशिष्य कहलाता है। शिष्य की तरह आचार्य या गुरु भी दो प्रकार के होते हैं-दीक्षागुरु और शिक्षागुरु / अतः इस अध्ययन में मुख्यतया यह बताया गया है कि ग्रन्थ-त्यागी शिक्षा शिष्य (शैक्षिक) और शिक्षागुरु कैसे होने चाहिए? उन्हें कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए? उनके दायित्व और कर्तव्य क्या-क्या हैं ? इन सब तथ्यों का 27 गाथाओं द्वारा इस अध्ययन में निरूपण किया गया है। // यह अध्ययन 580 सूत्रगाथा से प्रारम्भ होकर सूत्र गाथा 606 पर समाप्त होता है। 00 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 241 (ख) जैन साहित्य का वृहद इतिहास भा० 1 पृ० 154 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंथो चउद्दसमं अज्झयणं ग्रन्थ : चतुर्दश अध्ययन ग्रन्थ त्यागी के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाभ 580 गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा। ___ ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छए विप्पमादं न कुज्जा // 1 // 581 जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासमा पवित्रं मण्णमाणं। तभचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकादि अन्वत्तगर्म हरेज्जा // 2 // 582 एवं तु सेहं पि अपु धम्म, निस्तारियं वुसिम मण्णमाणा। दियरस छावं व अपत्तजातं, हरिसु णं यावधम्मा अणेगे // 3 // 583 ओसाणमिच्छे मणए समाहि, अणोसिते गंतकरे ति णच्चा। ओभासमाणो दवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे बहिया आसुपण्णे // 4 // 584 जे ठाणओ या सयणासणे या, परक्कमे यावि सुसाधुजुत्ते। समितीसु गुत्तीसु य आयपणे, वियागरते य पुढो वदेज्जा ॥शा 580. इस लोक में बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थ - परिग्रह का त्याग करके प्रब्रजित होकर मोक्षमार्गप्रतिपादक शास्त्रों के ग्रहण, (अध्ययन), और आसेवन-(आचरण) रूप में गुरु से सीखता हुआ साधक सम्यक्रूप से ब्रह्मचर्य (नवगुप्ति सहित ब्रह्मचर्य या संयम में) स्थित रहै अथवा गुरुकुल में वास करे। आचार्य या गुरु के सान्निध्य में अथवा उनकी आज्ञा में रहता हुआ शिष्य विनय का प्रशिक्षण ले। (संयम या गुरु-आज्ञा के पालन में) निष्णात साधक (कदापि) प्रमाद न करे / 581-582. जैसे कोई पक्षी का बच्चा पूरे पंख आये बिना अपने आवासस्थान (घोंसले) से उड़कर अन्यत्र जाना चाहता है, वह तरुण-(बाल) पक्षी उड़ने में असमर्थ होता है। थोड़ा-थोड़ा पंख फड़फड़ाते देखकर ढंक आदि मांस-लोलुप पक्षो उसका हरण कर लेते हैं और मार डालते हैं। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-चौदहवाँ अध्ययन -ग्रन्थे __ इसी प्रकार जो साधक अभी श्रुत-चारित्र धर्म में पुष्ट-परिपक्व नहीं है, ऐसे शैक्ष (नवदीक्षित शिष्य) को अपने गच्छ (संघ) से निकला या निकाला हआ तथा वश में आने योग्य जानकर अनेक पाषण्डी परतीथिक पंख न आये हुए पक्षी के बच्चे की तरह उसका हरण कर लेते (धर्म भ्रष्ट कर देते) हैं। 583. गुरुकुल में निवास नहीं किया हुआ साधकपुरुष अपने कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, यह जानकर गुरु के सान्निध्य में निवास और समाधि की इच्छा करे। मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्यभूत-निष्कलंक चारित्रसम्पन्न) पुरुष के आचरण (वृत्त) को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे। अतः आशुप्रज्ञ साधक गच्छ से या गुरुकुलवास से बाहर न निकले। 584. गुरुकुलवास से साधक स्थान-(कायोत्सर्ग), शयन (शय्या-संस्तारक, उपाश्रय-शयन आदि) तथा आसन, (आसन आदि पर उपवेशन-विवेक, गमन-आगमन, तपश्चर्या आदि) एवं संयम में पराक्रम के (अभ्यास) द्वारा सुसाधु के समान आचरण करता है। तथा समितियों और गुप्तियों के विषय में (अभ्यस्त होने से) अत्यन्त प्रज्ञावान् (अनुभवी) हो जाता है, वह समिति-गुप्ति आदि का यथार्थस्वरूप दूसरों को भी बताता है ! विवेचन--प्रन्थत्यागी नव प्रवजित के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाभ - प्रस्तुत पांचसूत्रों में साधु के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाभ निम्नोक्त पहलुओं से बताया गया हैं--(१) नवदीक्षित साधु को ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा से निपुण होने के लिए गुरुकुल में रहना आवश्यक है, (2) गुरु या आचार्य के सान्निध्य में रह कर आज्ञा पालन विनय; सेवा-शुश्रुषा आदि का सम्यक् प्रशिक्षण ले / (3) आचार्य के आदेशनिर्देश या संयम के पालन में प्रमाद न करे। (3) पंख आए बिना ही उड़ने के लिए मचलने वाले पक्षी के बच्चे को मांस-लोलुप ढंकादि पक्षी धर दवाते हैं, वैसे ही गुरु के सान्निध्य में शिक्षा पाए बिना ही गच्छनिर्गत परिपक्व साधक को अकेला विचरण करते देख अन्यतीथिक लोग बहकाकर मार्गभ्रष्ट कर सकते हैं। (5) गुरुकूलवास न करने वाला स्वच्छन्दाचारी साधक कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, (6) अतः साधक अनेक गुण वद्धं क गुरुकुलवास में रहकर समाधि प्राप्त करे। (7) पवित्र पुरुष के आचरण को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे, (8) गुरुकुलवास से साधक कायोत्सर्ग, शयन, आसन, गमनागमन, तपश्चरण जप, संयम-नियम, त्याग आदि साध्वाचार में सुसाधु (परिपक्व साधु) के उपयुक्त बन जाता है। वह समिति गुप्ति आदि के अभ्यास में दीर्घदर्शी, अनुभवी और यथार्थ उपदेष्टा बन जाता है।' दो प्रकार की शिक्षा-गुरु या आचार्य के सानिध्य में रह कर दो प्रकार की शिक्षा प्राप्त की जाती है-(२) ग्रहण शिक्षा और (2) आसेवन शिक्षा ग्रहण शिक्षा में शास्त्रों और सिद्धान्तों के अध्य रहस्य का ग्रहण किया जाता है आसेवन शिक्षा में महाव्रत, समिति, गुप्ति, ध्यान, कायोत्सर्ग, जप, तप, त्याग, नियम आदि चारित्र का अभ्यास किया जाता है। वास्तव में इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं से साधु का सर्वांगीण विकास हो जाता है / 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 242-243 का सारांश 2 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 241 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 585 से 596 'सुबंभचेर इसेज्जा'-आचारांग सूत्र के अनुसार ब्रह्मचर्य में निवास करने के चार अर्थ फलित होते हैं-(१) ब्रह्म (आत्मा या परमात्मा) में विचरण करना, (2) मैथुनविरति- सर्वेन्द्रिय-संयम, (3) सदाचार और (4) गुरुकुल में वास / 'ठाणओ'-- में ठाण, (स्थान) शब्द भी पारिभाषिवा है / स्थान शब्द भी आचारांग के अनुसार यहाँ कायोत्सर्ग अर्थ में है। गुरुकुलवासी साधुद्वारा शिक्षा-ग्रहण-विधि 585 सहाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिवएज्जा। निदं च भिवखू न पमाय कुज्जा, कहकहं पी वितिगिच्छतिणे // 6 // 586 डहरेण वुढ्डेणऽणुसासिते ऊ, रातिणिएणावि समन्वएणं / सम्म तगं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जंतए वा वि अपारए से // 7 // 587 विउट्टितेणं समयाणुसिठे, डहरेण वुढ्डेण व चोइतेतु / अच्चुट्ठिताए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिठे 1 // 588 ग तेसु कुज्झे ग य पव्वहेज्जा, ण यावि किचि फरुसं वदेज्जा। तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा // 6 // 586 वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं / तेणावि मझं इणमेव सेयं, जं मे बुहा सम्मऽणुसासयंति / / 10 / / 560 अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव्व पूया सविसेसजुत्ता। - एतोवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्म // 11 // 561 या जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाइ अपस्समाणं / i, मग विजाणाति पगासियंसि // 12 // 562 एवं तु सेहे वि अपुठ्ठधम्मे, धम्म न जाणाति अबुज्झमाणे। से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासति चक्षुणेव // 13 / / 593 उड्ढे अहे य तिरिय दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। सया जते तेसु परिवएज्जा, मणप्पदोसं अविकंपमाणे // 14 // 3 देखिए आचा० द्वि० श्रु० अ० 2 उ०१ सू० 412 में 'ठाणे वा सेज्जं वा का विवेचन तथा प्र० श्र० के सूत्र 143 में 'वसित्ता बंभचेर' पद का विवेचन / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 सूत्रकृताग-चौदहवां अध्ययन-प्रन्थ 564 कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं / तं सोयकारी य पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहि // 15 // 565 अस्सि सुठिच्चा तिविहेण तायी, एतेसु या संति निरोहमाहु। ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भुज्जमेत ति पमायसंगं / / 16 / / 566 णिसम्म से भिक्खु समोहमळं, पडिभाणवं होति विसारते या। ___ आयाणमट्ठी वोदाण मोणं, उवेच्चा सुद्धण उवेति मोवखं / / 17 / / 585. ईर्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर उनमें मध्यस्थ-रागद्वेष रहित होकर संयम में प्रगति करे, तथा निद्रा-प्रमादएवं विकथा-कषायादि प्रमाद न करे / (गुरुकुल निवासी अप्रमत्त) साधु को कहीं किसी विषय में विचिकित्सा-शंका हो जाए तो वह (गुरु से समाधान प्राप्त करके) उससे पार (निश्शंक) हो जाए। 586. गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए साधु से किसी विषय में प्रमादश भूल हो जाए तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित (शिक्षित या निवारित) किये जाने पर अथवा भूल सुधारने के लिए प्रेरित किये जाने पर जो साधक उसे सम्यक्त या स्थिरतापूर्वक स्वीकार नहीं करता, वह संसार-समुद्र को पार नहीं कर पाता।" 584-588. साध्वाचार के पालन में कहीं भूल होने पर परतीथिक', अथवा गृहस्थ द्वारा आर्हत् आगम विहित आचार की शिक्षा दिये जाने पर या अवस्था में छोटे या वृद्ध के द्वारा प्रेरित किये जाने पर, यहाँ तक कि अत्यन्त तुच्छ कार्य करने वाली घटदासी (घड़ा भरकर लाने वाली नौकरानी) द्वारा अकार्य के लिए निवारित किये जाने पर अथवा किसी के द्वारा यह कहे जाने पर कि "यह कार्य तो गृहस्थाचार के योग्य भी नहीं है, साधु की तो बात ही क्या है ? इन (पूर्वोक्त विभिन्न रूप से) शिक्षा देने वालों पर साधु क्रोध न करे, (परमार्थ का विचार करके) न ही उन्हें दण्ड आदि से पीड़ित करे, और न ही उन्हें पोड़ाकारी कठोर शब्द कहे; अपितु 'मैं भविष्य में ऐसा (पूर्वऋषियों द्वारा आचरित) ही करूंगा' इस प्रकार (मध्यस्थवृत्ति से) प्रतिज्ञा करे, (अथवा अपने अनुचित आचरण के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' के उच्चारणपूर्वक आत्म-निन्दा के द्वारा उससे निवृत्त हो) साधु यही समझे कि इसमें (प्रसत्रतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करके उससे निवृत्त होने में) मेरा ही कल्याण है / ऐसा समझकर वह (फिर कभी वैसा) प्रमाद न करे / 586. जैसे यथार्थ और अयथार्थ मार्ग को भली-भाँति जानने वाले व्यक्ति घोर वन में मार्ग भूले हुए दिशामूढ़ व्यक्ति को कुमार्ग से हटा कर जनता के लिए हितकर मार्ग बता देते. (शिक्षा देते) हैं, इसी तरह मेरे लिए भी यही कल्याणकारक उपदेश है, जो ये वृद्ध, बड़े या तत्त्वज्ञ पुरुष (बुधजन) मुझे सम्यक् अच्छी शिक्षा देते हैं / ____560. उस मूढ़ (प्रमाद वश मार्ग भ्रष्ट) पुरुष को उस अमूढ़ (मार्ग दर्शन करने या जाग्रत करने वाले पुरुष) का उसी तरह विशेष रूप से (उसका परम उपकार मानकर) आदर-सत्कार (पूजा) करना Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 585 से 566 चाहिए, जिस तरह मार्गभ्रष्ट पुरुष सही मार्ग पर चढ़ाने और बताने वाले व्यक्ति की विशेष सेवा-पूजा आदर सत्कार करता है। इस विषय में वीर प्रभु ने यही उपमा (तुलना) बताई है। अतः पदार्थ (परमार्थ) को समझकर प्रेरक के उपकार (उपदेश) को हृदय में सम्यकप से स्थापित करे। 561-562. जैसे अटवी आदि प्रदेशों से भलीभांति परिचित मार्गदर्शक (ता) भी अंधेरी रात्रि में कुछ भी न देख पाने के कारण मार्ग को भली-भाँति नहीं जान पाता; परन्तु वही पुरुष (मार्गदर्शक) सूर्य के उदय होने से चारों ओर प्रकाश फैलने पर मार्ग को भलीभांति जान लेता है। इसी तरह धर्म में अनिपुण-अपरिपक्व शिष्य भी सूत्र और अर्थ को नहीं समझता हुआ धर्म (श्रमणधर्म तरव) को नहीं जान पाता; किन्तु वही अबोध शिष्य एक दिन जिनवचनों के अध्ययनअनुशीलन से विद्वान् हो जाता है। फिर वह धर्म को इस प्रकार स्पष्ट जान लेता है जिस प्रकार सूर्योदय होने पर आँख के द्वारा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों को स्पष्ट जान-देख लेता है। 563. गुरकुलवासी एवं जिनवचनों का सम्यक् ज्ञाता साधु ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं, उनकी हिंसा जिस प्रकार से न हो, उस प्रकार की यतना (यत्न) करे तथा संयम में पुरषार्थ करे एवं उन प्राणियों पर लेशमात्र भी द्वष न करता हुआ संयम में निश्चल रहे। 564. गुरुकुलवासी साधु (प्रश्न करने योग्य) अवसर देख कर सम्यग्ज्ञान सम्पन्न आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे। तथा मोक्षगमन योग्य (द्रव्य) सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के आगम (ज्ञान-धन) को बताने वाले आचार्य की पूजा-भक्ति करे। आचार्य का आज्ञाकारी शिष्य उनके द्वारा उपदिष्ट केवलिप्ररूपति सम्यग्ज्ञानादिरूप समाधि को भलीभाँति जानकर उसे हृदय में स्थापित करे। 565. इसमें (गुरुकुल वास काल में) गुरु से जो उपदेश सुना और हृदय में भलीभाँति अवधारित किया, उस समाधिभूत मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थित होकर मन-वचन-काया से कृत, कारित और अनुमोदित रूप से स्व-पर-त्राता (अपनी आत्मा का और अन्य प्राणियों का रक्षक) बना रहे इन समिति-गुप्तिआदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने पर सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मनिरोध (समस्त कर्मक्षय) बताया है। वे त्रिलोकदर्शी महापुरुष कहते हैं कि साधु को फिर कभी प्रमाद का संग नहीं करना चाहिए। 566. गुरुकुलवासी वह साधु उत्तम साधु के आचार को सुनकर अथवा स्वयं अभीष्ट अर्थ-मोक्ष रूप अर्थ को जानकर गुरुकुलवास से प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद (स्वसिद्धान्त का सम्यग्ज्ञाता होने से श्रोताओं को यथार्थ-वस्तु-तत्त्व के प्रतिपादन में निपुण) हो जाता है। फिर सम्यग्ज्ञान आदि से अथवा मोक्ष से प्रयोजन रखने वाला (आदानार्थी) वह साधु तप (व्यवदान) और मौन (संयम) को (ग्रहण रूप एवं आसेवन रूप शिक्षा द्वारा) उपलब्ध करके शुद्ध (निरुपाधिक उद्गमादि दोष रहित) आहार से निर्वाह करता हुआ समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। विवेचन- गुरुकुलबासी साधु द्वारा शिक्षा ग्रहण विधि-प्रस्तुत 12 सूत्र गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने विभिन्न पहलुओं से गुरुकुलवासी साधु द्वारा ली जाने वाली शिक्षा की विधि बताई है। शिक्षा ग्रहण विधि Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 सूत्रकृतांग-चौदहवां अध्ययन-प्रम्ब के निम्नलिखित प्रेरणा सूत्र इन गाथाओं से फलित होते हैं-(१) गुरुकुल वासी साधु विषय, निद्रा, विकथा, कषाय आदि प्रमादों को पास में न फटकने दे, (2) गृहीत महाव्रतों के पालन आदि किसी विषय में शंका या भ्रान्ति हो तो गुरुकृपा से साधक उससे पार हो जाए, (3) प्रमादवश साधचर्या में कहीं भूल हो जाए और उसे कोई दीक्षा ज्येष्ठ, वयोवद्ध या लघु साधक अथवा समवयस्क साधक सुधारने के लिए प्रेरित करें या शिक्षा दें तो गुरुकुलवासी साधु उसे सम्यक् प्रकार से स्थिरता के साथ स्वीकार कर ले, किन्तु प्रतिवाद न करे, अन्यथा वह संसार के प्रवाह में बह जाएगा, उसे पार नहीं कर सकेगा, (4) साध्वाचारपालन में कहीं त्रुटि हो जाने पर गृहस्थ या मिथ्यादृष्टि जैनागमविहित आचार की दृष्टि से शिक्षा दे, अथवा कोई लधुवयस्क या वृद्ध कुत्सिताचार में प्रवृत्त होने पर सावधान करे, यही नहीं, तुच्छ कार्य करने वाली घटदासी भी किसी अकार्य से रोके, अथवा कोई यह कहे कि यह कार्य गृहस्थ योग्य भी नहीं है, ऐसी स्थिति में गुरुकुलवासी साधु उन पर क्रोध, प्रहार, आक्रोश या पीड़ाजनक शब्द-प्रयोग न करे, अपितु प्रसन्नतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करे, (5) उन बुधजनों या हितैषियों की शिक्षा को अपने लिए श्रेयस्कर समझे, (6) उनको उपकारी मानकर उनका आदर-सत्कार करे, (7) गुरुकुलवास में विधिवत् शिक्षा ग्रहण न करने से धर्म में अनिपुण शिष्य सूत्र, अर्थ एवं श्रमणधर्म के तत्त्व को नहीं जानता, जबकि गुरु शिक्षाप्राप्त वही साधक जिनवचनों के अध्ययन से विद्वान होकर सभी पदार्थों का यथार्थ स्वरूप स्पष्टतः जान लेता है, (8) गुरुकुलवासी साधक किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, इस प्रकार से यतना करे, प्राणियों पर जरा भी द्वेष न करता हआ संयम (पंच महाव्रतादि रूप) में निश्चल रहे, (8) योग्य अवसर देखकर वह आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में पूछे. (ह) आगम ज्ञानोपदेष्टा आचार्य की सेवा-भक्ति करे, उनके द्वारा उपदिष्ट सम्यग्दर्शनादि रूप समाधि को हृदयंगम करे, (10) गुरुकुलवास काल में गुरु से जो कुछ सुना, सीखा, हृदयंगम किया, उस समाधिभूत मोक्ष-मार्ग में स्थित होकर त्रिकरण त्रियोग से स्व-पर-त्राता बने / (11) समिति-गुप्ति आदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने से गुरुकुलवासी साधक को शान्तिलाभ और समस्त कर्मक्षय का लाभ होता है, यदि वह कदापि प्रमादासक्त न हो, (12) गुरुकुलवासी साधक उत्तम साध्वाचार या मोक्षरूप अर्थ को जान-सुनकर प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद बन जाता है, (13) फिर वह मोक्षार्थी साधक तप एवं संयम को उपलब्ध करके शुद्ध आहार से निर्वाह करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है। निष्कर्ष-गुरुकुलवास करने वाले साधक का सर्वांगीण जीवन-निर्माण एवं विकास तभी हो सकता हैं, जब वह गुरुकुलवास में अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति एवं चर्या को गुरु के अनुशासन में करे, अप्रमत्त होकर अपनी भूल सुधारता हुआ वाह्य-आभ्यन्तर तप, संयम तथा क्षमा, मार्दव आदि श्रमणधर्म का अभ्यास करे। गुरुकुलवासकालीन शिक्षा में अनुशासन, प्रशिक्षण, उपदेश, मार्गदर्शन, अध्ययन, अनुशीलन आदि प्रक्रियाओं का समावेश है। पाठान्तर और व्याख्या--'तेणावि' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'तेणेव मे'; व्याख्या की गयी है-- उस असत कार्य करने वाले द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी कुपित नहीं होना चाहिए / 'दवियस्स' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'दिविअस्स'; व्याख्या की गई है-दिविध= (द्वि-वीत) का अर्थ है-दोनों से राग 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 244 से 247 तक का सारांश Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 567 से 606 435 और द्वष से रहित / 'समोहमट्ठ' के बदले वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है-'समीहिय?"; अर्थात-सम+ ईहित+ अभीष्ट= मोक्ष रूप अर्थ को / 'सुद्धण उबेतिमोक्ख' के बदले पाठान्तर है-'सद्ध न उवेतिमार'तप, संयम आदि से आत्म से आत्मा शुद्ध होने पर या शद्ध मार्ग का आश्रय लेने पर साधक मार अर्थात संसार को अथवा मृत्यु को नहीं प्राप्त करता। गुरुकुलवासी साधुद्वारा भाषा-प्रयोग के विधि-निषेध सूत्र 567 संखाय धम्भं च वियागरेंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवति / ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति / / 18 / / 568 नो छादते नो वि य लसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च / ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा // 1 // 566 भूताभिसंकाए दुगुंछमाणो, ण णिवहे मंतपदेण गोत्तं / ण किंचि मिच्छे मणुओ पयासु, असाहुधम्माणि ण संवदेज्जा // 20 // 600 हास पि णो संधये पावधम्मं, ओए तहिनं फरसं वियाणे / नो तुच्छए नो व विकंथतिज्जा, अणाइले या अकसाइ भिक्खू // 21 // 601 संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवादं च वियागरेज्जा / भासादुगं धम्म समुट्ठितेहिं, वियागरेज्जा समया सुपण्णे // 22 // 602 अणुगच्छमाणे वितहं भिजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसेणं / ण कत्थतो भास विहिसएज्जा, निरुद्धगं वा वि न दोहएज्जा // 23 // 603 समालवेज्जा पडिपुण्णमासी, निसामिया समिया अट्ठदंसी। आणाए सुद्ध वयणं भिउंजे, भिसंधए पावविवेग भिक्खू // 24 // 604 अहाबुइयाइं सुसिक्खएज्जा, जएज्ज या णातिवेलं वदेज्जा / से दिट्ठिम दिट्ठि ण लूसएज्जा, से जाणति भासिउं तं समाहिं / / 25 / / 6.5 अलसए णो पच्छण्णभासो, णो सुत्तमत्थं च करेज्ज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीति वायं, सुयं च सम्नं पडिवातएज्जा / / 26 / / 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 245 से 247 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मु० पा० टिप्पण) पृ० 107-108 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग--चौदहवां अध्ययन-ग्रन्थ 606 से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विदति तत्थ तत्थ / आदेज्जवक्के कुसले वियत्ते, से अरिहति भासिउ तं समाहि // 27 // त्ति बेमि। // गंथो : चउद्दसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 597. (गुरुकुलवासी होने से धर्म में सुस्थित, बहुश्रुत, प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद ) साधु सद्बुद्धि से (स्व-पर-शक्ति को, पर्षदा को या प्रतिपाद्य विषय को सम्यकतया जान कर) दूसरे को श्रुतचारित्र-रूप धर्म का उपदेश देते हैं (धर्म की व्याख्या करते हैं) / वे बुद्ध-त्रिकालवेत्ता होकर जन्म-जन्मा संचित कर्मों का अन्त करने वाले होते है, वे स्वयं और दूसरों को कर्मपाश से अथवा ममत्वरूपी बेड़ी से मुक्त (छुड़ा) करके ससार-पारगामी हो जाते हैं / वे सम्यक्तया सोच-विचार कर (प्रश्नकर्ता कौन है ? यह किस पदार्थ को समझ सकता है, मैं किस विषय का प्रतिपादन करने में समर्थ हूँ ?, इन बातों की भली-भांति परीक्षा करके) प्रश्न का संशोधित (पूर्वापर अविरुद्ध) उत्तर देते हैं / 568. साधु प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के यथार्थ अर्थ को न छिपाए (अथवा वह अपने गुरु या आचार्य का नाम या अपना गुणोत्कर्ष बताने के अभिप्राय से दूसरों के गुण न छिपाए), अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्रपाठ की तोड़-मरोड़कर व्याख्या न करे. (अथवा दसरों के गणों को दषित न करे). तथा वह मैं ही सर्वशास्त्रों का ज्ञाता और महान् व्याख्याता हूँ, इस प्रकार मान-गर्व न करे, न ही स्वयं को बहुश्रुत एव महातपस्वी रूप से प्रकाशित करे अथवा अपने तप, ज्ञान, गुण आदि को प्रसिद्ध न करे / प्राज्ञ (श्रुतधर) साधक श्रोता (मन्द बुद्धि व्यक्ति) का परिहास भी न करे, और न ही (तुम पुत्रवान्, धनवान् या दीर्घायु हो इत्यादि इस प्रकार का) आशीर्वादसूचक वाक्य कहे। 566. प्राणियों के विनाश की आशंका से तथा पाप से घृणा करता हुआ साधु किसी को आशीर्वाद न दे, तथा मंत्र आदि के पदों का प्रयोग करके गोत्र (वचनगुप्ति या वाक् संयम अथवा मौन) को निःसार न करे, (अथवा साधु राजा आदि के साथ गुप्त मंत्रणा करके या राजादि को कोई मात्र देकर गोत्र-प्राणियों के जीवन का नाश न कराए) साधु पुरुष धर्मकथा या शास्त्रव्याख्यान करता हुआ जनता (प्रजा) से द्रव्य या किसी पदार्थ के लाभ, सत्कार या भेट, पूजा आदि की अभिलाषा न करे, असाधुओं के धर्म (वस्तुदान, तर्पण आदि) का उपदेश न करे (अथवा असाधुओं के धर्म का उपदेश करने वाले को सम्यक न कहे, अथवा धर्मकथा करता हुआ साधु असाधु-धर्मो--अपनी प्रशंसा, कीर्ति, प्रसिद्धि आदि को इच्छा न करे)। 600. जिससे हँसी उत्पन्न हो, ऐसा कोई शब्द या मन-वचन-काया का व्यापार न करे, अथवा साधु किसी के दोषों को प्रकट करने वाली, पापबन्ध के स्वभाववाली बातें हँसी में न कहे / वीतरागता में ओतप्रोत (रागद्वष रहित) साधु दूसरों के चित्त को दुखित करने वाले कठोर सत्य को भो पापकर्मबन्धकारक जानकर न कहे। साधु किसी विशिष्ट लब्धि, सिद्धि या उपलब्धि अथवा पूजा-प्रतिष्ठा को पाकर मद न करे, न ही अपनी प्रशंसा करे अथवा दूसरे को भलीभाँति जाने परखे बिना उसकी अतिप्रशंसा न करे / साधु व्याख्यान या धर्मकथा के अवसर पर लाभादि निरपेक्ष (निर्लोभ) एवं सदा कषायरहित होकर रहे। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 597 से 606 601. सूत्र और अर्थ के सम्बन्ध में शंकारहित होने पर भी, 'मैं ही इसका अर्थ जानता हूँ, दूसरा नहीं;' इस प्रकार का गर्व न करे, अथवा अशंकित होने पर भी शास्त्र के गूढ़ शब्दों की व्याख्या करते समय शंका (अन्य अर्थ की सम्भावना) के साथ कहे, अथवा स्पष्ट (शंका रहित) अर्थ को भी इस प्रकार न कहे, जिससे श्रोता को शंका उत्पन्न हो तथा पदार्थों की व्याख्या विभज्यवाद से सापेक्ष दृष्टि से अनेकान्त रूप से करे / धर्माचरण करने में समुद्यत साधुओं के साथ विचरण करता हुआ साधु दो भाषाएँ (सत्या और असत्यामृषा) बोले . सुप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि सम्पन्न) साधु धनिक और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे / 602. पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर शास्त्र या धर्म की व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई व्यक्ति यथार्थ समझ लेता है, और कोई मन्दमति व्यक्ति उसे अयथार्थ रूप में (विपरीत) समझता है, (ऐसी स्थिति में) साधु उस विपरीत समझने वाले व्यक्ति को जैसे-जैसे समीचीन हेतु, युक्ति उदाहरण एवं तर्क आदि से वह समझ सके, वैसे-वैसे हेतु आदि से अकर्कश (कटुतारहित-कोमल) शब्दों में समझाने का प्रयत्न करे। किन्तु जो ठीक नहीं समझता है, उसे तू मूर्ख है, दुर्बुद्धि है, जड़मति है, इत्यादि तिरस्कारसूचक वचन कहकर उसके मन को दुःखित न करे, तथा प्रश्नकर्ता की भाषा को असम्बद्ध बता कर उसकी विडम्बना न करे, छोटी-सी (थोड़े शब्दों में कही जा सकने वाली) बात को व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके विस्तृत न करे। 603. जो बात संक्षेप में न समझाई जा सके उसे साधु विस्तृत (परिपूर्ण) शब्दों में कह कर समझाए / गुरु से सुनकर पदार्थ को भलीभाँति जानने वाला (अर्थदर्शी) साधु आज्ञा से शुद्ध वचनों का प्रयोग करे / साधु पाप का विवेक रखकर निर्दोष वचन बोले / 604. तीर्थंकर और गणधर आदि ने जिस रूप में आगमों का प्रतिपादन किया है, गुरु से उनकी अच्छी तरह शिक्षा ले, (अर्थात्-ग्रहण शिक्षा द्वारा सर्वज्ञोक्त आगम का अच्छी तरह ग्रहण करे और आसेवना शिक्षा द्वारा उद्युक्त विहारी होकर तदनुसार आचरण करे) (अथवा दूसरों को भी सर्वज्ञोक्त आगम अच्छी तरह सिखाए)। वह सदैव उसी में प्रयत्न करे। मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले / सम्यक्ष्टिसम्पन्न साधक सम्यक्दृष्टि को दूषित न करे (अथवा धर्मोपदेश देता हुआ साधु किसी सम्यकदृष्टि की दृष्टि को (शंका पैदा करके) बिगाड़े नहीं। वही साधक उस (तीर्थंकरोक्त सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-तपश्चरणरूप) भाव समाधि को कहना जानता है / 605. साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे, तथा वह सिद्धान्त को छिपा कर न बोले / स्व-परत्राता साधु सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे। सावु शिक्षा देने वाले (प्रशास्ता-गुरु) की भक्ति का ध्यान रखता हुआ सोच-विचार कर कोई बात कहे, तथा साधु ने गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के समक्ष सिद्धान्त या शास्त्रवचन का प्रतिपादन करे / 606. जिस साध का सत्रोच्चारण, सुत्रानुसार प्ररूपण एवं सूत्राध्ययन शुद्ध है, जो शास्त्रोक्त तप (उपधान तप) का अनुष्ठान करता है, जो श्रुत-चारित्ररूप धर्म को सम्यकरूप से जानता या प्राप्त करता है अथवा जो उत्सर्ग के स्थान पर उत्सर्ग-मार्ग की और अपवाद-मार्ग के स्थान पर अपवाद की Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 सूत्रकृतांग-चौदहवाँ अध्ययन-प्रस्थ प्ररूपणा करता है, या हेतुग्राह्य अर्थ की हेतु से और आगमग्राह्य अर्थ को आगम से अथवा स्व-समय को स्व-समय रूप में एवं पर-समय को पर-समय रूप में प्ररूपणा करता है, वही पुरुष ग्राह्यवाक्य है (उसी की बात मानने योग्य है) तथा वही शास्त्र का अर्थ और तदनुसार आचरण करने में कुशल होता है / वह अविचारपूर्वक कार्य नहीं करता / वही ग्रन्थमुक्त साधक सर्वज्ञोक्त समाधि की व्याख्या कर सकता है। ~ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-गुरुकुलवासी साधु द्वारा भाषा-प्रयोग के विधि-निबंध सूत्र-प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार स सूत्रगाथाओं में गुरुकुलवासी साध द्वारा किये जाने वाले कतिपय विधि-निषेध-सूत्र प्रस्तुत किये हैं। वे इस प्रकार फलित होते हैं-(१) साधु स्वशक्ति, परिषद या व्यक्ति तथा प्रतिपाद्य विषय को सम्यकतया जानकर धर्म का उपदेश दे, (2) वह ऐसा धर्मोपदेश दे जिससे स्व-पर को कर्मपाश से मुक्त कर सके, (3) प्रश्न से सम्बन्धित बातों का भलीभाँति पर्यालोचन करके उसका पूर्वापर-अविरुद्ध, संगत उत्तर दे, (4) प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के यथार्थ अर्थ को या गुरु के नाम को अथवा गुणी के गुण को न छिपाए, (5) शास्त्र की सिद्धान्तविरुद्ध व्याख्या न , (6) न तो वह सर्वशास्त्रज्ञता का गर्व करे, न स्वयं को बहथत या महातपस्वी के रूप में प्रसिद्ध करे, (7) वह मंदबुद्धि श्रोता का परिहास न करे, (8) किसी प्रकार का आशीर्वाद न दे, क्योंकि उसके पीछे प्राणियों के विनाश या पापवद्धि की सम्भावना है, (8) विविध हिंसाजनक मंत्र प्रयोग करके अपने वाक् संयम को दुषित न करे, (10) धर्मकथा करके जनता से किसी पदार्थ के लाभ, सत्कार या पूजाप्रतिष्ठा आदि की आकांक्षा न करे (11) असाधु-धर्मों का उपदेश न करे, न ही वैसा उपदेश देने वाले की प्रशंसा करे, (12) हास्यजनक कोई भी चेष्टा न करे, क्योंकि हँसी प्रायः दूसरों को दुःखित करती है, जो पाप बन्ध का कारण है, (13) तथ्यभूत बात होते हुए भी वह किसी के चित्त को दुःखित करने वाली हो तो न कहे। किसी विशिष्ट उपलब्धि को पाकर साध अपनी प्रशंसा न करे के समय किसी लाभ आदि से निरपेक्ष (निःस्पृह) एवं कषायरहित होकर रहे, (15) सूत्रार्थ के सम्बन्ध में निःशंकित होने पर भी गर्व प्रकट न करे, अथवा शास्त्र के गूढ़ शब्दों की व्याख्या करते समय अशंकित होते हुए भी अन्य अर्थों की सम्भावना व्यक्त करे, (16) पदार्थों की व्याख्या विभज्यवाद (नय, निक्षेप, स्याद्वाद, प्रमाण आदि के) द्वारा पृथक्-पृथक् विश्लेषण-पूर्वक करे, (17) साधु दो ही भाषाओं का प्रयोग करे सत्या और असत्यामृषा, (18) राग-द्वषरहित होकर सधन-निर्धन को समभाव से धर्म-कथन करे, (16) विधिपूर्वक शास्त्र या धर्म को व्याख्या करते हुए भी कोई व्यक्ति उसे विपरीत समझता है तो साधु उसे मूढ़, जड़वुद्धि या मूर्ख कहकर झिड़के नहीं, न ही अपमानित, विडम्बित या दःखित करे, (20) अल्प शब्दों में कही जा सकने वाली बात को व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके विस्तृत न करे, (21) किन्तु संक्षेप में कहने से समझ में आ सके ऐसी बात को विस्तृत रूप से कहे, (22) गुरु से सुनकर पदार्थों को भलीभांति जानकर साधु आज्ञा-शुद्ध वचनों का प्रयोग करे (23) पाप का विवेक रखकर निर्दोष वचन बोले. (24) तीर्थंकरोक्त आगमों की व्याख्या पहले गुरु से भली-भांति जाने और अभ्यस्त करके दूसरों को उसी विधि से समझाए, (25) अधिकांश समय शास्त्र-स्वाध्याय में रत रहे, (26) मर्यादातिक्रमण करके अधिक न बोले, (27) साधु धर्मोपदेश देता हुआ किसी की सम्यग्दृष्टि को अपसिद्धान्त प्ररूपणा करके दूषित या विचलित न करे, (28) आगम के अर्थ को दूषित न करे, (29) Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 597 से 606 436 सिद्धान्त को छिपाकर न बोले, (30) आत्मत्राता साधु सूत्र एवं अर्थ (या प्रश्न) को अन्यथा (उलट-पुलट) न करे, (31) शिक्षादाता प्रशास्ता की सेवा भक्ति का ध्यान रखे, (32) सम्यक्तया सोच-विचार कर कोई बात कहे, (33) गुरु से जैसा सुना है, दूसरे के समक्ष बैसे ही सिद्धान्त या शास्त्र-वचन की प्ररूपणा करे (34) सुत्र का उच्चारण, अध्ययन, एवं प्ररूपणा शुद्ध करे, (35) शास्त्र-विहित तपश्चर्या की प्रेरणा करे, (36) उत्सर्ग-अपवाद, हेतुग्राह्य-आज्ञाग्राह्य या स्वसमय-परसमय आदि धर्म का या शास्त्र वाक्य को यथायोग्य स्थापित-प्रतिपादित करता है, वही ग्राह्यवाक्य, शास्त्र का अर्थ करने में कुशल एवं सुविचारपूर्वक भाषण करने वाला है, वही सर्वज्ञोक्त समाधि की व्याख्या कर सकता है / गुरुकुलवासी साधक उभयशिक्षा प्राप्त करके भाषा के प्रयोग में अत्यन्त निपुण हो जाता है / पाठान्तर और व्याख्या-- 'सकेज्ज याऽसक्तिभाव भिक्खू' के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है- "संकेज्ज या संक्तिभाव भिक्खू"; व्याख्या यों है---यदि किसी विषय में वह शंकित है, किसी शास्त्रवाक्य के अर्थ में शंका है तो वह शंकात्मक रूप से इस प्रकार प्रतिपादन करे कि मेरी समझ में इसका यह अर्थ है। इससे आगे जिन भगवान् जानें, 'तत्वं केवलिगम्यम्' / 'अणाइलो' के बदले पाठान्तर है-'अणाउलो'; व्याख्या यों है-साधु व्याख्यान या धर्मकथा के समय आकुल-व्याकुल न हो / ' विमज्जवादं च वियागरेज्जा-व्याख्याएँ-(२) विभाज्यवाद का अर्थ है-भजनीयवाद। किसी विषय में शंका होने पर भजनीयवाद द्वारा यों कहना चाहिए-मैं तो ऐसे मानता है, परन्तु इस विषय में अन्यत्र भी पूछ लेना। (2) विभज्यवाद का अर्थ है-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद / (3) विभज्यवाद का अर्थ है--पृथक अर्थ निर्णयवाद। (4) सम्यक प्रकार से अर्थों का नय, निक्षेप आदि से विभाग-विश्लेषण करके पृथक करके कहे, जैसे-द्रव्याथिकनय से नित्यवाद को, तथा पर्यायाथिकनय से अनित्यवाद को कहे। सुत्तपिटक अंगुत्तरनिकाय में भी विभज्जवाद' का उल्लेख आता है।' / / ग्रन्थ : चौदहवां अध्ययन समाप्त / / 0000 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 247 से 251 का सारांश / 8 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 106 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 246 6 (क) सूत्रकृतांग मूलपाठ टिप्पण, तृतीय परिशिष्ट पृ० 368 / (ख) तुलना-न खो, भंते, भगवा सव्वं तपं गरहितं....."भगवा गरहंतो पसंसितवं, पसंसन्तो 'विभज्ज वादो' भगवा / न सो भगवा एत्थ एकंसवादोदित / -सुत्तपिटक अंगुत्तरनिकाय पृ० 253 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमतीत (यमकीय)-पंचदश अध्ययन प्राथमिक - सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम 'जमतीत' (यनकोय) है। - इस अध्ययन के दो नाम और मिलते हैं-आदान अथवा आदानीय, एवं शृखला अथवा संकलिका। 0 'जमतीत' नाम इसलिए पड़ा है कि इस अध्ययन का आदि शब्द 'जमतीतं' (जं+अतीतं) है। अथवा इस अध्ययन में 'यमक' अलंकार का प्रयोग हुआ है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' है, जिसका आर्ष प्राकृत रूप 'जमईयं' या 'जमतीत' होता है / O वृत्तिकार के अनुसार इस अध्ययन को 'संकलिका' अथवा 'शृखला' कहना चाहिए। इस अध्ययन में अन्तिम और आदि पद का संकलन हआ है, इसलिए इसका नाम 'संकलिका' है। अथ पद्य का अन्तिम शब्द एवं द्वितीय पद्य का आदि शब्द शृखला की कड़ी की भाँति जुड़े हुए हैं। अर्थात् उन दोनों की कड़ियाँ एक समान हैं।' 0 आदान या आदानीय नाम रखने के पीछे नियुक्तिकार का मन्तव्य यह है कि इस अध्ययन में जो पद प्रथम गाथा के अन्त में है, वही पद अगली गाथा के प्रारम्भ में आदान (ग्रहण) किया गया है / यही लक्षण आदानीय का है। 0 कार्यार्थी पुरुष जिस वस्तु को ग्रहण करता है, उसे आदान कहते हैं। धन का या धन के द्वारा द्विपद-चतुष्पद आदि का ग्रहण करना द्रव्य-आदान है। भाव-आदान दो प्रकार का है-प्रशस्त और अप्रशस्त / क्रोधादि का उदय या मिथ्यात्व, अविरति आदि कर्मबन्ध के आदान रूप होने से अप्रशस्त भावादान है, तथा मोक्षार्थी द्वारा उत्तरोत्तर गुणश्रेणी के योग्य विशुद्ध अध्यवसाय को ग्रहण करना या समस्त कर्म क्षय करने हेतु विशिष्ट सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ग्रहण करना प्रशस्त भाव-आदान है। 1 सूत्रकृतांग शीलांक बत्ति पत्रांक 252 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक 10 इस अध्ययन में इसी प्रशस्त भाव-आदान के सन्दर्भ में विवेक को दुर्लभता, संयम के सुपरिणाम, भगवान् महावीर या वीतराग पुरुष का स्वभाव, संयमी पुरुष की जीवन पद्धति, विशाल चरित्र सम्पन्नता आदि का निरूपण है। इस अध्ययन में कुल पच्चीस गाथाएँ हैं, जो यमकालंकार युक्त एवं शृंखलावत् हैं। / प्रस्तुत अध्ययन सूत्रगाथा 607 से प्रारम्भ होकर 631 सूत्रगाथा पर पूर्ण होता है / 2 (क) सूत्रकृतांगनियुक्ति मा० 132 से 136 तक (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 252-253 (ग) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० 1, पृ० 155 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमतीतं : पण्णरसमं अज्झयणं यमकोय (जमतीत)-पन्द्रहवां अध्ययन अनुत्तरज्ञानी और तरकथित भावनायोगसाधना 607 जमतीतं पडुप्पण्णं, आगमिस्सं च णायगो। सवं मण्णति तं तातो, सणावरणंतए // 1 // 608 अंतए वितिगिछाए, से जाणति अणेलिसं / अणेलिसस्स अवखाया, ण से होति तहिं तहिं // 2 // 606 तहि तहि सुयक्लायं, से य सच्चे सयाहिए। ___सदा सच्चेण संपण्णे, मेत्ति भूतेहिं कप्पते // 3 // 610 भूतेहि न विरुज्झज्जा, एस धम्मे खुसीमओ। वुसीमं जगं परिणाय, अस्सि जीवितभावणा // 4 // 611 भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तोरसंपत्ता, सव्वदुक्खा तिउति // 5 // 607. जो पदार्थ (अतीत में) हो चुके हैं, जो पदार्थ वर्तमान में विद्यमान हैं और जो पदार्थ भविष्य में होने वाले हैं, उन सबको दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा अन्त करने वाले जीवों के त्रातारक्षक, धर्मनायक तीर्थंकर जानते-देखते हैं। 608. जिसने विचिकित्सा (संशय) का सर्वथा अन्त (नाश) कर दिया है, वह (धातिचतुष्टय का क्षय करने के कारण) अतुल (अप्रतिम) ज्ञानवान् है / जो पुरुष सबसे बढ़कर वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला है, वह उन-उन (बौद्धादि दर्शनों) में नहीं होता।। 606. (श्री तीर्थकरदेव ने) उन-उन (आगमादि स्थानों) में जो (जीवादि पदार्थों का) अच्छी तरह से कथन किया है, वही सत्य है और वही सुभाषित (स्वाख्यात) है। अतः सदा सत्य से सम्पत्र होकर प्राणियों के साथ मैत्री भावना रखनी चाहिए। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 607 से 611 610. प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करे, यही तीर्थंकर का या सुसंयमी का धर्म है। सुसंयमी साधु (त्रस-स्थावर रूप) जगत् का स्वरूप सम्यक्प से जानकर इस वीतराग-प्रतिपादित धर्म में जीवित भावना (जीव-समाधानकारिणी पच्चीस या बारह प्रकार की भावना) करे। 611. भावनाओं के योग (सम्यक्प्रणिधान रूप योग) से जिसका अन्तरात्मा शुद्ध हो गया है, उसकी स्थिति जल में नौका के समान (संसार समुद्र को पार करने में समर्थ) कही गई है। किनारे पर पहुँची हुई नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावनायोगसाधक भी संसार समुद्र के तट पर पहुँचकर समस्त दुःखो से मुक्त हो जाता है। विवेचन-अनुत्तरज्ञानी और तत्कषित भावनायोग-साधना-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में शास्त्रकार ने मुख्यतया दो तथ्यों को अभिव्यक्त किया है-(१) अनुपम ज्ञानवान् तीर्थंकर का माहात्म्य और (2) उनके द्वारा कथित भावनायोग की साधना। अनुपम ज्ञानी तीर्थकर के और अन्यदर्शनी के ज्ञान में अन्तर-तीर्थकर ज्ञानवरणीयादि घातिकर्म चतुष्टय का क्षय करने के कारण त्रिकालज्ञ हैं, द्रव्य-पर्याय सहित सर्व पदार्थ के ज्ञाता हैं, उन्होंने संशय-विपर्ययअनध्यवसायरूप मिथ्या ज्ञान का अन्त कर दिया है, इसलिए उनके सदृश पूर्णज्ञान किसी तथागत बुद्ध आदि अन्य दार्शनिक का नहीं है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों के घातिकर्मचतुष्टय का सर्वथा क्षय न होने से वे त्रिकालज्ञ नहीं होते, और न ही द्रव्य-पर्याय सहित सर्व पदार्थज्ञ होते हैं। यदि वे (अन्यतीथिक) त्रिकालज्ञ होते तो वे कर्मबन्ध एवं कर्म से सर्वथा मोक्ष के उपायों को जानते, हिंसादि कर्मबन्ध कारणों से दूर रहते, उनके द्वारा मान्य या रचित आगमों में एक जगह प्राणिहिंसा का निषेध होने पर भी जगह-जगह आरम्भादि जनित हिंसा का विधान किया गया है। ऐसा पूर्वापर विरोध न होता। इसके अतिरिक्त कई दार्शनिक द्रव्य को ही मानते हैं, कई (बौद्ध आदि) पर्याय को ही मानते हैं, तब वे 'तीर्थकर सदृश सर्वपदार्थज्ञाता' कैसे कहे जा सकते हैं ? कई दार्शनिक कहते हैं-'कीड़ों की संख्या का ज्ञान कर लेने से क्या लाभ ? अभीष्ट वस्तु का ज्ञान ही उपयोगी है।' उन लोगों का ज्ञान भी पूर्णतया अनावृत नहीं है, तथा जैसे उन्हें कीट-संख्या का परिज्ञान नहीं है, वैसे दूसरे पदार्थों का ज्ञान न होना भी सम्भव है। अतः उनका ज्ञान तीर्थंकर की तरह अबाधित नहीं है। ज्ञानबाधित और असम्भव होने से सर्वज्ञता एवं सत्यवादिता दूषित होती है / ' सर्वज्ञ वीतराग ही सत्य के प्रतिपादक-अन्य दर्शनी पूर्वोक्त कारणों से सर्वज्ञ न होने से वे सत्य (यथार्थ) वक्ता नहीं हो सकते, क्योंकि उनके कथन में अल्पज्ञता के कारण राग, द्वेष, पक्षपात, मोह आदि अवश्यम्भावी हैं, फलतः उनमें पूर्ण सत्यवादिता एवं प्राणिहितैषिता नहीं होती, जबकि सर्वज्ञ तीर्थकर राग-द्वेषमोहादि विकाररहित होने से वे सत्यवादी हैं, जीवादि पदार्थों का यथार्थ (पूर्ण सत्य) प्रतिपादन करते हैं, 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 254 (ख) सर्व पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु / कीटसंख्या परिज्ञान, तस्य न: क्वोपयुज्यते / / Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-पन्द्रहर्वा अध्ययन-जमतीत क्योंकि मिथ्या भाषण के कारण हैं-रागादि; वे तीर्थंकर देव में बिलकुल नहीं हैं। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने आगमों में यत्र-तत्र जो भी प्रतिपादन किया है, वह सब सत्य (प्राणियों के लिए हितकर) है, सुभाषित है। सर्वोक्त उपदेश भी हितषिता से परिपूर्ण-सर्वज्ञ तीर्थंकर सर्वहितैषी होते हैं, उनका वचन भी सर्वहितैषिता से पूर्ण होता है / उनका कोई भी कथन प्राणिहित के विरुद्ध नहीं होता। इसके प्रमाण के रूप में उनके द्वारा कथित सर्वभूत मैत्री भावना तथा अन्य (बारह या पच्चीस) जीवित भावना और उनको संसार-सागरतारिणी महिमा तथा उनसे मोक्ष-प्राप्ति आदि हैं / मैत्री आदि भावनाओं की साधना के लिए प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करना, समग्र प्राणिजगत् का स्वरूप (सुखाभिलाषिता, जो वितप्रियता आदि) जानकर मोक्षकारिणी या जीवनसमाधिकारिणी भावना आदि के सम्बन्ध में दिया गया उपदेश प्रस्तुत है। विमुक्त, मोक्षाभिमुख और संसारान्तकर साधक कौन? 612 तिउति तु मेधावी, जाणं लोगसि पावगं / तिउति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुब्वमओ // 6 // 613 अकुव्वतो गवं नत्यि, कम्मं नाम विजाणइ। विन्नाय से महावीरे, जेण जाति ण मिज्जती // 7 // 614 न मिज्जति महावीरे, जस्स नत्थि पुरेकडं / वाऊ व जालमच्चेति, पिया लोगंसि इथिओ // 8 // 615 इथिओ जे ण सेवंति, आदिमोक्खा हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का, नावकखंति जीवितं // 6 616 जीवितं पिट्ठतो किच्छा, अंतं पावंति कम्मणा। कम्मुणा संमुहीभूया, जे मग्गणसासति // 10 // 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 254 (ख) वीतरागा हि सर्वज्ञाः, मिथ्या न ब्रुवते वचः। यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थ दर्शनम् // 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 255-256 (ख) द्वादशानुप्रेक्षा (भावना) इस प्रकार हैं-अनित्याशरण-संसारैकत्वाशुचित्वासव-संवर-निर्जरा-लोक बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यात-स्वतत्त्वचिन्तनमनुप्रेक्षा:।--तत्त्वार्थसूत्र, अ०६, सूत्र 7 (ग) पांच महाव्रतों की 25 भावनाएँ हैं, जिनका विवरण पहले प्रस्तुत किया जा चुका है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 612 से 621 445 617 अणुसासणं पुढो पाणे, वसुमं पूयणासते ! अणासते जते दंते, दढे आरयमेहुणे // 11 // 618 णीवारे य न लीएज्जा, छिन्नसोते अणाइले / अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं // 12 // 616 अलिसस्स खेतण्णे, ण विरुज्झज्ज केणइ। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं // 13 // 620 से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए तु अंतए।। अंतेण खुरो वहती, चक्कं अंतेण लोट्टति // 14 // 621 अंताणि धोरा सेवंति, तेण अंतकरा इहं। इह माणुस्सए ठाणे, धम्माराहिलं जरा // 15 / / 612. लोक में पापकर्म (के स्वरूप) को जानने वाला मेधावी (साधुमर्यादा में स्थित या सद्असद् विवेकी साधु) (सभी बन्धनों से) छूट जाता है; क्योंकि नया कर्म (बन्धन) न करने वाले पुरुष के सभी पापकर्म (बन्धन) टूट जाते हैं। 613. जो पुरुष कर्म (मन-वचन-काया से व्यापारक्रिया) नहीं करता, उसके नवीन (ज्ञानावरणीयादि) कर्मबन्ध नहीं होता। वह (कर्म ममक्ष साधक) अष्टविध कर्मों को विशेषरूप से जान लेता है, फिर वह (कर्म विदारण करने में) महावीर पुरुष (भगवत्प्रतिपादित समग्र कर्मविज्ञान को) जानकर, ऐसा पुरुषार्थ करता है, जिससे न तो वह (संसार में कभी) जन्म लेता है और न ही मरता है / 614. जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं है, वह महावीर साधक जन्मता-मरता नहीं है / जैसे हवा अग्नि की ज्वाला का उल्लंघन कर जाती है, वैसे ही इस लोक में महान् अध्यात्मवीर साधक मनोज्ञ (प्रिय) स्त्रियों (स्त्रीसम्बन्धी काम-भोगों) को उल्लंघन कर जाता है, अर्थात् वह स्त्रियों के वश में नहीं होता। 615. जो साधकजन स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सर्वप्रथम मोक्षगामी (आदिमोक्ष) होते हैं। समस्त (कर्म) बन्धनों से मुक्त वे साधुजन (असंयमी) जीवन जीने की आकांक्षा नहीं करते। 616. ऐसे वीर साधक जीवन को पीठ देकर (पीछे करके) कर्मों का अन्त (क्षय) प्राप्त करते हैं। जो साधक (संयमानुष्ठान द्वारा) मोक्ष मार्ग पर आधिपत्य (शासन) कर लेते हैं, अथवा मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग में अनुशासित (शिक्षित) करते हैं, वे विशिष्ट कर्म (धर्म के आचरण) से मोक्ष के सम्मुख हो जाते हैं। 617. उन (मोक्षाभिमुख साधकों का) अनुशासन (धर्मोपदेश) भिन्न-भिन्न प्राणियों के लिए भिन्नभिन्न प्रकार का होता है। वसुमान् (संयम का धनी), पूजा-प्रतिष्ठा में अरुचि रखनेवाला, आशय (वासना) से रहित, संयम में प्रयत्नशील, दान्त (जितेन्द्रिय) स्वकृत प्रतिज्ञा पर दृढ़ एवं मैथुन से सर्वथा विरत साधक ही मोक्षाभिमुख होता है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 सूत्रकृतांग-पन्द्रहको अध्ययन-जमतीत 618. सूअर आदि प्राणियों को प्रलोभन देकर फंसाने और मत्यु के मुख में पहुँचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री-प्रसंग या क्षणिक विषय लोभ में साधक लीन (ग्रस्त) नहीं होता। जिसने विषय भोगरूप आश्रव-द्वारों को बन्द (नष्ट) कर दिया है, जो राग-द्वेपरूप मल से रहित-स्वच्छ है, सदा दान्त है, विषय-भोगों में प्रवृत्त या आसक्त न होने से अनाकुल (स्थिरचित्त) है, वही व्यक्ति अनुपम भावसन्धि-मोक्षभिमुखता को प्राप्त है। 616. अनीदश (जिसके सदश दूसरा कोई उत्तम पदार्थ नहीं है उस) संयम या तीर्थकरोक्त धर्म का जो मर्मज्ञ (खेदज्ञ) है, वह किसी भी प्राणी के साथ मन, वचन और काया से वैर-विरोध न करे (अर्थात् सबके साथ त्रिकरण-त्रियोग से मैत्रीभाव रखे), वही परमार्थतः चक्षुष्मान् (दिव्य तत्त्वदर्शी) है। 620. जो साधक भोगाकांक्षा (विषय-तृष्णा) का अन्त करने वाला या अन्त (पर्यन्त) वर्ती है, वही मनुष्यों का चक्षु (भव्य जीवों का नेत्र) सदश (मार्गदर्शक या नेता) है। जैसे उस्तरा (या छुरा) अन्तिम भाग (सिरे) से कार्य करता है, रथ का चक्र भी अन्तिम भाग (किनारे) से चलता है, (इसी प्रकार विषय-कषायात्मक मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार का अन्त करता है)। 621. विषय-सुखाकांक्षा रहित बुद्धि से सुशोभित (धीर) साधक अन्त-प्रान्त आहार का सेवन करते हैं। इसी कारण वे संसार का अन्त कर देते हैं / इस मनुष्यलोक में या यहाँ (आर्य क्षेत्र में) मनुष्य भव में दूसरे मनुष्य भी धर्म की आराधना करके संसार का अन्त करते हैं। विवेचन-कर्मबन्धनविमुक्त, मोक्षाभिमुख एवं संसारान्तकर साधक कौन और कैसे ?-प्रस्तुत दस सूत्रगाथाओं में शास्त्रकार ने मुख्यतया चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं - (1) कर्मबन्धन से विमुक्त कौन होता है ? (2) मोक्षाभिमुख साधक कौन होता है ? (3) संसार का अन्तकर्ता साधक कौन होता है ? (4) ये तीनों किस-किस प्रकार की साधना से उस योग्य बनते हैं। वस्तुतः ये तीनों परस्पर सम्बद्ध हैं। जो कर्मबन्धन से मुक्त होता है, वही मोक्षाभिमुख होता है, जो मोक्षाभिमुख होता है, वह संसार का अन्त अवश्य करता हैं। कर्मबन्धन से मुक्त एवं मोममिमुखी होने के लिए अनिवार्य शर्ते- मोक्षाभिमुखता के लिए साधक(१) अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर ही अष्टविधकर्मों का क्षय करने में उद्यत होता है। (2) विशिष्ट तप, संयम आदि के आचरण से मोक्ष के अभिमुख हो जाता है, (3) मोक्षमार्ग पर अधिकार कर लेता है, (4) वह संयमनिष्ठ हो जाता है, (5) पूजा, सत्कार, प्रतिष्ठा आदि में रुचि नहीं रखता, (6) विषयवासना से दूर रहता है, (7) संयम में पुरुषार्थ करता है, (8) इन्द्रिय और मन को वश में कर लेता है, (6) महाव्रत आदि की कृतप्रतिज्ञा पर दृढ़ रहता है, (10) मैथुन-सेवन से विरत रहता है / (11) विषयभोगों के प्रलोभन में नहीं फँसता, (12) कर्मों के आश्रवद्वार बन्द कर देता है, (13) वह राग-द्वेषादि मल से रहित-स्वच्छ होता है, (14) विषय-भोगों से विरक्त होकर अनाकुल स्थिरचित्त होता है, (15) अनुपम संयम या अनुत्तर वीतराग-धर्म का मर्मज्ञ होने से वह मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं करता। (16) संसार का अन्त करने वाला साधक परमार्थदर्शी (दिव्यनेत्रवान्) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 622 से 624 होता है, (17) वह समस्त कांक्षाओं का अन्त कर देता है, (18) मोहनीय आदि घाती कर्मों का अन्त करके ही वह संसार के अन्त (किनारे) तक या मोक्ष के अन्त (सिरे) तक पहुँच जाता है। (18) वह परीषहों और उपसर्गों को सहने में धीर होता है, (21) वह अन्त-प्रान्त आहारादि का सेवन करता है, (21) वह मनुष्य जन्म में दृढ़तापूर्वक धर्माराधना करता है। __ पाठान्तर और व्याख्या-जण जाति ण मिज्जती-के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'जेण आजाइन मज्जते', अर्थ होता है-सर्वकर्मक्षय होने पर न तो पुनः संसार में आता है, और न संसार सागर में डूबता है। 'न मिज्जति' के बदले वृत्तिकार ने 'ण भिज्जति' पाठ भी माना है। दोनों का मूलार्थ में उक्त अर्थ से भिन्न अर्थ भी वृत्तिकार ने किया है-(१) जाति से यह नारक है, यह तिर्यञ्च है, इस प्रकार का परिगणन नहीं होता, (2) जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से परिपूर्ण नहीं होता। चूर्णिसम्मत पाठान्तर है- 'ण मज्जते'- अर्थात्-संसारसागर में नहीं डूबता / / मोक्ष-प्राप्ति किसको सुलभ, किसको दुर्लभ ? 622 मिट्टितट्टा व देवा वा उत्तरीए इमं सुतं / सुतं च मेतमेगेसि, अमगुस्सेसु णो तहा // 16 // 623 अंत करेंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहितं / ___आघायं पुण एगेसि, दुल्लभेऽयं समुस्सए // 17 // 624 इतो विद्धसमाणस्स, पुणो संबोहि दल्लभा। दुल्लमा उ तहच्चा णं जे धम्म? वियागरे // 18 // 622. मैंने (सुधर्मास्वामी ने) लोकोत्तर प्रवचन (तीर्थंकर भगवान की धर्मदेशना) में यह (आगे कही जाने वाली) बात सुनी है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शनादि की आराधना से कर्मक्षय करके निष्ठितार्थकृतकृत्य होते हैं, (मोक्ष प्राप्त करते हैं) अथवा (कर्म शेष रहने पर) सौधर्म आदि देव बनते हैं। यह (मोक्ष-प्राप्ति-कृतकृत्यता) भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही होती है, मनुष्ययोनि या गति से भिन्न योनि या गतिवाले जीवों को मनुष्यों की तरह कृतकृत्यता या सिद्धि प्राप्त नहीं होती, ऐसा मैंने तीथंकर भगवान से साक्षात् सुना है। 623. कई अन्यतीथिकों का कथन है कि देव ही समस्त दुःखों का अन्त करते हैं, मनुष्य नहीं; (परन्तु ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि) इस आर्हत्-प्रवचन में तीर्थंकर, गणधर आदि का कथन है कि यह समुन्नत मानव-शरीर या मानव-जन्म (समुच्छय) मिलना अथवा मनुष्य के बिना यह समुच्छय-धर्मश्रवणादि रूप अभ्युदय दुर्लभ है, फिर मोक्ष पाना तो दूर की बात है। 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 256 का सारांश 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 256 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 112 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 सूत्रकृतांग-पन्द्रहवां अध्ययन-जमतीत 624. जो जीव इस मनुष्यभव (या शरीर) से भ्रष्ट हो जाता है, उसे पुनः जन्मान्तर में सम्बोधि (सम्यग्दृष्टि) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। जो साधक धर्मरूप पदार्थ की व्याख्या करते हैं, अथवा धर्मप्राप्ति के योग्य हैं, उनकी तथाभूत अर्चा (सम्यग्दर्शनादि प्राप्ति के योग्य शुभ लेश्या-अन्तःकरणपरिणति, अथवा सम्यग्दर्शन-प्राप्तियोग्य तेजस्वी मनुष्यदेह) (जिन्होंने पूर्वजन्म में धर्म-बीज नहीं बोया है, उन्हें) प्राप्त होनी अतिदुर्लभ है। विवेचन--मोकप्राप्ति किसको सुलभ, किसको दुर्लभ ?-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रारम्भ की दो गाथाओं में यह बताया गया है कि समस्त कर्मों का क्षय, सर्वदुःखों का अन्त मनुष्य ही कर सकते हैं, वे ही सिद्धगति प्राप्त करके कृतकृत्य होते हैं / अन्य देवादि गति वालों को मोक्ष-प्राप्ति सुलभ नहीं / क्योंकि उनमें सच्चारित्न परिणाम नहीं होता। तीसरी गाथा में यह बताया गया है कि मोक्षप्राप्ति के लिए अनिवायं सम्बोधि तथा सम्बोधि-प्राप्ति की अन्तर् में परिणति (लेश्या) का प्राप्त होना उन लोगों के लिए दुर्लभ है, जो मनुष्यजन्म पाकर उसे निरर्थक गंवा देते हैं, जो मानव-जीवन में धर्मबीज नहीं बो सके। निष्कर्ष यह है कि मोक्षप्राप्ति की समग्र सामग्री उन्हीं जीवों के लिए सुलभ है, जो मनुष्यजन्म पाकर सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होकर धर्माचरण करते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-उत्तरीए-वृत्तिकार के अनुसार अर्थ किया जा चुका है। चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-उत्तरीक स्थानों में-अनुत्तरोपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं। 'धम्म? वियागरे' के बदले चूर्णिसम्मत पाठ है--'धम्मट्ठी विवितपरापरा'-अर्थ किया गया है-धर्मार्थीजन पर-यानी श्रेष्ठ जैसे कि मोक्ष या मोक्षसाधन; तथा अपर-यानी निकृष्ट, जैसे मिथ्यादर्शन, अविरति आदि, इन दोनों परअपर को ज्ञात (विदित) कर चुके हैं।" मोक्ष प्राप्त जुरुषोत्तम और उसका शाश्वत स्थान 625 जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुण्णमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कुतो // 19 // 626 कुतो कयाइ मेधावी, उप्पज्जति तहागता। तहागता य अपडिण्णा चक्खु लोगस्सऽणुत्तरा // 20 // 625. जो महापुरुष प्रतिपूर्ण, अनुपम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं, वे सर्वोत्तम (अनुपम) पुरुष के (समस्त द्वन्द्वों से उपरमरूप) स्थान को प्राप्त करते हैं, फिर उनके लिए जन्म लेने की तो बात ही कहाँ ? 6 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 258 / 256. 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 258 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 113-114 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 625 से 631 446 626. इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गए हुए (तथागत) मेधावी (ज्ञानी) पुरुष क्या कभी फिर उत्पन्न हो सकते हैं ? (कदापि नहीं / ) अप्रतिज्ञ (निदान-रहित) तथागत-तीर्थकर, गणधर आदि लोक (प्राणिजगत्) के अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) नेत्र (पथप्रदर्शक) हैं। विवेचन-मोक्षप्राप्त पुरुषोत्तम और उनका शाश्वत स्थान-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में मोक्षप्राप्त पुरुषो. त्तम का स्वरूप बताकर संसार में उनके पुनरागमन का निराकरण किया गया है। धर्म के विशेषणों की व्याख्या- शुद्ध- समस्त उपाधियों से रहित होने से विशुद्ध है, प्रतिपूर्ण-जिसमें विशाल (आयत) चारित्र होने से अथवा जो यथाख्यात चारित्र रूप होने से परिपूर्ण है। अनीदृश=अनुपम -~-अनुत्तर / धामं अवखंति--धर्म का प्रतिपादन करते हैं, स्वयं आचरण भी करते हैं / संसार-पारंगत साधक की साधना के विविध पहलू 627 अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेदिते। जं किच्चा णिवुडा एगे, निद्रं पावंति पंडिया // 21 // 628 पंडिए बीरियं लद्ध, निग्घाया य पवत्तगं / धुणे पुव्वकडं कम्म, नवं चावि न कुवति // 22. / 626 म कुव्वतो महाघोरे, अणुपुरनकडं रयं / रयसा संमुहीभूता कम्मं हेच्चाण जं मतं // 23 // 630 जं मतं सव्वसाहूणं, तं मयं सल्लकत्तणं / साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अविसु ते // 24 // 631 अर्भावसु पुरा बोरा, आगमिस्सा वि सुव्वता। दुणिकोहस्स मग्गस्स, अंतं पादुकरा तिण्णे // 25 // त्ति बेमि // // जमतीतं : पण्णरसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 627. काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने बताया है कि वह अनुत्तर (सबसे प्रधान) स्थान संयम है, जिस (संयम) का पालन करके कई महासत्त्व साधक निर्वाण को प्राप्त होते हैं। वे पण्डित (पाप से निवृत्त) साधक निष्ठा (संसार चक्र का अन्त, या सिद्धि की पराकाष्ठा) प्राप्त कर लेते हैं / 628. पण्डित (सद्-असद्-विवेकज्ञ) साधक समस्त कर्मों के निघात (निर्जरा) के लिए प्रवर्तक (अनेकभवदुर्लभ) पण्डितवीर्य (या सुसंयभवीर्य अथवा तपोवीर्य) को प्राप्त करके पहले के अनेक भवों में किये हुए कर्मों का क्षय कर डाले और नवीन कर्मबन्ध न करे। 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 256 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 सकृतांग-पन्द्रहवां अध्ययन-जमतीत 626. दूसरे प्राणी जैसे मिथ्यात्वादि ऋम से पाप करते हैं, वैसे कमविदारण करने में महावीर साधक नहीं करता; क्योंकि पाप कर्म पूर्वकृत पाप के प्रभाव से ही किये जाते हैं परन्तु उक्त महावीर पुरुष सुसंयम के आश्रय से पूर्वकृत कर्मों को रोकता है, और अष्टविधकर्मों का त्याग करके मोक्ष के सम्मुख होता है। ... 630. जो समस्त साधुओं को मान्य है, उस पापरूप शल्य या पापरूप शल्य से उत्पन्न कर्म को काटने वाले संयम की साधना करके अनेक जीव (संसार सागर से) तिरे हैं, अथवा जिनके समस्त कर्म क्षय नहीं हुए हैं, वे वैमानिक देव हुए हैं। 631 पूर्वकाल में अनेक वीर (कर्मविदारण-समर्थ) हुए हैं, भविष्य में भी अनेक सुव्रती पुरुष होंगेवेदनिबोध-दःख से प्राप्त होने वाले (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप) मार्ग के अन्त (चरमसीमा) तक पहुँच कर, दूसरों के समक्ष भी उसी मार्ग को प्रकाशित (प्रदर्शित) करके तथा स्वयं उससन्मार्ग पर चलते हुए संसार सागर को पार हुए हैं, होंगे और हो रहे हैं। - ऐसा मैं कहता हूँ। विधेचन-संसारपारंगत साधक की साधना के विविध पहलू-प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं से संसारसागर पारंगत साधक की साधना के विविध पहलू फलित होते हैं। वे इस प्रकार हैं- (1) जिनोपदिष्ट अनुत्तर संयम का पालन करके कई निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं: संसार चक्र का अन्त कर देते हैं. (2) समस्त कर्मक्षय के लिए पण्डित वीर्य को प्राप्त करके अनेक नव संचित कर्मों को नष्ट कर दे और नवीन कर्मों को उपार्जित न करे, (3) कर्मविदारण-समर्थ साधक नवीन पापकर्म नहीं करता, बल्कि पूर्वकृत कर्मों को तप, संयम के बल से काट देता है, (4) पाप-कर्म को काटने के लिए साधक संयम की साधना करके संसार-सागर से पार हो जाता है, या वैमानिक देव बन जाता है, (5) तीनों काल में ऐसे महापुरुष होते हैं, जो रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की साधना करके उसकी पराकाष्ठा पर पहुंच कर दूसरों के समक्ष भी वही मार्ग प्रदर्शित करके संसार सागर को पार कर लेते हैं।' पाठान्तर और व्याख्या-णिवुडा' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-णिवुता'; अर्थ होता हैपापकर्मों से निवृत्त / 'संमुहीभूता'=चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-सम्मुख हुए / 'वीरा' के बदले कहींकहीं 'धीरा' पाठ है, जिसका अर्थ होता है-परीषहोपसर्ग सहकर कर्म काटने में सहिष्णु धृतिमान 10 // जमतीत (यमकीय) : पन्द्रहवां अध्ययन समाप्त // 1000 6 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 260 का सारांश 10 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 230 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०)पृ० 114 से 115 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : षोडश अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। - गाथा-शब्द गृह, अध्ययन, ग्रन्थ-प्रकरण, छन्द विशेष, आर्या गीति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, निश्चय आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' D नियुक्तिकार के अनुसार नाम, स्थापना के अतिरिक्त द्रव्यगाथा और भावगाथा, यों चार निक्षेप होते हैं। पुस्तकों में या पन्नों पर लिखी हुई गाथा (प्राकृत भाषा में पद्य) द्रव्यगा 'गाथा' के प्रति क्षायोपशमिक भाव से निष्पन्न साकारोपयोग-~भावगाथा है। क्योंकि समग्र श्रुत (शास्त्र) क्षयोपशमभाव में और साकारोपयोग-युक्त माना जाता है, श्रुत में निराकारोपयोग सम्भव नहीं है। / प्रस्तुत अध्ययन द्रव्यगाथा से सम्बन्धित है। नियुक्तिकार और वृत्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन को द्रव्यगाथा की दृष्टि से गाथा कहने के पीछे निम्नोक्त विश्लेषण प्रस्तुत किया है-(१) जिसका उच्चारण मधुर, कर्णप्रिय एवं सुन्दर हो, वह मधुरा (मधुर शब्द निर्मिता) गाथा है, (2) जो मधुर अक्षरों में प्रवृत्त करके गाई या पढ़ी जाए, वह भी गाथा है, (3) जो गाथा (सामुद्र) छन्द में रचित मधुर प्राकृत शब्दावली से युक्त हो, वह गाथा है, (4) जो छन्दोबद्ध न होकर भी गद्यात्मक गेय पाठ हो, इस कारण इसका नाम भी गाथा है, (5) जिसमें बहुत-सा अर्थ-समूह एकत्र करके समाविष्ट किया गया हो अर्थात्-पूर्वोक्त 15 अध्ययनों में कथित अर्थों (तथ्यों) को पिण्डित- एकत्रित करके प्रस्तुत अध्ययन में समाविष्ट किये जाने से इस अध्ययन का नाम 'गाथा' रख गया है, अथवा (6) पूर्वोक्त 15 अध्ययनों में साधओं के जो क्षमा आदि गण विधि-निषेधरूप गए हैं, वे इस सोलहवें अध्ययन में एकत्र करके प्रशंसात्मक रूप में कहे जाने के कारण इस अध्ययन को 'गाथा' एवं 'गाथा षोडशक' भी कहते हैं। / प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण, माहन, भिक्षु और निर्ग्रन्थ का स्वरूप पृथक-पृथक गुणनिष्पन्न-निर्वचन करके प्रशसात्मकरूप से बताया गया है / यह अध्ययन समस्त अध्ययनों का सार है, गद्यात्मक है तथा सूत्र संख्या 632 से प्रारम्भ होकर 637 पर समाप्त होता है। 007 1 पाइअसद्दमहण्णवो, पृष्ठ 263 २(क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 137 से 141 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 261.262 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : सोलसमं अज्झयणं गाथा : षोडश अध्ययन पाहण-श्रमण-परिभाषा-स्वरुप६३२. अहाह भगवं-एवं से दंते दविए बोसटुकाए ति वच्चे माहणे ति वा 1 समणे ति वा 2, भिक्खू ति वा 3, णिग्गंथे ति वा 4 / 633. पडिआह-मंते ! कहं दंते दविए वोसटकाए ति वच्चे माहणे ति वा समणे ति वा भिक्खू ति वा णिग्गंथे ति का? तं नो ब्रूहि महामुणी ! 632. पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययन कहने के बाद भगवान् ने कहा-इस प्रकार (पन्द्रह अध्ययनों में उक्त) अर्थों-गुणों से युक्त जो साधक दान्त (इन्द्रियों और मन को वश में कर चुका) है, द्रव्य (भव्यमोक्षगमनयोग्य) है, जिसने शरीर के प्रति ममत्व त्याग दिया है। उसे माहन, श्रमण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ कहना चाहिए। 633 शिष्य ने प्रतिप्रश्न किया-भंते ! पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में कथित अर्थों-गुणों से युक्त जो साधक दान्त है, भव्य है, शरीर के प्रति जिसने ममत्व का व्यूत्सर्ग कर दिया है, उसे क्यों भाहण, श्रमण भिक्षु या निर्गन्थ कहना चाहिए? हे महामुने ! कृपया यह हमें बताइए। विवेचन-माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ : स्वरूप और प्रतिप्रश्न-प्रस्तुत सूत्र में सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्यों के समक्ष पूर्वोक्त 15 अध्ययनों में कथित साधुगुणों से युक्त साधक को भगवान् द्वारा माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ कहे जाने का उल्लेख किया तो शिष्यों ने जिज्ञासावश प्रतिप्रश्न किया कि क्यों और किस अपेक्षा से उन्हें माहन आदि कहा जाए ? इस प्रश्न के समाधानार्थ अगले सूत्रों में इन चारों का क्रमशः लक्षण बताया गया है। दान्त--जो साधक इन्द्रियों और मन का दमन करता है, उन्हें पापाचरण या सावद्यकार्य में प्रवृत्त होने से रोकता है, यहां तक कि अपनी इन्द्रियों और मन को इतना अभ्यस्त कर लेता है कि वे कुमार्ग में जाते ही नहीं। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गाथा 634 से 635 453 व्युत्सृष्टकाय--जो शरीर को सजाने-संवारने, पुष्ट करने, शृगारित करने आदि सब प्रकार के शरीर-संस्कारों और शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर चुका हो।' माहन स्वरुप६३४. इति विरतसव्वपावकम्मे पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति मायामोस-मिच्छादसणसल्ले विरए समिते सहिते सदा जते णो कुज्झे गो माणी माहणे ति वच्चे। 634. पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में जो उपदेश दिया है, उसके अनुसार आचरण करने वाला जो साधक समस्त पापकर्मों से विरत है, जो किसी पर राग या द्वेष नहीं करता, जो कलह से दूर रहता है, किसी पर मिथ्या दोषारोपण नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता, दूसरों को निन्दा नहीं करता, जिसकी संयम में अरुचि (अरति) और असंयम में रुचि (रति) नहीं है, कपट-युक्त असत्य नहीं बोलता (दम्भ नहीं करता), अर्थात् अठारह हो पापस्थानों से विरत होता है, पाँच समितियों से युक्त और ज्ञानदर्शन-चारित्र से सम्पन्न है, सदैव षड्जीवनिकाय की यतना- रक्षा करने में तत्पर रहता है अथवा सदा इन्द्रियजयी होता है, किसी पर क्रोध नहीं करता, न अभिमान करता है, इन गुणों से सम्पन्न अनगार 'माहन' कहे जाने योग्य है। विवेचन-'माहन' का स्वरूप-किन गुणों से युक्त व्यक्ति को 'माहन' कहा जाना चाहिए ? इसका निरूपण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। 'माहन' का अर्थ और उक्त लक्षण--'माहन' पद मा+हन इन दो शब्दों से बनता है, अर्थ होता है'किसी भी प्राणी का हनन मत करो'; इस प्रकार का उपदेश जो दूसरों को देता है, अथवा जो स्वयं स-स्थावर, सूक्ष्म-बादर, किसी भी प्राणी की किसी प्रकार से हिंसा (हनन) नहीं करता / हिंसा दो प्रकार की होती है- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा / राग, द्वेष, कषाय, या असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रहवृत्ति आदि सब भावहिंसा के अन्तर्गत हैं / भावहिला द्रव्याहिंसा से बढ़कर भयंकर है / 'माहन' दोनों प्रकार की हिंसा से विरत होता है / माहन को यहाँ भगवान ने अठारह पापस्थानों से विरत बताया है, इसका अर्थ है, वह भावहिंसा के इन मूल कारणों से विरत रहता है। फिर माहन को पंच समिति एवं त्रिगुप्ति से युक्त बताया है, इसका तात्पर्य है, वह असत्य, चोरो आदि भावहिंसाओं से रक्षा करने वाली समितिगुप्ति से युक्त है। फिर सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसम्पन्न माहन हिंसा निवारण के अमोघ उपायभूत मार्ग से सुशोभित है / हिंसा से सर्वथा निवृत्त माहन षड्जीवनिकाय की रक्षा के लिए सदैव यत्नवान होता ही है / क्रोध और अभिमान-ये दो भावहिंसा के प्रधान जनक हैं। माहन कोधादि भावहिंसाजनक कषायों से दूर रहता है / ये सब गुण 'माहन' के अर्थ के साथ सुसंगत हैं, इसलिए उक्त गुणों से सम्पन्न साधक को माहन कहना युक्तियुक्त है। 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 262 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 सूत्रकृतांग-सोलहवां अध्ययन-गाहा भ्रमण स्वरुप 635. एस्थ वि समणे अणिस्सिते अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिच कोहं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च इच्चेवं जतो आदाणातो अपणो पदोसहेतु ततो तओ आदाणातो पुत्वं पडिविरते > विरते पाणाइवायाओ / दंते दविए वोसट्ठकाए समणे ति बच्चे। 635. जो साधु पूर्वोक्त विरति आदि गुणों से सम्पन्न है। उसे यहाँ (इस सूत्र में) कहे जाने वाले गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए / जो साधक अनिश्रित (शरीर आदि किसी भी पर-पदार्थ में आसक्त या आश्रित नहीं) है; अनिदान (अपने तप-संयम के फल के रूप में किसी भी प्रकार के इह-पारलौकिक सुख-भोगाकांक्षा से रहित) है, तथा कर्मबन्ध के कारणभूत प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह (उपलक्षण से अदत्तादान) से रहित है, तथा क्रोध मान, माया, लोभ राग और द्वेष नहीं करता / इस प्रकार जिन-जिन कर्मबन्ध के आदानों-कारणों से इहलोक-परलोक में आत्मा की हानि होती है, तथा जो-जो आत्मा के लिए द्वेष के कारण हो, उन-उन कर्मबन्ध के कारणों से पहले से ही निवृत्त है, एवं जो दान्त, भव्य (द्रव्य) तथा शरीर के प्रति ममत्व से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए। विवेचन-श्रमण का स्वरूप-प्रस्तुत सूत्रगाथा में यह बताया गया है कि 'किन विशिष्ट गुणों से सम्पन्न होने पर साधक को श्रमण कहा जा सकता है।' 'श्रमण' का निर्वचन और लक्षण-प्राकृतभाषा के 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैंश्रमण, शमन और समन / श्रमण का अर्थ है-जो मोक्ष (कर्ममोक्ष) के लिए स्वयं श्रम करता है, तपस्या करता है / शमन का अर्थ है-जो कषायों का उपशमन करता है, और समन का अर्थ है-जो प्राणिमात्र पर समभाव रखता है, अथवा शत्रु-मित्र पर जिसका मन सम-राग-द्वषरहित-है। इन अर्थों के प्रकाश में जब हम प्रस्तुत सूत्रोक्त श्रमण के लक्षण को कसते हैं तो वह पूर्णतः खरा उतरता है। श्रमण का पहला लक्षण 'अनिश्रित' बताया है, वह इसलिए कि श्रमण किसी देव आदि का आश्रित बनकर नहीं जीता, वह तप-संयम में स्वश्रम (पुरुषार्थ) के बल पर आगे बढ़ता है / श्रमण जो भो तप करता है, वह कर्मक्षय के उद्देश्य से ही करता है। निदान करने से कर्मक्षय नहीं होता, इसलिए श्रमण का लक्षण 'अनिदान' बताया गया है। श्रमण संयम और तप में जितना पराक्रम करता है. वह कर्मक्षय के लिए करता है, अत: प्राणातिपात आदि जिन-जिन से कर्मबन्ध होता है, उनका वह शमन (विरति) करता है, उनसे दूर रहता है / क्रोधादि कषायों एवं रागद्वेष आदि का शमन करता है। राग, द्वेष, मोह आदि के कारणों से दूर रहकर 'समन' समत्व में स्थित रहता है। निष्कर्ष यह है 'अणिस्सिए से लेकर 'वोसकाए' तक श्रमण के जितने गण या लक्षण बताये हैं. सब 'समण' शब्द के तीनों रूपों में आ जाते हैं। इसलिए उक्त गुणविशिष्ट साधक को 'श्रमण' कहा जाता है। . - - . -.. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा 636 455 भिक्षु-स्वरूप 636. एत्थ वि विखू अणु-नए नावणए णामए दंते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरुवरूवे __ परीसहोवसग्गे अज्झरपजोगसुद्धादाणे उविट्टिते ठितप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खु त्ति वच्चे। 636. 'माहन' और 'श्रमण' की योग्यता के लिए जितने गुण पूर्वसूत्रों में वणित हैं, वे सभी यहाँ वणित भिक्ष में होने आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त ये विशिष्ट गुण भी भिक्षु में होने चाहिए--- वह अनुन्नत (निरभिमान) हो, (गुरु आदि के प्रति) विनीत हो, (अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति विनयशील हो), किन्तु भाव से अवनत (दीन मन वाला) न हो, नामक (विनय से अष्ट प्रकार से अपनी आत्मा को नमाने वाला, अथवा सबके प्रति नम्र व्यवहार वाला) हो, दान्त हो, भव्य हो, कायममत्वरहित हो, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों का समभावपूर्वक सामना करके सहने वाला हो, अध्यात्मयोग (धर्मध्यान) से जिसका चारित्र (आदान) शुद्ध हो, जो सच्चारित्र-पालन में उद्यत-उपस्थित हो, जो स्थितात्मा (स्थितप्रज्ञ, अथवा जिसकी आत्मा अपने शुद्ध भाव में स्थित है, या मोक्षमार्ग में स्थिरचित्त) हो तथा संसार की असारता जानकर जो परदत्तभोजी (गृहस्थ द्वारा प्रदत्त आहार से निर्वाह करने वाला) है; उस साधु को 'भिक्षु' कहना चाहिए। विवेचन-भिक्षु का स्वरूप- प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु के विशिष्ट गुणों का निरूपण करते हुए उसका स्वरूप बताया गया है। भिक्षु का अर्थ और सूत्रोक्त लक्षण-भिक्षु का सामान्य अर्थ होता है-भिक्षाजीवी / परन्तु त्यागी भिक्षु न तो भीख मांगने वाला होता है, न ही पेशेवर भिखारी, और न ही भिक्षा से पेट पालकर अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाकर, आलसी एवं निकम्मा बनकर पड़े रहना उसका उद्देश्य होता है / आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार उसको भिक्षा न तो पौरुषघ्नी होती है और न ही आजीविका, वह सर्वसम्पत्करी होती है / अर्थात्-भिक्षु अहर्निश तप-संयम में, स्वपर-कल्याण में अथवा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की साधना में पुरुषार्थ के लिए भिक्षा ग्रहण करता है। इस विशिष्ट अर्थ के प्रकाश में जब हम प्रस्तुत सूत्रोक्त भिक्षु के विशिष्ट गुणात्मक स्वरूप की समीक्षा करते हैं तो भिक्षु के लिए बताए हुए सभी विशिष्ट गुण यथार्थ सिद्ध होते हैं / निर्ग्रन्थ भिक्षु का एक विशिष्ट गुण है-'परदत्तमोजो' / इस गुण का रहस्य यह है कि भिक्षु अहिंसा की दृष्टि से न तो स्वयं भोजन पकाता या पकवाता है, न ही अपरिग्रह की दृष्टि से भोजन का संग्रह करता है, न भोजन खरीदता या खरीदवाता है, न खरीदा हुआ लेता है। इसी प्रकार अचौर्य की दृष्टि से गृहस्थ के यहाँ बने हुए भोजन को बिना पूछे उठाकर न लाता या ले लेता है, न छीनकर, चुराकर या लूटकर लेता है। वह निरामिषभोजी गृहस्थवर्ग के यहाँ उसके स्वयं के लिए बनाये हुए आहार में से भिक्षा के नियमानुसार गृहस्थ द्वारा प्रसन्नतापूर्वक दिया गया थोड़ा सा एषणीय, कल्पनीय और अचित्त पदार्थ लेता है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग-सोलहवां अध्ययन-गाहा भिक्ष के अन्य चार विशिष्ट गुण यहां बताये गये हैं--(१) अनुन्नत, (2) नावनत, (3) विनीत या नामक और (4) बान्त / अनुग्नत आदि चारों गुण इसलिए आवश्यक है कि कोई साधक जब भिक्षा को अपना अधिकार या आजीविका का साधन बना लेता है, तब उसमें अभिमान आ जाता है, वह उद्धत होकर गृहस्थों (अद्रयायियों) पर घौस जमाने लगता है, शिक्षा न देने पर श्राप या अनिष्ट कर देने का भय दिखाता है, या भिक्षा देने के लिए दवाब डालता है अथवा दीनता-हीनता या करुणता दिखाकर भोजन लेता है, उ.थवा शिक्षा न मिलने पर ४.५नी नम्रता होहवर गाँव, नगर या उस गृहस्थ को कोसने या अपशब्दों से धिक्कारने लगता है, अथवा अपनी जिह्वा आदि पर संयम न रखकर सरस, स्वादिष्ट, पौष्टिक वस्तु की लालसावश सम्पन्न घरों में ताक-ताक कर जाता है, अंगारादि दोषों का सेवन कर अपनी जितेन्द्रियता को खो बैटता है / अतः भिक्षु का अनुन्नत, नावनत (अदीन), नामक (विनीत या नम्र) और दान्त होना परम आवश्यक है। ये चार गुण भिक्षा-विधि में तो लक्षित होते ही हैं, इसके अतिरिक्त साधक के जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में इन गुणों की प्रतिच्छाया आनी चाहिए। क्योंकि जीवन में सर्वत्र सर्वदा ही ये गुण आवश्यक हैं / इसी दृष्टि से आगे 'व्युत्सृष्टकाय', 'संख्यात', "स्थितात्मा' और 'उपस्थित' ये चार विशिष्ट भिक्षु के गुण बताये हैं / इन गुणों का क्रमशः रहस्य यह है कि (1) भिक्षु अपने शरीर पर ममत्व रखकर उसी को हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ बनाने में न लग जाए, किन्तु शरीर पर ममत्व न रखकर कल्पनीय, एषणीय, सात्त्विक यथाप्राप्त आहार से निर्वाह करे। (2) साधु अपने शरीर के स्वभाव का चिन्तन करे कि इसे जितना भी भरा जाता है, वह मल के रूप में निकल जाता है, अतः दोषयुक्त. पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं अत्यधिक आहार से पेट भरने की अपेक्षा एषणीय, कल्पनीय, सात्त्विक, अल्पतम आहार से भरकर काम क्यों न चला लूं ? मैं शरीर को लेकर पराधीन, परवश न बनें / (3) स्थितात्मा होकर भिक्षु अपने आत्मभावों में, या मोक्षमार्ग में स्थिर रहे, आत्मगुण-चिन्तन में लीन रहे, खाने-पीने आदि पदार्थों को पाने और सेवन करने का चिन्तन न करे / (4) भिक्षु अपने सच्चारित्र पालन में उद्यत रहे, उसी का ध्यान रखे, चिन्तन करे, अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के चिन्तन में मन को प्रवृत्त न करे। अन्तिम दो विशेषण भिक्षु की विशेषता सूचित करते हैं--(१) अध्यात्मयोग-शुद्धादान और (2) नाना परीषहोपसर्गसहिष्णु। कई भिक्षु भिक्षा न मिलने या मनोऽनुकल न मिलने पर आर्त्तध्यान या रौद्रध्यान करने लगते हैं, यह भिक्षु का पतन है, उसे धर्मध्यानादिरूप अध्यात्मयोग से अपने चारित्र को शुद्ध रखने, रत्नत्रयाराधना-प्रधान चिन्तन करने का प्रयत्न करना चाहिए / साथ ही भिक्षाटन के या भिक्षु के विचरण के दौरान कोई परीषह या उपसर्ग आ पड़े तो उस समय मन में दैन्य या संयम से पलायन का विचार न लाकर उस परीषह या उपसर्ग को समभाव से सहन करना ही भिक्षु का गुण है। वास्तव में, ये गुण भिक्षु में होंगे, तभी वह सच्चे अर्थ में भिक्ष कहलाएगा। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 गाथा 637 निर्ग्रन्थ-स्वरुप६३७. एस्थ वि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्ध संछिण्णसोते सुसंजते सुसमिते सुसामाइए आयवायपत्ते य विदू दुहतो वि सोयपलिच्छिण्णे णो पूया-सक्कार-लाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविद् णियागपडिवण्णे समियं चरे वंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथे त्ति वच्चे। से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो ति बेमि / // गाहा : सोलसमं अज्झयणं सम्मत्तं // // पढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो।। 637. पूर्वसूत्र में बताये गये भिक्ष गुणों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ में यहाँ वणित कुछ विशिष्ट गुण होने आवश्यक हैं-जो साधक एक (द्रव्य से सहायकरहित अकेला और भाव से रागद्वेषरहित एकाकी आत्मा) हो, जो एकवेत्ता (यह आत्मा परलोक में एकाकी जाता है, इसे भली-भाँति जानता हो या एक यम को ही जानता) हो, जो बुद्ध (वस्तुतत्त्वज्ञ) हो, जो संच्छिन्न स्रोत (जिसने आस्रवों के स्रोत-द्वार बन्द कर दिये) हो, जो सुसंयत (निष्प्रयोजन शरीर क्रिया पर नियन्त्रण रखता हो, अथवा इन्द्रिय और मन पर संयम रखता) हो, जो सुसमित (पांच समितियों से युक्त) हो, जो सुसामायिक युक्त (शत्रु-मित्र आदि पर समभाव रखता) हो, जो आत्मवाद-प्राप्त (आत्मा के नित्यानित्य आदि समग्र स्वरूप का यथार्थ रूप से ज्ञाता) हो, जो समस्त पदार्थों के स्वभाव को जानता हो, जिसने द्रव्य और भाव दोनों तरह से संसारागमन स्रोत (मार्ग) को बन्द कर दिया हो, जो पूजा, सत्कार एवं द्रव्यादि के लाभ का अभिलाषी नहीं हो, जो एकमात्र धर्मार्थी और धर्मवेत्ता हो, जिसने नियाग (मोक्षमार्ग या सत्संयम) को सब प्रकार से स्वीकार (प्राप्त कर लिया हो, जो समत्व में विचरण करता हो। इस प्रकार का जो साधु दान्त, भव्य हो और काया से आसक्ति हटा चुका हो, उसे निम्रन्थ कहना चाहिए / अतः आप लोग इसी तरह समझें, जैसा मैंने कहा है, क्योंकि भय से जीवों के त्राता सर्वज्ञ तीर्थकर आप्त पुरुष अन्यथा नहीं कहते / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-निग्रंन्य का स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न पहलुओं से निर्ग्रन्थ का स्वरूप बताया गया है। निर्गन्य का अर्थ और विशिष्ट गणों की संगति-निग्रन्थ वह कहलाता है, जो ब ह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों से रहित हो। सहायकता या रागद्वेषयुक्तता, सांसारिक सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों को अपने मान कर उनसे सुख-प्राप्ति या स्वार्थ पूर्ति की आशा रखना, वस्तुतत्त्व की अनभिज्ञता, आस्रव द्वारों को न रोकना, मन और इन्द्रियों पर असंयम-परवशता, शत्रु-मित्र आदि पर राग-द्वषादि विषम-भाव, आत्मा के सच्चे स्वरूप को न जानकर शरीरादि को ही आत्मा समझना, द्रव्य-भाव से संसार-स्रोत को खुला रखना, पूजा, सत्कार, या द्रव्य आदि के लाभ की आकांक्षा करना आदि वे ग्रन्थियां हैं, जिनसे निग्रंन्यता समाप्त हो जाती है / बाह्य-आभ्यन्तर गाँठे निर्ग्रन्थ जीवन को खोखला बना देती हैं। इसीलिए Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 सूत्रकृतांग-सोलहवां अध्ययन-गाथा शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ के लिए एक, एकवित्, बुद्ध, संच्छिन्नस्रोत, सुसंयत, सुसमित, सुसामायित, आत्मवाद-प्राप्त. स्रोतपरिच्छिन्न. अपजा-सत्कार-लाभार्थी, आदि विशिष्ट गण अनिवार्य बताये हैं। क्योंकि एक आदि गणों के तत्त्वों का परिज्ञान होने पर ही संग, संयोग, सम्बन्ध, सहायक. सख-दःखप्रदाता आदि की ग्रन्थि टूटती है। साथ ही विधेयात्मक गुणों के रूप में धर्मार्थी, धर्मवेत्ता, नियागप्रतिपन्न, समत्वचारी, दान्त, भव्य एवं व्युत्सृष्टकाय आदि विशिष्ट गुणों का विधान भी किया है जो राग-द्वेष, वैर, मोह, हिंसादि पापों की ग्रन्थि से बचाएगा। अतः वास्तव में निर्ग्रन्थत्व के इन गुणों से सुशोभित साधु ही निग्रन्थ कहलाने का अधिकारी है / इस प्रकार माहन, श्रमण, भिक्षु और निम्रन्थ के उत्तरोत्तर विशिष्ट गुणात्मक स्वरूप भगवान् महावीर ने बताये हैं। ये सब भिन्न-भिन्न शब्द और विभिन्न प्रवृत्ति निमित्तक होते हुए भी कथ चित् एकार्थक हैं, परस्पर अविनाभावी हैं। - आप्त पुरुष के इस कथन की सत्यता में संदेह नहीं-प्रस्तुत अध्ययन एवं श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से अपने द्वारा उक्त कथन को सत्यता को प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि मेरे पूर्वोक्त कथन की सत्यता में किसी प्रकार की शंका न करें, क्योंकि मने वीतराग आप्त, सर्वजीवहितैषी, भयत्राता, तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट बातें ही कहीं हैं। वे अन्यथा उपदेश नहीं करते। || गाहा (गाया) : षोडश अध्ययन समाप्त // सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्पूर्ण 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 265 पर से Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कंध) 1. गाथाओं की अनुक्रमणिका 2. विशिष्ट शब्द सूची 3. स्मरणीय सुभाषित 4. सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थ सूची Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 गाथाओं की अनक्रमणिका गाथा सूत्राङ्क र IS >> 502 430 472 530 554 284 अंतए वितिगिछाए अंताणि धीरा सेवंति अंतं करेंति दुक्खाणं अंधो अंधं पहं णितो अकुव्वतो णवं नत्थि अकुसीले सया भिक्खू अगारमावसंता वि अगिद्ध सद्दफासेसु अम्मं वणिएहिं आहियं अचयंता व लूहेण अट्ठापदं ण सिक्खेज्जा अणागयमपस्संता अणासिता नाम महासियाला अणिहे सहिए सुसंवुडे अणुगच्छमाणे वितहं भिजाणे अणुत्तरगं परमं महेसी अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता अणुत्तरे य ठाणे से अणुपुटवेण महाघोरं अणु माणं च माय च अणुसासणं पुढो पाणे अणुस्सुओ उरालेसु अणेलिसस्स खेतण्णे सूत्राङ्क गाथा 608 अगोवसंखा इति ते उदाह 621 अणंते णितिए लोए 623 अण्णाणियाण बीमंसा 46 अण्णाणिया ता कुसला वि संता 613 अण्णातपिडेणऽधियासएज्जा 464 अतरिसु तरंतेगे 16 अतिक्कम्म ति वायाए 471 अतिमाणं च मायं च 145 अतिमाणं च मायं च 202 अत्ताण जो जाणति जो य लोग 453 अदु अंजणि अलंकार 238 अदु कण्ण-णासियाछज्ज 346 अदु णातिणं च सुहिणं वा 140 अदु साविया पवादेण 602 अक्खुव दक्खुवाहित 368 अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स 358 अन्ने अन्नेहिं मुच्छिता 367 अन्नं मणेण चितेंति 627 अपरिक्ख दिळं ण ह एव सिद्धी 501 अपरिमाणं विजाणाति 428 अप्पपिंडासि पाणासि 617 अप्पेगे झुझियं भिक्खु 466 अप्पेगे णायओ दिस्स 619 अप्पेमे पडिभासंति 268 260 272 153 406 ܟܘܐ 270 366 82 435 183 173 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध गाथा सूत्राङ्क गाथा सूत्राङ्क 504 36 126 अप्पेगे पलियतसि अप्पेगे वई जुजंति अप्पेण अध्यं इह वंचइत्ता अब्भागमितंमि वा दुहे अभविसु पुरा धीरा अविसु पुरा वि भिक्खवो अभिजुजिया रुद्द असाहुकम्मा अभुजिया णमी वेदेही अमणुग्ण समुप्पादं अय' व तत्त जलितं सजोति अति रति च अभिभूय भिक्खू अरति रति च अभिभूय भिक्खू अलूसए णो पच्छण्ण भासी अवि धूयराहिं सुहाहि अवि हत्थ-पादछेदाए अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी असूरिय नाम महाभितावं असंवडा अणादीय अरिंस च लोए अदुवा परत्था अस्सि सुठिच्चा तिविहेण तायी अह णं वतमावण्णं अह णं से होति उवलद्धो अह तत्थ पुणो नमयंती अह तं तु भेदमावन्न अह तं पवेज्ज बझं अह तेण मूडेण अमुडगस्स अह ते परिभासेज्जा अह पास विवेगमुठिए अह सेऽणुतप्पती पच्छा अहा बुइयाई सुसिक्खएजा अहावरं पुरक्खायं अहावरं सासयदुक्खधम्म 176 अहावरा तसा पाणा 174 अहियप्पाहियपण्णाणे 325 अहिगरणकडस्स भिक्खुणो 156 अहिमे संति आवट्टा 631 अहिाँ सुहुमा संगा 162 अहो य रातो व समुट्ठितेहिं 341 अहो वि मत्ताण विउट्टणं च 226 आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे 66 आघातकिच्चमाधातु 330 आघायं पुण एगेसि 486 आघं मइमं अणवीति धम्म 574 आदीणभोई विकरेति पावं 605 आमंतिय ओसविय वा 256 आयगुत्ते सया दंते 267 आतदंडसमायारा 410 आय न कुज्जा इह जीवितट्ठी 310 आसंदिय च नवसुतं 75 आसंदी पलियंके य 384 आसिले देविले चेव 565 आसूणिमक्खिरागं च 533 आहंसु महापुरिसा 281 आहत्तहिय तु पवेय इस्सं 255 आह्त्तहिय समुपेहमाणे 276 आहाकडं चेव निकाममीण 35 आहाकडं वा ण णिकामएज्जा 560 इंभालरासि जलियं सजोति 214 इच्चेयाहिं दिट्ठीहि 66 इच्चेवं पडिलेहति 256 इच्चेवं णं सुसेहं ति 604 इच्घेवमाहु से वीरे 51 इण मन्नं तु अण्णाणं 327 इणमेव खण वियाणिया W8 0 0 16 KG G WAPKNm Wii 0 162 457 227 451 225 557 576 483 208 mM m Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 : गाथाओं को अनुक्रमणिका सूत्राङ्क गाथा सूत्राङ्क 484 122 352 572 350 72 242 228 181 171 163 इति कम्मवियालमुत्तमं इतो विद्धसमाणस्स इथिओ जेणि सेवंति इत्थीसु या आरतमेहुणा उ इमं च धम्ममादाय इमं च धम्ममादाय इमं च धम्ममादाय इह जीवियमेव पासहा इहमेगे उ भासंति इहलोग दुहावहं विऊ इह संवुडे मुणी जाते इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं ईसरेण कड़े लोए उच्चारं पासवणं उच्चावया णि गच्छन्ता उज्जालओ पाण तिवातएज्जा उछितमणगारमेसणं उड्ढे अहे तिरियं च उड्ढमहे तिरियं वा उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु उड़दं अहे य तिरिय दिसासु उडुढं अहे य तिरियं दिसासु उत्तर मणुयाण आहिया उत्तरा महुरुल्लावा उदगस्सऽप्पभावेणं उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा उद्दे सियं कीतगडं उरालं जगओ जोयं उवणीतरस्स ताइणो उसिणोदगतत्तभोइणो उसियावि इतिथपोसेसु 164 एए गये विउक्कम्म 624 एए उ तओ आयाणा 615 एगंतकुडेण तु से पलेति 485 एगत्तमेव अभिपत्थएज्जा 223 एगे चरे ठाणमासणे 245 एताई कायाई पवेदियाई 528 एताई मदाई विगिच धीरे 150 एताणि सोच्चा णरगाणि धीरे 230 एताणवीति मेधावी 120 एते ओवं तरिस्संति 71 एते जिता भो न सरणं 362 एते पुवं महापुरिसा 65 एते पंच महब्भूया 455 एते भो कसिणा फासा 27 एते सद्दे अचायंता 386 एते संगा मणुस्साणं 104 एतेसु बाले य पकुब्वमा 507 एतेहिं हि काएहि 244 एतेहिं तिहि ठाणेहि 355 एतं सकम्मविरियं 474 एतं खु णाणिणो सारं 513 एयं खुणाणिणो सारं 135 एवं खु तासु विष्णप्पं 186 एयमढें सपेहाए 62 एयाई फासाई फुसंति बालं 364 एरिसा जावई एसा 366 एवं उदाहु निग्गंथे 450 एवं कामेसणं विदू 84 एवं ण से होति समाहिपत्ते 127 एवं तक्काए साहिता 128 एवं तिरिक्खे मणुयामरेसु 266 एवं तुब्भे सरागत्था एवं तु समणा एगे 477 445 Cx 266 442 348 218 460 148 570 351 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध गाथा सूत्राडू गाथा सूत्राङ्क 577 402 467 353 564 378 285 626 404 274 262 544 एवं तु समणा एगे एवं तु समणा एगे एवं तु समणा एगे एवं तु समणा एगे एवं तु समणा एगे एवं तु सेहं पि अपुट्ठधम्म एवं तु सेहे वि अपुट्ठधम्मे एवं निमंतणं लद्ध एवं बहुर्हि कयपुवं एवं भयं ण सेयाए एवं मए पुढे महाणुभागे एवं मत्ता महंतरं एवं लोगंमि ताइणा एव विप्पडिवण्णेगे एवं समुट्ठिए भिक्खू एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी एवं सेहे वि अप्पुळे एवमण्णाणिया नाणं एवमायाय मेहावी एवमेगे उपासत्था एवमेगे उ पासत्था एवमेगे उ तु पासत्था एवमेगे ति जंपति एवमेगे नियायट्ठी एवमेगे वितक्काई एवमेताई जंपंता एहि ताय घरं जामो ओजे सदा ण रज्जेज्जा ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं कंसु पक्खिप्प पयंति बालं कडं च कज्जमाणं च कडेसु घासमेसेज्जा कम्ममेगे पवेदेति 56 कम्मं च छंद च विविच धीरे 63 कम्म परिणाय दगंसि धीरे 206 कतरे धम्मे अक्खाते 524 कयरे मरगे अक्खाते 527 कहं च णाणं कह दंसणं से 582 कामेहि य संथवेहि य 562 कालेण पुच्छे समिय पयासु 203 किरियाकिरियं वेणइयाणुवाय 265 कुजए अपराजिए जहा 267 कुठें अगुरु तगरु च 301 कुतो कताइ मेधावी 142 कुलाई जे धावति सादुगाई 134 कुवंति च कारयं चेव 175 कुव्वं ति पावगं कम्म 210 कुव्वं संथवं ताहि 164 केई निमित्ता तहिया भवति 167 केसिंच बंधित्त गले सिलाओ 43 केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भाव 423 को जागति विओवातं 32 कोलेहिं विज्झति असाहुकम्मा 237 कोहं च माणं च तहेव मायं 233 खेयनए से कुसले आसुपन्ने 10 गंतु तात पुणोऽऽगच्छे 47 गंथं विहाय इह सिक्खमाणो 48 गंध मल्ल सिणाणं च 31 गम्भाइ मिज्जति बुयाऽबुयाणा 187 गारं पि य आवसे नरे 278 गिरीवरे वा निसहायताणं 583 गिहे दीवमपस्संता 333 गुत्तो वईए य समाहिपत्ते 431 घडिगं च संडिडिमयं च 76 चंदालगं च करंग च 412 चत्तारि अगणीओ समारभित्ता 576 207 308 377 446 0. irr 4 . 467 261 260 312 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 : गाथाओं की अनुक्रमणिका गाथा सूत्राङ्क गाथा सूत्रा 526 426 234 st 2 or i0 op M 161 236 371 204 चतारि समोसरणाणिमाणि चित्तमंतमचित्त वा चिता महंतीउ समारभित्ता चिरं दूइज्जमाणस्स चेच्चा वित्त च पुत्ते य चोदिता भिक्खुचज्जाए छंदेण पलेतिमा पया छण्णं च पसस शो करे छिदंति बालस्स खुरेण नक्क जइ कालुणियाणि कासिया जइ केमियाए मए भिक्खू जइ णे केइ पुच्छिज्जा जइ ते सुता लोहितपूयपाती जइ ते सुता वेतरणीऽभिदुग्गा जइ वि य कामेहि लाविया जइ वि य णिगिणे किसे चरे जइ वो केइ पुच्छिज्जा जं किंचि अणगं तात जं किचि वि पूतिकडं जं किच वक्कम जाणे जं जारिसं पुवमकासि कम्म जं मतं मुब्बसाहूणं जसि गुहाए जलणेऽतियट्टे जनुकुभे जोतिमुवगूढे जत्थऽत्थमिए अणाउले जदा हेमनमासमि जमतीतं पडुप्पण्णं जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जमिणं जगती पुढो जगा जययं विहराहि जोगवं जविणो मिगा जहा संता जसं कित्ति सिलोगं च जस्सि कुले समुप्पन्ने 535 जहा आसाविणि नावं 2 जहा आसाविणि नावं 338 जहा कुम्मे सअंगाई 200 जहा गंडं पिलागं वा 443 जहा ढंका य कंका य 201 जहा दियापोतमपत्तजातं 132 जहा नदी वेयरणी 136 जहा मंधादए नाम 321 जहा य अंधे सह जोतिणा वि 105 जहा य पुढवीथूभे 280 जहा रुक्खं वणे जायं 466 जहा विहंगमा पिंगा 323 जहा सयंभू उदहीण सेठे 307 जहा संगामकालंमि 106 जहाहि वित्त पसवो व सब्वे 67 जाणं काएणऽणाउट्टी 500 जाति च वुदि च विणासयंते 181 जातीवहं अणुपरियट्टमाणे 60 जाते फले समुप्पन्ने 425 जीवितं पिट्ठतो किच्चा 341 जुवती समणं बूया उ 630 जे आततो परतो यावि णच्चा 311 जे आवि अप्पं वसुमं ति मंता 273 जे इह आरंभनिस्सिया 124 जे इह सायाणुगा णरा 168 जे उ संगामकालंमि 607 जे एतं णाभिजाणंति 548 जे एय चरंति आहियं 62 जे एवं उंछं अणुगिद्धा 66 जे केइ बाला इह जीवियट्ठी 33 जे केइ लोगंसि उ अकिरियाया 458 जे केति तसा पाणा 52 386 271 553 564 151 146 206 or m" WN Who Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध गाथा सूत्राङ्क 586 546 465 567 588 152 131 101 जे ओहणे होति जगट्ठभासी जे ठाणओ या सयणासणे या जेणेहं णिव्बहे भिक्खू जे ते उ वा इणो एयं जे धम्म सुद्धमक्खंति जे धम्मलद्धं वि णिहाय भुजे जे भासवं भिक्खु सुसाधुवादी जे मातरं च पितरं च जे मायरं च पियरं च हेच्चा जे मायरं च पियरं च हेच्चा जे माहणे जातिए खत्तिए वा जे य दाणं पसंसंति जे य बुद्धा अतिक्कता जे य बुद्धा महाभागा जे याऽबुद्धा महाभागा जे यावि अणायगे सिया जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति जे यावि बहुस्सुए सिया जे रक्खसाया जमलोइयाया जे विम्गहीए अन्नायभासी जे विण्णवणाहिज्झोसिया जे सिं तं उवकप्पंति जेहिं काले परक्तं जेहिं नारीण संजोगा जो तुमे नियमो चिण्णो जो परिभवती परं जणं जोहेसु णाए जह वीससेगे झाणजोगं समाहटु ठाणी विविठाणाणि ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा डहरा वुड्ढा य पासहा डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे सूत्राङ्क गाथा 561 डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिते . 584 ण कम्मुणा कम्म खति बाला 456 णण्णत्थ अंतराएणं 14 ण तस्स जाती व कुलं व ताणं 625 ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेज्जा 401 पत्थि पुण्णे व पावे वा 566 प य संखयमाहु जीवियं 247 न य संखयमाहु जीवियं 385 ण वि ता अहमेव लुप्पए 403 ग हि णूण पुरा अणुस्सुतं 566 णाइच्चो उदेति ण अत्थमेति 516 जाणाबिहाइं दुक्खाई 532 णिक्किचणे भिक्खू सुलहजीवी 433 णिव्वाणं परमं बुद्धा 432 णिसम्म से भिक्खु समीहमलैं 113 णीवारमेवं बुज्झेज्जा 560 णीवारे य न लीएज्जा 65 णेयाउयं सुयक्खातं 547 या जहा अंधकारंसि राओ 562 को आवऽभिकखे जीवियं 144 गो काहिए होज्ज संजए 515 णो चेव ते तत्थ मसीभवंति 236 णो पीहे.णावऽवंगुणे 241 तं च भिक्खू परिणाय 166 तं च भिक्खू परिणाय 112 तं च भिक्खू परिणाय 373 तं मग्गं अणुत्तरं सुद्ध 436 तत्तण अणुसट्ठा ते 422 तत्थ दंडेण संवीते 375 तत्थ मंदा विसीयंति 60 तत्थिमा ततिया भासा 552 तमेगे परिभासंति 518 566 277 618 421 561 126 138 123 164 243 468 217 180 226 462 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 : गाथाओं को अनुक्रमणिका 467 गाथा सूत्राङ्क गाथा सूत्राङ्क 420 514 374 282 517 115 216 102 448 286 तमेव अविजाणता तमेव अविजाणता तम्हा उ वज्जए इत्थी तम्हा दवि इक्ख पंडिए तय सं व जहाति से रयं तहा गिरं समारंभ तहि च ते लोलणसंपगाढे तहिं तहि सुयक्खायं तिउति तु मेधावी तिक्खाहिं सूलाहिं भितावयंति तिरिया मणुया च दिव्वगा तिविहेण वि पाणि मा हणे तिव्वं तसे पाणिणो थावरे च तुन्भे भुजह पाएमु ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा ते एवमक्खंति समेच्च लोगं ते चक्खु लोगसिह णायगा तु ते णावि० न ते ओहंतरा ते णावि० न ते गम्भस्स पारगा ते णावि० न ते जम्मस्स पारगा ते णावि० न ते दुक्खस्स पारगा ते णावि० न ते मारस्स पारगा ते णावि० न ते संसारपारगा ते व कुव्वंति ण कारवेंति ते तिप्पमाणा तलसंपुड व्व ते तीत-उप्पन्न-मणागताई ते य बीओदगं चेव ते संपगाढंसि पवज्जमाणा तेसि पि तवोऽसुद्धो ते हम्ममाणा गरए पडंति थणंति लुप्पं ति तसंति कम्मी थणियं व सद्दाण अणुत्तरे तु थूलं उरभं इह मारियाण 61 दविए बंधणुम्मुक्के 521 दामट्ठयाए जे पाणा 257 दाणाण सेठं अभयप्पदाणं 106 दारूणि सागपागाए 111 दुक्खी मोहे पुणो पुणो 513 दुहओ ते ण विणस्संति 316 दुहओ पि ते ण भासंति 606 दुह चेयं सुयक्खा 612 दूरं अणुपस्सिया मुणी 336 देवा गंधव्व-रक्खसा 125 धम्मपण्ण वणा जा सा 163 धम्मपण्णवणा जासा 303 धम्मस्स य पारए मुणी 215 धुणिया कुलियं व लेववं 540 धोयणं रयणं चेव 545 नंदीचुण्णगाइं पहाहिं 546 न कुव्वती महावीरे 20 न तं सयकडं दुक्खं 22 न पूयणं चेव सिलोयकामी 23 न भिज्जति महावीरे 24 न य संखयमाहु जीवियं 25 न सयं कडं | अन्नेहिं 21 निक्खम्म गेहाउ निरावकखी 551 निक्खम्म दीणे परभोयणमि 322 नितिट्ठा व देवा वा 550 नो छादते नो वि य लू सएज्जा 522 नो तासु चक्खु संधेज्जा 332 पंच खंधे वयंतेगे 434 पंडिए वीरियं लद्ध 316 पक्खिप्प तासु पयति बाले 400 पण्णसमत्ते सदा जए 370 पण्णामयं चेव तबोमयं च 823 पत्तेयं कसिणे आया 626 26 578 614 Armwar Wc06 568 251 17 628 324 116 571 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध गाथा सूत्राङ्क गाथा सूत्राङ्क 275 326 461 पभू दोसे निराकिच्चा पमायं कम्ममाहंसु पयाता सूरा रणसीसे परमत्त अन्नपाणं च परिम्गहे निविट्ठाणं परिताणियाणि संकता पलिउंचणं च भयणं च पाओसिणाणादिसु पत्थि मोक्खा पागब्भि पाणे बहुणं तिवाती पाणहाओ य छत्तच पाणाइवाए वता पाणे य णाइवातेज्जा पाणेहि णं पाव विजोजयंति पाबाई कम्माई पकुव्वतो हि पासे भिसं निसीयंति पिता ते थेरओ तात पुच्छिंसु णं समणा माहणा य पुच्छिस्स हं केवलियं महेसि पुढे गिम्हाभितावेणं पुढे णभे चिट्ठति भूमिए ठिते पुट्ठो य दंसमसएहिं पुढवाऊ अगणि वाऊ पुढवी आउ तेउ य पुढवीजीवा पुढो सत्ता पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा पुढो य छंदा इह माणवा उ पुढोवमे धुणति विगतगेही पुत्त पिता समारंभ पुरिसोरम पावकम्मुणा पूतिकम्मं ण सेवेज्जा पूर्यफलं तंबोलंच बहवे गिहाई अवहट्ट 508 बहवे पाणा पुढो सिया 118 413 बहुगुणप्पगप्पाई 222 166 बहुजणणमणमि संवुडे 456 बालस्स मंदयं बितियं 436 बाला बला भूमि अणोक्कमंता पविज्जलं कंटइलं.... 342 34 बाला बला भूमि अणोक्कमंता पविज्जलं लोहपहं.... 331 447 बाहू पकत्तति य मुलतो से 363 बुज्झिज्ज तिउट्टज्जा 304 भंजंति णं पुबमरी सरोसं 345 454 भंजंति बालस्स बहेण पट्टि 340 232 भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा 406 426 भावणाजोगसुद्धप्पा 611 318 भासमाणो न भासेज्जा 367 भिक्खू मुयच्चा तह दिधम्मे 573 246 भूताभिसंकाए दुगुछमाणो 184 भूतेहिं न विरुज्झेज्जा 610 352 भूयाई च समारंभ 300 मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य 365 166 मणबंधहि णेगेहि 362 मणसा जे प उस्संति 176 मणसा वयसा चेव 416 444 महयं पलिगोव जाणिया 18 महीय मामि ठिते एगिदे 503 माइणो कटु मायाओ 415 381 मा एयं अवमन्नता 387 मातरं पितरं पोस 185 486 माता पिता ण्डसा भाया 376 माताहि पिताहि लुप्पति 55 मा पच्छ असाहुया भवे 146 68 मा पेह पुरा पणामए 511 माहणा खत्तिया वेस्सा 286 माहणा समणा एगे 263 माहणा समणा एगे 510 121 364 441 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: गाथाओं की अनुक्रमणिका गाथा सूत्राङ्क गाथा सूत्राङ्क 567 224 246 288 313 177 531 418 344 463 86 मिलक्खु अमिलक्खुस्स मुसावायं बहिन्द्ध च मुसं न बूया मुणि अत्तगामी मुहुत्ताणं मुहुतस्स राओ वि उठ्ठिया संता रागदोसाभिभूतप्पा रायाणो रायमच्चाय रुक्खेसु णाते जह मामली वा रुहिरे पुणो वच्चसमूसियंगे लद्ध कामे ण पत्थेज्जा लित्ता तिव्वाभितावेण लोगवायं निसामेज्जा वणंसि मूढस्स जहा अमूढा वणे मुढे जधा जंतू वस्थगंधमलंकारं वत्थाणि य में पडिलेहेहि वाहेण जहा व विच्छते विउटतेणं समयाणुसेटठे वित्त पसवो यातयो वित्त मोगरिया चेव विबद्धो णातिसंगेहि विरते गामधम्मेहि विरया वीरा समुटिठया विसोहियं ते अणुकाहयंते दुज्झमाणाण पाणाणं बुसिए य विगयगेही य वेतालिए नाम महभितावे वेतालियमग्गमागओ वेराई कुब्बती वेरी वेराणुगिद्धे णिचयं करेति सउणी जह पंसुगुडिया सएहि परियारह संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू 42 संखाय धम्मं च वियागरेंति 446 संखाय पेसलं धम्म 464 संखाय पेसलं धम्म 205 संडांसगं च फणिहं च 264 संतच्छणं नाम महब्भितावं 221 संतत्ता केसलोएण 166 संति पंच महन्भूता....आयछट्ठा 366 संति पंच महब्भूया""पुढवी 314 संतिमे तओ आयाणा 468 संघते साहुधम्म च 216 संपरागं णियच्छंति 80 संपसारी कयकिरिओ. 586 संबद्धसमकप्पा हु 45 संबाहिया दुक्कडिणो थणति 168 संवुज्झमाणे तु गरे मती म 283 संबुज्झह किं न बुज्झह 147 संबुज्झहा जंतवो माणुसत्त' 587 संलोकणिज्जमणगारं 158 संवच्छर सुविणं लक्खणं च 5 संवुडकम्मस्स भिक्खुणो 162 संवुडे से महापणे 526 संवुडे से महापण्णे 100 सच्चं असच्चं इति चितयंता 556 सत्थमेगे सुसिक्खंति 516 सदा कसिणं पुण घम्मठाण 85 सदा कमिण पुण धम्मठाणं 343 सदा जलं ठाण निहं महंत 110 सदाजला नाम नदी मिदुग्गा 417 सदा दत्त सणा दुक्खं 481 सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि 103 सद्दे सु स्वेसु असज्जमाणे 68 सपरिमाहा य सारंभा 601 सम अन्नयरम्मि संजमे 276 506 534 537 414 320 3 347 170 x 78 114 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 प्रवकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्राडू गाथा सूत्राङ्क 264 465 aur 248 356 357 समज्जिणित्ता कलुस अणज्जा समणं पि ददासीणं समालवेज्जा पडिपुण्णभासी समिते उ सदा साहू समूमित नाम विधूमठाणं मूसिया तत्थ विसूणितंगा इम्मिस्सभा सगिरा गिहीते सवणा-असणेण जोगे(ग्गेण सय तिवायए पाणे सचं दुक्कड च न वयइ सयंभुणा कडे लोए सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा सयं सयं पसंसता सयं सहस्साण उ जोयषाणु सन्चे जगं तू समयाणुपेही सव्व गच्चा अहिए सव्वप्पग विउक्कस्सं सव्वाई संगाई अइच्च धीरे सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं अचयंता सव्वाहि अणुजुत्तीहिं मतिमं सविदियाभिनिन्बुडे पयासु सव्वे सयकम्मकप्पिया सहसम्मुइए णच्चा साहरे हत्थ-पादे य सिद्धा य ते अरोगा य सीओदगपडिदुगुछिणो सीहं जहा खुद्दमिगा चरता सीहं जहा व कुणिमेणं सुअक्खातधम्मे वितिगिच्छतिष्णे सुतमेतमेवमेगेसि सुदं सणस्सेस जसो गिरिस्स सुद्ध मग्गं विराहिता 326 सुद्ध रवति परिसाए 261 सुद्ध अपावए आया 603 सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा 88 सुणि च सागपागाए 334 सुविसुद्धलेस्से मेधावी 335 सुस्सूसमागो उवासेज्जा 536 सुहमेणं तं परक्कम्म 250 सूरं मण्णति अप्पाणं 3 से पण्णसा अक्खये सागरे वा 265 से पब्बते सद्दमहपगासे 66 से पेसले सुहमे पुरिसजाते 575 से भूतिपण्णे अणिएयचारी 50 से वारिया इत्थि सराइभत्त' 361 से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए 476 से सव्वदंसी अभिभूय पाणी 157 से सुच्चति नगरवहे व सद्दे 36 से सुद्धसुते उवहाण च 408 सेहंति य णं ममाइणो 220 से हु चक्खू मणुस्साणं 505 सोच्चा भगवाणुसासणं 476 सोच्चा य धम्म अरहंतभासियं 160 हणंतं नाणुजाणेज्जा 424 हण छिदह भिदह गं दहह 427 हत्थऽस्स-रह-जाणेहि ___74 हत्थीसु एरावणमाहु गाते 130 हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं 462 हम्ममाणो न कुप्पेज्जा 254 हरिताणि भूताणि बिलंबगाणि 475 हा पिणो संधये पावधम्मे 266 हुतेण जे सिद्धिमुदाहरति 365 होलावाय' सहीवाय 525 317 0 m Mmm your mx mm or mr or ur m or ov 2 150 dur 512 305 Mn. A GM Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 विशिष्ट शब्द सूची 572 विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क अओकवल्ल 314 अखेतम्ण (अक्षेत्रज्ञ) 522 अकक्कस (अकर्कश 602 अगणी 310, 312, 337, 381, 385-387, 398 अकटछा (अकाष्ट) 337 444, 503 अकम्म 412 अगार 16, 120, 160, 166, 277 अकम्मविरिय 416 अगारबंधण 210 अकम्मणा 546 अगारि (अगारिन) 352, 587 अकम्मंस 36 अगारिकम्म अकसायि (इ) 356, 578, 600 अगिद्ध 76, 408, 471 अकामग 158 अगिलाए 223, 245 अकारओ 13 अगुरु 285 अकासी (सि) 67, 114, 118, 346 अगोत्त (अगोत्र) अकिरिया 488, 535 अम्ग 145, 218 अकुसील 464 अचयंता (अशक्नुवत्) 201, 202, 220 अकोविया 38, 45, 46, 61, 208, 536 अचाइय ( , ) 176, 581 अकोहण 484 अचायंता ( , ) अक्कोस 221 अचित्त अ (क)तदुक्खा (अकान्तदुःखा) 84,505 अचेल अक्ख 133 अच्चिमाली अक्खक्खय 410 अच्चुट्ठिताए 587 अक्खय (अक्षत) 359 अजरामर 460 अक्खाय(त) 145, 266, 437, 467,600 अजाणग (अजानत्) 175 अक्खायारो 72 अज्ज (आर्य) अक्खिराग (अक्षि-राग) 451 अज्जिणत्ता (अर्जयित्वा) 346 अखिल 408 अज्झत्थदोसा (अध्यात्मदोषाः) 377 171 456 148 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 533 117 546 अज्झत्थविसुद्ध 266 अणाणुवादी अज्झप्प (अध्यात्म) 426 अणाणुवीयी (अननुबीचि) अज्झप्पजोगसुद्धादाण 636 अणादीय 75 अज्ञप्पसंवुड (अध्यात्मसंवृत) 122 अणायग अझंझपत्ते (अझञ्झ-प्राप्त) 562, 563 अणारिय 37, 40, 56, 178, 233, 237, 524, अट्ट (आर्त) 476, 460 527 अट्टतरं (आर्ततर) 324 अणारंभ अट्टस्सर (आर्तस्वर) 324 अणाविल अट्ठ 36, 126, 442, 538, 560, 576, 566 अगाविलप्पा अट्ठदुग्ग 301, 481 अणासणादि अठ्ठदंसी 603 अणासयत) (अनाशय) 363, 617 अट्टपओवसुद्ध 380 अणासव (अनास्रव) 520, 585 अठवण 363 अणासिता अनशित) अट्ठाण 365 अणिएयचारि 357, 408 अट्ठाणिए (अस्थानिक) 556 अणियाय अट्ठापद 453 आणिया (दा) 163, 635 अलैंग (अष्टांग) 543 अणियाणभूत 473 अणगार 104, 254, 256, 273, 276, 268, 424 अणिन्वुड अणगं (ऋणक) 186 अणिस्सित 117, 471, 635 अणज्जधम्म (अनार्यधर्म) 386 अणिह (अस्निह) 101, 140, 428 अणज्जा 326 अणीतित 422 अणठे 578 अणु 428 अणण्णणेया (अनन्यनेया) 550 अणुक्कमण 347 अणन्नो 17 अणुक्कस अणवज्ज 56, 374 अणुगम्म 560 अणाइल (अनाविल) 356, 600, 618 अणुगामि अणाउट्टी (अनाकुट्टी) 52 अणिगिद्ध 258 अणाउल 124, 578 अणुजुत्ति (अनयुक्ति) 220, 505 अणाऊ (अनायुष्) 356, 380 अणुतप्प 256, 462 अणाउइ 554 अणुत्तर 134, 138, 164, 356-358, 363, आणागत(य) 115, 163, 206, 238, 502, 532, 367, 370, 468, 626, 627 538, 543 अणुतरगं 368 अणाणुगिद्ध (अननुगृद्ध) 571 अणुत्तरदंसी 164 77 45 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची 346 2, 3, 17, 29, 30 इत्यादि 283, 456, 446, 515 114, 258, 565 44, 64, 535 43, 44, 378 407 56 163 216 430 532 विशिष्ट व सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द अणुतरनाणी 164 अणंतदुक्ख अणुधम्म (अनुधर्म) 102 अणंतपार अणुधम्मचारि 135, 162 अणंतसो अणुन्नए 636 अण्ण (न्न) अणुपस्सिय (अनुदृश्य) 115 अण्णपाण (अन्नपाण) अणुपाणा 66 अण्णयर (अण्ण (ब)तर) अणुपुत्व 155, 501 अण्णाण (अज्ञान) अणुपुवकड 626 अण्णाणभयसंविग्म अणुप्पदाण (अनुप्रदान) 456 अण्णाणिय अणुप्पिय (अनुप्रिय) 406 अण्णातपिंड (अज्ञातपिंड) अणुभव 26 अतह (अतथ्य) अणुभास 42, 546 अतारिमा अणुवज्जे 246 अतिकंडुइतं अणुविति (वीति, वीयि) 461,473 अतिक्कम (अनुवित्रिच्य) 553, 605 अतिक्कता अणव्वसा (अनुवश) 213 अतिदुक्खधम्म अणुराछ 217 अतिपास अणुसास 44, 146, 586, 616 अतिमाणं अणुसासण (अनुशासन) __66, 617 अतियट्टे अणुस्सुओ (अनुत्सुक) 466 अतिवट्ट (अतिवृत्त) अणुस्सुत 135, 141, 228 अतिवात (अतिपात) अलिस 352, 520, 608, 618,616, 625 अतिवाय असणं 506, 573 अत्तगामी (आत्मगामी) अणेसणिज्ज 450 अत्तत्ताए अणोवदग्ग (अनवदन) 540 अत्तदुक्कडकारि अणोवसंखा (अनुपसंख्या) 538 अत्तपण्णेसी (आत्मप्रषी) अणोसिते (अनुषित) 583 अत्तसमाहिए अणंत 27, 40, 63, 81, 351 अत्त वमायाए अणंतग 163 अत्थ (अर्थ) अणंततं 560 अत्थमिय (अस्तमित) अणंतचक्खू 357, 376 अदत्तहारी अणतणाणदंसी 460 अदिण्णादाणाइ अणंतणाणी 354 अदिण्णं 311, 320, 336 81, 82 472, 530 311 276 477 414, 635 210, 528 418 466 222 526 560, 605 124 243 426, 474 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47.4 सूत्रकृताङ्क सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क अदिन्नादाण 232 अप्पभाव अदुवा 3, 28, 46, 47, 83 इत्यादि अप्पमत्त 466, 552 अदूर 405 अप्पमायं 413 अदूरगा(या) 162, 346 अप्पलीण 77 अदक्खुर्दसण. 153 अप्पा 13, 127, 165-167, 251, 325, 463 अद्दक्खुव (अदृष्टवत्) 153 अप्पियं. 260, 476, 578 : अंहक्खू 144 अप्पुळे 167 'अद्धाण (अध्वन्) 46 अप्पोदए 'अधम्म 47 अप्पं 231, 435 'अन्नत्थ 280, 363 अबल 147, 206 अन्नमन (अन्योन्य) 4, 212, 213, 454 अबुज्झ अन्नहा 73, 384 अबुद्धिया अन्नायभासी 562 अबुह (अबुध) 52, 165 'अन्नोन्नं 136 अबोहिय 43, 143 अपडिण्ण (अप्रतिज्ञ) 130, 217, 370, 473, 626 अब्भक्खाण (अभ्याख्यान) अपत्तजात 581, 582 अभय अपराजिए 133 अभयप्पदाण 374 अपरिग्गह 78, 350 अभयंकर 376, 408 अपरिच्छ (अपरीक्ष्य) 564 अभिक्खणं 246 अपरिमाण 82 अभिगच्छ 54, 586 अपस्ममाण (अपश्यत) 561 अभितवणाई अपस्संता 238, 470 अभितावा 'अपारगा 213, 548, 586 अभिदुत 160, 221 अपावय 70, 71 अभिनिव्वुड 100. 106, 435, 476 अपुठ्ठधम्म (अपुष्टधर्मा) 582, 592 अभिनूमकड अपुट्ठवं (अस्पृष्टवत्) 62 अभिपत्थएज्जा 484 आपगं 146, 206, 267 अभिपातिणी 332 अप्पगंऽसुक्कं 367 अभिभूय 356, 486, 574 .अप्पणो (णा) 3, 44, 48, 175, 423, 425, अभियावन्ना 265 553, 635 अभियागम (अभ्यागम) अप्पत्तिय (अप्रीतिक) 36 अभिहड 215, 218 अप्पथाम (अल्पस्थाम) 147 अ जमाण अप्पपिंडासि 435 अभुजिया 267 402 226 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची विशिष्ट शब्द 181 अन्भत्थ अमणुष्ण (अमनोज्ञ) अमाधणसमुप्पाद अमणुस्स अमतीमता अमाइरूवे अमिलक्ख अमुच्छित अमुसे (अमृषा) 38 अमूढ अमोक्खाए अयमंजू अयहारि अयोधण अयोमुह सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्रात 126 अवणीयमच्छर 156 463 अवर (अपर) 65, 70, 413, 504 66 अवस 622 अवहट्ट (अपहृत्य) 263 240 अवहाय (अपहाय) 134 562 अविओसिए 561 42 अवितिष्ण (अवितीर्ण) 465 अवियत्ता (अव्यक्ता) 484 अवियत्तं 586 अविहिंसा 102 560 अवंगुणे 123 231 अब्वत्त 48 अव्वत्तगम 581 231 अब्ववी 301 340 असच्चं 537 335 असज्जमाण 407,482, 556 330, 334 असण 130, 404 486, 574 असद्दहाणे 634 असमण 188 373 असमाही 128, 261 188 असमिक्खा 217 306, 337 असम्मत्तदंसिणो 164 असासत(य) (अशाश्वत) 66, 554 316 असाहु 128, 146, 537, 560 216 असाहुकम्मा 308, 313, 332, 338, 341 74 असाहुधम्म 566 148 असित (असिक) '88 116, 605 असुभत्तं 421 168, 284 असुद्धं 432, 434 361 असुर 63 206 असूरियं (असूर्य) 310 266 असेयकरी 106, 236 असेसकम्म -368 अयं 432 अरति अरतिरति अरविंद अरह (अरहस्) अरहस्सरा अरहा अरहिताभितावा अस्यस्स अरोग अलद्ध अलूसए अलंकार अलंभो अवकप अवकर अवकंख Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असो 503 असं 527 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क असेहिय (अस द्धिक) 26 आउखेम 67 आउजीवा 16 आऊ 7, 18, 381, 357, 444 असंकिणो 33, 34, 37 आएस असंकितभाव 601 आगती 156, 574 असंकिय(त) 33, 37 आगाढपण्णे (आगाढप्रज्ञ) 566 असंति 557 आगास असंथुया 536 आगासगामी असंवुड 75, 68, 108 आमंता अस्संजय 56, 374, 389 आगंतारो अस्सिं 384, 565, 610 आगंतु 58, 60, 277, 526 अहगं 272 आघातकिच्चं 440 अहातच्चं 437 आघं (आख्यातवत्) 473 अहाबुइयाई 604 आजीव अहावरं 51, 327, 504 आजीवगं अहासुतं 353 आण 385, 386, 401, 403, 404 आणप्पा अहिगरण 126 आणवय 253 अहिगरणकड 126 आणा 462 अहिट्ठय 157 आणीलं (आनील) 286 अहियपण्णाण 36 आणुपुटवी 255 अहियप्पा 36 आणुभाग अहियं 146 आततो 552, 553 अहिंसिया 84 आतदंडसमायारा 178 अहे 35, 244, 246, 308, 310, 355, 474, आत(य)भाव 556, 577 507, 563 आतसा 252 अहेउय 17 आत(य)सात 385, 384 अहो 73, 304, 334, 344, 460, 558 आतहित 262 आइक्ख 271, 496, 564 आतिएज्जा 406 आइच्चो (आदित्य) 541 आदाण 447, 560, 635 आइट्ठो (आदिष्ट) 265 आदाणगुत्त 556 आउ 238 आदाय आउख(क्ख)य 60,14, 360, 460 आदिए 288 अहाहु 262 223 426 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सूची 477 विशिष्ट शब्द सूत्राडु विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 126 आदिदित्ता 540 आरतो आदिमोक्खं 402,615 आरा 440 आदीणभोई (आदीनभोजी) 478 आरहि 621 आदीणियं (आदीनिक) 301 आरिय 230, 423, 468 आदेज्जवक्क 606 आरुस्स 326 आदंसग 288 आरं आमंतिय 252 आरंभ 38,61,110,116, 210, 417, 471 आमलगाई 287 आरंभणि (नि)स्सिया(ता) 10, 14, 151,438 आमिसत्थ (आमिषार्थ) 62 आरंभसत्ता 488 आमोक्खाए 88,224, 246, 266, 436 आरंभसंभिया आयगतं 276 आरंभी आय(त)गुत्त 400, 431, 512, 520 आव आयछट्ठा (आत्मषष्ठ) 15 आवकहा (यावत्कथा) आयताण 366 आवरे आयतुलं 154, 475 आवस 120, 155, 326, 553 आयदंड 151, 382, 386 आवसहं (आवसथ) 261 आयपण्णे (आत्मप्रज्ञ) 584 आवह आयपरं 157 आसण 122, 127, 250 आयरिय (आचरित) 404 आसव आयवायपत्ते 637 आसाविणि आयसायाणुगामिणो 415 आसिले आय(त)सुहं 303, 388 आसिसाबाद (आशीर्वाद) 568 आयहिय(तं) 140, 163 आसु 273 आया 11, 15, 70, 86, 430, 517, 566 आसुपण्ण (न्न) 301, 354, 358, 376, 583 आयाए 356 आसुर आयाणा 53, 54 आसुरिय 151 आयाय 423 आसूणि (आशूनी) आयु 576 आसंदियं 262 आयं 475, 482 आसंदी (आसन्दी) आर 66 आह 1, 67, 161 आरणगा 16 आहडं 450 आरतमेहुणा (आरतमैथुन) 485 आहत्तहियं (याथातथ्य) आरत(य)मेहुण 247, 617 आहाकडं 480,483 407 58, 526 227 451 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 451 इंति सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क आहारदेहाई 388 उच्छोलण आहारसंपज्जणवज्जण 362 उज्जया इंखिणी 111, 112 उज्जला 174 इंगालरासि 306 उज्जाणं 201, 202 62 उज्जाल 386 358, 380 उज्जु (ऋजु) 467 इंदिय 140 उड्ढं 144, 244, 310, 355, 474, 507, इच्छ 58, 277, 526 उण्ह इट्ठ 326 उत्तम 134, 164 इत्तरवास (इत्वरवास) 150 उत्तमपोग्गल 571 इत्ताव ताव (एतावत् तावत्) 504 उत्तमबंभचेर 374 इत्थिपोस (स्त्री-पोष) 266 उत्तर 135, 186 इथिवेदखेतण्णा 266 उत्तरीए 622 इत्थी 180, 198, 203, 207, 247, 250, 254, उदग 61, 62, 207, 225, 226, 257, 258, 270, 273, 280, 261, 376, 402, ___306, 364, 365, 366 446, 480, 485, 614, 615 उदर 328 इत्थीदोससंकिणो 261 उदराणुगिद्ध 404 इत्थीवस 233 उदहि 371 इत्थीवेद 266 उदाहर 116, 123, 364, 365, 368 इसी (ऋषि) 373 उदिण्णकम्मा 317 इहलोइय 406 उद्देसिय इहलोग 120 उद्धर 328, 433 उप्पध ईसर 65 उप्पाइयं 543 ईहियं 60 उब्भिया उंछ 156, 258 उम्मग्गगता (उन्मार्गगता) उक्कस (उत्कर्ष) 57 उम्मद 282 उक्कास 136 उम्मुक्क 236, 420, 470 उग्गपुत्त 566 उराल (उदार) 84, 466, 483 उग्गहं 446 उवज्जोती उच्च 572 उवट्ठाण उच्चार 455 उवधा(हाणवीरिय 122, 140, 157, 531 उच्चावयं 27, 485, 533 उवसांग 125, 224, 246, 464 450 46 525 272 سی Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2. विशिष्ट शब्द सूची 476 विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 405 उवहाण (उपधान) उदहाणव उव हि (उपधि) उवागत उवायं (उपाय) उसिणोदगतत्तभोइ उसिया (उषित) उसीर (उशीर) एगचरं एगचारी एगता एगतियं एगत्त एगपक्ख एगविऊ एगाइया एगायते एगो 202 ओघ 242 366, 606 ओज 278 137 ओदरियाणुगिद्ध 36 ओमाण (अवमाण) 76 248 ओमुद्धगा (अवमूर्द्धक) 345 128 ओरम 266 औरस (औरस्) 441 285 ओवायकारी 562, 580 254 ओसवियं (उपशमिय) .252 574 ओसाण (अवसान) 583 250, 260 ओह (ओघ) 548 254 ओदंतरा 20, 357 484 अंकेसाइणी 274 536 अंजणसलागं 287 636 अंजणि 284 347 अंजू (जु) 48, 83, 437, 473 343 अंडकड 67, 550 348 अंत 616, 620, 621, 623, 631 341, 361 अंतए 116, 211, 521, 608, 620 344, 565 अंतकरा 567, 621 350, 562 अंतकाल 304 336, 346, 361 अंतग 410, 443 574 अंतरा 58, 425, 526 151 अंतराय 465 478 अंतलिक्ख 343 352 अंतवं 72 अंतिए 468 372 अंदू 218 अंध 46, 396, 542, 561 104, 573 अंधकार 506 अंधतमं 438 कक्क (कल्क) 255, 600 कक्कुहयं 247 एम एगतकूड एगंतदिट्ठी एगंतदुक्खं एगंतमोणेण एगतलूसगा एगंतसमाहि एगंतहिय एताणुवीति एरावण (ऐरावण) एरिसा (ईदृशा) एसण एसणासमिय एसिया 320 561 310 ओए Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 585 468 कक्ख 246 कलह 634 कच्चंताण 516 कलुण विणीय 253 कच्चंती 242, 440 कलुणं 306, 311, 330, 334, 336, 338 कज्जमाण 431 कलुसाधम 523 कट्ठसम स्सिता 387 कलुसाहमा 524 कड 26, 30, 65, 66, 68, 76, 32, 133, 134, कलुस (कलुष) 153, 215, 275, 325, 431, 510 कलंबुयावालय कण्ण (कर्ण) 321 कस 102 कण्णणासियाछेज्जं 268 कसायवयण 176 कत्थ (कुत्र) 602 कसिण 6, 11, 181, 320, 326, 336, 464, कप्प 256, 511, 606 527, 541 कम्पकाल ___ 75 कहं (कथम्) 482 कम्म 5, 55, 62, 66, 103, 153, 187, 266, कहकहं 270, 274, 302, 325, 327, 346, 367, काम 6,64, 144, 146, 148, 150, 203, 237 410, 412, 413, 420, 440, 446, 477, 260, 276, 266, 402, 407, 436, 458, 546, 577, 612, 613, 628 कम्मचितापण 51 कामभोग कम्मत्ता 170 काममुच्छ्यि कम्ममलं 366 कामी 148 कम्मवियाल 164 कामेसण 148 कम्मसह 64 काय 52, 110, 246, 268, 382, 445, कम्मी 400, 440 466, 504, 508, 547, 616 कम्मुणा 546, 616 कायवक्क कम्मोवगता 316 काल 64, 114, 236, 351, 564 कयकिरिए 138 कालमाकखी 534 कयकिरिओ 452 कालातियारं कययुव 265 कालुणिया (कारुणिक) 105, 160 कयाइ 68, 455, 456 कासव 117,135, 162, 165, 223,245, 301, कर 126, 136, 156, 264, 274, 275, 302, 358, 501, 528, 627 308, 331, 342, 347, 455, 467, 477, कासवर्ग 283 478, 476, 481, 482, 516, 588, 605, कासिय 623 कासी 265 करग 260 काहि 445 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शन्द सूची विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्रा 313 312 177 300, 564 किंचण किडु (क्रीडा) किती कित्ति किब्बिसिय किमी किरियवाद किरियाकिरिय(रीणं) किरियावाइदरिसणं किरियं किवण(कृपण) किह (कथम्) कीडापदोस कोतगड कीव (क्लीव) कीस (कस्मात्) कुओ (तो) कुभी कुकम्मि कुजए कुळे कुणिम (कुणप) कुद्धगा मिणी 280 177 342 308 467 562 286 561 41,85 कुहाडहत्था 465 कूड (कूट) 217 कूरकम्मा 458 केयण (केतन) 75 केली 316 केवलिय 555 केवली 378,489 केस 51 केसलोय 535, 538, 542 कोट्ट 146 कोल 66 कोलाहल 70 कोविय 450 कोस 181, 163 कोहणे 163 कोहाकातरियादिपीसणा . 14, 44, 234, 236, 626 कोहं 323 कंक (कांक्ष) 368 कंखा (कांक्षा) 133 कंखा(कांक्षा) 285 कंटइलं (कण्टकित) 254, 326 कंटग 180 कंठच्छेदणं 360 कंडूविणटुंगा 256 कंत 365, 526 कंदू 4, 257, 403, 404, 567 खज्ज 523 खण 102 खणजोगिणो 394,536, 606 खणं 258, 263 खत्तिय 385 खत्तीण 406 खव (क्षय) 377, 531, 635 62, 523, 524 305, 351, 406, 410 620 342 257 268 174 कुमारा कुमारी 333 333, 335, 346 260 17 कुल कुलला कुलिय कुसल कुसील कुसीलधम्म कुसीलयं 161 168, 196, 438, 566 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 सूत्रकृताङ्ग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध विशिष्ट शब्द 150 खवितरया खार खारगलणं (क्षार गालनं) खारपदिद्धितंगा खारसिंचणाई खिप्प (क्षिप्र) खुड्डु (क्षुद्र) खुडग खुड्डमिगा खुड्डिय खुरासिय ग्वेयन्न (खेतण्ण) खोतोदय खंत खंध गर्ति गद्दभा गभ सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्रा 164 गिद्ध 14, 203, 260 363 गिद्धनदा 286 गिद्धि 423, 482 322 गिद्ध बघायकम्मग 451 267 गिम्हाभिताव 166 425 गिर 576 गिरि 363, 365 286 गिरीवर 462 गिलाण 212, 215, 223, 245, 336 184 गिहि 218 307, 321, 620 गिहिमत्त (गृह्यमत्र) 328 गिहं 181, 187, 203, 263, 430, 487 354, 616 गिहतर 457 371 गुण 182 435 मुत्त 157,487 17 गुत्ती 584 572 गुलिय (गुलिका) 226 गुरु 22, 27 गुहा . 10 गेह 466 360 मेहि 407 186 गोतण्णतरं 111 203 गोते 562 575 गोतावायं 372 गोते 566, 566 147 गोयमयं 571 311, 320, 336 गोरहगं (गोरथक) 260 316 गंगा 465 गंड 234 171, 512, 573 गंथ (ग्रन्थ) 6, 580 135, 526 गंथातीत 356 155, 403 गंध 283, 370, 446, 556 472, 568 गंधव्व 63, 547 264 142 'गब्भत्था गब्भाइ गमे गय गरहिया गरुल गवं (गो) गाढोवणीयं गाई गामकुमारियं (ग्राम कुमारिकी) गाम गामधम्म (ग्राम्यधर्म) गार 372 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची 483 विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक घडदासिए (घटदासी) घडिग (घटिका) घम्मठाणं घर घास (ग्रास) घोररूव चक्कं चक्खु (क्खू) चक्खुपह चक्खुमं चतुरंत चयं चरग (चरक) चरिया (चर्या) चरिया-ऽऽसण-सेज्जा चारि चित चित्तमंतं (चित्तवत्) चित्तलंकारवत्थगाणि चित्ता चित्तं चिरद्वितीया चिररायं (चिररात्र) चिरं चेलगोलं चोरो 587 छत्तोवाहण 286 261 छत्तं 454 311, 320, 336 छन्नपद (क्षणपद) 248 106,187 छलायतण (षडायतन) 76 छहि 445 302 छावं (शाव) 582 620 छए (छेक) 580 251, 546, 562, 620, 626 छंद 132, 486, 577 354 छंदाशुवत्तग 142 616 जग(गा) 67,84, 62, 400, 476, 526, 610 351 जगट्ठभासी 475 जगती 62,526, 532 124 जगभूतिपण्ण 466 जगसव्वदंसि 86 जच्चणीए (जात्यान्वित) 176 जणा 20, 25, 57, 104, 112, 142, 170, 270 186, 380, 460, 615 2 जणोववात 554 271 जती 338 जतुकुंभ 272, 273 56 जमतीतं 607 306, 332, 335,337,348 जमलोइयाया 547 151 जम्म 23 200 जम्मकाह 625 261 जरगव 176 जराउ(जरायुज) 381 438 जराऊ(,) 444 370 जरित 370 जल 337 260 जलण 87, 311 518 जलसिद्धि 504 जलं 337, 611 136, 462 जविण (जविन्) 33 202 चंडाल चंद चंदण चंदालगं चंदिमा छक्काय छण्णं (न्न) 367 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 सूत्रकृताङ्ग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक w . जसो (यशः) जसं जसंसि (यशस्विन्) जहातहेणं जाणगा(या) जात(य) जाता जातिअंध जाति(ती) जाति-जरा-मरण जाति-जाती जातीवहं जामु जामो जायणा जारिसं जाल जावते जिई(ति)दिय जिण जिणवयण जिणवर जिणसासणपरम्मुहा जिणाहितं जिणोत्तम जित जिभं जिया जीव जीवकाय जुतीमं (धु तिमत्) जुत्त (युक्त) जुवती (युवति) 365 जुबाणगा (युवक) 360 458 जेतं 165, 166 354 जेहि 318, 327, 353 जोग 250 18, 217 जोगवं 71, 161, 263, 486 जोति 273, 542 260, 406 जोतिभूतं 58, 526 जोतिमज्झ 338 386, 554, 566, 567, 613 जोय 84 160 जोयण (योजन) 361 383 जोवणं (यौवन) 238 383 जोह (योध) 187 जंतू(तु) 45, 46, 64, 361, 502, 574 187 झाण 522, 523 170 झाणजोग 436 346 झाणवरं 614 झीण (क्षीण) 77 झुझिय 172 431, 466, 512 टंकण 221 161, 358, 437 ठाण 28, 75, 87, 63, 122, 337, 378, 562 422, 512, 584, 621, 625 164 ठाणी 422 233 ठितप्पा (स्थितात्मा) 356, 478, 636 442 डहर 10,104, 552, 586, 587 27 ढंक 62, 523 76 ढंकादि 581 321 णक्खत्त 518 28, 30 णगसव्वसेट्ठ 387 गिद 504 णण्ण कडं 545 346 णभ 157, 326, 330 णमी (नमि) 271 णय mm 226 . Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सुची 485 विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक ण(न)र 31, 270 637 531 372 482 457 304 485 304 277, 618 141 253 550 358, 561 106, 421 परगा णाग णागणिय णाणसंका णाणाविह णाणी णाणं (नाणं) णातयो(ओ) णाती(तिणं गाते णादिए णायएहि णायपुत्त णायगा मारंभी णालिय जालं णावा (नावा) णास णितो णिक्किचणे णि (नि)गंथ णिचय णिच्चणिच्चेहि णिच्चं णिच्छवत्थ णिज्जंतय णितिय (नित्य) णिभयं णिय (निज) णियते(ए) 4, 74, 63,68, 108, 117, 146 णियय 155, 360, 470, 463, 621 णियागपडिवण्णे 300,350 णिराकरे 371 णिन्वाणवादी 401 णिसम्मभासी 556 णिसिज्जं (निषद्या) 26 णिसं (निशा) 85, 268, 356, 375, 506 णिस्संसय 41, 43, 353, 368, 366, 544 णिहोणिसं 158, 161 णीवार 180,260 णूण 366, 372, 373 णेग 426 णेतारो (नेतारः) 422 ता(या) 164, 372, 375 णेयाउयं 546 यारं 445 रइए 454 णेनि)व्याण 44, 441 अंतकरे 58, 308, 526, 611 पहुसा (स्नुषा) 273 तउ 46 तओ 568 तक्क 257, 460, 632, 633, 637 तगरु 481 तग 355 तच्छ 506 तच्छिय 43 तज्जातिय 586 तणफास 81 तणाइफास 254 तणं 116 ततिया 217, 541 ततजुग 314 54, 244 583 441 324 46, 576 285 586 u or 267 266 176 123, 381, 444, 503 462 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 सूत्रकृतांङ्ग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक 308 326 7, 18 तत्ततवोधण तत्थं तप्प तब्भावादेश तम तय (त्वक्) तयो तरुण तलसंपुड तव तवस्सि (स्सी) तवोमयं तवोक्हाण तसथावरा तहच्चा तहागय(त) तहाभूत तहावेदा तहिया ताइ(ई)(यी) तात(य) तारा तारागण तारिसं ताल तिक्ख (तीक्ष्ण) तिक्खसोता तिगंड तिमिसंधयार तिरिक्ख (तियंच) तिरिया ( 1 ) तिरयं (तियंव) 225 तिलगकरणि (तिलककरणी) 287 118 तिलोगदंसी 565 342, 357 तिव्बभिवेदणा 315 413 / तिव्वाभिताव 216, 302 14, 175, 357 तिव्वं 10,45, 65, 303 111 तिसूलिया (त्रिशूलिका) 341 तीत 115 150, 237, 581 तीरसंपत्ता 611 322 तुच्छए 374, 407, 434, 564 तुट्ठ (तुष्ट) 103, 104, 484 तेऊ (तेजस्) 571 तेजपुठ्ठा 172 371 तेय 133, 267 507, 514, 577 तेल्लं 285 563, 624 तंबतत्त 324 128, 550, 558, 626 तंबोल 256 281 थाम (स्थामन्) 526 264 थावर 83, 244, 303, 355, 383, 366, 544, 600 474, 507, 563 127, 134,485, 565, 605 थिमित 235, 236 183-184 थिर 328, 586 370 थूलं 326 226 थेरओ 205, 427 थेरगा 64 थंडिल्लुस्सयण 447 321, 336 दक्खुवाहित 153 307 दग 227, 235, 236, 364 361 दगरक्खस 365 302 दगसत्तघाती 351 दगाहरणं 287 125 द? (ठु) 152, 260, 261, 361, 400 210, 244, 310, 355, 474, दढधम्म 165 507, 563 दढे 184 360 367 . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सूची 487 विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक दवि 301 376 दाण 436 दार दत्त सणा 76, 170, 506, 534 दुक्कडकम्मकारी 327 दरिसण 16 दुक्कडिणो 344 106 दुक्कडियं दविओवहाणवं 103 दुक्कडं 264, 265, 315 दविय 105, 114, 256, 420, 583, 564, दुक्ख 315 632, 633, 635-637 दुक्खखयठ्याए 305, 387 दुक्खफासा 417 374, 516 दुक्खविमोक्खया 32 दाणट्ठाए 514 दुक्ख विमोयगा दाणि 200 दुक्खि(क्खी) 63, 154, 315, 346 123 दुक्खं 2, 10, 24, 26, 28, 26, 46, दारगं 264 66, 143, 170, 348, 408, दारुण 126 406, 476, 525, 545, 623 दारूणि 282 दुगुणं 275 दावरं 133 दुण्णिबोह 631 दास 262, 265 दुष्णियाई 384 दासी 256, 261 दुत्तरा दिधम्मे 573 दुत्तर 467 दिठ्ठिमं 224, 246, 604 दुपक्ख 60, 214, 536 दिट्ठी (ट्ठि) 57, 216, 604 दुपणोल्लिया (दुष्प्रणोद्य) 170 दिळे (ट्ठ) 176, 366 दुप्पतरं 310 दियस्स (द्विजस्य) 582 दुब्बल दियायोत (द्विजपोत) 581 दुब्भगा 170 दिवि 358 दुभि 486 दिव्वमा 125 दुन्भिगंध 326 दिव्वयं 133 दुमोक्खं (दुर्मोक्ष) 548 दिसा 151, 305, 310, 355, 474, 563 दुम्मति 48, 525 दिस्स(स्सा) 183, 206 दुरहियासया 405, 476 दुरुत्तर 16, 182 दीव 355, 470, 516 दुरुद्धर 121 दीवायण (द्वैपायन) 227 दुरूवस्स 316 दीहरायं (दीर्घरात्र) 378 दुरुवभक्खी (दूरुवभक्षिन्) 316 दोहा (दीर्घा) 308 दुल्लभ 623, 624 240 201 दीण Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 सूत्रकृताङ्ग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक hom the two to देह दोण्ह दुल्लभा 89 धम्मविऊ दू) 20, 25, 637 दुहावह 120 धम्मसार 424 दुहावास धम्माऽधम्म 62 धम्मिय 120, 140, 156, 160, 301, 481, 463 धरणिद 371 401, 403, 462 धरणितल 345 46, 115 धाउ 63, 155, 358, 380, 466, 500, धाती 256, 264 622, 630 धार 145 देवउत्त (देवगुप्त-देवोप्त) 64 धिइ 354 देवाहिपती 356 धिइ(तिम 465 देविले 227 धितिमंता 466 102, 320, 328, 486, 543 धीर 81, 82, 236, 350, 357, 402, 8,12, 61 408, 506, 534, 546, 577, 621 567 धुण 376, 483, 628 दोस 200, 234, 236, 508, 634, 635, धुत 428 180, 318, 331, 336, 576 धुयं 136, 406 दंडपहं 561 धुवमग्ग दंतपक्खालणं 288, 446 धुवं 66, 106, 351 दंतवक्क (दंतवक्त्र/दंतवाक्य) 373 धूण दसणं 353, 368 धूतरय दंसमसय 176 धूयहि 256 486 धूयमोह 266 403 धोयणं धम्म 115, 116, 117, 116, 134, 136, नक्कं 321 138, 142, 164, 223, 224, 245, न(ण)गर 171, 512, 573 246, 271, 352, 354, 355, 358, नगरवहे 317 367, 380, 386, 404, 426, 437, नच्चाण 460, 473, 481, 488 नट्ठसप्पहसभाव धम्म 624 नदी 240, 347 धम्मलिट्ठी) 128, 140, 157, 637 न(ण)रय 302, 316, 344 धम्ममाराहा 47 नवम्गह 162 धम्मल 401 नबसुत्त 262 447 266 दंसं घणं 448 206 213 . Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सूची 486 विशिष्ट शब्द सूत्रांक विशिष्ट शब्द सूत्रांक 386 154 नाणप्पकारं नामा नात(ता) नातसुत ना(णा)तिवेलं ना(णा)तिसंग नाम 337 405 366 286 320, 324, 333 372 557 निब्बाणसेट्ठ 6 निव्वावओ 136, 209 निविंद 353 निहाय 465, 604 निहं 190, 162, 163 नीरय 235, 305, 310, 313, 332, 334, नीवार 335, 343, 346, 347, 613 नीवारगिद्ध 27, 365,374 नंदण 305, 313 नंदीचुण्णगाई 240, 241, 266 पडस्स 470, 615 पक्खिप्प 480 पक्खी 480 पखज्जमाण 555 पगब्भिणो 622 पगास 627 पगासणं 585 पच्छ 543, 544 पच्छण्णभासी 442 पच्छा 16 पज्जोओ 166 पट्ठ 466 पछि 224, 246 पड 47 पडिआह 462 पडिपुण्ण 356 पडिपुण्णभासी 496 पडिपुण्णवीरिय 602 पडिबंध 542 पडिभाणवं 348 पडिभास 436 पडियच्च 472, 464, 507, 517, 518, 530 पडिवक्ख 346 136, 357 568 146 नायपुत्त नारग ना(मा)री नावकंख निकाममीण निकामसारी निज्जरं नितिट्ठा निळं नि निमित्त निभ्ममो नियतिभाव नियम नियाणछिन्न नियामित्ता नियायट्ठी नियंठिया निरामगंध निरावकखी निरुद्धगं निरुद्धपण्णा निरंतरं निविट्ठाण नि(णि व्वाण 605 71, 238, 236, 256, 276 282 326 282, 340 9302, 316, 345 1520, 625 603 161 596 173 378 502 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्रा 305 405 145, 230, 368, 436, 518 442 456 375 120, 152 456 204 205 363 116, 232, 436, 443, 446, 480,485 NC पभास . पडिविरत 635 परधम्मियाण पहुप्पण्णं 607 परपरिवाय पणामए 137 परभोयण पणोल्ल 420 परम पणसमत्त 116 परमट्ठाणुगामिय अण्णसा 356, 566, 570 परमत्त पणामयं 571 परमत्थि "पण्णे 355, 366, 568 परलोग : पह 567 परबत्थ पतिछा 516 पराजयं (पराजय) पतिट्ठाणं 532 पराजिय (पराजित) पत्तेय 11, 118 परिकप्प : पदाण 317 परिग्गह पदोसहेतु पभट्ठा 262 परिग्गही 214 परिणाम 376, 508 परिताण पमाय(द) 413, 585, 588 परिदेव पमायसंग 565 परिभास पभोक्खो 484, 545 परियाय पवच्छ 284, 288 परिविच्छ पयंपास 35, 36 परिसा (परिषद्) 132, 335, 475, 476,487, 546, परिहास 575, 589, 564, 596 परीसहोबसग्गे . परकिरिया 268, 454 पलिगोव परक्कम (पराक्रम) 188, 248, 584 पलिभिदियाण . परक्कंतं (पराक्रान्त) 236, 432, 433 पलिमंथ परगेह 465 पलियंक (पर्यक) : परतित्थिय . 352 पलियंत (पर्यन्त) . परतो 516, 553 पलीणा परत्था 384 पवत्तगं - परदत्तभोई 636 पवाद परदारभोइ (परदत्तभोजी) 566 पविज्जलं (प्रविज्जल) पभू w G 146 211, 214 68, 83 166 पया . 568 121 276 448 457 18,176 360 628 272 331, 342, 347 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची पविट्ठ विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 177 पार 58, 526 पवंच 410 पारगा 22, 25, 116, 567 पव्वगा 16 पारासर (पाराशर) 227 पव्वदुग्ग 363 पावकम्म 68, 477, 612 पसिगायतणा (प्रश्नायतन) 452 पावकम्मी 561 पसु (पशु) 158, 267, 403, 461 पावगं 53, 54, 57, 274, 420, 427, 431, पसुभूत 612 पसंस 50, 136, 516 पावचेता 335 पह 46 पावधम्मा 582, 600 पाउ (प्रादुः) 557 पावलोग 151 पाउडा 132, 175 पावविवेग पाउल्लाई 262 पावसंतत्ता 268 पाओसिणाणादि 363 पावाउया (प्रावादुका) पागभि (प्रागलन्भिन्) 304, 388 पावादुया (प्रावादुक) 535 पाडिपंथिय 173 पावोवगा 417 __ 3, 41, 83, 100, 118, 154, 155, 242, पास 66, 107, 187, 246, 250, 254, 255, 304, 318, 355, 381, 386, 387, 388, 476, 484,562 364, 366,406, 426, 474, 476, 504, पासणित (प्राश्निक) 138 516, 576, 563, 617 पासत्थयं (पार्श्वस्थता) 406 पाणगं 276 पासत्था 32, 233, 237 पाणभूयविहेडिणो 414 पासबद्धा पाणहाओ 454 पासवण (प्रस्रवण) 455 पाणाइवाय 232, 635 पिउमातरं 185 पाणातिपात 478 पिंडवाय 212 पाणासि 435 पिट्ठ 162, 204, 206, 226, 241, पाणि 62, 101, 160,163, 172, 303,414, 516 328 पागं (पान) 510 पिंडोलगाहमा (पिडोलकाधम) 174 पात (=पात्र) 276, 282 पित(योरे 185, 247, 385,403 पाताल 163 पिता (या) 11, 107, 184, 441, पातं (=प्रातः) 364, 368 461 पाद(य) 276, 313, 328, 336, 427, 474 पिय 476, 578, 614 पादुकरा, 631 पिलाग (पिटक) पायसं 256 पीढसप्पी (पीठसपिन) 226 पाग 40 234 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 सूत्रकृतांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क पुच्छ पुट्ठ 470 327,614 पुढवी पुढवीजीवा पुढवीथूभ पुढो 628 345 76, 247 216, 228, 346, 635 225 450 60 पुढोषमे पुढोसिया पुण(पुणो) 275 465 300, 352, 468, 500, 564 पुरिसजातं 52, 115, 123, 143, 166, पुरिसादाणिया 176, 183, 24, 301, 362, पुरेकड 406, 466, 488, 537, 560 पुलाए 7, 18, 381, 387,444 पुवकडं 503 पुवमरी पुन्वसंजो(योग 28, 30, 72, 62, 118, 170, पुव्वं 388, 400, 416, 480, 486, पुन्धि 503, 564, 617 पूति 376 पूतिकड 547 पूतिकम्म 26, 28, 70, 75, 108, पूयणकामए (पूजनकाम) 154, 188, 255, 268, पूयणट्ठी 277, 278, 311, 314, पूयणपत्थय 317, 320, 333, 336, पूय (त)णा 476, 517, 547, 623, पूयणं (पूजन) 624 पूयफलं (पूगफल) 86 पूया 12, 513 पेच्च (प्रेत्य) 216 पेच्चा (पीत्वा) 55, 166, 186, 403, 441, पेज (प्रेयस) 443 पेस 105 पेसगपेसय 262 पेसलं 263 पेसाय 373 पेसुन्न (पैशुन्य) 51 पेस्स (प्रेष्य) 300, 301 पेहा (प्रेक्षा) 137, 141, 162, 331, 631 पोय (पोत) 318 पोस(से) 174 पोसवत्थ (पोषवस्त्र) 18, 266 पंच 121, 154, 237, 241 407, 570 286 560, 637 86, 61 घुणरावि पुण्ण (पुण्य) पुण्ण (पूर्ण) 11 634, 635 281, 331 पुत्तकारणा पुत्तदोहलहाए पुत्तपोसिणो 224, 246, 563 पुष्फ 634 पुरक्खायं पुरत्था 265 पुरा 354 444 107, 183, 185 246 पुराकएहि पुराकाउं पुरिस Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची विशिष्ट शब्द सूत्राद्य विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 556 574 पंचम पंचसिहा पंजर पंडगवेजयंत पंडित (य) 7 बहूगुणाणं 360 बहूजणे 46 बांधव 361 बाल 11, 106, 114, 118, 126, 461 पंडियमाणिणो पंथाणु गामी पंसगुडिय फणिह फरुस फल फलग फलगावतट्ठा(ट्ठी) फास फद बद्ध बला बलि बहित्तो 416, 425, 428, 472, 530, 571, 627, 628 31, 76 बालजण 46 बालपणे 103 वालागणीतेयगुणा 288 बालिस 115, 181, 558, 588, 600 बाह(हू) 180, 263 विवभूतं 313 बितिय 340, 410 वीओदगं 181, 326, 348, 364, 533 बीयं 255 वीयादि 36, 255, 276, 346 बुद्ध 331, 342 342 बुद्धमाणि 583 बुयोऽवुयाणा 446, 635 बुहा 118, 126, 142, 146, 231, बोक्कसा 263, 265, 304, 388, बोहि 364,418, 471, 540 बंध 325, 337, 343, 346, बंधणच्चुत 383 बंधणुम्मुक्का 222 बंभ उत्त (ब्रह्मोप्त) 117 बंभचेरे 362 बंभचेरपराजिय 132, 270 भगवाणुसासणं 65 भगवं 4, 11, 17, 31, 76, 131 158, 176, 180, 233, 265, 275, 300, 302 304, 312, 413, 418 416, 477, 480, 486 131, 152 570 323 361 226, 246, 326 564 275 215, 228, 522 187, 227, 381 386 165, 433, 468, 478, 518, 521, 561 521 360 0 m बहिद्ध 586 " 161 176, 254, 304 64 236, 420, 470, 615 64 बहुकूरकम्मा बहुगुणप्पगप्पा बहुजणणमण बहणंदण बहुमाया बहुस्सुय 177 156 164, 632 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 सूत्रकृतांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 285 246 171. 204, 205 385, 308, 366, 606, 610 551, 566 357, 366 306, 330, 331, 342, 362 510, 532 276 124, 126, 585 166, 167, 168, 278 278 भज्जा (भार्या) 441 भिलिजाए भत्तपाण 86 भिसं (भृशम्) भत्तं (भक्त) 261 भीरु भय . 11, 127, 206, 267, 361, भूत 464 भूताभिसंका भयणं 447 भूतिपण्ण (न्न) भयभिन्नसण्णा 305 भूमि भयाउल (भयाकुल) 160 भूमिवर भयावह 577 भूय भयंतारो (भदन्त) 270, 637 भूरिवण्ण भवगहणं 548 भेद भाया 441 भेरव भार 325, 406 भोग भारवहा 263 भोगकामी भारिया 107, 16 भोम भाव 16, 537, 576 भोयणं भावणाजोगसुद्धप्पा 611 मइम भावविसोहि 54 मए भासादुगं 601 मग्ग भासादोस भिक्खाचरिया-अकोविय 167 मग्गसार भिक्खुचज्जा (भिक्षुचर्या) 201 मग्गुका (मद्गुक) भिक्खुभाव 166 मग्गू भिक्खू 77, 78, 88,65, 105, 122, मच्चिया (मर्त्य) 126, 126, 143, 156, 162 मच्छ 172, 176, 182, 164, 166, मच्छेसण 210, 211, 214, 218, 223 मज्ज इत्यादि मज्झत्थ भिदुग्गा 347 मज्झिम भिदुग्गं 307, 347 मज्झे भिन्नकहा 253 मणसा भिन्नदेहा 340, 345 भिन्नत्तमंग 314 473, 463, 505 280 427 217, 230, 467, 468, 466, 525, 546, 561, 616, 631 500 523 365 412 61, 63, 166, 177, 312, 365 523 111, 112, 131, 363 87 53, 56, 110, 270, 268, 416, 427, 430, 445, Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सूची 465 विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द ধ मणप्पदोस मण बंधण मणुय मणुयामर मणुस्स (मनुष्य) मणूसा (मनुष्य) मणोरम मतीमता मत्ता मदाई ममाइणो मम्मयं मरण मरणाभिकंखी पल्ल महती महब्भय महिन्भताव महन्भूया(ता) महरिसी (महर्षि) महन्वय (महाव्रत) महाकुला महागिरी महाघोर महानागा 563 महावीर 27, 460, 613, 614, 253 629 68, 125, 135, 583, 566 महासढ 264 351 महासवा 164 163, 260, 620 महासियाला 346 540 महिंद 362 364 महीय 437, 467 महुरुल्लावा 142 महेसि(सी) 66.136, 300, 368, 572 377, 572 107, 116 महोघ 461 महोदधी 356 143, 176, 206, 554 महं 112 496, 556, 576 महंत 310, 337, 342, 344 446 महंतरं 142 256 महंताधियपोरुसीया 323 463, 513, 527 महंतिउ 338 310, 313, 316, 343 मा 137 7, 8, 15 माइण 167, 227 माइल्ल (मा यिन) 145 माणण→ण 434 माणबद्ध 533 माणव (मानव) 6, 60,486,546 501, 528 माणि(णी) 432, 433 माणुसत्त 361 506, 534 माणुसा 466, 500 225, 228 माणुस्सए 621 376 माणं 377, 428, 531, 568, 635 125, 460, 468, 633 मात(य)रं 185, 247, 385, 403 165 माता(य) 61, 107, 166, 441 306 मातिट्ठाण (मातृस्थान) 405 मामए 106 मायणि (मात्राज्ञ) 415 264 महापण्णे महापुरिस महाभवोधं महामुणी महारह महालय महावराह महाविहि 461 mr Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क माया मायामोस (मायामृषा) मार मालुया मास माहण मिग(य) (मृग) मिच्छ मिच्छत्त मिच्छ(च्छा)दिट्ठी 66, 17, 377, 415, 428, मुहत्तग 234, 343 472, 530, 635 मुहं 285, 326 634 मुड 174 25, 66 मूढ 38, 45, 332,586, 560 261 मूढणेताणुगामि 326 6. 41, 67, 63, 65, मेत्त (मात्र) 103, 111, 115, 116 मेत्ति (मैत्री) 132, 136, 166, 352, मेधावी (वि) 55, 72, 268, 426, 481, 462, 437, 438, 467, 466 546, 612, 626 632, 633, 634 मेयं (मेदस्) 33, 36, 40, 255, मेहावि(वी) 306, 423 265, 372 मेहुण 232 566 मोक्ख 362, 363, 566 221 मोक्खविसारद 214 37, 40, 56, मोणपद 113, 118, 565 237, 524, 527 मोणं 566 634 मोयणा 567 178 मोयमेहाए (मोकमेह) 289 461 मोह 68, 108, 132, 154, 277, 461 42, 43 मोहणिज्ज 153 233 मंत 180 मंतपद 566 371 मंदय 275 360 मंदा 10; 14, 35, 168, 166, 171, 172, 276 175, 177, 201, 202, 225, 226, 536 248, 277, 366, 460 306 मंधादए (मन्धादक) 235 573 मंस (मांस) 363 345 याण 166, 488 232, 243, 446, 635 यंतसो 405 रओहरणं (रजोहरण) 205 रक्खण-पोसण मिच्छदसणसल्ल मिच्छसंठियभावणा मित्त (मित्र) मिलक्नु(क्खू) मिस्सीभाव मुट्ठि मुणिवेजयंते मुदागर (मुदाकर) मुद्धि (मुनि) 414 मुम्मुई मुम्मुर मुयच्चा (मृतार्चा) मुसल मुसावाय मुहमंगलि (मुखमांगलिक) 147 283 मुहुत्त 260 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट सब्द सूची 467 विशिष्ट शग्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द रक्खसा रक्खसाया रज्ज रज्जहीणा रणसीस (रणशीर्ष) रत रति रयण (रत्न) रयं रव 281 रस 63 रोगवं (रोगत्) 144 547 लक्खण 278, 417 लज्ज 113 168 लद्ध 148, 468 166 लद्धाणुमाणे 478 लवसत्तम 362, 366, 486, 574 लवावसक्कि 448 लवासंकी 103, 111, 517, 626, लसुणं 264 लाउच्छेदं 324, 444, 556 लाढ 371 लाभट्ठी 637 255 लाभमयावलित्ते 570 264 लाभंतराय 515 326 लाविय 145 लित्त (लिप्त) 216 264, 561 लुत्तपणे 221 लुप्पंत 86 लूस 172, 178, 303, 401, 568 322 लूह (रुक्ष) 167, 202, 271 586 लेच्छती (लिच्छवी) 282, 344, 460, 558 लेव (लेपवत) 102 226 लोइयं (लौकिक) 185 63, 196 लोउत्तम 374 196 लोए(गे) 6, 12, 14, 15, 41, 64, 66, 176, 128 185, 458, 541, 546 226 लोमतं 161, 366, 381, 444 लोगवाय 80 302, 341 लोण (लवण) 363 336 लोद्धकुसुम (लोध्रकुसुम) 314, 345 लोद्ध 18, 401, 542, 556, 577 लोभमयावतीता 546 418 लोभ 377, 635 रसवेजयंते रहकार रहस्सं (रहस्य-रहसि) रहसि राईणिया (राजन्या) राओ (रात्रो) रागदोसाभिभूतप्या राति (रात्रि) रातिदियं रातिणिय (रात्निक) रातो (रात्रि) रामगुत्त राय रायमच्चा (राजामात्य) राविहिं रिसी रक्ख (रूक्ष-वृक्ष) 441 155 284 284 ख्या रुहिर रूब रोगदोसस्सिय Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोय(ग) '498 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध 'विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क लोमादि 125 वद्ध (वर्ध) 328 68, 101, 107, 134, 185, 240, वमणंजण 448 350, 376, 446, 447, 488, 543, वयण 603 546, 612, 626 व्यसा 110, 132, 268, 416, 508, 616 लोल 306 वयं 47, 187, 186 लोलणसंपगाढ 316 वयंत 17, 43 सोहपहं (लोहपथ) 331 वर्थि लोहविलोणतत्ता 347 वर 484 लोहितपूयपाती 323 वलय 204,466 लोहितपूयपुग्णा 323 वलयायताणं वई (वाच्) 50, 174 वलयाविमुक्के 556, 576 वइगुत्त (पागगुप्त) 122 ववहारादी 186 वइरोयणिंद (वैरोचनेन्द्र) 357 बवहारी, 242, 501 बई (वाच) 217, 218, 487 वसवत्ती 73, 257 वगुफलाई 281 वसु 565 वघातं (व्याघात) 576 वसुमं (वसुमत्) 564, 617 वच्चधरगं (वोंगृहक) 260 वसोवगं वच्चसमूसियंगे 314 वाइ 14, 20, 25 वच्चे 632,633, 634, 635, 636, 637 वाउजीवा 503 वज्जकरा (वयंकर) 266 वाऊ 7, 18, 381, 444, 614 बझं (वध्य) 35 वात(य) 533, 541 बज्झस्स 35 वादं 564 बट्टयं (वर्तक) 10 वायावीरियं 263 वण 45, 161, 366 वारिय (वारितवत्) वणिय 145 वारिया (वारयित्वा) 376 वत (व्रत) 533 वालवीयण (वालवीजन) 454 वत्थगंध 198 वाससय 150 वत्थधुवा (वस्त्रधाविन्) 264 वाहं (व्याध) 147 वत्थयं 286 वाहछिन्न वत्थीकम्म 448 वाहि-मच्चु-जराकुल वत्थं 276, 283, 401 विऊ(दू) 76, 120, 148, 272, 400, 464, 637 वद्धमाण 373 विओवात (व्यवपात) 207 वद्धमंस 267 विगतगेही 226 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची 46 विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द 606 448 388 342 विगयगेही 86 विमोयणाए 567 विज्जभावं 544 वियड (विकट) 71, 132, 401,402, 455 विज्जा (विद्या) 6, 507 वियत्त (व्यक्त) विज्जाचरणं 545, 567 वियासं 329 विजापलिमोक्ख 544 विरति 118, 244, 507 विज्ज (विद्वस) 77, 120, 356, 366,445, विरतसव्वपावकम्म 634 454,456, 456, 577 विरम विणय 535, 580 विरेयण विणीय 407, 482 विलंबगाणि विण्णत्तिधीरा 551 विवण्ण चित्त विण्णप्पं (विज्ञाप्य) 266 विवरीतपण्णसंभूत 80 विण्णवणाहि (विज्ञापना) 144 विवाद 453 विण्णवणित्थीसु 234-236 विवित्त (विविक्त) 127, 247 वितक्क (वितर्क) 48 विविठ्ठाण 422 वितहं (वितथ) 602 विवेक(ग) 66, 256, 406,468, 478 वितिगिछसमावण्णं 208 विसएसणं 524 वितिगिच्छतिण्ण 475, 436, 585 विसएसिणो 440 वित्त (वृत्त) 5,110, 158, 440, 443, 461, विसण्णमेसी 480 583, 564 विसण्णा (विषण्ण) 242, 548 वित्तिच्छेय (वृत्तिच्छेद) 516 विसणे 275, 476 विदुमं 121,156 विसम 61,108, 124, 344 विद्धंसणधम्म 120 विसमिस्स 256 विद्धं समाण 624 विसमंत विधूणयं 287 विसय 43, 485 विधूमठाणं 334 विसयपास (विषयपाश) विपरीयास 84 विसयंगणाहिं 548 विप्पगन्भिय 32 विसलित्तं 257 विप्पमाद (विप्रमाद) 580 विसारए (विशारदः) 5.66 विबद्ध 16, 162, 342 विसिट्ठ 358 विभज्जवाद 601 विसुद्ध 156 विमण 166 विसूणितंगा 335 विमुक्क 465, 466 विहत्थिमेत्त (विहस्तिमात्र) 321 विमोक्खहेउ 488 विहन्न 328 277 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सत्र:-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राडू विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विहर विहारगमण . m 541 वीरत्तं 426 426 66, 140, 251, 258, 280 वेसिया (वैशिक) 438 167 वेस्सा (वैश्य) 438 विरणिय 36 वेहासे (विहायस्) वीतगेही 435 वोदाण 566 वीमसा 44 वोसठ्ठकाए 632, 633, 635, 636, 637 वीर 1,66,100,106, 266, 376, 411, 432, वंझ (वन्ध्य ) 433, 468, 470 वंदण 121 411 वंदणपूयणा 458 वीरिय 360, 411, 628 सउणी (शकुनि) 46, 103 वीससेण 373 सए (स्वके) बुसि(सी)मं 582, 610 सअंगाई बुसिय (ब्युषित) 86 सकम्मविरिय 416 खुसीमतो(ओ) (वृषिमत्) 426, 511, 610 सकम्णुणा 361, 441, 516 वेगंतवदातसुक्कं 367 सक्क (शक्य) 356 वेणइया 537 सक्कार (सत्कार) 637 वेणइयाणवायं 378 सगडं (शकट) 410 218 सगा (स्वका) 372 सगिरा वेणुपलासियं (वेणुपलाशिका) 284 सग्धे (श्लाध्य) 197 वेणुफलाई 285 सच्च 156, 374, 537, 606 वेतालिय 343 सच्चरत 484 घेतालियमग्ग 110 सजीवमच्छ 28, 30, 52, 327, 346, 362 सजोति 306, 330 वैदेही 226 सडिडिम 261 वेधादीयं (वेधादिक) 453 सड्ढी (श्रद्धी) 60, 512 वेय(a)रणी 240, 307 सढ (शठ) वेयाणुवीइ 265 सणफय (सनखपद) 333 वेर 3, 410,436, 486 सणियाणप्पओगा 575 देराणुगिद्ध 481 सण्णिसेज्जा (सन्निषद्य) 262 वेराणुबंधि 463 सत(य) 325, 361 417 सतग्गसो 384 वेसालिया 61, 63 सतत वेसालीए 164 सतिविप्पहूणा वेणु 184 वेणुदेव 539 314 वेद बेरी Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 587 410 584 परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क सतंसे 404 समणब्वदे 385 सत्ता 6, 260, 476, 400, 503, 555 समय 113, 115,518, 155,601 सत्ति (शक्ति) 307 समयाणुपेही 476 सत्त (शत्रु) 336 समयाणुसळे सत्तोवपातिया 11 समयातीतं 471 सत्थादाणाई 446 समागम सत्थार (शास्ता) 558 समारंभ 55, 510, 513 सत्थारभत्ती 605 समन्वय (समव्रत) सत्थं (शस्त्र) 286, 334, 414 समाहि 137, 473, 478,464, 558, 583, 564 सवा (या) 88, 113, 116, 117, 157, 164,170, 604, 606 278, 311, 320, 337, 336, 435, समाहिजोग / 262 464, 468, 518, 520, 563, 606, समाहित(य) 114, 122, 140, 211, 223, 230, 618, 634 245, 310, 380, 521 सदाजला 347 समाहिपत्त 413, 485, 487, 570 सह 171, 252, 305, 317, 370, 407, 556, समिती 585 समीकत सद्द-फास 471 समीरिय 342 सहमहप्पगास 363 समीहत सद्धियं (सार्धम्) 251 समुग्गर 345 सन्ना (संज्ञा) 68 समुद्द 242, 376, 501 376 समुद्दिस्स 510 सन्निधाणाए 285 समुपेहमाण 576 सपरिम्गहा 78 समुप्पाद सपरिमाण 82 समुवति 424 सपेहाए 442 समुरसए सप्पि (सर्पिस्) 338 समुसित्ता(या) 323, 335 सफलं 432 समूसितं 334 सबीयगा 444, 503 समोसरण 535 सभा 375 सम्मता 240 सम 114, 124, 144, 146, 262, 285 सम्मत्तदंसिणो समण 6, 37, 41, 56, 63, 67, 104, 114, सम्म (सम्यक् ) 96, 586, 586, 560, 605 206, 261, 262, 271, 272, 278, 352, सय (स्वक) 355, 374, 524, 527, 632, 633, 635 सयकम्म (स्वकर्म) 242 सन्नि 265 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क .611 सयकम्मकप्पिय 160 सव्वदुक्खविमोक्खण 468 सयण 122, 168, 250 सव्वदुक्खा सयणासणे 584 सव्वदंसी 356 सयपाणि 267 सम्बधम्म 423 सयायकोवा 346 सव्वधम्मा 375 सयं (स्वयं) 3, 10, 29, 30, 41, 43, 50, 68, सब्बप्पग 36 72, 187, 348, 464 सव्वफाससह 268 सयं (शतं) 361 सबलोय 350, 458 सयंकड 545 सब्बवायं 378 सायंभु (स्वयम्भ) 66 सव्ववारं 376 सयंभू ( , ) 371 सव्वासाह सरहं (सरभस्) 317 सचसो 100,432, 433, 436, 463, 511 सरण 57, 76, 158, 156, 321, 457 सब्बहा (सर्वथा) सरपादग (शरपातक) 260 सवाणि सरय (शरद्) 71 सव्वाहि 220, 408, 505 सरसंवीत 181 सर्दिवदिय सराइभत्त' 376 सम्बे 16, 41, 72, 84, 160, 164, 318, 461, सराइभोयण 505, 576 सरागत्था 213 सव्वेंदियाणि 427 सरीर 12 सब्बेहि 407 सरोस 345 सम्वो 166 सलिल 541, 548 सव्वं 5,13, 36, 41, 157, 186, 241, 351, सलिलं 376, 420, 430, 431, 476 सल्ल (शल्य) 121, 420 ससा (स्वस्वृ) सल्लकत्तण 630 सह 258, 280 सवातग 168 सहसम्मुइए 424 सबिसेसजुत्ता 560 सहस्स 325, 343, 361 सव्वगोत्तावगता 572 सहस्सनेता 338 सब्बजगंसि 356 सहस्संतरिय सव्वजय 47 सहा 187 सब्वट्ठ 117 सहिय(त) 101, 140, 142, 161, 247, 476, 481, 577. 634 सव्वत्थ 82, 155, 156, 244, 507 सहीवायं (सखिवाद) 145 सव्वतो Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2: विशिष्ट शब्द सूची 503 विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 366 साइमणंत 268 साहेंता साउ(दुगाई 403, 404 सि 325 सागपागाए 282, 287 सिओदग सागर 256 सिक्ख 303, 425, 453. 468, 580 सागारियपिंड 452 सिक्खं .425 सातागारवणिस्सित 57 सिणाणादि 402 सातागारवणिहुत 428 सिणाणं 446 सातं(यं) 230, 316, 382, 364, 368, 366 सिद्ध 74, 163, 228 सादियं 421 सिद्धि 73, 74, 225, 368, 364, 365, 368, साधम्मिणी 272 साधुमाणी 560 सिद्धिपहं 106 साधुसमिक्खयाए 352 सिया 14, 76, 65, 113, 118, 176, 188, 206: सामणिय 234, 236, 364 इत्यादि सामणेराए 260 सिरी सिवा (सरीसृप) 63, 124, 365 सामली 366 सिरं 304, 334 सामाइय 127, 130, 141 सिला 306, 332 सायाणगा 146 सिलोग(य)कामी 476, 465, 578 भार 85, 506 सिलोग-पूयण 154 सारति 136 सिलोग (श्लोक) 434, 458 सारक्ख 86 सिलोयगामी सारक्खण छाए 514 सिवं सारेह 212 सिसुपाल सारंभा 78, 216 सिही (शिखी) सावज्ज 52 सीउण्हं सावासगा 581 सीओदगपडिदुगु छिणो सासत(य) 15, 74, 81,546, 554 सीतफास साहइत्ताण 630 सीतोदगसेवण 362 साहट्ट 401, 455 सीतं (शीत) 168 साहरे 427 सीय (,) 165, 272 साहस 251 सीलं 353, 368, 366, 557 साहसकारि 460 सीसं 320, 340 साहुजीवि 166, 211 सीहलिपासग 288 516, 537 सीहं 254, 372, 462 568 523 132 130 456 साहू Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 विशिष्ट शब्द सुआय) सुअक्खातधम्म सुअ(य)क्खायं सुउज्जुयारे सुक्कं सुगइ सुचिपणं 543 569 241 सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क 148, 206, 605 सुरा 547 475 सुरालय 360 266, 411, 421, 606 सुलभ 86,61,161 563 सुलहजीवी 62 सुवण्ण (सुवर्ण) 366 61 सुविणं (स्वप्न) 567 सुविभावितप्पा 172 सुविमुक्क 256 256 सुविवेग 136 316 सुविसुद्धलेस्स 268 258, 468, 475 सुव्वत(य) 61,155, 162, 176, 166, 243, 307, 323 412, 425, 631 166,460, 622 सुव्वती 317 605 सुसमाहरे 430 164 सुसमाहित 360, 365 सुसमित 637 438 सुसाधुजुत्ते 375 सुसाधुवादी 572, 575 सुसामाइय 364 सुसिक्ख 414, 580, 604 606 सुसुक्कसुक्कं 367 153 सुसंजत 510, 637 126 सुसंवुड 110, 140 125, 126 सुह 28, 29, 366 466, 601 सुहदुक्खसमन्नित 366 सुहरूवा 286 सुहि 260,422 287 सुहिरीमणा 264 580 सुहुम 116, 121, 182, 248 486 सुईसुत्तम (सूची सूत्रक) 289 467 सूतीगो 192 46. सूयर 200 251 सूर 165-167 सूरपुरंगमा सुणी सुण्हा (श्नुषा) सुतत्त सुतवस्सि सुता सुतं (श्रुतम्) सुत्त (श्रुत) सुदेसिय सुदंसण सुद्दा सुधम्मा सुधीरधम्मा सुद्धलेस्स सुद्धसुत्त सुनिरुद्धदसण सुन्नघर पुन्नागारगत(य) सुप्प(प)ग्ण सुप्पिवासिय सुप्पुक्खलग 584 566 637 464 सुफणि सुबंभचेरं सुब्भि सुमणो सुमूढ सुरक्खिय 206 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्द सूची विशिष्ट शब्द सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द 144 549 130 सूरिय 357, 362, 364, 561 संतच्छणं (संतक्षण) 313 सूरोदय 562 संता 32, 33, 264, 536 सूलविद्धा 336 संतावणी (संतापनी) 332 सूला 308, 321, 336 संति (=शान्तिम्) 557, 565 सेठ्ठ (श्रेष्ठ) 366, 366, 370. 371, 373-375 संतिण्ण सेठ्ठि (श्रेष्ठी) 63 संतिमे सेण (श्येन) 10 संतोसिणो सेय विय (सेव्य) 303 संथरे 123 सेय 216, 218, 261, 588, 586 संथव 14, 121, 148, 259, 262, 266, 483 सेस 134 संथुत सेसग 161 संधि 20-25, 618 सेहिय (सेद्धिक) 26 संपगाढ 332, 546 सोगतत्ता 334 संपराय(ग) 346, 418 सोयकारी 514 संपसारए सोयपलिन्छिण्ण 637 संपसारी 452 सोयरा (सोदरा) 184 संपातिम 387 सोयरिया(य) (सौन्दर्य) 5, 336 संपिढें संकलिया (Vखलिका) 346 संपुच्छणं 457 संकिय(त) 33, 37 संपूयणं 111, 112, 131 152, 224, 246, 567 संबद्धसमकाप 212 संखा 564 संवाहिया 344 367 संभम 226 182, 163, 194, 408 संमत संगतिय (सांगतिक) 30 संमिस्सभाव 487,536 संगाम 166, 171 संमुहीभूय(त) 616, 626 संगामकाल 204, 206 संलोकणिज्जं 276 संगामसीस 406 संबच्छरं संछिण्णसोत 637 संवर 66, 555 संजत 87, 123, 138, 154, 155 संवास 256, 272, 273, 266 संजम 114, 143, 378 संविधुणीय संजीवणी 335 संवड 71, 110, 117, 163, 254, संजोगा 430, 506, 534 संडासगं (संदशक) 288 संवुडकम्म 143 285 संखय संखेंदु संग 228 543 241 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्रा 267 167 506 विशिष्ट शब्द संदुडचारि संसरिग : .. संसग्गिय संसय . संसार संसारचक्कवाल संसारपरिवड्ढण संसारपारखी संसारपारगा 181, 162, 372 125 सूत्राङ्क विशिष्ट शब्द ___ 56 हत्थपादछेदाए 128 हत्थऽस्स-रह-जाण .. . .. 464 हथिवह .... 422 हत्थी 50,56, 112, 213, 384, 540 हरिस . .26 हरिसप्पदोस 51 हासं 56 हिंड 21 हिंसप्पसूताई 114 हितदं 387 हितं 444. हिरणं 381 हिरीमणे (ह्रीमनः) 115 हीणनेत्त 313, 328, 336, 427, 474 होलावायं 453 हंस 463 575 संसदया . संसेय : संसेयया / हष्णू (हत्नु) 134,546, 586 186 562 542 462 हत्थ हत्थकम्म 264 3000 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 स्मरणीय सुभाषित गाथा संख्या . सुभाषित 65 ममाती लुप्पती बाले अन्नमन्नेहिं मुच्छिए। अप्पणो य परंणालं कुतो अण्णेऽणु सासिउं? .. जहा आसावि िण णावं जाति अंधो दुरूहिया / इच्छेज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति // एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ट्ठी अणारिया / संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियटति / / . समुप्पायमयाणंता किह नाहिति संवरं // एवं ख णाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं / अहिंसासमयं चेव इत्तावतं विजाणिया / संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लभा / णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं / / पुरिसोरम पाव कम्मुणा / अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी। जो परिभवती परं जणं, संसारे परियत्तती महं / अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी ण मज्जती / / पणसमत्त सदा जए, समिया धम्ममुदाहरे मुणी। महयं पलिगोब जाणिया, जा वि य वंदण पूयणा इहं / सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे, विदुमं ता पयहिज्ज संथवं // सामाइयमाह तस्सं जं, जो अप्पाण भए ण दसए। अहिगरणं न करेज्ज पंडिए। न य संखयमाहु जीवियं तह वि य बालजणे पगम्भती।. जे विष्णवणाहिऽझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाहिया / कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्धे कण्हई। 111 112 121 127 126 131 144 148 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम भुसस्कन्ध ऋम गाथा संख्या सुभाषित 146 152 153 156 . 160 161 216 wr . om m mr mm m 236 245 254 257 मा पच्छ असाहया भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं। ण य संखयमाहु जीवियं / अद्दक्खुब दक्खुवाहित, सद्दहसू अद्दकखुदसणा। एगस्स गती य आगती, वि दुमं ता सरणं न मन्नती। सब्वे सयकम्मकप्पिया। इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहि च आहितं / नातिकडुइत सेय अरुयस्सावरज्झती। मा एयं अवमानता अप्पेणं लुपहा बहुं / इत्थी वसंगता बाला जिणसासणपरम्मुहा / जेहिं काले परक्कतं न पच्छा परितप्पए / ते धीरा बंधणुम्मुक्का नावखंति जीवियं। जहा नदी वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता / एवं लोगंसि नारीओ दुत्तरा अमतीमता // कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिते। सीहं जहा व कुणिमेणं णिब्भयमेगचरं पासेणं / एवित्थिया उ बंधंति, संवुडं एगतियमणगारं / / तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित व कंटग शच्चा। वायावीरियं कुसीलाणं / अन्नं मणेण चितेंति, अन्न वायाइ कम्मुणा अन्नं / तम्हा ण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा / / बालस्स मंदयं बितियं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो / जहा कडे कम्म तहा सि भारे। बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेदेति कम्माई पुरेकडाइं / जं जारिसं पुब्बमकासि कम्म, तहेव आगच्छति संपराए। दाणाण सेठं अभयप्पदाणं, सच्चेसु वा अणवज्ज वदंति / तवेसु वा उत्तम बंभचेर, लोउत्तमे समणे नायपुते // सकम्मुणा विप्परियासुवेति / / उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि / कुलाई जे धावति साउगाई, अहाह से सामणियरस दूरे / नो पूयणं तवसा आवहेज्जा / भारस्स जाता मुणि भुञ्जएज्जा, कखज्ज पावस्स विवेग भिक्ख / वेराइ कुब्वती बेरी, ततो वेरेहिं रज्जती / पावोवंगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो॥ 263 270 275 325 327 346 374 361 364 403 407 406 417 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : स्मरगीय सुभाषित सुभाषित 426 गाया संख्या 426 जहा कुम्मे स अंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे // सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे बुसीमतो। अप्पपिडासि पाणासि अप्पं भासेज्ज सुब्बते / भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज मम्मयं / होलाबायं सहीवायं, गोताबायं च नो वदे / 467 हम्ममाणो न कुप्पेज्जा, वुच्चमाणो न संजले / 468 लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एसमाहिए। 478 आदीणभोई वि करेति पावं / 476 सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ नौ करेज्जा / 481 वेराणगिद्धे णिचयं करेति / 464 मुसं न बूया मुणि अत्तगामी। 465 न सिलोयकामी य परिव्वएज्जा। एयं खणाणिणो सारं, जंन हिंसति केचणं / 545 आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं / 546 ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मणा कम्म खति धीरा। अण्णं जणं पस्सति बिंबभूतं / 567 णिक्खम्म जे सेवतिऽगारिकम्म, ण से पारए होति विमोयणाए। न पूयणं चेव सिलो यकामी पियमप्पियं कस्सति णो कहेज्जा। जे छए विप्पमादं न कुज्जा। निदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा, कहं कहं वी वितिगिच्छतिण्णे / ण यावि किंचि फरुसं वदेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा / 568 नो छादते नो वि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च / ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा / / 605 अलसए णो पच्छम्णभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज्ज ताई। भतेहिं न विरुज्झेज्जा, एस धम्मे वुसीमओ। भावणा जोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तौर संपत्ता, सव्वदुक्खा तिउति // 613 अकुव्वतो णवं नत्थि, कम्मं नाम विजाणइ। 615 . इथिओ जे ण सेवंति, आदिमोक्खाहते जणा। 616 अणेलिसस्स खेतण्णे, ग विरुज्झेज्ज केणइ। से ह चक्ख मणुस्साणं, जे कंखाए तू अंतए। 100 564 578 580 585 588 620 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 परिशिष्ट सूत्रकृतांगसूत्र के सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थ-स ची आगम ग्रन्थ आयारंगसूत्तं (प्रकाशन वर्ष ई. 1977) सम्पादक : मुनिश्री जम्बूविजय जी प्रकाशक : महावीर जैन विद्यालय, अगस्त कान्ति मार्ग, बम्बई 400036 आचारांग सूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण युक्त) संयोजक एवं प्रधान सम्पादक : युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी सम्पादक-विवेचक : श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक : आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) आचारांगसूत्रं सूत्र कृतांगसूत्रच (नियुक्ति टीका सहित) (श्री भद्रबाहुस्वामिविरचित नियुक्ति, श्री शीलांकाचार्यविरचित वृत्ति) सम्पादक-संशोधक : मुनिश्री जम्बूविजयजी प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलोजिकल ट्रस्ट, बंगलो रोड, जवाहरनगर, दिल्ली 110007 अंगसुत्ताणि (भाग 1, 2, 3) सम्पादक : आचार्य श्री तुलसी प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) अस्थागमे (अर्थागम) खण्ड 1 (हिन्दी अनुवाद) / सम्पादक / जैन धर्मोपदेष्टा पं. श्री फूलचन्द जी म. (पुष्फभिक्खू) प्रकाशक: श्री सूत्रागम प्रकाशक समिति, 'अनेकान्त विहार' सूत्रागम स्ट्रीट, एस. एस. जैन बाजार, गुड़गाँव कैट (हरियाणा) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 : ग्रन्थ सूची आयारवसा (मूल-अर्थ-टिप्पणयुक्त) सम्पादक : पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' प्रकाशक : आगम-अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (राजस्थान) उत्तराध्ययन सूत्र (मूल-अर्थ-विवेचनयुक्त) सम्पादक : दर्शनाचार्य साध्वी श्री चन्दना जी प्रकाशक : वीरायतन प्रकाशन, आगरा (उ.प्र.) कल्पसूत्र (व्याख्या सहित) सम्पादक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक : आगम शोध संस्थान, गढसिवाना (राजस्थान) कप्पसुत्तं (मूल अर्थ-टिप्पणयुक्त) सम्पादक : पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' प्रकाशक : आर.म-अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (राजस्थान) उवासगदसाओ (अनुवाद-विवेचन-टिप्पणयुक्त) संयोजक एवं प्रधान सम्पादक : युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी अनुवादक-विवेचक-सम्पादक : डॉ. छगनलाल शास्त्री, एम. ए., पी-एच-डी. प्रकाशक : श्री आगम प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, पिप्पलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ज्ञातासत्र सम्पादक : पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल', 'न्यायतीर्थ' प्रकाशक : स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथी (अहमदनगर) ठाणं (मूलाथै-विवेचन-टिप्पणयुक्त) सम्पादक-विवेचक : युवाचार्य महाप्रज्ञ श्री नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) अन्तकृददशांग (मूल एवं अर्थ) सम्पादक : रतनलाल जी डोशी प्रकाशक : अ. भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (म० प्र०) दसवेआलियं (विवेचनयुक्त) सम्पादक-विवेचक : युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) प्रश्नव्याकरण सूत्र (मूल-अर्थ-भावार्थ-व्याख्यायुक्त) व्याख्याकार : पं. हेमचन्द्रजी महाराज सम्पादक : अमरमुनिजी महाराज प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामन्डी, आगरा-२ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 सूत्रकृतांग सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध मूलसुत्ताणि सम्पादक : पं० मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : शान्तिलाल बी० शेठ, गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर (राज.) सूत्रकृतांगसूत्र (मूल-अर्थ-भावार्थ-व्याख्या सहित) भाग 1-2 व्याख्याकार :पं. मुनिश्री हेमचन्द्रजी महाराज सम्पादक: अमर मुनि तथा मुनि नेमिचन्द्र जी प्रकाशक : आत्मज्ञानपीठ, मानसा मन्डी (पंजाब) श्रीसत्रकृतांगम चार खण्ड (मूल-अन्वयार्थ-भावार्थ-टीकानुवाद सहित) (श्री शीलांकाचार्य रचित वृत्ति) सम्पादक : पं. अम्बिकादत्त ओझा, व्याकरणाचार्य प्रकाशक : श्री महावीर जैन ज्ञानोदय सोसाइटी, राजकोट (गुजरात) सूत्रकृतांग (मूल, अर्थ, टीका, अनुवाद गुज० हिन्दी-सहित) भाग 1 से 4 टीकाकार : जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल जी महाराज अनुवादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज प्रकाशक : अ० भा० श्वे स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट (गुजरात) सूयगडंगसुत्तं (मूल-टिप्पण परिशिष्टयुक्त) सम्पादक : मुनिश्री जम्बूविजयजी प्रकाशक : महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रांति मार्ग, बम्बई 400036 भगवती सूत्र भाग 1 से 4 तक (अनगार धर्मामृतर्षिणी व्याख्या सहित) व्याख्याकार : जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज नियोजक : पं० मुनि श्री कन्हैया लाल जी महाराज प्रकाशक : जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट (गुजरात) व्याख्या ग्रन्थ तत्त्वार्यसूत्र सर्वार्थसिद्धि व्याख्याकार : आचार्य पूज्यपाद हिन्दी अनुवाद : पं. फूल यन्द्र सिद्धान्त शास्त्री प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी तत्त्वार्थसूत्र (आचार्य उमास्वातिकृत स्वोपज्ञ भाष्यसहित) सम्पादक : व्याकरणाचार्य पं. ठाकुर प्रसाद शर्मा प्रकाशक : परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 : ग्रन्थ सूची महावीर वाणी (संस्कृत रूपान्तर, विस्तृत तुलनात्मक विवेचन युक्त) सम्पादक : पं. बेचरदास जी दोशी न्याय-व्याकरणतीर्थ हिन्दी-अनुवादक : कस्तूरमलजी बांठिया प्रकाशक : सर्वसेवा संघ, राजघाट, वाराणसी-१ (उ० प्र०) सूक्ति त्रिवेणी सम्पादक : उपाध्याय श्री अमरचन्द जी महाराज प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा (उ० प्र०) विशेषावश्यक भाष्य (मूल गाथा, टीका का गुजराती अनुवाद) (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण रचित, मल्लधारी आचार्य हेमचन्द्र कृत वृत्ति) भाषान्तरकार : शाह चुन्नीलाल हाकमचन्द, अहमदाबाद प्रकाशक : आगमोदय समिति, बम्बई शब्दकोष तथा अन्य सहायक प्रन्थ अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 1 से 7 तक) सम्पादक : आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि प्रकाशक : समस्त जैन श्वेताम्बर संघ, श्री अभिधान राजेन्द्र कार्यालय रतलाम (म० प्र०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष (भाग 1 से 4 तक) सम्पादक : क्षुल्लक श्री जिनेन्द्रवर्णी प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, वी० 45/47 कनॉट प्लेस, नई दिल्ली-१ पाइअ-सद्द-महण्णवो (द्वि० सं०) सम्पादक : पं० हरगोविन्ददास टी० शेठ, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, और पं० दलसुखभाई मालवणिया प्रकाशक : प्राकृत ग्रन्थ परिपद् वाराणसी-५ नालन्दा विशाल शब्द सागर सम्पादक : श्री नवलजी प्रकाशक : आदीश बुक डिपो, 38 यू० ए० जवाहरनगर, बंगलो रोड, दिल्ली-७ शब्द रत्न महोदधि भाग 1-2, (संस्कृत गुजराती शब्दकोष) संग्राहक : पन्यास श्री मुक्तिविजय जी संशोधक : पं० भगवानदास हरखचन्द प्रकाशक : मन्त्री, श्री विजयनीतिसूरि वाचनालय अभिधम्मत्थ संगहो (आचार्य अनुरुद्ध रचित) टीकाकार : भदन्त सुमंगल स्वामी Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग सूत्र-प्रथम श्रुतरकाध सम्पादक-संशोधक : भदन्त रेवत धर्मशास्त्री एम० ए० प्रकाशक : बौद्ध स्वाध्याय सत्र, एस० 17/330 ए० मलदहिया, वाराणसी (उ० प्र०) धम्मपदम् (बुद्ध सुभाषित) सम्पादक : प्रो० सत्य प्रकाश शर्मा, एम० ए०, साहित्याचार्य प्रकाशक : साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ-२ विसुद्धिमग्गो (आचार्य बुद्धघोप कृत) भाग 1-2 अनुवादक : भिक्षु त्रिपिटकाचार्य धर्मरक्षित प्रकाशक : महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी (उ० प्र०) पाली हिन्दी कोश सम्पादक : भदन्त आनन्द कौशल्यायन प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, 8 नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली-११०००६ दीघनिकाय (सुत्तपिटक का एक अंश) अनुवादक : भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु जगदीश कश्यप, एम० ए० प्रकाशक : भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद्, बुद्ध बिहार, लखनऊ श्री शव रत्नाकर (संस्कृत शब्दकोष) रचयिता : वाचनाचार्य साधु सुन्दरगणि संशोधक : पं० हरगोविन्ददास एवं पं० वेचरदास प्रकाशक : जैन श्वेताम्बर संघ, रंगून जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-१ लेखक :50 बेचरदास दोशी प्रकाशक: पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम हि० यु० वाराणसी-५ (उ० प्र०) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा लेखक :पं० देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक : तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) सद्धममण्डनम लेखक : स्व० जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज सम्पादक : पं० मुनिश्री श्रीमल्लजी महाराज प्रकाशक : श्री अ० भा० साधुमार्गी जैन संघ, रांगड़ी मोहल्ला, बीकानेर (राजस्थान) जन सिद्धान्त बोल संग्रह (भाग 1 से 7 तक) संयोजक : भैरोंदान जी सेठिया प्रकाशक : अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर (राजस्थान) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 515 परिशिष्ट 4 : ग्रन्थ सूची मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास लेखक : श्रीचन्द चौरड़िया न्यायतीर्थ (द्वय) प्रकाशक : जैन दर्शन समिति, १६/सी-डोवरलेन, कलकत्ता 700026 ता (मूल-अर्थ सहित) ___ प्रकाशक : गीता प्रेस, पो० गीता प्रेस, गोरखपुर, (उ० प्र०) अष्टाविंशत्युपनिषद् (ईश, केन, कठ, मुण्डक, छान्दोग्य आदि) सम्पादक : स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, व्याकरणाचार्य प्रकाशक : प्राच्य भारती प्रकाशन, कमच्छा, वाराणसी (उ० प्र०) वीर स्तुति अनुवादक : उपाध्याय श्री अमर मुनि प्रकाशक : सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा-२ प्रशम रति रचयिता : आचार्य उमास्वाति भावानुवादक : मुनि पद्मविजयजी! संशोधक : मुनि नेमिचन्द्र जी अध्यात्मसार ग्रन्थकार : श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय हिन्दी अनुवादक : मुनि पद्मविजयजी सम्पादक : मुनि श्री नेमिचन्द्र जी 000 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित भागम मूल्य 25) मूल्य 30) मूल्य 25) मूल्य 45) मूल्य 25) १-आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) सम्पादक-श्रीचन्द सुराना २-आचारांग सूत्र (द्वितीय श्रुतस्कन्ध), श्रीचन्द सुराना ३-उवासग दसाओ सम्पादक-डा० छगनलालजी शास्त्री ४–ज्ञाता धर्म कथा सं० पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ५–अन्तगडदसाओ डा० साध्वी श्री दिव्य प्रभाजी एम.ए. पी-एच.डो६–अनुत्तरौपपातिकदसा सं० डा० साध्वी मुक्ति प्रभाजी, एम.ए. पी-एच.डी. ७-स्थानांग सूत्र सं० पं० (स्व०) हीरालाल जी शास्त्री ८-समवायांग सूत्र सं०५० (स्व०) होरालाल जी शास्त्री E-सूत्रकृतांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) सं० श्रीचन्द सुराना १०-सूत्रकृतांग सूत्र (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) सं० श्रीचन्द सुराना मूल्य 16) मूल्य 50) मूल्य 25) मूल्य 45) - मुद्रणाधीन :0 विपाकसूत्र - नन्दीसूत्र 0 प्रज्ञापना सूत्र [प्रथम खण्ड-छह पद) 0 उत्तराध्ययन सूत्र 0 राजप्रश्नीय सूत्र भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति) सूत्र [शतक 1 से 8 तक 2 खण्ड] आगम समिति के सदस्यों को नियमित आगम प्राप्त होते रहते हैं। सदस्यता शुल्क :श्रीसंघ या संस्थागत सदस्यता 700) व्यक्तिगत सदस्यता 1000) सम्पर्क सूत्र : आगम प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर, (राजस्थान) पिन-३०५६०१ आवरण पृष्ठ के मुद्रक : 'शल प्रिन्टर्स' १६/२०३-ए, माईथान, आगरा-२८२ 003 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति मे आयोजित संयोजक एव प्रधान समादक। युवाचार्य श्री मधुकर मान सूत्रकृत्तांगसूत्र द्वितीय भाग] (मूल अनवाद-विवेचन-टिप्पण-पशिष्ट वक्त Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रन्थमाला : प्रन्थाङ्क-१० [परमश्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज को पुण्यस्मृति में प्रायोजित ] पंचम गणधर भगवत् सुधर्मस्वामि-प्रणीत : द्वितीय अंग सूत्रकृतांगसूत्र - (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट युक्त ] सन्निधि // उपप्रवर्तक स्वामी श्रीब्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक 0 श्री स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक--अनुवादक-विवेचक D श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर, राजस्थान Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 10 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्रीदेवेन्द्रमुनि शास्त्री श्रीरतनमुनि पण्डित श्रीशोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' [] सम्प्रेरक मुनि श्रीविनयकुमार 'भीम' श्रीमहेन्द्रमुनि 'दिनकर' - अर्थसहयोगी श्रीमान् कँवरलालजी बैताला, नागौर [प्रकाशनतिथि वीर निर्वाण संवत् 2508 वैशाख, वि. सं. 2036, ई. सन् 1982 अप्रैल / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पोपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन 305601 मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ / मूल्य : 25) रुपये Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhara Sudharma Swami Compiled Second Anga SUTRAKRTANGA [ Part II ] [Original, Text, with Variant Readings, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Rey. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Sri Vardhamana Sthanakvasi Jain Sramana Sanghiya Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Editor, Translator & Annotator Srichand Surana 'Saras' Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar ( Raj. ) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 10 Chief Editors Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalalji 'Kamal Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' ( Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni Dinakar' ( Financial Assistance Sri Kanwarlalji Betala, Nagaur Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) (INDIA Pin 305901 O Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer-305001 O Price : Rs. 25/ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण 'अप्पमते सदा जये' को आगम वाणी जिनके लीवन में प्रतिपद चरितार्थ हुई, जो दृढसंकल्प के धनो थे, जओ उच्चकोटि के साधक थे, विरक्ति की प्रतिमूर्ति थे, कवि-मनीषो आप्तवाणी के अनन्यतमश्रद्धालु तथा उपदेशक थे, उन स्व. आचार्यप्रवर श्री जयमल जी महाराज की पावन स्मृति में, मा-- -- रमर्पित, उहाचार्य मधुकर मुनि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय सूत्रकृतांग सूत्र का द्वितीय भाग पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए हमें परम सन्तोष का अनुभव हो रहा है / प्रस्तुत सूत्र के दो श्रु तर प्रस्तुत सूत्र के दो श्रतस्कन्ध हैं। उनमें से प्रथम श्र तस्कन्ध प्रकाशित हो चुका है। अब यह द्वितीय श्रु तस्कन्ध भी प्रबुद्ध पाठकों की सेवा में पहुँच रहा है। इसके पूर्व स्थानांग मूत्र मुद्रित हो चुका है और समवायांग का मुद्रण समाप्ति के निकट है / हमारा संकल्प है, अनुचित शीघ्रता से बचते हुए भी यथासंभव शीघ्र से शीघ्र सम्पूर्ण बत्तीसी पाठकों को सुलभ करा दी जाए। समग्र देश में और विशेषत: राजस्थान में जो विद्य त-संकट चल रहा है, उसके कारण मुद्रणकार्य में भी व्याघात उत्पन्न हो रहा है, इस संकट के प्रांशिक प्रतीकार के लिए अजमेर और आगरा-दो स्थानों पर मुद्रण की व्यवस्था करनी पड़ी है / यह सब होते हए भी जिस वेग के साथ काम हो रहा है, उससे अाशा है, हमारे शास्त्रप्रेमी पाठक और ग्राहक अवश्य ही सन्तुष्ट होंगे। श्रमणसंघ के युवाचार्य पण्डितप्रवर श्रीमधुकर मुनिजी महाराज के श्री चरणों में कृतज्ञता प्रकाशित करने के लिए किन शब्दों का प्रयोग किया जाय, जिनकी श्रतप्रीति एवं शासन-प्रभावना की प्रखर भावना की बदौलत ही हमें श्रुत-सेवा का महान् सौभाग्य प्राप्त हुआ है। साहित्यवाचस्पति विश्रुत विबुध श्री देवेन्द्र मुनिजी म. शास्त्री ने समिति द्वारा पूर्व प्रकाशित भागमों की भांति प्रस्तुत प्रागम को विस्तत और विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखने का दायित्व लिया था प्रतिकूलता के कारण यह सम्भव नहीं हो सका, तथा हमारे अनुरोध पर पंडितरत्न श्रीविजय मुनिजी शास्त्री ने विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखी है, तदर्थ हम विनम्र भाव से मुनिश्री के प्रति अाभारी हैं / प्रस्तावना प्रथम भाग में प्रकाशित की जा चकी है। पाठक वहीं उसे देखें। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमान श्रीचन्दजी सुराणा ने इस पागम का सम्पादन एवं अनुवाद किया है। पूज्य यूवाचार्यश्री जी ने तथा पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने अनुवाद आदि का अवलोकन किया है। तत्पश्चात् मुद्रणार्थ प्रेस में दिया गया है / तथापि कहीं कोई टि दृष्टिगोचर हो तो विद्वान पाठक कृपा कर सूचित करें जिससे अगले संस्करण में संशोधन किया जा सके। हमारी हार्दिक कामना है कि जिस श्र तभक्ति से प्रेरित होकर प्रागम प्रकाशन समिति आगमों का प्रकाशन कर रही है उसी भावना से समाज के प्रागमप्रेमी बन्ध इनके अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार में उत्साह दिखलाएँगे जिससे समिति का लक्ष्य सिद्ध हो सके। ___ अन्त में हम उन सब अर्थसहायकों एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करना अपना कर्तव्य समझते हैं जिनके मूल्यवान सहयोग से ही हम अपने कर्तव्य पालन में सफल हो सके हैं। रतनचंद मोदी चांदमल विनायकिया जतनराज मूथा कार्यवाहक अध्यक्ष मन्त्री महामन्त्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ कँवरलालजी बेताला : एक परिचय श्री प्रागम प्रकाशन समिति के विशिष्ट सहयोगी एवं प्रागम प्रकाशन के कार्य की नींव रखने वालों में प्रमुख, धर्मप्रेमी, उदारहृदय एव सरल स्वभावी श्रीमान् कँवरलालजी सा. बेताला मूलत: डेह एवं नागौर / हैं / आप श्रीमान् पुनमचन्दजी बेताला के सुपुत्र हैं। आपको मातुश्री का नाम राजीबाई है। आप पाँच भाई हैं जिनमें आपका चौथा स्थान है। सभी भाई अच्छे व्यवसायी हैं। आपका जन्म वि. सं. 1980 में डेह में हुआ / वहीं प्रारम्भिक अध्ययन हुआ / आप बारह वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिताजी के साथ अासाम चले गये थे। वहाँ व्यवसाय में लग गये और अपनी सहज प्रतिभा से निरन्तर प्रगति कर आगे से आगे बढ़ते गये / प्राज गोहाटी में आपका विस्तृत फाइनेन्स' का व्यवसाय है। आप साहसी व्यवसायी है। हमेशा दूरन्देशी से कार्य करते हैं। फलस्वरूप आपको हमेशा सफलता मिली है। आप अपने श्रम से उपार्जित धन का खुले दिल से सामाजिक संस्थाओं के लिये एवं धार्मिक कार्यों में उपयोग करते हैं। मुक्त हस्त से दान देते हैं। आप सन्तों की अत्यन्त भक्तिभाव से सेवा करते हैं। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती विदामबाई भी उदारमना महिला हैं / वे भी सन्त सतियों के प्रति श्रद्धावान हैं व उनकी विश्वासभाजन हैं। दोनों श्रद्धालु एव धर्मपरायण हैं। स्व. स्वामीजी श्री रावतमलजी महाराज सा. के श्रद्धालु धावकों में पाप प्रमुख रहे हैं। उसी तरह शासनसेवी श्री ब्रजलालजी महाराज एव युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. के भी आप परम भक्त हैं। अाप अपनी जन्मभूमि की अनेक संस्थाओं के लिये व अन्य सेवा-कार्यों में अपने धन का सदुपयोग करते रहते हैं / श्री स्थानकवासी जैन संघ गौहाटी के श्राप अध्यक्ष हैं। भारत जैन महामंडल के संरक्षक एवं प्रासाम प्रान्त के संयोजक हैं। मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन के अध्यक्ष रह चुके हैं। श्री आगम-प्रकाशन-समिति के आप उपाध्यक्ष है। ___ आपके सुपुत्र श्री धर्मचन्दजी भी बड़े उत्साही व धार्मिक रुचि के युवक हैं / आपके दो पुत्रियाँ श्रीमती कान्ता एवं मान्ता तथा पौत्र महेश व मुकेश भी अच्छे संस्कारशील हैं। आपका वर्तमान पता:--- ज्ञानचन्द धर्मचन्द बेताला ए. टी. रोड़, मौहाटी (आसाम) है / आपने इस सूत्र के प्रकाशन में विशिष्ट अर्थ सहयोग प्रदान कर हमें उत्साहित किया है। प्राशा है भविष्य में भी समिति को आपकी अोर से इसी प्रकार सहयोग प्राप्त होता रहेगा। [] मंत्री श्री प्रागम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय प्राचारांग सूत्र का सम्पादन करते समय यह अनुभव होता था कि यह पागम प्राचार-प्रधान होते हुए भी इसकी वचनावली में दर्शन की अतल गहराइयाँ व चिन्तन की असीमता छिपी हुई है। छोटे-छोटे आर्ष-वचनों प्रसीम अनुभूति का स्पन्दन तथा ध्यान-योग की प्रात्म-संवेदना का गहरा 'नाद' उनमें गुजायमान है, जिसे सुनने-समझने के लिए 'साधक' की भूमिका अत्यन्त अपेक्षित है। वह अपेक्षा कब पूरी होगी, नहीं कह सकता, पर लगे हाथ आचारांग के बाद द्वितीय अंग-सूत्रकृतांग के पारायण में, मैं लग गया। सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रु तस्कन्ध पद्य-शैली में सूत्र-प्रधान है, द्वितीय गद्य-शैली में वर्णन प्रधान है। सुत्रकृतांग प्रथम श्र तस्कन्ध, प्राचारांग की शैली का पूर्ण नहीं तो बहलांश में अनुसरण करता है। उसके आचार में दर्शन था तो इसके दर्शन में 'प्राचार' है। विचार की भूमिका का परिष्कार करते हुए प्राचार की भूमिका पर आसीन करना सूत्रकृतांग का मूल स्वर है-ऐसा मुझे अनुभव हुआ है। __ 'मूत्रकृत' नाम ही अपने आप में गंभीर अर्थसूचना लिये है। प्रार्य सुधर्मा के अनुसार यह स्व-समय (स्व-सिद्धान्त) और पर-समय (पर-सिद्धान्त) की सूचना (सत्यासत्य-दर्शन) कराने वाला शास्त्र है / ' नन्दीसूत्र (मूल-हरिभद्रीयवृत्ति एवं चूणि) का प्राशय है कि यह प्रागम स-सूत्र (धागे वाली सूई) की भांति लोक एवं प्रात्मा प्रादि तत्वों का अनुसंधान कराने वाला (अनुसंधान में सहायक) शास्त्र है। 2 श्रुतपारगामी प्राचार्य भद्रबाहु ने इसके विविध अर्थों पर चिन्तन करके शब्द शास्त्र की दृष्टि से इसेश्रत्वा कृतं = 'सूतकडं' कहा है-अर्थात तीर्थंकर प्रभु की वाणी से सुनकर फिर स चिन्तन को गणधरों ने ग्रन्थ का, शास्त्र का रूप प्रदान किया है / भाव की दृष्टि से यह सूचनाकृत - 'सूतकडं'–अर्थात्-निर्वाण या मोक्षमार्ग की सूचना-अनुसन्धान कराने वाला है। 3 'सूतकडं' शब्द से जो गंभीर भाव-बोध होता है वह अपने पाप में बहुत महत्त्वपूर्ण है, बल्कि सम्पर्ण आगम का सार सिर्फ चार शब्दों में सन्निहित माना जा सकता है। सूत्रकृतांग की पहली गाथा भी इसी भाव का बोध करती है। बुज्झिज्ज ति तिउज्जा-समझो, और तोड़ो (क्या) बन्धणं परिजाणिया-बंधन को जानकर / किमाह बन्धणं बोरो भगवान् ने बन्धन किसे बताया है ? किवा जाणं तिउद्रह-और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? 4 1. सूयगडे ण सममया गुइज्जति परममया सूइज्जति--समवायांग मूत्र 2. नन्दीगुत्र मूल वृत्ति पृ० 77, चूणि पृ० 63. 3. देखिए नियुक्ति-गाथा 18, 19, 20 तथा उनकी शीलांकवृत्ति 4. सूत्रकृतांग गाथा 1 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस एक ही गाथा में सूत्रकृत का संपूर्ण तत्वचिन्तन समाविष्ट हो गया है। दर्शन और धर्म, विचार और आचार यहाँ अपनी सम्पूर्ण सचेतनता और सम्पूर्ण क्रियाशीलता के साथ एकासनासीन हो गये हैं। दर्शनशास्त्र का लक्ष्य है---जीव और जगत के विषय में विचार एवं विवेचना करना। भारतीय दर्शनों का; चाहे वे वैदिक दर्शन (सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसा और वेदान्त) हैं या अवैदिक दर्शन (जैन, बौद्ध, चार्वाक्) है, मुख्य आधार तीन तत्व हैं 1. प्रात्म-स्वरूप की विचारणा 2. ईश्वर सत्ता विषयक धारणा 3. लोक-सत्ता (जगत स्वरूप) की विचारणा जब प्रात्म-स्वरूप की विचारणा होती है तो प्रात्मा के दुःख-सुख, बन्धन-मुक्ति की विचारणा अवश्य होती है / प्रात्मा स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? परतन्त्र है तो क्यों ? किसके अधीन ? कर्म या ईश्वर ? प्रात्मा जहाँ, जिस लोक में है उस लोक-सत्ता का संचालन/नियमन व्यवस्था कैसे चलती है ? इस प्रकार प्रात्मा (जीव) और लोक (जगत) के साथ ईश्वरसत्ता पर भी स्वयं विचार-चर्चा केन्द्रित हो जाती है और इन तत्वों की चिन्तना/चर्चा करना ही दर्शनशास्त्र का प्रयोजन है। धर्म का क्षेत्र--दर्शन शास्त्र द्वारा विवेचित तत्त्वों पर आचरण करना है। आत्मा दुःख-सुख, बन्धनमुक्ति के कारणों की खोज दर्शन करता है, पर उन कारणों पर विचार कर दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना धर्मक्षेत्र का कार्य है। प्रात्मा के बन्धन कारक तत्वों पर विवेचन करना दर्शनशास्त्र की सीमा में है और फिर उन बन्धनों से मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होना धर्म की सीमा में आ जाता है। अब मैं कहना चाहूँगा कि मुत्रकृत् की सबसे पहली गाथा, आदि वचन, जिसमें आगमकार अपने समग्र प्रतिपाद्य का नवनीत प्रस्तुत कर रहे हैं-दर्शन और धर्म का संगम-स्थल है। वन्धन के कारणों की समग्र परिचर्चा के बाद या इसी के साथ-साथ बन्धन-मुक्ति की प्रक्रिया, पद्धति और साधना पर विशद चिन्तन प्रस्तुत करने का संकल्प पहले ही पद में व्यक्त हो गया है। अतः कहा जा सकता है कि मूत्रकृत् का सम्पूर्ण कलेवर अर्थात लगभग 36 हजार पद परिमाण विस्तार, पहली गाथा का ही महाभाष्य है। इस दृष्टि से मैं कहना चाहूँगा कि सूत्रकृत् न केवल-जैन तत्वदर्शन का सूचक शास्त्र है, बल्कि प्रात्मा की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला मोक्ष-शास्त्र है। आस्तिक या आत्मवादी दर्शनों के चरम बिन्दु-मोक्ष निर्वाण/परम पद का स्वरूप एवं सिद्धि का उपाय बताने वाला आगम है-सूत्रकृत् / सूत्रकृत के सम्बन्ध में अधिक विस्तारपूर्वक पं० श्रीविजय मुनिजी म. ने प्रस्तावना में लिखा है, अतः यहाँ अधिक नहीं कहना चाहता, किन्तु सूचना मात्र के लिए यह कहना चाहता हूँ कि इसके प्रथम 'समय' अध्ययन, बारहवें 'समवसरण'; द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन 'पुण्डरीक' में अन्य मतों, दर्शन एवं उनकी मान्यताओं की स्फुट चर्चा है, उनकी युक्तिरहित अयथार्थ मान्यताओं की सूचना तथा निरसन भी इसी हेतु से किया गया है कि वे मिथ्या व अयथार्थ धारणाएँ भी मन व मस्तिष्क का वन्धन हैं। अज्ञान बहुत बड़ा बन्धन है। मिथ्यात्व की बेड़ी सबसे भयानक है, अत: उसे समझना और फिर तोड़ना तभी संभव है जब उसका यथार्थ परिज्ञान हो / साधक को सत्य का यथार्थ परिवोध देने हेतु ही शास्त्रकार ने बिना किसी धर्म-गुरु या मतप्रवर्तक का नाम लिए सिर्फ उनके मिद्धान्तों की युक्ति-रहितता बताने का प्रयास किया है। [10] Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृत म वणित पर-सिद्धान्त अाज भी दीघनिकाय, सामञ्जफलसूत्त, सूत्तनिपात, मज्झिमनिकाय, संयुक्त निकाय, महाभारत तथा अनेक उपनिपदों में विकीर्ण रूप से विद्यमान हैं, जिससे 2500 वर्ष पूर्व की उस दार्शनिक चर्चा का पता चलता है। यद्यपि 2500 वर्ष के दीर्घ अन्तराल में भारतीय दर्शनों की विचारधारागों में, सिद्धान्तों में भी कालक्रमानुसारी परिवर्तन व कई मोड़ पाये हैं, आजीवक जैसे व्यापक सम्प्रदाय तो लुप्त भी हो गये हैं, फिर भी आत्म-ग्रकर्तृत्ववादी सांख्य, कर्मचयवादी बौद्ध, पंच महाभूतवादी-चार्वाक (नास्तिक) श्रादि दर्शनों की सत्ता आज भी है। सुखवाद एवं अज्ञानवाद के वीज पाश्चात्य दर्शन में महासुखवाद, अजेयवाद एवं संशयवाद के रूप में आज परिलक्षित होते हैं। इन दर्शनों की प्राज प्रासंगिकता कितनी है यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, पर मिथ्याधारणाओं के बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य तो सर्वत्र सर्वदा प्रासंगिक रहा है, आज के युग में भी चिन्तन की सर्वांगता और सत्यानुगामिता, साथ ही पूर्वग्रह मुक्तता नितान्त प्रापेक्षिक है / सूत्रकृत का लक्ष्य भी मुक्ति तथा साधना की सम्यक्-पद्धति है। इसलिए इसका अनुशीलन-परिशीलन आज भी उतना ही उपयोगी तथा प्रासंगिक है / सूत्रकृत का प्रथम श्र तस्कंध पद्यमय है, (१५वाँ अध्ययन भी गद्य-गीति समुद्र छन्द में है) इसको गाथाएं वहुत सारपूर्ण सुभाषित जैसी हैं / कहीं-कहीं तो एक गाथा के चार पद, चारों ही चार सुभाषित जैसे लगते हैं / गाथायों की शब्दावली बड़ी सशक्त, अर्थपूर्ण तथा श्रति-मधुर है। कुछ सुभाषित तो ऐसे लगते हैं मानों गागर में सागर ही भर दिया है। जैसे: मा पच्छा असाहुया भवे - सूत्रांक 149 तवेसु वा उत्तमबंभचेरं आहंसु विज्जा-चरणं पमोक्खो 545 जे छेए विप्पमायं न कुज्जा 580 अकम्मुणा कम्म खति धीरा अगर स्वाध्यायी साधक इन श्रु त बाक्यों को कण्ठस्थ कर इन पर चिन्तन-मनन-आचरण करता रहे तो जीवन में एक नया प्रकाश, नया विकास और नया विश्वास स्वत: आने लगेगा। प्रस्तुत आगम में पर-दर्शनों के लिए कहीं-कहीं 'मंदा, मूढा “तमानो ते तमं जंति" जैसी कठोर प्रतीत होने बाली शब्दावली का प्रयोग कुछ जिज्ञासुनों को खटकता है। पार्ष-वाणी में रूक्ष या प्राक्षेपात्मक प्रयोग नहीं होने चाहिए ऐसा उनका मन्तव्य है, पर वास्तविकता में जाने पर यह आक्षेप उचित नहीं लगता / किसी व्यक्ति-विशेष के प्रति नहीं है, किन्तु उन मूढ़ या अहितकर धारणाओं के प्रति है, जिनके चक्कर में फसकर प्राणी सत्य-श्रद्धा व सत्य-प्राचार से पतित हो सकता है। असत्य की भत्र्सना और असत्य के कट-परिणान को जताने के लिए शास्त्रकार बड़ी दृढ़ता के साथ साधक को चेताते हैं / ज्वरात के लिए कटु औषधि के समान कटु प्रतीत होने वाले शब्द कहीं-कहीं अनिवार्य भी होते है। फिर आज के सभ्य युग में जिन शब्दों को कटु माना जाता है, वे शब्द उस युग में ग्राम भाषा में सहजतया प्रयुक्त होते थे ऐसा भी लगता है, अत: उन शब्दों की संयोजना के प्रति शास्त्रकार की सहज-सत्य-निष्ठा के अतिरिक्त अन्यथा कुछ नहीं हैं। 374 सुत्रकृत में दर्शन के साथ जीवन-व्यवहार का उच्च प्रादर्श भी प्रस्तुत हुया है। कपट, अहंकार, जातिमद, ज्ञानमद आदि पर भी कठोर प्रहार किये गये हैं / और सरल-सात्विक जीवन-दृष्टि को विकसित करने की प्रेरणाएँ दी हैं / कुल मिलाकर इसे गृहस्थ और श्रमण के लिए मुक्ति का मार्गदर्शक शास्त्र कहा जा सकता है। [11] Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्र तस्कंध के विषय में सामान्यत: यही कहा जाता है कि प्रथम श्र तस्कंध में परवादि-दर्शनों की सूत्र रूप में की गई चर्चा का विस्तार, तथा विविध उपन्य एवं दृष्टान्तों द्वारा पर-वाद का खण्डन एवं स्व-सिद्धान्त का मण्डन-द्वितीय श्र तस्कंध का विषय है। द्वितीय श्र तस्कंध को शैली में विविधता के भी दर्शन होते हैं / सत्रहवाँ पोंडरीक अध्ययन एक ललित काव्य-कल्पना का रसास्वादन भी कराता है, दर्शनिक विचारधाराओं को पुष्करिणी एवं कमल के उपनय द्वारा बड़ी सरसता के साथ समझाया गया है। 18, 19, 20, २१---ये अध्ययन जहाँ शुद्ध दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक वर्णन प्रस्तुत करते हैं वहाँ 22 एवं 23 वां अध्ययन सरस कथा शैली में संवादों के रूप में भ्रान्त मान्यताओं का निराकरण करके स्व-मान्यता की प्रस्थापना बड़ी सहजता के साथ करते हैं। उदाहरण के रूप में-—गोशालक भ० महावीर के प्रति आक्षेप करता है कि महावीर पहले एकान्तसेवी थे, किंतु अब हजारों लोगों के झुड के बीच रहते हैं, अत: अब उनकी साधना दूषित हो गई है। मुनि पाक कुमार इस प्राक्षेप का ऐसा सटीक अध्यात्मचिन्तनपूर्ण उत्तर देता है कि वह हजारों वर्ष वाद अाज भी अध्यात्मजगत् का प्रकाशस्तंभ बना हुआ है / देखिए मुनि आर्द्र क का उत्तरप्राइवखमाणो वि सहस्समझे एगंतयं सारयति तहच्चे। -सूत्रांक-७९० भले ही भगवान महावीर हजारों मनुष्यों के बीच बैठकर धर्म-प्रवचन करते हैं, किंतु वे आत्मद्रष्टा हैं, राग-द्वेष से रहित हैं, अत: वे सदा अपने आप में स्थित हैं। हजारों क्या, लाखों के बीच रहकर भी वे वास्तव में एकाकी ही हैं, अपनी आत्मा के साथ रहने वाले साधक पर बाहरी प्रभाव कभी नहीं पड़ता। अध्यात्म-योग की यह महान अनुभूति पाक कुमार ने सिर्फ दो शब्दों में ही व्यक्त करके गोशालक की बाह्य-दृष्टि-परकता को ललकार दिया है। संवादों में इस प्रकार की प्राध्यात्मिक अनुभूतियों से आद्रकीय अध्ययन बड़ा ही रोचक व शिक्षाप्रद बन गया है। 23 वें (छठे) नालन्दीय अध्ययन में तो गणधर गौतम एक मनोवैज्ञानिक शिक्षक के रूप में प्रस्तुत होते हैं जो उदक पेढालपुत्र को सहजता और वत्सलता के साथ विनय व्यवहार की शिक्षाएं देते हए उसकी धारणाओं का परिष्कार करते हैं / वास्तव में प्रथम श्रु तस्कंध जहाँ तर्क-वितर्क प्रधान चर्चाओं का केन्द्र है, वहां द्वितीय श्रुतस्कंध में तर्क के साथ श्रद्धा का सुन्दर सामञ्जस्य प्रकट हुआ है। इस प्रकार द्वितीय श्र तस्कंध प्रथम का पूरक ही नहीं, कुछ विशेष भी है, नवीन भी है। और अनुदद्घाटित अर्थों का उदघाटक भी है। प्रस्तुत संपादन : सूत्रकृत के प्रस्तुत सौंपादन में अब तक प्रकाशित अनेक संस्करणों को लक्ष्य में रखकर संपादन विवेचन किया गया है / मुनि श्री जम्बूविजयजी द्वारा संपादित मूल पाठ हमारा आदर्श रहा है, किन्तु उसमें भी यत्र-तत्र चूर्णिसम्मत कुछ सशोधन हमने किये हैं। प्राचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति, प्राचीनतम संस्कृतमिश्रित प्राकृतव्याख्या चणि, तथा प्राचार्य शीलांक कृत वत्ति---इन तीनों के आधार पर हमने मूल का हिन्दी भावार्थ व विवेचन करने का प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं चाणकार तथा वत्तिकार के पाठों में पाठ-भेद तथा अर्थ-भेद भी हैं। यथाप्रसंग उसका भी उल्लेख करने का प्रयास मैंने किया है, क्योंकि पाठक उन दोनों के अनुशीलन से स्वयं की बुद्धि-कमोटी Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उसे कसकर निर्णय करे / चणि एवं वत्ति के विशिष्ट अर्थों को मूल संस्कृत के साथ हिन्दी में भी दिया गया है / जहाँ तक मेरा अध्ययन है, अब तक के विवेचनकर्ता सस्कृत को ही महत्व देकर चले हैं, चणिगत तथा वृत्तिगत पाठों की मूल रूप में अंकित करके ही इति करते रहे हैं, किन्तु इससे हिन्दी-पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता, जबकि ग्राज का पाठक अधिकांशत: हिन्दी के माध्यम से ही जान पाता है। मैंने उन पाठों का हिन्दी अनुवाद भी प्रायश: देने का प्रयत्न किया है। यह संभवतः नया प्रयास ही माना जायेगा। __ आगम पाठों से मिलते-जुलते अनेक पाठ व शब्द बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलते हैं जिनकी तुलना अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है, पाद-टिप्पण में स्थान-स्थान पर बौद्ध ग्रन्थों के वे स्थल देकर पाठकों को तुलनात्मक अध्ययन के लिए इंगित किया गया है, प्राशा है इससे प्रबुद्ध पाठक लाभान्वित होंगे। अन्त में चार परिशिष्ट हैं, जिनमें गाथानों की अकारादि सूची; तथा विशिष्ट शब्द सूची भी है। इसके सहारे पागमगाथा व पाठों का अनुसंधान करना बहुत सरल हो जाता है / अनुमधाताओं के लिए इस प्रकार की सूची बहुत उपयोगी होती है। पं० श्री विजयमुनि जी शास्त्री ने विद्वत्तापूर्ण भूमिका में भारतीय दर्शनों की पृष्ठभूमि पर सुन्दर प्रकाश डालकर पाठकों को अनुगृहीत किया है / वह प्रथम भाग में दी गई है। ___इस सम्पादन में युवाचार्य श्री मधुकरजी महाराज का विद्वत्तापूर्ण मार्ग-दर्शन बहुत बड़ा सम्बल बना है / साथ ही विश्रत विद्वान परम सौहार्दशील पंडित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का गंभीर-निरीक्षण-परीक्षण, पं० मुनि श्री नेमीचन्द्रजी महाराज का प्रात्मीय भावपूर्ण सहयोग-मुझे कृतकार्य बनाने में बहत उपकारक रहा है। मैं विनय एवं कृतज्ञता के साथ उन सबका आभार मानता हूँ और आशा करता हूँ। श्रुत-सेवा के इस महान कार्य में मुझे भविष्य में इसी प्रकार का सौभाग्य मिलता रहेगा। 30 मार्च, 1982 -श्रीचन्द सुराना Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका [द्वितीय श्रु तस्कंध : अध्ययन 1 से 7 तक] पोंडरीक : प्रथम अध्ययन : पृष्ठ 1 से 51 सूत्रांक मना सूत्र परिचय अध्ययन परिचय पुष्करिणी और उसके मध्य में विकसित पुण्डरीक का वर्णन 639-42 श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष 643 उत्तम श्वेत कमल को पाने में सफल : निस्पृह भिक्षु 644-45 दृष्टान्तों में दान्तिक की योजना 646-47 धर्मश्रद्धालु राजा ग्रादि के मस्तिष्क में अन्यतीथिकों द्वारा स्वधर्मप्रवेश का तरीका 648-53 प्रथम पुरुष : तज्जीव तच्छरीरवादी का वर्णन 654-58 द्वितीय पुरुष : पाञ्चमहाभूतिक : स्वरूप विश्लेषण 659-62 तृतीय पुरुप : ईश्वर कारणवादी : स्वरूप और विश्लेषण ईश्वर कारणवाद का मन्तव्य : ग्रात्माद्वंत बाद का स्वरूप : प्रात्मात वाद-युक्तिविरुद्ध 663-66 चतुर्थ पुरुष : नियतिवादी : स्वरूप और विश्लेषण 667-76 भिक्षावृत्ति के लिए समुद्यत भिक्षु के लिए वैराग्योत्पादक परिज्ञान सूत्र 677-78 गृहस्थवत् आरभ-परिग्रह युक्त श्रमण-माहन और इन दोनों से मुक्त निर्ग्रन्थ भिक्षु 679-93 पंचम पुरुष : अनेक गुण विशिष्ट भिक्षु 25 क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : पृष्ठ 52 से 105 52-53 54 प्राथमिक परिचय संसार के समस्त जीव तेरह क्रियास्थानों में [क्रियास्थान : परिभाषा, दण्डसमादान : क्रियास्थानों द्वारा वर्णवन्ध] प्रथम क्रियास्थान : अर्थदण्ड प्रत्यायिक द्वितीय क्रियास्थान : अनर्थदण्ड प्रत्ययिक तृतीय क्रियास्थान : हिसादण्ड प्रत्ययिक चतुर्थ क्रियास्थान : अकस्माद् दण्ड प्रत्ययिक पंचम क्रियास्थान : दष्टि विपर्यास दण्ड प्रत्यायिक छठा क्रियास्थान : मृपावाद प्रत्यायिक सप्तम क्रियास्थान : अदत्तादान प्रत्ययिक 699 700 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702 703 109 __ अष्टम क्रियास्थान : अध्यात्मप्रत्ययिक नौवाँ क्रियास्थान : मान प्रत्ययिक दसवां क्रियास्थान : मित्र दोष प्रत्यायिक 705 ग्यारहवां क्रियास्थान : माया प्रत्यायिक बारहवां क्रियास्थान : लोक प्रत्यायिक 707 तेरहवाँ क्रियास्थान : ऐर्यापथिक, अधिकारी स्वरूप, प्रक्रिया एवं सेवन 708-10 अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान के विकल्प : चर्या अधिकारी : स्वरूप 711 धर्मपक्ष नामक द्वितीय स्थान के विकल्प 712-16 तृतीय स्थान : मिश्र पक्ष का अधिकारी एवं स्वरूप 717-20 दोनों स्थानों में सबका समावेश : क्यों, कैसे और पहचान 721 तेरह ही क्रियास्थानों का प्रतिफल ___ अाहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : पृष्ठ 106 से 131 प्राथमिक 722.31 अनेकविध वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवद्धि एवं आहार की प्रक्रिया 732 नानाविध मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया [देव-नारकों का ग्राहार, स्त्री-पुरुष एवं नपुंसक की उत्पत्ति का रहस्य | पंचेन्द्रिय तिर्यकचों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं ग्राहार की प्रक्रिया 738 विकलेन्द्रिय बम प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति, मंद्धि और आहार की प्रक्रिया 739 अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और पृथ्वीकाय के अाहारादि का निरूपण 740-46 समुच्चय रूप से सब जीवों की पाहारादि प्रक्रिया और आहार-संयम-प्रेरणा प्रत्याख्यान क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : पृष्ठ 132 से 145 प्राथमिक अप्रत्याख्यानी प्रात्मा का स्वरूप और प्रकार 748-49 प्रत्याख्यान क्रिया रहित सदैव पापकर्म बन्धकर्ता : क्यों और कैसे 750-52 संज्ञी-असंज्ञी-अप्रत्याख्यानीः सदैव पाप कर्मरत समाधान : दो दृष्टान्तों द्वारा] 753 संयत, विरत पापकर्म प्रत्याख्यानी : कौन और कैसे 106-107 108 118 121 124 126 130 132 13 // 136 अनाचारश्रुत : पंचम अध्ययन : पृष्ठ 146 से 163 प्राथमिक 146 अनाचरणीय का निषेध 147 755-64 अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र 148 765.81 नास्तिकता और आस्तिकता के आधारभूत संज्ञाप्रधान : सूत्र 152 लोक-अलोक, जीव-ग्रजीव, धर्म-अधर्म, वन्ध और मोक्ष, पुण्य और पाप, पाश्रव-संबर, वेदना और निर्जरा, किया और प्रक्रिया, क्रोध, मान, माया और लोभ, राग और द्वेष, देव और देवी, सिद्धि और प्रसिद्धि, साधु और असाधु [15] Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782-85 कतिपय निषेधात्मक आचारसूत्र 786 जिनोपदिष्ट प्राचारपालन में प्रगति करे 163 प्रार्द्रकीय : छठा अध्ययन : पृष्ठ 164 से 183 प्राथमिक 787-92 भगवान महावीर पर लगाये गये आक्षेपों का प्राकमुनि द्वारा परिहार 793-800 गोशालक द्वारा सुविधाबादी धर्म की चर्चा : पाक द्वारा प्रतिवाद 801-4 भीरु होने का प्राक्षेप और समाधान 805-11 गोशालक द्वारा प्रदत्त वणिक की उपमा का आद्रक द्वारा प्रतिवाद 811-28 बौद्धों के अपसिद्धान्त का आर्द्रक द्वारा खण्डन एवं स्व-सिद्धान्त का मंडन 829-31 पशुवध समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन का फल 832-37 सांख्यमतवादी एकदण्डिकों के साथ तात्विक चर्चा 838-40 हस्तितापसों का विचित्र अहिंसामत : पाक द्वारा प्रतिवाद 841 दुस्तर संसार-समुद्र को पार करने का उपाय : रत्नत्रय रूप धर्म 167 170 171 174 178 176 नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : पृष्ठ 184 से 217 187 प्राथमिक 842-44 नालन्दानिवासी लेप श्रमणोपासक और उसकी विशेषताएं 845 उदक निग्रन्थ की जिज्ञासा : गणधर गौतम की समाधानतत्परता 846-47 उदक निर्ग्रन्थ की प्रत्याख्यान विषयक शंका : गौतमस्वामी द्वारा स्पष्ट समाधान (गपति चोर विमोक्षण न्याय : (उदक निम्रन्थ की भाषा में दोष) 848-50 उदक निग्रन्थ द्वारा पुन: प्रस्तुत प्रश्न और गौतमस्वामी द्वारा प्रदत्त सटीक उत्तर 851-52 उदक की आक्षेपात्मक शंका: गौतम का समाधान 853-55 निग्रंथों के साथ श्रीगौतम स्वामी के संवाद 856-66 दष्टान्तों और युक्तियों द्वारा श्रमणोपासक प्रत्याख्यान की निविषयता का निराकरण 867-73 कृतज्ञताप्रकाश की प्रेरणा और उदक निग्रन्थ का जीवनपरिवर्तन परिशिष्ट 188 192 194 196 201 214 गाथाओं को अकरादि अनुक्रमणिका विशिष्ट शब्दसूची अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली 223 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर भयवं सिरिसुहम्मसामिपणीयं बिइयमंग सूयगडंगसुत्तं [बीओ सुयक्खंधो] पंचम गणधर भगवत् सुधर्मस्वामिप्रणीत द्वितीय अंग सूत्रकृतांगसूत्र (द्वितीय श्रुतस्कंध) Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांगसूत्र : द्वितीय श्रु तस्कन्ध परिचय 0 सूत्रकृतांग सूत्र के इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध को नियुक्तिकार और वृत्तिकार ने 'महाध्ययन' भी कहा है, जिसके दो कारण बताए हैं--(१) इस श्र तस्कन्ध के अध्ययन बहुत बड़े-बड़े हैं (2) प्रथम श्रुतस्कन्ध में उक्त संक्षिप्त विषय इन अध्ययनों में दृष्टांत देकर विस्तारपूर्वक वर्णित है।' - द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन हैं। इन के नाम इस प्रकार हैं-(१) पुण्डरीक, (2) क्रियास्थान, (3) आहारपरिज्ञा (4) प्रत्याख्यानक्रिया (5) आचारश्रुत या प्रागारश्रुत (6) प्रार्द्र कीय, और (7) नालन्दीय / 0 इन सात अध्ययनों में से 'आचारथत' और 'आर्द्र कीय' ये दो अध्ययन पद्यरूप हैं, शेष पांच अध्ययन गद्यरूप हैं। अाहारपरिज्ञा में केवल चार पद्य हैं, शेष समग्र अध्ययन गद्यमय है। नियुक्तिकार इन सात अध्ययनों को क्रमशः 17 वें अध्ययन से 23 वें अध्ययन तक मानते हैं। 1. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 142-143 (ख) सुत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 267 सूत्रकृतांग नियुक्तिगाथा 22 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरोक : प्रथम अध्ययन प्राथमिक / सूत्रकृतांगसूत्र (द्वि. श्रु.) के प्रथम अध्ययन का नाम 'पौण्डरीक' है / - पुण्डरीक शब्द श्वेत शतपत्र (सौ पंखुड़ियों वाले उत्तम श्वेत कमल), तथा पुण्डरीक नामक एक राजा (जो उत्तम संयमनिष्ठ साधु बना) के अर्थ में प्रयुक्त होता है। D नियुक्तिकार ने पुण्डरीक के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणन, संस्थान और भाव, ये आठ निक्षेप किये हैं, नामपुण्डरीक तथा स्थापनापुण्डरीक सुगम हैं। द्रव्यपुण्डरीक सचित्त अचित्त, मिश्र तीन प्रकार के होते हैं। 7 द्रव्यपुण्डरीक का अर्थ है-सचित्तादि द्रव्यों में जो श्रेष्ठ, उत्तम, प्रधान, प्रवर, एवं ऋद्धिमान हो। इस दृष्टि से नरकगति को छोड़ कर शेष तीनों गतियों में जो-जो सुन्दर या श्रेष्ठ पदार्थ हो, उसे पुण्डरीक और निकृष्ट को कण्डरीक समझना चाहिए / जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प एवं भुजपरिसर्प में स्वभाव से या लोकानुश्रुति से जो प्रवर व प्रधान हैं, वे द्रव्यपुण्डरीक हैं / मनुष्यों में अरिहन्त, चक्रवर्ती, चारणश्रमण, विद्याधर, हरिवंशादि उच्चकुलोत्पन्न तथा ऋद्धिसम्पन्न आदि द्रव्य पौण्डरीक हैं। चारों निकायों के देवों में इन्द्र, सामानिक आदि प्रधान होने से पौण्डरीक है। इसी प्रकार अचित्त एवं मिश्र द्रव्य पौण्डरीक समझ लेने चाहिए। 0 देवकुरु आदि शुभ प्रभाव, एवं भाव वाले क्षेत्र क्षेत्रपौण्डरीक हैं। 0 भवस्थिति की दृष्टि से अनुत्तरौपपातिक देव तथा कायस्थिति की दृष्टि से एक, दो, तीन या सात-पाठ भवों के अनन्तर मोक्ष पाने वाले शुभ एवं शुद्धाचार से युक्त मनुष्य कालपौण्डरीक हैं। / परिकर्म, रज्जु आदि से लेकर वर्ग तक दस प्रकार के गणित में रज्जुगणित प्रधान होने से वह गणनपौण्डरीक है। 0 छह संस्थानों में से समचतुरस्र संस्थान श्रेष्ठ होने से संस्थानपौण्डरीक है / प्रौदयिक से लेकर सान्निपातिक तक छह भावों में से जिस-जिस भाव में जो प्रधान या प्रवर हों, वे भावपौण्डरीक हैं, शेष भावकण्डरीक हैं। जैसे कि औदयिक भाव में तीर्थकर, अनुत्तरौपपातिक देव, तथा श्वेत शतपत्रवाला कमल हैं, इसी तरह अन्य भावों में भी जो श्रेष्ठ हैं, वे भावपौण्डरीक हैं। अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में, ज्ञानादिविनय में तथा धर्मध्यानादि अध्यात्म में जो श्रेष्ठ मुनि हैं, वे भावत: पौण्डरीक हैं, शेष कण्डरीक हैं / - प्रस्तुत अध्ययन में सचित्त तिर्यञ्चयोनिक एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक श्वेतकमलरूप द्रव्य पौण्डरीक का अथवा औदयिक भाववर्ती वनस्पतिकायिक श्वेतशतपत्र रूप भावपौण्डरीक का, तथा सम्यग्दर्शन, चारित्र, विनय-अध्यात्मवर्ती सुसाधु-श्रमण रूप भावपौण्डरीक का वर्णन है।' 1. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 144 / 157 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 268-269 का सारांश Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन पुण्डरीक नामक श्वेतकमल से उपमा देकर वर्णन किया गया है, अथवा आदि में पौण्डरीक नाम ग्रहण किया गया है, इस कारण इस अध्ययन का 'पौण्डरीक' नाम रखा गया है।' - एक विशाल पुष्करिणी में मध्य में एक पुण्डरीक कमल खिला है, उसे प्राप्त करने के लिए पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा से क्रमशः चार व्यक्ति आए। चारों ही पुष्करिणी के गाढ़ कीचड़ में फंस गए, पुण्डरीक को पाने में असफल रहे / अन्त में एक नि:स्पृह संयमी श्रमण अाया। उसने पुष्करिणी के तट पर ही खड़े रह कर पुण्डरीक को पुकारा और वह उसके हाथ में आ गया। प्रस्तुत रूपक का सार यह है--संसार पुष्करिणी के समान है, उसमें कर्मरूपी पानी और विषयभोगरूपी कीचड़ भरा है। अनेक जनपद चारों ओर खिले कमलों के सदृश हैं। मध्य में विकसित श्वेत पुण्डरीक कमल राजा के सदृश है। पुष्करिणी में प्रवेश करने वाले चारों पुरुष क्रमशः तज्जीव-तच्छरीरवादी, पंचभूतवादी, ईश्वरकारणवादी और नियतिवादी हैं / ये चारों ही विषयभोगरूप पंक में निमग्न हो कर पुण्डरोक को पाने में असफल रहे / अन्त में जिनप्रणीतधर्मकुशल श्रमण पाया / तट धर्मतीर्थ रूप है। श्रमण द्वारा कथित शब्द धर्मकथा सदृश हैं और पुण्डरीक कमल का उठना निर्वाण के समान है। जो अनासक्त, निःस्पृह और सत्यअहिंसादि महाव्रतों के निष्ठापूर्वक पालक हैं, वे ही निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं, जो विपरीत सावध आचार-विचारवाले हैं, वे निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकते। यही प्रथम अध्ययन के उपमायुक्त वर्णन का सार है। प्रस्तुत अध्ययन में पुष्करिणी में पुण्डरीक कमल-प्राप्ति की उपमा देकर यह भी संकेत किया गया है कि जो लोग प्रव्रज्याधारी हो कर भी विषयपंक में निमग्न हैं, वे स्वयं संसारसागर को पार नहीं कर सकते, तब दूसरों को कैसे पार पहुंचा सकेंगे ? 0 गद्यमय इस अध्ययन का मूल उद्देश्य विषयभोग से या विपरीत आचार-विचार से निवृत्त करके मुमुक्षु जीवों को मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करना है। - इस अध्ययन के कुछ शब्द और वाक्य आचारांग के शब्दों एवं वाक्यों से मिलते-जुलते हैं / 0 यह महाऽध्ययन सूत्र 638 से प्रारम्भ होकर सूत्र 663 पर समाप्त होता है / 1. (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 271 (ख) सूयगडंग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ. 121 2. (क) जैनागमसाहित्य : मनन और मीमांसा पृ. 86, 87 (ख) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भा. 1, पृ. 157-158 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोंडरीयं : पढमं अज्झयणं पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन पुष्करिणी और उसके मध्य में विकसित पुण्डरीक का वर्णन ६३८-सुयं मे पाउसंतेण भगवता एवमक्खायं-इह खलु पोंडरीए णामं अज्झयणे, तस्स णं अयमठे पण्णत्ते--से जहाणामए पोक्खरणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरोगिणी पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा। तीसे गं पुक्खरणीए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे पउमवरपोंडरिया बुइया अणुपुवट्ठिया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादीया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा / तीसे णं पुक्खरणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए अणुपुवट्ठिए ऊसिते रुइले वण्णमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए दरिसणिए अभिरूवे पडिरूवे / सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरणीए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे पउमवरपुडरीया बुइया प्रणुपुत्वद्विता जाव पडिरूवा। सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरणीए बहुमज्झदेसभागे एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइते अणुपुवट्टिते जाव पडिरूवे / ६३८-~~(श्रीसुधर्मास्वामी श्रीजम्बूस्वामी से कहते हैं) हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है-'उन भगवान ने ऐसा कहा था'-'इस आर्हत प्रवचन में पौण्डरीक नामक एक अध्ययन है, उसका यह अर्थभाव उन्होंने बताया-कल्पना करो कि जैसे कोई पुष्करिणी (कमलों वाली बावड़ी) है, जो अगाध जल से परिपूर्ण है, बहुत कीचड़वाली है, (अथवा बहुत से श्वेत पद्म होने तथा स्वच्छ जल होने से अत्यन्त श्वेत है), बहत पानी होने से अत्यन्त गहरी है अथवा बहुत-से कमलों से युक्त है। व पूष्करिणी (कमलों वाली इस) नाम को सार्थक करनेवाली या यथार्थ नाम वाली, अथवा जगत में लब्धप्रतिष्ठ है / वह प्रचुर पुण्डरीकों-श्वेतकमलों से सम्पन्न है। वह पुष्करिणी देखने मात्र से चित्त को प्रसन्न करनेवाली, दर्शनीय, प्रशस्तरूपसम्पन्न, अद्वितीयरूपवाली (अत्यन्त मनोहर) है। उस पुष्करिणी के देश-देश (प्रत्येक देश) में, तथा उन-उन प्रदेशों में यत्र-तत्र बहुत-से उत्तमोत्तम पौण्डरीक (श्वेतकमल) कहे गए हैं; जो क्रमशः ऊँचे उठे (उभरे) हुए हैं। वे पानी और कीचड़ से ऊपर उठे हुए हैं / अत्यन्त दीप्तिमान् हैं, रंग-रूप में अतीव सुन्दर हैं, सुगन्धित हैं, रसों से युक्त हैं, कोमल स्पर्शवाले हैं, चित्त को प्रसन्न करनेवाले, दर्शनीय, अद्वितीय रूपसम्पन्न एवं सुन्दर हैं। उस पुष्करिणी के ठीक बीचोंबीच (मध्य भाग में) एक बहुत बड़ा तथा कमलों में श्रेष्ठ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पौण्डरीक (श्वेत) कमल स्थित बताया गया है। वह भी उत्तमोत्तम क्रम से विलक्षण रचना से युक्त है, तथा कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुना है, अथवा बहुत ऊँचा है। वह अत्यन्त रुचिकर या दीप्तिमान् है, मनोज्ञ है, उत्तम सुगन्ध से युक्त है, विलक्षण रसों से सम्पन्न है, कोमलस्पर्श युक्त है, अत्यन्त आह्लादक दर्शनीय, मनोहर और अतिसुन्दर है / / (निष्कर्ष यह है) उस सारी पुष्करिणी में जहाँ-तहाँ, इधर-उधर सभी देश-प्रदेशों में बहुत से उत्तमोत्तम पुण्डरीक (श्वेत कमल) भरे पड़े (बताए गए) हैं। वे क्रमशः उतार-चढ़ाव से सुन्दर रचना से युक्त हैं, जल और पंक से ऊपर उठे हुए, काफी ऊँचे, विलक्षण दीप्तिमान् उत्तम वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त तथा पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न अत्यन्त रूपवान् एवं अद्वितीय सुन्दर हैं / उस समग्र पुष्करिणी के ठीक बीच में एक महान् उत्तमपुण्डरीक (श्वेतकमल) बताया गया है, जो क्रमशः उभरा हुआ यावत् (पूर्वोक्त) सभी गुणों से सुशोभित बहुत मनोरम है / विवेचन–पुष्करिणी और उसके मध्य में विकसित पुण्डरीक का वर्णन-प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने संसार का मोहक स्वरूप सरलता से समझाने और उसके आकर्षण से ऊपर उठकर साधक को मोक्ष के अभिमुख करने के लिए पुष्करिणी और पुण्डरीक के रूपक का अवलम्बन लिया है। पुष्करिणी के विस्तृत वर्णन के पीछे दो मुख्य रहस्य प्रतीत होते हैं (1) पुष्करिणी की विशालता एवं व्यापकता से संसार की भी व्यापकता (चतुर्गतिपर्यन्त तथा अनन्तकालपर्यन्त) और विशालता (चतुर्दशरज्जुपरिमित) को साधक समझले / (2) जैसे इसमें विविध कमल, उनकी स्वाभाविक सजावट, उनकी वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श की उत्तमता आदि चित्ताकर्षक एवं मनोहारी होने से व्यक्ति उन्हें पाने के लिए ललचाता है, वैसे ही जगत् के विविध विषयों और चित्ताकर्षक भोगोपभोगयोग्य पदार्थों की बाह्य सुन्दरता, मोहकता आदि देख कर अपरिपक्व साधक सहसा ललचा जाता है / इसी प्रकार पुण्डरीक कमल के छटादार वर्णन के पीछे दो प्रेरणाएँ प्रतीत होती हैं-(१) पुण्डरीक के समान संसार के विषयभोगरूपी पंक एवं कर्म-जल से ऊपर उठकर संयमरूप श्वेतकमल को ग्रहण करे; और (2) मोक्ष-प्राप्ति के लिए संसार की मोहमाया से ऊपर उठकर साधक श्रेष्ठ पुण्डरीकसम सम्यग्दर्शनादि रूप धर्म को अपनाए।' 'सव्वावंति' पद से पुष्करिणी और पौण्डरीक कमल के वर्णन को संक्षेप में दोहराने के पीछे शास्त्रकार का आशय पुष्करिणी और पौण्डरीक दोनों के चित्ताकर्षक वर्णन का निष्कर्ष बताना प्रतीत होता है / वृत्तिकार का आशय तो मूलार्थ में दिया जा चुका है। चूर्णिकार का आशय यह है—"सभी मृणाल, नाल, पत्र, केसर, किंजल्क (कली) से युक्त अनुक्रम से प्राप्त, अथवा जहाँ-तहाँ उतार-चढ़ाव से उभरे हुए पुण्डरीक कमल / "2 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 271 पर से 2. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 272 पर से (ख) सूयगडंग चूणि (मू. पा. टि.) पृ. 122 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 639-640 ] श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष ६३६---अह पुरिसे पुरथिमातो दिसातो पागम्म तं पुक्खरणी तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एग पउमवरपोंडरीयं अणुपुवद्वितं ऊसियं जाव पडिरूवं / तए णं से पुरिसे एवं वदासी-अहमंसि पुरिसे खेत्तण्णे कुसले पंडिते वियत्ते मेधावी अबाले मग्गत्थे मग्गविदू मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खेस्सामि त्ति कटु इति वच्चा से पुरिसे अमिक्कमे तं प्रक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए, महंते सेए, पहोणे तोरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरीयं, जो हवाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसणे पढमें पुरिसज्जाए। ६३६-अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस पुष्करिणी के तीर (किनारे) पर खड़ा होकर उस महान् उत्तम एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः (उतार-चढ़ाव के कारण) सुन्दर रचना से युक्त तथा जल और कीचड़ से ऊपर उठा हुआ एवं यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) बड़ा ही मनोहर है / इसके पश्चात उस श्वेतकमल को देखकर उस पुरुष ने (मन ही मन) इस प्रकार कहा-"मैं पुरुष हूँ, खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ या निपुण) हूँ, कुशल (हित में प्रवृत्ति एवं अहित से निवृत्ति करने में निपुण) हूँ, पण्डित (पाप से दूर, धर्मज्ञ या देशकालज्ञ), व्यक्त (बाल-भाव से निष्क्रान्त-वयस्क अथवा परिपक्वबुद्धि), मेधावी (बुद्धिमान्) तथा अबाल (बालभाव से निवृत्त-युवक) हूँ। मैं मार्गस्थ (सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित) हूँ, मार्ग का ज्ञाता हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का (जिस मार्ग से चल कर जीव अपने अभीष्टदेश में पहुंचता है, उसका) विशेषज्ञ हूँ। मैं कमलों में श्रेष्ठ इस पुण्डरीक कमल को (उखाड़ कर) बाहर निकाल लूगा / इस इच्छा से यहाँ आया हूँ-यह कह कर वह पुरुष उस पुष्करिणो में प्रवेश करता है / वह ज्यों-ज्यों उस पुष्करिणी में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक गहरा पानी और कीचड़ का उसे सामना करना पड़ता है / अतः वह व्यक्ति तीर से भी हट चुका और श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के पास भी नहीं पहुंच पाया। वह न इस पार का रहा, न उस पार का / अपितु उस पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फंस कर अत्यन्त क्लेश पाता है। यह प्रथम पुरुष की कथा है। ६४०-अहावरे दोच्चे पुरिसज्जाए। अह पुरिसे दक्खिणातो दिसातो आगम्म तं पुक्खरिणीं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुश्वदितं जाव पडिरूवं, तं च एत्थ एगं पुरिसजातं पासति पहोणं तोरं, अपत्तं पउमवरपोंडरीयं, जो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णं / तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वदासी-ग्रहो णं इमे पुरिसे अखेयण्णे प्रकुसले अपंडिते प्रवियत्ते अमेहावी बाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जं णं एस पुरिसे 'खेयन्ने कुसले Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध जाव पउमवरपोंडरोयं उन्निक्खेस्सामि,' शो य खलु एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहाणं एस पुरिसे मन्ने। अहमंसि पुरिसे खेयण्णे कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्त गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए महंते सेए, पहीणे तीरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरीयं, गो हव्वाए णो पाराए, अंतरा सेयंसि विसण्णे दोच्चे पुरिसजाते। ६४०-अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है / (पहले पुरुष के कीचड़ में फंस जाने के बाद) दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस (पुष्करिणी) के दक्षिण किनारे पर ठहर कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) अत्यन्त सुन्दर है / वहाँ (खड़ाखड़ा) वह उस (एक) पुरुष को देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, और उस प्रधान श्वेतकमल तक पहुंच नहीं पाया है। जो न इधर का रहा है, न उधर का, बल्कि उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है / तदनन्तर दक्षिण दिशा से आये हुए इस दूसरे पुरुष ने उस पहले पुरुष के विषय में कहा कि- "अहो ! यह पुरुष खेदज्ञ (मार्गजनित खेद-परिश्रम को जानता) नहीं है, (अथवा इस क्षेत्र का अनुभवी नहीं है), यह अकुशल है, पण्डित नहीं है. परिपक्व बुद्धिवाला तथा चतुर नहीं है, यह अभी बाल-अज्ञानी है। यह सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं है, न ही यह व्यक्ति मार्गवेत्ता है। जिस मार्ग से चल कर मनुष्य अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करता है, उस मार्ग को गतिविधि तथा पराक्रम को यह नहीं जानता। जैसा कि इस व्यक्ति ने यह समझा था कि मैं बड़ा खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ हूँ, कुशल हूँ, यावत् पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त हूँ, मैं इस पुण्डरीक को उखाड़ कर ले आऊंगा, किन्तु यह पुण्डरीक इस तरह उखाड़ कर नहीं लाया जा सकता जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है।" ___ "मैं खेदज्ञ (या क्षेत्रज्ञ)पुरुष हूँ, मैं इस कार्य में कुशल हूँ, हिताहित विज्ञ हूँ, परिपक्वबुद्धिसम्पन्नप्रौढ़ हूँ, तथा मेधावी हूँ, मैं नादान बच्चा नहीं हूँ, पूर्वज सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित हूँ, उस पथ का ज्ञाता हूँ, उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता हूँ। मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाऊंगा, (मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके ही यहाँ आया हूँ) यों कह कर वह द्वितीय पुरुष उस पुष्करिणी में उतर गया / ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक जल और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया / इस तरह वह भी किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी प्राप्त न कर सका / यों वह न इस पार का रहा और न उस पार का रहा / वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस कर रह गया और दु:खी हो गया। यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है / ६४१---ग्रहावरे तच्चे पुरिसजाते / / अह पुरिसे पच्चत्थिमानो दिसानो पागम्म तं पुक्खर्राण तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 642 ] [ 11 तं महं एगं पउमवरपुडरीयं अणुपुवद्वियं जाव पडिरूवं, ते तत्थ दोणि पुरिसज्जाते पासति पहीणे तोरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरोयं, णो हव्वाए णो पाराए, जाव सेयंसि निसण्णे / तते णं से पुरिसे एवं वदासी-~-अहो णं इमे पुरिसा प्रखेत्तन्ना अकुसला अपंडिया प्रवियत्ता अमेहावी बाला णो मग्गत्था णो मगविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, जंणं एते पुरिसा एवं मण्णे 'अम्हेतं पउमबरपोंडरीयं उण्णिक्खेस्सामो,' णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उणिक्खेतव्वं जहा णं एए पुरिसा मण्णे / अहमंसि पुरिसे खेतन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अबाले मग्गथे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उणिक्खेस्सामि इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव अंतरा सेयंसि निसण्णे तच्चे युरिसजाए। ६४१-इसके पश्चात् तीसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है। दुसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस के किनारे खड़ा हो कर उस एक महान् श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त यावत् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है। वह वहां (उस पुष्करिणी में) उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चुके और उस उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके, तथा जो न इस पार के रहे और न उस पार के रहे, अपितु पुष्करिणी के अधबीच में अगाध कीचड़ में ही फंस कर दुःखी हो गए थे। इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए इस प्रकार कहा-"अहो ! ये दोनों व्यक्ति खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ नहीं हैं. कशल भी नहीं है, न पण्डित हैं, न ही प्रौढ-परिपक्वबुद्धिवाले हैं. न ये बुद्धिमान हैं, ये अभी नादान बालक-से हैं, ये साधु पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित नहीं हैं, तथा जिस मार्ग पर चल कर जीव अभीष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते / इसी कारण ये दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि हम इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाएंगे, परन्तु इस उत्तम श्वेतकमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना कि ये दोनों पुरुष मानते हैं।" "अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित, परिपक्वबुद्धिसम्पन्न, मेधावी, युवक, मार्गवेत्ता, मार्ग की गतिविधि और पराक्रम का ज्ञाता हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल कर ही रहँगा, मैं यह संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ।" यों कह कर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा / अतः वह तीसरा व्यक्ति भी वहीं कीचड़ में फंसकर रह गया और अत्यन्त दुःखी हो गया। वह न इस पार का रहा और न उस पार का। यह तीसरे पुरुष की कथा है। ६४२-~-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए। अह पुरिसे उत्तरातो दिसातो पागम्म तं पुक्खरणि तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति एमं Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पउमवरपोंडरीयं अणुपुवद्वितं जाव पडिरूवं / ते तत्थ तिण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अप्पत्ते जाव सेयंसि निसण्णे। तते णं से पुरिसे एवं वदासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेत्तण्णा जाव णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे-अम्हेतं पउमवरपोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामो / णो खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उपिणक्खयब्वं जहा णं एते पुरिसा मण्णे / प्रहमंसि पुरिसे खेयण्णे जाब मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उपिणक्खिस्सामि इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए महंते सेते जाव विसण्णे चउत्थे पुरिसजाए। ६४२-एक-एक करके तीन पुरुषों के वर्णन के बाद अब चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है। तीसरे पुरुष के पश्चात् चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर, किनारे खड़ा हो कर उस एक महान् उत्तम श्वेतकमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट ) मनोहर है। तथा वह वहाँ (उस पुष्करिणी में) उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से बहुत दूर हट चुके हैं और श्वेतकमल तक भी नहीं पहुंच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं / तदनन्तर उन तीनों पुरुषों (को देख कर उन) के लिए उस चौथे पुरुष ने इस प्रकार कहा'अहो! ये तीनों पुरुष खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ) नहीं हैं, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) मार्ग की गतिविधि एवं पराक्रम के विशेषज्ञ नहीं है / इसी कारण ये लोग समझते हैं कि 'हम उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को उखाड़ कर ले आएंगे; किन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं / "मैं खेदज्ञ पुरुष हूँ यावत् उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ। मैं इस प्रधान श्वेतकमल को उखाड़ कर ले आऊंगा इसी अभिप्राय से मैं कृतसंकल्प हो कर यहाँ आया हूँ।" यों कह कर वह चौथा पुरुष भी पुष्करिणी में उतरा और ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया / वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फंस कर दुःखी हो गया / अब न तो वह इस पार का रहा, न उस पार का / इस प्रकार चौथे पुरुष का भी वही हाल हुआ। विवेचन-श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार व्यक्ति प्रस्तुत चार सूत्रों में पूर्वसूत्रणित पुष्करिणी के मध्य में विकसित एक श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने के लिए जी-तोड़ प्रयत्न करके असफल हुए चार व्यक्तियों की रूपक कथा है / यद्यपि चारों व्यक्तियों की पुष्करिणी के तट पर पाने, पुष्करिणी को एवं उसके ठीक बीच में स्थित श्रेष्ठ श्वेतकमल को देखने की चेष्टाओं तथा तदनन्तर उस श्वेतकमल को पाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्न तथा उसमें मिलने वाली विफलता का वर्णन लगभग समान है / परन्तु चारों Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 643 ] [ 13 व्यक्तियों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाय तो चारों के मनोभावों और तदनुसार उनकी चेष्टाओं में थोड़ा-थोड़ा अन्तर जान पड़ता है / वह अन्तर इस प्रकार है-- (1) चारों व्यक्ति चार अलग-अलग दिशाओं से आए थे। (2) प्रथम व्यक्ति ने उस पुष्करिणी को सर्वप्रथम देखा और उस उत्तम श्वेतकमल को पाने में उसकी दृष्टि सर्वप्रथम केन्द्रित हुई। उसके पश्चात् क्रमश: दूसरा, तीसरा और चौथा व्यक्ति आया / (3) अपने से पूर्व असफल व्यक्ति को क्रमशः दूसरा, तीसरा और चौथा व्यक्ति कोसता है और अपने पौरुष, कौशल और पाण्डित्य की डींग हांकता है (4) चारों ही व्यक्तियों ने गर्वोद्धत होकर अपना मूल्यांकन गलत किया, अपने से पूर्व असफल होने वाले व्यक्तियों की असफलता से कोई प्रेरणा नहीं ली / फलतः चारों ही अपने प्रयास में विफल हुए। उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु ६४३-ग्रह भिक्खू लहे तीरट्ठी खेयण्णे कुसले पंडित वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविदू मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू अन्नतरोगो दिसामो अणुदिसानो वा प्रागम्म तं पुक्खरणी तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एग पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते य चत्तारि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं प्रप्पत्ते जाव अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे / तते णं से भिक्ख एवं वदासी-ग्रहो णं इमे पुरिसा अखेतण्णा जाव णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जं गं एते पुरिसा एवं मन्ने 'अम्हेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो', णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्नक्खेतव्वं जहा णं एते पुरिसा मन्ने, अहमंसी भिक्खू ल हे तोरट्ठी खेयण्णे जाव मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवर-पोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु इति वच्चा से भिक्खू णो अभिक्कमे तं पुक्खरणि, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा सदं कुज्जा-"उप्पताहि खलु भो पउमवरपोंडरीया ! उप्पताहि खलु भो पउमवरपोंडरीया !" ग्रह से उम्पतिते पउमवरपोंडरीए। ६४३-इसके पश्चात् राग-द्वषरहित (रूक्ष-अस्निग्ध घड़े के समान कर्ममल-लेपरहित), संसार- सागर के तीर (उस पार जाने का इच्छुक खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ, यावत् (पूर्वोक्त सभी विशेषणों से युक्त) मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष भिक्षामात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा हो कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अन्यन्त विशाल यावत् (पूर्वोक्त गुणों से युक्त) मनोहर है / और वहाँ वह भिक्षु उन चारों पुरुषों को भी देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चुके हैं, और उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके हैं। जो न तो इस पार के रहे हैं, न उस पार के, जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं। इसके पश्चात उस भिक्ष ने उन चारों पुरुषों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा-अहो ! ये चारों व्यक्ति खेदज्ञ नहीं हैं, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से सम्पन्न मार्ग की गति एवं पराक्रम से अनभिज्ञ हैं। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इसी कारण ये लोग यों समझने लगे कि 'हम लोग इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकाल कर ले जाएँगे, परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं।" ___ "मैं निर्दोष भिक्षाजीवो साधु हूँ, राग-द्वेष से रहित (रूक्ष = निःस्पृह) हूँ। मैं संसार सागर के पार (तीर पर) जाने का इच्छुक हूँ, क्षेत्रज्ञ (खेदज्ञ) हूँ यावत् जिस मार्ग से चल कर साधक अपने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को (पुष्करिणी से बाहर) निकालगा, इसी अभिप्राय से यहाँ पाया हूँ।" यों कह कर वह साधु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं करता, वह उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा-खड़ा ही अावाज देता है- "हे उत्तम श्वेतकमल ! वहाँ से उठकर (मेरे पास) आ जाओ, आ जाओ! यों कहने के पश्चात् वह उत्तम पुण्डरीक उस पुष्करिणी से उठकर (या बाहर निकल कर) आ जाता है। विवेचन-उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु-प्रस्तुत सूत्र में पूर्वोक्त चारों विफल व्यक्तियों की चेष्टाओं और मनोभावों का वर्णन करने के पश्चात् पांचवें सफल व्यक्ति का वर्णन किया गया है। पूर्वोक्त चारों पुरुषों के द्वारा पूष्करिणी एवं उसके मध्य में स्थित उत्तम पुण्डरीक को देखने और पांचवें इस राग-द्वेषरहित निःस्पृह भिक्षु को देखने में दृष्टिकोण का अन्तर है। पूर्वोक्त चारों व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और स्वार्थ से आक्रान्त थे, अहंकारग्रस्त थे, जब कि निःस्पृह भिक्षु राग-द्वेष मोह से दूर है / न इसके मन में स्वार्थ, पक्षपात, लगाव या अहंकार है, न किसी से घृणा और ईर्ष्या है। प्रश्न होता है—शास्त्रकार ने उन चारों पुरुषों की परस्पर निन्दा एवं स्वप्रशंसा की तुच्छ प्रकृति का जिन शब्दों में वर्णन किया है, उन्हीं शब्दों में इस पांचवें साधु-पुरुष का वर्णन किया है, फिर उनमें और इस भिक्षु में क्या अन्तर रहा ? पांचों के लिए एक-असरीखी वाक्यावली प्रयुक्त करने से तो ये समान प्रकृति के मानव प्रतीत होते हैं, केवल उनके और इस भिक्षु के प्रयासों और उसके परिणाम में अन्तर है। इसका युक्तियुक्त समाधान भिक्षु के लिए प्रयुक्त 'लहे (राग-द्वेष-रहित) 'तीरट्ठी' आदि विशेषणों से ध्वनित हो जाता है। जो साधु राग, द्वेष, मोह, स्वार्थ आदि विकारों से दूर है और संसार किनारा पाने का इच्छुक है, उसकी दृष्टि और चेष्टा में एवं रागादिविकारग्रस्त लोगों की दृष्टि और चेष्टा में रातदिन का अन्तर होगा, यह स्वाभाविक है। इसलिए भले ही इस भिक्षु के लिए पूर्वोक्त चारों असफल पुरुषों के समान वाक्यावली का प्रयोग किया गया है परन्तु इसकी दृष्टि और भावना में पर्याप्त अन्तर है। रागीन्द्रषी के जिन शब्दों में दूसरे के प्रति तिरस्कार और अवहेलना छिपी होती है, वीतराग के उन्हीं शब्दों से करुणा का विमल स्रोत प्रवाहित होता है / वीतराग साधु श्वेतकमल के बाह्य सौन्दर्य के नहीं, आन्तरिक सौन्दर्य के दर्शन करता है, साथ ही अपनी शुद्ध निर्विकार अनन्त ज्ञानादि गुण युक्त प्रात्मा से तुलना करता है। तदनन्तर वह उन चारों असफल व्यक्तियों पर दृष्टिपात करता है, उन पर वह तटस्थ दृष्टि से समभावपूर्वक चिन्तन करता है, मन ही मन उनके प्रति दयाभाव से प्रेरित होकर कहता है-'बेचारे ये अज्ञान पुरुष इस उत्तम श्वेतकमल को तो पा नहीं सके और इस पुष्करिणी के तट से बहुत दूर हट कर बीच में ही गाढ़ कीचड़ में फंस कर रह Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 644 ] [15 शक्ति / गए। इसके पीछे रहस्य यह मालूम होता है, ये बेचारे इसे प्राप्त करने के उपाय, श्रम या मार्ग को नहीं जानते, न इस कार्य को करने में कुशल विचारक एवं विद्वान् हैं।" तत्पश्चात् वह भिक्षु चारों की हुई इस दुर्दशा के कारणों पर विचार करके उससे बहुत बड़ी प्रेरणा लेता है / वह अपने अन्तर्मन में पहले तटस्थदृष्टि से सोचता है कि कहीं मैं तो इनके जैसा ही नहीं हूँ / अन्तनिरीक्षण के बाद वह इस निर्णय पर आता है कि जिन कारणों से ये लोग पुण्डरीक को पाने में असफल रहे, उन कारणों से मैं दूर ही रहूँगा।" फिर उसने अपनी अन्तरात्मा में डुबकी लगा कर यह भी जानने का प्रयत्न किया कि मुझमें इस श्रेष्ठ कमल को पाने की योग्यता, आत्म स है या नहीं. जिसके बल पर मैं इस श्वेतकमल को अपने पास बुला सक। और वह इस निश्चय पर पहुँचा कि मैं एक निःस्पृह भिक्षाजीवी साधु हूँ, मेरे मन में स्वार्थ, द्वष, घृणा, द्रोह, मोह आदि नहीं है, मैं मोक्षतट पर पहुँचने को इच्छुक हूँ। इसलिए मेरा आत्मविश्वास है कि मैं मोक्ष-सम, दुष्प्राप्य इस श्वेतकमल को अवश्य ही प्राप्त कर सकूगा।" और इसी आत्मविश्वास एवं प्रात्मशक्ति से प्रेरित होकर वह भिक्षु पुष्करिणी में प्रविष्ट न हो कर उसके तट पर खड़ा होकर ही उक्त श्वेतकमल को अपने निकट बुलाने में समर्थ हो सका। शास्त्रकार ने इस रहस्य को यहाँ नहीं खोला है कि वह उत्तम श्वेतकमल पुष्करिणी से बाहर कैसे निकल कर आ गया ? यहाँ तो रूपक के द्वारा इतना ही बताया गया है कि पुष्करिणी के मध्य में स्थित श्वेतकमल को पाने में कौन असफल रहे, कौन सफल ? अगले सूत्रों में इन दृष्टान्तों को घटित किया गया है। दृष्टान्तों के दान्तिक की योजना ६४४-किट्टिते गाते समणाउसो ! अढे पुण से जाणितव्वे भवति / भंते ! ति समणं भगवं महाबीरं निग्गंथा य निग्गंथीयो य बंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-किट्टिते नाए समणाउसो ! अट्ठ पुण से ण जाणामो / समणाउसो ! ति समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निगंथा य निग्गंथीयो य प्रामंतित्ता एवं वदासी-हंता समणाउसो ! प्राइक्खामि विभावेमि कि मि पवेदेमि सअटें सहेउं सनिमित्तं भुज्जो भुज्जो उवदंसेमि। ६४४--(श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं-) “आयुष्मान् श्रमणो ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त (ज्ञात) कहा है। इसका अर्थ (भाव) तुम लोगों को जानना चाहिए।" हाँ, भदन्त !" कह कर साधु और साध्वी श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करते हैं / वन्दना-नमस्कार करके भगवान महावीर से इस प्रकार कहते हैं-"आयुष्मन् श्रमण भगवान् ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ (रहस्य) हम नहीं जानते।" (इस पर) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उन बहुत-से निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-'आयुष्मान् श्रमण-श्रमणियो! मैं इसका अर्थ (रहस्य) बताता हूँ, अर्थ स्पष्ट (प्रकट) करता हूँ / पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता हूँ, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयंगम कराता हूँ; अर्थ, हेतु और निमित्त सहित उस अर्थ को बार-बार बताता हूँ।" Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६४५-से बेमि-लोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! सा पुक्खरणी बुइता, कम्मच खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से उदए बुइते, काममोगा य खलु मए प्रप्पाहटु समणाउसो ! से सेए बुइते, जण-जाणवयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! ते बहवे पउमवरपुडरीया बुइता, रायाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइते, अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाता बुइता, धम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइते, धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से सद्दे बुइते, नेव्वाणं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से उप्पाते बुइते, एवमेयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से एवमेयं बुइतं / / ६४५-(सुनो,) उस अर्थ को मैं कहता हूँ--"आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मान कर (मात्र रूपक के रूप में कल्पना कर)इस लोक को पुष्करिणी कहा है। और हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से विचार करके कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है / आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से स्थिर करके काम भोगों को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से चिन्तन करके आर्य देशों के मनुष्यों और जनपदों (देशों) को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमल कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने मन में निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान् श्रेष्ठ श्वेतकमल (पुण्डरीक) कहा है / और हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मान कर अन्यतीथिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंसे हुए चार पुरुष बताया है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है। आयुष्मान श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने आप सोचकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है। और प्रायुष्मान् श्रमणो! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मकथा को उस भिक्षु का वह शब्द (आवाज) कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण (समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष या सिद्धशिला स्थान) को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठ कर बाहर पाना कहा है। (संक्षेप में) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने इस (पूर्वोक्त) प्रकार से अपनी आत्मा में निश्चय करके (यत्किञ्चित् साधर्म्य के कारण) इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रुप में प्रस्तुत किया है। विवेचन–दृष्टान्त दार्शन्तिक की योजना--प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों की जिज्ञासा देखकर उनको दृष्टान्तों का अर्थघटन करके बताने का आश्वासन दिया है, द्वितीय सूत्र में महावीर प्रभु ने अपनी केवलज्ञानरूपी प्रज्ञा द्वारा निश्चित करके पुष्करिणी प्रादि दृष्टान्तों का विविध पदार्थों से उपमा देकर इस प्रकार अर्थघटन किया है (1) पुष्करिणी चौदह रज्जू-परिमित विशाल लोक है / जैसे पुष्करिणी में अगणित कमल उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, वैसे ही लोक में अगणित प्रकार के जीव स्व-स्वकर्मानुसार उत्पन्नविनष्ट होते रहते हैं। पुष्करिणी अनेक कमलों का आधार होती है, वैसे ही मनुष्यलोक भी अनेक मानवों का आधार है। (2) पुष्करिणी का जल कर्म है / जैसे पुष्करिणी में जल के कारण कमलों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही आठ प्रकार के स्वकृत कर्मों के कारण मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 646 ] / 17 (3) काम-भोग पुष्करिणी का कीचड़ है। जैसे-कीचड़ में फंसा हुआ मानव अपना उद्धार करने में असमर्थ हो जाता है, वैसे ही काम-भोगों में फंसा मानव भी अपना उद्धार नहीं कर सकता। ये दोनों ही समानरूप से बन्धन के कारण हैं। एक बाह्य बन्धन है, दूसरा आन्तरिक बन्धन / (4) आर्यजन और जानपद बहुसंख्यक श्वेतकमल हैं। पुष्करिणी में नानाप्रकार के कमल होते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक में नानाप्रकार के मानव रहते हैं / अथवा पुष्करिणी कमलों से सुशोभित होती है, वैसे ही मनुष्यों और उनके देशों से मानवलोक सुशोभित होता है। (5) जैसे पुष्करिणी के समस्त कमलों में प्रधान एक उत्तम और विशाल श्वेतकमल है, वैसे ही मनुष्यलोक के सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ और सब पर शासनकर्ता नरेन्द्र होता है, वह शीर्षस्थ एवं स्व-पर-अनुशास्ता होता है, जैसे कि पुष्करिणी में कमलों का शीर्षस्थ, श्रेष्ठ पुण्डरीक है। (6) अविवेक के कारण पुष्करिणी के कीचड़ में फंस जाने वाले जैसे वे चार पुरुष थे, वैसे हो संसाररूपी पुष्करिणी के काम-भोगरूपी कीचड़ या मिथ्यामान्यताओं के दलदल में फंस जाने वाले चार अन्यतीथिक हैं, जो पुष्करिणी-पकमग्न पुरुषों की तरह न तो अपना उद्धार कर पाते हैं, न ही प्रधान श्वेतकमलरूप शासक का उद्धार कर सकते हैं। (7) अन्यतीथिक गृहत्याग करके भी सत्संयम का पालन नहीं करते, अतएव वे न तो गृहस्थ ही रहते हैं, न साधुपद ~मोक्षपद प्राप्त कर पाते हैं / वे बीच में फंसे पुरुषों के समान न इधर के न उधर के रहते हैं - उभयभ्रष्ट ही रह जाते हैं / (8) जैसे बुद्धिमान् पुरुष पुष्करिणी के भीतर न घुस कर उसके तट पर से ही आवाज देकर उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल लेता है, वैसे ही राग-द्वोषरहित साधु काम-भोग रूपी दलदल से युक्त संसारपुष्करिणी में न घुसकर संसार के धर्मतीर्थरूप तट पर खड़ा (तटस्थ-निलिप्त) होकर धर्मकथारूपी आवाज देकर श्वेतकमलरूपी राजा-महाराजा अादि को संसाररूपी पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं। (8) जैसे जल और कीचड़ का त्याग करके कमल बाहर (उनसे ऊपर उठ) आता है, इसी प्रकार उत्तम पुरुष अपने अष्टविध कर्मरूपी जल और काम-भोगरूपी कीचड़ का त्याग करके निर्वाणपद को प्राप्त कर लेते हैं / श्वेतकमल का ऊपर उठकर बाहर पाना ही निर्वाण पाना है। धर्मश्रद्धाल राजा आदि के मस्तिष्क में अन्यतीथिकों द्वारा स्वधर्म प्रवेश का तरीका ६४६-इह खलु पाईणं वा पडोणं वा उदोणं वा दाहिणं वा संति एगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुत्वेण लोगं तं उववन्ना, तं जहा-प्रारिया वेगे प्रणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे।। तेसि च णं महं एगे राया भवति महाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धरायकुल वंसप्पसूते निरंतररायलक्खणविरातियंगमंगे बहुजणबहुमागपूतिते सव्वगुणसमिद्ध खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउं पिउं सुजाए दयप्पत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवदपिया जणवदपुरोहिते सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससोहे पुरिसपासीविसे पुरिसवरपोंडरीए Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 // [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्त वित्थिण्णविउलभवण-सयणा-ऽऽसण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधणबहुजातरूव-रयए प्रानोगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्त-पाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूते पडिपुण्णकोस-कोटागाराउहधरे बलवं दुब्बलपच्चामित्ते प्रोहयकंटकं निहयकंटक मलियकंटकं उद्धियकंटकं अकंटयं प्रोहयसत्तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धि यसत्तू निज्जियसत्तू पराइयसत्तू ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं रायवण्णओ जहा उववाइए जाव पसंतडिबडमरं रज्जं पसासेमाणे विरहति / ६४६-(श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं-) इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कई प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि-उन मनुष्यों में कई आर्य (क्षेत्रार्य आदि) होते हैं अथवा कई अनार्य (धर्म से दूर, पापी, निर्दय, निरनुकम्प, क्रोधमूर्ति, असंस्कारी) होते हैं, कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय / उनमें से कोई भीमकाय (लम्बे और सुदृढ़ शरीर वाले) होते हैं, कई ठिगने कद के होते हैं / कोई (सोने की तरह) सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बुरे (काले कलूट) वर्ण वाले। कोई सुरूप (सुन्दर अंगोपांगों से युक्त) होते हैं तो कोई कुरूप (बेडौल, अपंग) होते हैं। उन मनुष्यों में (विलक्षण कर्मोदय से) कोई एक राजा होता है। वह (राजा) महान् हिमवान् मलयाचल, मन्दराचल तथा महेन्द्र पर्वत के समान सामर्थ्यवान् अथवा वैभववान् होता है / वह अत्यन्त विशुद्ध राजकुल के वंश में जन्मा हुआ होता है। उसके अंग राजलक्षणों से सुशोभित होते हैं। उसकी पूजा-प्रतिष्ठा अनेक जनों द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, वह गुणों से समृद्ध होता है, वह क्षत्रिय (पीड़ित प्राणियों का त्राता-रक्षक) होता है / वह सदा प्रसन्न रहता है। वह राजा राज्याभिषेक किया हुआ होता है। वह अपने माता-पिता का सुपुत्र (अंगजात) होता है। उसे दया प्रिय होती है / वह सीमंकर (जनता की सुव्यवस्था के लिए सीमा-नैतिक धार्मिक मर्यादा स्थापितनिर्धारित करने वाला) तथा सीमंधर (स्वयं उस मर्यादा का पालन करने वाला) होता है / वह क्षेमंकर (जनता का क्षेम-कुशल करने वाला) तथा क्षेमन्धर (प्राप्त योगक्षेम का वहन-रक्षण करने वाला) होता है। वह मनुष्यों में इन्द्र, जनपद (देश या प्रान्त) का पिता, और जनपद का पुरोहित (शान्तिरक्षक) होता है। वह अपने राज्य या राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए सेतुकर (नदी, नहर, पुल बांध आदि का निर्माण कराने वाला) और केतुकर (भूमि, खेत, बगीचे आदि की व्यवस्था करने वाला) होता है। वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों में वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, पुरुषों में आसीविष सर्प समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीकतुल्य, पुरुषों में श्रेष्ठ मत्तगन्धहस्ती के समान होता है। वह अत्यन्त धनाढ्य, दीप्तिमान (तेजस्वी) एवं प्रसिद्ध पुरुष होता है। उसके पास विशाल विपुल भवन, शय्या, आसन, यान (विविध पालकी आदि) तथा वाहन (घोड़ा-गाड़ी, रथ आदि सवारियाँ एवं हाथी, घोड़े आदि) की प्रचुरता रहती है। उसके कोष (खजाने) प्रचुर धन, सोना, चाँदी आदि से भरे रहते हैं / उसके यहां प्रचुर द्रव्य की आय होती है, और व्यय भी बहुत होता है। उसके यहाँ से बहुत-से लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन-पानी दिया जाता है। उसके यहां बहुत-से दासी-दास, गाय, बैल, भैस, बकरी आदि पशु रहते हैं। उसके धान्य का कोठार अन्न से, धन के कोश (खजाने) प्रचुर द्रव्य से और आयुधागार विविध शस्त्रास्त्रों से भरा रहता है / वह शक्तिशाली होता है / वह अपने शत्रुओं को दुर्वल बनाए रखता है। उसके राज्य में कंटक - चोरों, व्यभिचारियों, लुटेरों तथा उपद्रवियों एवं Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 647 ] [ 19 दुष्टों का नाश कर दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, उन्हें कुचल दिया जाता है, उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, जिससे उसका राज्य निष्कण्टक (चोर आदि दुष्टों से रहित) हो जाता है। उसके राज्य पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं को नष्ट कर दिया जाता है, उन्हें खदेड़ दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, उन शत्रुओं को जीत लिया जाता है, उन्हें हरा दिया जाता है। उसका राज्य दुर्भिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त होता है। यहां से ले कर "जिसमें स्वचक्र-परचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे राज्य का प्रशासन-पालन करता हुआ वह राजा विचरण करता है," यहाँ तक का पाठ औपपातिकसूत्र में वणित पाठ की तरह समझ लेना चाहिए। 647 -तस्स णं रण्णो परिसा भवति-उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागपुत्ता नाया नायपुत्ता कोरव्या कोरव्वषुत्ता भडा भडपुत्ता माहणा माहणपुता लेच्छई लेच्छइपुत्ता पसस्थारो पसस्थपुत्ता सेणावती सेणावतिपुत्ता। तेसिं च णं एगतिए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य पहारेंसु गमणाए, तत्थऽन्नतरेणं धम्मेणं पण्णतारो वयमेतेणं धम्मेणं पण्णवइस्सामो, से ए वमायाणह भयंतारो जहा मे एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवति / 647 -- उस राजा की परिषद् (सभा) होती है। उसके सभासद ये होते हैं-उग्रकुल में उत्पन्न उग्रपुत्र, भोगकुल में उत्पन्न भोग तथा भोगपुत्र इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न तथा इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञातृकुल में उत्पन्न तथा ज्ञातपुत्र, कुरुकुल में उत्पन्न-कौरव, तथा कौरवपुत्र, सुभटकुल में उत्पन्न तथा सुभट-पुत्र, ब्राह्मणकुल में उत्पन्न तथा ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवी नामक क्षत्रियकुल में उत्पन्न तथा लिच्छवीपुत्र, प्रशास्तागण (मंत्री आदि बुद्धिजीवी वर्ग) तथा प्रशास्तुपुत्र (मंत्री आदि के पुत्र) सेनापति और सेनापतिपुत्र ! ___ इनमें से कोई एक धर्म में श्रद्धालु होता है / उस धर्म-श्रद्धालु पुरुष के पास श्रमण या ब्राह्मण (माहन) धर्म प्राप्ति की इच्छा से जाने का निश्चय (निर्धारण) करते हैं। किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण यह निश्चय करते हैं कि हम इस धर्मश्रद्धालु पुरुष के समक्ष अपने इस (अभीष्ट) धर्म की प्ररूपणा करेंगे। वे उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास जाकर कहते हैं-हे संसारभीरु धर्मप्रेमी ! अथवा भय से जनता के रक्षक महाराज ! मैं जो भी उत्तम धर्म की शिक्षा आप को दे रहा हूँ उसे ही आप पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक्प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) समझे।" विवेचन-धर्मश्रद्धालु राजा आदि के मस्तिष्क में अन्यतीथिकों द्वारा स्वधर्म-प्रवेश का तरीका-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. सं. 646-647) में शास्त्रकार अनेक विशेषणों से युक्त राजा और उसकी राज्यसभा के क्षत्रिय, मंत्री, ब्राह्मण आदि विविध सभासदों का विस्तार से निरूपण करते हैं, तत्पश्चात् इनमें से किसी-किसी धर्म श्रद्धालु के मस्तिष्क में अन्यतीथिक श्रमण-ब्राह्मण अपने धर्म की मान्यता ठसाने का किस प्रकार से उपक्रम करते हैं, वह संक्षेप में बताते हैं। शास्त्रकार इस विस्तृत पाठ में चार तथ्यों का वर्णन करते हैं--- (1) पूर्वादि दिशाओं से समागत आर्य-अनार्य आदि नाना प्रकार के पुरुषों का वर्णन / (2) उन सबके शास्ता-राजा का वर्णन / (3) उक्त राजा को परिषद् के विभिन्न सभासदों का वर्णन / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (4) इनमें से किसी धर्मश्रद्धालु को अन्य तीथिकों द्वारा स्वधर्मानुसार बनाने के उपक्रम का वर्णन। प्रथमपुरुष : तज्जीव-तच्छरीरवादी का वर्णन ६४८--तं जहा- उड्ढं पादतला' अहे केसग्गमत्थया तिरियं तयपरियंते जीवे, एस प्रायपज्जवे कसिणे, एस जीवे जीवति, एस मए णो जीवति, सरीरे चरमाणे चरती, विणम्मि य गो चरति, एतंतं जीवितं भवति, प्रादहणाए परेहि णिज्जति, अगणिझामिते सरीरे कवोतवण्णाणि अट्ठीणि भवंति, प्रासंदीपंचमा पुरिसा गाम पच्चागच्छति / एवं असतो असंविज्जमाणे। ६४८—वह धर्म इस प्रकार है-पादतल (पैरों के तलवे) से ऊपर और मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा तिरछा-चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है। यह शरीर हो जीव का समस्त पर्याय (अवस्था विशेष अथवा पर्यायवाची शब्द) है / (क्योंकि) इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता, शरीर के स्थित (टिके) रहने तक ही यह जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह नष्ट हो जाता है / इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह जीवन (जीव) है / शरीर जब मर जाता है तब दूसरे लोग उसे जलाने के लिए ले जाते हैं, आग से शरीर के जल जाने पर हड्डियां कपोत वर्ण (कबूतरी रंग) को हो जाती हैं / इसके पश्चात् मृत व्यक्ति को श्मशान भूमि में पहुंचाने वाले जघन्य (कम से कम) चार पुरुष मृत शरीर को ढोने वाली मंचिका (अर्थी) को ले कर अपने गांव में लौट अ / ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर से भिन्न कोई जीव नामक पदार्थ नहीं है, क्योंकि वह शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता। (अतः जो लोग शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं मानते, उनका यह-पूर्वोक्त सिद्धान्त ही युक्ति युक्त समझना चाहिए।) 646 --जेसि तं सुयक्खायं भवति–'अन्नो भवति जीवो अन्नं सरीरं तम्हा ते एवं नो विपडिवेदेति-अयमाउसो! आता दोहे ति वा हस्से ति वा परिमंडले ति वा व? ति वा तंसे ति वा चउरसे ति वा छलंसे ति वा अलैंसे ति वा प्रायते ति वा किण्हे ति वा णीले ति वा लोहिते ति वा हालिहे ति वा सुक्किले ति वा सुब्भिगंधे ति वा दुन्भिगंधे ति वा तिते ति वा कडुए ति वा कसाए ति वा अंबिले ति वा महरे ति वा कक्खडे ति वा मउए ति वा गरुए ति वा लहुए ति वा सिते ति वा उसिणे ति वा णिद्ध ति वा लुक्खे ति वा / एवमसतो असंविज्जमाणे। 646 -जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादन करते हैं कि जीव पृथक् है और शरीर पृथक् है, वे इस प्रकार (जीव और शरीर को) पृथक् पृथक करके नहीं बता सकते कि यह आत्मा दीर्घ (लम्बा) है, यह ह्रस्व (छोटा या ठिगना) है, यह चन्द्रमा के समान परिमण्डलाकार है, अथवा गेंद की तरह गोल है, यह त्रिकोण है, या चतुष्कोण है, या यह षट्कोण या अष्टकोण है, यह प्रायत 1. तुलना-"उडुढं पायतला अहे केसग्गमत्थका एस आता पज्जवे...."अफले कल्लापाणवए। तम्हा एतं सम्म तिबेमि--उड्ढे पायतला." ...एस मडे णो (जीवति) एतं तं (जीवितं भवति)।" --इसिभासियाई 19, उकलज्झयण पृ. 39 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 650 ] [ 21 (चौड़ा) है, यह काला है अथवा नीला है, यह लाल है या पोला है या यह श्वेत है; यह सुगन्धित है या दुर्गन्धित है, यह तिक्त (तीखा) है या कड़वा है अथवा कसैला, खट्टा या मीठा है; अथवा यह कर्कश है या कोमल है अथवा भारी (गुरु) है या हलका (लघु) अथवा शीतल है या उष्ण है, स्निग्ध है अथवा इसलिए जो लोग जीव को शरीर से भिन्न नहीं मानते, उनका मत ही युक्तिसंगत है / ६५०--जेसि तं सुयक्खायं भवति 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं', तम्हा ते णो एवं उवलभंति-- [1] से जहानामए के पुरिसे कोसीतो' असि अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो! असी, अयं कोसीए, एवमेव णस्थि केइ अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेति--अयमाउसो ! प्राता, अयं सरीरे / [2] से जहाणामए केइ पुरिसे मुजाओ इसीयं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! मुजो, अयं इसीया, एवामेव नस्थि केति उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आता इदं सरीरे / [3] से जहाणामए केति पुरिसे मंसानो ट्ठि अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! मंसे, अयं अट्ठी, एवामेव नस्थि केति उवदंसेत्तारो---अयमाउसो ! आया, इदं सरीरं / [4] से जहानामए केति पुरिसे करतलामो प्रामलक अभिनिन्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! करतले, अयं प्रामलए, एवामेव पत्थि केति उवदंसेत्तारो-अयमाउसो! प्राया, इदं सरीरं। [5] से जहानामए केइ पुरिसे दहोपो णवणीयं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! नवनीतं, अयं दही, एवामेव नत्थि केति उवदंसेत्तारो जाव सरीरं / / [6] से जहानामए केति पुरिसे तिलहितो तेल्लं अभिनिव्वदे॒त्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! तेल्ले, अयं पिण्गाए, एवामेव जाव सरीरं / [7] से जहानामए केइ पुरिसे उक्खूतो खोतरसं अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो! खोतरसे, अयं चोए, एवमेव जाव सरीरं। [+] से जहानामए केइ पुरिसे अरणीतो अग्गि अभिनिव्वत्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो! अरणी, अयं अग्गी, एवामेव जाव सरीरं / एवं असतो असंविज्जमाणे / जेसि तं सुधक्खातं भवति तं जहा–'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' तम्हा तं मिच्छा। ६५०-जिन लोगों का यह कथन है कि जीव अन्य है, और शरीर अन्य है, वे इस प्रकार से जीव को उपलब्ध (प्राप्त) नहीं करा पाते-(१) जैसे-कि कोई व्यक्ति म्यान से तलवार को बाहर 1. तुलना-"सेयथापि, महाराज ! पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिका पताहेय्य / तस्स एवमस्स अयं मुजो, अयं ईसिका ........ तस्स एवमस्स-अयं असि अयं कोसि ........"मनोमयं काय अभिनिम्मताय चित्त अभिनीहरति अभिनिन्नामेति / " -- सुत्तपिटक दीघनिकाय (पालि) भा. १सामञ्जफलसुत्त पृ. 68 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 / [ सूत्रकृतांगसूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध निकाल कर दिखलाता हुआ कहता है-अायुष्मन् ! यह तलवार है, और यह म्यान है। इसी प्रकार कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर से जीव को पृथक् करके दिखला सके कि आयुष्मन् ! यह तो आत्मा है और यह (उससे भिन्न) शरीर है। (2) जैसे कि कोई पुरुष मुज नामक धास से इषिका (कोमलस्पर्श वाली शलाका) को बाहर निकाल कर अलग-अलग बतला देता है कि आयुष्मन् ! यह तो मुंज है, और यह इषिका है। इसी प्रकार ऐसा कोई उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो यह बता सके कि "आयुष्मन् ! यह प्रात्मा है और यह (उससे पृथक् ) शरीर है।" (3) जैसे कोई पुरुष मांस से हड्डी को अलग-अलग करके बतला देता है कि "आयुष्मन् ! यह मांस है और यह हड्डी है।" इसी तरह कोई ऐसा उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो शरीर से प्रात्मा को अलग करके दिखाला दे कि "आयुष्मन् ! यह तो आत्मा है और यह शरीर है।" (4) जैसे कोई पुरुष हथेली से आँवले को बाहर निकाल कर दिखला देता है कि "आयुष्मन् ! यह हथेली (करतल) है, और यह आँवला है।' इसी प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को पृथक करके दिखा दे कि 'पायुष्मन् ! यह प्रात्मा है, और यह (उससे पृथक) शरीर है।' (5) जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत (मक्खन) को अलग निकाल कर दिखला देता है कि "आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह दही है।" इस प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि 'आयुष्मन् ! यह तो प्रात्मा है और यह शरीर है।' (6) जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल निकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि "आयुष्मन् ! यह तो तेल है और यह उन तिलों की खली है," वैसे कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर को प्रात्मा से पृथक् करके दिखा सके कि 'प्रायुष्मन् ! यह प्रात्मा है, और यह उससे भिन्न शरीर है।' (7) जैसे कि कोई पुरुष ईख से उसका रस निकाल कर दिखा देता है कि "अायुष्मन् ! यह ईख का रस है और यह उसका छिलका है;" इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो शरीर और आत्मा को अलग-अलग करके दिखला दे कि 'प्रायुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है / ' (8) जैसे कि कोई पूरुष अरणि की लकड़ी से भाग निकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि"आयुष्मन् ! यह अरणि है और यह आग है," इसी प्रकार कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो शरीर और आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि 'आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह उससे भिन्न शरीर है।' इसलिए प्रात्मा शरीर से पृथक् उपलब्ध नहीं होती, यही बात युक्तियुक्त है। इस प्रकार (विविध युक्तियों से प्रात्मा का अभाव सिद्ध होने पर भी) जो पृथगात्मवादी (स्वदर्शनानुरागवश) वारबार प्रतिपादन करते हैं, कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है, पूर्वोक्त कारणों से उनका कथन मिथ्या है। ६५१-से हंता हणह खणह छणह दहह पयह पालुपह विलुपह सहसक्कारेह विपरामुसह,एत्ताव ताव जोवे, णस्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा—किरिया इ वा अकिरिया इ वा सुक्कडे ति वा दुक्कडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साहू ति वा असाहू ति वा सिद्धि ति वा प्रसिद्धि ति Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 652-653 / [23 वा निरए ति वा अनिरए ति वा / एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाई काम भोगाई सभारंभंति भोयणाए। ६५१--इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को न मानने वाले तज्जीवतच्छरीरवादी लोकायतिक आदि स्वयं जीवों का (निःसंकोच) हनन करते हैं, तथा (दूसरों को भी उपदेश देते हैं)—इन जीवों को मारो, यह पृथिवी खोद डालो, यह वनस्पति काटो, इसे जला दो, इसे पकायो, इन्हें लट लो या इनका हरण कर लो, इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा कर डालो, इन्हें पीडित (हैरान) करो इत्यादि / इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, (परलोकगामी कोई जीव नहीं होने से) परलोक नहीं है।" (इसलिए यथेष्ट सुख भोग करो।) वे शरीरात्मवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते जैसे कि सत्क्रिया या असत्क्रिया, सुकृत, या दुष्कृत, कल्याण (पुण्य) या पाप, भला या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक या स्वर्ग, आदि / इस प्रकार वे शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ करके विविध प्रकार के काम-भोगों का सेवन (उपभोग) करते हैं अथवा विषयों का उपभोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं। ६५२-एवं पेगे पागभिया निक्खम्म मामगं धम्मं पण्णति तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणे ति वा माहणे ति वा कानं खलु भाउसो ! तुमं पूययामो, तं जहाअसणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुछणेण वा, तत्थेगे पूयणाए समाउम्रिसु, तत्थेगे पूयणाए निगामइंसु / 652- इस प्रकार शरीर से भिन्न प्रात्मा न मानने की धृष्टता करने वाले कोई नास्तिक अपने मतानुसार प्रव्रज्या धारण करके 'मेरा ही धर्म सत्य है, ऐसी प्ररूपणा करते हैं / इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा रखते हुए, उस पर प्रतीति करते हुए, उसमें रुचि रखते हुए कोई राजा प्रादि उस शरीरात्मवादी से कहते हैं—'हे श्रमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव-तच्छरीरवाद रूप उत्तम धर्म बता कर बहुत ही अच्छा किया, हे आयुष्मन् ! (आपने हमारा उद्धार कर दिया) अतः हम आपकी पूजा (सत्कार-सम्मान करते हैं, जैसे कि हम अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य अथवा, वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पाद-प्रोञ्छन आदि के द्वारा आपका सत्कार-सम्मान करते हैं।' यों कहते हुए कई राजा प्रादि उनकी पूजा में प्रवृत्त होते हैं, अथवा वे शरीरात्मवादी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त हो जाते हैं, और उन स्वमतस्वीकृत राजा आदि को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अपने मत-सिद्धान्त में दृढ़ (पक्के या कट्टर) कर देते हैं / ६५३–पुवामेव तेसि णायं भवति- समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए ते अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्ने वि प्रादियाति अन्नं पि प्रातियंतं समणुजाणंति, एवामेव ते इस्थिकामभोगेहि मच्छिया गिद्धा गढिता अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसत्ता, ते णो अप्पाणं समुच्छेदंति, नो परं समुच्छेदेति, नो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समुच्छदेंति, पहीण। पुब्दसंयोग, प्रायरियं मग्गं असंपत्ता, इति ते Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा / इति पढमे पुरिसज्जाते तज्जीव-तस्सरीरिए माहिते। ६५३–इन शरीरात्मवादियों ने पहले तो वह प्रतिज्ञा की होती है कि हम अनगार (घरबार के त्यागी), अकिंचन (द्रव्यादि-रहित,) अपूत्र (पूत्रादि के त्यागी) अपशु (पशु आदि के स्वामित्व से रहित), परदत्तभोजी (दसरों के द्वारा दिये गए भिक्षान्न पर निर्वाह करने वाले) भिक्ष एवं श्रमण (शम सम एवं श्रम-तप की साधना करने वाले) बनेंगे, अब हम पापकर्म (सावध कार्य) नहीं करेगें'; ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके (प्रवजित होकर) भी पाप कर्मों (सावद्य प्रारम्भसमारम्भादि कार्यों) से विरत (निवृत्त) नहीं होते, वे स्वयं परिग्रह को ग्रहण (स्वीकार) करते हैं. दूसरे से ग्रहण कराते हैं और परिग्रह ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करते (अच्छा समझते) हैं, इसी प्रकार वे स्त्री तथा अन्य कामभोगों में आसक्त (मूच्छित), गृद्धः, उनमें अत्यधिक इच्छा और लालसा से युक्त, लुब्ध (लोभी), राग-द्वेष के वशीभूत एवं आर्त (चिन्तातुर) रहते हैं / वे न तो अपनी आत्मा को संसार से या कर्म-पाश (बन्धन) से मुक्त कर पाते हैं, न वे दूसरों को मुक्त कर सकते हैं, और ने अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों को मुक्त कर सकते हैं / वे (उक्त शरीरात्मवादी प्रथम असफल पुरुष के समान) अपने स्त्री-पुत्र, धन धान्य आदि पूर्वसंयोग गृहावास या ज्ञातिजनबास) से प्रभ्रष्ट (प्रहीन) हो चुके हैं, और आर्यमार्ग (सम्यग्दर्शनादियुक्त मोक्षमार्ग) को नहीं पा सके हैं। अतः वे न तो इस लोक के होते हैं, और न ही पर लोक के होते हैं (किन्तु उभयलोक के सदनुष्ठान से भ्रष्ट होकर) बीच में कामभोगों-(के कीचड़) में आसक्त हो (फंस) जाते हैं ! इस प्रकार प्रथम पुरुष तज्जीव-तच्छरीरवादी कहा गया है। विवेचन - प्रथम पुरुष : तज्जीव-तच्छीरवादी का वर्णन-सूत्रसंख्या 648 से 653 तक छह सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने कई पहलुत्रों से तज्जीव-तच्छरीरवादी-पूर्वोक्त प्रथम पुरुष का वर्णन किया है / वे पहलू इस प्रकार हैं (1) अन्यतीथिकों में से प्रथम अन्यतीथिक द्वारा अपने राजा आदि धर्मश्रद्धालुओं के समक्ष तज्जीव-तच्छरीरवादरूप स्वधर्म के स्वरूप का निरूपण / (2) उनके द्वारा जीव-शरीर-पृथकवादियों पर प्रथम प्राक्षेप--शरीर से प्रात्मा को वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार-प्रकार प्रादि के रूप में पृथक् करके स्पष्टतया बतला नहीं सकते। (3) द्वितीय प्राक्षेप-जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों के सदृश पृथक्-पृथक् करके उपलब्ध नहीं करा सकते-(१) तलवार. और म्यान की तरह, (2) मुज और इषिका की तरह, (3) मांस और हड्डी को तरह (4) हथेली और आँवले की तरह, (5) दही और मक्खनकी तरह, (6) तिल की खली और तेल की तरह, (7) ईख के रस और उसके छिलके की तरह, (8) अरणि की लकड़ी और आग की तरह। (4) तज्जीव-तच्छरीरवादियों के द्वारा जीव-अजीव, परलोक आदि न माने जाने के कारण जीवहिंसा, चोरी, लूट आदि की निरंकुश प्रवृत्ति करने-कराने का वर्णन / (5) उनके द्वारा सत्क्रिया असत्क्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, सिद्धि-असिद्धि, धर्म-अधर्म आदि न माने जाने के कारण किये जाने वाले विविध प्रारम्भकार्य एवं कामभोग-सेवन के लिए विविध दुष्कृत्यों का वर्णन / Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सत्र 654 / [ 25 (6) 'मेरा ही- धर्म सत्य है' ऐसी हठाग्रहपूर्वक प्ररूपणा / (7) राजा आदि अनुयायियों द्वारा तज्जीव-तच्छरीरवादियों के प्रति श्रद्धा-प्रतीति-रुचिपूर्वक प्रकट की जाने वाली कृतज्ञता एवं पूजा-भक्तिभावना और उसकी आसक्ति में फंस जाने वाले तज्जीव-तच्छरीरवादी / (8) शरीरात्मवादियों द्वारा पूर्वगृहीत महाव्रतों एवं त्याग-नियमादि की प्रतिज्ञा के भंग का वर्णन। (8) इस प्रकार पूर्वोक्त प्रथमपुरुषवत् तज्जीव-तच्छरीरवादी उभय भ्रष्ट होकर कामभोग के कीचड़ में फंस कर रह जाते हैं / वे गृहवासादि पूर्वसंयोगों की भी छोड़ चुके होते हैं, लेकिन आर्य-धर्म नहीं प्राप्त कर पाते / तदनुसार वे संसारपाश से स्व-पर को मुक्त नहीं कर पाते। निष्कर्ष-पूर्व दिशा से पुष्करिणी के तट पर आये हुए और प्रधान श्वेतकमल को पाने के लिए लालायित, किन्तु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ एवं पानी में फंसकर रह जाने वाले प्रथम पुरुष की तरह तज्जीव-तच्छरीरवादी भी संसार के तट पर पाते हैं, मोक्षमार्ग को पाने के लिए एवं पातुर कृतप्रतिज्ञ साधुवेषी तज्जीव-तच्छरीरवाद की मान्यता एवं तदनुसार सांसारिक विषयभोगरूपी कीचड़ में फंस जाते हैं, वे उस समय गृहस्थाश्रम और साधुजीवन दोनों से भ्रष्ट हो जाने से वे स्वपर का उद्धार करने में असमर्थ हो जाते हैं। द्वितीय पुरुष : पाञ्चमहाभूतिक : स्वरूप विश्लेषण ६५४-प्रहावरे दोच्चे पुरिसज्जाते पंचमहाभूतिए ति पाहिज्जति / इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतीया मणुस्सा भवंति अणपुवेणं लोयं उववण्णा, तं जहा-प्रारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे / तेसि च णं महं एगे राया भवती महया० एवं चेव णिरवसेसं जाद सेणावतिपुत्ता / तेसि च णं एगतीए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य पहारिसु गमणाए। तत्थऽण्णयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयमिमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो, से एवमायाणह भयंतारो ! जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए सुषण्णत्ते भवति / ६५४–पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पञ्चमहाभूतिक कहलाता है। इस मनुष्यलोक की पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में मनुष्य रहते हैं / वे क्रमश: नाना रूपों में मनुष्यलोक में उत्पन्न होते हैं, जैसे कि---कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य / इसी तरह पूर्वसूत्रोक्त वर्णन के अनुसार कोई कुरूप आदि होते हैं / उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है / वह राजा पूर्वसूत्रोक्त विशेषणों (महान् हिमवान् आदि) से युक्त होता है और उसकी राजपरिषद् भी पूर्वसूत्रोक्त सेनापति पुत्र आदि से युक्त होती है। उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। वे श्रमण और माहन उसके पास जाने का निश्चय करते हैं। वे किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीथिक श्रमण और माहन (ब्राह्मण) राजा आदि से कहते हैं-"हम आपको उत्तम धर्म की शिक्षा देंगे।" (इसके पश्चात् वे कहते हैं -) 'हे भयत्रातामो! प्रजा के भय का अन्त करने वालो ! मैं जो भी उत्तम धर्म का उपदेश आपको दे रहा हूँ, वही पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक्प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) है।" Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६५५-इह खलु पंच महाभूता जेहि नो कज्जति किरिया ति वा अकिरिया ति वा सुकडे ति वा दुक्कडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साहू ति वा असाहू ति वा सिद्धी ति वा प्रसिद्धी ति वा णिरए ति वा अणिरए ति वा अवि यंतसो तणमातमवि / 655- इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं। जिन से हमारी क्रिया या प्रक्रिया, सुकृत अथवा दुष्कृत कल्याण या पाप, अच्छा या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति ; अधिक कहाँ तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी (इन्ही पंचमहाभूतों से) होती है / ६५६-तं च पदुद्देसेणं पुढोभूतसमवातं जाणेज्जा, तं जहा----पुढवी एगे महन्भूते, भाऊ दोच्चे महन्भूते, तेऊ तच्चे महन्भूने, वाऊ च उत्थे महन्भूते, अागासे पंचमें महाभूते / इच्चेते पंच महाभूता प्रणिम्मिता अणिम्मेया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा प्रणादिया अणिधणा अवंझा अपुरोहिता सप्ता सासता। ६५६--उस भूत-समवाय (समूह) को पृथक-पृथक नाम से जानना चाहिए। जैसे किपृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज (अग्नि) तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवाँ महाभूत है / ये पांच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित (बनाये हुए) नहीं हैं, न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनवाए हुए (निर्मापित) हैं, ये किये हुए (कृत) नहीं है, न ही ये कृत्रिम (बनावटी) हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं / ये पांचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्द्य--अवश्य कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतंत्र एवं शाश्वत (नित्य) हैं। ६५७----प्रायछट्ठा पुण एगे, एवमाहु--सतो णस्थि विणासो, असतो णस्थि संभवो / ' एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अस्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स कारणयाए, अवि यंतसो तणमातमवि। से किणं किणावेमाणे, हणं घातमाणे, पयं पथावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि विक्किणित्ता घायइत्ता, एत्थ वि जाणाहि-णस्थि एत्थ दोसो। ६५७-कोई (सांख्यवादी) पंचमहाभूत और छठे आत्मा को मानते हैं / वे इस प्रकार कहते हैं कि सत् का विनाश नही होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। (वे पंचमहाभूतवादी कहते हैं-) "इतना ही (यही) जीव काय है, इतना ही (पंचभूतों का अस्तित्वमात्र ही) अस्तिकाय है, इतना ही (पंचमहाभूतरूप ही) समग्र जीवलोक है। ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण (समस्तकार्यों में व्याप्त) हैं, यहां तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण होता है।" (इस दृष्टि से आत्मा असत् या अकिञ्चित्कर होने से) 'स्वयं खरीदता हुआ, दूसरे से खरीद कराता हुअा, एवं प्राणियों का स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुअा, स्वयं पकाता और दूसरों से पकवाता हुआ (उपलक्षण से इन सब असदनुष्ठानों का अनुमोदन करता हुआ), यहां 1 तुलना—'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः / ' -भगवद्गीता अ. 2, श्लो. 16. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 658 ] - [ 27 तक कि किसी पुरुष को (दास आदि के रूप में) खरीद कर घात करने वाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि इन सब (सावद्य) कार्यों में कोई दोष नहीं है, यह समझ लो।" 658 ते णो एतं विपडिवेदेति, तं जहा—किरिया ति वा जाव अणिरए ति वा / एवामेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए / एवामेव ते अणारिया विप्पडिवण्णा तं सद्दहमाणा पत्तियमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा / दोच्चे पुरिसज्जाए पंचमहन्भूतिए ति माहिते / ६५८–वे (पंचमहाभूतवादी) क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के (पूर्वोक्त) पदार्थों को नहीं मानते / इस प्रकार वे नाना प्रकार के सावद्य कार्यों के द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए सदा प्रारम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त रहते हैं / अतः वे अनार्य (आर्यधर्म से दूर), तथा विपरीत विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के धर्म (दर्शन) में श्रद्धा रखने वाले एवं इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि (पूर्वोक्त प्रकार से) इनकी पूजा-प्रशंसा तथा आदर सत्कार करते हैं, विषयभोगसामग्री इन्हें भेंट करते हैं। इस प्रकार सावद्य अनुष्ठान में भी अधर्म न मानने वाले वे पंचमहाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूच्छित होकर न तो इहलोक के रहते हैं और न ही परलोक के। उभयभ्रष्ट होकर पूर्ववत् बीच में ही कामभोगों में फंस कर कष्ट पाते हैं / यह दूसरा पुरुष पाञ्चमहाभूतिक कहा गया है। विवेचन--द्वितीय पाञ्चमहाभूतिक पुरुष : स्वरूप विश्लेषण-सूत्रसंख्या 654 से 658 तक पांच सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने पाञ्चमहाभूतिक वाद का स्वरूप, उसको स्वीकार करने वाले तथा उसकी मोक्ष प्राप्ति में असफलता का प्रतिपादन विविध पहलुत्रों से किया है / वे इस प्रकार हैं (1) सर्वप्रथम पूर्वसूत्रोक्त वर्णन भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। (2) पंच महाभूतों का महात्म्य-सारा संसार, संसार की सभी क्रियाएं, जगत् की उत्पत्ति स्थिति और नाश आदि पंचमहाभूतों के ही कारण हैं। (3) पंचमहाभूतों का स्वरूप-ये अनादि, अनन्त, अकृत, अनिमित, अकृत्रिम, अप्रेरित, स्वतंत्र, काल, ईश्वर, आत्मा आदि से निरपेक्ष, स्वयं समस्तक्रियाएं करने वाले हैं। (4) इसलिए क्रिया-प्रक्रिया, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा आदि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है। (5) सांख्यदर्शन के मतानुसार पंचमहाभूतों के अतिरिक्त छठा आत्मा भी है। पर वह निष्क्रिय है, अकर्ता है। इसलिए अच्छा या बुरा फल उसे नहीं मिलता / अतः दोनों ही प्रकार के पांचभूतवादियों के मतानुसार हिसा, असत्य आदि में कोई दोष नहीं है। (6) ऐसा मानकर वे निःसंकोच स्वयं कामभोगों या सावद्यकार्यों में प्रवृत्त होते रहते हैं। फिर उन्होंने जिन राजा आदि धर्म श्रद्धालुयों को पक्के भक्त बनाए हैं, वे भी विविध प्रकार से उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करके उनके लिए विषयभोगसामग्री जुटाते हैं / (7) फलतः वे इस लोक से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और परलोक से भी। वे संसार को पार Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध नहीं कर पाते, अधबीच में ही कामभोगों के कीचड़ में फंस जाते हैं। श्वेतकमल के समान निर्वाण पाना तो दूर रहा, वे न तो अपना उद्धार कर सकते हैं, न दूसरों का ही। तृतीय पुरुष : ईश्वरकारणवादी-स्वरूप और विश्लेषण ६५६-प्रहावरे तच्चे पुरिसज्जाते ईसरकारणिए ति पाहिज्जइ / इह खलु पादीणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुम्वेणं लोयं उववन्ना, तं जहा-प्रारिया वेगे जाव तेसि च णं महंते एगे राया भवति जाव सेणावतिपुत्ता। तेसि च णं एगतीए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य पहारिसु गमणाए जाव जहा मे एस धम्मे सुमक्खाए सुपण्णत्ते भवति / ६५६-दूसरे पाञ्चमहाभूतिक पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष 'ईश्वरकारणिक' कहलाता है। इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जो क्रमशः इस लोक में उत्पन्न हैं / जैसे कि उनमें से कोई प्रार्य होते हैं, कोई अनार्य इत्यादि / प्रथम सूत्रोक्त सब वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए / उनमें कोई एक श्रेष्ट पुरुष महान् राजा होता है, यहाँ से लेकर राजा की सभा के सभासदों (सेनापतिपुत्र) तक का वर्णन भी प्रथम सूत्रोक्त वर्णनवत् समझ लेना चाहिए। इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है / उस धर्मश्रद्धालु के पास जाने का तथाकथित श्रमण और ब्राह्मण (माहन) निश्चय करते हैं / वे उसके पास जा कर कहते हैं-हे भयत्राता महाराज! मैं आपको सच्चा धर्म सुनाता हूं, जो पूर्वपुरुषों द्वारा कथित एवं सुप्रज्ञप्त है, यावत् आप उसे ही सत्य समझे / ६६०-इह खलु धम्मा पुरिसादीया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिसपज्जोइता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / ' [1] से जहानामए गंडे सिया सरोरे जाते सरीरे बुड्ढे सरीरे अभिसमण्णागते सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि पुरिसादीया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / [2] से जहाणामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे अभिसंवुड्डा सरीरे अभिसमण्णागता सरीरमेव अभिभूय चिटुति / एवामेव धम्मा पुरिसादीया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / [3] से जहाणामए वम्मिए सिया पुढवीजाते पुढवीसंवुड्ढे पुढवीअभिसमण्णागते पुढवीमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि पुरिसादीया जाव अभिभूय चिह्रति / [4] से जहाणामए रुक्खे सिया पुढवीजाते पुढविसंवुड्ढे पुढविश्नभिसमण्णागते पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव अभिभूय चिट्ठति / [5] से जहानामए पुक्खरणी सिया पुढविजाता जाव पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि पुरिसादीया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति। 1. तुलना---'.."पुरिसादीया धम्मा"."से जहानामते अरतीसिया......"एवामेव धम्मा वि पुरिसादीया जाव चिट्ठति / एवं गंडे वम्मीके थूभे रुक्खे, वणसंडे, पुक्खरिणी"""""उदगपुक्खले....."अगणिकाए सिया अरणीय जाते.... एवामेव धम्मावि पुरिसादीया तं चेव ..... ..." इसिभासियाई-अ-२२, पृ. 43 / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 660 ] [6] से जहाणामए उदगपोक्खले सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / [7] स जहाणामए उदगबुब्बुए सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति / एवामेव धम्मा वि पुरिसाईया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / ६६०-इस जगत् में जितने भी चेतन--अचेतन धर्म (स्वभाव या पदार्थ) हैं, वे सब पुरुषादिक हैं-ईश्वर या आत्मा (उनका) आदि कारण है; वे सब पुरुषोत्तरिक हैं—ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है, अथवा ईश्वर ही उनका संहारकर्ता है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत (रचित) हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न (जन्मे हुए) हैं, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं। (1) जैसे किसी प्राणी के शरीर में हुमा फोड़ा (गुमड़ा) शरीर से ही उत्पन्न होता है शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का ही अनुगामी बनता है और शरीर का ही प्राधार लेकर टिकता है, इसी तरह सभी धर्म (पदार्थ) ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर से ही वृद्धिगत होते हैं, ईश्वर के ही अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते हैं। (2) जैसे अरति (मन का उद्वेग) शरीर से ही उत्पन्न होती है, शरीर में ही बढ़ती है, शरीर की अनुगामिनी बनती है, और शरीर को ही मुख्य आधार बना करके पीड़ित करती हुई रहती है, इसी तरह समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न, उसी से वृद्धिंगत और उसी के आश्रय से स्थित हैं। (3) जैसे बल्मीक (कीटविशेषकृत मिट्टी का स्तूप या दीमकों के रहने की बांबी) पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही बढ़ता है, और पृथ्वी का ही अनुगामी है तथा पृथ्वी का ही आश्रय लेकर रहता है, वैसे ही समस्त पदार्थ (धर्म) भी ईश्वर से हो उत्पन्न हो कर उसी में लीन होकर रहते हैं / (4) जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, मिट्टी से ही उसका संवर्द्ध न होता है, मिट्टी का ही अनुगामी बनता है, और मिट्टी में ही व्याप्त होकर रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संवद्धित और अनुगामिक होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त हो कर रहते हैं। (5) जैसे पुष्करिणी (बावड़ी) पृथ्वी से उत्पन्न (निमित) होती है, और यावत् अन्त में पृथ्वी में ही लीन होकर रहती है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में ही लीन हो कर रहते हैं। (6) जैसे कोई जल का पुष्कर (पोखर या तालाब) हो, वह जल से ही उत्पन्न (निर्मित) होता है जल से ही बढ़ता है, जल का ही अनुगामी होकर अन्त में जल को ही व्याप्त करके रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न संवद्धित एवं अनुगामी होकर उसी में विलीन होकर रहते हैं। (7) जैसे कोई पानी का बुबुद् (बुलबुला) पानी से उत्पन्न होता है, पानी से ही बढ़ता है, पानी का ही अनुगमन करता है और अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त (लीन) होकर रहते हैं / Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ६६१-जं पि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिठं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहाआयारो जाव दिट्टिवातो, सव्वमेध मिच्छा, ण एतं तहितं, ण एवं पाहत्तहितं / इमं सच्च, इमं तहितं, इमं आहतहितं, ते एवं सण्णं कुव्वंति, ते एवं सणं संठवेंति, ते एवं सणं सोवढवयंति, तमेवं ते तज्जातियं दुक्खं णातिउति सउणी पंजरं जहा / ६६१--यह जो श्रमणों-निर्ग्रन्थों द्वारा कहा हुना, रचा हुआ या प्रकट किया हुआ द्वादशाङ्ग गणिपिटक (आचार्यों का या गणधरों का ज्ञानपिटारा-ज्ञानभण्डार) है, जैसे किआचारांग, सूत्रकृतांग से लेकर दृष्टिवाद तक, यह सब मिथ्या है, यह तथ्य (सत्य) नहीं है और न ही यह यथातथ्य (यथार्थ वस्तुस्वरूप का बोधक) है, (क्योंकि यह सब ईश्वरप्रणीत नहीं है), यह जो हमारा (ईश्वरकर्तृत्ववाद या आत्माद्वैतवाद है) यह सत्य है, यह तथ्य है, यह यथातथ्य (यथार्थ रूप से वस्तुरूप प्रकाश) है / इस प्रकार वे (ईश्वरकारणवादी या प्रात्माद्वैतवादी) ऐसी संज्ञा (मान्यता या विचारधारा) रखते, (या निश्चत करते) हैं; वे अपने शिष्यों के समक्ष भी इसी मान्यता को स्थापना करते हैं, वे सभा में भी वे इसी मान्यता से सम्बन्धित युक्तियाँ मताग्रहपूर्वक उपस्थित (प्रस्तुत) करते हैं / जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता वैसे ही वे (पूर्वोक्तवादी) अपने ईश्वरकर्तृत्ववाद या आत्माद्वैतवाद को अत्यन्ताग्रह के कारण नहीं छोड़ सकते, अतः इस मत के स्वीकार करने से उत्पन्न (तज्जातीय) दुःख (दुःख के कारणभूत कर्मसमूह) को नहीं तोड़ सकते। 662 ते णो [एतं] विपडिवेदेति तं जहा-किरिया इ वा जाव अणिरए ति वा / एवामेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाइं समारंभित्ता भोयणाए एवामेव ते अणारिया विप्पडिवण्णा, तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा काममोगेसु विसण्णा। तच्चे पुरिसज्जाते इस्सरकारणिए त्ति माहिते। ६६२–वे (ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वैतवादो स्वमताग्रहग्रस्त होने से) इन (आगे कहे जाने वाली) बातों को नहीं मानते जैसे कि--पूर्वसूत्रोक्त क्रिया से लेकर अनिरय (नरक से अतिरिक्त गति) तक हैं / वे नाना प्रकार के पापकर्मयुक्त (सावद्य) अनुष्ठानों के द्वारा कामभोगों के उपभोग के लिए अनेक प्रकार के कामभोगों का आरम्भ करते हैं / वे अनार्य (आर्यधर्म से दूर) हैं, वे विपरीत मार्ग को स्वीकार किये हुए हैं, अथवा भ्रम में पड़े हुए हैं। इस प्रकार के ईश्वरकर्तृत्ववाद में श्रद्धाप्रतीति रखने वाले वे धर्मश्रद्धालु राजा आदि उन मतप्ररूपक साधकों की पूजा-भक्ति करते हैं, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णन के अनुसार वे ईश्वरकारणवादी न तो इस लोक के होते हैं न परलोक के। वे उभयभ्रष्ट लोग बीच में ही कामभोगों में फंस कर दुःख पाते हैं। यह तीसरे ईश्वरकारणवादी का स्वरूप कहा गया है। विवेचन-ईश्वरकारणवादी तृतीयपुरुष : स्वरूप और विश्लेषण प्रस्तुत चार सूत्रों (सूत्र संख्या 656 से 662 तक) में ईश्वरकारणवाद तथा प्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप, प्रतिपक्ष पर आक्षेप एवं दुष्परिणाम पर शास्त्रकार ने विभिन्न पहलुओं से प्रतिपादन किया है। 1 देखिए सूत्र 655 और उसका अर्थ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 663 ] [ 31 ईश्वरकारणवाद का मन्तव्य-प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में स्पष्ट कर दिया गया है, पाठक वही देखें / प्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप- भी प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में बता दिया गया है। संक्षेप में उनका मन्तव्य यह है कि सारे विश्व में एक ही प्रात्मा है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है। वह एक होता हुआ भी विभिन्न जलपात्रों के जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र के समान प्रत्येक जीव में भिन्नभिन्न प्रतीत होता है / जैसे मिट्टी से बने हुए सभी पात्र मृण्मय कहलाते हैं, तन्तु द्वारा बने हुए सभी वस्त्र तन्तुमय कहलाते हैं, इसी प्रकार समस्त विश्व प्रात्मा द्वारा निर्मित होने से प्रात्ममय है। इस चतु:सूत्री में निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) ईश्वरकारणवादी अथवा आत्माद्वैतवादी पुरुष का परिचय, (2) ईश्वर कारणवाद या प्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप (3) ईश्वर कारणवाद या प्रात्माहतवाद को सिद्ध करने के लिए प्रतिपादित 7 उपमाएं (क) शरीर में उत्पन्न फोड़े की तरह, (ख) शरीरोत्पन्न अरतिवत् (ग) पृथ्वी से उत्पन्न वल्मीकवत् (घ) पृथ्वीसमुत्पन्न वृक्षवत् (ङ) पृथ्वी से निर्मित पुष्करिणीवत्, (च) जल से उत्पन्न पुष्करवत् (छ) जल से उत्पन्न बुदबूदवत / (4) ईश्वर कर्तत्ववाद विरोधी श्रमण निर्ग्रन्थों का द्वादशांगी गणिपिटक ईश्वरकृत न होने से मिथ्या होने का प्राक्षेप और स्ववाद की सत्यता का प्रतिपादन, (5) ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वैतवादी पूर्वसूत्रोक्तवत् क्रिया-प्रक्रिया से लेकर नरकादि गतियों को नहीं मानते। (6) अपने मिथ्यावाद के आश्रय से पापकर्म एवं कामभोगों का नि:संकोच सेवन, (7) अनार्य एवं विप्रतिपन्न ईश्वरकारणवादियों या आत्माद्वैतवादियों की दुर्दशा का पूर्ववत् वर्णन / आत्माद्वंतवाद भी युक्तिविरुद्ध- इस जगत् में जब एक आत्मा के सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं तब फिर मोक्ष के लिए प्रयत्न, शास्त्राध्ययन प्रादि सब बातें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी, सारे जगत् के जीवों का एक आत्मा मानने पर सुखी-दुखी, पापी-पुण्यात्मा आदि प्रत्यक्षदृश्यमान् विचित्रताएं सिद्ध नहीं होंगी, एक के पाप से सभी पापी और एक की मुक्ति से सबकी मुक्ति माननी पड़ेगी, जो कि प्रात्माद्वैतवादी को अभीष्ट नहीं है।' चतुर्थ पुरुष : नियतिवादी : स्वरूप और विश्लेषण 663-- प्रहावरे चउत्थे पुरिसजाते णियतिवातिए ति पाहिज्जति / इह खलु पाईणं वा 4 तहेब जाव सेणावतिपुत्ता वा, तेसि च गं एगतिए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिसु गमणाए जाव जहा मे एस धम्मे सुअक्खाते सुपण्णत्ते भवति / ६६३-तीन पुरुषों का वर्णन करने के पश्चात् अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है / इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशानों के वर्णन से लेकर राजा और राजसभा के सभासद सेनापतिपुत्र तक का वर्णन प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना चाहिए / पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। उसे धर्मश्रद्धालु जान कर (धर्मोपदेशार्थ) उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं / यावत् वे उसके पास जाकर कहते हैं"मैं अापको पूर्वपुरुषकथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) धर्म का उपदेश करता हूं (उसे पाप ध्यान से सुनें / )" 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 284 से 287 तक का सारांश / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ६६४-इह खलु दुवे पुरिसा भवंति–एगे पुरिसे किरियमाइक्खति, एगे पुरिस णोकिरियमाइक्खति / जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे गोकिरियमाइक्खइ, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारण मावन्ना। बाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने, तं जहाजोऽहमंसी दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पिड्डामि वा परितप्पामि वा अहं तमकासी, परो वा जं दुक्खति वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पिडड्ड वा परितप्पइ वा परो एतमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने / मेधावी पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने-अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जरामि वा तिप्पामि वा पिडड्डामि वा परितप्पामि वा, णो अहमेतमकासि परो वा जं दुक्खति वा जाव परितप्पति वा नो परो एयमकासि / एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विष्पडिवेदेति कारणमावन्ने। 664- इस लोक में (या दार्शनिक जगत् में) दो प्रकार के पुरुष होते हैं—एक पुरुष क्रिया का कथन करता है, (जबकि) दूसरा क्रिया का कथन नहीं करता, (क्रिया का निषेध करता है)। जो पुरुष क्रिया का कथन करता है और जो पुरुष क्रिया का निषेध करता है, वे दोनों हो नियति के अधीन होने से समान हैं, तथा वे दोनों एक ही अर्थ वाले और एक ही कारण (नियतिवाद) को प्राप्त है।। ये दोनों ही अज्ञानी (बाल) हैं, अपने सुख और दुःख के कारणभूत काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह समझते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा हूं, शोक (चिन्ता) कर रहा हूं, दुःख से आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप) कर रहा हूं, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, या संतप्त हो रहा हूं, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं, तथा दूसरा जो दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, अथवा पीड़ित होता है या संतप्त होता है, वह सब उसके द्वारा किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं / इस कारण वह अज्ञजीव (काल, कर्म, ईश्वर आदि को सुख-दुःख का कारण मानता हमा) स्वनिमित्तक (स्वकृत) तथा परनिमित्तक (परकृत) सुखदुः खादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कृत कर्मफल समझता है. परन्त एकमात्र नियति का ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि 'मैं जो कुछ दुःख भोगता हूं, शोकमग्न होता हूं या संतप्त होता हूं, वे सब मेरे किये हुए कर्म (कर्मफल) नहीं हैं, तथा दूसरा पुरुष जो दुःख पाता है, शोक आदि से संतप्त—पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, (अपितु यह सब नियति का प्रभाव है)। इस प्रकार वह बुद्धिमान् पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुःख आदि को यों मानता है कि ये सब नियतिकृत (नियति के कारण से हुए हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं। 665-- से बेमि-पाईणं वा 4 जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमावति , ते एवं परियायमावज्जति, ते एवं विवेगमावज्जति, ते एवं विहाणमागच्छंति, ते एवं संगइ यति / उहाए णो एयं विप्पडिवेति, तं जहा-किरिया ति वा जाव णिरए ति वा अणिरए ति वा / एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारभंति भोयणाए। एवामेव ते प्रणारिया विप्पडिवण्णा तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसम्णा / चउत्थे पुरिसजाते णियइवाइए त्ति पाहिए / Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 666 ] [ 33 ६६५-अत: मैं (नियतिवादी) कहता हूं कि पूर्व प्रादि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर की रचना (संघात) को प्राप्त करते हैं, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और वृद्ध अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक (मृत) होते हैं, वे नियति के कारण ही काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते हैं।" (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं-) इस प्रकार नियति को ही समस्त अच्छेबुरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना (उत्प्रेक्षा) करके (निःसंकोच एवं कर्मफल प्राप्ति से निश्चिन्त होने से) नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते-क्रिया, प्रक्रिया से लेकर प्रथम सूत्रोक्त नरक और नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ / इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र में पड़े हुए लोग नाना प्रकार के सावधकर्मों का अनुष्ठान करके काम-भोगों का उपभोग करते हैं, इसी कारण (नियतिवाद में श्रद्धा रखने वाले) वे (नियतिवादी) अनार्य हैं, वे भ्रम में पड़े हैं। वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के, अपितु काम-भोगों में फंस कर कष्ट भोगते हैं। यह चतुर्थपुरुष नियतिवादी कहलाता है। ६६६–इच्चेते चत्तारि पुरिसजाता णाणापन्ना णाणाछंदा गाणासीला जाणादिट्ठी णाणाई जाणारंभा णाणझवसाणसंजुत्ता पहीणपुवसंजोगा प्रारियं मग्गं प्रसंपत्ता, इति ते गो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा / ६६६-इस प्रकार ये पूर्वोक्त चार पुरुष भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले, विभिन्न शील (आचार) वाले, पृथक् पृथक् दृष्टि (दर्शन) वाले, नाना रुचि वाले, अलग-अलग प्रारम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विभिन्न अध्यवसाय (पुरुषार्थ) वाले हैं। इन्होंने माता-पिता आदि गृहस्थाश्रमीय पूर्वसंयोगों को तो छोड़ दिया, किन्तु आर्यमार्ग (मोक्षपथ) को अभी तक पाया नहीं है / इस कारण वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के होते हैं, किन्तु बीच में ही (सांसारिक) काम-भोगों में ग्रस्त होकर कष्ट पाते हैं। विवेचन--चतुर्थ पुरुषः नियतिवादी-स्वरूप प्रौर विश्लेषण प्रस्तुत चार सूत्रों में से प्रथम तीन सूत्रों में चतुर्थ पुरुष नियतिवादी के सम्बन्ध में कुछ तथ्यों का तथा चतुर्थ सूत्र में पूर्वोक्त चारों पुरुषों द्वारा आर्यमार्ग पाने में असफलता का निरूपण है। नियतिवाद के सम्बन्ध में यहाँ निम्नोक्त तथ्य प्रतिफलित होते हैं(१) नियतिवाद के प्ररूपक और उनके अनुगामी / (2) क्रियावादी और प्रक्रियावादी दोनों ही नियति के प्रभाव में / (3) एकान्त-नियतिवादविरोधी सुखदुःखादि स्व-स्वकृतकर्मफलानुसार मानते हैं। (4) नियतिवादी सुखदुःखादि को स्वकृतकर्मफल न समझ कर नियतिकृत मानते हैं। (5) नियति के प्रभाव से शरीर-रचना, बाल्य, युवा आदि अवस्थाएँ या विविध विरूपताएँ प्राप्त होती हैं। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (6) भगवान् महावीर का मन्तव्य-एकान्तनियतिवादी नियति को समस्त कार्यों की उत्तरदायी मान कर नि:संकोच सावद्यकर्म एवं कामभोग सेवन करके उक्त कर्मबन्ध के फलस्वरूप संसार में ही फंसे रह कर नाना कष्ट पाते हैं।' एकान्त नियतिवाद-समीक्षा-नियतिवाद का मन्तव्य यह है कि मनुष्यों को जो कुछ भी भला-बुरा, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि प्राप्त होना नियत निश्चित है, वह उसे अवश्य ही प्राप्त होता है। जो होनहार नहीं है, वह नहीं होता, और जो होनहार है, वह हुए बिना नहीं रहता।२ अपने-अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए समानरूप से प्रयत्न करने। पर भी किसी के कार्य की सिद्धि होती है, किसी के कार्य की नहीं, उसमें नियति ही कारण है। नियति को छोड़ कर काल, ईश्वर, कर्म आदि को कारण मानना अज्ञान है। नियतिवादी मानता है कि स्वयं को या दूसरों को प्राप्त होने वाले सुख-दुःखादि स्वकृतकर्म के फल नहीं हैं, वे सब नियतिकृत हैं, जबकि अज्ञानी लोग प्राप्त सुख-दुःखादि को ईश्वरकृत, कालकृत या स्वकर्मकृत मानते हैं। शुभ कार्य करने वाले दुःखी और अशुभ कार्य करने वाले सुखी दृष्टिगोचर होते हैं, इसमें नियति की ही प्रबलता है। क्रियावादी जो सक्रिया करता है, या अक्रियावादी जो अक्रिया का प्रतिपादन या असक्रिया (दुःखजनक क्रिया) में प्रवृत्ति करता है, वह सब नियति की ही प्रेरणा से / जीव स्वाधीन नहीं है, नियति के वश है। सभी प्राणी नियति के अधीन हैं। यह एकान्तनियतिवाद युक्तिविरुद्ध है। नियति उसे कहते हैं, जो वस्तुओं को अपने-अपने स्वभाव में नियत करती है। ऐसी स्थिति में नियति को अपने (नियति के) स्वभाव में नियत करने वाली दूसरी नियति की, और दूसरी को स्व-स्वभाव में नियत करने के लिए तीसरी नियति की आवश्य टोप ग्राएगा। यदि यह कहें कि नियति अपने स्वभाव में स्वत: नियत रहता है, तो यह क्यों नहीं मान लेते कि सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्वतः नियत रहते हैं, उन्हें स्व-स्वभाव में नियत करने के लिए नियति नामक किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती। नियति नियत स्वभाववाली होने के कारण जगत् में प्रत्यक्ष दृश्यमान विचित्रता एवं विविधरूपता को उत्पन्न नहीं कर सकती, यदि वह विचित्र जगत् की उत्पत्ति करने लगेगी तो स्वयं विचित्र स्वभाव वाली हो जाएगी, एक स्वभाव वाली नहीं रह सकेगी / अत: जगत् में दृश्यमान विचित्रता के लिए कर्म को मानना ही उचित है। प्राणिवर्ग अपने-अपने कर्मों की विभिन्नता के कारण ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं। स्वकृत कर्मों का फल माने बिना जगत् की विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती। अगर नियति को विचित्र स्वभाववाली मानते हैं तो वह कर्म ही है, जिसे नियतिवादी 'नियति' शब्द से कहते हैं। दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं रहता / वास्तव में, जिस प्रकार वृक्षों का मूल सींचने से उनकी शाखाओं में फल लगते हैं, उसी प्रकार इस जन्म में किये हुए कर्मों का फल भोग आगामी काल में होता है। मनुष्य पूर्वजन्म में शुभाशुभ कर्म संचित करता है, 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 288-289 का सारांश / 2. प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। . भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति, न भाविनोऽस्ति नाशः / / -सूत्रकृ. शी. वृत्ति. प. 288 में उद्धत कता Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 667 ] [ 35 उसके अनुसार स्व-स्वकृत कर्मपरिणाम को सुर या असुर कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता है / ' कर्म का फल नियत है, अवश्यम्भावी है, उसे न मानकर एकमात्र नियति को सबका कारण मानना मिथ्या है। __ एकान्तनियतिवादी अपने शुभाशुभ कर्मों का दायित्व स्वयं पर न लेकर नियति पर डाल देता है, इसके कारण वह पुण्य-पाय, स्वर्ग-नरकादि परलोक, सुकृत-दुष्कृत, शुभाशुभफल आदि का चिन्तन छोड़कर निःसंकोच सावध अनुष्ठानों एवं काम-भोगों में प्रवृत्त हो जाता है / इस प्रकार नियतिवादी उभयलोक से भ्रष्ट हो जाता है, जब कि कर्म को मानने वाला अशुभकर्मों से दूर रहेगा, तथा कर्मक्षय करने का पुरुषार्थ करेगा और एक दिन सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा। चारों कोटि के पुरुष : मिथ्यावाद प्ररूपक-पृथक्-पृथक् बुद्धि, अभिप्राय, रुचि, दृष्टि, शील, प्रारम्भ और निश्चयवाले ये चारों पुरुष एकान्तवादी तथा अपने-अपने मताग्रह के कारण अधर्म को भी धर्म समझने वाले हैं, इस कारण ये चारों मिथ्यावादप्ररूपक हैं / अतः ये स्वकृतकर्मफलानुसार संसार के काम-भोगरूपी कीचड़ में फंस कर दुःखी होते हैं / भिक्षावृत्ति के लिए समुद्यत भिक्षु के लिए वैराग्योत्पादकपरिज्ञानसूत्र ६६७–से बेमि पाईणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति; तं जहा-प्रारिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरुवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसि च णं खेत्त-वत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा- अप्पयरा वा भुज्जतरा वा / तेसि च णं जण-जाणवयाई परिगहियाई भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरा वा / तहप्पकारेहि कुलेहि प्रागम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता, सतो वा वि एगे गायत्रो य उवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुद्विता / असतो वा वि एगे नायनो य उवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता। ६६७-(श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं-) मैं ऐसा कहता है कि पूर्व आदि जारों दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, कोई उच्चगोत्रीय और कोई नीचगोत्रीय होते हैं, कोई मनुष्य लम्बे कद के (ऊंचे) और कोई ठिगने कद के (ह्रस्व) होते हैं, किसी के शरीर का वर्ण सुन्दर होता है, किसी का असुन्दर होता है, कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप / उनके पास (अपने स्वामित्व के थोड़े या बहुत) खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन (परिवार, कुल आदि के लोग) तथा जनपद (देश) परिगृहीत (अपने स्वामित्व के) होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक / इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में जन्म लेकर विषय-भोगों की आसक्ति छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए (दीक्षाग्रहण हेतु) उद्यत होते हैं। कई विद्यमान ज्ञातिजन (स्वज़न), अज्ञातिजन (परिजन) तथा उपकरण (विभिन्न भोगोपभोग-साधन या धन-धान्यादि वैभव) को छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने 1. यदिह क्रियते कर्म, तत्परत्रोपभुज्यते, मूलसिक्त षु वृक्षेषु फलं शाखासु जायते // 1 // पदुपात्तमन्यजन्मनि शुभाशुभं वा स्वकर्मपरिणत्या, तच्छक्यमन्यथा नो कर्तु देवासुरैरपि हि // 2 // --सू. कृ. शी. वृत्ति प. 289 में उद्धृत Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (प्रवजित होने) के लिए समुद्यत होते हैं, अथवा कई अविद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए समुद्यत होते हैं। ६६८–जे ते सतो वा असतो वा णायो य उवकरणं च विष्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता पुवामेव तेहिं जातं भवति, तं जहा-इह खलु पुरिसे अण्णमणं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति, तं जहाखेतं मे, वत्थु मे, हिरणं मे, सुवण्णं मे, धणं मे, धण्णं मे, कंसं मे, दूसं मे, विपुल-धण-कणग-रयणमणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्त-रयण-संतसार-सावतेयं मे, सद्दा मे, रूवा मे, गंधा मे, रसा में, फासा मे, एते खलु मे कामभोगा, प्रहमवि एतेसि / ६६८–जो विद्यमान अथवा अविद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षाचर्या (साधुदीक्षा) के लिए समुत्थित होते हैं, इन दोनों प्रकार के ही साधकों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि इस लोक में पुरुषगण अपने से भिन्न वस्तुओं (पर-पदार्थों) को उद्देश्य करके झूठमूठ ही ऐसा मानते हैं कि ये मेरी हैं, मेरे उपभोग में आएँगी, जैसे कि यह खेत (या जमीन) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चाँदी मेरी है, यह सोना मेरा है, यह धन मेरा है, धान्य मेरा है, यह कांसे के बर्तन मेरे हैं, यह बहमूल्य वस्त्र या लोह आदि धातु मेरा है, यह प्रचुर धन (गाय, भैस आदि पशु) यह बहुत-सा कनक, ये रत्न, मणि, मोती, शंखशिला, प्रवाल (मूगा), रक्तरत्न (लाल), पद्मराग आदि उत्तमोत्तम मणियाँ और पैत्रिक नकद धन, मेरे हैं, ये कर्णप्रिय शब्द करने वाले वीणा, वेणु आदि वाद्य-साधन मेरे हैं, ये सुन्दर और रूपवान् पदार्थ मेरे हैं, ये इत्र, तेल आदि सुगन्धित पदार्थ मेरे हैं, ये उत्तमोत्तम स्वादिष्ट एवं सरस खाद्य पदार्थ मेरे हैं, ये कोमल-कोमल स्पर्श वाले गद्दे, तोशक आदि पदार्थ मेरे हैं / ये पूर्वोक्त पदार्थ-समूह मेरे कामभोग के साधन हैं, मैं इनका योगक्षेम (अप्राप्त को प्राप्त करने और प्राप्त की रक्षा करने वाला हूँ, अथवा उपभोग करने में समर्थ हूँ।" ६६६-से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा, तं जहा-इह खलु मम अण्णयरे दुक्खे रोगायंके समुप्पज्जेज्जा अणिठे अकते अप्पिए असुभे अमणुष्णे प्रमणामे दुक्खे णो सुहे, से हता भयंतारो कामभोगा! इमं मम अण्णतरं दुक्खं रोगायक परियाइयह प्रणिठें अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पिड्डामि वा परितप्पामि वा, इमानो मे अण्णतरातो दुक्खातो रोगायंकातो पडिमोयह अणिटातो अकंतातो अप्पियानो असुहाम्रो प्रमणुन्नाप्रो अमणामानों दुक्खायो णो सुहातो। एवामेव नो लद्धपुव्वं भवति / ६६६-वह (प्रव्रजित अथवा प्रव्रज्या लेने का इच्छुक) मेधावी साधक स्वयं पहले से ही (इनका उपभोग करने से पूर्व ही) यह भलीभाँति जान ले कि "इस संसार में जब मुझे कोई रोग या आतंक उत्पन्न होता है, जो कि मुझे इष्ट नहीं है, कान्त (मनोहर) नहीं है, प्रिय नहीं है, अशुभ है, अमनोज्ञ है, अधिक पीड़ाकारी (मनोव्यथा पैदा करने वाला) है, दुःखरूप है, सुखरूप नहीं है, (तब यदि मैं प्रार्थना करू कि) हे भय का अन्त करने वाले मेरे धनधान्य प्रादि कामभोगो! मेरे इस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अतीव दुःखद, दुःखरूप या असुखरूप रोग, आतंक आदि को तुम बांट कर ले लो; क्योंकि मैं इस पीड़ा, रोग या आतंक से बहुत दु:खी हो रहा हूँ, मैं चिन्ता या शोक से व्याकुल हूँ, इनके कारण मैं बहुत चिन्ताग्रस्त हूँ, मैं अत्यन्त पीड़ित हो रहा हूँ, मैं बहुत ही Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 670, 671, 672 ] वेदना पा रहा हूँ, या अतिसंतप्त हूँ / अतः तुम सब मुझे इस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अवमान्य, दुःखरूप या असुखरूप मेरे किसी एक दुःख से या रोगातंक से मुझे मुक्त करा दो। तो वे (धनधान्यादि कामभोग) पदार्थ उक्त प्रार्थना सुन कर दुःखादि से मुक्त करा दें, ऐसा कभी नहीं ६७०-इह खलु काममोगा णो ताणाए वा सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुटिव कामभोंगे विप्पजहति, कामभोगा वा एगता पुनि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु काम भोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण क्यं अन्नमन्नेहि कामभोगेहिं मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं कामभोगे विप्पजहिस्सामो। ६७०-इस संसार में वास्तव में, (अत्यन्त परिचित वे धन-धान्यादि परिग्रह विशेष तथा शब्दादि) काम-भोग दु:ख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते / इन काम-भोगों का उपभोक्ता किसी समय तो (दुःसाध्यव्याधि, जराजीर्णता, या अन्य शासनादि का उपद्रव या मृत्युकाल आने पर) पहले से ही स्वयं इन काम-भोग पदार्थों को (बरतना) छोड़ देता है, अथवा किसी समय (द्रव्यादि के अभाव में) (विषयोन्मुख) पुरुष को काम-भोग (ये कामभोग्य साधन) पहले ही छोड़ (कर चल) देते हैं। इसलिए ये काम-भोग मेरे से भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ। फिर हम क्यों अपने से भिन्न इन काम-भोगों (धन धान्यादि तथा ज्ञातिजनादि परिग्रह-विशेष तथा शब्दादि कामभोग्य पदार्थों) में मूच्छित-आसक्त हों। इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप जानकर (अब) हम इन कामभोगों का परित्याग कर देंगे। ६७१–से मेहावी जाणेज्जा बाहिरंगमेतं, इणमेव उवणीततरागं, तं जहा--माता मे, पिता मे, भाया मे, भज्जा मे, भगिणी में, पुत्ता मे, धूता मे, नत्ता मे, सुहा मे, पेसा मे, सुही मे, सयण-संगंथसंथुता मे, एते खलु मे णायो, अहमवि एतेसि / ६७१-(इस प्रकार वह विवेकशील) बुद्धिमान साधक (निश्चितरूप से) जान ले, ये सब काम-भोगादिपदार्थ बहिरंग-बाह्य हैं, मेरी आत्मा से भिन्न (परभाव) हैं। (सांसारिक दृष्टि वाले मानते हैं कि) इनसे तो मेरे निकटतर ये ज्ञातिजन (स्वजन) हैं जैसे कि (वह कहता है-) "यह मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, ये मेरे दास (नौकर-चाकर) हैं, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र-वध है, मेरा मित्र है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी हैं। ये मेरे ज्ञातिजन है, और मैं भी इनका आत्मीय जन हूँ।" ६७२-से मेहावी पुत्वामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा-इह खलु मम अण्णतरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा अणिढे जाव दुक्खे नो सुहे, से हंता भयंतारो गायत्रो इमं ममण्णतरं दुक्खं रोगायक परिमादियध' अणिठं जाव नो सुह, ना हर दुक्खामि वा जाव परितप्पामि वा, इमातो मं 1. तुलना---'न तस्स दुक्खं बिभयंति नाइग्रो, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा / एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्ता रमेवं अणुजाइ कम्मं // --उत्तराध्ययन, अ. 13 गा. 23 2. पाठान्तर है--'ताऽहं', 'माऽहं / ताऽहं होने पर व्याख्या में थोड़ा परिवर्तन हो जाता है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्नयरातो दुक्खातो रोगायंकातो पडिमोएह अणिद्वानो जाव णो सुहातो। एवामेव गो लद्धपुन्वं अवति। ६७२-(किन्तु उक्त शास्त्रज्ञ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक (जो कि मेरे लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय यावत् दुःखदायक है) पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करू कि हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनों ! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् दुःखरूप या असुखरूप दुःख या रोगातंक को आप लोग बराबर बांट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित, यावत् अतिसंतप्त न होऊं / आप सब मुझे इस अनिष्ट यावत् उत्पीड़क दुःख या रोगातंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख और रोगातंक को बांट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता। ६७३–तेसि वा वि भयंताराणं मम णाययाणं अण्णयरे दुक्खे रोगातंके समुष्पज्जेज्जा अणिो जाव नो सुहे, से हंता अहमेतेसि भयंताराणं णाययाणं इमं अण्णतरं दुक्खं रोगातक परियाइयामि अणिटुं जाव णो सुहं, मा मे दुक्खंतु वा जाव परितप्पंतु वा, इमानो णं अण्णतरातो दुक्खातो रोगातंकातो परिमोएमि अणिट्ठातो जाव नो सुहातो / एवामेव णो लद्धपुव्वं भवति / ६७३—अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखरूप उस दुःख या रोगातंक को बांट कर ले लू, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ यावत् वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन ज्ञातिजनों को उनके किसी अनिष्ट यावत् असुखरूप दुःख या रोगातंक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता। ६७४–अण्णस्स दुक्खं अण्णो नो परियाइयति, अन्नेण कडं कम्मं अन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयति, पत्तेयं उववज्जति, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सण्णा, पत्तेयं मण्णा, एवं विष्णू, वेदणा, इति खलु णातिसंयोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसो वा एगता पुष्वि जातिसंयोगे विप्पजहति, नातिसंयोगा वा एगता पुब्धि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु णातिसंयोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि णातिसंयोगेहिं मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं णातिसंयोगे विपजहिस्सामो। ६७४-(क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बांट कर नहीं ले सकता। दूसरे के द्वारा कृत कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता / प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, आयुष्य क्षय होने पर अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही (धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्णादि परिग्रह, शब्दादि विषयों या माता-पितादि के संयोगों का) त्याग करता है, अकेला ही प्रत्येक व्यक्ति इन वस्तुओं का उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा (कलह) आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान (संज्ञान) करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन-चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान् होता है, (उसके बदले में दूसरा कोई विद्वान् नहीं बनता), प्रत्येक व्यक्ति Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक: प्रथम अध्ययन : सत्र 675-676) अपने-अपने सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करता है / अतः पूर्वोक्त प्रकार से (अन्यकृत कर्म का फल अन्य नहीं भोगता, तथा प्रत्येक व्यक्ति के जन्म-जरा-मरणादि भिन्न-भिन्न हैं इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञातिजनों का संयोग दु:ख से रक्षा करने या पीड़ित मनुष्य को शान्ति या शरण देने में समर्थ नहीं है। कभी (क्रोधादिवश या मरणकाल में) मनुष्य स्वयं ज्ञातिजनों के संयोग को पहले ही छोड़ देता है अथवा कभी ज्ञातिसंयोग भी मनुष्य के दुर्व्यवहार-दुराचरणादि देखकर) मनुष्य को पहले छोड़ देता है।" अतः (मेधावी साधक यह निश्चित जान ले कि) 'ज्ञातिजनसंयोग मेरे से भिन्न है, मैं भी ज्ञातिजन संयोग से भिन्न हूँ।' तब फिर हम अपने से पृथक् (आत्मा से भिन्न) इस ज्ञातिजनसंयोग में क्यों आसक्त हों ? यह भलीभांति जानकर अब हम ज्ञाति-संयोग का परित्याग कर देंगे / ६७५-से मेहावी जाणेज्जा बाहिरगमेतं,' इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा-हत्था मे, पाया मे, बाहा मे, ऊरू मे, सोसं मे, उदरं मे, सोलं मे, पाउं मे, बलं में, वण्णो मे, तया मे, छाया में, सोयं मे, चक्खु मे, घाणं मे, जिब्भा मे, फासा मे, ममाति। जंसि क्यातो परिजरति तं जहा-पाऊयो बलामो वण्णाश्रो ततायो छातापो सोताओ जाव फासापो, सुसंधीता संधी विसंधी भवति, वलितरंगे गाते भवति, किण्हा केसा पलिता भवंति, तं जहा--जं पि य इमं सरोरगं उरालं पाहारोवचियं एतं पि य मे अणध्वेणं विष्पजहियव्वं भविस्सति / ६७५-परन्तु मेधावी साधक को यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाह्य वस्तु (आत्मा से भिन्न-परभाव) है ही, इनसे भी निकटतर सम्बन्धी ये सब (शरीर के सम्बन्धित अवयवादि) हैं, जिन पर प्राणी ममत्व करता है, जैसे कि-ये मेरे हाथ है, ये मेरे पैर हैं, ये मेरी बांहें हैं, ये मेरी जांघे हैं, यह मेरा मस्तक है, यह मेरा शील (स्वभाव या आदत) है, इसी तरह मेरी प्रायु, मेरा बल, मेरा वर्ण (रंग), मेरी चमड़ी (त्वचा) मेरी छाया (अथवा कान्ति) मेरे कान, मेरे नेत्र, मेरी मासिका, मेरी जिह्वा, मेरी स्पर्शेन्द्रिय, इस प्रकार प्राणी 'मेरा मेरा' करता है / (परन्तु याद रखो) आयु अधिक होने पर ये सब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं / जैसे कि (वृद्ध होने के साथ-साथ मनुष्य) आयु से, बल से, वर्ण से, त्वचा से, कान से, तथा स्पर्शेन्द्रियपर्यन्त सभी शरीर सम्बन्धी पदार्थों से क्षीण-हीन हो जाता है। उसकी सुघटित (गठी हुई) दृढ़ सन्धियाँ (जोड़) ढीली हो जाती हैं, उसके शरीर की चमड़ी सिकुड़ कर नसों के जाल से वेष्टित (तरंगरेखावत्) हो जाती है / उसके काले केश सफेद हो जाते हैं, यह जो आहार से उपचित (वृद्धिंगत) प्रौदारिक शरीर है, वह भी क्रमशः अवधि (आयुष्य) पूर्ण होने पर छोड़ देना पड़ेगा। ६७६-एयं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्टिते दुहतो लोगं जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव, तसा चेव, थावरा चेव / ६७६-यह जान कर भिक्षाचर्या स्वीकार करने हेतु प्रव्रज्या के लिए समुद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, जैसे कि-लोक जीवरूप है और अजीवरूप है, तथा सरूप है और स्थावररूप है। 1. पाठान्तर-बाहिरए ताव एस संजोगे -चूणि Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन—भिक्षावृत्ति के लिए समुद्यत भिक्षु के लिए बैराग्योत्पादक परिज्ञानसूत्र-प्रस्तुत दशसूत्रों (सू. सं. 667 से 676 तक) में प्रात्मा से भिन्न समस्त सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों एवं काम-भोगों से विरक्त होकर प्रवजित होने की भूमिका के कतिपय परिज्ञानसूत्र प्रस्तुत किये हैं। वे इस प्रकार हैं (1) आर्य-अनार्य आदि अनेक प्रकार के मनुष्यों में से कई क्षेत्र, वास्तु तथा जन (ज्ञातिजन आदि) एवं जानपद का थोड़ा या बहुत परिग्रह रखते हैं। (2) उनमें से तथाकथित कुलों में जन्मे कुछ व्यक्ति प्रव्रजित होने के लिए तत्पर होते हैं। (3) उनमें से कई विद्यमान और कई अविद्यमान स्वजन, परिजन एवं भोगोपभोग साधनों को छोड़ कर दीक्षाग्रहण करने के लिए उद्यत होते हैं। (4) उन्हें यह जान लेना चाहिए कि सांसारिक दृष्टि वाले क्षेत्र-वास्तु आदि परिग्रह एवं शब्दादि काम-भोगों को अपना और स्वयं को उनका समझते हैं। (5) वह दीक्षा ग्रहण से पूर्व ही यह जान ले कि ये कामभोग किसी अनिष्ट दुःख या रोग के होने पर प्रार्थना करने पर भी उस दुःख या रोगातंक को बांट लेने या उससे छुड़ाने में समर्थ नहीं होते, न ही रक्षण एवं शरणप्रदान में समर्थ होते हैं। (6) बल्कि कभी तो मनुष्य रोगादि कारणवश स्वयं इन कामभोगों को पहले छोड़ देता है, या कभी ये मनुष्य को छोड़ देते हैं। (7) अत: ये कामभोग मुझ से भिन्न है, मैं इनसे भिन्न हूँ, इस परिज्ञान को लेकर कामभोगों में मूच्छित न होकर उनका परित्याग करने का संकल्प करता है। (8) वह मेधावी साधक यह जान ले कि कामभोग तो प्रत्यक्ष बाह्य हैं, परन्तु इनसे भी निकटतर माता-पिता आदि ज्ञातिजन हैं, जिन पर मनुष्य ममत्व करता है, ज्ञातिजनों को अपना और अपने को ज्ञातिजनों का मानता है। परन्तु वह मेधावी दीक्षाग्रहण से पूर्व ही यह जान ले कि ये ज्ञातिजन भी किसी अनिष्ट, दुःख या रोगातंक के ग्रा पड़ने पर प्रार्थना करने पर भी उस अप्रिय दुःख या रोगातंक को बांट लेने या उससे छुड़ाने में समर्थ नहीं होते, न ही वे वाण या शरण प्रदान कर सकते हैं। और न ही वह मनुष्य उन ज्ञातिजनों की प्रार्थना पर उन पर आ पड़े हुए अनिष्ट दुःख या रोगातंक को बांट कर ले सकता है, न उससे उन्हें, छुड़ा सकता है / / (8) कारण यह है कि दूसरे का दुःख न तो दूसरा ले सकता है, न ही अन्यकृत कर्म का फल अन्य भोग सकता है / जीव अकेला जन्मता, मरता है, परिग्रहादि संचय करता है, उनका उपभोग करता है, व्यक्ति अकेला ही कषाय करता है, अकेला ही ज्ञान प्राप्त करता है, अकेला ही चिन्तनमनन, अकेला ही विद्वान होता है, अकेला ही सुख-दुःखानुभव करता है, इसलिए ज्ञातिजन रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं हो सकते / कभी तो किसी कारणवश मनुष्य पहले ही अपने ज्ञातिजनों को छोड़ देता है, कभी वे उसे पहले छोड़ देते हैं। इसलिए ज्ञातिजन मुझ से भिन्न हैं, मैं ज्ञातिजन से भिन्न हूँ, फिर क्यों ज्ञातिजनों के साथ प्रासक्तिसम्बन्ध रखू? यह जान कर ही वह ज्ञातिजनों के प्रति आसक्तियुक्त संयोग को छोड़ने का संकल्प करता है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 677 ] [41 (10) ज्ञातिजन तो प्रत्यक्षत: भिन्न प्रतीत होते हैं, उनसे भी निकटतर ये शरीरसम्बन्धित हाथ पर आदि अवयव अथवा प्रायु, बल, वर्ण, कान्ति आदि पदार्थ हैं, जिन पर मनुष्य ममत्व करता है / यद्यपि वय से वृद्ध होने पर उसके इन सब अंगों या शरीरसम्बद्ध पदार्थों का ह्रास हो जाता है तथा एक दिन आहारादि से संबंधित इस शरीर को छोड़कर जाना पड़ता है। (11) यह जान कर भिक्षावृत्ति के लिए समुत्थित वह भिक्षु जीव (आत्मा) और अजीव (आत्मवाह्य ) का, तथा त्रस और स्थावर जीवों का सम्यक् परिज्ञान कर लेता है / निष्कर्ष यह है कि इन्हीं परिज्ञानभित वैराग्योत्पादक सूत्रों के आधार पर वह प्रवजित होने वाला साधक दीक्षाग्रहण से पूर्व क्षेत्र. वास्तु आदि परिग्रहों, शब्दादि काम-भोगों, ज्ञातिजनों तथा शरीर सम्बन्धित पदार्थों से अवश्य ही विरक्त हो जाता है।" गृहस्थवत् आरम्भपरिग्रहयुक्त श्रमण-माहन और इन दोनों से मुक्त निर्ग्रन्थ भिक्षु 677-[1] इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तस-थावरा पाणा ते सयं समारंभंति, अण्णण वि समारंभावेंति, अण्णं पि समारंभंतं समणुजाणंति / [2] इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं चेव परिगिण्हंति, अण्णेण वि परिगिण्हावेंति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाणंति / [3] इह खलु गारस्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंमा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे / जे खलु गारस्था सारंमा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसि चेव निस्साए बंभचेरं चरिस्सामो, कस्स णं तं हे? जहा पुव्वं तहा प्रवरं, जहा अवरं तहा पुत्वं / अंजू चेते अणुवरया अणुवट्टिता पुणरवि तारिसगा चेव / 677-[1] इस लोक में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं. (क्योंकि गृहकार्यों को करने में उन्हें प्रारम्भ करना तथा धन-धान्यादि का परिग्रह भी रखना पड़ता है), कई श्रमण और ब्राह्मण (माहन) भी प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, क्योंकि वे भी गृहस्थ की तरह कई सावधक्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, धन-धान्य, मकान, खेत आदि परिग्रह भी रखते हैं) वे गृहस्थ तथा श्रमण और ब्राह्मण इन त्रस और स्थावर प्राणियों का स्वयं प्रारम्भ करते हैं, दूसरे के द्वारा भी प्रारम्भ कराते हैं और प्रारम्भ करते हुए अन्य व्यक्ति को अच्छा मानते-अनुमोदन करते हैं / (2) इस जगत् में गृहस्थ तो प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते ही हैं, कई श्रमण एवं माहन भी प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं। ये गृहस्थ तथा श्रमण और माहन (ब्राह्मण) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के काम-भोगों को स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरे से भी ग्रहण कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करते हैं / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 292 से 294 तक का सारांश. Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (3) इस जगत् में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, कई श्रमण और ब्राह्मण भी प्रारम्भ परिग्रह से युक्त होते हैं / (ऐसी स्थिति में आत्मार्थी संयमी भिक्षु विचार करता है-) मैं (आर्हत् धर्मानुयायी मुनि) प्रारम्भ और परिग्रह से रहित हूँ। जो गृहस्थ हैं, वे प्रारम्भ और परिग्रहसहित हैं ही, कोई-कोई श्रमण (शाक्य भिक्ष) तथा माहन भी प्रारम्भ-परिग्रह में लिप्त हैं। अत: प्रारम्भ-परिग्रह युक्त पूर्वोक्त गृहस्थवर्ग एवं श्रमण-माहनों के आश्रय से मैं ब्रह्मचर्य (मुनिधर्म) का आचरण करूगा / (प्रश्न-१) प्रारम्भ-परिग्रह-सहित रहने वाले गृहस्थवर्ग और कतिपय श्रमणब्राह्मणों के निश्राय में ही जब रहना है, तब फिर इनका त्याग करने का क्या कारण है ? (उत्तर-) गृहस्थ जैसे पहले प्रारम्भ-परिग्रह-सहित होते हैं, वैसे पीछे भी होते हैं, एवं कोई-कोई श्रमण माहन प्रव्रज्या धारण करने से पूर्व जैसे प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होते हैं, इसी तरह बाद में भी प्रारम्भपरिग्रह में लिप्त रहते हैं। इसलिए ये लोग सावध आरम्भ-परिग्रह से निवृत्त नहीं है, अतः शुद्ध संयम का आचरण करने के लिए, शरीर टिकाने के लिए इनका आश्रय लेना अनुचित नहीं है। ६७८-जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा सारंभा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई इति संखाए दोहिं. वि अंतेहिं अदिस्समाणे' इति भिक्खू रीएज्जा। __से बेमि-पाईणं वा 4 / एवं से परिणातकम्मे, एवं से विवेयकम्मे, एवं से वियंतकारए भवतीति मक्खातं / ६७८-आरम्भ-परिग्रह से युक्त रहने वाले जो गृहस्थ हैं, तथा जो सारम्भ सपरिग्रह श्रमणमाहन है, वे इन दोनों प्रकार (प्रारम्भ एवं परिग्रह) की क्रियाओं से या राग और द्वेष से अथवा पहले और पीछे या स्वत: और परतः पापकर्म करते रहते हैं। ऐसा जान कर साधु प्रारम्भ और परिग्रह अथवा राग और द्वेष दोनों के अन्त से (विहीनता से) इनसे अदृश्यमान (रहित) हो इस प्रकार संयम में प्रवृत्ति करे। ___इसलिए मैं कहता हूँ-पूर्व आदि (चारों) दिशाओं से आया हुआ जो (पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त) भिक्षु प्रारम्भ-परिग्रह से रहित है, वही कर्म के रहस्य को जानता है, इस प्रकार वह कर्म बन्धन से रहित होता है तथा वही (एक दिन) कर्मों का अन्त करने वाला होता है, यह श्री तीर्थकरदेव ने कहा है / विवेचन--ग्रहस्थवत् प्रारम्भ-परिग्रह युक्त श्रमण-माहन और इन दोनों से मुक्त निर्ग्रन्थभिक्षप्रस्तुत दोनों सूत्रों में गृहस्थ के समान आरम्भपरिग्रह-दोषलिप्त श्रमण-माहनों की दशा और निर्ग्रन्थ भिक्षु की स्थिति का अन्तर बतलाया गया है / निम्नोक्त चार तथ्य इसमें से फलित होते हैं (1) गृहस्थ के समान सारम्भ और सपरिग्रह श्रमण एवं माहन स-स्थावर प्राणियों का प्रारम्भ करते, कराते और अनुमोदन करते हैं / (2) गृहस्थवत् प्रारम्भ परिग्रह युक्त श्रमण एवं माहन सचित्त-अचित्त काम-भोगों को ग्रहण करते, कराते तथा अनुमोदन करते हैं। 1. तुलना—'दोहिं अतेहिं अदिस्समाणे....' -पाचारांग विवेचन अ. 3, सु. 111, पृ. 92 'दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाहि-' —आचारांग विवेचन अ. 3, सू. 123, पृ. 105 'उभो अंते अनुपगम्म मझेन तथागतो धम्म देसेति....'। ---सुत्तपिटक संयुक्तनिकाय पालि भाग 2, पृ. 66 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 679 ] (3) गृहस्थ की तरह कतिपय श्रमणों एवं माहनों को आरम्भ परिग्रह युक्त देखकर प्रात्मार्थी निग्रन्थ भिक्ष विचार करता है-"मैं स्वयं निरारम्भ निष्परिग्रह रह हकर इन सारम्भसपरिग्रह गहस्थों एवं श्रमण-माहनों के आश्रय से अपने मुनिधर्म (तप-संयम) का निर्वाह करूंगा, किन्तु मैं इनकी तरह पहले (दीक्षा से पूर्व) और पीछे (दीक्षा के बाद) प्रारम्भ परिग्रह में लिप्त तथा पापकर्मजनक राग-द्वेष या इनकी क्रियाओं से दूर---अदृश्य, अलिप्त रह कर संयम में प्रवृत्ति करूंगा।" (4) निर्ग्रन्थ साधु आरंभ-परिग्रहवान् गृहस्थों एवं श्रमण-माहनों से दूर रहता है-उनके संसर्ग का त्याग करता है, तथापि उनके आश्रय-निश्रा से मुनिधर्म के पालन का विचार क्यों करता है ? इस प्रश्न का समाधान मूल पाठ में ही कर दिया गया है। वह यह कि वे तो आरंभ-परिग्रह में लिप्त हैं ही, निरवद्य भिक्षा के लिए निर्ग्रन्थ साधु उनका प्राश्रय ले तो भी वे प्रारम्भ-परिग्रह करेंगे, न ले तो भो करेंगे अत: संयमपालन के लिए शरीर टिकाना आवश्यक है तो पहले से ही प्रारम्भपरिग्रह में लिप्त गृहस्थों और ऐसे श्रमण-माहनों का आश्रय लेने में कोई दोष नहीं है। इस कारण साधु इनका त्याग करके भी इनके आश्रय से निर्दोष संयम का पालन करते हैं। (5) जो प्रात्मार्थी भिक्षु आरम्भ-परिग्रह से रहित होता है, वह कर्म-रहस्यज्ञ होता है, वह कर्मबन्धन के कारणों से दूर रहता है, और एक दिन कर्मों का सर्वथा अन्त कर देता है।' पंचम पुरुष : अनेकगुणविशिष्ट भिक्षु-स्वरूप और विश्लेषण ६७६-तत्थ खलु भगवता छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढविकायिया जाव तसकायिया / से जहानामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा पाउडिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सवे पाणा जाव सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा पाउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति / एवं गच्चा सवे पाणा जाव सम्वे सत्ता णं हतब्वा, णं अज्जावेयन्वा, ण परिघेत्तव्या, न परितावेयवा, ण उद्दवेयन्वा / 676 सर्वज्ञ भगवान् तीर्थकर देव ने षट्जीवनिकायों (सांसारिक प्राणियों) को कर्मबन्ध के हेतु बताये हैं। जैसे कि-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक षट्जीवनिकाय हैं / जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पत्थर से, अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक प्रादि से पीटता है, अथवा अंगली दिखा कर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता है, या सताता--संताप देता है, अथवा क्लेश करता है, अथवा उद्विग्न करता है, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख (असाता) होता है, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है। इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी और सर्व सत्त्व, डंडे, मुक्के, हड्डी, चाबुक अथवा ठीकरे से मारे जाने या पीटे जाने, अंगुली दिखाकर धमकाए या डाँटे जाने, अथवा ताड़न किये जाने, सताये जाने, हैरान किये जाने, या 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 295-296 का सारांश Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 / सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध उद्विग्न (भयभीत) किये जाने से, यहाँ तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का-सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं। ऐसा जान कर समस्त प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात अपनी प्राज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात पकड कर या दास-दासी आदि खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत) करना चाहिए। ६८०-से बेमि-जे य अतीता जे य पड़प्पण्णा जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंता सवे ते एवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेति, एवं परूवेंति--सब्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, ण परिघेतवा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते, समेच्च लोग खेतन्नेहि पवेदिते। ६८०-इसलिए (वही बात) मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ---भूतकाल में (ऋषभदेव आदि)जो भी अर्हन्त (तीर्थंकर) हो चुके, वर्तमान में जो भी (सीमन्धरस्वामी आदि) तीर्थकर हैं, तथा जो भी भविष्य में (पद्मनाभ आदि) होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान (परिषद में) ऐसा ही उपदेश देते हैं; ऐसा ही भाषण करते (कहते) हैं, ऐसा ही (हेतु, दृष्टान्त, युक्ति आदि द्वारा) बताते (प्रज्ञापन करते) हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जोव और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा-पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़ कर या खरीद कर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत या हैरान) करना चाहिए / यही धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत (सदैव स्थिर रहने वाला) है। समस्त लोक को केवल-ज्ञान के प्रकाश में जान कर जीवों के खेद (पीड़ा) को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है / ६८१-एवं से भिक्खू विरते पाणातिवातातो जाव विरते परिग्गहातो / णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, गो वमणं, णो धूमं तं (णो धूमणेत्तं) पि प्राविए। ६८१-इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात (हिंसा) से लेकर परिग्रह-पर्यन्त पाँचों पाश्रवों से विरत (निवृत्त) हो, दतौन आदि दाँत साफ करने वाले पदार्थों से दाँतों को साफ न करे, शोभा के लिए आँखों में अंजन (काजल) न लगाए, दवा लेकर वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या श्रावासस्थान को धूप आदि से सुगन्धित न करे और खाँसी आदि रोगों की शान्ति के लिए धूम्रपान न करे। ६८२-से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे प्रमाणे अमाए अलोभे उवसंते परिनिखुडे / णो प्रासंसं पुरतो करेज्जा—इमेण मे दिट्ठण वा सुएण वा भएण वा विण्णाएण वा इमेण वा सुचरिय तवनियम-बंभचेरवासेणं इमेण वा जायामातात्तिएणं धम्मेणं इतो चुते पेच्चा देवे सिया, कामभोगा बसवत्ती, सिद्ध वा अदुक्खमसुभे, एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 683, 684, 685 ] [ 45 ६८२-वह भिक्षु सावधक्रियाओं से रहित, जीवों का अहिंसक, क्रोधरहित, निर्मानी (अभिमानरहित) अमायी, निर्लोभी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत-समाधियुक्त होकर रहे / वह अपनी क्रिया से इहलोक-परलोक में काम-भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, (जैसे कि)–यह (इतना) जो ज्ञान मैंने जाना-देखा है, सुना है अथवा मनन किया है, एवं विशिष्ट रूप से अभ्यस्त-अजित किया है, तथा यह जो मैने तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि चारित्र का सम्यक आचरण किया है, एवं मोक्षयात्रा का तथा (धर्मपालन के कारणभूत) शरीर-निर्वाह के लिए अल्पमात्रा में शुद्ध आहार ग्रहणरूप धर्म का पालन किया है। इन सब सुकार्यों के फलस्वरूप यहाँ से शरीर छोड़ने के पश्चात् परलोक में मैं देव हो जाऊँ, समस्त काम-भोग मेरे अधीन (वशवर्ती) हो जाएँ, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से युक्त हो जाऊँ, अथवा मैं विद्यासिद्ध बन जाऊं, एवं सब दुःखों तथा अशुभकर्मों से रहित हो जाऊं (अथवा दुःखरूप अशुभकर्मों और सुख रूप शुभकर्मों से रहित हो जाऊँ); क्योंकि विशिष्टतपश्चर्या आदि के होते हुए भी कभी अणिमादि सिद्धि प्राप्त हो जाती है, कभी नहीं भी होती (किन्तु ऐसी फलाकांक्षा नहीं करनी चाहिए)। ६८३-से भिक्खू सहि, अमुच्छिए, रूवेहि, अमुच्छिए, गंधेहिं अमुच्छिए, रसेहिं अमुच्छिए, फासेहि अमुच्छिए, विरए कोहाम्रो माणाम्रो मायानो लोभानो पेज्जायो दोसानो कलहाम्रो प्रभक्खाणाम्रो पेसुग्णाम्रो परपरिवायातो परतोरतोश्रो मायामोसानो मिच्छादंसगसल्लाओ, इति से महता प्रादाणातो उबसंते उवट्टिते पडिविरते / ६८३-जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, रूपों, गन्धों, रसों, एवं कोमल स्पर्शों में अमूच्छित (अनासक्त) रहता है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, (प्रेय), द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (दोषारोपण), पैशुन्य (चुगली), परपरिवाद (परनिन्दा), संयम में अरति, असंयम में रति, मायामृषा (कपटसहित असत्यदम्भ) एवं मिथ्यादर्शन रूप शल्य से विरत रहता है। इस कारण से वह भिक्ष महान कर्मों के (बन्ध) से रहित हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता (रहता) है, तथा पापों से विरत-निवत्त हो जाता है। ६८४-से भिक्खू जे इमे तस-थावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारभति, णो वऽणेहि समारभावेति, अण्णे समारभंते वि न समणुजाणइ, इति से महता प्रादाणातो उवसंते उद्विते पडिविरते। ६८४---जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ (हिंसाजनक व्यापार या प्रवृत्ति) नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है / इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान (बन्धन) से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पाप कर्मो से निवृत्त हो जाता है। ६८५-से भिक्ख जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हति, नेवऽण्णेण परिगिण्हावेति, अण्णं परिगिण्हतं पि ण समणुजाणइ, इति से महया प्रादाणातो उबसंते उद्विते पडिविरते। ६८५--जो ये सचित्त या अचित्त काम-भोग (के साधन) हैं, वह भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह कराता है, और न ही उनका परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के आदान (ग्रहण या बन्ध) से मुक्त हो जाता है, शुद्धसंयम-पालन में उपस्थित करता है, और पापकर्मों से विरत हो जाता है। ६८६---से भिक्खू जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ णो त सयं करेति, नेवऽन्नेणं कारवेति, अन्नं पि करेंतं णाणुजाणति, इति से महता प्रादाणातो उवसंते उपट्टिते पडिविरते। ६८६-जो यह साम्परायिक (संसारपरिभ्रमण का हेतु कषाययुक्त) कर्म-बन्ध (सांसारिकजनों द्वारा) किया जाता है, उसे भी वह भिक्षु स्वयं नहीं करता, न दूसरों से कराता है, और न ही साम्परायिक कर्म-बन्धन करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है / इस कारण वह भिक्ष महान् कर्मों के बन्धन (आदान) से मुक्त हो जाता है, वह शुद्ध संयम में रत और पापों से विरत रहता है। ६८७-से भिक्खू जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कोतं पामिच्चं अच्छेजं अणिसट्ठ अभिहडं पाहटुद्देसिय चेतियं सिता तं णो सयं भुजइ, णो वऽन्नणं भुजावेति, अन्न पि भुजंतं ण समणुजाणइ, इति से महता प्रादाणातो उवसंते उवद्रुिते पडिविरते से भिक्ख / ६८७---यदि वह भिक्ष यह जान जाए कि अमुक श्रावक ने किसी निष्परिग्रह सामिक साधु को दान देने के उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का प्रारम्भ करके आहार बनाया है, अथवा खरीदा है, या किसी से उधार लिया है, अथवा बलात् छीन कर (अपहरण करके) लिया है, अथवा उसके स्वामी से पूछे बिना ही ले लिया (उसके स्वामित्व का नहीं) है, अथवा साधु के सम्मुख लाया हुआ है, अथवा साधु के निमित्त से बनाया हुआ है, तो ऐसा सदोष आहार वह न ले / कदाचित् भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो स्वयं उसका सेवन न करे, दूसरे साधुओं को भी वह आहार न खिलाए, और न ऐसा सदोष पाहार-सेवन करने वाले को अच्छा समझे। इस प्रकार के सदोष आहारत्याग से वह भिक्षु महान् कर्मों के बन्धन से दूर रहता है, वह शुद्ध संयम पालन में उद्यत और पाप कर्मों से विरत रहता है। ६८८-अह पुणेवं जाणेज्जा, तं जहा-विज्जति तेसि परक्कमे जस्सट्ठाते चेतितं सिया, तंजहा--- अप्पणो से, पुत्ताणं, धूयाणं, सुण्हाणं, धाईणं, णाईणं, राईणं, दासाणं, दासीणं, कम्मकराणं, कम्मकरीणं, प्रादेसाए, पुढो पहेणाए सामासाए, पातरासाए,सण्णिधिसंणिचए कजति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए / तस्थ भिक्खू परकड-परणिहितं उग्गमुप्पायणेसणासुद्ध सत्थातीतं सत्थपरिणामितं अविहिसितं एसियं वेसियं सामुदाणियं पण्णमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजण-वणलेवणभूयं संजमजातामातावृत्तियं बिलमिव पन्नगभूतेणं अप्पाणेणं पाहारं पाहारेज्जा, तंजहा-अन्न अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले। ६८८-यदि साधु यह जान जाए कि गृहस्थ ने जिनके लिए आहार बनाया है वे साधु नहीं, अपितु दूसरे हैं; जैसे कि गृहस्थ ने अपने पुत्रों के लिए अथवा पुत्रियों, पुत्रवधुओं के लिए, धाय के Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 689, 690 ] [ 47 लिए, ज्ञातिजनों के लिए, राजन्यों, दास, दासी, कर्मकर, कर्मकरी (स्त्री) तथा अतिथि के लिए, या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा प्रात: नाश्ते के लिए आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको भोजन देने के लिए उसने आहार का अपने पास संचय किया है। ऐसी स्थिति में साधु दूसरे के द्वारा दूसरों के लिए बनाये हुए तथा उद्गम, उत्पाद और एषणा दोष से रहित शुद्ध, एवं अग्नि प्रादि शस्त्र द्वारा परिणत होने से प्रासुक (अचित्त) बने हुए एवं अग्नि आदि शस्त्रों द्वारा निर्जीव किये हुए अहिंसक (हिंसादोष से रहित) तथा एषणा (भिक्षा-वृत्ति) से प्राप्त, तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा (माधुकरी वृत्ति) से प्राप्त, प्राज्ञ--गीतार्थ के द्वारा ग्राह्य (कल्पनीय) वैयावृत्त्य आदि 6 कारणों में से किसी कारण से साधु के लिए ग्राह्य प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरी में दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये गए लेप (मल्हम) के समान केवल संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ग्राह्य अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-रूप चतुर्विध आहार का बिल में प्रवेश करते हुए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही सेवन करे / जैसे कि वह भिक्षु अन्नकाल में अन्न (आहार) का, पानकाल में पान (पेय पदार्थ) का, वस्त्र (परिधान) काल में वस्त्र का, मकान (में प्रवेश या निवास के) समय में मकान (आवास-स्थान) का, शयनकाल में शय्या का ग्रहण एवं सेवन (उपभोग) करता है। ६८९-से भिक्खू मातणे अण्णतरं दिसं वा अणुदिसं वा पडिवणे धम्मं प्राइक्खे विभए किट्टे उद्वितेसु वा अणुवट्टितेसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए / संतिविरति उवसमं निवाणं सोयवियं प्रज्जवियं मद्दवियं लावियं अणतिवातियं सन्वेसि पाणाणं सर्वसि भूताणं जाव सत्ताणं अणुवीइ किट्टए धम्म / ६८९—वह भिक्ष (आहार, उपधि, शयन, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रत्येक चर्या की) मात्रा एवं विधि का ज्ञाता होकर किसी दिशा या अनुदिशा में पहुंचकर, धर्म का व्याख्यान करे, (धर्मतत्त्व के अनुरूप कर्तव्य का यथायोग्य) विभाग करके प्रतिपादन करे, धर्म के फल का कीर्तन-कथन करे / (परहितार्थ प्रवृत्त) साधु (भली भाँति सुनने के लिए) उपस्थित (तत्पर) (शिष्यों या श्रावकों को) अथवा अनुपस्थित (कौतुकादिवश आगत-धर्म में अतत्पर) श्रोताओं को (स्व-पर-कल्याण के लिये) धर्म का प्रतिपादन करे। (धर्मधुरन्धर) साधु (समस्त क्लेशोपशमरूप) के लिए विरति (विषय-कषायों या आश्रवों से निवृत्ति (अथवा शान्ति = क्रोधादि कषायविजय, शान्ति-प्रधान विरति -प्राणातिपातादि से निवृत्ति), उपशम(इन्द्रिय और मन का शमन अथवा राग द्वेषाभावजनित उपशमन),निर्वाण (समस्तद्वन्द्वोपरमरूप या सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष), शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता),मार्दव (कोमलता), लाघव (लघुता--- हलकापन) तथा समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति अहिंसा आदि धर्मों के अनुरूप (या प्राणियों के हितानुरूप) विशिष्ट चिन्तन करके धर्मोपदेश दे / 660. से भिक्ख धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेउ धम्म प्राइवखेज्जा, णो पाणस्स हेउं धम्म प्राइक्खेज्जा, णो वत्थस्स हेडं धम्म प्राइक्खेज्जा,' णो लेणस्स हे धम्मं प्राइखेज्जा, णो सयणस्स 1. तुलना —"ण कहेज्जा धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदु ।'"--मूलाराधना विजयोदयावृत्ति, पृ. 612 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध हे धम्मं प्राइक्खेज्जा, णो अन्नेसि विरूव-रूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेजा, अगिलाए धम्ममाइक्खिज्जा, गण्णस्थ कम्मणिज्जरट्टयाए धम्मं प्राइवखेज्जा / ६६०-धर्मोपदेश करता हुआ साधु अन्न (विशिष्ट सरस-स्वादिष्ट आहार) के लिए धर्मकथा न करे, पान (विशिष्ट पेय पदार्थ) के लिए धर्मव्याख्यान न करे, तथा सुन्दर वस्त्र-प्राप्ति के लिए धर्मोपदेश न करे, न ही सुन्दर आवासस्थान (मकान) के लिए धर्मकथन करे, न विशिष्ट शयनीय पदार्थों की प्राप्ति (शय्या) के लिए धर्मोपदेश करे, तथा दूसरे विविध प्रकार के काम-भोगों (भोग्यपदार्थों) की प्राप्ति के लिए धर्म कथा न करे / प्रसन्नता (अग्लानभाव) से धर्मोपदेश करे। कर्मों की निर्जरा (ग्रात्मशुद्धि) के उद्देश्य के सिवाय अन्य किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे / ६६१--इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म उढाय वोरा अस्सि धम्मे समुट्ठिता, जे तस्स भिक्खुस्त अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उढाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्टिता, ते एवं सम्बोवगता, ते एवं सम्बोवरता, ते एवं सव्वोवसंता, ते एवं सव्वत्ताए परिनिव्वुडे त्ति बेमि। ६९१-इस जगत् में उस (पूर्वोक्तगुण विशिष्ट) भिक्षु से धर्म को सुन कर, उस पर विचार करके (मनिधर्म का प्राचरण करने के लिए) सम्यक रूप से उत्थित (उद्यत) वीर पुरुष ही इस पाहत धर्म में उपस्थित (दीक्षित) होते हैं / जो वीर साधक उस भिक्षु से (पूर्वोक्त) धर्म को सुन-समझ कर सम्यक् प्रकार से मुनिधर्म का आचरण करने के लिए उद्यत होते हुए इस (आहत) धर्म में दीक्षित होते हैं, वे सर्वोपगत हो जाते हैं (सम्यग्दर्शनादि समस्त मोक्षकारणों के निकट पहुंच जाते हैं), वे सर्वोपरत (समस्त पाप स्थानों से उपरत) हो जाते हैं, वे सर्वोपशान्त (कषायविजेता होने से सर्वथा उपशान्त) हो जाते हैं. एवं वे समस्त कर्मक्षय करके परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। यह मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ। ६६२--एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविद् नियागपडिवण्णे, से जहेयं बुतियं, अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरोयं अदुवा अपत्ते पउमवरपोडरीयं / ६६२---इस प्रकार (पूर्वोक्तविशेषण युक्त) वह भिक्षु धर्मार्थी (धर्म से ही प्रयोजन रखने वाला) धर्म का ज्ञाता और नियाग (संयम या विमोक्ष) को प्राप्त होता है / ऐसा भिक्षु, जैसा कि (इस अध्ययन में) पहले कहा गया था, पूर्वोक्त पुरुषों में से पांचवाँ पुरुष है। वह (भिक्षु) श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान निर्वाण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके, (वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष है।) ६६३-एवं से भिक्ख परिणातकम्मे परिणायसंगे परिणागिहवासे उवसंते समिते सहिए सदा जते / सेयं वयणिज्जे तंजहा-समणे ति वा माहणे ति वा खते ति वा दंते ति वा गुत्ते ति वा मुत्ते Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 693 ] [ 49 ति वा इसी ति वा मणी ति वा कती ति वा विदू ति वा भिक्खू ति वा लू हे ति वा तोरट्ठी ति वा चरणकरणपारविदु त्ति बेमि। ॥पोंडरीयं : पढमं अज्झयणं सम्मत्तं // ६६३---इस प्रकार का भिक्षु कर्म (कर्म के स्वरूप, विपाक एवं उपादान) का परिज्ञाता, संग (बाह्य-प्राभ्यन्तर-सम्बन्ध) का परिज्ञाता, तथा (निःसार) गृहवास का परिज्ञाता (मर्मज्ञ) हो जाता है। वह (इन्द्रिय और मन के विषयों का उपशमन करने से) उपशान्त, (पंचसमितियों से युक्त होने से) समित, (हित से या ज्ञानादि से युक्त होने से--) सहित एवं सदैव यतनाशील अथवा संयम में प्रयत्नशील होता है। उस साधक को इस प्रकार (आगे कहे जाने वाले विशेषणों में से किसी भी एक विशेषणयुक्त शब्दों से) कहा जा सकता है, जैसे कि-वह श्रमण है, या माहन (प्राणियों का हनन मत करो, ऐसा उपदेश करने वाला या ब्रह्मचर्यनिष्ठ होने से ब्राह्मण) है, अथवा वह क्षान्त (क्षमाशील) है, या दान्त (इन्द्रियमनोवशीकी) है, अथवा गुप्त (तीन गुप्तियों से गुप्त) है, अथवा मुक्त (मुक्तवत्) है, तथा महर्षि (विशिष्ट तपश्चरणयुक्त) है, अथवा मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने वाला) है, अथवा कृती (पुण्यवान-सकृती या परमार्थपण्डित), तथा विद्वान / अध्यात्मविद्यावान) है, अथवा भिक्षु (निरवद्यभिक्षाजीवी) है, या वह रूक्ष (अन्ताहारी-प्रान्ताहारी) है, अथवा तीरार्थी (मोक्षार्थी) है, अथवा चरण-करण (मूल-उत्तर गुणों) के रहस्य का पारगामी है। -ऐसा मैं कहता हूं। _ विवेचन--पंचमपुरुष : अनेकगुणविशिष्ट भिक्ष-स्वरूप और विश्लेषण--प्रस्तुत 15 सूत्रों (सू. सं. 676 से 663 तक) में उत्तम पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने के योग्य निर्ग्रन्थ भिक्षु की विशेषताओं एवं अर्हताओं का सर्वांगीण विश्लेषण किया गया है / उक्त भिक्षु की अर्हताएं संक्षेप में इस प्रकार हैं--- (1) वह भिक्ष अपने आप को कसौटी बना कर षटकायिक जीवों के हिसाजनित दुःख और भय का अनुभव करता है, और किसी भी प्राणी की, किसी भी प्रकार से हिंसा नहीं करता, क्योंकि अतीत-अनागत और वर्तमान में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, होंगे या हैं, उन सब महापुरुषों ने सर्वप्राणि-अहिंसारूप शाश्वत धर्म का प्रतिपादन किया है। (2) प्राणातिपात की तरह वह भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से भी सर्वथा विरत हो जाता है। (3) इस धर्म (अहिंसादि रूप) की रक्षा के लिए भिक्ष, शोभा की दृष्टि से दन्तप्रक्षालन, अंजन, वमन-विरेचन, धूप, और धूम्रपान नहीं करता। (4) वह भिक्षु सावधक्रियाविरत, अहिंसक, अकषायी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत्त होता है। (5) वह अपने समाराधित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, नियम, संयम एवं ब्रह्मचर्यरूप धर्म से इहलौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रकार की फलाकांक्षा नहीं करता; न ही काम-भोगों, सिद्धियों की प्राप्ति को या दुःख एवं अशुभ की अप्राप्ति की वाञ्छा करता है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (6) निम्नोक्त गुणों के कारण भिक्षु महान् कर्मबन्धन से दूर (उपशान्त) शुद्धसंयम में उद्यत एवं पापकर्मों से निवृत्त होता है (अ) पंचेन्द्रियविषयों में अनासक्त होने से। (आ) अठारह ही पापस्थानों से विरत होने से / (इ) बस-स्थावरप्राणियों के प्रारम्भ का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से / (ई) सचित्त-अचित्त काम-भोगों के परिग्रह का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से। (उ) साम्परायिक कर्मबन्ध का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से / (अ) वह षट्कायिक जीव समारम्भजनित उद्गमादि दोषयुक्त आहार ग्रहण न करे, कदाचित् भूल से ग्रहण कर लिया गया हो तो उसका सेवन स्वयं न करने, न कराने, और सेवनकर्ता को अच्छा न समझने पर। (7) यदि यह ज्ञात हो जाए कि साधु के निमित्त से नहीं, अपितु किसी दूसरे के निमित्त से; अन्यप्रयोजनवश गृहस्थ ने आहार बनाया है, और वह आहार उद्गम, उत्पादना और एषणादि दोषों से रहित, शुद्ध, शस्त्रपरिणत, प्रासुक, हिंसादि दोषरहित, साधु के वेष, वृत्ति, कल्प तथा कारण की दृष्टि से ग्राह्य है तो वह भिक्षु उसे प्रमाणोपेत ग्रहण करे और गाड़ी की धुरी में तेल या घाव पर लेप के समान उसे साँप के द्वारा बिल-प्रवेश की तरह अस्वादवृत्ति से सेवन करे। (8) वह भिक्ष आहार, वस्त्रादि उपधि, वसति, शयन, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रत्येक वस्तु की मात्रा, कालमर्यादा और विधि का ज्ञाता होता है और तदनुरूप ही पाहारादि का उपयोग करता है। (9) धर्मोपदेश देते समय निम्नलिखित विवेक का आश्रय ले (अ) वह जहाँ कहीं भी विचरण करे, सुनने के लिए धर्म में तत्पर या अतत्पर, श्रोताओं को शुद्ध धर्म का तथा उसके फल आदि का स्व-पर-हितार्थ ही कथन करे। (आ) वह भिक्षु शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, प्रार्जव, मार्दव, लाघव, समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा आदि धर्मों का प्राणिहितानुरूप विशिष्ट चिन्तन करके उपदेश दे / (इ) वह साधु अन्न, पान, वस्त्र, आवासस्थान, शयन, तथा अन्य अनेकविध काम-भोगों की प्राप्ति के हेतु धर्मोपदेश न करे। (ई) प्रसन्नतापूर्वक एकमात्र कर्मनिर्जरा के उद्देश्य से धर्मोपदेश करे / (10) जो पूर्वोक्त विशिष्ट गुणसम्पन्न भिक्षु से धर्म सुन-समझ कर श्रमणधर्म में प्रवजित होकर इस धर्म के पालन हेतु उद्यत हुए हैं, वे वीरपुरुष सर्वोपगत, सर्वोपरत, सर्वोपशान्त एवं सर्वतः परिनिर्वृत्त होते हैं। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति-पत्रांक 298 से 302 तक का सारांश Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 693 ] [51 (11) वह भिक्षु कर्म, संग और गृहवास का मर्मज्ञ होता है, सदा उपशान्त, समित, सहित एवं संयत रहता है / वही भिक्षु धर्मार्थी, धर्मवेत्ता, संयमप्राप्त तथा प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित गुणों से सम्पन्न होता है / वह उस उत्तम पुण्डरीक को प्राप्त करे या न करे परन्तु प्राप्त करने योग्य हो जाता है। (12) उसे श्रमण कहें, या माहन (ब्राह्मण) कहें, क्षान्त,दान्त, गुप्त, मुक्त, ऋषि, मुनि, यति, कृती, विद्वान्, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी अथवा चरण-करण-पारवेत्ता कहें, वही पूर्वोक्त पुरुषों में योग्य सर्वश्रेष्ठ पंचम पुरुष है। ॥पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन समाप्त // Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन प्राथमिक / सूत्रकृतांग सूत्र (द्वि. श्रु ) के द्वितीय अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है / सामान्यतया क्रिया का अर्थ है-हलन, चलन, स्पन्दन, कम्पन आदि प्रवृत्ति या व्यापार / जैनताकिकों ने इसके दो भेद किये हैं-द्रव्यक्रिया और भावक्रिया। सचेतन-अचेतन द्रव्यों की प्रयोगतः (प्रयत्नपूर्वक) एवं विस्रसात: (सहजरूप में) उपयोगपूर्विका एवं अनुपयोगपूविका, अक्षिनिमेषमात्रादि समस्त क्रियाएं द्रव्य क्रियाएं हैं / भावप्रधानक्रिया भावक्रिया है, जो 8 प्रकार की होती है(१) प्रयोग क्रिया (मनोद्रव्यों की स्फुरणा के साथ जहाँ मन, वचन, काया की क्रिया से आत्मा का उपयोग होता है, वहाँ मनःप्रयोग, वचनप्रयोग, कायप्रयोग क्रिया है), (2) उपायक्रिया (घटपटादिनिर्माण के लिए उपायों का प्रयोग), (3) करणीयक्रिया (जो वस्तु जिस द्रव्य सामग्री से बनाई जाती है उसके लिए उसी वस्तु का प्रयोग करना), (4) समुदान क्रिया (समुदायरूप में स्थित जिस क्रिया को ग्रहण कर प्रथमगुणस्थान से दशम गुणस्थान तक के जीव द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशरूप से अपने में स्थापित (5) ईपिथक्रिया (उपशान्तमोह से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होने वाली क्रिया), (6) सम्यक्त्वक्रिया (जिस क्रिया से जीव सम्यग्दर्शनयोग्य 77 कर्म प्रकृतियों को बांधता है), (7) सम्यङ मिथ्यात्वक्रिया (जिस क्रिया से जीव सम्यक्त्व-मिथ्यात्वयोग्य 74 कर्म प्रकृतियाँ बांधता है) तथा (8) मिथ्यात्वकिया (जिस क्रिया से जीव तीर्थकरप्रकृति एवं आहारकद्वय को छोड़ कर 117 कर्म प्रकृतियाँ बाँधता है) 0 इन द्रव्य-भावरूप क्रियाओं का जो स्थान अर्थात् प्रवृत्ति-निमित्त है उसे क्रियास्थान कहते हैं / विविध प्रकार की प्रवृत्तियों के विविध (निमित्त) कारण होने से क्रियास्थान विविध हैं। - सामान्यतया यह माना जाता है, कि क्रिया से कर्मबन्ध होता है। परन्तु इस अध्ययन में उक्त क्रियास्थानों से कई क्रियावानों के कर्मबन्ध होता है, कई क्रियावान् कर्ममुक्त होते हैं। इसी लिए प्रस्तुत अध्ययन में दो प्रकार के क्रियास्थान बताए गए हैं-धर्मक्रियास्थान और अधर्मक्रियास्थान। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन ] [ 53 अर्थदण्डप्रत्ययिक से लेकर लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान तक 12 अधर्मक्रियास्थान हैं, और तेरहवाँ ऐपिथप्रत्ययिकक्रियास्थान धर्मक्रियास्थान है। इस प्रकार क्रियास्थानों का व होने से इस अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए कर्मक्षयाकांक्षी साधक पहले 12 प्रकार के अधर्मक्रियास्थानों को जान कर उनका त्याग करदे तथा तेरहवें धर्मक्रियास्थान को मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने हेतु अपनाये, यही प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है।' a जैन दृष्टि से रागद्वेषजन्य प्रत्येक प्रवृत्ति (क्रिया) हिंसा रूप होने से कर्मबन्ध का कारण होती है, 0 सूत्रसंख्या 664 से प्रारम्भ होकर सूत्र संख्या 721 पर यह अध्ययन पूर्ण होता है। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 304 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियाठाणं : बीयं अज्झयणं क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन संसार के समस्त जीव तेरह क्रियास्थानों में ६६४-सुतं मे पाउसंतेणं भगवता एवमक्खातं-- इह खलु किरियाठाणे गाम अज्झयणे, तस्स णं अयम?-इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवपाहिज्जति, तंजहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसन्ते चेव / तस्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे तस्स णं प्रथमट्ठ-इह खलु पाईणं वा 4 संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-पारिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोता वेगे णीयागोता वेगे, कायमंता वेगे, ह्रस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे, दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसि च णं इमं एतारूवं दंडसमादाणं संपेहाए, तंजहा-जेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विग्णू वेयणं वेदेति तेसि पि य णं इमाई तेरस किरियाठाणाई भवंतीति अक्खाताई,' तंजहा-अहादंडे 1 अणट्ठादंडे 2 हिंसादंडे 3 अकम्हादंडे 4 दिद्धिविपरियासियादंडे 5 मोसवत्तिए 6 प्रदिन्नादाणवत्तिए 7 अझथिए 8 माणवत्तिए 6 मित्तदोसवत्तिए 10 मायावत्तिए 11 लोभवत्तिए 12 इरियावहिए 13 / 694 हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन आयुष्मान् श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा था - "इस (जैनशासन या निग्रंथ प्रवचन) में 'क्रियास्थान' नामक अध्ययन कहा गया है, उसका अर्थ यह है-इस लोक में सामान्य रूप से (या संक्षेप में) दो स्थान इस प्रक एक धर्म-स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान / इन दोनों स्थानों में से प्रथम अधर्मपक्ष का जो विभंग (विकल्प) है उसका अर्थ (अभिप्राय) इस प्रकार कहा गया' है--' इस लोक में पूर्व आदि छहों दिशाओं में अनेकविध मनुष्य रहते हैं, जैसे कि कई आर्य होते हैं, कई अनार्य, अथवा कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय अथवा कई लम्बे कद के और कई ठिगने (छोटे) कद के या कई उत्कृष्ट वर्ण के और कई निकृष्ट वण के अथवा कई सुरूप और कई कुरूप होते हैं। उन आर्य आदि मनुष्यों में यह (मागे कहे जाने वाला) दण्ड (हिंसादिपापोपादान संकल्प) का समादान-ग्रहण देखा जाता है, जैसे कि-नारकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में, अथवा जो 1. तुलना-इमाई तेरस किरियाठाणाई'...... ते अड्डे अणटठाडंडे...... ईरियावहिए। -आवश्यक चूणि, प्रतिक्रमणाध्ययन पृ. 127 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 694 ] [55 इसी प्रकार के (सुवर्ण-दुर्वर्ण आदि रूप) विज्ञ (समझदार) प्राणी हैं, वे सुख-दुःख का वेदत करते हैं, उनमें अवश्य ही ये तेरह प्रकार के क्रियास्थान होते हैं, ऐसा श्री तीर्थकर देव ने कहा है / वे क्रियास्थान इस प्रकार हैं--(१) अर्थदण्ड, (2) अनर्थदण्ड, (3) हिंसादण्ड, (4) अकस्मात् दण्ड, (5) दृष्टिविपर्यासदण्ड, (6) मृषाप्रत्ययिक, (7) अदत्तादानप्रत्ययिक, (8) अध्यात्मप्रत्ययिक, (6) मानप्रत्ययिक (10) मित्रद्वेषप्रत्ययिक (11) मायाप्रत्ययिक, (12) लोभ-प्रत्ययिक और (13) ई-प्रत्ययिक / विवेचन-संसार के समस्त जीव : तेरह क्रियास्थानों में प्रस्तुत सूत्र में श्री सुधर्मास्वामी श्रीतीर्थकर भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुने हुए 13 क्रियास्थानों का उल्लेख श्री जम्बूस्वामी के समक्ष करते हैं / इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने निम्नलिखित तथ्यों का निरूपण किया है (1) सामान्य रूप से दो स्थान-धर्मस्थान और अधर्मस्थान अथवा उपशान्तस्थान और अनुपशान्तस्थान। (2) अधर्मस्थान के अधिकारी-आर्य-अनार्य आदि मनुष्य / (3) चारों गतियों के विज्ञ (चेतनाशील) एवं सुख-दुःख-वेदनशील जीवों में तेरह कर्मबन्ध कारणभूत क्रियास्थानों का अस्तित्त्व / (4) तेरह क्रियास्थानों का नामोल्लेख / क्रियास्थान—किसी क्रिया या प्रवृत्ति का स्थान यानी कारण, निमित्तकारण क्रियास्थान कहलाता है / संक्षेप में, किया जिस निमित्त से हुई हो उसे क्रियास्थान कहते हैं / ___ दण्डसमादान-दण्ड कहते हैं-हिंसादियापोपादानरूप संकल्प को, जिससे जीव दण्डित (पीडित) होता है, उसका समादान यानी ग्रहण दण्डसमादान है / ' - वेयणं वेदंति की व्याख्या-इसके दो अर्थ बताए गए हैं। तदनुसार अनुभव और ज्ञान की दृष्टि से वृत्तिकार ने यहाँ चतुर्भगी बताई है-(१) संज्ञी वेदना का अनुभव करते हैं, जानते भी हैं, (2) सिद्ध भगवान जानते हैं, अनभव नहीं करते (3) असंज्ञी अनभव करते हैं, जानते नहीं, और (4) अजीव न अनुभव करते हैं, न जानते हैं / यहाँ प्रथम और तृतीय भंग वाले जीवों का अधिकार है, द्वितीय और चतुर्थ यहाँ अप्रासंगिक हैं / 2 क्रियास्थानों द्वारा कर्मबन्ध-इन तेरह क्रियास्थानों के द्वारा कर्मबन्ध होता है, इनके अतिरिक्त कोई क्रियास्थान नहीं, जो कर्मबन्धन का कारण हो / इसलिए समस्त संसारी प्राणी इन तेरह क्रियास्थानों में समा जाते हैं।' ___ शास्त्रकार एवं वृत्तिकार स्वयं इन तेरह क्रियास्थानों का अर्थ एवं व्याख्या आगे यथास्थान करेंगे। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 304-305 का सारांश 2. सूत्र कृ. शी. वृत्ति, पत्रांक, 304 3. वही. पत्रांक 305 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथमक्रियास्थान-अर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ६६५–पढमे दंडसमादाणे / अट्ठादंडवत्तिए ति पाहिज्जति से / जहानामए केइ पुरिसे प्रातहेर्ड वा जाइहेउं वा प्रगारहेउ वा परिवारहेउं वा मित्तहेउं वा णागहेडं वा भूतहे वा जक्खहे वा तं दंडं तस थावरेहि पाहि सयमेव णिसिरति, अण्णण वि णिसिराति, अण्णं पि णिसिरंत समणुजाणति, एवं खलु तस्स लप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, पढमे दंडसमादाणे अढादंडवत्तिए त्ति प्राहिते।' ६६५-~-प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए, अपने घर या परिवार के लिए, मित्रजनों के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष आदि के लिए स्वयं बस और स्थावर जीवों को दण्ड देता है (प्राणिसंहारकारिणी क्रिया करता है); अथवा (पूर्वोक्त कारणों से) दूसरे से दण्ड दिलवाता है; अथवा दूसरा दण्ड दे रहा हो, उसका अनुमोदन करता है / ऐसी स्थिति में उसे उस सावधक्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है / यह प्रथम दण्डसमादान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन प्रथम क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने तेरह क्रियास्थानों में से अर्थदण्डप्रत्यायिक नामक प्रथम क्रियास्थान का स्वरूप, प्रवृत्तिनिमित्त एवं उसकी परिधि का विश्लेषण किया है / अर्थदण्ड-हिंसा आदि दोषों से युक्त प्रवृत्ति, फिर चाहे वह किसी भी प्रयोजन से, किसी के भी निमित्त की जाती हो, अर्थदण्ड है। अर्थदण्डप्रत्यायिक क्रियास्थान : भ० महावीर की दष्टि में कई मतवादी सार्थक क्रियाओं से जनित दण्ड (हिंसादि) को पापकर्मवन्धकारक नहीं मानते थे, किन्तु भगवान् महावीर की दृष्टि में वह पाप-कर्मबन्ध का कारण है। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट कर देते हैं कि जो पुरुष अपने या किसी भी दूसरे प्राणी के लिए अथवा नाग भूत-यक्षादि के निमित्त त्रस स्थावरप्राणियों की हिंसा करता, करवाता और अनुमोदन करता है, उसे उस सावधक्रिया के फलस्वरूप अर्थदण्डप्रत्ययिक पाप कर्म का बन्ध होता है। पुरिसे- यहाँ पुरुष शब्द उपलक्षण से चारों गतियों के सभी प्राणियों के लिए प्रयुक्त है / द्वितीय क्रियास्थान-अनर्थदण्डप्रत्यायक : स्वरूप और विश्लेषण 666--(1) अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो प्रजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए हारुणोए अट्ठीए अमिजाए, णो हिसिसु में ति, णो हिसंति में त्ति, णो हिसिस्संति में त्ति, जो पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवहणताए णो समण-माहणवत्तियहे, जो तस्स सरीरगस्स किचि वि 1. तुलना--पढमे दंडसमादाणे अट्ठाउंडवत्तिए.... .त्ति आहिते ।'-आवश्यकचणि प्रतिक्रमणाध्ययन, पृ. 127 / 2. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 306 का भारांश Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 696 ] [ 57 परियादित्ता भवति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता उझिउ बाले वेरस्स आभागी भवति, प्रणहादंडे। (2) से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तंजहा-इक्कडा इ वा कढिणा इ वा जंतुगा इ वा परगा इ वा मोरका इ वा तणा इ वा कुसा इ वा कुच्चक्का इ वा पव्वगा ति वा पलालए इ वा, ते णो पुत्तपोसणयाए णों पसुपोसणयाए णों अगारपोसणयाए णो समण-माहणपोसणयाए, णो तस्स सरीरगस्स किंचि वि परियादित्ता भवति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुइपत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे। (3) से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा दगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा मंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति, अण्णेण वि अगणिकायं णिसिरावेति, अण्णं पि अगणिकायं णिसिरंतं समणुजाति, अणटादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, दोच्चे दंउसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिते। ६६६-इसके पश्चात् दूसरा दण्डसमादानरूप क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक कहलाता है। (1) जैसे कोई पुरुष ऐसा होता है, जो इन त्रसप्राणियों को न तो अपने शरीर की अर्चा (रक्षा या संस्कार के लिए अथवा अर्चा - पूजा के लिए मारता है, न चमड़े के लिए, न ही मांस के लिए और न रक्त के लिए मारता है / एवं हृदय के लिए, पित्त के लिए, चर्बी के लिए, पिच्छ (पंख) पूछ, बाल, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, नाड़ी, हड्डी और हड्डी की मज्जा (रग) के लिए नहीं मारता / तथा इसने मुझे या मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, अथवा मार रहा है या मारेगा. इसलिए नहीं मारता एवं पुत्रपोषण, पशुपोषण तथा अपने घर की मरम्मत एवं हिफाजत (अथवा विशाल बनाने के लिए भी नहीं मारता, तथा श्रमण और माहन (ब्राह्मण) के जीवन निर्वाह के लिए, एवं उनके या अपने शरीर या प्राणों पर किञ्चित् उपद्रव न हो, अतः परित्राणहेतु भी नहीं मारता, अपितु निष्प्रयोजन (बिना किसी अर्थ या निमित्त के) ही वह मूर्ख (बाल) प्राणियों को दण्ड देता हुआ उन्हें (दण्ड अादि से) मारता है, उनके (कान नाक आदि) अंगों का छेदन करता है, उन्हें शूल आदि से भेदन करता है, उन प्राणियों के अंगों को अलग-अलग करता है, उनकी आँखे निकालता है, चमड़ी उधेड़ता है, उन्हें डराता-धमकाता है, अथवा परमाधार्मिकवत् अकारण ही नाना उपायों से उन्हें पीड़ा पहुंचाता है, तथा प्राणों से रहित भी कर देता है। वह सद्विवेक का त्याग करके या अपना आपा (होश) खो कर (अविचारपूर्वक कार्य करने वाला) तथा निष्प्रयोजन त्रस प्राणियों को उत्पीड़ित (दण्डित) करने वाला वह मूढ़ प्राणियों के साथ (जन्म-जन्मान्तरानुबन्धी) वैर का भागी बन जाता है। (2) कोई पुरुष ये जो स्थावर प्राणी हैं, जैसे कि इक्कड़, कठिन, जन्तुक, परक, मयूरक, मुस्ता (मोथा), तण (हरीघास), कुश, कुच्छक, (कर्चक) पर्वक और पलाल (पराल) नामक विविध वनस्पतियाँ होती हैं, उन्हें निरर्थक दण्ड देता है / वह इन वनस्पतियों को पुत्रादि के पोषणार्थ या पशुओं के पोषणार्थ, या गृहरक्षार्थ, अथवा श्रमण एवं माहन (ब्राह्मण) के पोषणार्थ दण्ड नहीं देता, न Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ही ये वनस्पतियाँ उसके शरीर की रक्षा के लिए कुछ काम आती हैं, तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खण्डन, मर्दन, उत्पीड़न, करता है, उन्हें भय उत्पन्न करता है, या जीवन से रहित कर देता है। विवेक को तिलांजलि दे कर वह मूढ़ व्यर्थ ही (वनस्पतिकायिक) प्राणियों को दण्ड देता है और (जन्मजन्मान्तर तक) उन प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है / (3) जैसे कोई पुरुष (सद-असद्विवेकविकल हो कर) नदी के कच्छ (किनारे) पर, द्रह (तालाब या झील) पर, या किसी जलाशय में, अथवा तृणराशि पर, तथा नदी आदि द्वारा घिरे हुए स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में अथवा किसी गहन दुष्प्रवेशस्थान में, वन में या घोर वन में, पर्वत पर या पर्वत के किसी दुर्गम स्थान में तृण या घास को बिछा-बिछा या फैला-फैला कर अथवा ऊंचा ढेर करके, स्वयं उसमें आग लगाता (जला कर डालता) है, अथवा दूसरे से प्राग लगवाता है, अथवा इन स्थानों पर आग लगाते (या जलाते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन-समर्थन करता है, वह पुरुष निष्प्रयोजन प्राणियों को दण्ड देता है। इस प्रकार उस पुरुष को व्यर्थ ही (अग्निकायिक तथा तदाश्रित अन्य त्रसादि) प्राणियों के घात के कारण सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है। यह दूसरा अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है / विवेचन--द्वितीय क्रियास्थान अनर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार निरर्थक प्राणिघातजनित क्रियास्थान का विभिन्न पहलुओं से निरूपण करते हैं। वे पहलू ये हैं (1) वह द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के त्रस प्राणियों की निरर्थक ही विविध प्रकार से प्राणहिंसा करता, करवाता व अनुमोदन करता है, (2) वह स्थावरजीवों की विशेषत: वनस्पतिकायिक एवं अग्निकायिक जीवों की निरर्थक ही विविध प्रकार से–पर्वतादि विविध स्थानों में, छेदन-भेदनादि रूप में हिंसा करता, करवाता व अनुमोदन करता है, (3) वह शरीरसज्जा, चमड़े, मांसादि के लिए हिंसा नहीं करता, (4) किसी प्राणी द्वारा मारने की आशंका से उसका वध नहीं करता, (5) वह पुत्र, पशु, गृह आदि के संवर्द्धनार्थ हिंसा नहीं करता, किन्तु किसी भी प्रयोजन के बिना निरर्थक स जीवों का घात करता है / अनर्थदण्डप्रत्यधिक क्रियास्थान-किसी भी प्रयोजन के बिना केवल आदत, कौतुक, कुतूहल मनोरंजन आदि से प्रेरित होकर किसी भी त्रस या स्थावर जीव की किसी भी रूप में की जाने वाली हिंसा / के निमित्त से जो पाप कर्मबन्ध होता है, उसे अनर्थदण्ड-प्रत्ययिक क्रियास्थान कहते हैं। भगवान महावीर की दृष्टि में अर्थदण्ड-प्रत्ययिक की अपेक्षा अनर्थदण्ड-प्रत्ययिक क्रियास्थान अधिक पापकर्मबन्धक है।' तृतीय क्रियास्थान-हिंसादण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ६९७–प्रहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिसादंडवत्तिए त्ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ 1. सूत्रकृतांग शीलांक्रवृत्ति, पत्रांक 307 का सारांश Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 698 ] पुरिसे ममं वा ममि वा अन्न वा अनि वा हिसिसु वा हिसइ वा हिसिस्सइ वा तं दंडं तस-थावरेहि पाणेहि सयमेव णिसिरति, अण्णण वि णिसिरावेति, अन्न पिणिसिरतं समजाणति, हिंसावंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति प्राहिते / ६९७-इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कि कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए स्वयं दण्ड देता है कि इस (त्रस या स्थावर) जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा अथवा वह दूसरे से त्रस और स्थावर प्राणी को वह दण्ड दिलाता है, या त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए दूसरे पुरुष का अनुमोदन करता है। ऐसा व्यक्ति प्राणियों को हिंसारूप दण्ड देता है / उस व्यक्ति को हिंसाप्रत्ययिक सावद्यकर्म का बन्ध होता है / अतः इस तीसरे क्रियास्थान को हिंसादण्डप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन-ततीय क्रियास्थान : हिंसादण्डप्रत्ययिक-स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में हिंसा दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे होता है इसका दिग्दर्शन कराया गया है। हिंसादण्डप्रत्यायिक क्रियास्थान मुख्यतया हिमा प्रधान होता है। यह त्रैकालिक और कृतकारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से होता है। जैसे कि (1) कई व्यक्ति अपने सम्बन्धी की हत्या का बदला लेने के लिए क्रुद्ध होकर सम्बन्धित व्यक्तियों को मार डालते हैं, जैसे-परशुराम ने अपने पिता की हत्या से कुद्ध होकर कातवीय को मार डाला था / (2) भविष्य में मेरी हत्या कर डालेगा, इस आशंका से कोई व्यक्ति सम्बन्धित व्यक्ति को मार या मरवा डालते हैं, जैसे-कंस ने देवकी लने का उपक्रम किया था। कई व्यक्ति सिंह, सर्प या बिच्छ आदि प्राणियों का इसलिए वध कर डालते हैं कि ये जिदा रहेंगे तो मुझे या अन्य प्राणियों को मारेंगे / (3) कई व्यक्ति वर्तमान में कोई किसी को मार रहा है तो उस पर मारने को टूट पड़ते हैं / ये और इस प्रकार की क्रिया हिंसाप्रवृत्तिनिमित्तक होती हैं जो पाप कर्मबन्धका कारण होने से हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहलाती है / चतुर्थ क्रियास्थान-अकस्मादण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण 698-(1) प्रहावरे च उत्थे दंडसमादाणे अकस्माद् दंडवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहाणामए के इ पुरिसे कच्छंसि वा जाव बणविदुग्गंसि वा मियवित्तिए मिय संकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वधाए उसुआयामेत्ता णं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्सामि त्ति कठ्ठ तित्तिरं वा वट्टगं वा चडगं वा लावगं वा कवोतमं वा कवि का कबिजलं वा विधित्ता भवति ; इति खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ, अकस्माइंडे / (2) से जहाणामए केइ पुरिसे सालोणि वा वीहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा रालाणि वा शिलिज्जमाणे अन्नयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं मयणगं मुगुदगं वीहिरूसितं कालेसुतं तणं छिदिस्सामि त्ति कटठ्ठ सालि वा वोहिं वा कोहवं वा कंगु वा परगं वा रालयं 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 308 का सारांश Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.1 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा छिदित्ता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अवाए अन्न फुसति, अकस्मात दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जति, चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मात् दंडवत्तिए त्ति प्राहिते। ६९८-इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद् दण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (1) जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह (झील) पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जा कर मग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है मृग का वध करने के लिए चल पड़ता है; 'यह मृग है' यों जान कर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है, किन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण लक्ष्य (वध्यजीव मृग) को न लग कर तीतर, बटेर (बतक), चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिजल पक्षी को लग कर उन्हें बींध डालता है / ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है, वह दण्ड इच्छा न होने पर भी अकस्मात् (सहसा) हो जाता है इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड (प्रत्ययिक) क्रियास्थान कहते हैं। (2) जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव (कोदों), कंग, परक और राल नामक धान्यों (अनाजों) को शोधन (साफ) करता हुआ किसी तृण (घास) को काटने के लिए शस्त्र (हंसिया या दांती) चलाए, और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद अादि घास को काटू' ऐसा प्राशय होने पर भी (लक्ष्य चूक जाने से) शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है। इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दण्ड (प्राणिहिंसा) अन्य को स्पर्श करता है। यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है। इस प्रकार अकस्मात (किसी जीव को) दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को (उसके निमित्त से) सावद्यकर्म का बन्ध होता है / अतः यह चतुर्थ क्रियास्थान अकस्माद्दण्ड प्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन–चतुर्थ क्रियास्थान : अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक स्वरूप और विश्लेषण प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने चतुर्थ क्रियास्थान के रूप में अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे-कैसे हो जाता है, इसे दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया है- (1) किसी मृग को मारने के अभिप्राय से चलाये गये शस्त्र से अन्य किसी प्रारणी (तीतर अादि) का घात हो जाने पर, (2) किसी घास को काटने के अभिप्राय से चलाये गए औजार से किसी पौधे के कट जाने पर / ' पंचम क्रियास्थानः दृष्टि विपर्यासदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण 666-(1) ग्रहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविपरियासियादंडे ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे माईहि वा पिईहि वा भातोहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुत्तेहि वा धूताहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति मन्नमाणे मित्ते हयपुत्वे भवति दिट्ठीविष्परियासियादंडे / (2) से जहा वा केइ पुरिसे गामघायंसि वा गरघायंसि वा खेड० कब्बड० मडंबघासि वा दोणमुहघायंसि वा पट्टणघायंसि बा पासमघातंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निगमघायंसि वा रायहाणि 1. सूत्रकृतांगसूत्र शीलांकवृत्ति, पत्रांक 309 का सारांश Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान: द्वितीय अध्ययन : सूत्र 700 ] [ 61 धासि वा अतेणं तेणमिति मन्नमाणे प्रतेणे हयपुम्वे भवइ, दिट्ठोविपरियासियादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविपरियासियादंडे त्ति प्राहिते। ६६६---इसके पश्चात् पाँचवाँ क्रियास्थान दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (1) जैसे कोई व्यक्ति अपने माता, पिता, भाइयों, बहनों, स्त्री, पुत्रों, पुत्रियों या पुत्रवधुनों के साथ निवास करता हया अपने उस मित्र (हितैषीजन) को (गलतफहमी से) शत्रु (विरोधी या अहितैषी) समझ कर मार देता है, इसको दृष्टि विपर्यासदण्ड कहते हैं, क्योंकि यह दण्ड दृष्टिभ्रमवश होता है। (2) जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मण्डप, द्रोण-मुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी पर घात के समय किसो चोर से भिन्न (अचोर) को चोर समझ कर मार डाले तो वह दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है / __ इस प्रकार जो पुरुष अहितैषी या दण्ड्य के भ्रम से हितैषी जन या अदण्ड्य प्राणी को दण्ड दे बैठता है, उसे उक्त दृष्टिविपर्यास के कारण सावद्यकर्मबन्ध होता है। इसलिए दृष्टिविपर्यास दण्डप्रत्ययिक नामक पंचम क्रियास्थान बताया गया है / विवेचन—पंचम क्रियास्थान-दृष्टिविपर्यासदण्ड-प्रत्यायक-स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में दृष्टिविपर्यासवश होने वाले दण्डसमादान (क्रियास्थान) को दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है - (1) हितैषी पारिवारिक जनों में से किसी को भ्रमवश अहितैषी (शत्रु) समझ कर दंड देना, (2) ग्राम, नगर आदि में किसी उपद्रव के समय चोर, हत्यारे आदि दण्डनीय व्यक्ति को ढूढने के दौरान किसी अदण्डनीय को भ्रम से दण्डनीय समझ कर दंड देना।' छठा क्रियास्थान-मृषावादप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ७००-अहावरे छ8 किरियाठाणे मोसवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहानामए केइ पुरिसे प्रायहेउं वा नायहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वति, अण्णेण वि मुसं वदावेति, मुसं वयंत पि अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, छ8 किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिते। ७००--इसके पश्चात छठे क्रियास्थान का वर्णन है, जो मृषाप्रत्ययिक कहलाता है / जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए. घर के लिए अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है. दसरे से असत्य बलवाता है, तथा असत्य बोलते हए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है। ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य प्रवत्ति-निमित्तक पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध होता है। इसलिए यह छठा क्रियास्थान मृषावादप्रत्ययिक कहा गया। विवेचन-छठा क्रियास्थान : मषावादप्रत्यायक-स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में मृषावाद प्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है। यह क्रियास्थान मन, वचन काय से किसी भी प्रकार का असत्याचरण करने, कराने एवं अनुमोदन से होता है / 1. मूत्रकृतांग शीलांकत्ति, पत्रांक 309 का सारांश Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्तर-इसके पूर्व जो पांच क्रियास्थान कहे गए हैं, उनमें प्रायः प्राणियों का घात होता है, इसलिए उन्हें शास्त्रकार ने 'दण्डसमादान' कहा है, परन्तु छठे से ले कर तेरहवें क्रियास्थान तक के भेदों में प्रायः प्राणिघात नहीं होता, इसलिए इन्हें 'दण्डसमादान' न कह कर 'क्रियास्थान' कहा है।' सप्तम क्रियास्थान-- अदत्तादान प्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ___७०१-प्रहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे प्रायोउं वा जाव परिवारहेउं वा सयमेव अदिण्णं प्रादियति, अण्णेण वि अदिण्णं आदियावेति, अदिग्णं आदियंत अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए ति माहिते। ७०१-इसके पश्चात् सातवाँ क्रियास्थान अदत्तादानप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कोई व्यक्ति अपने लिए, अपनी ज्ञाति के लिए तथा अपने घर और परिवार के लिए अदत्त-वस्तु के स्वामी के द्वारा न दी गई वस्तु को स्वयं ग्रहण करता है, दूसरे से अदत्त को ग्रहण कराता है, और अदत्त ग्रहण करते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, तो ऐसा करने वाले उस व्यक्ति को अदत्तादान-सम्बन्धित सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है। इसलिए इस सातवें क्रियास्थान को अदत्तादानप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन-सप्तम क्रियास्थान : अदत्तादानप्रत्ययिक-स्वरूप और कारण- प्रस्तुत सूत्र में अदत्तादान से सम्बन्धित कृत-कारित-अनुमोदितरूप क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है। . अदत्तादान-वस्तु के स्वामी या अधिकारी से बिना पूछे उसके बिना दिये या उसकी अनुमति, सहमति या इच्छा के विना उस वस्तु को ग्रहण कर लेना, उस पर अपना अधिकार या स्वामित्व जमा लेना, उससे छीन, लूट या हरण कर लेना अदत्तादान, स्तेन या चोरी है / अष्टम क्रियास्थान-अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान : स्वरूप और विश्लेषण 702-- प्रहावरे अट्टमे किरियाठाणे अज्झथिए ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे, से स्थि णं केइ किचि विसंवादेति, सयमेव होणे दोणे दुट्ठ दुम्मणे प्रोहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपविट्ठ करतलपल्हत्थमुहे अट्टझाणोवगते भूमिगतदिट्ठीए झियाति, तस्स णं अज्झत्थिया प्रसंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जति, तं०-कोहे माणे माया लोभे, अज्झत्थमेव कोह-माण-माया-लोहा, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजे ति पाहिज्जति, अट्टमे किरियाठाणे प्रज्झथिए त्ति प्राहिते। ७०२-इसके बाद आठवाँ अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है। जैसे कोई ऐसा (चिन्ता एवं भ्रम से ग्रस्त) पुरुष है, किसी विसंवाद (तिरस्कार या क्लेश) के कारण, दुःख उत्पन्न करने वाला कोई दूसरा नहीं है फिर भी वह स्वयमेव हीन भावनाग्रस्त, दीन, दुश्चिन्त (दुःखित चित्त) दुर्मनस्क, उदास होकर मन में अस्वस्थ (बुरा) संकल्प करता रहता है, चिन्ता और शोक के सागर में 1. मूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 309 के अनुसार 2. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक, 310 का सारांश Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 703 ] डूबा रहता है, एवं हथेली पर मुह रख कर (उदासीन मुद्रा में) पृथ्वी पर दृष्टि किये हुए आर्तध्यान करता रहता है / निःसन्देह उसके हृदय में संचित चार कारण हैं क्रोध, मान, माया और लोभ / वस्तुतः क्रोध, मान, माया और लोभ (आत्मा-अन्तःकरण में उत्पन्न होने के कारण) आध्यात्मिक भाव हैं / उस प्रकार अध्यात्मभाव के कारण सावधकर्म का बन्ध होता है। अतः पाठवें क्रियास्थान को अध्यात्मप्रत्ययिक कहा गया है / विवेचन-आठवां क्रियास्थान : अध्यात्मप्रत्ययिक : स्वरूप और कारण प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप समझाते हुए चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं ---- (1) अन्तःकरण (आत्मा) से प्रादुर्भूत होने के कारण इसे अध्यात्मप्रत्ययिक कहते हैं, (2) मनुष्य अपने चिन्ता, संशयग्रस्त दुर्मन के कारण ही हीन, दीन, दुश्चिन्त, हो कर प्रार्तध्यान में प्रवृत्त होता है, (3) इस अध्यात्मक्रिया के पीछे क्रोधादि चार कारण होते हैं / (4) इसलिए प्रात्मा में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि चार के कारण जो क्रिया होती है, उसके निमित्त से पापकर्म बन्ध होता है।' नौवां क्रियास्थान-मानप्रत्यायक : स्वरूप, कारण, परिणाम ७०३-अहावरे णवमे किरियाठाणे माणवत्तिए त्ति आहिज्जई / से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमदेण वा कुलमदेण वा बलमदेण वा रूवमएण वा तवमएण वा सुयमदेण वा लाभमदेण वा इस्सरियमदेण वा पण्णामदेण वा अन्नतरेण वा मदट्टाणेणं मत्ते समाणे परं होले ति निदति खिसति गरहति परिभवइ अवमण्णेति, इत्तरिए अयमंसि अप्पाणं समुक्कसे, देहा चुए कम्मबितिए अवसे पयाति, तंजहा गम्भातो गम्भं, जम्मातो जम्म, मारातो मारं, गरगानो गरगं, चंडे थडे चवले माणी यावि भवति, एवं खलु तस्स तम्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, गवमे किरियाठाणे माणवत्तिए ति अाहिते / ७०३--इसके पश्चात् नौवां क्रियास्थान मानप्रत्ययिक कहा गया है। जैसे कोई व्यक्ति जातिमद, कुलमद, रूपमद, तपोमद, श्र त (शास्त्रज्ञान) मद, लाभमद, ऐश्वर्यमद एवं प्रज्ञामद, इन आठ मदस्थानों में से किसी एक मद-स्थान से मत्त हो कर दूसरे व्यक्ति की अवहेलना (अवज्ञा) करता है, निन्दा करता है, उसे झिड़कता है, या घणा करता है, गहीं करता है, दूसरे को नीचा दिखाता (पराभव करता) है, उसका अपमान करता है। (वह समझता है---) यह व्यक्ति हीन (योग्यता, गुण आदि में मुझ से न्यून) है, मैं विशिष्ट जाति, कुल, बल आदि गुणों से सम्पन्न हूँ, इस प्रकार अपने आपको उत्कृष्ट मानता हुमा गर्व करता है। इस प्रकार जाति आदि मदों से उन्मत्त पुरुष आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर को (यहीं) छोड़ कर कर्ममात्र को साथ ले कर विवशतापूर्वक परलोक प्रयाण करता है / वहाँ वह एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को और एक नरक से दूसरे नरक को प्राप्त करता है / परलोक में वह चण्ड (भयंकर क्रोधी अतिरौद्र), नम्रतारहित चपल, और अतिमानी होता है। इस प्रकार वह व्यक्ति उक्त अभिमान (मद) की क्रिया के कारण सावद्यकर्मबन्ध करता है। यह नौवां क्रियास्थान मानप्रत्ययिक कहा गया है / 1. सूत्रकृतांग शीलांकत्ति, पत्रांक 310 का सारांश Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध विवेचन–नौवाँ क्रियास्थानः मानप्रत्ययिक स्वरूप, कारण और परिणाम प्रस्तुत सूत्र में मानप्रत्ययिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में शास्त्रकार तीन तथ्यों को सूचित करते हैं--- (1) मान की उत्पत्ति के स्रोत-आठमद (2) मानक्रिया का प्रत्यक्ष रूप-दूसरों की अवज्ञा, निन्दा, घृणा, पराभव, अपमान आदि तथा दूसरे को जाति आदि से होन और स्वयं को उत्कृष्ट समझना। (3) जाति आदि वश मानक्रिया का दुष्परिणाम- दुष्कर्मवश चिरकाल तक जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण, प्रकृति अतिरौद्र, अतिमानी, चंचल और नम्रतारहित / ' दसवाँ क्रियास्थान-मित्रदोषप्रत्ययिक : स्वरूप कारण और दुष्परिणाम ___ ७०४---प्रहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति पाहिज्जति, से जहाणामए केइ पुरिसे मातीहि वा पितीहि वा माईहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुहि वा धूयाहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे तेसि अन्नतरंसि प्रहालहुगंसि प्रवराहसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तंजहा-सीतोदगवियसि वा कार्य प्रोबोलित्ता भवति, उसिणोदगवियडेण वा कार्य प्रोसिचित्ता भवति, अगणिकाएण वा कायं उड्ड हित्ता भवति, जोत्तेण वा वेत्तेण वा पत्तेण वा तया वा कसेण वा छिवाए वा लयाए वा पासाई उद्दालेत्ता भवति, दंडेण वा प्रढोण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कायं पाउट्टित्ता भवति; तहप्पकारे पुरिसजाते संवसमाणे दुग्मणा भवंति, पवसमाणे सुमणा भवंति, तहप्पकारे पुरिसजाते दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरक्खडे अहिए इमंसि लोगसि अहिते परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठिमंसि यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति प्राहिते। 704- इसके बाद दसवाँ क्रियास्थान मित्र दोषप्रत्ययिक कहलाता है / जैसे—कोई (प्रभुत्व सम्पन्न) पुरुष माता, पिता, भाइयों, बहनों, पत्नी, कन्याओं, पुत्रों अथवा पुत्रवधुओं के साथ निवास करता हुया, इनसे कोई छोटा-सा भी अपराध हो जाने पर स्वयं भारी दण्ड देता है, उदाहरणार्थसर्दी के दिनों में अत्यन्त ठंडे पानी में उन्हें डबोता है। गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर अत्यन्त गर्म (उबलता हुआ) पानी छींटता है, आग से उनके शरीर को जला देता है या गर्म दाग देता है, तथा जोत्र से, बेंत से, छड़ी से, चमड़े से, लता से या चाबुक से अथवा किसी प्रकार की रस्सी से प्रहार करके उसके बगल (पार्श्वभाग) की चमड़ी उधेड़ देता है, तथैव डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले से ठीकरे या खप्पर से मार-मार कर उसके शरीर को ढीला (जर्जर) कर देता है। ऐसे (अतिक्रोधी) पुरुष के घर पर रहने से उसके सहवासी परिवारिकजन दुःखी रहते हैं, ऐसे पुरुष के परदेश प्रवास करने से वे सुखी रहते हैं / इस प्रकार का व्यक्ति जो (हरदम) डंडा बगल में दबाये रखता है, जरा से अपराध पर भारी दण्ड देता है, हर बात में दण्ड को आगे रखता है अथवा दण्ड को आगे रख कर बात करता है, वह इस लोक में तो अपना अहित करता ही है परलोक में भी अपना अहित करता है। वह प्रतिक्षण ईर्ष्या से जलता रहता है, बात-बात में क्रोध करता है, दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता है, या चुगली खाता है। 1. सूत्रकृतांग शीलाकवृत्ति, पत्रांक 311 का सारांश Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 705 ] [ 65 इस प्रकार के (महादण्डप्रवर्तक) व्यक्ति को हितैषी (मित्र) व्यक्तियों को महादण्ड देने की क्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है / इसी कारण इस दसवें क्रियास्थान को 'मित्रदोषप्रत्ययिक' कहा गया है। विवेचन-दसवाँ क्रियास्थान : मित्रदोषप्रयायक-स्वरूप, कारण और दुष्परिणाम-प्रस्तुत में मित्रदोषप्रत्ययिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में शास्त्रकार पाँच तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं(१) मित्र के समान हितैषी सहवासी स्वजन-परिजनों में से किसी के जरा-से दोष पर कोई जबर्दस्त व्यक्ति उसे भारी दण्ड देता है, इस कारण इसे मित्रदोषप्रत्ययिक कहते हैं / (2) उक्त प्रभुत्वसम्पन्न व्यक्ति द्वारा सहवासी स्वजन-परिजनों को गुरुतरदण्ड देने की प्रक्रिया का निरूपण। (3) ऐसे महादण्ड प्रवर्तक पुरुष की निन्द्य एवं तुच्छ प्रकृति का वर्णन / (4) इहलोक और परलोक में उसका अहितकर दुष्परिणाम / (5) मित्रजनों के दोष पर महादण्ड देने की क्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध / ' ग्यारहवां क्रियास्थान-मायाप्रत्ययिक : स्वरूप, प्रक्रिया और परिणाम ७०५-प्रहावरे एक्कारसमे किरियाठाणे मायावत्तिए ति पाहिज्जत्ति, जे इमे भवंतिगूढायारा तमोकासिया उलगपत्तलया, पव्वयगुरुया, ते प्रारिया वि संता प्रणारियानो मासाओ विउज्जति, अन्नहा संतं अप्पाणं अनहा मन्नंति, अन्नपुट्ठा अन्नं वागरेंति, अन्नं प्राइक्खियव्वं अन्नं प्राइवखंति / से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं णो सयं णीहरति, णो अन्नण णीहरावेति, णो पडिविद्ध सेति, एवामेव निण्हवेति, प्रविउट्टमाणे अंतो अंतोरियाति, एवामेव माई मायं कटु णो पालोएति णो पडिक्कमति णो णिदति णो गरहति णो विउदृति णो विसोहति णों प्रकरणयाए अब्भुट्ठति णो प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवति, मायो अस्सिं लोए पच्चायाइ, मायो परंसि लोए पच्चा. याति, निदं गहाय पसंसते, णिच्चरति, ण नियति, णिसिरिय दंडं छाएति, मायो असमाहडसुहलेसे यावि भवति, एवं खलु तस्स तम्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जइ, एक्कारसमे किरियाठाणे मायावत्तिए त्ति प्राहिते। ७०५-ग्यारहवाँ क्रियास्थान है, जिसे मायाप्रत्ययिक कहते हैं / ऐसे व्यक्ति, जो किसी को पता न चल सके, ऐसे गूढ प्राचार (आचरण) वाले होते हैं, लोगों को अंधेरे में रख कर कायचेष्टा या क्रिया (काम) करते हैं, तथा (अपने कुकृत्यों के कारण) उल्लू के पंख के समान हलके होते हुए भी प्रपने आपको पर्वत के समान बड़ा भारी समझते हैं, वे प्रार्य (आर्यदेशोत्पन्न होते हुए भी (स्वयं को छिपाने के लिए) अनार्यभाषाओं का प्रयोग करते हैं, वे अन्य रूप में होते हुए भी स्वयं को अन्यथा (साधु पुरुष के रूप में) मानते हैं; वे दूसरी बात पूछने पर (वाचालतावश) दूसरी बात का व्याख्यान करने लगते हैं, दूसरी बात कहने के स्थान पर (अपने अज्ञान को छिपाने के लिए) दूसरी . बात का वर्णन करने पर उतर जाते हैं / (उदाहरणार्थ-)जैसे किसी (युद्ध से पलायित) पुरुष के अन्तर में शल्य (तीर या नुकीला कांटा) गड़ गया हो, वह उस शल्य को (वेदनासहन में भीरुता प्रदर्शित न हो, इसलिए या पीड़ा के डर से) स्वयं नही निकालता न किसी दूसरे से निकलवाता है, और न 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 312 का सारांश Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (चिकित्सक के परामर्शानुसार किसी उपाय से) उस शल्य को नष्ट करवाता है, प्रत्युत निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है, तथा उसकी वेदना से अंदर ही अंदर पीड़ित होता हुआ उसे सहता रहता है, इसी प्रकार मायी व्यक्ति भी माया (कपट) करके उस (अन्तर में गड़े हुए) मायाशल्य को निन्दा के भय से स्वयं (गुरुजनों के समक्ष) आलोचना नहीं करता, न उसका प्रतिक्रमण करता है, न (प्रात्मसाक्षी से) निन्दा करता है, न (गुरुजन समक्ष) उसकी गर्दी करता है, (अर्थात्, उक्त मायाशल्य को न तो स्वयं निकालता है, और न दूसरों से निकलवाता है।) न वह उस (मायाशल्य) को प्रायश्चित्त आदि उपायों से तोड़ता (मिटाता) है, और न उसकी शुद्धि करता है, उसे पुन: न करने के लिए भी उद्यत नहीं होता, तथा उस पापकर्म के अनुरूप यथायोग्य तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार मायी इस लोक में (मायी रूप में) प्रख्यात हो जाता है. (इसलिए) अविश्वसनीय हो जाता है; (अतिमायी होने से) परलोक में (अधम यातना स्थानों-नरक तिर्यञ्चगतियों में) भी पुनः पुन: जन्म-मरण करता रहता है। वह (नाना प्रपञ्चों से वंचना करके) दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे से घृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, निश्चिन्त हो कर बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है, असत् कार्यों से निवृत्त नहीं होता, प्राणियों को दण्ड दे कर भी उसे स्वीकारता नहीं, छिपाता है (दोष ढंकता है)। ऐसा मायावी शुभ लेश्याओं को अंगीकार भी नहीं करता। ऐसा मायी पुरुष पूर्वोक्त प्रकार की माया (कपट) युक्त क्रियाओं के कारण पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध करता है / इसीलिए ग्यारहवें क्रियास्थान को मायाप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन--ग्यारहवाँ क्रियास्थान : मायाप्रत्ययिक- स्वरूप, मायाप्रक्रिया और दुष्परिणामप्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण करते हुए मुख्यतया चार तथ्य प्रस्तुत करते हैं (1) मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का मूलाधार-मायाचारियों द्वारा अपनाई जाने वाली माया की विविध प्रक्रियाएं। (2) मायाचारी की प्रकृति का सोदाहरण वर्णन-मायाशल्य को अन्त तक अन्तर से न निकालने का स्वभाव / (3) मायाप्रधान क्रिया का इहलौकिक एवं पारलौकिक दुष्फल-कुगतियों में पुनः पुनः गमनागमन, एवं कुटिल दुर्वृत्तियों से अन्त तक पिण्ड न छूटना। (4) मायिक क्रियाओं के कारण पापकर्म का बन्ध एवं मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान नाम की सार्थकता।' बारहवाँ क्रियास्थान-लोभप्रत्ययिक : अधिकारी, प्रक्रिया और परिणाम ७०६--ग्रहावरे बारसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए ति पाहिज्जति, तंजहा-जे इमे भवति प्रारणिया पावसहिया गामंतिया कण्हुईराहस्सिया, णो बहुसंजया, णो बहुपडिविरया सध्वपाणभूत-जीव-सत्तेहि, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउंजंति-अहं ण हतब्बो अन्ने हंतवा. प्रहं ण 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 313-314 का सारांश Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन सूत्र 706 ] प्रज्जावेतम्वो अन्ने अज्जावेयब्वा, अहं ण परिघेत्तम्वो अन्ने परिघेत्तवा, अहं ण परितावेयवो अन्ने परितावेयन्वा, अहं ण उद्दवेयवो अन्ने उद्दवेयव्वा, एवामेव ते इस्थिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिता गरहिता अज्झोववण्णा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुजित्तु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु प्रासुरिएसु किब्धिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति, ततो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइयत्ताए पच्चायंति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, दुवालसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए ति माहिते। इच्चेताई दुवालस किरियाठाणाई दविएणं समणेणं वा महाणेणं वा सम्म सुपरिजाणियब्वाई' भवति / ७०६-इसके पश्चात् बारहवाँ क्रियास्थान है, जिसे लोभप्रत्ययिक कहा जाता है। वह इस प्रकार है-ये जो वन में निवास करने वाले (आरण्यक) हैं, जो कुटी बना कर रहते (पावसथिक) हैं, जो ग्राम के निकट डेरा डाल कर (ग्राम के आश्रय से अपना निर्वाह करने हेतु) रहते (ग्रामान्तिक) हैं, कई (गुफा, वन आदि) एकान्त (स्थानों) में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी गुप्त क्रिया करते (राहस्यिक) हैं / ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत (सर्वसावद्य अनुष्ठानों से निवृत्त) हैं और न ही (प्राणातिपातादि समस्त आश्रवों से) विरत हैं, वे समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से स्वयं विरत नहीं हैं / वे (आरण्यकादि) स्वयं कुछ सत्य और कुछ मिथ्या (सत्यमिथ्या) (अथवा सत्य होते हुए भी जीवहिंसात्मक होने से मृषाभूत) वाक्यों का प्रयोग करते हैं जैसे कि-मैं (ब्राह्मण होने से) मारे जाने योग्य नहीं हूं, अन्य लोग (शूद्र होने से) मारे जाने योग्य (मारे जा सकते हैं, मैं (वर्गों में उत्तम ब्राह्मणवर्णीय होने से) आज्ञा देने (आज्ञा में चलाने) योग्य नहीं हूं, किन्तु दूसरे (शद्रादिवर्णीय) आज्ञा देने योग्य हैं, मैं (दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर) परिग्रहण या निग्रह करने योग्य, नहीं हूं, दूसरे (शूद्रादिवर्णीय) परिग्रह या निग्रह करने योग्य हैं, मैं संताप देने योग्य नहीं हूं, किन्तु अन्य जीव सन्ताप देने योग्य हैं, मैं उद्विग्न करने या जीवरहित करने योग्य नहीं हूं दूसरे प्राणी उद्विग्न, भयभीत या जीवरहित करने योग्य हैं।' इस प्रकार परमार्थ से अनभिज्ञ वे अन्यतीर्थिक स्त्रियों और शब्दादि कामभोगों में आसक्त (मूच्छित), गृद्ध (विषयलोलुप) सतत विषयभोगों में ग्रस्त, गहित एवं लीन रहते हैं / वे चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक काम-भोगों का उपभोग करके मृत्यू के समय मृत्यु पा कर असुरलोक में किल्विषी असुर के रूप में उत्पन्न होते हैं / उस प्रासुरो योनि से (आयुक्षय होने से) विमुक्त होने पर (मनुष्यभव में भी) बकरे की तरह मूक, जन्मान्ध (द्रव्य से अन्ध एवं भाव से अज्ञानान्ध) एवं जन्म से मूक होते हैं / इस प्रकार विषय-लोलुपता की क्रिया के कारण लोभप्रत्ययिक पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध होता है। इसीलिए बारहवें क्रियास्थान को लोभप्रत्ययिक कहा गया है / इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों (के स्वरूप) को मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्य-भव्य) श्रमण या माहन को सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए, और तत्पश्चात् इतका त्याग करना चाहिए / 1. पाठान्तर-'सुपरिजाणियव्वाई' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है 'सुपडिलेहियवाणि'–अर्थ होता है—'इनके हेयत्व, ज्ञेयत्व, उपादेयत्व का सम्यक् प्रतिलेखन-समीक्षापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।' Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन-बारहवां कियास्थान : लोभप्रत्यायिक अधिकारी, लोभप्रक्रिया एवं दुष्परिणाम----- प्रस्तुत सूत्र में लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में शास्त्रकार पांच तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं (1) लोभप्रत्यया क्रिया के अधिकारी आरण्यक आदि / (2) वे विषयलोलुपतावश प्राणातिपात, मृषावाद आदि से सर्वथा विरत नहीं होते, कतिपय उदाहरणों सहित वर्णन। (3) लोभक्रिया का मूलाधार-स्त्रियों एवं शब्दादि कामभोगों में आसक्ति, लालसा, वासना एवं अन्वेषणा। (4) विषयभोगों की लोलुपता का दुष्फल-आसुरी किल्विषिक योनि में जन्म, तत्पश्चात् एलक-मूकता, जन्मान्धता, जन्ममूकता की प्राप्ति / (5) विषयलोभ की पूर्वोक्त प्रक्रिया के कारण पापकर्मबन्ध और तदनुसार लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान नाम की सार्थकता।' 'णोबहसंजया'--जो अधिकांशत: संयमी नहीं हैं, इसका तात्पर्य यह है कि वे तापस आदि प्रायः त्रसजीवों का दण्डसमारम्भ नहीं करते, किन्तु एकेन्द्रियोपजीवी रूप में तो वे प्रसिद्ध हैं, इसलिए स्थावर जीवों का दण्डसमारम्भ करते ही हैं। 'णो बहपडिविरया--जो अधिकांशतः प्राणातिपात आदि पाश्रवों से विरत नहीं हैं। अर्थात् जो प्राणातिपातविरमण आदि सभी व्रतों के धारक नहीं हैं किन्तु द्रव्यतः कतिपय व्रतधारक हैं, भावतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूप कारणों के अभाव में जरा भी सम्यक्वत (चारित्र) के धारक नहीं हैं / भोगभोगाई-इसका भावार्थ यह है कि स्त्री सम्बन्धी भोग होने पर शब्दादि भोग अवश्यम्भावी होते हैं, इसलिए शब्दादि भोग भोग-भोग कहलाते हैं। प्रासुरिएसु-जिन स्थानों में सूर्य नहीं है, वे प्रासुरिक स्थान हैं। तेरहवां क्रियास्थान : ऐपिथिक : अधिकारी, स्वरूप, प्रक्रिया एवं सेवन ७०७-प्रहावरे तेरसमे किरियाठाणे इरियावहिए ति पाहिज्जति, इह खलु अत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वइस मियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तबंभचारिस्स पाउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स पाउत्तं णिसीयमाणस्स पाउत्तं तुयट्टमाणस्स पाउत्तं भुजमाणस्स पाउत्तं भासमाणस्स पाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपूछणं गेण्हमाणस्स वा मिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवातमवि अस्थि बेमाया सुहमा किरिया इरियावहिया नाम कज्जति, सा पढ़मसमए बद्धा पुट्ठा, सूत्रकृतांग शीलांकवत्ति, पत्रांक 314-315 का सारांश सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 314 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 315. 4. 'आसुरिएसु–......."जेसु सूरो नथिट्ठाणेसु'—सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टि.) पृ. 163 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 707 ] [69 बितीयसमए वेदिता, ततियसमए णिज्जिण्णा, सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेदिया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं चावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं असावज्जे ति पाहिज्जति, तेरसमे किरियाठाणे इरियावहिए त्ति प्राहिते। से बेमि-जे य प्रतीता जे य पड़प्पन्ना जे य प्राममिस्सा अरहंता भगवंता सव्वे ते एताई चेव तेरस किरियाठाणाई भासिसु वा भासंति वा भासिस्संति वा पणविसु वा पण्णवेति वा पण्णविस्संति वा, एवं चेव तेरसमं किरियाठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा / ७०७-इसके पश्चात् तेरहवाँ क्रियास्थान है, जिसे ऐपिथिक कहते हैं। इस जगत् में या आर्हतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ (आत्मभाव) के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से (मन-वचन-काया से) संवृत (निवृत्त) है तथा घरबार प्रादि छोड़ कर अनगार (मुनिधर्म में प्रवजित) हो गया है, जो ईर्यासमिति से युक्त है, सावध भाषा नहीं बोलता, इसलिए जो भाषासमिति से युक्त है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने और रखने की (आदान-निक्षेप)समिति से युक्त है, जो लघु नीति, बड़ी नीति, थूक, कफ, नाक के मैल आदि के परिष्ठापन की (उच्चारादि परिष्ठापन) समिति से युक्त है, जो मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त है, जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति से गुप्त है, जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त (विषयों से सुरक्षित या वश में) हैं, जिसका ब्रह्मचर्य नौ गुप्तियों से गुप्त (सुरक्षित) है, जो साधक उपयोग (यतना) सहित गमन करता है, उपयोगपूर्वक खड़ा होता है, उपयोगपूर्वक बैठता है, उपयोगसहित करवट बदलता है, यतनापूर्वक भोजन करता है, यतना के साथ बोलता है. उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि को ग्रहण करता है ओर उपयोगपूर्वक ही इन्हें रखता-उठाता है, यहाँ तक कि आँखों की पलकें भी उपयोगसहित झपकाता है। ऐसे (पूर्वोक्त अर्हताओं से युक्त) साधु में विविध मात्रा (प्रकार) वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसे वह करता है / उस ऐपिथिकी क्रिया का प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श होता है, द्वितीय समय में उसका वेदन (अनुभव, फलभोग) होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा होती है। इस प्रकार वह ईर्यापथिकी क्रिया क्रमशः बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित (उदीरणा की जाती है), वेदित (वेदन का विषय) और निर्जीण होती (निर्जरा की जाती है। फिर आगामी (चतुर्थ) समय में वह अकर्मता को प्राप्त (कर्मरहित) होती है। इस प्रकार वीतराग पुरुष के पूर्वोक्त ईर्यापथिक क्रिया के कारण असावध (निरवद्य) कर्म का (त्रिसमयात्मक) बन्ध होता है। इसीलिए इस तेरहवें क्रियास्थान को ऐर्यापथिक कहा गया है। (श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--) मैं कहता हूं कि भूतकाल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जितने तीर्थंकर हैं, और भविष्य में जितने भी तीर्थकर होंगे, उन सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का कथन किया है, करते हैं तथा करेंगे, इसी प्रकार भूतकालीन तीर्थकरों ने इन्हीं 13 क्रियास्थानों की प्ररूपणा की है, वर्तमान तीर्थंकर करते हैं तथा भविष्यकालिक तीर्थंकर इन्हीं की प्ररूपणा करेंगे / इसी प्रकार प्राचीन तीर्थंकरों ने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान तीर्थकर इसी का सेवन करते हैं और भविष्य में होने वाले तीर्थकर भी इसी का सेवन करेंगे / Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन-तेरहवाँ क्रियास्थान : ऐर्यापथिक-अधिकारी, स्वरूप, प्रक्रियाप्ररूपण एवं सेवनप्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने ऐपिथिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में छह तथ्यों का निरूपण किया है (1) ऐपिथिक क्रियावान् की अर्हताएँ-समिति, गुप्ति, इन्द्रियगुप्ति तथा ब्रह्मचर्यगुप्ति वस्त्रादि से सम्पन्न / (2) ऐर्यापथिक क्रिया का स्वरूप-गति, स्थिति, पार्श्वपरिवर्तन, भोजन, भाषण और आदाननिक्षेप यहाँ तक कि पक्ष्मनिपात (पलक झपकना) आदि समस्त सूक्ष्म क्रियाएं उपयोगपूर्वक करना। (3) ऐपिथिक क्रिया को क्रमशः प्रक्रिया–त्रिसमयिक, बद्ध-स्पृष्ट, वेदित, निर्जीर्ण, तत्पश्चात् अक्रिय (कर्मरहित)। (4) ऐर्यापथिक असावध क्रिया के निमित्त से होने वाला त्रिसमयवर्ती शुभकर्मबन्धन, ऐर्यापथिक क्रियास्थान नाम की सार्थकता। (5) त्रैकालिक तीर्थंकरों द्वारा इन्हीं तेरह क्रियास्थानों का कथन और प्ररूपण / (6) त्रैकालिक तीर्थंकरों द्वारा मात्र तेरहवें क्रियास्थान का ही सेवन / ' ऐर्यापथिको क्रिया और और उसका अधिकारी-क्रियाएँ गुणस्थान की दृष्टि से मुख्यतया दो कोटि की हैं-साम्परायिक क्रिया और ऐपिथिकी क्रिया। पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के जीवों में साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गणस्थानवी जीवों के ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है। पहले गुणस्थान से दसवें गण स्थान मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँचों में कोई न कोई अवश्य विद्यमान रहता है, और कषाय जहाँ तक है, वहाँ तक साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान से आगे तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का उदय नहीं रहता सिर्फ योग विद्यमान रहता है / इसलिए योगों के कारण वहाँ केवल सातावेदनीय कर्म का प्रदेशबन्ध होता है, स्थितिबन्ध नहीं, क्योंकि स्थितिबन्ध वहीं होता है जहाँ कषाय है। ऐर्यापथिकी क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि प्रथम समय में इसका बन्ध और स्पर्श होता है, दूसरे समय में वेदन और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है, इस दृष्टि से निष्कषाय वीतराग पुरुष को भी सयोगावस्था तक इस क्रिया का बन्ध होता है। केवलज्ञानी सयोगावस्था में सर्वथा निश्चल निष्कम्प नहीं रह सकते, क्योंकि मन, वचन, काया के योग उनमें विद्यमान हैं। और ऐपिथिक क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि धीरे से पलक गिराने पर यह क्रिया लग जाती है। ___ ऐर्यापथिक क्रिया प्राप्त करने की अर्हताएं--शास्त्रकार ने यहाँ ऐर्यापथिक क्रिया के अधिकारी साधक की मुख्य पाँच अर्हताएँ प्रस्तुत की हैं - (1) आत्मत्व-आत्मभाव में स्थित एवं विषय-कषायों आदि परभावों से विरत / (2) सांसारिक शब्दादि वैषयिक सुखों से विरक्त, एकमात्र आत्मिक सुख के लिए प्रयत्नशील / (3) गहवास तथा माता-पिता आदि का एवं धन-सम्पत्ति आदि संयोगों का ममत्व त्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित, अप्रमत्त भाव से अनगार-धर्मपालन में तत्पर / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवत्ति, पत्रांक ३१६-३१७का सारांश Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 708 ] [ 71 (4) प्रत्येक प्रवृत्ति में समिति से युक्त, तथा यतनाशील / (5) मन, बचन, काया और इन्द्रियों की गुप्ति से युक्त, नवगुप्ति सहित ब्रह्मचर्यनिष्ठ / इस दृष्टि से प्रस्तुत मूलपाठ में वर्णित सुविहित साधु में मिथ्यात्व, अविरति न होने पर भी कदाचित् प्रमाद एवं कषाय की सूक्ष्ममात्रा रहती है, इसलिए सिद्धान्ततः ऐपिथिक क्रिया न लग कर साम्प्रदायिक क्रिया लगती है। जिस साधु में प्रस्तुत सूत्रोक्त अर्हताएँ नहीं हैं, वह वीतराग अवस्था को निकट भविष्य में प्राप्त नहीं कर सकता और वीतराग अवस्था प्राप्त किये बिना कोई भी आत्मा ऐर्यापथिक क्रिया को प्राप्त नहीं कर सकता।' अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान के विकल्प 708 - अदुत्तरं च णं पुरिसविजयविभंगमाइक्खिस्सामि / इह खलु नाणापण्णाणं नाणाछंदाणं नाणासीलाणं नाणादिट्ठीणं नाणारईणं नाणारंभाणं नाणाझवसाणसंजुत्ताणं नाणाविहं पावसुयज्झयणं एवं भवति, तंजहा-भोम्म उप्पायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरलक्खणं वंजणं इथिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिढलक्षणं कुक्कडलक्खणं तित्तिरलक्खणं वगलक्खणं लावगलक्खणं चक्कलक्खणं छतलक्खणं चम्मलक्वणं दंडलक्खणं असिलक्षणं मणिलक्खणं कागिणिलक्खणं सुभगाकरं दुभगाकरं गम्भकरं मोहणकरं माहवणि पागसासणि दव्यहोमं खत्तियविज्जं चंदचरियं सूरचरियं सुक्कचरियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसीदाहं मियचक्कं वायसपरिमंडलं पंसुद्धि केसवुट्ठि मंसवुद्धि रुहिरवुट्ठि वेतालि अद्धवेतालि प्रोसोणि तालुगधाडणि सोवागि सारि दामिलि कालिगि गोरि गंधारि प्रोवणि उप्पणि जणि थंभणि लेसणि प्रामयकणि विसल्लकरणि पक्कणि अंतद्वाणि प्रायणि एवमादियानो बिज्जानो अन्नस्स हे पउंजंति, पाणस्स हेउं पउंति वस्थस्स हे पउजंति, लेणस्स हे पउजंति, सयणस्स हेउं पउंति, अन्नेसि वा विरूव-रूवाणं कामभोगाण हेउं पउंजंति, तेरिच्छं ते विज्जं सेवंति, प्रणारिया विप्पडिवना ते कालमासे कालं किच्चा अण्णतराई प्रासुरियाई किब्बिसियाई ठाणाई उववत्तारो भवंति, ततो वि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयताए तभअंधयाए पच्चायति / ७०८-इसके पश्चात् पुरुषविजय (जिस-जिस विद्या से कतिपय अल्पसत्त्व पुरुषगण अनर्थानु१. (क) ईरणमौर्या तस्यास्तया वा पन्था ईर्यापथस्तत्रभवमीर्यापथिकम् / अर्थात्-गमनागमनादि करना ईर्या है, उसका या उसके सहारे से पथ का उपयोग करना ईर्यापथ है। ईर्यापथ से होने वाली क्रिया ईपिथिक है। यह इसका शब्दव्युत्पत्तिनिमित्त है। प्रवृत्तिनिमित्त इस प्रकार है-सर्वत्रोपयुक्तस्याकषायस्य समीक्षित मनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया, तया यत्कर्म तदीर्यापथिकेत्युच्यते।' अर्थात--जो साधक सर्वत्रोपयोगयुक्त हो, अकषाय हो, मन-वचन-काया की क्रिया भी देखभाल कर करता हो. उसकी (कायिक) क्रिया ईर्यापथकिया है, उससे जो कर्म बंधता है, उसे ईर्यापथिका कहते हैं। सूत्रकृतांग शी० वृत्ति, पत्रांक 316 (ख) देखिये 'केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपएसेसु' इत्यादि वर्णन -सूत्रकृ. शी. वृत्ति, पत्रांक 316 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय अतस्कन्ध बन्धी विजय प्राप्त करते हैं) अथवा पुरुषविचय (पुरुषगण विज्ञानद्वारा जिसका विचय-अन्वेषण करते हैं) के विभंग (विभंगज्ञानवत् ज्ञानविशेष या विकल्पसमूह) का प्रतिपादन करूगा। इस मनुष्यक्षेत्र में या प्रवचन में (विचित्र क्षयोपशम होने से) नाना प्रकार की प्रज्ञा, नाना अभिप्राय, नाना प्रकार के शील (स्वभाव) विविध (पूर्वोक्त 363 जैसी) दृष्टियों, (आहारविहारादि में) अनेक रुचियों (कृषि आदि) नाना प्रकार के प्रारम्भ तथा नाना प्रकार के अध्यवसायों से युक्त मनुष्यों के द्वारा (अपनी-अपनी रुचि, दष्टि प्रादि के अनुसार) अनेकविध पापशास्त्रों (सावद्यकार्यों में प्रवृत्त करने वाले ग्रन्थों) का अध्ययन किया जाता है। वे (पापशास्त्र) इस प्रकार हैं-(१) भौम (भूकम्प आदि तथा भूमिगत जल एवं खनिज पदार्थों की शिक्षा देने वाला शास्त्र), (2) उत्पात (किसी प्रकार के प्राकृतिक उत्पात-उपद्रव की एवं उसके फलाफल की सूचना देने वाला शास्त्र), (3) स्वप्न (स्वप्नों के प्रकार एवं उनके शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र), (4) अन्तरिक्ष (आकाश में होने वाले मेघ, विद्युत्, नक्षत्र आदि की गतिविधि का ज्ञान कराने वाला शास्त्र), (5) अंग (नेत्र, भृकुटि, भुजा आदि अंगों के स्फुरण का फल बताने वाला शास्त्र), (6) स्वर (कोया, सियार एवं पक्षी आदि की आवाजों का फल बताने वाला स्वर-शास्त्र अथवा स्वरोदय शास्त्र), (7) लक्षण (नरनारियों के हाथ पैर आदि अंगों में बने हुए यव, मत्स्य, चक्र, पद्म, श्रीवत्स आदि रेखाओं या चिह्नों का फल बताने वाला शास्त्र), (8) व्यञ्जन (मस, तिल आदि का फल बताने वाला शास्त्र) (6) स्त्रीलक्षण (विविध प्रकार की स्त्रियों का लक्षण सूचक शास्त्र) (10) पुरुषलक्षण (विविध प्रकार के पुरुषों के लक्षणों का प्रतिपादक शास्त्र), (11) हयलक्षण (घोड़ों के लक्षण बताने व / गजलक्षण (हाथियों के लक्षण का प्रतिपादक पालकाप्य शास्त्र) (13) गोलक्षण (विविध प्रकार के गोवंशों का लक्षणसूचक शास्त्र), (14) मेषलक्षण (भेड़ या मेंढे के लक्षणों का सूचक शास्त्र), (15) कुक्कुट लक्षण (मुर्गों के लक्षण बताने वाला शास्त्र), (16) तित्तिरलक्षण (नाना प्रकार के तीतरों के लक्षण बताने वाला शास्त्र), (17) वर्तकलक्षण (बटेर या बत्तख के लक्षणों का सूचक शास्त्र), (18) लावकलक्षण (लावक पक्षी के लक्षणों का प्रतिपादक शास्त्र), (16) चक्रलक्षण (चक्र के या चकवे के लक्षणों को बताने वाला शास्त्र), (20) छत्रलक्षण (छत्र के लक्षणों का सूचक शास्त्र), (21) चर्मलक्षण (चर्म रत्न के लक्षणों को बताने वाला शास्त्र), (22) दण्डलक्षण (दण्ड के लक्षणों को बताने वाला शास्त्र), (23) असिलक्षण (तलवार के लक्षणों का प्रतिपादक शास्त्र) (24) मणि-लक्षण (विविध मणियोंरत्नों के लक्षणों का प्रतिपादक शास्त्र), (25) काकिनी-लक्षण (काकिणीरत्न या कौड़ी के लक्षणों को बताने वाला शास्त्र), (26) सुभगाकर (कुरूप को सुरूप या सुभग बनाने वाली विद्या), (27) दुर्भगाकर (सुरूप या सुभग को कुरूप या दुर्भग बना देने वाली विद्या), (28) गर्भकरी (गर्भ रक्षा करने के उपाय बताने वाली विद्या), (26) मोहनकरी (पुरुष या स्त्री को मोहित करने वाली अथवा कामोत्तजन (मोह =मैथुन) पैदा करने वाली बाजीकरण करने वाली अथवा व्यामोहमतिभ्रम पैदा करने वाली विद्या), (30) आथर्वणी (तत्काल अनर्थ उत्पन्न करने वाली या जगत् का ध्वंस करने वाली विद्या), (31) पाकशासन (इन्द्रजाल विद्या) (32) द्रव्यहोम (मारण, उच्चाटन आदि करने के लिए मंत्रोंके साथ मधु, घृत प्रादि द्रव्यों की होमविधि बताने वाली विद्या) (33) क्षत्रियविद्या (क्षत्रियों की शस्त्रास्त्रचालन एवं यद्ध आदि की विद्या) (34) चन्द्रचरित (च गति आदि को बताने वाला शास्त्र), (35) सूर्यचरित (सूर्य की गति-चर्या को बताने वाला शास्त्र), (36) शुक्रचरित (शुक्रतारे की गति- चर्या को बताने वाला शास्त्र), (37) बृहस्पतिचरित (बृहस्पति मा की Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 709 ] [73 गुरु की चाल को बतानेवाला शास्त्र), (38) उल्कापात (उल्कापात का सूचक शास्त्र), (36) दिग्दाह (दिशादाह का सूचक शास्त्र) (40) मृगचक्र (ग्रामादि में प्रवेश के समय मगादि पशुओं के दर्शन का शुभाशुभफल बतानेवाला शास्त्र), (41) वायंसपरिमण्डल (कौए आदि पक्षियों के बोलने का शुभाशुभफल बतानेवाला शास्त्र), (42) पांसुवृष्टि (धूलिवर्षा का फलनिरूपक शास्त्र) (43) केशवृष्टि (केशवर्षा का फलप्रतिपादक शास्त्र), (44) मांसवृष्टि (मांसवर्षा का फलसूचक शास्त्र) (45) रुधिरवृष्टि (रक्त-वर्षा का फल-निरूपक शास्त्र), (46) वैताली (वैतालीविद्या, जिसके प्रभाव से अचेतन काष्ठ में भी चेतना-सी आ जाती है ), (47) अर्द्ध वैताली (वैताली विद्या की विरोधिनी विद्या, अथवा जिस विद्या के प्रभाव से उठाया हया दण्ड गिरा दिया जाए) (48) अवस्वापिनी (जागते मनुष्य को नींद में सुला देने वाली विद्या), (46) तालोद्घाटिनी (तालों को खोल देनेवाली विद्या), (50) श्वपाकी (चाण्डालों की विद्या), (51) शाबरी विद्या (52) द्राविड़ी' विद्या (53) कालिंगी विद्या, (54) गौरीविद्या (55) गान्धारी विद्या, (56) अवपतनी (नीचे गिरा देनेवालो विद्या), (57) उत्पतनी (ऊपर उठा-उड़ा देने वाली विद्या), (58) जम्भणी (जमुहाई लेने सम्बन्धी अथवा मकान, वृक्ष या पुरुष को कंपा (हिला) देनेवाली विद्या) (56) स्तम्भनी (जहाँ का तहाँ रोक देने-थमा देनेवाली विद्या), (60) श्लेषणी (हाथ पैर आदि चिपका देनेवाली विद्या), (61) आमयकरणी (किसी प्राणी को रोगी या ग्रहग्रस्त बना (62) विशल्यकरणी शरीर में प्रविष्ट शल्य को निकाल देने वाली विद्या, (63) प्रक्रमणी (किसी प्राणी को भूत-प्रेत आदि की बाधा–पीड़ा उत्पन्न कर देनेवाली विद्या) (64) अन्तर्धानी (जिस विद्या से अंजनादि प्रयोग करके मनुष्य अदृश्य हो जाए) और (65) आयामिनी (छोटी वस्तु को बड़ी बना कर दिखानेवाली विद्या) इत्यादि (इन और ऐसी ही) अनेक विद्याओं का प्रयोग वे (परमार्थ से अनभिज्ञ अन्यतीथिक या गृहस्थ अथवा स्वतीथिक द्रलिंगी साधु) भोजन (अन्न) और पेय पदार्थों के लिए, वस्त्र के लिए, पावास-स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए तथा अन्य नाना प्रकार के काम-भोगों की (सामग्री की) प्राप्ति के लिए करते हैं। वे इन (स्व-परहित के या सदनुष्ठान के) प्रतिकूल वक्र विद्यानों का सेवन करते हैं / वस्तुतः वे विप्रतिपन्न (मिथ्यादृष्टि से युक्त विपरीत बुद्धि वाले) एवं (भाषार्य तथा क्षेत्रार्य होते हुए भी अनार्यकर्म करने के कारण) अनार्य ही हैं। वे (इन मोक्षमार्ग-विघातक विद्याओं का अध्ययन और प्रयोग करके) मृत्यु का समय आने पर मर कर प्रासुरिक किल्बिषिक स्थान में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से आयु पूर्ण होते ही देह छूटने पर वे पुन: पुन: ऐसी योनियों में जाते हैं जहाँ वे बकरे की तरह मूक, या जन्म से अंधे, या जन्म से ही गूगे होते हैं। ७०६.-से एगतिम्रो मायहेउं वा णायहेउं वा प्रगारहेउं वा परिवारहेडं वा नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए अदुवा अणुगामिए 1, अदुवा उवचरए 2, अदुवा पाडिपहिए 3, अदुवा संधिच्छेदए 4, अदुवा गंठिच्छदेए 5, अदुवा उरभिए 6, अदुवा सोवरिए 7, अदुवा वागुरिए 8, अदुवा साउणिए 6, अदुवा मच्छिए 10, अदुवा गोपालए 11, अदुवा गोघायए 12, अदुवा सोणइए 13, अदुवा सोवणियंतिए 14 // से एगतिश्रो अणुगामियभावं पंडिसंधाय तमेव अणुगमियाणुगमिय हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं पाहारेति, इति से महया पाबेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति 1 // Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध से एगतियों उवचरगभावं पडिसंधाय तमेव उवचरित 2 हंता छेत्ता मेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता प्राहारं प्राहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति / __ से एगतियो पाडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव पडिपहे ठिच्चा हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता प्राहारं पाराहेति, इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति 3 / से एगतिमओ संधिच्छेदगभावं पडिसंधाय तमेव संधि छेत्ता भेत्ता जाव इति से महता पावेहि कम्मेहि प्रत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति 4 / से एगतियों गंठिच्छेदगभावं पडिसंधाय तमेव गाँठ छेत्ता भेत्ता जाव इति से महया पावेहि कम्मेहि अप्पाणं उवक्खाइत्ता भवति 5 / से एगतिलो उरम्भियभावं पडिसंधाय उरभं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति 6 / एसो अभिलावो सव्वस्थ / __ से एगतिलो सोयरियभावं पडिसंधाय महिसं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिमो वागुरियभावं पडिसंधाय मिगं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिम्रो साउणियभावं पडिसंधाय सउणि वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिनो मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति 10 / से एगतिमो गोघातगभावं पडिसंधाय गोणं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति 11 // से एगतिलो गोपालगभावं पडिसंधाय तमेव गोणं वा परिजविय परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति 12 / से एगतिलो सोवणियभावं पडिसंधाय सुणगं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति 13 // ___ से एगतिलो सोवणियंतियभावं पडिसंधाय मणुस्सं वा अन्नयर वा तसं पाणं हंता जाव आहारं आहारेति, इति से महता पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति 14 / ७०६-कोई पापी मनुष्य अपने लिए अथवा अपने ज्ञातिजनों के लिए अथवा कोई अपना घर बनाने के लिए या अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अथवा अपने नायक या परिचित जन तथा सहवासी या पड़ौसी के लिए निम्नोक्त पापकर्म का आचरण करने वाले बनते हैं-(१) अनुगामिक (धनादि हरण के लिए किसी व्यक्ति के पीछे लग जानेवाला) बनकर, अथवा (2) उपचरक (पाप Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 709 ] कृत्य करने के लिए किसी का सेवक) बनकर, या (3) प्रातिपथिक (धनादि हरणार्थ मार्ग में चल रहे पथिक का सम्मुखगामी पथिक) बनकर, अथवा (4) सन्धिच्छेदक (सेंध लगाकर घर में प्रवेश करके चोरी करनेवाला) बनकर, अथवा (5) ग्रन्थिच्छेदक (किसी की गांठ या जेब काटनेवाला) बनकर अथवा (6) औरभ्रिक (भेड़ चरानेवाला) बनकर, अथवा (7) शौकरिक (सूअर पालनेवाला) बनकर, या (8) वागुरिक (पारधी-शिकारी) बनकर, अथवा (8) शाकुनिक (पक्षियों को जाल में फंसानेवाला बहेलिया) बनकर, अथवा (10) मात्स्यिक (मछुआ-मच्छीमार) बनकर, या (11) गोपालक बनकर, या (12) गोधातक (कसाई) बनकर, अथवा (13) श्वपालक (कुत्तों को पालनेवाला) बनकर, या (14) शौवान्तिक (शिकारी कुत्तों द्वारा पशुओं का शिकार करके उनका अन्त करनेवाला) बनकर / / (1) कोई पापी पुरुष (ग्रामान्तर जाते हुए किसी धनिक के पास धन जानकर) उसका पीछा करने की नीयत से साथ में चलने की अनुकूलता समझा कर उसके पीछे-पीछे चलता है, और अवसर पा कर उसे (डंडे आदि से) मारता है, (तलवार आदि से) उसके हाथ-पैर आदि अंग काट देता है, (मुक्के आदि प्रहारों से उसके अंग चूर चूर कर देता है, (केश आदि खींच कर या घसीट कर) उसकी विडम्बना करता है, (चाबुक आदि से) उसे पीड़ित कर या डरा-धमका कर अथवा उसे जीवन से रहित करके (उसका धन लूट कर) अपना आहार उपार्जन करता है। इस प्रकार वह महान् (क्रू र) पाप कर्मों के कारण (महापापी के नाम से) अपने आपको जगत् में प्रख्यात कर देता है। (2) कोई पापी पुरुष किसी धनवान् को अनुचरवृत्ति, सेवकवृत्ति स्वीकार करके (विश्वास में लेकर) उसी (अपने सेव्य स्वामी) को मार-पीट कर, उसका छेदन, भेदन, एवं प्रहार करके, उसकी विडम्बना और हत्या करके उसका धनहरण कर अपना आहार उपार्जन करता है। इस प्रकार वह महापापी व्यक्ति बड़े-बड़े पापकर्म करके महापापी के रूप में अपने आपको प्रख्यात कर लेता है। (3) कोई पापी जीव किसी धनिक पथिक को सामने से आते देख उसी पथ पर मिलता है, तथा प्रातिपथिक भाव (सम्मुख आकर पथिक को लूटने की वृत्ति) धारण करके पथिका का मार्ग रोक कर (धोखे से उसे मारपीट, छेदन, भेदन करके तथा उसकी विडम्बना एवं हत्या करके उसका धन, लूट कर अपना आहार-उपार्जन करता है / इस प्रकार महापापकर्म करने से वह अपने आपको महापापी के नाम से प्रसिद्ध करता है। (4) कोई पापी जीव (धनिकों के घरों में सेंध लगा कर, धनहरण करने की वृत्ति स्वीकार कर तदनुसार) सेंध डाल कर उस धनिक के परिवार को मार-पीट कर, उसका छेदन, भेदन, ताड़न और प्रहार करके, उसे डरा-धमका कर, या उसकी विडम्बना और हत्या करके उसके धन को चुरा कर अपनी जीविका चलाता है / इस प्रकार का महापाप करने के कारण वह स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध करता है। (5) कोई पापी व्यक्ति धनाढ्यों के धन की गांठ काटने का धंधा अपना कर धनिकों की गांठ काटता रहता है / (उस सिलसिले में) वह (उस गांठ के स्वामी को) मारता-पीटता है, उसका छेदन-भेदन, एवं उस पर ताड़न-तर्जन करके तथा उसकी विडम्बना और हत्या करके उसका धन Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध हरण कर लेता है, और इस तरह अपना जीवन-निर्वाह करता है। इस प्रकार के महापाप के कारण वह स्वयं को महापापी के रूप में विख्यात कर लेता है। (6) कोई पापात्मा भेड़ों का चरवाहा बन कर उन भेड़ों में से किसी को या अन्य किसी भी त्रस प्राणी को मार-पीट कर, उसका छेदन-भेदन-ताड़न आदि करके तथा उसे पीड़ा देकर या उसकी हत्या करके अपनी आजीविका चलाता है / इस प्रकार का महापापी उक्त महापाप के कारण जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर लेता है। (7) कोई पापकर्मा जीव सूअरों को पालने का या कसाई का धन्धा अपना कर भैंसे, सूअर या दूसरे त्रस प्राणी को मार-पीट कर, उनके अंगों का छेदन-भेदन करके, उन्हें तरह-तरह से यातना देकर या उनका वध करके अपनी आजीविका का निर्वाह करता है / इस प्रकार का महान् पाप-कर्म करने के कारण संसार में वह अपने आपको महापापी के नाम से विख्यात कर लेता है। (8) कोई पापी जीव शिकारी का धंधा अपना कर मग या अन्य किसी त्रस प्राणी को मार-पीट कर, छेदन-भेदन करके, जान से मार कर अपनी जीविका उपार्जन करता है। इस प्रकार के महापापकर्म के कारण जगत् में वह स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर लेता है। (8) कोई पापात्मा बहेलिया बन कर पक्षियों को जाल में फंसाकर पकड़ने का धंधा स्वीकार करके पक्षी या अन्य किसी त्रस प्राणी को मारकर, उसके अंगों का छेदन भेदन करके, या उसे विविध यातनाएँ देकर उसका वध करके उससे अपनी आजीविका कमाता है / वह इस महान् पापकर्म के कारण विश्व में स्वयं को महापापी के नाम से प्रख्यात कर लेता है। (10) कोई पापकर्मजीवी मछुआ बनकर मछलियों को जाल में फंसा कर पकड़ने का धंधा अपना कर मछली या अन्य त्रस जलजन्तुओं का हनन, छेदन-भेदन, ताड़न आदि करके तथा उन्हें अनेक प्रकार से यातनाएँ देकर, यहाँ तक कि प्राणों से रहित करके अपनी आजीविका चलाता है। अतः वह इस महापाप कृत्य के कारण जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर लेता है। (11) कोई पापात्मा गोवंशघातक (कसाई) का धंधा अपना कर गाय, बैल या अन्य किसी भी त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन, ताड़न आदि करके उसे विविध यातनाएँ देकर, यहां तक कि उसे जीवनरहित करके उससे अपनी जीविका कमाता है। परन्तु ऐसे निन्द्य महापापकर्म करने के कारण जगत् में वह अपने आपको महापापी के रूप में प्रसिद्ध कर लेता है। (12) कोई व्यक्ति गोपालन का धंधा स्वीकार करके (कुपित होकर) उन्हीं गायों या उनके बछड़ों को टोले से पृथक् निकाल-निकाल कर बार-बार उन्हें मारता-पीटता तथा भूखे रखता है, उनका छेदन-भेदन आदि करता है, उन्हें कसाई को बेच देता है, या स्वयं उनकी हत्या कर डालता है, उससे अपनी रोजी-रोटी कमाता है। इस प्रकार के महापापकर्म करने से वह स्वयं महापापियों की सूची में प्रसिद्धि पा लेता है। (13) कोई अत्यन्त नीचकर्मकर्ता व्यक्ति कुत्तों को पकड़ कर पालने का धंधा अपना कर उनमें से किसी कुत्ते को या अन्य किसी त्रस प्राणी को मार कर, उसके अंगभंग करके या उसे यातना देकर, यहाँ तक कि उसके प्राण लेकर उससे अपनी आजीविका कमाता है। वह उक्त महापाप के कारण जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर लेता है। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 / 77 (14) कोई पापात्मा शिकारी कुत्तों को रख कर श्वपाक (चाण्डाल) वृत्ति अपना कर ग्राम आदि के अन्तिम सिरे पर रहता है और पास से गुजरने वाले मनुष्य या प्राणी पर शिकारी कुत्त छोड़ कर उन्हें कटवाता है फड़वाता है, यहां तक कि जान से मरवाता है / वह इस प्रकार का भयंकर पापकर्म करने के कारण महापापी के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है। ७१०–से एगतिलो परिसामझातो उद्वित्ता अहमेयं हंछामि त्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा लावगं वा कवोयगं वा कवि वा कविजलं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतियो केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं' अदुवा सुराथालएणं' गाहावतीणं वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साई भामेति, अण्णण वि अगणिकाएणं सस्साइं झामावेति, अगणिकाएणं सस्साई झामंतं पि अण्णं समणुजाणति, इति से महता पाहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिलो केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव धुरानो कप्पेति, अण्णेण वि कप्पावेति, कप्पंत पि अण्णं समणुजाणति, इति से महया जाव भवति / से एगतियो केणइ प्रादाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीणं वा गाहावतिपुत्ताणं वा उट्टसालानो वा गोणसालाप्रो वा घोडगसालाप्रो वा गद्दभसालानो वा कंटगबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेति, अण्णेण वि झामावेति, झामतं पि अन्नं समणुजाणइ, इति से महया जाव भवति / ___ से एगतियो केणइ प्रायाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीणं वा गाहावइपुत्ताणं वा कुडलं वा गुणं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरति, अन्नेण वि अवहरावेति, अवहरतं पि अन्नं समणुजाति, इति से महया जाव भवति / 1. खलदाणेण-चूणि सम्मत अर्थ-खलकेदाणं खलभिक्खं तदूर्ण दिण्णं, ण दिण्णं, तेण विरुद्धो-अर्थात्-तुच्छ वस्तु की भिक्षा दी, या कम दी, या नहीं दी, इस कारण विरुद्ध प्रतिकूल होकर / वृत्ति सम्मत अर्थ-खलस्य कुथितादि विशिष्टस्य दानम्, खलके वाल्पधान्यादेनिं खलदानम् तेन कुपितः / अर्थात् सड़ीगली, तुच्छ आदि खराव वस्तु का दान, अथवा दुष्ट--खल देखकर अल्पधान्य प्रादि का दान देना खलदान है, इसके कारण कूपित होकर / 2. सुराथालएणं-चूर्णिमम्मत अर्थ--थालगेण सुरा पिज्जति, तन्थ परिवाडीए आवेट्ठस्स वारो ण दिण्णो, उट्ठवितो वा, तेण विरुद्धो / अर्थात--सुरापान करने के पात्र (ध्याली) से सुरा (मदिरा) पी जा सकती है। अतः मदिरापान के समय पंक्ति में बैठे हुए उस व्यक्ति की सुरापान करने की बारी नहीं आने दी या उसे पंक्ति में से उठा दिया, इस अपमान के कारण विरुद्ध होकर, वृत्तिसम्मत अर्थ--सुरायाःस्थालक कोशकादि, तेन विवक्षितलाभाभावात कुपितः / अर्थात--सुरापान करने का स्थालक-चषक--(प्याला) आदि पात्र, उससे अभीष्ट लाभ न होने से कुपित होकर। -सूत्रकृतांग (मूलपाठ टिप्पण युक्त) पृ. 169 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] [ सूत्र कृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध से एगइनो केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाण अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लद्विगं वा भिसिगं वा वेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मगं वा चम्मच्छेदणगं वा चम्मकोसं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणति इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिनो णो वितिगिछइ, तं०-गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं प्रोसहीमो झामेति जाव अण्णं पि झामतं समणुजाणति इति से महया जाव भवति / __ से एगतिमो णो वितिगिछति, तं०-गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घरानो कप्पेति, अण्णण वि कप्पावेति, अण्णं पि कम्तं समणुजाणति / से एगतिम्रो णो वितिगिछति, तं०-गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा उट्टसालानो वा जाव गद्दभसालानो वा कंटकबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेति जाव समणुजाणति / ___ से एगतिमो णो वितिगिछति, [तं०-] गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा कोण्डलं वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणति / से एगतिमो णो वितिगिछति, [सं०-] समणाण वा माहणाण वा दंडगं वा जाव चम्मच्छेदणगं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणति, इति से महता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिलो समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविधेहिं पावकम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति, अदुवा णं अच्छराए अप्फालेता भवति, अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवति, कालेण वि से अणुपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवति, जे इमे भवंति वोणमंता भारोक्कता अलसगा वसलगा किमणगा समणगा पव्वयंती ते इणमेव जीवितं धिज्जीवितं संपडिबूहंति, नाइं ते पारलोइ[य]स्स अट्ठस्स किंचि वि सिलिस्संति, ते दुक्खंति ते सोयंति ते जरंति ते तिप्पंति ते पिटें (ड्डं)ति ते परितप्पति ते दुक्खण-सोयण-जूरण-तिप्पण-पिट्ट (ड्ड)ण-परितप्पण-वह-बंधणपरिकिलेसातो अपडिविरता भवंति, ते महता प्रारंभेणं ते महया समारंभेणं ते महता प्रारंभसमारंभेणं विरूविरूवेहि पावकम्मकिच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजित्तारो भवंति, तंजहा-- अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं क्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले, सपुवावरं च णं हाते कतबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसा हाते कंठेमालकडे प्राविद्धमणिसुवण्णे कप्पितमालामउली पडिबद्धसरीरे वग्धारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे अहतवस्थपरिहिते चंदणो विखत्तगायसरीरे महति महालियाए कूडागारसालाए महतिमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिवुडे, सवरातिएणं जोइणा झियायमाणेणं महताहतनट्ट-गीत-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंगपडुप्पवाइतरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति, तस्स णं एगवि प्राणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेव अभुट्ठति, भण देवाणुप्पिया! किं करेमो ? कि प्राहरेमो ? कि उवणेमो ? किं प्रावि टुवेमो! किं भे हिय इच्छितं ? किं भे प्रासगस्स सदइ ? तमेव पासित्ता Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 ] प्रणारिया एवं वदंति–देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे, अण्णे वि णं उवजीवंति, तमेव पासित्ता प्रारिया वदंति-अभिक्कतकरकम्मे खलु अयं पुरिसे अतिधुन्ने अतिप्रातरक्खे दाहिणगामिए' नेरइए कण्हपक्खिए प्रागमिस्साणं दुल्लभबोहिए यावि भविस्सइ। इच्चेयस्स ठाणस्स उद्विता वेगे अभिगिझंति, अणुद्विता वेगे अभिगिन्झंति, अभिझंझाउरा अभिगिझति, एस ठाणे प्रणारिए अकेवले अप्पडिपुण्णे अणेप्राउए असंसुद्ध असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिन्वाणमग्गे अणिज्जाणमग्गे असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू / एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते। 710-(1) कोई व्यक्ति सभा में खड़ा होकर प्रतिज्ञा करता है—'मैं इस प्राणी को मारूंगा'। तत्पश्चात् वह तीतर, बतख, लावक, कबूतर, कपिजल या अन्य किसी त्रसजीव को मारता है, छेदनभेदन करता है, यहां तक कि उसे प्राणरहित कर डालता है। अपने इस महान् पापकर्म के कारण वह स्वयं को महापापी के नाम से प्रख्यात कर देता है। (2) कोई (प्रकृति से क्रोधी) पुरुष किसी (अनिष्ट शब्दरूप आदि आदान) कारण से अथवा सड़े गले, या थोड़ा-सा हलकी किस्म का अन्न आदि दे देने से अथवा किसी दूसरे पदार्थ (सुरास्थालकादि) से अभीष्ट लाभ न होने से (अपने स्वामी गृहपति आदि से) विरुद्ध (नाराज या कुपित) हो कर उस गृहपति के या गृहपति के पुत्रों के खलिहान में रखे शाली, व्रीहि जो, गेहूँ आदि धान्यों को स्वयं आग लगाकर जला देता अथवा दूसरे से आग लगवा कर जलवा देता है, उन (गृहस्थ एवं गृहस्थ के पुत्रों) के धान्य को जलानेवाले (दूसरे व्यक्ति को) अच्छा समझता है। इस प्रकार के महापापकर्म - के कारण जगत् में वह अपने आपको महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है। (3) कोई (असहिष्ण) पुरुष अपमानादि प्रतिकूल शब्दादि किसी कारण (आदान) से, अथवा सड़ेगले या तुच्छ या अल्प अन्नादि के देने से या किसी दूसरे पदार्थ (सुराथालक आदि) से अभीष्ट लाभ न होने से उस गृहस्थ या उसके पुत्रों पर कुपित (नाराज या विरुद्ध) होकर उनके ऊँटों, गायों-बैलों, घोड़ों, गधों के जंघा आदि अंगों को स्वयं (कुल्हाड़ी आदि से) काट देता है, दूसरों से उनके अंग कटवा देता है, जो उन गृहस्थादि के पशुओं के अंग काटता है, उसे अच्छा समझता है / इस महान पापकर्म के कारण वह जगत में अपने आपको महापापी के रूप में प्रसिद्ध कर देता है। (4) कोई (अतिरौद्र) पुरुष किसी अपमानादिजनक शब्दादि के कारण से, अथवा किसी गृहपतिद्वारा खराब या कम अन्न दिये जाने अथवा उससे अपना इष्ट स्वार्थ-सिद्ध न होने से उस पर अत्यंत बिगड़ कर उस गृहस्थ की अथवा उसके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, अश्वशाला अथवा गर्दभशाला 1. दाहिणगामिए, नेरइए कण्हपक्खिए-दाक्षिणात्य नरक, तिर्यन्च मनुष्य और देवों में उत्पन्न होने वाला दक्षिणगामी,नैरयिक और कृष्णपक्षी होता है। सिद्धान्तानुसार-दिशाओं में दक्षिण दिशा; गतियों में नरकगति; पक्षों में कृष्णपक्ष अप्रशस्त माने जाते हैं / —शी. वृत्ति 225 2. आगमिस्साणं-आगामी तीर्थंकरों के तीर्थ में मनुष्यभव पाकर दुर्लभबोधि होता है / —सू. चू. (मू.पा.टि.) पृ. 173 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध को कांटों की शाखाओं (डालियों) से ढक कर स्वयं उसमें आग लगा कर जला देता है, दूसरों से जलवा देता है या जो उनमें आग लगा कर जला देने वाले को अच्छा समझता है। इस प्रकार के महापाप के कारण वह स्वयं को महापापी के नाम से विख्यात कर देता है। (5) कोई (अत्यन्त उन) व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल शब्दादि के कारण, अथवा गृहपति द्वारा खराब, तुच्छ या अल्प अन्न आदि दिये जाने से अथवा उससे अपने किसी मनोरथ की सिद्धि न होने से उस पर क्रुद्ध होकर उस के या उसके पुत्रों के कुण्डल, मणि या मोती को स्वयं हरण करता है, दूसरे से हरण कराता है, या हरण करनेवाले को अच्छा जानता है / इस प्रकार महापाप के कारण जगत् में वह महापापी के रूप में स्वयं को प्रसिद्ध कर देता है। (6) कोई (द्वेषी) पुरुष श्रमणों या माहनों के किसी भक्त से सड़ा-गला, तुच्छ या घटिया या थोड़ा सा अन्न पाकर अथवा मद्य को हंडिया न मिलने से या किसी अभीष्ट स्वार्थ के सिद्ध न होने से अथवा किसी भी प्रतिकूल शब्दादि के कारण उन श्रमणों या माहनों के विरुद्ध (शत्रु) होकर उनका छत्र, दण्ड, उपकरण, पात्र, लाठी, प्रासन, वस्त्र, पर्दा (चिलिमिली या मच्छरदानी), चर्म, चर्म-छेदनक (चाक) या चर्मकोश (चमड़े की थैली) स्वयं हरण कर लेता है, दूसरे से हरण करा लेता है, अथवा हरण करने वाले को अच्छा जानता है / इस प्रकार (अपहरण रूप) महापाप के कारण वह स्वयं को महापापी के रूप में प्रसिद्ध कर देता है। (7) कोई-कोई व्यक्ति तो (अपने कुकृत्य के इहलौकिक पारलौकिक फल का) जरा भी विचार नहीं करता, जैसे कि वह अकारण ही गृहपति या उनके पुत्रों के अन्न आदि को स्वयमेव आग लगा कर भस्म कर देता है, अथवा वह दूसरे से आग लगवा कर भस्म करा देता है, या जो प्राग लगा कर भस्म करता है, उसे अच्छा समझता है। इस प्रकार महापापकर्म उपार्जन करने के कारण जगत् में वह महापापी के रूप में बदनाम हो जाता है। (8) कोई-कोई व्यक्ति अपने कृत दुष्कर्मों के फल का किचित् भी विचार नहीं करता, जैसे कि-वह अकारण ही किसी गृहस्थ या उसके पुत्रों के ऊंट, गाय, घोड़ों या गधों के जंधादि अंग स्वयं काट डालता है, या दूसरे से कटवाता है, अथवा जो उनके अंग काटता है, उसकी प्रशंसा एवं अनुमोदना करता है। अपनी इस पापवृत्ति के कारण वह महापापी के नाम से जगत् में पहिचाना जाता है। (1) कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जो स्वकृतकों के परिणाम का थोड़ा-सा विचार नहीं करता, जैसे कि वह (किसी कारण के बिना ही अपनी दुष्टप्रकृतिवश) किसी गहस्थ या उनके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, घुड़साल या गर्दभशाला को सहसा कंटीली झाड़ियों या डालियों से ढंक कर स्वयं आग लगाकर उन्हें भस्म कर डालता है, अथवा दूसरे को प्रेरित करके भस्म करवा को डालता है, या जो उनकी उक्त शालाओं को इस प्रकार आग लगा कर भस्म करता है, उसको अच्छा समझता है। (10) कोई व्यक्ति पापकर्म करता हुआ उसके फल का विचार नहीं करता। वह अकारण ही गृहपति या गृहपतिपुत्रों के कुण्डल, मणि, या मोती श्रादि को स्वयं चुरा लेता है, या दूसरों से चोरी करवाता है, अथवा जो चोरी करता है, उसे अच्छा समझता है / Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 ] [81 (11) कोई (पापकर्म में धृष्ट) व्यक्ति स्वकृत दुष्कर्मों के फल का जरा भी विचार नहीं करता / वह अकारण ही (श्रमणादि-द्वषी बन कर) श्रमणों या माहनों के छत्र, दण्ड, कमण्डलु, भण्डोपकरणों से लेकर चर्मछेदनक एवं चर्मकोश तक साधनों का स्वयं अपहरण कर लेता है, औरों से अपहरण करता है और जो अपहरण करता है, उसे अच्छा समझता है / इस प्रकार की महती पापवृत्ति के कारण वह जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है। (11) ऐसा कोई (पापसाहसी) व्यक्ति श्रमण और माहन को देख कर उनके साथ अनेक प्रकार के पापमय व्यवहार करता है और उस महान् पापकर्म के कारण उसकी प्रसिद्धि महापापी के रूप में हो जाती है। अथवा वह (मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति साधुदर्शन को अपशकुन मान कर साधु को अपने सामने से हटाने के लिए) चुटकी बजाता है अथवा (o प्रोदनमुण्ड ! व्यर्थकाय-क्लेशपरायण ! दुर्बुद्ध ! हट सामने से) इस प्रकार के कठोर वचन बोलता है / भिक्षाकाल में भी अगर साधु उसके यहाँ दूसरे भिक्षुओं के पीछे भिक्षा के लिए प्रवेश करता है, तो भी वह साधु को स्वयं आहारादि नहीं देता दूसरा, कोई देता हो तो (विद्वेषवश) उसे यह कह कर भिक्षा देने से रोक देता है-ये पाखण्डी (घास और लकडी का) बोभा होते थे या नीच कर्म करते थे. कटान / के या बोझे के भार से (घबराए हुए) थे / ये बड़े आलसी हैं, ये शूद्र (वृषल) हैं, दरिद्र (कृपण, निकम्मे बेचारे एवं दीन) , (कुटुम्ब पालन में असमर्थ होने से सुखलिप्सा से) ये श्रमण एवं प्रवजित हो गए हैं। वे (साधुद्रोही) लोग इस (साधुद्रोहमय) जीवन को जो वस्तुत: धिम्जीवन है, (उत्तम बता कर) उलटे इसकी प्रशंसा करते हैं। वे साधुद्रोहजीवी मूढ़ परलोक के लिए भी कुछ भी साधन नहीं करते ; वे दुःख पाते हैं, वे शोक पाते हैं, वे पश्चात्ताप करते हैं, वे क्लेश पाते हैं, वे पीड़ावश छाती-माथा कूटते हैं, सन्ताप पाते हैं, वे दुःख, शोक पश्चात्ताप, क्लेश, पीड़ावश सिर पीटने आदि की क्रिया, संताप, वध, बन्धन प्रादि परिक्लेशों से कभी निवृत्त नहीं होते / वे महारम्भ और महासमारम्भ नाना प्रकार के पाप कर्मजनक कुकृत्य करके उत्तमोत्तम (उदार = प्रधान) मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते है। जैसे कि वह आहार के समय (सरस स्वादिष्ट) आहार का, पीने के समय (उत्तम) पेय पदार्थों का, वस्त्र परिधान के समय वस्त्रों का, आवास के समय (सुन्दर सुसज्जित) आवासस्थान (भवन) का, शयन के समय (उत्तम-कोमल) शयनीय पदार्थों का उपभोग करते हैं। वह प्रात और सायंकाल स्नान करते हैं फिर देव-पूजा के रूप में बलिकर्म करते चढ़ावा चढ़ाते हैं, देवता की प्रारती करके मंगल के लिए स्वर्ण, चन्दन, दही, अक्षत और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थों का स्पर्श करते हैं, फिर प्रायश्चित्त के लिए शान्तिकर्म करते हैं। तत्पश्चात् सशीर्ष स्नान करके कण्ठ में माला धारण करते हैं। वह मणियों (रत्नों) और सोने (के प्राभूषणों) को अंगों में पह्नता है, (फिर) सिर पर पुष्पमाला से युक्त मुकुट धारण करता है। (युवावस्था के कारण) वह शरीर से सुडौल एवं हृष्टपुष्ट होता है। वह कमर में करधनी (कन्दोरा) तथा वक्षस्थल पर फूलों की माला (गजरा) पहनता है। बिलकुल नया और स्वच्छ वस्त्र पहनता है / अपने अंगों पर चन्दन का लेप करता है / इस प्रकार सुसज्जित होकर अत्यन्त ऊंचे विशाल प्रासाद (कुटागारशाला) में जाता है। वहाँ वह बहुत बड़े भव्य सिंहासन पर बैठता है। वहाँ (शृंगारित व वस्त्राभूषणों से सुसज्जित) युवतियां (दासी आदि अन्य परिवार सहित) उसे घेर लेती हैं। वहाँ सारी रातभर दीपक आदि का प्रकाश जगमगाता रहता है। फिर वहाँ बड़े जोर से नाच, गान, वाद्य, वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग तथा करतल आदि की, ध्वनि Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध होने लगती है। इस प्रकार उत्तमोत्तम (उदार) मनुष्यसम्बन्धी भोगों का उपभोग करता हुआ वह पुरुष अपना जीवन व्यतीत करता है / वह व्यक्ति जब किसी एक नौकर को प्राज्ञा देता है तो चारपाँच मनुष्य विना कहे ही वहाँ आकर सामने खड़े हो जाते हैं, (और हाथ जोड़ कर पूछते हैं-) "देवों के प्रिय ! कहिये, हम अापकी क्या सेवा करें ? क्या लाएं, क्या भेंट करें ?, क्या-क्या कार्य करें ? आपको क्या हितकर है, क्या इष्ट (इच्छित) है ? आपके मुख को कौन-सी वस्तु स्वादिष्ट लगती है ? बताइए।" उस पुरुष को इस प्रकार सुखोपभोगमग्न देख कर अनार्य (शुद्धधर्माचरण से दूर = अनाड़ी) लोग यों कहते हैं-यह पुरुष तो सचमुच देव है ! यह पुरुष तो देवों से भी श्रेष्ठ (स्नातक) है। यह मानव तो देवों का-सा जीवन जी रहा है (अथवा देवों के समान बहुत-से लोगों के जीवन का आधार है)। इसके आश्रय से अन्य लोग भी आनन्दपूर्वक जीते हैं। किन्तु इस प्रकार (भोगविलास में डूबे हुए) उसी व्यक्ति को देख कर आर्य पुरुष (विवेकीमिष्ठ) कहते हैं-यह पुरुष तो अत्यन्त क्रू र कर्मों में प्रवृत्त है, अत्यन्त धूर्त है (अथवा संसारभ्रमणकारी धूतों = कर्मों से अतिग्रस्त है), अपने शरीर की यह बहुत रक्षा (हिफाजत) करता है, यह दक्षिणदिशावर्ती नरक के कृष्णपक्षी नारकों में उत्पन्न होगा। यह भविष्य में दुर्लभबोधि प्राणी होगा। कई मूढ़ जीव मोक्ष के लिए उद्यत (साधुधर्म में दीक्षित) होकर भी इस (पूर्वोक्त) स्थान (विषय सुखसाधन) को पाने के लिए लालायित हो जाते हैं / कई गृहस्थ (अनुत्थित-संयम में अनुद्यत) भी इस (अतिभोगग्रस्त) स्थान (जीवन) को पाने की लालसा करते रहते हैं। कई अत्यन्त विषयसुखान्ध या तृष्णान्ध मनुष्य भी इस स्थान के लिए तरसते हैं। (वस्तुतः) यह स्थान अनार्य (अनार्य अाचरणमय होने से प्रार्यपुरुषों द्वारा अनाचरणीय) है, केवलज्ञान-रहित (या अशुद्ध) है, परिपूर्णसुखरहित (सद्गुण युक्त न होने से अपूर्ण-तुच्छ) है, सुन्यायवृत्ति से रहित है, संशुद्धि-पवित्रता से रहित है, मायादि शल्य को काटने वाला नहीं है, यह सिद्धि (मोक्ष) मार्ग नहीं है, यह मुक्ति (समस्त कर्मक्षयरूप मुक्ति) का मार्ग नहीं है, यह निर्वाण का मार्ग नहीं है, यह निर्याण (संसारसागर से पार होने) का मार्ग नहीं है. यह सर्वदुःखों का नाशक मार्ग नहीं है, यह एकान्त मिथ्या और असाधु स्थान है। यही अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान का विकल्प (विभंग) है, ऐसा (तीर्थंकरदेव ने कहा है / विवेचन---अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान के विकल्प:-प्रस्तुत तीन लम्बे सूत्रपाठों (708 से 710 तक) में शास्त्रकार अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विस्तारपूर्वक मुख्यतया पन्द्रह विकल्प प्रस्तुत करते हैं(१) अधर्मपक्षीय लोगों द्वारा अपनाई जानेवाली सावध विद्याएँ। उनके द्वारा अपनाए जाने वाले पापमय व्यवसाय / (3) उनके पापमय ऋ र आचार-विचार एवं व्यवहार / (4) उनकी विषयसुखभोगमयी चर्या / / (5) उनके विषय में अनार्यों एवं आर्यों के अभिप्राय / (6) अधर्मपक्षीय अधिकारी और स्थान का स्वरूप। सावध विद्याएँ-अधर्मपक्षीय लोग अपनी-अपनी रुचि, दृष्टि या मनोवृत्ति के अनुसार भौम Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 ] से लेकर ग्रायामिनी तक 64 प्रकार की सावध (पापमय) विद्याओं का तथा उनके प्रतिपादक शास्त्रों, ग्रन्थों आदि का अध्ययन करते हैं।' __ पापमय व्यवसाय कई अधर्मपक्षीय लोग अपने तथा परिवार आदि के लिए आनुगामिक से लेकर शौवान्तिक तक 14 प्रकार के व्यवसायिकों में से कोई एक बन कर अपना पापमय व्यवस हैं / वे इन पापमय व्यवसायों को अपनाने के कारण जगत् में महापापी के नाम से प्रसिद्ध हो जाते हैं / .. पापमय क्रूर प्राचार-विचार और व्यवहार-इन अधर्मपक्षीय लोगों के पापमय प्राचार विचार और व्यवहार के सम्बन्ध में सूत्रसंख्या 710 में ग्यारह विकल्प प्रस्तुत किये हैं। वे संक्षेप में इस प्रकार हैं--(१) सभा में किसी पंचेन्द्रिय प्राणी को मारने का संकल्प करके उसे मारना, (2) किसी व्यक्ति से किसी तुच्छकारणवश रुष्ट होकर अनाज के खलिहान में आग लगा या लगवा कर जला देना, (3) असहिष्णु बनकर किसी के पशुओं को अंगभंग करना या करा देना, (4) अतिरौद्र बनकर किसी की पशुशाला को झाड़ियों से ढक कर आग लगा या लगवा देना। (5) कुपित होकर किसी के कुण्डल, मणि आदि बहुमूल्य पदार्थों का हरण करना-कराना (6) अभीष्ट स्वार्थ सिद्ध न होने से क्रुद्ध होकर श्रमणों या माहनों के उपकरण चुराना या चोरी करवाना (7) अकारण ही किसी गृहस्थ की फसल में आग लगा या लगवा देना, (8) अकारण ही किसी के पशुओं का अंगभंग करना या करा देना / (8) अकारण ही किसी व्यक्ति की पशुशाला में कटीली झाड़ियों से ढक कर आग लगा या लगवा देना, (10) अकारण ही किसी गहस्थ के बहुमूल्य आभूषण या रत्न प्रादि चुरा लेना या चोरी करवाना, (11) साधु-द्रोही दुष्टमनोवृत्ति-वश साधुओं का अपमान, तिरस्कार करना, दूसरों के समक्ष उन्हें नीचा दिखाना, बदनाम करना आदि नीच व्यवहार करना, इन सब पापकृत्यों का भंयकर दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ता है / उनको विषयसुखभोगमयी चर्या-इसी सूत्र (710) में उन अधर्मपक्षीय लोगों के प्रातःकाल से लेकर रात्रि के शयनकाल तक की भोगी-विलासी जीवनचर्या का वर्णन भी किया गया है। उनके विषय में अनार्यों और प्रार्यों का अभिप्राय--अनार्य लोग उनकी भोगमग्न जिंदगी देख कर उन्हें देवतुल्य देव से भी श्रेष्ठ, आश्रितों का पालक आदि बताते हैं, आर्यलोग उनकी वर्तमान विषय सुखमग्नता के पीछे हिंसा आदि महान् पापों का परिणाम देखकर इन्हें क्रूरकर्मा, धूर्त, शरीरपोषक, विषयों के कीड़े आदि बताते हैं / __ अधर्मपक्ष के अधिकारी-शास्त्रकार ने तीन कोटि के व्यक्ति बताए हैं-(१) प्रव्रजित होकर इस विषयसुखसाधनमय स्थान को पाने के लिए लालायित, (2) इस भोगग्रस्त अधर्म स्थान को पाने की लालसा करनेवाले गृहस्थ और (3) इस भोगविलासमय जीवन को पाने के लिए तरसने वाले तृष्णान्ध या विषयसुखभोगान्ध व्यक्ति / अधर्मपक्ष का स्वरूप---इस अधर्मपक्ष को एकान्त अनार्य, अकेवल, अपरिपूर्ण आदि तथा एकान्त मिथ्या और अहितकर बताया गया है / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 318 से 326 तक का सारांश 2. वही, पत्रांक 318 से 326 तक का निष्कर्ष Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 [ सूत्रकृतागसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध धर्मपक्ष नामक द्वितीय स्थान के विकल्प---- ७११-प्रहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति----इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा—प्रारिया वेगे प्रणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे ह्रस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थणि परिम्गहियाणि भवंति, एसो पालाबगो तहा तव्वो जहा पोंडरीए' जाव सव्वोवसंता सव्वताए परिनिन्वुड त्ति बेमि / एस ठाणे पारिए केवले जाव सव्वदुक्खप्पहीणमम्गे एगंतसम्म साहू, दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते। ७११-इसके पश्चात् द्वितीय स्थान धर्मपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता है- इस मनुष्यलोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं, जैसे किकई आर्य होते हैं, कई अनार्य अथवा कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय, कई विशालकाय (लम्बे कद के) होते हैं, कई ह्रस्वकाय (छोटे-नाटे कद के) कई अच्छे वर्ण के होते हैं, कई खराब वर्ण के अथवा कई सुरूप (अच्छे डीलडौल के) होते हैं, कई कुरूप (बेडौल या अंगविकल)। उन मनुष्यों के खेत और मकान परिग्रह होते हैं। यह सब वर्णन जैसे 'पौण्डरीक' के प्रकरण में किया गया है, वैसा ही यहाँ (इस आलापक में) समझ लेना चाहिए। यहाँ से लेकर -- 'जो पुरुष समस्त कषायों से उपशान्त हैं, समस्त इन्द्रिय भोगों से निवत्त हैं, वे धर्मपक्षीय है, ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ'–यहाँ तक उसी (पौण्डरीक प्रकरणगत) आलापक के समान कहना चाहिए। यह (द्वितीय) स्थान प्रार्य है, केबलज्ञान की प्राप्ति का कारण हैं, (यहाँ से लेकर) 'समस्त दुःखों का नाश करनेवाला मार्ग है' (यावत्-तक)। यह एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान है। इस प्रकार धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान का विचार प्रतिपादित किया गया है / विवेचन-धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान के विकल्प–प्रस्तुत सूत्र में धर्मपक्षनामक द्वितीय स्थान के स्वरूप की झांकी दी गई है। तीन विकल्पों द्वारा इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है धर्मपक्ष के अधिकारी-इस सूत्र में सर्वप्रथम धर्मपक्ष के अधिकारीगण के कतिपय नाम गिनाए हैं, इन सबका निष्कर्ष यह है कि सभी दिशानों. देशों. आर्य-अनार्यवंशों. समस्त रंग-रूप वर्ण एवं जाति में उत्पन्न जन धर्ममक्ष के अधिकारी हो सकते हैं. / इस पर किसी एक विशिष्ट वर्ण, जाति. वंश, देश आदि का अधिकार नहीं है। हाँ, इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि अनार्यदेशोत्पन्न या अनार्यवंशज व्यक्तियों में जो दोष बताये गए हैं, उन दोषों से रहित उत्तम प्राचार में प्रवृत्त, मिष्ठजन ही धर्मपक्ष के अधिकारी होंगे / धर्मपक्षीय व्यक्तियों को अर्हताएँ-पौण्डरीक अध्ययन में जो अर्हताएँ दुर्लभ पुण्डरीक को 1. यहाँ 'जहा पोंडरीए' से 'परिग्गहियाणि भवंति' से आगे पुण्डरीक अध्ययन के सूत्र संख्या 667 के 'तंजहा —'अप्पयरा वा भुज्जयरा वा' से लेकर सूत्र संख्या 691 के 'ते एवं सब्वोवरता' तक का सारा पाठ समझ लेना चाहिए। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से पडिपुणे से लेकर 'सव्वदुक्खपहीणमग्गे' तक का पाठ समझ लेना चाहिए / 3. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 326 के आधार पर / Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 711 ] / 85 प्राप्त करनेवाले भिक्षु को प्रतिपादित की गई हैं, वे सब अर्हताएँ धर्मपक्षीय साधक में होनी आवश्यक है / यहाँ तक कि उसके समस्त कषाय उपशान्त होते हैं, तथा वह समस्त इन्द्रियविषयों की प्रासक्ति से निवृत्त होता है। धर्मपक्ष-स्थान का स्वरूप-यह पक्ष पूर्वोक्त अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान से ठीक विपरीत है। अर्थात्---यह स्थान आर्य, केवल, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्वाणमार्ग, निर्याणमार्ग, सर्वदुःख-प्रहीणमार्ग है / एकान्त सम्यक् है, श्रेष्ठ है / ' तृतीयस्थान : मिश्रपक्ष का अधिकारी एवं स्वरूप-- ७१२--प्रहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जति–जे इमे भवंति प्रारणिया गामणियंतिया कण्हुइराहस्प्तिता जाव ततो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तभूयत्ताए पच्चायंति, एस ठाणे प्रणारिए अकेवले जाव' असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छ असाहू, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिते / ७१२-इसके पश्चात् तीसरे स्थान मिश्रपक्ष का विकल्प (विभंग) इस प्रकार कहा जाता है—(इसके अधिकारी वे हैं) जो ये पारण्यक (वन में रहने वाले तापस) हैं, यह जो ग्राम के निकट झोपड़ी या कुटिया बना कर रहते हैं, अथवा किसी गुप्त (रहस्यमय) क्रिया का अनुष्ठान करते हैं, या एकान्त में रहते हैं, यावत् (वे पूर्वोक्त प्राचार-विहार वाले शब्दादि काम-भोगों में आसक्त होकर कुछ वर्षों तक उन विषयभोगों का उपभोग करके आसुरी किल्विषी योनि में उत्पन्न होते हैं) फिर वहाँ से देह छोड़कर इस लोक में बकरे की तरह मूक के रूप में या जन्मान्ध (द्रव्य से अन्ध एवं से अज्ञानान्ध) के रूप में आते (जन्म लेते) हैं / (वे जिस मार्ग का प्राश्रय लेते हैं, उसे 'मिश्रस्थान' कहते हैं।) यह स्थान अनार्य (आर्यपुरुषों द्वारा अनाचरणीय) है, केवलज्ञान-प्राप्ति से रहित है, यहाँ तक कि (पूर्वोक्त पाठानसार) यह समस्त द:खों से मुक्त करानेवाला मार्ग नहीं है। यह स्थान एकान्त मिथ्या और बुरा (असाधु) है। इस प्रकार यह तीसरे मिश्रस्थान का विचार (विभंग) कहा गया है। विवेचन-तृतीय स्थानः मिश्रपक्ष का अधिकारी एवं स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में मिश्रित पक्ष के स्वरूप तथा उसके अधिकारी का निरूपण किया गया है / मिश्रपक्ष- इस स्थान को मिश्रपक्ष इसलिए कहा गया है कि इसमें न्यूनाधिक रूप में पुण्य और पाप दोनों रहते हैं। इस पक्ष में पाप की अधिकता, और पुण्य की यत्किञ्चित् स्वल्प मात्रा रहती है / वृत्तिकार कहते हैं कि यद्यपि इसके अधिकारी मिथ्यादृष्टि होते हैं, और वे अपनी दृष्टि के अनुसार हिंसा आदि से निवृत्ति करते हैं, तथापि मिथ्यात्व युक्त होने- अशुद्ध होने से ऊपर भूमि पर वर्षा की तरह या नये-नये पित्तप्रकोप में शर्करा-मिश्रित दुग्धपान की तरह विवक्षित अर्थ (मोक्षार्थ) 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 326 का सारांश 2. यहाँ 'जाव' शब्द से ‘णोबहुसंजया' से 'उववत्तारो भवंति' तक का सारा पाठ सूत्र 706 के अनुसार समझें। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अकेवले' से लेकर 'असव्वदुक्खपहीणमग्गे' तक का पाठ सत्र 710 के अनुसार समझे। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध को सिद्ध नहीं करते, अतः उनकी निवृत्ति निरर्थक है। मिथ्यात्त्व के तीव्र प्रभाव के कारण मिश्रपक्ष को अधर्म ही समझना चाहिए। अधिकारी--इसके अधिकारी कन्दमूलफलभोजी तापस आदि हैं। ये किसी पापस्थान से किञ्चित् निवृत्त होते हुए भी इनकी बुद्धि प्रबलमिथ्यात्व से ग्रस्त रहती है। इनमें से कई उपवासादि तीव्र कायक्लेश के कारण देवगति में जाते हैं, परन्तु वहाँ अधम आसुरी योनि में उत्पन्न होते हैं / ' प्रथमस्थान : अधर्मपक्ष : वृत्ति, प्रवृत्ति एवं परिणाम-- ७१३--प्रहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति-इह खलु पाईणं वा 4 संगतिया मणुस्सा भवंति महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति / हण छिद भिद विगत्तगा लोहितपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया उक्कंचण-बंचण-माया-णियडि-कुड-कवड-सातिसंपयोगबहुला दुस्सीला दुव्वता दुप्पडियाणंदा असाधू सव्वातो पाणातिवायानो अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सव्वातो परिग्गहातो अपडिविरया जावज्जीवाए, सब्बातो कोहातो जाव मिच्छादसणसल्लातो अप्पडिविरया, सव्वातो ण्हाणुम्मद्दण-वण्णगविलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूब-गंध-मल्लालंकारातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, सव्वातो सगडरह-जाण-जुग्ग-गिहिल-थिल्लि-सीय-संदमाणिया-सयणा-ऽऽसण-जाण-वाहण-भोग-भोयणपवित्थर विहोतो अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वातो कय-विक्कय-मास-ऽद्धमास-रूवगसंयवहाराओ अप्पडिविरता जावज्जीवाए, सव्वातो हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धण्ण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-पवालाप्रो अप्पडिविरया, सव्वातो कूडतुल-कूडमाणाम्रो अप्पडिविरया, सम्वातो आरंभसमारंभातो अपडिविरया सव्वातो करण-कारावणातो अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वातो पयण-पयावणातो अप्पडिविरया, सव्वातो कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंधपरिकिलेसातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा सावज्जा प्रबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा जे प्रणारिएहि कज्जति ततो वि अप्पडिविरता जावज्जीवाए। से जहाणामए केइ पुरिसे कलम-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थ-मालिसंदग-पलिमंथगमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते तित्तिर-वट्टग-लावग-कवोतकविजल-मिय-महिस-वराह-गाह-गोह-कुम्म-सिरोसिवमादिएहिं अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति / जा वि य से बाहिरिया परिसा भवति, तंजहा-दासे ति वा पेसे ति वा भयए ति वा भाइल्ले ति वा कम्मकरए ति वा भोगपुरिसे ति वा तेसि पि य णं अन्नयरंसि प्रहालहुसगंसि प्रवराहसि सयमेव 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 327 2. देखिये दशाश्र तस्कन्ध में उल्लिखित प्रक्रियावादी के वर्णन से तुलना-"महिच्छे महारम्भे........"पागमेस्साणं दुल्लभबोधिते यावि भवति, से तं प्रकिरियावादी भवति। -दशाश्र त. अ.६ प्रथम उपासक प्रतिमावर्णन 3. तुलना--'प्रधम्मिया अधम्माणया....... अधम्मेणा चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति / --प्रोपपातिक सत्र सं 41 मक व प्रथम उपासक प्रतिमा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 713 ] [87 गरुयं दंडं निव्वत्तेई, तंजहा-इमं दंडेह, इमं मुडेह, इमं तज्जेह, इमं तालेह, इमं अदुयबंधणं करेह, इमं नियलबंधणं करेह, इमं हडिबंधणं करेह, इमं चारगबंधणं करेह, इमं नियलजुयलसंकोडियमोडियं करेह, इमं हत्थच्छिण्णयं करेह, इमं पायच्छिण्णयं करेह, इमं कण्णच्छिण्णयं' करेह. सीस-मुहच्छिण्णयं करेह, इमं नक्क-उदृच्छिण्णयं करेह, वेगच्छच्छिण्णयं करेह, हिययुप्पाडिययं करेह, इमं णयणुप्याडिययं करेह, इमं दसणुष्पाडिययं करेह, इमं बसणुपाडिययं करेह, जिन्भुष्पाडिययं करेह, पोलंबितयं करेह, उल्लंबिययं करेह, घसियं करेह, धोलियं करेह, सूलाइप्रयं करेह, सूलाभिषणयं करेह, खारवत्तियं करेह, वन्भवत्तियं करेह. दम्भवत्तियं करेह, सोहपुच्छियगं करेह, वसहपुच्छियगं कड ग्गिदड्डयं कागणिमंसखावितयं भत्तपाणनिरुद्धयं करेह, इमं जावज्जीवं वहबंधणं करेह, इमं अण्णतरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह। जा वि य से अभितरिया परिसा भवति, तंजहा-माता ती वा पिता ती वा भाया तो वा भगिणी ति वा भज्जा ति वा पुत्ता इ वा धृता इ वा सुण्हा ति वा, तेसि पि य णं अन्नयरंसि प्रहालहुसगंसि प्रवराहसि सयमेव गत्यं गंडं वत्तेति, सोयोदगवियांसि प्रोबोलेत्ता भवति जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिते परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति सोयंति जरंति तिप्पंति पिड्डंति परितप्पंति ते दुक्खण-सोयणजूरण-तिप्पण-पिट्ट (ड्ड)ण-परितप्पण-वह-बंधणपरिकिलेसातो अपडिविरया भवंति / एवामेव ते इस्थिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिता अज्झोववन्ना जाव वासाइं चउपंचमाई छद्दसमाइं बा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं भुजित्तु भोगभोगाई पसबित्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहूणि कूराणि कम्माई उस्सण्णं संभारकडेण कम्मणा से जहाणामए अयगोले ति वा सेलगोले ति वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमतिवतित्ता आहे धरणितलपइट्ठाणे भवति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते वज्जबहुले धुन्नबहुले पंकबहुले वेरबहुले अप्पत्तियबहुले दंभबहुले णिय डिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सणं तसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमतिवतित्ता आहे जरगतलपतिट्ठाणे भवति / ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधकारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्खत्त-जोतिसपहा मेद-वसा-मंस-रुहिर-पूयपडलचिखल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा, असुभा णरएसु वेदणाश्रो, नो चेव णं नरएसु नेरइया णिहायति वा पयलायति वा सायं वा रति वा धिति वा मति वा उवलभंति, ते णं तत्य उज्जलं विपुलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिन्वं दुरहियासं णिरयवेदणं पच्चणुभवमाणा विहरति / से जहाणामते रुक्खे सिया पव्वतग्गे जाते मूले छिन्ने अग्गे गरुए जतो निन्नं जतो विसमं जतो दुग्गं ततो पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते गम्भातो गभं, जम्मातो जम्म, मारामो मारं, गरगातो णरगं, दुक्खातो दुक्खं, दाहिणगामिए रइए कण्हपक्खिए प्रागमिस्साणं दुल्लभबोहिए यावि भवति, 3. तुलना-कण्णछिण्णका णक्कछिण्णका...."णयणुप्पाडियगा। --ौपपातिक सूत्र सं. 38 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खप्पहीणमम्गे एगंतमिच्छे असाहू / पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते। ७१३-इसके पश्चात् प्रथम, स्थान जो अधर्मपक्ष है, उसका विश्लेषणपूर्वक विचार इस प्रकार किया जाता है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो (कौटुम्बिक जीवन बितानेवाले) गृहस्थ होते हैं, जिनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं (महत्त्वाकांक्षाएं) होती हैं, जो महारम्भी एवं महापरिग्रही होते हैं। वे अधार्मिक (अधर्माचरण करने वाले), अधर्म का अनुसरण करने या अधर्म की अनुज्ञा देने वाले, अमिष्ठ (क्रूरतायुक्त अधर्म प्रधान, अथवा जिन्हें अधर्म ही इष्ट है), अधर्म की ही चर्चा करनेवाले, अधर्मप्रायः जीवन जीनेवाले, अधर्म को ही देखनेवाले, अधर्म-कार्यों में ही अनुरक्त, अधर्ममय शील (स्वभाव) और आचार (आचरण) वाले एवं अधर्म (पाप) युक्त धंधों से अपनी जीविका (वत्ति) उपार्जन करते हए जीवनयापन करते हैं / (उदाहरणार्थ-वे सदैव इस प्रकार की प्राज्ञा देते रहते हैं-) इन (प्राणियों) को (डंडे आदि से) मारो, इनके अंग काट डालो, इनके टुकड़े-टुकड़े कर दो (या इन्हें शूल आदि में बींध दो)। वे प्राणियों की चमड़ी उधेड़ देते हैं, प्राणियों के खून से उनके हाथ रंगे रहते हैं, वे अत्यन्त चण्ड (क्रोधी), रौद्र (भयंकर) और क्षुद्र (नीच) होते हैं, वे पाप कृत्य करने में अत्यन्त साहसी होते हैं, वे प्राय: प्राणियों को ऊपर उछाल कर शूल पर चढ़ाते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं, माया (छल-कपट) करते हैं, बकवृत्ति से दूसरों को ठगते हैं, दम्भ करते हैं (कहते कुछ और तथा करते कुछ और हैं), वे तौल-नाप में कम देते हैं, वे धोखा देने के लिए देश, वेष और भाषा बदल लेते हैं / 'वे दुःशील (दुराचारी या दुष्टस्वभाववाले), दुष्ट-व्रती (मांसभक्षण, मदिरापान आदि बुरे नियम वाले) और कठिनता से प्रसन्न किये जा सकने वाले (अथवा दुराचरण या दुर्व्यवहार करने में आनन्द मानने वाले) एवं दुर्जन होते हैं। जो आजीवन सब प्रकार की हिंसानों से विरत नहीं होते यहाँ तक असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से जीवनभर निवृत्त नहीं होते / जो क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पाप स्थानों से जीवन भर निवृत्त नहीं होते। वे आजीवन समस्त स्नान, तैल-मर्दन, सुगन्धित पदार्थों का लगाना (वर्णक), सुगन्धित चन्दनादि का चूर्ण लगाना, विलेपन करना, मनोहर कर्ण शब्द, मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का उपभोग करना पुष्पमाला एवं अलंकार धारण करना, इत्यादि सब (उपभोग-परिभोगों) का त्याग नहीं करते, जो समस्त गाड़ी (शकट), रथ, यान (जलयान आकाशयान-विमान, घोडागाडी ग्रादि स्थलयान) सवारी, डोली, आकाश की तरह अधर रखी जान वाली सवारी (पालकी) आदि वाहनों तथा शय्या, आसन, वाहन, भोग और भोजन आदि (परिग्रह) को विस्तृत करने (बढ़ाते रहने) की विधि (प्रक्रिया) के जीवन भर नहीं छोड़ते, जो सब प्रकार के क्रय-विक्रय तथा माशा, आधा माशा, और तोला आदि व्यवहारों से जीवनभर निवृत्त नहीं होते, जो सोना, चांदी, धन, धान्य, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल (मूगा) आदि सब प्रकार के (बहुमूल्य पदार्थों के) संग्रह से जीवन भर निवृत्त नहीं होते, जो सब प्रकार के खोटे तौल-नाप (कम तोलने-कम नापने, खोटे बाँट या गज मीटर आदि रखने) को आजीवन नहीं छोड़ते, जो सब प्रकार के प्रारम्भसमारम्भों का जीवनभर त्याग नहीं करते / वे सभी प्रकार के (सावद्य = पापयुक्त) दुष्कृत्यों को करनेकराने से जीवनभर निवृत्त नहीं होते, जो सभी प्रकार की पचन-पाचन (स्वयं अन्नादि पकाने तथा दूसरों से पकवाने) आदि (सावद्य) क्रियाओं से ग्राजीवन निवृत्त नहीं होते, तथा जो जीवनभर प्राणियों को कूटने, पीटने, धमकाने, प्रहार करने, वध करने और बाँधने तथा उन्हें सब प्रकार से Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान: द्वितीय अध्ययन : सूत्र 713 ] क्लेश (पीड़ा) देने से निवृत्त नहीं होते, ये तथा अन्य प्रकार के (परपीडाकारी) सावध कर्म हैं, जो बोधिबीजनाशक हैं, तथा दूसरे प्राणियों को संताप देने वाले हैं, जिन्हें कर कर्म करनेवाले अनार्य करते हैं, उन (दुष्कृत्यों) से जो जीवनभर निवृत्त नहीं होते, (इन सब पुरुषों को एकान्त अधर्मस्थान में स्थित जानना चाहिए।) जैसे कि कई अत्यन्त ऋ र पुरुष चावल, (या कलाई, गवार), मसूर, तिल, मूग, उड़द, निष्पाव (एक प्रकार का धान्य या वालोर) कुलत्थी, चंवला, परिमंथक (धान्यविशेष, काला चना) आदि (के हरे पौधों या फसल) को अपराध के बिना (अकारण) व्यर्थ (निष्प्रयोजन) ही दण्ड देते (हनन करते) हैं / इसी प्रकार तथाकथित अत्यन्त जर पुरुष तीतर, बटेर (या बत्तख), लावक, कबूतर, कपिजल, मृग, भैंसे, सूअर, ग्राह (घड़ियाल या मगरमच्छ), गोह, कछुपा, सरीसृप (जमीन पर सरक कर चलने वाले) ग्रादि प्राणियों को अपराध के बिना व्यर्थ ही दण्ड देते हैं / उन (क र पुरुषों) की जो बाह्य परिषद् होती है, जैसे दास, या संदेशवाहक (प्रष्य) अथवा दूत, वेतन या दैनिक वेतन पर रखा गया नौकर, (उपज का छठाभाग लेकर) बटाई (भाग) पर काम करने वाला अन्य काम-काज करने वाला (कर्मकर) एवं भोग की सामग्री देने वाला, इत्यादि / इन लोगों में से किसी का जरा-सा भी अपराध हो जाने पर ये (क्रूरपुरुष) स्वयं उसे भारी दण्ड देते हैं / जैसे कि-इस पुरुष को दण्ड दो या डंडे से पीटो, इसका सिर मूड दो, इसे डांटोफटकारो, इसे लाठी आदि से पोटो, इसकी बाँहें पीछे को बाँध दो, इसके हाथ-पैरों में हथकड़ी और बेड़ी डाल दो, उसे हाडीबन्धन में दे दो, इसे कारागार में बंद कर दो, इसे हथकड़ी-बेड़ियों से जकड़ कर इसके अंगों को सिकोड़कर मरोड़ दो, इसके हाथ काट डालो, इसके पैर काट दो, इसके कान काट लो, इसका सिर और मुंह काट दो, इसके नाक-ओठ काट डालो, इसके कंधे पर मार कर आरे से चीर डालो, इसके कलेजे का मांस निकाल लो, इसकी आँखें निकाल लो, इसके दाँत उखाड़ दो, इसके अण्डकोश उखाड़ दो, इसकी जीभ खींच लो, इसे उलटा लटका दो, इसे ऊपर या कुए में लटका दो, इसे जमीन पर घसीटो, इसे (पानी में) डबो दो या घोल दो, इसे शली में पिरो दो, इसके शूल चुभो दो, टुकड़े कर दो, इसके अंगों को घायल करके उस पर नमक छिड़क दो, इसे मृत्युदण्ड दे दो, (या चमड़ी उधेड़ कर उसे बंट कर रस्सा-सा बना दो), इसे सिंह की पूछ में बांध दो (या चमड़ी काट कर सिंह पुच्छ काट बना दो) या उसे बैल की पूछ के साथ बांध दो, इसे दावाग्नि में झौंक कर जला दो, (अथवा इसके चटाई लपेट कर आग से जला दो), इसका माँस काट कर कौओं को खिला दो, इस को भोजन-पानी देना बंद कर दो, इसे मार-पीट कर जीवनभर कैद में रखो, इसे इनमें से किसी भी प्रकार से बुरी मौत मारो, (या इसे बुरी तरह से मार-मार कर जीवनरहित कर दो)। इन क र पुरुषों की जो आभ्यन्तर परिषद होती है, वह इस प्रकार है जैसे कि--माता, पिता भाई, बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, अथवा पुत्रवधू आदि / इनमें से किसी का जरा-सा भी अपराध होने पर वे क्रूरपुरुष उसे भारी दण्ड देते हैं / वे उसे शर्दी के दिनों में ठंडे पानी में डाल देते हैं / जो-जो दण्ड मित्रद्वषप्रत्ययिक क्रियास्थान में कहे गए हैं, वे सभी दण्ड वे इन्हें देते हैं। वे ऐसा करके स्वयं अपने परलोक का अहित करते (शत्रु बन जाने) हैं / वे (क रकर्मा पुरुष) अन्त में दुःख पाते हैं, शोक करते हैं, पश्चात्ताप करते हैं, (या विलाप करते हैं), पीड़ित होते हैं, संताप पाते हैं, वे दुःख, शोक, विलाप (या पश्चात्ताप) पीड़ा, संताप, एवं वध-बंध आदि क्लेशों से निवृत्त (मुक्त नहीं हो पाते / Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ___ इसी प्रकार वे अधार्मिक पुरुष स्त्रीसम्बन्धी तथा अन्य विषयभोगों में मूच्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त (रचे-पचे, या ग्रस्त) तथा तल्लीन हो कर पूर्वोक्त प्रकार से चार, पाँच या छह या अधिक से अधिक दस वर्ष तक अथवा अल्प या अधिक समय तक शब्दादि विषयभोगों का उपभोग करके प्राणियों के साथ वैर का पुज बांध करके, बहुत-से करकर्मों का संचय करके पापकर्म के भार से इस तरह दब जाते हैं, जैसे कोई लोहे का गोला या पत्थर का गोला पानी में डालने पर पानी के तल (सतह) का अतिक्रमण करके भार के कारण (नीचे) पृथ्वीतल पर बैठ जाता है, इसी प्रकार (पापकर्मों के भार से दबा हुआ) अतिक र पुरुष अत्यधिक पाप से युक्त पूर्वकृत कर्मों से अत्यन्त भारी, कर्मपंक से अतिमलिन, अनेक प्राणियों के साथ बैर बाँधा हुआ, (या कुविचारों से परिपूर्ण), अत्यधिक अविश्वासयोग्य, दम्भ से पूर्ण, शठता या वंचना में पूर्ण, देश, वेष एवं भाषा को बदल कर धूर्तता करने में अतिनिपुण, जगत् में अपयश के काम करने वाला, तथा त्रसप्राणियों के घातक ; भोगों के दलदल में फंसा हुआ वह पुरुष प्रायुध्यपूर्ण होते ही मरकर रत्नप्रभादि भूमियों को लाँघ कर नीचे के नरकतल में जाकर स्थित होता है। __ वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोन (चतुष्कोण) होते हैं, तथा नीचे उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। उनमें सदा घोर अन्धकार रहता है। वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष्कमण्डल की प्रभा (प्रकाश) से रहित हैं। उनका भूमितल मेद, चर्बी, मांस, रक्त, और मवाद की परतों से उत्पन्न कीचड़ से लिप्त है / वे नरक अपवित्र, सड़े हुए मांस से युक्त, अतिदुर्गन्ध पूर्ण और काले हैं / वे सधूम अग्नि के समान वर्ण वाले, कठोर स्पर्श बाले और दुःसह्य हैं। इस प्रकार नरक बड़े अशुभ हैं और उनकी वेदनाएं भी बहुत अशुभ हैं। उन नरकों में रहने वाले नैरयिक न कभी निद्रासुख प्राप्त करते हैं, न उन्हें प्रचलानिद्रा आती है, और न उन्हें श्रुति (धर्मश्रवण), रति (किसी विषय में रुचि) धृति (धर्य) एवं मति (सोचने विचारने की बुद्धि) प्राप्त होती है। वे नारकीय जीव वहाँ कठोर, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, प्रचण्ड (उन), दुर्गम्य, दुःखद, तीन, दुःसह वेदना भोगते हुए अपना समय (आयुष्य) व्यतीत करते हैं / जैसे कोई वृक्ष पर्वत के अग्रभाग में उत्पन्न हो, उसकी जड़ काट दी गई हो, वह आगे से भारी हो, वह जिधर नीचा होता है, जिधर विषम होता है, जिधर दुर्गम स्थान होता है, उधर ही गिरता है, इसी प्रकार गुरुकर्मा पूर्वोक्त पापिष्ठ पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को तथा एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त करता है। वह दक्षिणगामी नैरयिक, कृष्णपाक्षिक तथा भविष्य में दुर्लभ-बोधि होता है। अतः यह अधर्मपक्षीय प्रथम स्थान अनार्य है, केवलज्ञानरहित है, यावत् समस्त दुःखों का. नाशक मार्ग नहीं है / यह स्थान एकान्त मिथ्या एवं बुरा (असाधु) है। इस प्रकार अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान का विचार किया गया है। विवेचन-प्रथमस्थानः अधर्मपक्ष : वृत्ति, प्रवृत्ति एवं परिणाम प्रस्तुत सूत्र में अधर्मपक्षी के अधिकारी-गृहस्थ की मनोवृत्ति, उसकी प्रवृत्ति और उसके परिणाम पर विचार प्रस्तुत किया है / . वृत्ति-प्रवृत्ति -अधर्मपक्ष के अधिकारी विश्व में सर्वत्र हैं। वे बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ रखते हैं, महारम्भी, महापरिग्रही एवं अमिष्ठ होते हैं / अठारह ही पापस्थानों में लिप्त रहते हैं / स्वभाव Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 714 ] से निर्दय, दम्भी, धोखेबाज, दुराचारी, छलकपट-निपुण, अतिक्रोधी, अतिमानी, अतिसाहसी एवं अतिरौद्र होते हैं। छोटी-छोटी बात पर ऋद्ध होकर अपने स्वजनों एवं अनुचरों को भयंकर बड़ा से बड़ा दण्ड दे बैठते हैं / वे पंचेन्द्रिय विषयों में गाढ आसक्त एवं काम-भोगों में लुब्ध रहते हैं। परिणाम-वे इहलोक में सदा दुःख, शोक, संताप, मानसिक क्लेश, पीड़ा, पश्चात्ताप आदि से घिरे रहते हैं, तथा यहाँ अनेक प्राणियों के साथ वैर बाँध कर, अधिकाधिक विषयभोगों का उपभोग करके कूटकर्म संचित करके परलोक में जाते हैं / वहाँ नीचे की नरक भूमि में उनका निवास होता है, जहाँ निद्रा, धृति, मति, रति, श्रुति, बोधि आदि सब लुप्त हो जाती हैं / असह्य वेदनाओं और यातनाओं में ही उसका सारा लम्बा जीवन व्यतीत होता है ! उसके पश्चात् भी चिरकाल तक वह संसार में परिभ्रमण करता है / द्वितीय स्थान-धर्मपक्ष : अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति, सुपरिणाम 714-- प्रहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंमा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुन्वता सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वातो पाणातिवायातो पडिविरता जावज्जीवाए जाव जे यावरणे तहप्पगारा सावज्जा प्रबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जति ततो वि पडिविरता जावज्जीवाए। से जहानामए अणगारा भगवंतो इरियासमिता भासासमिता एसणासमिता प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिता उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिता मणसमिता वइसमिता कायसमिता मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिदिया गुत्तबंभचारी अकोहा प्रमाणा अमाया प्रलोभा संता पसंता उवसंता परिणिन्वुडा प्रणासवा अगथा छिन्नसोता निरुवलेवा कंसपाई व मुक्कतोया, संखो इव णिरंगणा, जीवो इव अप्पडिहयगतो, गगणतलं पि व निरालंबणा, वायुरिव अपडिबद्धा, सारदसलिलं व सुद्धहियया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, कुम्मो इव गुत्तिदिया, विहग इव विष्पमुक्का, खग्गविसाणं व एमजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जातत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, मंदरो इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, जच्चकणगं व जातरूवा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुतहुयासणो विव तेयसा जलंता। ___णस्थि णं तेसि भगवंताणं कस्थइ पडिबंधे भवति, से य पडिबंधे चउम्विहे पण्णते, तं जहाअंडए ति वा पोयए इ वा उग्गहिए ति वा पग्गहिए ति वा, जण्णं जण्णं दिसं इच्छंति तण्णं तण्णं दिसं अप्पडिबद्धा सुइन्भूया लहुन्भूया अणुप्पगंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 328 ये 331 तक का निष्कर्ष 2. तुलना-औपपातिक सूत्र में यह पाठ प्राय: समान है। - प्रौप सू. 17 3. पाठान्तर-गुत्तागुत्त दिया गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधात्, अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिषु अनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते।" अर्थात-रागादि का निरोध होने से शब्दादि में जिनकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं, तथा प्रागमश्रवण, ईर्यासमिति ग्रादि में निरोध न होने से जिनकी इन्द्रियाँ अगुप्त हैं। - औपपातिक सू० वृत्ति पृ० 35 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध तेसि णं भगवंता णं इमा एतारूवा जायामायावित्ती होत्था, तं जहा-चउत्थे भत्ते, छटठे भत्ते, प्रटमे भत्ते, दसमें भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोद्दसमे भत्ते, प्रद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, चउम्मासिए भत्ते, पंचमासिए मत्ते, छम्मासिए भत्ते, प्रदुत्तरं च णं उक्खिसचरगा णिक्वित्तचरगा उक्खित्तणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लहचरगा समुदाणचरगा संसट्टचरगा असंसद्धचरगा तज्जातसंसद्धचरगा दिटुलाभिया अदिटुलाभिया पुटुलाभिया अपुट्ठलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अण्णातचरगा अनगिलातचरगा प्रोवणिहिता संखादत्तिया परिमितपिंडवातिया सुद्धसणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी पुरिमड्डिया प्राबिलिया निविगतिया अमज्ज-मंसासिणों णो णियामरसभोई ठाणादीता पडिमट्ठादी णेसज्जिया वीरासणिया दंडायतिया लगंडसाईणो पायावगा प्रवाउडा अकंडुया अणिठुहा धुतकेसमंसु-रोम-नहा सव्वगायपडिकम्मविप्पमक्का चिटठति। ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता प्राबाहंसि उप्पण्णास वा अणुप्पणंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाईति, [बहूई भत्ताइं] पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, बहूणि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता जस्सट्टाए कोरति नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणगे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्ध-माणावमाणणाम्रो होलणाम्रो निदणामो खिसणासो गरहगानो तज्जणाप्रो तालणाप्रो उच्चावया गामकंटगा बावीसं परोसहोक्सग्गा अहियासिज्जति तमझें पाराहेति, तमढं आराहिता चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहि अणंतं अणुत्तरं निवाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाण-दसणं समुष्पाति, समुप्पाडित्ता ततो पच्छा सिझति बुझंति मुच्चंति परिनिब्वायंति सम्वदुक्खाणं अंत करेंति, एगच्चा पुण एगे गंतारो भवंति, अवरे पुण पुवकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहामहिड्डीएसु महज्जुतिएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महब्बलेसु महाणभावेसु महासोक्खेसु, ते णं तत्थ देवा भवंति महिटिया महज्जुतिया जाय महासुक्खा हारविराइतवच्छा कडगतुडितथंभितभुया सं(अं? ) गयकुडलमट्टगंडतलकण्णपीढधारी विचित्तहत्थामरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगपवरवस्थपरिहिता कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासरबोंदी पलंबवणमालाधरा दिव्वेणं रूवेणं दिवेणं वणेणं दिव्वेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिवाए जुतीए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसानो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गतिकल्लाणा ठितिकल्लाणा प्रागमेस्समद्दया' वि भवंति, एस ठाणे पारिए जाव सम्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साधू / दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते / ७१४--इसके पश्चात् दूसरे धर्मपक्ष का विवरण इस प्रकार है इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ 1. आगमेसि भद्देति-'पागमेसभवग्गहणेसिज्झति'—भविष्य में मनुष्यभव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं। ----सू० चू० (मू. पा. टि.) पृ० 187 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 714 ] [ 93 (प्रारम्भरहित), अपरिग्रह (परिग्रहविरत) होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म को ही देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्माचारपरायण होते हैं, यहाँ तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवनयापन करते हैं, जो सुशील, सुव्रती, शीघ्रसुप्रसन्न होने वाले (सदानन्दी) और उत्तम सुपुरुष होते हैं / जो समस्त प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जीवनभर विरत रहते हैं। जो स्नानादि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, समस्त गाड़ी, घोड़ा, रथ आदि वाहनों से आजीवन विरत रहते हैं, क्रय-विक्रय पचन, पाचन सावधकर्म करने-कराने, आरम्भ-समारम्भ आदि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, स्वर्ण-रजत धनधान्यादि सर्वपरिग्रह से आजीवन निवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि वे परपीड़ाकारी समस्त सावद्य अनार्य कर्मों से यावज्जीवन विरत रहते हैं। वे धार्मिक पुरुष अनगार (गृहत्यागी) भाग्यवान् होते हैं। वे ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिका समिति, इन पाँच समितियों से युक्त होते हैं, तथा मनःसमिति, बचनसमिति, कायसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से भी युक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को पापों से गुप्त (सुरक्षित) रखते हैं, अपनी इन्द्रियों को विषयभोगों से गुप्त (सुरक्षित) रखते हैं, और ब्रह्मचर्य का पालन नौ गुप्तियों सहित करते हैं / वे क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित होते हैं। वे शान्ति तथा उत्कृष्ट (बाहर भीतर की) शान्ति से युक्त और उपशान्त होते हैं। वे समस्त संतापों से रहित, पाश्रवों से रहित, बाह्य-प्राभ्यन्तर-परिग्रह से रहित होते हैं, इन महात्माओं ने संसार के स्रोत (प्रवाह) का छेदन कर दिया है, ये कर्ममल के लेप से रहित होते हैं / वे जल के लेप से रहित कांसे की पात्री (बर्तन) की तरह कर्मजल के लेप से रहित होते हैं। जैसे शंख कालिमा (अंजन) से रहित होता है, वैसे ही ये महात्मा रागादि के कालुष्य से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति कहीं नहीं रुकती, वैसे ही उन महात्माओं की गति कहीं नहीं रुकती / जैसे गगनतल बिना अवलम्बन के ही रहता है, वैसे ही ये महात्मा निरवलम्बी (किसी व्यक्ति या धन्धे का अवलम्बन लिये बिना) रहते हैं। जैसे वायु को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही, ये महात्मा भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से रहित (अप्रतिबद्ध) होते हैं / शरद्काल के स्वच्छ पानी की तरह उनका हृदय भी शुद्ध और स्वच्छ होता है / कमल का पत्ता जैसे जल के लेप से रहित होता है, वैसे ही ये भी कर्म मल के लेप से दूर रहते हैं, वे कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त-सुरक्षित रखते हैं। जैसे आकाश में पक्षी स्वतन्त्र वहारी होता है, वैसे ही वे महात्मा समस्त ममत्त्वबन्धनों से रहित होकर आध्यात्मिक आकाश में स्वतन्त्रविहारी होते हैं। जैसे गेंडे का एक ही सींग होता है, वैसे ही वे महात्मा भाव से राग-द्वेष रहित अकेले ही होते हैं। बेभारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त (प्रमादरहित) होते हैं। जैसे हाथी वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि कषायों को निर्मूल करने में शूरवीर एवं दक्ष होते हैं। जैसे बैल भारवहन करने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि संयम भार को वहन करने में समर्थ होते हैं / जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबता एवं हारता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते और हारते नहीं / जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता वैसे ही वे महामुनि कष्टों, उपसर्गों और भयों से नहीं कांपते / वे समुद्र की तरह गम्भीर होते हैं, (हर्षशोकादि से व्याकुल नहीं होते / ) उनकी प्रकृति (या मनोवृत्ति) चन्द्रमा के समान सौम्य एवं शीतल होती है; Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 / सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध उत्तम जाति के सोने में जैसे मल (दाग) नहीं लगता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता। वे पृथ्वी के समान सभी (परीषह, उपसर्ग आदि के) स्पर्श सहन करते हैं / अच्छी तरह होम (अथवा प्रज्वलित) की हुई अग्नि के समान वे अपने तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं। उन अनगार भगवन्तों के लिए किसी भी जगह प्रतिबन्ध (रुकावट) नहीं होता। वह प्रतिबन्ध चार प्रकार से होता है, जैसे कि-अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों से (अथवा अण्डज यानी पटसूत्रज—रेशमी वस्त्र का), पोतज (हाथी आदि के बच्चों से अथवा बच्चों का अथवा पोतक = वस्त्र का) अवग्रहिक (वसति, पट्टा-चौकी आदि का) तथा प्रौपग्रहिक (दण्ड, आदि उपकरणों का) होता है। (उन महामुनियों के विहार में ये चारों ही प्रतिबन्ध नहीं होते)। वे जिस-जिस दिशा में विचरण करना चाहते हैं, उस-उस दिशा में अप्रतिबद्ध (प्रतिबन्ध रहित), शुचिभूत (पवित्र-हृदय अथवा श्रुतिभूत-सिद्धान्त प्राप्त) लघुभूत (परिग्रहरहित होने से हलके) अपनी त्यागवृत्ति के अनुरूप (औचित्य के अनुसार किन्तु अपुण्यवश नहीं) अणु (सूक्ष्म) ग्रन्थ (परिग्रह) से भी दूर (अथवा अनल्प-ग्रन्थ यानी विपुल प्रागमज्ञान-आत्मज्ञानरूप भावधन से युक्त) होकर संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित (सुवासित) करते हुए विचरण करते हैं। ___ उन अनगार भगवन्तों की इस प्रकार की संयम यात्रा के निर्वाहार्थ यह वृत्ति (प्रवृत्ति) होती है, जैसे कि वे चतुर्थभक्त (उपवास) करते हैं, षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला), दशमभक्त (चौला) द्वादशभक्त (पचौला), चतुर्दश भक्त (छह उपवास) अर्द्ध मासिक भक्त (पन्द्रह दिन का उपवास) मासिक भक्त (मासक्षमण), द्विमासिक (दो महीने का) तप, त्रिमासिक (तीन महीने का) तप, चातुर्मासिक (चार महीने का) तप, पंचमासिक (पांच मास का) तप, एवं पाण्मासिक (छह महीने का) तप, इसके अतिरिक्त भी कोई कोई निम्नोक्त अभिनहों में (से किसी अभिग्रह के धारक भी होते हैं) जैसे कई हंडिया (बर्तन) में से (एक बार में) निकाला हुआ आहार लेने की चर्या (उत्क्षिप्तचरक) वाले होते हैं, कई हंडिया (बर्तन) में से निकालकर फिर हंडिया या थाली आदि में रक्खा हुना आहार लेने की चर्या वाले (निक्षिप्तचरक), होते हैं, कई उत्क्षिप्त और निक्षिप्त (पूर्वोक्त) दोनों प्रकार से आहार ग्रहण करने की चर्या वाले (उत्क्षिप्त-निक्षिप्तचरक) होते हैं, कोई शेष बचा हुआ (अन्त) आहार लेने के अभिग्रह वाले, कोई फैक देने लायक (प्रान्त) आहार लेने के अभिग्रह वाले, कई रूक्ष आहार ग्रहण करने के अभिग्रह वाले, कोई सामुदानिक (छोटे-बड़े अनेक घरों से सामुदायिक भिक्षाचरी करते हैं, कई भरे हुए (संसृष्ट) हाथ से दिये हुए आहार को ग्रहण करते हैं. कई न भरे हुए (असंसृष्ट) हाथ से आहार लेते हैं, कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो, उसी हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई देखे हुए आहार को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई पूछ कर ही आहार लेते हैं, और कई पूछे बिना आहार ग्रहण करते हैं / कोई भिक्षा की तरह की तुच्छ या अविज्ञात भिक्षा ग्रहण करते हैं, और कोई अतुच्छ या ज्ञात भिक्षा ग्रहण करते हैं। कोई अज्ञात-अपरिचित घरों से ग्राहार लेते हैं, कोई आहार के बिना ग्लान होने पर ही आहार ग्रहण करते हैं / कोई दाता के निकट रखा हुया आहार ही ग्रहण करते है, कई दत्ति की संख्या (गिनती) करके आहार लेते हैं, कोई परिमित आहार ग्रहण करते हैं, कोई शूद्ध (भिक्षा-दोषों से सर्वथा रहित) आहार की गवेषणा करके आहार लेते हैं, वे अन्ताहारी, प्रान्ताहारी होते हैं, कई अरसाहारी एवं कई विरसाहारी (नीरस-स्वादरहित वस्तु का पाहार करने वाले) होते हैं, कई रूखा-सूखा आहार करने वाले तथा कई तुच्छ आहार करने वाले होते हैं। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 714 ] [ 65 कोई अन्त या प्रान्त पाहार से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं, कोई पुरिमड्ढ तप (अपराह्न काल में आहार सेवन) करते हैं, कोई प्रायम्बिल तप-श्चरण करते हैं, कोई निविगयी (जिस तप में घी, दूध, दही, तेल, मीठा, आदि विगइयों का सेवन न किया जाए) तप करते हैं, वे मद्य और मांस का सेवन कदापि नहीं करते, वे अधिक मात्रा में सरस आहार का सेवन नहीं करते, कई कायोत्सर्ग (स्थान) में स्थित रहते हैं, कई प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्गस्थ रहते हैं, कई उत्कट प्रासन से बैठते हैं, कई प्रासनयुक्त भूमि पर ही बैठते हैं, कई वीरासन लगा कर बैठते हैं, कई डंडे की तरह आयत-लम्बे हो कर लेटते हैं, कई लगंडशायी होते हैं (लक्कड़ की तरह टेढ़े हो कर) सोते हैं। कई बाह्य प्रावरण (वस्त्रादि के प्रावरण) से रहित हो कर रहते हैं, कई कायोत्सर्ग में एक जगह स्थित हो कर रहते हैं (अथवा शरीर की चिन्ता नहीं करते)। कई शरीर को नहीं खुजलाते, वे थूक को भी बाहर नहीं फेंकते / (इस प्रकार औपपातिक सूत्र में अनगार के जो गुण बताए है, उन सबको यहा समझ लेना चाहिए)। वे सिर के केश, मूछ, दाढ़ी, रोम और नख की काँटछांट (साज सज्जा) नहीं करते, तथा अपने सारे शरीर का परिकर्म (धोना, नहाना, तेलादि लगाना, संवारना आदि) नहीं करते / वे महात्मा इस प्रकार उपविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं। रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं। वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान (संथारा) करके उसे पूर्ण करते हैं। अनशन (संथारे) को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा नग्नभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्तधावन (दाँत साफ न करना), छाते और जूते का उपयोग न करना, भूमिशयन, काष्ठफलकशयन, केशलु चन, ब्रह्मचर्य-वास (या ब्रह्मचर्य = गुरुकुल में निवास), भिक्षार्थ परगृह-प्रवेश प्रादि कार्य किये जाते हैं, तथा जिसके लिए लाभ और अलाभ (भिक्षा में कभी पाहार प्राप्त होना, कभी न होना) मान-अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना (झिड़कियाँ), मार-पीट, (ताड़ना), धमकियाँ तथा ऊँची-नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बावीस प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं, (तथा जिस उद्देश्य से वे महामुनि साधुधर्म में दीक्षित हुए थे) उस उद्देश्य (लक्ष्य) की आराधना कर लेते हैं। उस उद्देश्य की आराधना (सिद्धि) करके अन्तिम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, (निराबाध), निरावरण, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। केवलज्ञान-केवल दर्शन उपाजित करने के पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; परिनिर्वाण (अक्षय शान्ति) को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं। कई महात्मा एक ही भव (जन्म) में संसार का अन्त (मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। दूसरे कई महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि-महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त महायशस्वी, महान् बलशाली महाप्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक हैं, उनमें वे देवरूप में उत्पन्न होते हैं, वे देव महाऋद्धि सम्पन्न, महाद्य तिसम्पन्न यावत् महासुखसम्पन्न होते हैं। उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित रहते हैं, उनकी भुजाओं में कड़े, बाजूबन्द आदि आभूषण पहने होते हैं, उनके कपोलों पर अंगद और कुण्डल लटकते रहते हैं। वे कानों में कर्णफूल धारण किये होते हैं। उनके हाथ विचित्र प्राभूषणों से युक्त रहते हैं / वे सिर पर विचित्र मालानों से सुशोभित मुकुट धारण Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र---द्वितीय श्र तस्कन्ध करते हैं / वे कल्याणकारी तथा सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते हैं, तथा कल्याणमयी श्रेष्ठ माला और अंगलेपन धारण करते हैं / उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है। वे लम्बी बनमालाओं को धारण करने वाले देव होते हैं। वे अपने दिव्य रूप, दिव्य वर्ण, दिव्यगन्ध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, तथा दिव्य ऋद्धि, छुति, प्रभा, छाया (कान्ति), अर्चा (वृत्ति) तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हुए, चमकाते हुए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं। यह (द्वितीय) स्थान प्रार्य है, यावत् यह समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है। यह स्थान एकान्त (सर्वथा) सम्यक् और बहुत अच्छा (सुसाधु) है / इस प्रकार दूसरे स्थान-धर्मपक्ष का विचार प्रतिपादित किया गया है। विवेचन द्वितीय स्थान-धर्मपक्ष का अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और सुपरिणाम-प्रस्तुत सूत्र (714) में उत्तमोत्तम आचार विचारनिष्ठ अनगार को धर्मपक्ष का अधिकारी बता कर उसकी वृत्ति, प्रवृत्ति आदि का विश्लेषण करते हुए, अन्त में उसकी सुन्दर फलश्रुति दी गई है। विशिष्ट अनगार को बत्ति को 21 पदार्थों से उपमित किया गया है। जैसे कि (1) कांस्यपात्र (2) शंख, (3) जीव, (4) गगनतल, (5) वायु, (9) शारदसलिल, (7) कमलपत्र, (8) कच्छप, (6) विहग, (10) खङ्गी (गेंडे) का सींग, (11) भारण्डपक्षी, (12) हाथी, (13) वृषभ, (14) सिंह, (15) मन्दराचल, (16) सागर, (17) चन्द्रमा, (18) सूर्य, (16) स्वर्ण, (20) पृथ्वी और (21) प्रज्वलित अग्नि / प्रवृत्ति - अनगारों की प्रवृत्ति के रूप में प्रारम्भिक साधना से लेकर अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक की तप, त्याग एवं संयम की साधना का विश्लेषण किया गया है / अप्रतिबद्धता, विविध तपश्चर्या; विविध अभिग्रहयुक्त भिक्षाचरी, आहार-विहार की उत्तमचर्या, शरीरप्रतिकर्म-विरक्ति और परीषहोपसर्गसहन, तथा अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा-पूर्वक आमरण अनशन; ये अनगार की प्रवृत्ति के मुख्य अंग है। सुपरिणाम-धर्मपक्षीय अधिकारी की वृत्ति-प्रवृत्ति के दो सुपरिणाम शास्त्रकार ने अंकित किये हैं-(१) या तो वह केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होता है, (2) या फिर महाऋद्धि आदि से सम्पन्न देव होता है / तृतीय स्थान--मिश्रपक्ष : अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम ७१५.-अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जति---इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति / सुसीला सुव्वया सुम्पडियाणंदा साहू, एगच्चातो पाणातिवायातो पडिविरता जावज्जीवाए एगच्चातो अप्पडिविरता, जाव जे यावऽण्णे तहप्पकारा सावज्जा अबोहिया कम्मता परपाणपरितावणकरा कज्जति ततो वि एगच्चातो पडिविरता एगच्चातो अप्पडिविरता। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 715 ] से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवा-ऽजीवा' उवलद्धपुष्ण-पावा पासव-संवरवेयण-णिज्जर-किरिया-ऽहिकरण-बंध-मोक्खकुसला असहिज्जदेवा-२ऽसुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खसकिन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगादीएहि देवगणेहिं निग्गंथातो पावयणातो अणतिक्कमणिज्जा इणमो निग्गंथे पावयणे निस्संकिता निक्कंखिता निधितिगिछा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छिट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगतट्ठा अदिमिजपेम्माणुरागरत्ता 'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अछे, अयं परमटठे, सेसे अणद्रु' ऊसितफलिहा अपंगुतदुवारा प्रचियत्तंतेउरघरपवेसा चाउद्दसटुमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबलपायपुछणेणं प्रोसहभेसज्जेणं पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं पडिलामेमाणा बहूहि सीलव्वत-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहि अहापरिग्गहितेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणा विहरंति / ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणंति, पाउणिता प्राबाधंसि उप्पण्णसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति, बहूई भत्ताई पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता पालोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा–महिड्डिएसु महज्जुतिएसु जाव महासुक्खेसु, सेसं तहेव जाव एस ठाणे आरिए जाव एगंतसम्म साहू / तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए। इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग (विकल्प) इस प्रकार प्रतिपादित किया है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जैसे कि वे अल्प इच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं / वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं (अथवा धर्म की अनुज्ञा देते हैं), यहाँ तक कि (यावत्) धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हुए जीवनयापन करते हैं / वे सुशील, सुव्रती सुगमता से प्रसन्न हो जाने वाले और साधु (साधनाशील सज्जन) होते हैं। एक ओर वे किसी (स्थूल एवं संकल्पी) प्राणातिपात से जीवनभर विरत होते हैं तथा दूसरी 1. तुलना- अभिगमजीवाऽजीवा....."मावेमाणा विहरति / " -भगवतीसूत्र श–२, उ.५, प्रोपपातिक. सू. 49 2. पाठान्तर--असंहज्जदेवा...'असंहरणिज्जा जधा वातेहिं मेरु न तु तधा वातपडागाणि सक्कंति विप्परिणावेतु देवेहि वि. किंपण माणसेहि ? अर्थात जैसे प्रचण्ड बाय के द्वारा मेरु चलित नहीं किया जा सकता, वैसे ही वे (श्रमणोपासक) देवों के द्वारा भी विचलित नहीं किये जा सकते, मनुष्यों की तो बात ही क्या ? देखें भगवती 5 / 2 वृत्ति में प्रापत्ति आदि में भी देव सहाय की अपेक्षा नहीं करने वाले। 3. अणतिक्कमणिज्ज–जधा कस्सइ सुसीलस्स गुरु अणतिकमणिज्जे, एवं तेसि अरहंता साधुणो सीलाई वा अणतिकमणिज्जाई णिस्संकिताई। जैसे किसी सुशील व्यक्ति का गुरु अपने सिद्धान्त का अतिक्रमण नहीं करता, वैसे ही उनके पाहतोपासक श्रावक शील सिद्धान्त या निग्नन्थ प्रवचन का अतिक्रमण नहीं करते। -सूत्र चू. (मू. पा. टि.) पृ. 187, 188 4. चियत्ततेउरघरदारप्पवेसी-चियत्तोत्ति लोकानां प्रीतिकर एव अन्तः बा गृहे वा प्रवेशो यस्य स तथा,..."अति धामिकतया सर्वत्राऽनाशंकनीयोऽसाविति भावः / अर्थात् जिसका प्रवेश अन्त:पुर में, हर घर में, द्वार में लोगों को प्रोतिकर था / अर्थात् वह सर्वत्र निःशंक प्रवेश कर सकता था। ---ौषपातिक वृत्ति 40/100 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ओर किसी (सूक्ष्म एवं प्रारम्भी) प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते, (इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान मैथुन और परिग्रह से कथंचित् स्थूलरूप से) निवृत्त और कथंचित् (सूक्ष्म रूप से) अनिवृत्त होते हैं / ये और इसी प्रकार के अन्य बोधिनाशक एवं अन्य प्राणियों को परिताप देने वाले जो सावद्यकर्म (नरकादिगमन के कारणभूत यंत्रपीड़नादि कर्मादानरूप पापव्यवसाय) हैं उनसे निवृत्त होते हैं, दूसरी ओर कतिपय (अल्पसावद्य) कर्मो-व्यवसायों से वे निवृत्त नहीं होते। जैसा कि उनके नाम से विदित है, (इस मिश्रस्थान के अधिकारी) श्रमणोपासक (श्रमणों के उपासक-श्रावक) होते हैं, जो जीव और अजीव के स्वरूप के ज्ञाता पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध किये हुए, तथा पाश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं / वे श्रावक असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग ग्रादि देव गणों (से सहायता की अपेक्षा नहीं रखते) और इन के द्वारा दबाव डाले जाने पर भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते। वे श्रावक इस निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित, निष्कांक्षित, एव निविचिकित्स (फलाशंका से रहित) होते हैं / वे सूत्रार्थ के ज्ञाता, उसे समझे हुए, और गुरु से पूछे हुए होते हैं, (अतएव) सूत्रार्थ का निश्चय किये हुए तथा भली भांति अधिगत किए होते हैं। उनकी हड्डियाँ और रगें (मज्जाएँ) उसके प्रति अनुराग से रंजित होती हैं। (किसी के पूछने पर वे श्रावक कहते हैं-'आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सार्थक (सत्य) है, परमार्थ है, शेष सब अनर्थक हैं।' वे स्फटिक के समान स्वच्छ और निर्मल हृदय वाले होते हैं (अथवा वे अपने घर में प्रवेश करने की टाटी (फलिया) खुली रखते हैं), उनके घर के द्वार भी खुले रहते हैं; उन्हें राजा के अन्तःपुर के समान दूसरे के घर में प्रवेश अप्रीतिकर-अरुचिकर लगता है, वे श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा आदि पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भैषज्य, पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक, तृण (घास) आदि भिक्षारूप में देकर बहुत लाभ लेते हुए, एवं यथाशक्ति यथारुचि स्वीकृत किये हुए बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, अणुव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास आदि तपःकर्मों द्वारा (बहुत वर्षों तक) अपनी आत्मा को भावित (वासित) करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं / __ वे इस प्रकार के आचरणपूर्वक जीवनयापन (विचरण) करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणो यि (श्रावकवतों का पालन करते हैं। यों श्रावकव्रतों की आराधना करते हुए रोगादि कोई बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर भी बहुत लम्बे दिनों तक का भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) करते हैं / वे चिरकाल तक का भक्त प्रत्याख्यान (अनशन) करके उस अनशन-संथारे को पूर्ण (सिद्ध) करके करते हैं। उस अवमरण अनशन (संथारे) को सिद्ध करके अपने भूतकालीन पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधिप्राप्त होकर मृत्यु (काल) का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं (विशिष्ट) देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होते है। तदनुसार वे महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल राबल. महायश यावत महासख वाले देवलोकों में महाऋद्धि आदि से सम्पन्न देव होते हैं। शेष बातें पूर्वपाठानुसार जान लेनी चाहिए। यह (तृतीय मिश्रपक्षीय) स्थान आर्य (मार्यों द्वारा सेवित), एकान्त सम्यक् और उत्तम है / तीसरा जो मिश्रस्थान है, उसका विचार इस प्रकार निरूपित किया गया है / Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 716 ] [ 99 ७१६--प्रविरति पडुच्च बाले पाहिज्जति, विरति पडुच्च पंडिते पाहिज्जति, विरताविरति पडुच्च बालपंडिते पाहिज्जइ, तत्थ णं जा सा सव्वतो अविरती एस ठाणे प्रारंभट्ठाणे प्रणारिए जाव असम्बदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, तत्थ तस्थ णं जा सा सव्वतो विरती एस ठाणे अणारंभटाणे, एस ठाणे पारिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू, तत्थ णं जा सा सवतो विरताविरती एस ठाणे प्रारंभाणारंभट्ठाणे, एस ठाणे प्रारिए जाव सव्वदुक्खष्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू / इस तृतीय स्थान का स्वामी अविरति की अपेक्षा से बाल, विरति की अपेक्षा से पण्डित और विरता-विरति की अपेक्षा से बालपण्डित कहलाता है। इन तीनों स्थानों में से समस्त पापों से अविरत होने का जो स्थान है, वह आरम्भस्थान है, अनार्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाश न करने वाला एकान्त मिथ्या और बुरा (असाधु) है। इनमें से जो दूसरा स्थान है, जिसमें व्यक्ति सब पापों से विरत होता है, वह अनारम्भ स्थान एवं आर्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाशक है, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम है / तथा इनमें से जो तीसरा (मिश्र) स्थान है, जिसमें सब पापों से कुछ अंश में विरति और कुछ अंश में अविरति होती है, वह प्रारम्भ-नो आरम्भ स्थान है। यह स्थान भी आर्य है, यहाँ तक कि सर्वदुःखों का नाश करने वाला, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम (स्थान) है। विवेचन-तृतीय स्थान-मिश्रपक्षः अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम-प्रस्तुत दो सूत्रों में ततीय स्थान के अधिकारी के स्वरूप, एवं उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति का निरूपण करते प्रन्त में इसका परिणाम बताकर तीनों स्थानों की पारस्परिक उत्कृष्टता-निकृष्टता भी सूचित कर दी है। अधिकारी-मिश्र स्थान का अधिकारी श्रमणोपासक होता है, जो सामान्यतया धार्मिक एवं धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, अल्प इच्छा वाला, प्राणातिपात आदि पांचों पापों से देशतः विरत होता है / वत्ति--जीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मार्गानुसारी के गुणों से सम्पन्न निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति दृढ़ श्रद्धालु एवं धर्म सिद्धान्तों का सम्यग्ज्ञाता होता है / वह सरल स्वच्छ हृदय एवं उदार होता है / प्रवत्ति-पर्वतिथियों में परिपूर्ण पोषधोपवास करता है, यथाशक्ति व्रत, नियम, त्याग, तप प्रत्याख्यानादि अंगीकार करता है, श्रमणों को ग्राह्य एषणीय पदार्थों का दान देता है / चिरकाल तक श्रावकवृत्ति में जीवनयापन करके अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारापूर्वक अनशन करता है, अालोचना, प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक मृत्यु का अवसर आने पर शरीर का व्युत्सर्ग कर देता है। परिणाम--वह विशिष्ट ऋद्धि, द्य ति आदि से सम्पन्न देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होता है / शास्त्रकार ने इसे भी द्वितीय स्थान की तरह आर्य एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान बताया है।' दो स्थानों में सबका समावेश : क्यों, कैसे और दोनों की पहचान क्या ? ____७१७–एवामेव समणुगम्ममाणा समणुगाहिज्जमाणा इमेहि चेव दोहि ठाणेहि समोयरंति, 1. सूत्रकृतरंग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 335-336 का निष्कर्ष Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव / तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते, तस्स णं इमाइं तिणि तेवढाई पावाउयसताई भवंतीति अक्खाताई, तं जहा-किरियावादीणं अकिरियावादीणं अण्णाणियवादीणं वेणइयवादीणं, ते वि निव्वाणमासु, ते वि पलिमोक्खमाहंसु, ते वि लवंति सावगा,' ते वि लवंति सावइत्तारो। 717. (संक्षेप में) सम्यक विचार करने पर ये तीनों पक्ष दो ही स्थानों में समाविष्ट हो जाते हैं जैसे कि धर्म में और अधर्म में, उपशान्त और अनुपशान्त में। पहले जो अधर्मस्थान का विचार पूर्वोक्त प्रकार से किया गया है, उसमें इन 363 प्रावादुकों (मतवादियों) का समावेश हो जाता है, यह पूर्वाचार्यों ने कहा है। वे (चार कोटि के प्रावादुक) इस प्रकार हैं-क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। वे भी 'परिनिर्वाण' का प्रतिपादन करते हैं; वे भी मोक्ष का निरूपण करते हैं; वे भी अपने श्रावकों को धर्मोपदेश करते हैं (उनसे पालाप करते हैं) वे भी अपने धर्म को सुनाते हैं। ७१८-ते सव्वे पावाउया प्रादिकरा धम्माणं नाणापण्णा नाणाछंदा नाणासीला नाणादिट्टी नाणारुई नाणारंभा नाणाझवसाणसंजुता एगं महं मंडलिबंध किच्चा सव्वे एगो चिट्ठति, पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं अयोमएणं संडासएणं गहाय ते सम्वे पावाउए प्राइगरे धम्माणं नाणापण्णे जाव नाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वदासी-हं भो पावाउया प्रादियरा धम्माणं णाणापण्णा जावऽभवसाणसंजुत्ता ! इमं ता तुन्भे सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुग्णं गहाय मुहत्तगं महत्तगं पाणिणा धरेह, णो यहु संडासगं संसारियं कुज्जा, णो यह अग्गिथंभणियं कुज्जा, गोय हुसाहम्मियवेयावडियं कुज्जा, जोय हपरधम्मियवेयावडियं कूज्जा, उज्जया णियागपडिवन्नाअमायं कुब्वमाणापाणि पसारेह, इति वच्चा से पुरिसे तेसि पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं प्रोमएणं संडासतेणं गहाय पाणिसु णिसिरति, तते णं ते पावाउया प्रादिगरा धम्माणं नाणापन्ना जाव नाणा 1. ते वि लवंति सावगा-चूर्णिकार प्रश्न उठाते हैं, लोग उनके पास क्यों सुनने व शरण लेने जाते हैं ? इसका उत्तर है-मिथ्यापद के प्रभाव से। ग्रादि तीर्थकर (अपने मत प्रवर्तकत्त्व की दष्टि से) कपिलादि श्रावकों को धर्मोपदेश देते हैं, उनके शिष्य भी परम्परा से धर्मश्रवण कराते हैं। धर्म श्रवण करने वाले 'श्रावक' या 'श्राव इतर' कहलाते हैं। 2. पावातिया-'शास्तार इत्यर्थः, तद्धि शास्तुभशं वदन्तीति प्रावादकाः प्रवदनशीला-सूत्र कृ. चणि (स.पा.टि.) प्र. 190 / अर्थात प्रावादिक का अर्थ है-शास्ता, वे अपने अनुयायियों पर शासन-अनुशासन करने के लिए बहुत बोलते हैं, इसलिए वे प्रावादुक हैं / अथवा प्रवदनशील होने से प्रावादिक हैं। 3. 'णो य अग्मिथंभणियं कूज्जा'–णो अग्गिथंभणविज्जाए आदिच्चमंतेहि अग्गी थभिज्जह—अर्थात-अग्निस्तम्भन विद्या से या प्रादित्यमंत्रों से अग्निस्तम्भन न करें। 4. 'णो."साधम्मियवेयावडियं'--'पासंडियस्स थंभेति, परपासंडितस्स वि परिचएण थंभेइ'-अर्थात-'सार्मिक स्वतीर्थिक व्रतधारी इस आग को न रोके, न ही परपाषण्डी (अन्यतीथिक व्रतधारी) परिचयवश उस अग्नि को रोके। 5. णिकायपडिवण्णा (पाठान्तर)..सबहसाविता इत्यर्थः / अर्थात्-शपथ लेकर प्रतिज्ञाबद्ध हुए। -सूत्र कृ. चूणि (मू. पा. टि.) पृ. 191 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 719 ] [ 101 झवसाणसंजुत्ता पाणि पडिसाहरेंति, तते णं से पुरिसे ते सव्वे पावाउए प्रादिगरे धम्माणं जाव नाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वदासी-हं भो पावाउया प्रादियरा धम्माणं जाव णाणाझवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुम्भे पाणि पडिसाहरह ?, पाणी नो डझेज्जा दट्ट किं भविस्सइ ?, दुक्खं-दुक्खं ति मण्णमाणा पडिसाहरह, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे। 718. वे (पूर्वोक्त 363) प्रावादुक अपने-अपने धर्म के आदि-प्रवर्तक हैं / नाना प्रकार की बुद्धि (प्रज्ञा), नाना अभिप्राय, विभिन्न शील (स्वभाव), विविध दृष्टि, नानारुचि, विविध प्रारम्भ, और विभिन्न निश्चय रखने वाले वे सभी प्रावादुक (स्वधर्मशास्ता) (किसी समय) एक स्थान में मंडलीबद्ध होकर बैठे हों, वहाँ कोई पुरुष आग के अंगारों से भरी हुई किसी पात्री (बर्तन) को लोहे की संडासी से पकड़ कर लाए, और नाना प्रकार की प्रज्ञा, अभिप्राय, शील, दृष्टि, रुचि, प्रारम्भ, और निश्चय वाले, धर्मों के प्रादि प्रवर्तक उन प्रावादूकों से कहे--"अजी! नाना प्रकार की बुद्धि आदि तथा विभिन्न निश्चय वाले धर्मों के आदिप्रवर्तक प्रावादुको! आप लोग आग के अंगारों से भरी हुई (इस) पात्री को लेकर थोड़ी-थोड़ी देर (मुहर्त -मुहूर्त भर) तक हाथ में पकड़े रखें, (इस दौरान) संडासी की (बहुत) सहायता न लें, और न ही प्राग को बुझाएँ या कम करें, (इस आग से) अपने साधार्मिकों की (अग्निदाह को उपशान्त करने के रूप में) वैयावृत्य (सब या उपकार) भी न कीजिए, न ही अन्य धर्म वालों की वैयावृत्य कीजिए, किन्तु सरल और मोक्षाराधक (नियागप्रतिपन्न) बनकर कपट न करते हुए अपने हाथ पसारिए।' यों कह कर वह पुरुष आग के अंगारों से परी भरी हई उस पात्री को लोहे की संडासी से पकड़कर उन प्रावादुकों के हाथ पर रखे / उस समय धर्म के आदि प्रवर्तक तथा नाना प्रज्ञा, शील अध्यवसाय आदि से सम्पन्न वे सब प्रावादुक अपने हाथ अवश्य ही हटा लेंगे।" यह देख कर वह पुरुष नाना प्रकार की प्रज्ञा, अध्यवसाय आदि से सम्पन्न, धर्म के आदि प्रवर्तक उन प्रावादुकों से इस प्रकार कहे---'अजी! नाना प्रज्ञा और निश्चय आदि वाले, धर्म के आदिकर प्रावादुको! आप अपने हाथ को क्यों हटा रहे हैं ?' "इसीलिए कि हाथ न जले !" (हम पूछते हैं---) हाथ जल जाने से क्या होगा? यही कि दुःख होगा / यदि दुःख के भय से आप हाथ हटा लेते हैं तो यही बात आप सबके लिए मानिए, यही (युक्ति) सबके लिए प्रमाण मानिए यही धर्म का सार-सर्वस्व समझिए / यही बात प्रत्येक के लिए तुल्य (समान) समझिए, यही युक्ति प्रत्येक के लिए प्रमाण मानिए, और इसी (आत्मौपत्य सिद्धान्त) को प्रत्येक के लिए धर्म का सार-सर्वस्व (समवसरण) समझिए / ७१६-तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जावेवं परूवेंति-'सवे पाणा जाव सत्ता हंतव्या मज्जावेतवा परिघेत्तव्वा परितावेयव्वा किलामेतव्वा उद्दवेतम्या, ते आगंतु छेयाए, ते आगंतुं भेयाए, ते पागंतु जाति-जरा-मरण-जोणिजम्मण-संसार-पुणब्भव-गब्भवास-भवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूणं दंडणाणं बहूर्ण मुंडणाणं तज्जणाणं तालणाणं अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पितिमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जामरणाणं पुत्तमरणाणं धूयमरणाणं सुण्हामरणाणं दारिहाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणसाणं प्राभागिणो भविस्संति, प्रणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरतसंसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्संति, ते नो सिन्झिस्संति नो बुझिस्संति जाव नो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे / Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध 716. (परमार्थतः आत्मौपम्यमयी अहिंसा ही धर्म सिद्ध होने पर भी) धर्म के प्रसंग में जो श्रमण और माहन ऐसा कहते हैं, यावत ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करना चाहिए उन पर आज्ञा चलाना चाहिए, उन्हें दास-दासी आदि के रूप में रखना चाहिए, उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, उन्हें क्लेश देना चाहिए, उन्हें उपद्रवित (भयभीत) करना चाहिए। ऐसा करने वाले वे भविष्य में 'अपने शरीर को छेदन-भेदन आदि पीड़ाओं का भागी बनाते हैं / वे भविष्य में जन्म, जरा, मरण, विविध योनियों में उत्पत्ति फिर संसार में पुनः जन्म गर्भवास, और सांसारिक प्रपंच (अरहट्टधटिका न्यायेन संसारचक्र) में पड़कर महाकष्ट के भागी होंगे। वे घोर दण्ड के भागी होंगे। वे बहुत ही मुण्डन, तर्जन, ताड़न, खोड़ी बन्धन के यहाँ तक कि घोले (पानी में डुबोए) जाने के भागी होंगे / तथा माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री, पुत्रवध आदि मरण दु:ख के भागी होंगे। (इसी प्रकार) बे दरिद्रता, दर्भाग्य, अप्रिय व्यक्ति के साथ निवास, प्रियवियोग, तथा बहत-से दुःखों और वैमनस्यों के भागी होंगे। वे आदि-अन्तरहित तथा दीर्घकालिक (या दीर्घमध्य वाले) चतुर्गतिक संसार रूप घोर जंगल में बार-बार परिभ्रमण करते रहेंगे / वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त नहीं होंगे, न ही बोध को प्राप्त होंगे, यावत् सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकेंगे। (जैसे सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्यतीथिक सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते, वैसे ही सावद्यानुष्ठानकर्ता स्वयूथिक भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते, वे भी पूर्वोक्त अनेक दुःखों के भागी होते हैं। यह कथन सबके लिए तुल्य है, यह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है (कि दूसरों को पीड़ा देने वाले चोर, जार आदि प्रत्यक्ष ही दण्ड भोगते नजर आते हैं), (समस्त आगमों का) यही सारभूत विचार है / यह (सिद्धान्त) प्रत्येक प्राणी के लिए तुल्य है, प्रत्येक के लिए यह प्रमाण सिद्ध है, तथा प्रत्येक के लिए (आगमों का) यही सारभूत विचार है। ७२०-तत्थ गं जे ते समण-माहणा एवं माइक्खंति जाव परुति-सवे पाणा सव्वे भूया सन्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण प्रज्जावेयवा ण परिघेत्तव्या ण उद्दवेयवा, ते णो प्रागंतु छेयाए, ते जो प्रागंतु भेयाए, ते णो प्रागंतु जाइ-जरा-मरण-जोणिजम्मण-संसार-पुणभव-गब्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं दुक्खदोमणसाणं आभागिणो भविस्संति, प्रणातियं च णं प्रणवदग्गं दीहमद्ध चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो णो अणुपरियट्टिस्संति, ते सिज्झिस्संति जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति / ७२०–परन्तु धर्म-विचार के प्रसंग में जो सुविहित श्रमण एवं माहन यह कहते हैं किसमस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, उन्हें अपनी आज्ञा में नहीं चलाना एवं उन्हें बलात् दास-दासी के रूप में पकड़ कर गुलाम नहीं बनाना चाहिए, उन्हें डराना-धमकाना या पीड़ित नहीं करना चाहिए, वे महात्मा भविष्य में छेदन-भेदन आदि कष्टों को प्राप्त नहीं करेंगे, वे जन्म, जरा, मरण, अनेक योनियों में जन्म-धारण, संसार में पुन: पुन: जन्म, गर्भवास तथा संसार के अनेकविध प्रपंच के कारण नाना दुःखों के भाजन नहीं होंगे। तथा वे आदि-अन्तरहित, दीर्घ कालिक मध्यरूप चतुर्गतिक संसाररूपी घोर वन में बारबार भ्रमण नहीं करेंगे / (अन्त में) वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे, केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर बुद्ध और मुक्त होंगे, तथा समस्त दुःखों का सदा के लिए अन्त करेंगे। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 720 ] [ 103 विवेचन-दो स्थानों में सबका समावेश : क्यों कैसे और दोनों की पहचान क्या?–प्रस्तुत चार सूत्रों में धर्म और अधर्म दो स्थानों में पूर्वोक्त तीनों स्थानों का विशेषत: 363 प्रावादुकों का अधर्मपक्ष में युक्तिपूर्वक समावेश किया गया है, साथ ही अन्त में धर्म-स्थान और अधर्मस्थान दोनों की मुख्य पहचान बताई गई है। धर्म और अधर्म दो ही पक्षों में सबका समावेश कैसे ? --पूर्वसूत्रों में उक्त तीन पक्षों का धर्म और अधर्म, इन दो पक्षों में ही समावेश हो जाता है, जो मिश्रपक्ष है, वह धर्म और अधर्म, इन दोनों से मिश्रित होने के कारण इन्ही दो के अन्तर्गत है। इसी शास्त्र में जिन 363 प्रावादुकों का उल्लेख किया गया था, उनका समावेश भी अधर्मपक्ष में हो जाता है, क्योंकि ये प्रावादक धर्मपक्ष से रहित और मिथ्या हैं। मिथ्या कैसे ? धर्मपक्ष से रहित कैसे ?–यद्यपि बौद्ध, सांख्य नैयायिक और वैशेषिक ये चारों मोक्ष या निर्वाण को एक या दूसरी तरह से मानते हैं, अपने भक्तों को धर्म की व्याख्या करके समझाते हैं, किन्तु वे सब बातें मिथ्या, थोथी एवं युक्तिरहित हैं। जैसे कि बौद्ध दर्शन की मान्यता है-ज्ञानसन्तति के अतिरिक्त प्रात्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है / ज्ञानसन्तति का अस्तित्त्व कर्मसन्तति के प्रभाव से है, जो संसार कहलाता है। कर्मसन्तति के नाश के साथ ही ज्ञानसंतति का नाश हो जाता है / अतः मोक्षावस्था में प्रात्मा का कोई अस्तित्व न होने से ऐसे निःसार मोक्ष या निर्वाण के लिए प्रयत्न भी वृथा है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन प्रात्मा को कटस्थ नित्य मानता है, ऐसी स्थिति, में जीव के संसार और मोक्ष दोनों ही संगत नहीं होते, कूटस्थ अात्मा चातुर्गतिक संसार में परिणमन गमन (संसरण) कर नहीं सकती, न ही आत्मा के स्वाभाविक गुणों (स्वभाव) में सदैव परिणमन रूप मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इसी प्रकार नैयायिक और वैशेषिक को मोक्ष और आत्मा की मान्यता युक्तिहीन एवं एकान्ताग्रह युक्त होने से दोनों ही मिथ्या हैं। इन प्रावादुकों को अधर्मस्थान में इसलिए भी समाविष्ट किया गया है कि इनका मत परस्पर विरुद्ध है, क्योंकि वे सब प्रावादक अपने-अपने मत के प्रति अत्याग्रही. एकान्तवादी होते हैं. इस कारण सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, बौद्ध आदि मतवादियों का मत युक्तिविरुद्ध व मिथ्या है। आगे शास्त्रकार इन 363 मतवादियों के अधर्मपक्षीय सिद्ध हेतु शास्त्रकार धधकते अंगारों से भरा बर्तन हाथ में कुछ समय तक लेने का दृष्टान्त देकर समझाते हैं / जैसे विभिन्न दृष्टि वाले प्रावादुक अंगारों से भरे बर्तन को हाथ में लेने से इसलिए हिचकिचाते हैं कि उससे उन्हें दुःख होता है और दुःख उन्हें प्रिय नहीं है। इसी प्रकार सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय एवं सुख प्रिय लगता है / ऐसी आत्मौपम्य रूप अहिंसा जिसमें हो, वही धर्म है। इस बात को सत्य समझते हुए भी देवपूजा, यज्ञयाग आदि कार्यों में तथा धर्म के निमित्त प्राणियों का वध करना (हिंसा करना) पाप न मान कर धर्म मानते हैं / इसी तरह श्राद्ध के समय रोहित मत्स्य का वध तथा देवयज्ञ में पशुवध करना धर्म का अंग मानते हैं / इस प्रकार हिंसा धर्म का समर्थन और उपदेश करने वाले प्रावादुक अधर्मपक्ष की ही कोटि में आते हैं / इन मुख्य कारणों से ये प्रावादुक तथाकथित श्रमण-ब्राह्मण धर्मपक्ष से रहित हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण-ब्राह्मण एकान्त धर्मपक्ष से युक्त हैं। क्योंकि अहिंसा ही धर्म का मुख्य अंग है, जिसका वे सर्वथा सार्वत्रिक रूप से स्वयं पालन करते कराते हैं दूसरों को उपदेश भी उसी का देते हैं / वे सब प्रकार की हिंसा का सर्वथा निषेध करते हैं। वे किसी के साथ भी वैरविरोध, घृणा, द्वेष, मोह या कलह नहीं रखते / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निष्कर्ष-जिस मत या मतानुयायी में अहिंसा धर्म नहीं है, हिंसा का प्रतिपादन धर्म आदि के नाम से है, वह अधर्म स्थान की कोटि में आता है, जब कि जिस मत या मतानुयायी में अहिंसा धर्म सर्वांग-रूप में व्याप्त है, हिंसा का सर्वथा निषेध है, वह धर्मस्थान को कोटि में आता है। यही धर्मस्थान और अधर्मस्थान की मुख्य पहचान है। परिणाम-शास्त्रकार ने अधर्मस्थान और धर्मस्थान दोनों के अधिकारी व्यक्तियों को अपनेअपने शुभाशुभ विचार-अविचार से सदाचार-कदाचार सद्व्यवहार-दुर्व्यवहार ग्रादि के इहलौकिकपारलौकिक फल भी बताए हैं, एक अन्तिम लक्ष्य (सिद्धि, बोधि, मुक्ति, परिनिर्वाण सर्वदुःखनिवृत्ति) प्राप्त कर लेता है, जबकि दूसरा नहीं। तेरह ही क्रियास्थानों का प्रतिफल-- ७२१–इच्चेतेहिं बारसहि किरियाठाणेहि वट्टमाणा जीवा नो सिज्झिसु [नो] बुझिसु जाव नो सवदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति का करिस्संति वा। एतम्मि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिभिसु बुझिसु मुच्चिसु परिणिब्वाइंसु सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु वा करेंति वा करिस्संति वा / एवं से भिक्ख आतट्ठी प्रातहिते प्रातगुत्ते' प्रायजोगी प्रातपरक्कमे प्रायरक्खिते प्रायाणुकंपए प्रायनिष्फेडए प्रायाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्ति बेमि / ॥किरियाठाणः बितियं अज्झयणं सम्मत्तं // ७२१–इन (पूर्वोक्त) बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीत में सिद्ध नहीं हए, बुद्ध नहीं हुए, मुक्त नहीं हुए यावत् सर्व-दुःखों का अन्त न कर सके, वर्तमान में भी वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, यावत् सर्वदुःखान्तकारी नहीं होते और न भविष्य में सिद्ध बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वदुःखान्तकारी होंगे। परन्तु इस तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वान्तकृत् हुए हैं, होते हैं और होंगे। इस प्रकार (बारह क्रियास्थानों का त्याग करने वाला) वह आत्मार्थी, आत्महिततत्पर, प्रात्मगुप्त (आत्मा को पाप से बचाने वाला), प्रात्मयोगी, प्रात्मभाव में पराक्रमी, आत्मरक्षक (आत्मा की संसाराग्नि से रक्षा करने वाला), आत्मानुकम्पक (प्रात्मा पर अनुकम्पा करने वाला), मात्मा का जगत् से उद्धार करने वाला उत्तम साधक (भिक्षु) अपनी आत्मा को समस्त पापों से निवृत्त करे / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-क्रियास्थानों का प्रतिफल-प्रस्तुत सूत्र में इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने पूर्वोक्त 13 क्रियास्थानों का संक्षेप में प्रतिफल दिया है, ताकि हेय-हेय-उपादेय का साधक विवेक कर सके / तेरहवाँ क्रियास्थान भी कब ग्राह्य, या त्याज्य भी?—प्रस्तुत सूत्र में 12 क्रियास्थानों को 1. 'अप्पगुत्ता'-ण परपच्चएण / प्रात्मगुप्त—स्वत: आत्मरक्षा करने वाले की दृष्टि से प्रयुक्त है ।—"प्रात्मनैव संजम-जोए जुजति, सयमेवपरक्कमंति / " अर्थात्-अपने आप ही संयम योग में जुटाता, है, स्वयमेव पराक्रम करता है। -सू. चू. (मू. पा. टि.) पृ. 193 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन सूत्र 721 ] [ 105 संसार के तथा तेरहवें क्रियास्थान को मोक्ष का कारण बताने का आशय है-१२ क्रियास्थान तो मुमुक्षु के लिए त्याज्य और तेरहवा ग्राह्य समझा जाए / परन्तु सिद्धान्तानुसार तेरहवाँ क्रियास्थान ग्राह्य अन्त में होने पर भी एवंभूत आदि शुद्ध नयों की अपेक्षा से त्याज्य है। तेरहवें क्रियास्थान में स्थित जीव को सिद्धि, मुक्ति या निर्वाण पाने की बात औपचारिक है। वास्तव में देखा जाए तो, जब तक योग रहते हैं, (13 वें गुणस्थान तक) तब तक भले ही ईर्यापथ क्रिया हो, जीव को मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण या सिद्धि नहीं मिल सकती / इसलिए, यहाँ 13 वें क्रियास्थान वाले को मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है, इस कथन के पीछे शास्त्रकार का तात्पर्य यह कि 13 वाँ क्रियास्थान प्राप्त होने पर जीव को मोक्ष, मुक्ति या निर्वाण आदि अवश्यमेव प्राप्त हो जाता है। मोक्षप्राप्ति में 13 वाँ क्रियास्थान उपकारक है। जिन्होंने 12 क्रियास्थानों को छोड़कर 13 वें क्रियास्थान का आश्रय ले लिया, वे एक दिन अवश्य ही सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वदुःखान्तकृत् बने हैं, बनते हैं, और बनेंगे, किन्तु 12 क्रिया स्थानों का आश्रय लेने वाले कदापि सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हुए, न होते, न होंगे।' // क्रियास्थानः द्वितीय अध्ययन समाप्त // 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 341 का निष्कर्ष Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन प्राथमिक 11 सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के तृतीय अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है। 0 शरीरधारी प्राणी को आहार ग्रहण करना अनिवार्य होता है, उसके बिना शरीर की स्थिति सम्भ नहीं है / साधु-साध्वियों को भी आहार-ग्रहण करना आवश्यक होता है। वे दोषरहित शुद्ध कल्पनीय आहार से ही अपने शरीर की रक्षा करें, अशुद्ध अकल्पनीय से नहीं; तथा कवलाहार के अतिरिक्त भी अन्य किस किस आहार से शरीर को पोषण मिलता है, अन्य जीवों के आहार की पूर्ति कैसे और किस प्रकार के आहार से होती है ? इस प्रकार जीवों के आहार के सम्बन्ध में साधकों को विविध परिज्ञान कराने के कारण इस अध्ययन का नाम 'पाहारपरिज्ञा' रखा गया है। 0 मुख्यतया आहार के दो भेद हैं-द्रव्याहार एवं भावाहार / द्रव्याहार सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार का है। / प्राणिवर्ग क्षुधा वेदनीय कर्मोदय से जब किसी वस्तु का आहार करता है, वह भावाहार है। समस्त प्राणी तीन प्रकार से भावाहार ग्रहण करते हैं-प्रोज-पाहार, रोम-पाहार और प्रक्षेपाहार / 0 जब तक औदारिक रूप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, (किन्हीं प्राचार्यों के मत से जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा और मन की उत्पत्ति नहीं होती); तब तक तैजस-कार्मण एवं मिश्र शरीर द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार प्रोज-आहार है। शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद बाहर की त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय) से या रोमकप से प्राणियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार रोमाहार या लोमाहार है। मुख-जिह्वा आदि द्वारा जो कवल (कौर), बूद, कण, कतरे आदि के रूप में जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेपाहार (कवलाहार) कहते हैं / 10 अपर्याप्त जीवों का भोज आहार, देवों-नारकों का रोमाहार, तथा अन्य पर्याप्त जीवों का प्रेक्षपाहार होता है / केवली अनन्तवीर्य होते हुए भी उनमें पर्याप्तित्व, वेदनीयोदय, आहार को पचाने वाला तैजस् शरीर और दीर्घायुष्कता होने से उनका कवलाहार करना युक्तिसिद्ध है। - चार अवस्थाओं में जीव आहार नहीं करता-(१) विग्रहगति के समय, (2) केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में, (3) शैलेशी अवस्था प्राप्त अयोगी केवली, (4) सिद्धि प्राप्त आत्मा। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन ] [ 107 O बीजकायों के आहार की चर्चा से अध्ययन का प्रारम्भ होकर क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा त्रसजीवों में पंचेन्द्रिय देव-नारकों के आहार की चर्चा छोड़कर मनुष्य एवं तिर्यंच के आहार की चर्चा की गई है। साथ ही प्रत्येक जीव की उत्पत्ति, पोषण, संवर्द्धन आदि की पर्याप्त चर्चा की है। 0 आहार प्राप्ति में हिंसा की सम्भावना होने से साधु वर्ग को संयम नियमपूर्वक निर्दोष शुद्ध ___अाहार ग्रहण करने पर जोर दिया गया है / ' - यह अध्ययन सूत्र 722 से प्रारम्भ होकर सूत्र 746 पर पूर्ण होता है। (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा 169 से 173 तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 342 से 346 तक का सारांश Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिण्णा : तइयं अज्झयणं आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन अनेकविध वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया-- ७२२-सुयं मे पाउसंतेणं भगवता एवमक्खातं-इह खलु आहारपरिण्णा णाम अझयणे, तस्स णं अयमठे-इह खलु पाईणं वा 4 सव्वातो सव्वावंति लोगसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जति, तं जहा-अग्गबीया भूलबीया पोरबीया खंघबीया। 722 --आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् श्री महावीर स्वामी ने कहा था- इस तीर्थंकर देव के शासन (निर्ग्रन्थ-प्रवचन) में आहारपरिज्ञा नामक एक अध्ययन है, जिसका अर्थ (भाव) यह है-इस समनल में पूर्व प्रादि दिशाओं तथा ऊर्ध्व ग्रादि विदिशाओं में सर्वत्र चार प्रकार के बीज काय वाले जीव होते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं--अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज / 723-(1) तेसि च णं अहाबीएणं महावगासेणं इह एगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढवि. संभवा पुढविवक्कमा। तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तस्थवकम्म' (वक्कमा) णाणाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउटेति / ते जीवा तासि जाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारैति पूविसरोरं प्राउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सतिसरीरं नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सवप्पणताए आहारेति / अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरोरा नाणावण्णा नाणागंधा नाणारसा नाणाफासा नाणासंठाणसंठिया नाणाविहसरीर. पोग्गलविउविता ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीति मक्खायं / (2) प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहिं रुक्खेंहि रुक्खत्ताए विउति ते जीवा तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति पुढवीसरीरं प्राउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं, णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वष्यणाए आहारं पाहारेति / अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा नाणावण्णा नाणागंधा नाणारसा 1. 'तत्थवक्कमा'-तत्रौत्पत्तिस्थान उपक्रम्य आगत्य-उस उत्पत्तिस्थान-योनि में प्राकर / 2. सारूविकडं ति समानरूवकडं, वृक्षत्वेन परिणामितमित्यर्थः-चूणि स्वरूपतां नीतं सत् तन्यमयता प्रतिपद्यते / —शी. वृत्ति. सूत्र कृ. मू. पा. टि. पृ. 195 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 723 ] [109 नाणाफासा नाणासंठाणसंठिया नाणाविहसरीरपोग्गलविउविता, ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति * मक्खायं। (3) प्रहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा(मा) कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहरेति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं आउ० तेउ० वाउ० वणस्सतिसरीरं, नाणाविहाणं तस-यावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति परिविद्वत्थं तं सरीरगं पुन्वाहारितं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं / अवरे वि य क तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा गाणावण्णा जाव ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंतीति मक्खायं / (4) प्रहावरं पुरषखायं-इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कम्मा (मा) रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा श्राहारेति पुढविसरीरं पाउ० तेउ० बाउ० वणस्सति०, नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं सं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं, प्रवरे वि य णं तेसि रुक्ख जोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा नाणावण्णा नाणागंधा जाव नाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया, ते जीवा कम्मोबवण्णगा भवंतीति मक्खायं / 723-[1] उन बीज कायिक जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से, जिस-जिस अवकाश (उत्पत्ति स्थान अथवा भूमि, जल, काल, प्राकाश और बीज के संयोग) से उत्पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज से तथा उस-उस अवकाश में उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से कई बीज कायिक जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, पृथ्वी पर (उस बीज और अवकाश से) उत्पन्न होते हैं, उसी पर स्थित रहते हैं और उसी पर उनका विकास होता है। इसलिए पृथ्वीयोनिक, पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले और उसी पर स्थित रहने व बढ़ने वाले वे जीव (बीज-कायिक प्राणी) कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म के निदान (आदिकारण) से आकर्षित होकर वहीं (पृथ्वी पर ही) वृद्धिगत होकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वियों पर वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव नाना जाति की योनियों वाली पृथ्वियों के स्नेह (स्निग्धता) का आहार करते हैं। वे जीव (स्वशरीर सन्निकृष्ट) पृथ्वी शरीर अप-शरीर (भौम या आकाशीय जल के शरीर) तेजःशरीर, (अग्नि की राख आदि) वायु शरीर और वनस्पति-शरीर का आहार करते हैं। तथा वे पृथ्वी जीव नाना-प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त (प्रासुक) कर देते हैं। वे आदि के अत्यन्त विध्वस्त (पूर्व जीव से मुक्त) उस शरीर को कुछ प्रासुक कुछ परितापित कर देते हैं, वे (वनस्पतिजीव) इन (पृथ्वीकायादि) के पूर्व-याहारित (पृथ्वीकायादि से उत्पत्ति के समय उनका जो आहार किया था, और स्वशरीर के रूप में परिणत) किया था, उसे अब भी (उत्पत्ति के बाद भी) त्वचास्पर्श द्वारा आहार करते हैं, तत्पश्चात् उन्हें स्वशरीर के रूप में विपरिणत करते हैं। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध और उक्त विपरिणामित शरीर को स्व स्वरूप (स्वसमान रूप) कर लेते हैं। इस प्रकार वे सर्व दिशाओं से आहार करते हैं / उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के दूसरे (मूल, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प फलादि के रूप में बने हुए) शरीर भी अनेक वर्ण, अनेक गन्ध, नाना रस, नाना स्पर्श के तथा नाना संस्थानों से संस्थित एवं नाना प्रकार के शारीरिक पुद्गलों (रस, वीर्य आदि) से विकुक्ति होकर बनते हैं। वे जीव कर्मों के उदय (एकेन्द्रिय जाति, स्थावरनाम, वनस्पति योग्य आयुष्य आदि कर्मों के उदय) के अनुसार स्थावरयोनि में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। [2] इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने पहले (वनस्पतिकाय का दूसरा भेद) बताया है, कि कई सत्त्व (वनस्पतिकायिक जीव) वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, अतएव वे वृक्षयोनिक होते हैं, वृक्ष में स्थित रह कर वहीं वृद्धि को प्राप्त होते हैं / (पूर्वोक्त प्रकार से) वृक्षयोनिक, वृक्ष में उत्पन्न, उसी में स्थिति और वद्धि को प्राप्त करने वाले कर्मों के उदय के कारण वे (वनस्पतिकाय के अंगभूत) जीव कर्म से प्राकष्ट होकर पथ्वीयोनिक वक्षों में वक्षरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जी निक वक्षों से उनके स्नेह (स्निग्धता) का प्रहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वी, जल, वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं / वे नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त (प्रासुक) कर डालते हैं / वे परिविध्वस्त (प्रासुक) किये हुए एवं पहले आहार किये हुए, तथा त्वचा द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि शरीरों को विपरिणामित (पचा) कर अपने अपने समान स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। वे सर्व दिशाओं से आहार लेते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, अनेक प्रकार के संस्थानों (अवयवरचनाओं) से युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं, जो अनेक प्रकार के शारीरिक (शरीरगत रस, वीर्य आदि) पुद्गलों से विकुक्ति (विरचित) होते हैं / वे जीव कर्म के उदय के अनुरूप ही पृथ्वीयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थंकर देव ने कहा है। [3] इसके पश्चात् श्रीतीर्थकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों का अन्य भेद बताया है। इसी वनस्पतिकायवर्ग में कई जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थिति एवं वृद्धि को प्राप्त होते हैं / वृक्ष में उत्पन्न होने वाले, उसी में स्थित रहने और उसी में संवृद्धि पाने वाले वृक्षयोनिक जीव कर्म के वशीभूत होकर कर्म के ही कारण उन वृक्षों में आकर वृक्षयोनिक जीवों में वृक्षरूप से उत्पन्न होते हैं / वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह (स्निग्धता) का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहारं करते हैं / वे त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त (प्रासुक) कर देते हैं। परिविध्वस्त (प्रासुक) किये हुए तथा पहले आहार किये हुए और पीछे त्वचा के द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचा कर अपने रूप में मिला लेते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले दूसरे शरीर (मूल, कन्द, स्कन्धादि) होते हैं। वे जीव कर्मोदय वश वृक्षयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह तीर्थकर देव ने कहा है। [4] श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों के और भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकायवर्ग में कई जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते हैं, वृक्ष में ही संवद्धित होते रहते हैं / वे वृक्षयोनिक जीव उसी में उत्पन्न, स्थित एवं संवृद्ध होकर कर्मोदयवश Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 724 ] [ 111 उन-उन कर्मों के कारण वृक्षों में पाते हैं और वृक्षयोनिक वृक्षों में भूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल) शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं। वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के (सचित्त शरीर में से रस खींच कर उनके) शरीर को अचित्त कर देते हैं। फिर प्रासुक (परिविध्वस्त) हुए उनके शरीरों को पचा कर अपने समान रूप में परिणत कर डालते हैं। उन वृक्षयोनिक मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज रूप जीवों के और भी शरीर होते हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, एवं स्पर्श वाले तथा नाना प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं। ये जीव कर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थकरदेव ने कहा है / 724- (1) अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोगिया रक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थक्वकमा रुक्खजोणिएहि रोहिं अज्झोरुहिताते विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेति पुढवि. सरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झोरहाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं। (2) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता प्रज्झोरहजोणिया' अज्भोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु प्रजभोरुहेसु अज्झोरुहत्ताए विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, प्रवरे वि य णं तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खाय। (3) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता अज्झोरुहजोणिया अज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा अज्झोरुहजोणिएसु प्रज्झोरहेसु अझोरुहिताए विउटैंति, ते जीवा तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहाति, [ते जीवा प्राहारैति] पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि अज्झोरुहजोणियाणं [अज्झोरुहाणं] सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं / (4) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता प्रज्झोरहजोणिया प्रज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा प्रज्झोरहजोणिएसु अज्झोरुहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहारेंति जाव अवरे वि य णं तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरोरा णाणावण्णा जाव मक्खायं / 724--(1) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के अन्य भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकाय जगत् में कई वृक्षयोनिक जीव वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते एवं बढ़ते हैं। इस प्रकार उसी में उत्पन्न, स्थित और संवधित होने वाले वे वृक्षयोनिक जीव कर्मोदयवश तथा कर्म के कारण ही बक्षों में आकर उन वक्षयोनिक वक्षों में 'अध्यारूह' वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (अध्यारूह) जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीर का भी प्राहार करते हैं। यहाँ तक कि वे उन्हें अचित्त, प्रासुक एवं 1. (क) अज्झारोहा-रुक्खस्स उरि अन्नो रुक्खो......"चूणि / (ख) वृक्षेषु उपर्यु परि अध्यारोहन्तीत्यध्यारुहाः --शीलाक वृत्ति Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध परिणामित करके अपने स्वरूप में मिला लेते हैं। उन वृक्षयोनिक अध्यारूह वनस्पति के नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले तथा अनेकविध रचनावाले एवं विविध पुद्गलों से बने हुए दूसरे शरीर भी होते हैं / वे अध्यारूह वनस्पति जीव स्वकर्मोदयवश कर्मप्रेरित होकर ही वहाँ उस रूप में उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है / (2) श्रीतीर्थकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद कहे हैं। इस वनस्पतिकायजगत् में अध्यारूहयोनिक जीव अध्यारूह में ही उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित रहते, एवं संवद्धित होते हैं / वे जीव कर्मोदय के कारण ही वहां आकर वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में अध्यारूह के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव उन वृक्षयोनिक अध्यारूहों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पतिक के शरीर का आहार करते हैं। वे त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर डालते हैं, फिर उनके परिविध्वस्त शरीर को पचा कर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूयोनिक अध्यारूह वनस्पतियों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले, नाना संस्थानवाले, अनेकविध पुद्गलों से बने हुए और भी शरीर होते हैं, वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव से ही अध्यारूहयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर प्रभु ने कहा है। (3) श्रीतीर्थकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का प्रतिपादन पहले किया है / इस वनस्पतिकायिक जगत में कई अध्यारूहयोनिक प्राणी अध्यारूह वक्षों में ही उत्पन्न होते हैं, उन्हीं में उनकी स्थिति और संवृद्धि होती है। वे प्राणी तथाप्रकार के कर्मोदयवश वहाँ आते हैं और अध्यारूहयोनिक वृक्षों में अध्यारूह रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं। तथा बे जीव त्रस और स्थावरप्राणियों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त प्रासुक एवं विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों से युक्त, विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं / स्वकृतकर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थकर भगवान् ने कहा है। (4) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का निरूपण किया है। इस वनस्पतिकायजगत् में कई जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं। वे अध्यारूह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं में स्थित रहते हैं और बढ़ते हैं / वे अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर अध्यारूह वृक्षों में आते हैं और अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (पूर्वोक्त) जीव उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। तदतिरिक्त वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं / वे जीव त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर देते हैं। प्रासुक हुए उस शरीर को वे विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारूहयोनिक वृक्षों के मूल से लेकर बीज तक के जीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त, अनेक प्रकार के पुद्गलों से रचित अन्य शरीर भी होते हैं। वे (पूर्वोक्त सभी जीव) स्व-स्वकर्मोदयवश ही इनमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है / 725-(1) प्रहावरं पुरक्खातं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविह Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 726 ] [113 जोगियासु पुढवीसु तणत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति जाव ते जोवा कम्मोववन्ना भवंतीति मक्खायं / (2) एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणताए बिउटति जाव मक्खायं / (3) एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउदेति जाव मक्खायं / (4) एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटैंति, ते जीवा जाव एवमक्खायं / 725---(1) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों के और भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई प्राणी पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी में ही स्थित होकर उसी में संवर्धन पाते हैं। इस प्रकार पृथ्वी में ही उत्पन्न, स्थित एवं संवृद्ध वे जीव स्वकर्मोदयवश ही नाना प्रकार की जाति (योनि) वाली पृथ्वियों पर तृणरूप में उत्पन्न होते हैं / वे तृण के जीव उन नाना जाति वाली पृथ्वियों के स्नेह (स्निग्धरस) का आहार करते हैं / वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का आहार करते हैं। स-स्थावर जीवों के शरीरों को अचित्त, प्रासुक एवं स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। वे जीव कर्म से प्रेरित होकर ही पृथ्वीयोनिक तृण के रूप में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / यह सब श्रीतीर्थकर प्रभु ने कहा है / (2) इसी प्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जोव पृथ्वीयोनिक तणों में तण रूप से उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते, एवं संवद्ध होते हैं। वे पृथ्वीयोनिक तणों के शरीर का आहार करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। (3) इसी तरह कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में (स्वकृतकर्मोदयवश) तृणरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित एवं संवृद्ध होते हैं। वे जीव तृणयोनिक तृणों के शरीर का ही आहार ग्रहण करते हैं / शेष सारा वर्णन पहले की तरह यहाँ भी समझ लेना चाहिए / (4) इसीप्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव तणयोनिक तृणों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीजरूप में (कर्मोदयवश) उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते एवं संवृद्ध होते हैं। वे उन्हीं तृणयोनिक तृणों का आहार करते हैं। इन जीवों का शेष समस्त वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। ७२६–एवं ओसहीण वि चत्तारि पालावगा (4) / ७२६--इसो प्रकार औषधिरूप में उत्पन्न (वनस्पतिकायिक) जीवों के भी चार आलापक [(1) नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वियों में औषधि विविध अन्नादि की पकी हुई फसल के रूप में, (2) पृथ्वीयोनिक औषधियों में औषधि के रूप में, (3) औषधियोनिक औषधियों में औषध के रूप में, एवं (4) औषधियोनिक औषधियों में (मूल से लेकर बीज तक के रूप में उत्पत्ति) और उनका सारा वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। ७२७--एवं हरियाण वि चत्तारि पालावगा (4) / ७२७---इसी प्रकार हरितरूप में उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों के भी चार आलापक [(1) नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वियों पर हरित के रूप में, (2) पृथ्वीयोनिक हरितों में हरित के रूप में, Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (3) हरित योनिक हरितों में हरित (अध्यारूह) के रूप में, एवं (4) हरितयोनिक हरितों में मूल से लेकर बीज़ तक के रूप में] एवं उनका सारा वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / ७२८--प्रहावरं पुरक्खायं- इहेगतिया सत्ता पढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहजोगियासु पुढवीसु प्रायत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कुहणत्ताए' कंदुकत्ताए उबेहलियत्ताए निवेहलियत्ताए सछत्ताए सज्झत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं पायाणं जाव कुराणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खातं, एक्को चेव पालावगो(१), सेसा तिष्णि नत्थि / ७२८-श्रीतीर्थकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद बताए हैं। इस वनस्पतिकाय जगत् में कई जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही रहते और उसी पर ही विकसित होते हैं। वे पूर्वोक्त पृथ्वीयोनिक वनस्पतिजीव स्व-स्वकर्मोदयवश कर्म के कारण ही वहाँ आकर उत्पन्न होते हैं। वे नाना प्रकार को योनि (जाति) वाली पृथ्वियों पर आर्य, वाय, काय, कहण, कन्दुक, उपेहणी, निर्वेहणी, सछत्रक, छत्रक, वासानी एवं कर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (पूर्वोक्त) जीव उन नानाविध योनियों वाली पृथ्वियों के स्नेह का प्राहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वीकाय आदि छहों काय के जीवों के शरीर का आहार करते हैं। पहले उनसे रस खींच कर वे उन्हें अचित्त-प्रासुक कर देते हैं, फिर उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन पृथ्वीयोनिक (विविध पृथ्वियों से उत्पन्न) आर्यवनस्पति से लेकर ऋरवनस्पति तक के जीवों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आकार-प्रकार और ढांचे वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं / इन जीवों का एक ही आलापक होता है, शेष तीन पालापक नहीं होते। ७२६-ग्रहावरं पुरक्खातं--इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा गाणाविहजोणिएतु उदएसु रुक्खत्ताए विउ ति, ते जोवा तेसि गाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा अाहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि उदमजो. णियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं, जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा [4] अज्झोरुहाण वि तहेव [4], तणाणं प्रोसहोणं हरियाणं चत्तारि पालावगा भाणियन्वा एक्केक्के [4, 4, 4] / ७२६-श्रीतीर्थकरप्रभु ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का निरूपण किया है / इस वनस्पतिकायजगत में कई उदकयोनिक (जल में उत्पन्न होने वाली) वनस्पतियाँ होती हैं, जो जल में ही उत्पन्न होती हैं, जल में ही रहती और उसी में बढ़ती हैं। वे उदकयोनिक वनस्पति जीव पूर्वकृत कर्मोदयवश-कर्मों के कारण ही उनमें आते हैं और नाना प्रकार की योनियों (जातियों) वाले उदकों (जलकायों) में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव नानाप्रकार के जाति वाले जलों के स्नेह का माहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय के शरीरों का भी 1. तुलना- "कुहणा अणेगविहा पन्नत्ता, तं० आए काए कुहणे 'कुरए।" -प्रज्ञापना सूत्र प्रथम पद Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 730, 731] [ 115 आहार करते हैं। उन जलयोनिक वृक्षों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं / वे जीव स्वकर्मोदयवश ही जलयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं / जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेदों के प्रत्येक के चार-चार आलापक बताए गए थे, वैसे ही यहाँ जलयोनिक वृक्षों के भी चार भेदों (वृक्ष, अध्यारूह वृक्ष, तृण और हरित) के भी प्रत्येक के चार-चार आलापक कहने चाहिए। ७३०-प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगत्तिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्यवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु' उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेबालत्ताए कलंबुगत्ताए हढत्ताए कसेरुयत्ताए कच्छ०भाणियत्ताए उपलत्ताए पउमत्ताए कुमुदत्ताए नलिणत्ताए सुभग० सोगंधियत्ताए पोंडरिय० महापोंडरिय० सयपत्त० सहस्सपत्त० एवं कल्हार० कोकणत० अरविदत्ताए तामरसत्ताए भिस० भिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलत्थिमगत्ताए विउंदृति, ते जीवा तेसि नाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा श्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलथिभगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं, एक्को चेव पालावगो [1] / ७३०-श्रीतीर्थंकर भगवान् ने वनस्पतिकाय के और भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकायजगत् में कई जीव उदकयोनिक होते हैं, जो जल में उत्पन्न होते हैं, वहीं रहते और वहीं संवृद्धि पाते हैं / वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण ही तथारूप वनस्पतिकाय में आते हैं और वहाँ वे अनेक प्रकार की योनि (जाति) के उदकों में उदक, अवक, पनक (काई), शैवाल, कलम्बुक, हड, कसेरुक, कच्छभाणितक, उत्पल, पदम, मद, नलिन, सभग, सौगन्धिक, पूण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, भिस, मृणाल, पुष्कर, पुष्कराक्षिभग के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव नाना जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं ! उन जलयोनिक वनस्पतियों के उदक से लेकर पुष्कराक्षिभग तक जो नाम बताए गए हैं, उनके विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान (अवयवरचना) से युक्त एवं नानाविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं। वे सभी जीव स्व-कृतकर्मानुसार हो इन जीवों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है / इसमें केवल एक ही पालापक होता है। 731 -[1] प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता तेहि चेव पुढवि-जोणिएहि रुक्षेहि रुक्खजोणिएहि रुखेहि, रुक्खजोणिएहि मूलेहिं जाव बीएहि [3], रुक्खजोणिएहिं अज्झोरहेहि, अज्झो. रुहजोणिएहि अन्झोरुहेहि, अज्झोरुहजोणिएहि मूलेहिं जाव बीएहि [3], पुढविजोणिहि तहि, तणजोणिएहि तेहि, तणजोणिएहि मूलेहिं जाव बीएहिं [3], एवं प्रोसहीहि तिणि पालावगा [3], एवं हरिएहि वि तिणि पालावगा [3], पुढविजोणिएहिं आएहि काहिं जाव करेहि [1], उदगजोणिएहि रुखेहि, रुक्खजोणिएहिं रुहि, रुक्खजोणिएहिं मूलेहि जाव बीहि [3], एवं 1. तुलना—'जलरुहा अणेगविहा पन्नत्ता, तं-उदए अवए पणए""पोक्खलस्थिभए...।" --प्रज्ञापतासूत्र प्रथम पद Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्छ अज्झोरहेहि वि तिणि [3], तणेहि वि तिणि पालावगा [3], प्रोसहीहि वि तिष्णि[३], हरितेहिं वि तिण्णि [3], उदगजोणिएहि उदरहिं प्रवहिं जाव पुक्खलत्थिभएहि [1] तसपाणत्ताए विउम॒ति / [2] ते जीवा तेसि पुढविजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाणं तणजोणियाणं प्रोसहिजोणियाणं हियजोणियाणं रुक्खाणं अज्झोरहाणं तणाणं ओसहोणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं प्रायाणं कायाणं जाब कुराणं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलस्थिभगाणं सिणेहमारेति / ते जीवा आहारेति पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि रुक्ख जोणियाणं अज्झोरहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं प्रायजोणियाणं कायजोणियाणं जाव कूरजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलस्थिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा गाणावण्णा जाव मक्खायं / 731-[1] श्रीतीर्थंकरदेव ने जीवों के अन्य भेद भी बताए हैं—इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई जीव-पृथ्वीयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कई वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में, कई अध्यारूह योनिक अध्यारूहों में कई अध्यारूहयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कई पृथ्वीयोनिक तृणों में, कई तृणयोनिक तणों में, कई तणयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, इसी तरह औषधि और हरितों के सम्बन्ध में तीनतीन आलापक कहे गए हैं, (कई उनमें); कई पृथ्वीयोनिक आर्य, काय से लेकर कूट तक के वनस्पतिकायिक अवयवों में, 'कई उदकयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, तथा' वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीज तक के अवयवों में, इसी तरह अध्यारूहों, तृणों, औषधियों और हरितों में (पूर्वोक्तवत् तीन-तीन पालापक कहे गए हैं, (उनमें), तथा कई उदकयोनिक उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभगों में त्रसप्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। [2] वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के, जलयोनिक वृक्षों के, अध्यारूडोनिक वृक्षों के, एवं तणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक वृक्षों के तथा वृक्ष, अध्यारूह, तृण, औषधि, हरित, एवं मल से लेकर बीज तक के, तथा आर्य, काय से लेकर कुट वनस्पति तक के एवं उदक: पुष्कराक्षिभग वनस्पति तक के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं। उन वृक्षयोनिक, अध्यारूहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, मूल योनिक, कन्दयोनिक, से लेकर बीजयोनिक पर्यन्त, तथा आर्य, काय से लेकर कूटयोनिकपर्यन्त, एवं अवक अवकयोनि से लेकर पुष्कराक्षिभगयोनिकपर्यन्त त्रसजीवों के' नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं / ये सभी जीव स्वस्वकर्मानुसार ही अमुक-अमुक रूप में अमुकयोनि में उत्पन्न होते हैं / ऐसा तीर्थकरदेव ने कहा है। विवेचन–अनेकविध वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि और पाहार की प्रक्रिया--प्रस्तुत दस सूत्रों(७२२ से 731 तक) में शास्त्रकार ने वनस्पतिकाय जीव के बीज, वक्ष आदि भेदों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि तथा आहार की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन किया है। 1. देखें विवेचन Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 731 ] [ 117 वनस्पतिकायिक जीवों के मुख्य प्रकार--वनस्पतिकायिक जीवों के यहाँ मुख्यतया निम्नोक्त भेदों का उल्लेख है बोजकायिक, पृथ्वीयोनिकवृक्ष वृक्षयोनिकवृक्ष, वृक्षयोनिकवृक्षों में वृक्ष, वृक्षयोनिक वृक्षों से उत्पन्न मूल आदि से लेकर बीज तक, वृक्षयोनिक वृक्षों से उत्पन्न अध्यारूह, वृक्षयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न अध्यारूह, अध्यारूहयोनिकों में उत्पन्न अध्यारूह, अध्यारूहयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न मूल से लेकर बीज तक अवयव, अनेकविध पृथ्वीयोनिक तृण, पृथ्वीयोनिक तणों में उत्पन्न तृण, तृणयोनिक तृणों में उत्पन्न तृण, तृणयोनिक तृणों के मूल से लेकर बीज तक अवयव, तथा औषधि हरित, अनेकविध पृथ्वी में उत्पन्न आर्य, वाय से लेकर कूट तक की वनस्पति, उदकयोनिक वृक्ष, (अध्यारूह, तृण औषधि तथा हरित आदि), अनेकविधउदकयोनि में उत्पन्न उदक से लेकर पुष्कराक्षिभग तक की वनस्पति आदि। बीजकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं-अग्रबीज (जिसके अग्रभाग में बीज हो, जैसेतिल, ताल, ग्राम, गेहूँ, चावल आदि), मूलबीज (जो मूल से उत्पन्न होते हैं, जैसे—अदरक मादि), पर्वबीज (जो पर्व से उत्पन्न होते हैं, जैसे-ईख आदि) और स्कन्धबीज (जो स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं, जैसे सल्लकी आदि)। उत्पत्ति के कारण पूर्वोक्त विविध प्रकार की वनस्पतियों की योनि (मुख्य उत्पत्तिस्थान) भिन्न-भिन्न हैं / पृथ्वी, वृक्ष, जल बीज आदि में से जिस वनस्पति की जो योनि है, वह वनस्पति उसी योनि से उत्पन्न कहलाती है / वृक्षादि जिस वनस्पति के लिए जो प्रदेश उपयुक्त होता है, उसी प्रदेश में वह (वृक्षादि वनस्पति) उत्पन्न होती है, अन्यत्र नहीं, तथा जिसकी उत्पत्ति के लिए जो काल, भूमि, जल, अाकाशप्रदेश और बीज आदि अपेक्षित है, उनमें से एक के भी न होने पर वह उत्पन्न नहीं होता / तात्पर्य यह है कि वनस्पतिकायिक विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के लिए भिन्न-भिन्न काल, भूमि, जल, बीज आदि तो बाह्य निमित्त कारण हैं ही, साथ ही अन्तरंग कारण कर्म भी एक अनिवार्य कारण है। कर्म से प्रेरित हो कर ही विविध वनस्पतिकायिक जीव नानाविध योनियों में उत्पन्न होता है / कभी यह पृथ्वी से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी पृथ्वी से उत्पन्न हुए वृक्ष से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी वृक्षयोनिक वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, और कभी वृक्षयोनिक वृक्षों से मूल, कन्दफल, मूल, त्वचा, पत्र, बीज, शाखा, बेल, स्कन्ध आदि रूप में उत्पन्न होती है / इसी तरह कभी वृक्षयोनिक वृक्ष से अध्यारूह आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी नानायोनिक पृथ्वी से तृणादि चार रूपों में, कभी औषधि आदि चार रूपों में, तथा कभी हरित आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी वह विविधयोनिक पृथ्वी से सीधे आर्य, वाय से लेकर कूट तक की वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है / कभी वह उदकयोनिक उदक में वृक्ष आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है, कभी उदक से सीधे ही उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभग नामके वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है / यद्यपि पहले जिन के चार-चार आलापक बताए गए थे, उनके अन्तिम उपसंहारात्मक सूत्र (731) में तीन-तीन आलापक बताए गए हैं / इसका तत्त्व केवलिंगम्य है। अध्यारूह-वृक्ष आदि के ऊपर एक के बाद एक चढ़ कर जो उग जाते है, उन्हें अध्यारूह (क) सूत्रकृ. शो. बृत्ति, पत्रांक 349 से 352 तक का निष्कर्ष (ख) 'रुक्खजोणिएस रुक्खेसु अज्झारुहत्ताए....'-हहें जन्मनि, अहियं आरुहंति ति अभारोहा। रुक्खस्स उरि अन्नो रुक्खो ।'-चूणि / वृक्षेषु उपयुपरि अध्यारोहन्तीति अध्यारूहाः, वक्षोपरिजातावक्षा इत्यभिधीयत्त ।-शी. वृत्ति. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 1 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध कहते हैं इन अध्यारूहों की उत्पत्ति वृक्ष, तृण, औषधि एवं हरित आदि के रूप में यहाँ बताई गई है। स्थिति, संवृद्धि, एवं प्राहार की प्रक्रिया-प्रस्तुत सूत्रों में पूर्वोक्त विविध वनस्पतियों की उत्पत्ति एवं संवृद्धि का वर्णन किया गया है, उसका प्रधान प्रयोजन है-इनमें जीव (आत्मा) का अस्तित्व सिद्ध करना / यद्यपि बौद्ध दर्शन में इन स्थावरों को जीव नहीं माना जाता, तथापि जीव का जो लक्षण है--उपयोग, वह इन वृक्षादि में भी परिलक्षित होता है। यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि जिधर पाश्रय मिलता है, उसी अोर लता जाती है। तथा विशिष्ट अनुरूप आहार मिलने पर वनस्पति की वृद्धि और न मिलने पर कृशता-मलानता आदि देखी जाती है। इन सब कार्यकलापों को देखते हुए वनस्पति में जीवत्व सिद्ध होता है। चूकि पाहार के बिना किसी जीव की स्थिति एवं संवद्धि (विकास) हो नहीं सकते। इसलिए आहार की विविध प्रक्रिया भी बताई है। जो वनस्पतिकायिक जीव जिस पृथ्वी आदि की योनि में उत्पन्न होता है वह उसी में स्थित रहता है, और उसो से संवर्धन पाता है / मुख्यतया वह उसी के स्नेह (स्निग्धरस) का आहार करता है। इसके अतिरिक्त वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं वनस्पतिकाय के शरीर का अाहार करता है। पूर्वोक्त बनस्पतिकायिक जीव जब अपने से संसृष्ट या सन्निकट किसी त्रस या स्थावर जीवों का आहार करते हैं, तब वे पूर्वभुक्त त्रस या स्थावर के शरीर को उसका रस चूस कर परिविध्वस्त (अचित्त) कर डालते हैं।' तत्पश्चात् त्वचा द्वारा भुक्त पृथ्वी आदि या त्रस शरीर को वे अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। यही समस्त वनस्पतिकायिक जीवों के आहार की प्रक्रिया है। साथ ही यह भी जान लेना चाहिए कि जो वनस्पति जिस प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श वाले जल, भूमि आदि का आहार लेती है, उसी के अनुसार उसका वर्णादि बनता है, या आकार-प्रकार प्रादि बनता है। जैसे ग्राम एक ही प्रकार की वनस्पति होते हुए भी विभिन्न प्रदेश की मिट्टी, जल, वायु एवं बीज आदि के कारण विभिन्न प्रकार के वर्णादि से युक्त, विविध आकार-प्रकार से विशिष्ट नाना शरीरों को धारण करता है / इसी प्रकार अन्य वनस्पतियों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। स्नेह-प्रस्तुत प्रकरण में स्नेह शब्द का अर्थ शरीर का सार, या स्निग्धतत्व / जिसे अमुकअमुक वनस्पतिकायिक जीव पी लेता है, या ग्रहण कर लेता है / 2 / नानाविध मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया 732- प्रहावरं पुरक्खायं—णाणाविहाणं मणुस्साणं, तंजहा-कम्मभूमगाणं प्रकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं प्रारियाणं मिलक्खूणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावकासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थ णं मेहुणवत्तिए नामं संयोगे समुप्पज्जति, ते दुहतो वि सिणेहं संचिणंति, 1. इस प्रकार के अनेक वृक्ष व वनस्पतियां पाई जाती हैं जो मनुष्य व अन्य त्रस प्राणियों को अपने निकट पाने पर खींच कर उनका प्रहार कर लेते है। 2. 'सिणेहो णाम सरीरसारो, तं प्रापिवंति'-चूणि : स्नेहं स्निग्धभावमाददते ।—शी. वृत्ति सूत्र. मू. पा. टिप्पण, 3. 'ते दहतो वि सिणेह-सिणेहो नामा अन्योऽन्यगात्र संस्पर्शः। यदा पुरुषस्नेहः शुक्रान्त: नार्योदरमनप्रविश्य नार्यो जसा सह संयुज्यते तदा सो सिणेहो क्षीरोदकवत् अण्णमण्णं 'संचिति' गृहाणातीत्यर्थः / ' अर्थात् स्नेह का अर्थ पुरुष और स्त्री के परस्पर गात्रसंस्पर्श से जनित पदार्थ / " जब पुरुष का स्नेह-शुक्र नारी के उदर में प्रविष्ट होकर नारी के प्रोज (रज) के साथ मिलता है, तब वह स्नेह दूध और पानी की तरह परस्पर एक रस हो जाता है, उसी स्नेह को गर्भस्थ जीव सर्वप्रथम ग्रहण करता है। --सूत्र कृ. च. (म. पा. टि.) पृ. 202 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 732 ] [ 119 संचित्तिा तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुसगत्ताए विउत्ति, ते जीवा मातुप्रोयं पितुसुक्कं तं तदुभयं संसर्ल्ड कलुसं किबिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेंति, ततो पच्छा जं से माता पाणाविहाम्रो रसविगईओ' पाहारमाहारेति ततो एगदेसेणं प्रोयमाहारेंति, अणुपुव्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिन्ना ततो कायातो अभिनिव्वट्टमाणा इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं वेगता जणयंति णपुसगं वेगता जणयंति, ते जोवा डहरा समाणा मातु खोरं सपि प्राहारेंति, अणुपुम्वेणं वुड्ढा प्रोयणं कुम्मासं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं जाब सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं मणुस्साणं अंतरदीवगाणं प्रारियाणं मिलक्खूणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं / / . ७३२-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप बतलाया है। जैसे कि-कई मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते हैं, कई अकर्मभूमि में और कई अन्त:पों (56 अन्तर्वीपों) में उत्पन्न होते हैं। कोई आर्य हैं, कोई म्लेच्छ (अनार्य)। उन जीवों की उत्पति अपने अपने वीज और अपने-अपने अवकाश के अनुसार होतो है। इस उत्पत्ति के कारणरूप पूर्वकर्मनिर्मित योनि में स्त्री पुरुष का मैथुनहेतुक संयोग उत्पन्न होता है। (उस संयोग के होने पर) उत्पन्न होने वाले वे जीव तैजस् और कार्मण शरीर द्वारा) दोनों के स्नेह का आहार (ग्रहण) करते हैं, तत्पश्चात् वे जीव वहाँ स्त्रीरूप में, पुरुषरूप में और नपुसकरूप में उत्पन्न होते हैं। सर्वप्रथम (वहां) वे जीव माता के रज (शोणित) और पिता के वीर्य (शुक्र) का, जो परस्पर मिले हुए (संसृष्ट) कलुष (मलिन) और घृणित होते हैं, प्रोज-पाहार करते हैं / उसके पश्चात् माता, जिन अनेक प्रकार की सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव उसके एकदेश (अंश) का ओज अाहार करते हैं। क्रमशः (गर्भ की) वृद्धि एवं परिपाक को प्राप्त वे जीव माता के शरीर से निकलते हुए कोई स्त्रीरूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुसकरूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव बालक होकर माता के दूध और घी का आहार करते हैं / क्रमश: बड़े हो कर वे जीव चावल, कुल्माष (उड़द या थोड़ा भीजा हुआ मूग) एवं त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं / फिर वे उनके शरीर को अचित करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज, आर्य और म्लेच्छ आदि अनेकविध मनुष्यों के शरीर नानावर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श एवं संस्थान वाले नाना पुद्गलों से रचित होते हैं। ऐसा तीर्थकरदेव ने कहा है। _ विवेचन-मनुष्यों को उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं प्राहार की प्रक्रिया-प्रस्तुत सूत्र में अनेक प्रकार के मनुष्यों की उत्पत्ति, आदि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। नारक और देव से पहले मनुष्यों के प्राहारादि का वर्णन क्यों ? ---त्रस जीवों के 4 भेद हैं-नारक, देव, तिर्यञ्च और मनुष्य / इन चारों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसके अतिरिक्त 1. रसविगईओ-'रसविगई थीखीरादियानो णव विग्गइयो / ' अर्थात माता के दूध आदि 9 विगई (विकृतियाँ) कहलाती हैं। भगवती सूत्र (1/7/61) में कहा है-'जसे माया नाणाविहाओ रसविगइओ आहार माहारेइ'-- वह माता नाना प्रकार की रसविकृतियाँ साहार के रूप में ग्रहण करती है। -----सूत्र कृ. चू. (मू. पा. टि) पृ. 202 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध देव और नारक अल्पज्ञों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, अनुमान-पागम से जाने जाते हैं, इस कारण देव एवं नारक को छोड़ कर यहाँ सर्वप्रथम मनुष्य के आहारादि का वर्णन किया गया है। देव और नारकों का आहार -- नारक जीव अपने पापकर्मों का फल भोगने वाले जीव हैं, जबकि देव प्रायः अपने शुभकर्मों का फल भोगने वाले जीव हैं। नारकजीवों का आहार एकान्त अशुभपुद्गलों का होता है, जबकि देवों का आहार शुभपुद्गलों का होता है। देव और नारक दोनों ही अोज आहार को ग्रहण करते हैं, कवलाहार नहीं करते। प्रोज-पाहार दो प्रकार का होता हैपहला अनाभोगकृत, जो प्रतिसमय होता रहता है, दूसरा आभोगकृत, जो जघन्य चतुर्थभक्त से लेकर उत्कृष्ट 33 हजार वर्ष में होता है। _मनुष्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया-जब स्त्री और पुरुष का सुरतसुखेच्छा से संयोग होता है, तव जीव अपने कर्मानुसार स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होता है। वह संयोग उस जीव की उत्पत्ति का कारण उसी तरह होता है, जिस तरह दो अरणि की लकड़ियों का संयोग (घर्षण) अग्नि की उत्पत्ति का कारण होता है। उत्पन्न होने वाला जीव कर्मप्रेरित होकर तेजस-कार्मणशरीर के द्वारा पुरुष के शुक्र और स्त्री के शोणित (रज) के आश्रय से उत्पन्न होता है। __स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक को उत्पत्ति का रहस्य-शास्त्रकार ने इसके रहस्य के लिए दो मुख्य कारण बताए हैं- यथाबीज एवं यथावकाश। इसका प्राशय बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं-बीज कहते हैं ---पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज को / सामान्यतया स्त्री, पुरुष या नपुसक की उत्पत्ति भिन्नभिन्न बीज के अनुसार होती है। स्त्री का रज और पुरुष का वीर्य दोनों अविध्वस्त हो, यानी संतानोत्पत्ति की योग्यता वाले हों-दोषरहित हों, और रज की अपेक्षा वीर्य की मात्रा अधिक हो तो पुरुष की, रज की मात्रा अधिक और वीर्य की मात्रा कम हो तो स्त्री की, एवं दोनों समान मात्रा में हों तो नपुसक की उत्पत्ति होती है। 55 वर्ष से कम उम्र की स्त्री की एवं 70 वर्ष से कम उम्र के पुरुष को अविध्वस्तयोनि संतानोत्पत्ति का कारण मानो जाती है। इसके अतिरिक्त शुक्र-शोणित भी 12 मुहूर्त तक ही संतानोत्पत्ति की शक्ति रखते हैं, तत्पश्चात् वे शक्तिहीन एवं विध्वस्तयोनि हो जाते हैं। इस भिन्नता का दूसरा कारण बताया है—'यथावकाश' अर्थात् माता के उदर, कुक्षि आदि के अवकाश के अनुसार स्त्री, पुरुष या नपुसक होता है। सामान्यतया माता को दक्षिण कुक्षि से पुरुष की एवं वामकुक्षि से स्त्री की तथा दोनों ही कुक्षि से नपुसक की उत्पत्ति होती है / इसके अतिरिक्त स्त्री, पुरुष या नपुंसक होने का सबसे प्रधान कारण प्राणो का स्वकृत कर्म है / ऐसा सिद्धान्त नहीं है कि स्त्री मरकर अगले जन्म में स्त्री ही हो, पुरुष मर कर पुरुष ही हो / यह सब कर्माधीन है / कर्मानुसार ही वैसे बीज और वैसे अवकाश का संयोग मिलता है।' स्थिति, वृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया स्त्री की कुक्षि में प्रविष्ट होकर वह प्राणी स्त्री द्वारा प्रहार किये हुए पदार्थों के स्नेह का आहार करता है। उस स्नेह के रूप में प्राप्त माता के अाहारांश का ग्राहार करता हुआ, वह बढ़ता है। माता के गर्भ (उदर) से निकल कर वह बालक पूर्वजन्म के अभ्यासवश याहार लेने की इच्छा से माता का स्तनपान करता है। उसके पश्चात् वह 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 353-354 का सारांश / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 733 ] [ 121 कुछ और बड़ा होने पर स्तनपान छोड़ कर दूध, दही, घृत, चावल, रोटी आदि पदार्थों का आहार करता है। इसके बाद अपने आहार के योग्य त्रस या स्थावर प्राणियों का आहार करता है। भुक्तपदार्थों को वह पचाकर अपने रूप में मिला लेता है। मनुष्यों के शरीर में जो रस, रक्त मांस, मेद (चर्बी), हड्डी, मज्जा और शुक्र में सात धातु पाए जाते हैं, वे भी उनके द्वारा किये गए आहारों से उत्पन्न होते हैं; जिनसे मनुष्यों के नाना प्रकार के शरीर बनते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया ७३३–प्रहावरं पुरक्खायं–णाणाविहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहामच्छाणं' जाव सुसुमाराणं, तेसि च णं प्रहाबीएणं प्रहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्म० तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति प्रणुपुवेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिण्णा ततो कायातो अभिनिव्वट्टमाणा अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इस्थि वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुसगं वेगया जणयंति, ते जीवा महरा समाणा पाउसिणेहमाहारेति अणुपुब्वेणं वुड्या वणस्सतिकायं तस थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, प्रवरे वि य गं तेसि णाणाविहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं जाव सुसुमाराणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं। ७३३--इसके पश्चात् तीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार के पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जलचरों का वर्णन इस प्रकार किया है, जैसे कि—मत्स्यों से लेकर सुसुमार तक के जीव पंचेन्द्रियजलचर तिर्यञ्च हैं / वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्वस्वकर्मानुसार पूर्वोक्त प्रकार के गर्भ में उत्पन्न (प्रविष्ट) होते हैं। फिर वे जीव गर्भ में माता के आहार के एकदेश को (आंशिक रूप से) ओज-पाहार के रूप में ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वे क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हो कर गर्भ के परिपक्व होने (गर्भावस्था पूर्ण होने) पर माता की काया से बाहर निकल (पृथक् हो) कर कोई अण्डे के रूप में होते हैं, तो कोई पोत के रूप में होते हैं। जब वह अंडा फूट जाता है तो कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कोई पुरुष (नर) के रूप में और कोई नपुसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जलचर जीव बाल्यावस्था में ग्राने पर जल के स्नेह (रस) का ग्राहार करते हैं। तत्पश्चात् क्रमशः बड़े होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का ग्राहार करते हैं / (इसके अतिरिक्त) वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं, एवं उन्हें पचा कर क्रमशः अपने रूप में परिणत कर लेते हैं / उन मछली, मगरमच्छ, कच्छप, ग्राह और घड़ियाल आदि सुसुमार तक के जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के दूसरे भी नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, नाना आकृति एवं अवयव रचना वाले तथा नाना पुद्गलों से रचित अनेक शरीर होते हैं, यह श्री तीर्थकरदेव ने कहा है। ७३४-प्रहावरं पुरक्खायं-नाणाविहाणं च उप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-- एगखराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणफयाणं, तेसि च णं अहाबीएणं ग्रहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य 1. तुलना-जलचर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया ..."मच्छा, कच्छपा ....."सुसुमारा।"..-प्रज्ञापना सूत्र पद 1. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध कम्म० जाव मेहुणपत्तिए नामं संजोगे समुपज्जति, ते दुहतो सिणेहं [संचिणंति, संचिणित्ता] तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पूरिसत्ताए जाव विउ ति, ते जीवा माउं प्रोयं पिउं सूक्कं एवं जहा मणुस्साणं जाव इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं पि नसगं पि, ते जीवा इहरा समाणा मातु खीरं सप्पि आहारति अणुपुवेणं बुड्ढा वणस्सतिकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरोरं जाव संतं, प्रवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं चउप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणफयाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं / ७३४-इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने अनेकजाति वाले स्थलचर चतुष्पद (चौपाये) तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में बताया है, जैसे कि-कई स्थलचर चौपाये पशु एक खुर वाले, कई दो खुर वाले, कई गण्डीपद (हाथी आदि) और कई (सिंह आदि) नखयुक्त पद वाले होते हैं / वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पन्न होते हैं। स्त्री-पुरुष (मादा और नर) का कर्मानुसार परस्पर सुरत-संयोग होने पर वे जीव चतुष्पद स्थलचरजाति के गर्भ में आते हैं। वे माता और पिता दोनों के स्नेह का पहले प्रहार करते हैं। उस गर्भ में वे जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में होते हैं। वे जीव (गर्भ में) माता के प्रोज (रज) और पिता के शुक्र का आहार करते हैं। शेष सब बातें पूर्ववत् मनुष्य के समान समझ लेनी चाहिए / इनमें कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कभी नर के रूप में और कोई नपुसक के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव बाल्यावस्था में माता के दूध और घृत का आहार करते हैं / क्रमशः बड़े होकर वे वनस्पतिकाय का तथा दूसरे त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे प्राणी पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं / फिर वे आहार किये हुए पदार्थों को पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं / उन अनेकविध जाति वाले स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच्चयोनिक चतुष्पद जीवों के विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं रचना वाले दूसरे अनेक शरीर भी होते हैं, यह श्री तीर्थकरप्रभु ने कहा है। ७३५–प्रहावरं पुरक्खाय-नाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-अहीणं अयगराणं प्रासालियाणं महोरगाणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिस० जाव एत्थ गं मेहुण० एतं चेव, नाणत्तं अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं पि नपुंसगं पि, ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेति अणुपुत्वेणं वुड्ढा वणस्सतिकायं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेवि य णं तेसि णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरतिरिक्खचिदिय० अहोणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं / ७३५--इसके पश्चात् श्रीतीर्थकरदेव ने अनेक प्रकार की जाति वाले उरपरिसर्प (छाती के बल सरक कर चलने वाले), स्थलचर, पंचेन्द्रिय, तिर्यञ्चयोनिक जीवों का वर्णन किया है। जैसे कि सर्प, अजगर, प्राशालिक (सर्पविशेष) और महोरग (बड़े सांप) आदि उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव हैं / वे जीव अपने-अपने उत्पत्तियोग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। इन प्राणियों में भी स्त्री और पुरुष का परस्पर मैथुन नामक संयोग होता है, उस संयोग के होने पर कर्मप्रेरित प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी नियत योनि में उत्पन्न होते हैं। शेष बातें पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। उनमें से कई अंडा देते हैं, कई बच्चा (पोत द्वारा) उत्पन्न Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 736, 737 ] [ 123 करते है / उस अंडे के फट जाने पर उस में से कभी स्त्री (मादा) होती है, कभी नर पैदा होता है, और कभी नपुंसक होता है / वे जीव बाल्यावस्था में वायुकाय (हवा) का आहार करते हैं / क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पतिकाय तथा अन्य त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी के शरीर से लेकर वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं, फिर उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन (पूर्वोक्त) उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श, आकृति एवं संस्थान (रचना) वाले अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थकरप्रभु ने कहा है। ___७३६-प्रहावरं पुरक्खायं-नाणाविहाणं भयपरिसप्पथलचरचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-''गोहाणं नउलाणं सेहाणं सरडाणं सल्लाणं संरथाणं खोराणं घरकोइलियाणं विस्संभराणं मूसगाणं मंगुसाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जोहाणं चाउपाइयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पूरिसस्स य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियव्वं जाव सारूविकई संतं, प्रवरे वि य णं तेसि नाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिदियथलयरतिरिक्खाणं तं गोहाणं जाव मक्खातं। ____७३६--इसके पश्चात् भुजा के सहारे से पृथ्वी पर चलने वाले (भुजपरिसर्प) अनेक प्रकार के स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के विषय में श्री तीर्थकर भगवान ने कहा है। जैसे कि-गोह, नेवला, सेह, सरट, सल्लक, सरथ, खोर, गहकोकिला (धरोली-छिपकली), विषम्भरा, मूषक (चहा), मंगुस, पदलातिक, विडालिक जोध और चातुष्पद आदि भुजपरिसर्प हैं / उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है। उर:परिसर्पजीवों के समान ये जीव भी स्त्री पुरुष-संयोग से उत्पन्न होते हैं / शेष सब बातें पूर्ववत् जान लेनी चाहिए। ये जीव भी अपने किये हुए आहार को पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं / गोह से लेकर चातुष्पद तक (पूर्वोक्त) उन अनेक जाति वाले भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के नाना वर्णादि को ले कर अनेक शरीर होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है / 737 -प्रहावरं पुरक्खातं---णाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहाचम्मपक्खीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं, नाणतं ते जीवा डहरगा समाणा माउ-गात्तसिणेह पाहारेति प्रणुपुग्वेणं वुड्ढा वणस्सतिकायं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य गं तेसि नाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं जाव मक्खातं / ७३७--इसके पश्चात् श्रीतीर्थकरदेव ने अनेक प्रकार की जाति वाले प्राकाशचारी (खेचर) 1. तुलना-भुजपरिसप्पा अणेगविहा"नउला सेहा..."जाहा चउप्पाइया"।"-प्रज्ञापना सूत्र पद 1 सोह्र'--'सीपक्खिणी अंडगाणि ...काएण पेल्लिऊरण अच्छति / एवं गातम्हाए फसंति, सरीरं च नित्वत्तति / " अर्थात-वह पक्षिणी (मादा पक्षी) अण्डों पर अपने पंखों को फैला कर बैठती है, और अपने शरीर की उष्मा (गर्मी) के स्पर्श से ग्राहार देकर बच्चे (अण्डे ) को सेती है, जिससे वह क्रमश: बढ़ता है-- परिपक्व होता है। -सूत्र कृ. चूणि (मू. पा. टि) 205. Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के विषय में कहा है। जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी तथा विततपक्षी आदि खेचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय होते हैं। उन प्राणियों की उत्पत्ति भी उत्पत्ति के योग्य बीज और अवकाश के अनुसार होती है और स्त्री-पुरुष (मादा और नर) के संयोग से इनकी उत्पत्ति होती है। शेष बातें उरःपरिसर्प जाति के पाठ के अनुसार जान लेनी चाहिए / वे प्राणी गर्भ से निकल कर बाल्यावस्था प्राप्त होने पर माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं। फिर क्रमश: बड़े होकर वनस्पतिकाय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं। इन अनेक प्रकार की जाति वाले चर्मपक्षी आदि आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के और भी अनेक प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं अवयवरचना वाले शरीर होते हैं, यह श्रीतीर्थंकर देव ने कहा है। विवेचन-पंचेन्द्रियतियंचों की उत्पत्ति, स्थिति, संवद्धि एवं प्राहार की प्रक्रिया-प्रस्तुत पांच सूत्रों में पांच प्रकार के तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहारादि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के 5 प्रकार ये हैं-जलचर, स्थलचर, उरःपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर / इन पांचों के प्रत्येक के कतिपय नाम भी शास्त्रकार ने बताए हैं / शेष सारी प्रक्रिया प्रायः मनुष्यों की उत्पत्ति अादि की प्रक्रिया के समान है। अन्तर इतना ही है कि प्रत्येक की उत्पत्ति अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है, तथा प्रथम आहार-ग्रहण में अन्तर है (1) जलचर जीव सर्वप्रथम जन्म लेते ही अप्काय का स्नेह का आहार करते हैं / (2) स्थलचर जीव सर्वप्रथम माता-पिता के स्नेह का (प्रोज) आहार करते हैं। (3) उर:परिसर्प जीव सर्वप्रथम वायुकाय का आहार करते हैं। (4) भुजपरिसर्प जीव उर:परिसर्प के समान वायुकाय का आहार करते हैं। (5) खेचर जीव माता के शरीर की गर्मी (स्निधता) का आहार करते हैं / शेष सब प्रक्रिया प्रायः मनुष्यों के समान है'। स्थलचर-एक खुरवाले घोड़े गधे आदि, दो खुर वाले -- गाय भैस आदि, गंडीपद (फलकवत् पैर वाले) हाथी गैंडा आदि, नखयुक्त पंजे वाले-सिंह बाघ आदि होते हैं / खेचर-चर्मपक्षी-चमचेड़, वल्गूली आदि, रोमपक्षी-हंस, सारस, बगुला आदि, विततपक्षी . और समुद्र पक्षी-ढाई द्वीप से बाहर पाये जाते हैं / विकलेन्द्रिय सप्राणियों को उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि और आहार को प्रक्रिया ७३८--प्रहावरं पुरक्खातं—इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणाविह. वक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहाण तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि नाणाविहाणं 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 355-356 का सारांश 2. सूत्रकृ. शी. वृत्ति पत्रांक 355 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 738 ] [ 125 तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि त णं तेसि तस-थावरजोणियाणं अणुसूयाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खातं / एवं दुरूवसंभवत्ताए।' एवं खुरुदुगताए / अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता नाणाविह० जाव कम्म० खुरुदुगत्ताए वक्कमंति / ७३८-इसके पश्चात् श्री तीर्थकर देव ने (अन्य जीवों की उत्पत्ति और आहार के सम्बन्ध में) निरूपण किया है / इस जगत् में कई प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं / वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, तथा विविध योनियों में आकर संवर्द्धन पाते हैं / नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न, स्थित और संवृद्धित वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार उन कर्मों के ही प्रभाव से विविध योनियों में आकर (विकलेन्द्रिय त्रस के रूप में) उत्पन्न होते हैं / वे प्राणी अनेक प्रकार के त्रस स्थावर-पुद्गलों के सचित्त या अचित्त शरीरों में उनके आश्रित होकर रहते हैं। वे जीव अनेकविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं। उन स-स्थावर योनियों से उत्पन्न, और उन्ही के आश्रित रहने वाले प्राणियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, विविध संस्थान (आकार तथा रचना) वाले और भी अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है। इसी प्रकार विष्ठा और मूत्र आदि में कुरूप विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं और गाय भैंस आदि के शरीर में चर्मकीट उत्पन्न होते हैं / विवेचन--विकलेन्द्रिय स प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति संवृद्धि और प्राहार की प्रक्रियाप्रस्तुत सूत्र में विकलेन्द्रिय प्राणियों की स्थिति आदि के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। विकलेन्द्रिय जीवों को उत्पत्ति के स्रोत-मनुष्यों एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों के सचित्त शरीर में पसीने आदि में जू, लीख, चीचड़ (चर्मकील) आदि सचित्त शरीर संस्पर्श से खटमल आदि पैदा होते हैं, तथा मनुष्य के एवं विकलेन्द्रिय प्राणियों के अचित्त शरीर (कलेवर) में कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं। सचित्त अग्निकाय तथा वायुकाय से भी विकेलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। वर्षाऋतु में गर्मी के कारण जमीन से कुथं प्रा आदि संस्वेदज तथा मक्खी, मच्छर आदि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार जल से भी अनेक विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है / वनस्पतिकाय से भ्रमर आदि 2. दुरुवसंभवत्ताए-जिनका विरूप रूप हो, ऐसे कृमि आदि के रूप में / अथवा पाठान्तर है-'दुरुतत्ताए विउति'-दुरूतनाम मुत्तपुरोसादी सरीरावयवा तत्थ सचित्तेसु मणुस्साण ताव पोट्टेसु समिगा, मंडोलगा, कोट्ठाओ अ संभवन्ति संजायन्ते"भणिता दुरूतसंभवा' दुरूत कहते हैं मूत्र-मल आदि शरीर निःसृत अंगभूत तत्त्वों को तथा सचित्त मनुष्यों के पेट में तथा अन्य अवयवों में गिडोलिए, केचुए, कृमि, क्रोष्ठ आदि उत्पन्न होते हैं। -सूत्र कृ. चूर्णि (मू. पा. टि.) पृ. 206 2. खुरुदुगताए-"खुरूड्डगा नाम जीवंताण चेव गोमहिसादीणं चम्मस्स अंतो सम्मुच्छंति / अर्थात-खुरूदुग या खुरुड्डग उन्हें कहते हैं, जो जीवित गाय-भैसों की चमड़ी पर सम्मूच्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। -सूत्र कृ. चूणि, (मू. पा. टि.) पृ. 206 Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं / पंचेन्द्रिय प्राणियों के मलमूत्र, मवाद आदि में भी विकलेन्द्रिय जीव पैदा हो जाते हैं। सचित्त-अचित्त वनस्पतियों में भी घुण, कीट आदि उत्पन्न हो जाते हैं / ये जीव जहां-जहां उत्पन्न होते हैं, वहां-वहां के पार्श्ववर्ती या आश्रयदायी सचित्त या अचित्त प्राणियों के शरीरों से उत्पन्न मल, मूत्र, पसीना, रक्त, जल, मवाद, आदि का ही पाहार करते हैं।' अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और पृथ्वीकाय के प्राहारादि का निरूपण 736- अहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वातसंसिद्ध वातसंगहितं वा वातपरिगतं उड्ढं वातेसु उड्ढभागी भवइ अहे वातेसु अहेभागी भवइ तिरियं वाएसु तिरियभागी भवइ, तंजहा-पोसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए / ते जीवा तेसि नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, [ते जीवा प्राहारेंति] पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावर जोणियाणं प्रोसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा जाब मक्खातं / ७३६-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अन्यान्य प्राणियों के आहारादि का प्रतिपादन किया है। इस जगत् में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर कर्म से प्रेरित वायुयोनिक जीव अप्काय में आते हैं / वे प्राणी वहाँ अप्काय में आ कर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अप्कायरूप में उत्पन्न होते हैं। वह अप्काय वायु से बना हुआ (संसिद्ध) या वायु से संग्रह किया हुआ अथवा वायु के द्वारा धारण किया हुअा होता है / अतः वह (जल) ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे और तिरछा वायु हो तो तिरछा जाता है। उस अप्काय के कुछ नाम ये हैं--प्रोस, हिम (बर्फ), मिहिका (कोहरा या धुध), प्रोला (गड़ा), हरतन और शुद्ध जल / वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं / तथा पूर्वभुक्त त्रस स्थावरीय पाहार को पचा कर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं / उन बस-स्थावरयोनि समूत्पन्न अवश्याय (प्रोस) से लेकर शुद्धोदकपर्यन्त जलकायिक जीवों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान प्राकार-प्रकार आदि के और भी अनेक शरीर होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है।' ७४०-अहावरं पुरक्खातं—इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा तस-थावरजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि तस-थावर जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं / ७४०-इसके अनन्तर श्रीतीर्थंकरप्रभु ने अप्काय से उत्पन्न होने वाले विविध जलकायिक जीवों का स्वरूप बताया है / इस जगत् में कितने ही प्राणी जल से उत्पन्न होते हैं, जल में ही रहते 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 357 का सारांश Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 741, 742, 743] [ 127 हैं, और जल में ही बढ़ते हैं। वे अपने पूर्वकृतकर्म के प्रभाव से जल में पाते हैं और जल में जलरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन त्रस-स्थावर योनिको जलों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं; तथा उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन त्रस-स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले दूसरे शरीर भी होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरप्रभु ने कहा है। ___ ७४१--प्रहावरं पुरक्खातं--इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरोरं जाव संतं, प्रवरे वि य गं तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खातं। ७४१-इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने जलयोनिक जलकाय के स्वरूप का निरूपण किया है। इस जगत् में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्मों के वशीभूत होकर पाते हैं / तथा उदकयोगिक उदकजीवों में उदकरूप में जन्म लेते हैं / वे जीव उन उदकयोनिक उदकों के स्नेह का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि शरीरों को भी पाहार ग्रहण करते हैं और उन्हें अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन उदकयोनिक उदकों के अनेक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श एवं संस्थान वाले और भी शरीर होते हैं, ऐसा श्री तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित है। ७४२-~-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोगिएसु उदगेसु तसपाणताए विउ ति, ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, प्रवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खातं / ७४२-इसके पश्चात श्री तीर्थकरदेव ने पहले उदकयोनिक त्रसकाय के स्वरूप का निरूपण किया था कि इस संसार में अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से उदकयोनिक उदकों में आकर उनमें त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी प्राहार करते हैं। उन उदकयोनिक त्रसप्राणियों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, यह तीर्थकर. प्रभु ने बताया है। ७४३-~-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तस्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि जाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा पाहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं / सेसा तिणि पालावगा जहा उदगाणं / ७४३-इसके पश्चात् श्री तीर्थकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में अन्य बातों की Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध भी प्ररूपणा की है / इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में (कृतकर्मवश) नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर वहाँ किये हुए कर्मोदयवशात् नाना प्रकार के सस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं / उन स-स्थावरयोनिक अग्निकायों के दूसरे और भी शरीर बताये गये हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि के होते हैं। शेष तीन पालापक (बोल) उदक के पालापकों के समान समझ लेने चाहिए। ७४४--प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मणिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा बाउक्कायत्ताए विउ ति, जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा चत्तारि गमा। ७४४--इसके पश्चात् श्रीतीर्थकरदेव ने अन्य (जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में) कुछ बातें बताई हैं / इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नाना प्रकार की योनियों में आकर वहाँ किये हुए अपने कर्म के प्रभाव से त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। यहाँ भी वायकाय के सम्बन्ध में शेष बातें तथा चार पालापक अग्निकाय के पालापकों के समान कह देने चाहिए। ७४५---प्रहावरं पुरक्खातं--इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सक्करताए वालुयत्ताए, इमाप्रो गाहाम्रो अणुगंतव्वानो पुढवी य सक्करा वालुगा य उवले सिला य लोणूसे / ' प्रय तउय तंब सोसग रुप्प सुवणे य वइरे य // 1 // हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले / अब्भपडलऽभवालुय बादरकाए मणिविहाणा // 2 // गोमेज्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य / मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदणीले य // 3 // चंदण गेरुय हंसगब्भ पुलए सोगंधिए य बोधव्वे / चंदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकते य // 4 // एतायो एतेसु भाणियव्वानो गाहासु (गाहामओ) जाव सूरकतत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि 1. तुलना करें-—'पुढवी य सक्करा"सूरकंतेय / एए खरपुढवीए नामा छत्तीसइं होति / ' -प्राचारांग नियुक्ति गाथा 73 से 76 तथा प्रज्ञापना पद 1 --उत्तराध्ययन अ. 26 / गा. 73 से 76 तक Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपपिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 745 ] [ 129 णाणाविधाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति, पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकंताणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं, सेसा तिणि पालावगा जहा उदगाणं / ७४५--इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकर भगवान् ने (इस सम्बन्ध में) और भी बातें बताई हैं। इस संसार में कितने ही जीव नानाप्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के त्रस-स्थावरप्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी, शर्करा (कंकर) या बालू के रूप में उत्पन्न होते हैं / इस विषय में इन गाथाओं के अनुसार इसके भेद जान लेने चाहिए पृथ्वी, शर्करा (कंकर) बाल (रेत), पत्थर, शिला (चट्टान), नमक, लोहा, रांगा (कथीर), तांबा, चांदी, शीशा, सोना और वज्र (हीरा), तथा हड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल (मूगा), अभ्रपटल (अभ्रक), अभ्रबालुका, ये सब पृथ्वीकाय के भेद हैं ! गोमेदक रत्न, रुचकतरत्न, अंकरत्न, स्फटिक रत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकतरत्न, मसारगल्ल, भुजपरिमोचकरत्न तथा इन्द्रनीलमणि, चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त, एवं सूर्यकान्त, ये मणियों के भेद हैं। इन (उपर्युक्त) गाथाओं में उक्त जो मणि, रत्न आदि कहे गए हैं, उन (पृथ्वी से ले कर सूर्यकान्त तक की योनियों) में वे जीव उत्पन्न होते हैं। (उस समय) वे जीव अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। (इसके अतिरिक्त) वे जीव पृथ्वी आदि शरीरों का भी पाहार करते हैं। उन त्रस और स्थावरों से उत्पन्न पृथ्वी से लेकर सूर्यकान्तमणि-पर्यन्त प्राणियों के दूसरे शरीर भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि की अपेक्षा से बताए गए हैं। शेष तीन आलापक जलकायिक जीव के आलापकों के समान ही समझ लेने चाहिए।' विवेचन—प्रकाय, अग्निकाय, वायुकाय, और पृथ्वीकाय के प्राहारादि का निरूपण--प्रस्तुत 7 सूत्रों (736 से 745 तक) में वनस्पतिकाय के अतिरिक्त शेष चार स्थावरजीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं प्राहारादि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। अप्काय के चार पालापक-अप्कायिक जीवों के शास्त्रकार ने चार आलापक बताकर उनकी उत्पत्ति, आहार आदि की प्रक्रिया पृथक्-पृथक रूप से बताई है / जैसे कि (1) वायुयोनिक अप्काय-मेंढक आदि त्रस तथा नमक और हरित आदि स्थावर प्राणियों के सचित्त-अचित्त नानाविध शरीरों में वायुयोनिक अप्काय के रूप में जन्म धारण करते हैं। इनकी स्थिति, संवृद्धि और प्राथमिक पाहारग्रहण का आधार वायुकाय है। (2) अपयोनिक अप्काय-जो पूर्वकृतकर्मानुसार एक अप्काय में ही दूसरे अप्काय के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे अप्योनिक अपकाय कहलाते हैं। जैसे शुद्ध पानी से बर्फ के रूप में अप्काय उत्पन्न होता है / शेष सब प्रक्रिया पूर्ववत् है / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 357-358 का सारांश Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (3) त्रसस्थावरयोनिक अप्काय-ये प्राणी त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होते हैं / इनकी भी शेष समस्त प्रक्रिया पूर्ववत् है / (4) उदकयोनिक उदकों में उत्पन्न त्रसकाय-उदकयोनिक उदक पानी, बर्फ आदि में कीड़े आदि के रूप में कई जीव उत्पन्न हो जाते हैं। वे उसी प्रकार के होते हैं / अग्निकाय और वायुकाय की उत्पत्ति के चार-चार पालापक- (1) त्रसस्थावरयोनिक अग्निकाय (2) वायुयोनिक अग्निकाय, (3) अग्नियोनिक अग्निकाय, और (4) अग्नियोनिक अग्नि में उत्पन्न त्रसकाय / इसी प्रकार (1) सस्थावरयोनिक वायुकाय, (2) वायुयोनिक वायुकाय, (3) अग्नियोनिक वायुकाय एवं (4) वायुयोनिक वायुकाय में उत्पन्न त्रसकाय / त्रसस्थावरों के सचित्त-अचित्त शरीरों से अग्निकाय की उत्पत्ति-हाथी, घोड़ा, भैस आदि परस्पर लडते हैं, तब उनके सींगों में से आग निकलती दिखाई देती है। तथा अचित्त हडिडयों की रगड़ से तथा सचित्त-अचित्त वनस्पतिकाय एवं पत्थर आदि में से अग्नि की लपटें निकलती देखी जाती हैं। पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के चार पालापक-पृथ्वीकाय के यहाँ मिट्टी से लेकर सूर्यकान्त रत्न तक अनेक प्रकार बताए हैं / पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चार आलापक-(१) त्रस-स्थावरप्राणियों के शरीर में उत्पन्न पृथ्वीकाय (2) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय, (3) वनस्पतियोनिकपृथ्वीकाय, और (4) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय में उत्पन्न त्रस / समुच्चयरूप से सब जीवों की अाहारादि प्रक्रिया और आहारसंयम-प्रेरणा ७४६--अहावरं पुरक्खातं सम्वे पाणा सन्दे भूता सव्वे जीवा सध्वे सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणाविहवक्कमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवक्कमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनिदाणा कम्मगतिया कम्मठितिया कम्मुणा चेव विप्परियासुर्वेति / ७४६-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में और भी बातें कही हैं। समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व सत्त्व और सर्व जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं वे स्थिति रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं। वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर का ही अाहार करते हैं। वे अपने-अपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस-उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान निमित्त कारण है। उनकी गति और स्थिति भी कर्म के अनुसार होती है। वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं। ७४७–सेवमायाणह, सेवमायाणित्ता पाहारगुत्ते समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि / ७४७-हे शिष्यो! ऐसा ही जानो, और इस प्रकार जान कर सदा आहारगुप्त, ज्ञान-दर्शनचारित्रसहित, समितियुक्त एवं संयमपालन में सदा यत्नशील बनो। -ऐसा मैं कहता हूँ। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 746 ] [ 131 विवेचन–समुच्चयरूप से सर्वजीवों की आहारादि प्रक्रिया एवं प्राहार-संयम प्रेरणा-प्रस्तुत सूत्र द्वय में अध्ययन का उपसंहार करते हुए समुच्चयरूप से सभी जीवों के आहारादि का निरूपण किया गया है। मुख्यतया उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि, आहार-ग्रादि का मुख्य कारण कर्म है / सभी जीव अपने-अपने कर्म से प्रेरित होकर उत्पन्न होते हैं, ईश्वर, काल आदि की प्रेरणा से नहीं / अतः साधक को आहार के सम्बन्ध में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम एवं प्रात्माराधना की दृष्टि से विचार करके निर्दोष आहार-सेवन करना उचित है।' // प्राहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन समाप्त / 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 359 का सार Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'प्रत्याख्यानक्रिया' है। / / आत्मा किसी देव, भगवान् या गुरु की कृपा से अथवा किसी धर्मतीर्थ को स्वीकार करने मात्र से पापकर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। केवल त्याग-प्रत्याख्यान के विधि-विधानों की बातें करने मात्र से या कोरा आध्यात्मिक ज्ञान बघारने से भी व्यक्ति पाप कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। समस्त पापकर्मों के बन्धन को रोकने एवं मुक्त होने का अचूक उपाय है 'प्रत्याख्यानक्रिया। " 'प्रत्याख्यान' शब्द का सामान्य अर्थ किसी वस्तु का प्रतिषेध (निषेध) या त्याग करना है। परन्तु यह एक पारिभाषिक शब्द होने से अपने गर्भ में निम्नोक्त विशिष्ट अर्थों को लिये (1) त्याग करने का नियम (संकल्प = निश्चय) करना / (2) परित्याग करने की प्रतिज्ञा करना। (3) निन्द्यकर्मों से निवृत्ति करना। (4) अहिंसादि मूलगुणों एवं सामायिकादि उत्तरगुणों के आचरण में बाधक सिद्ध होने वाली प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग करना।' / प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद होते हैं---द्रव्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान / किसी द्रव्य का अविधिपूर्वक निरुद्देश्य छोड़ना या किसी द्रव्य के निमित्त प्रत्याख्यान करना द्रव्यप्रत्याख्यान है / आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से मूलगुण-उत्तरगुण में बाधक हिंसादि का मन-वचन-काया से यथाशक्ति त्याग करना भावप्रत्याख्यान है। भावप्रत्याख्यान के दो भेद हैं-अन्तःकरण से शुद्ध साधु या श्रावक का मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान / / 'प्रत्याख्यान' के साथ 'क्रिया' शब्द जुड़ जाने पर विशिष्ट अर्थ हो जाते हैं-(१) गुरु या गुरु जन से (समाज या परिवार में बड़े) या तीर्थकर भगवान की साक्षी से विधिपूर्वक त्याग या नियम स्वीकार करना / अथवा (2) हिंसा आदि निन्द्यकर्मों के त्याग या व्रत, नियम, तप का संकल्प करते समय मन में धारण करना, वचन से 'वोसिरे-बोसिरे' बोलना' और काया से तदनुकूल व्यवहार होना। (3) मूलोत्तरगुणों की साधना में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण, 1. (क) पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 507 (ख) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा. 1 पृ. 162 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान : चतुर्थ अध्ययन : प्राथमिक ] [ 133 आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा (गुरुसाक्षी से) तथा व्युत्सर्ग करना / प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार की भावप्रत्याख्यानक्रिया के सम्बन्ध में निरूपण है / ' - प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम अप्रत्याख्यानी आत्मा के पाप के द्वार खुले रहने के कारण सतत पापकर्म का बन्ध होना बताया है, और उसे असंयत, अविरत, पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान न करने वाला, एकान्त बाल, हिंसक आदि बताया है। अन्त में प्रत्याख्यानी आत्मा कौन और कैसे होता है ? इस पर प्रकाश डाला गया है। 1. (क) सूत्रकृतांग शी. वृत्ति पत्रांक 360 (ख) सूत्र कृ. नियुक्ति गा. 179,180 (ग) प्रावश्यक चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन 2 सूत्रकृतांग शो. वृत्ति पत्रांक 360 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाणकिरिया : चउत्थं अज्झयणं प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन अप्रत्यख्यानी प्रात्मा का स्वरूप और प्रकार ७४७-सुयं मे पाउसंतेणं भगवता एवमक्खातं-इह खलु पच्चक्खाणकिरिया नामज्झयणे, तस्स णं अयमट्ठ–प्राया अपच्चक्खाणी यावि भवति, प्राया अकिरियाकुसले यावि भवति, माया मिच्छासंठिए यावि भवति, आया एगंतदंडे यावि भवति, आया एगंतबाले यावि भवति, प्राया एगंतसुत्ते यावि भवति, आया अवियारमण-वयस-काय-वक्के यावि भवति, पाया अप्पडिहय-अपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवति, एस खलु भगवता अक्खाते असंजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमण-वयस-काय-वक्के सुविणमवि ण पस्सति, पावे से कम्मे कज्जति / __747 --आयुष्मन् ! उन तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था,---मैंने सुना है / इस निर्ग्रन्थप्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया नामक अध्ययन है। उसका यह अर्थ (भाव) (उन्होंने बताया है कि आत्मा (जीव) अप्रत्याख्यानी (सावद्यकर्मों का त्याग न करने वाला) भी होता है; आत्मा अक्रियाकुशल (शुभक्रिया न करने में निपुण) भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व (के उदय) में संस्थित भी होता है; पात्मा एकान्तरूप से दूसरे प्राणियों को दण्ड देने वाला भी होता है; अात्मा एकान्त (सर्वथा) बाल (अज्ञानी) भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से सुषुप्त भी होता है; आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य (की प्रवृत्ति) पर विचार न करने वाला (अविचारी) भी होता है / और आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत-धात एवं प्रत्याख्यान नहीं करता। इस जीव (आत्मा) को भगवान् ने असंयत (संयमहीन), अविरत (हिंसा आदि से अनिवृत्त), पापकर्म का धात (नाश) और प्रत्याख्यान (त्याग) न किया हुआ, क्रियासहित, संवररहित, प्राणियों को एकान्त (सर्वथा) दण्ड देने वाला, एकान्त बाल, एकान्तसुप्त कहा है। मन, वचन, काया और वाक्य (की प्रवृत्ति) के विचार से रहित वह अज्ञानी, चाहे स्वप्न भी न देखता हो अर्थात् अत्यन्त अव्यक्त विज्ञान से युक्त हो, तो भी वह पापकर्म करता है। विवेचन-अप्रत्याख्यानी प्रात्मा का स्वरूप और प्रकार–प्रस्तुत सूत्र में अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने अप्रत्याख्यानी आत्मा के प्रकार और उसके स्वरूप का निरूपण किया है। 'जीव' के बदले 'प्रात्मा' शब्द का प्रयोग क्यों ? मूलपाठ में 'जीव' शब्द के बदले 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करने के पीछे प्रथम प्राशय यह है कि अप्रत्याख्यानी जीव लगातार एक भव से दूसरे भव में नानाविध गतियों और योनियों में भ्रमण करता रहता है, इस बात को जीव शब्द की अपेक्षा Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 747] [135 'आत्मा' शब्द बहुत शीघ्र और अचूक रूप से प्रकट कर सकता है, क्योंकि आत्मा की व्युत्पत्ति है'जो विभिन्न योनियों-गतियों में सतत गमन करता है। दूसरा आशय है-बौद्धदर्शन सम्मत आत्मासम्बन्धी मान्यता का निराकरण करना, क्योंकि बौद्धदर्शन में आत्मा क्षणिक (स्थितिहीन) होने से उसका प्रत्याख्यानी होना सम्भव नहीं हो सकता। तीसरा प्राशय है--सांख्यदर्शन में मान्य आत्मा सम्बन्धी मन्तव्य का खण्डन / सांख्यदर्शनानुसार प्रात्मा उत्पत्ति-विनाश से रहति, स्थिर (कूटस्थ) एवं एकस्वभाव वाला है। ऐसा कूटस्थ स्थिर आत्मा न तो अनेक योनियों में गमन कर सकता है, न ही किसी प्रकार का प्रत्याख्यान / अप्रत्याख्यानी प्रात्मा के प्रकार-(१) प्रत्याख्यान से सर्वथा रहित, (2) शुभक्रिया करने में अकुशल, (3) मिथ्यात्व से ग्रस्त, (4) एकान्त प्राणिदण्ड (घात) देने वाला, (5) एकान्त बाल, (6) एकान्त सुप्त, (7) मन, वचन, शरीर और वाक्य (किसी विशेष अर्थ का प्रतिपादक पदसमूह) योग करने में विचारशन्य एवं (8) पापकर्म के विघात एवं प्रत्याख्यान (त्याग) से रहित आत्मा अप्रत्याख्यानी है। अप्रत्याख्यानी प्रात्मा का स्वरूप-वह असंयमी, हिंसादि से अविरत, पापकर्म का नाश और प्रत्याख्यान न करने वाला, अहर्निशदुष्क्रियारत, संवररहित, एकान्त हिंसक (दण्डदाता), एकान्तबाल एवं एकान्तसुप्त (सुषुप्तचेतनावाला) होता है / ऐसा बालकवत् हिताहितभावरहित एकान्त प्रमादी जीव मन, वचन, काया और वाक्य की किसी प्रवृत्ति में प्रयुक्त करते समय जरा भी विचार नहीं करता कि मेरी इस प्रवृत्ति से दूसरे प्राणियों की क्या दशा होगी? ऐसा जीव चाहे स्वप्न न भी देखे, यानी उनका विज्ञान (चैतन्य) इतना अव्यक्त- गाढ़ सुषुप्त हो, तो भी वह पापकर्म करता रहता है --अर्थात् उसके पापकर्म का बन्ध होता रहता है / पारिभाषिक शब्दों के भावार्थ-असंयत-वर्तमान में सावद्यकृत्यों में निरंकुश प्रवृत्त, अविरत ---जो अतीत और अनागतकालीन हिंसादि पापों से निवृत्त हो, अप्रतिहतपापकर्मा-पूर्वकृत पापकर्मों की स्थिति और अनुभाग को वर्तमान में तप आदि द्वारा कम करके जो उन्हें नष्ट नहीं कर पाता। अप्रत्याख्यात पकर्मा-भावी पापकर्मों का प्रत्याख्यान न करने वाला. सक्रिय सावधक्रियाओं से युक्त, असंवृत—जो आते हुए कर्मों के निरोधरूप व्यापार से रहित हो / सुप्त-भावनिद्रा में सोया हुअा, हिताहित प्राप्ति परिहार के भाव से रहित / प्रत्याख्यान-पूर्वकृत दोषों (अतिचारों) को निन्दा (पश्चात्ताप) एवं गर्दा करके भविष्य में उक्तपाप को न करने का संकल्प करना / किसी समय प्रत्याख्यानी भी- अनादिकाल से जीवमिथ्यात्वादि के संयोग के कारण अप्रत्याख्यानी अवस्था में रहता चला आ रहा है, किन्तु कदाचित् शुभकर्मों के निमित्त से प्रत्याख्यानी भी होता है, इसे प्रकट करने के लिए मूल पाठ में 'अवि' (अपि) शब्द का प्रयोग किया गया है। 1. 'ग्रतति सततं (विभिन्न गतिषु योनिषु च) गच्छतीति आत्मा' / 2. (क) सूत्रकृतांगसूत्र शीलांकवृत्ति पत्रांक 361 (ख) आवश्यक सूत्र चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रत्याख्यानक्रियारहित सदैव पापकर्मबन्धकर्ता : क्यों और कैसे ? ७४८–तत्थ चोदए पण्णवर्ग एवं वदासि-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स प्रमणक्खस्स अवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे नो कज्जति / कस्स णं तं हेउं ? चोदग एवं ब्रवीति—अण्णयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जति, अण्णयरीए वतीए पावियाए वइवत्तिए पावे कम्मे कज्जति, प्रणयरेणं काएणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइहणंतस्स समणक्खस्स सवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सविणमवि पासो एवं गुणंजातीयस्स पावे कम्मे कज्जति / पुणरधि चोदग एवं ब्रवीति-तत्थ णं जे ते एवमाहंसु 'असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स प्रवियारमण-वयस-काय-बक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे कज्जति', जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / ७४८-इस विषय में प्रेरक (प्रश्नकर्ता) ने प्ररूपक (उदेशक) से इस प्रकार कहा—पापयुक्त मन न होने पर, पापयुक्त वचन न होने पर, तथा पापयुक्त काया न होने पर जो प्राणियों की हिसा नहीं करता, जो अमनस्क है, जिसका मन, वचन, शरीर और वाक्य हिंसादि पापकर्म के विचार से रहित है, जो पापकर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता-अर्थात् जो अव्यक्तविज्ञान (चेतना) युक्त है, ऐसे जीव के पापकर्म का बन्ध नहीं होता। किस कारण से उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता? प्रेरक (प्रश्नकर्ता स्वयं) इस प्रकार कहता है किसी का मन पापयुक्त होने पर ही मानसिक (मन-सम्बन्धी) पापकर्म किया जाता है, तथा पापयुक्त वचन होने पर ही वाचिक (वचन द्वारा) पापकर्म किया जाता है, एवं पापयुक्त शरीर होने पर ही कायिक (काया द्वारा) पापकर्म किया जाता है / जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो जान-बूझ कर (विचारपूर्वक) मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता है, जो स्पष्ट (व्यक्त) विज्ञानयुक्त (वैसा स्वप्नद्रष्टा) भी है। इस प्रकार के गुणों (विशेषताओं) से युक्त जीव पापकर्म करता (बांधता) है। पुनः प्रेरक (प्रश्नकर्ता) इस प्रकार कहता है-'इस विषय में जो लोग ऐसा कहते हैं कि मन पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा शरीर भी पापयुक्त न हो, किसी प्राणी का घात न करता हो, अमनस्क हो, मन, वचन, काया और वाक्य के द्वारा भी (पाप) विचार से रहित हो, स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो, यानी अव्यक्तविज्ञान वाला हो, तो भी (वह) पापकर्म करता है।" जो इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं।" ७४६–तत्थ पण्णवगे चोदगं एवं वदासी-जं मए पुवुत्तं 'असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे कज्जति' तं सम्म। कस्स णं तं हेडं? प्राचार्य पाह-तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया / इच्चेतेहि छहिं जीवनिकाहिं पाया अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे निच्चं पसढविनोवातचित्तदंडे, तंजहा—पाणाइवाए Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 749] [137 जाव परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले / प्राचार्य प्राह-तत्थ खलु भगवता वहए दिढते पण्णत्त, से जहानामए वहए सिया गाहावतिस्स वा गाहावतिपुत्तस्स वा रणो वा रायपुरिसस्स वा खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामि पहारेमाणे, से कि नु हु नाम से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रपणो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविमोवातचित्तदंडे भवति ? एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए-हंता भवति / __प्राचार्य प्राह--जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामीति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे एवामेव बाले वि सव्वेसि पाणाणं जाव सत्ताणं पिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविप्रोवातचित्तदंडे, तं० पाणाइवाते जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं खलु भगवता अक्खाए अस्संजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते यावि भवति, से बाले अवियारमण-बयस-काय-वक्के सुविणमवि ण पस्सति, पावे य से कम्मे कज्जति / जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढवियोवातचित्तदंडे भवति, एवामेव बाले सब्वेसि पाणाणं जाव सब्वेसि सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा रातो वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते जाव चित्तदंडे भवइ / 746 - इस सम्बन्ध में प्रज्ञापक (उत्तरदाता) ने प्रेरक (प्रश्नकार) से इस प्रकार कहा-जो मैंने पहले कहा था कि मन पाप युक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा काया भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, चाहे वह मन, वचन, काया और वाक्य का समझ-बूझकर (विचारपूर्वक) प्रयोग न करता हो, और वैसा (पापकारी) स्वप्न भी न देखता हो, अर्थात् अव्यक्त विज्ञान (चेतना) वाला हो, ऐसा जीव भी पापकर्म करता (बांधता) है, वही सत्य है / ऐसे कथन के पीछे कारण क्या है ? आचार्य (प्रज्ञापक) ने कहा-इस विषय में श्री तीर्थकर भगवान् ने षट्जीवनिकाय कर्मबन्ध के हेतु के रूप में बताए हैं। वे षड्जीवनिकाय पृथ्वीकाय से लेकर उसकाय पर्यन्त हैं। इन छह प्रकार के जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिस प्रात्मा ने (तपश्चर्या आदि करके) नष्ट (प्रतिहत) नहीं किया, तथा भावी पाप को प्रत्याख्यान के द्वारा रोका नहीं, बल्कि सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में चित्त लगाए रखता है, और उन्हें दण्ड देता है तथा प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है, (वह चाहे किसी भी अवस्था में हो, अवश्यमेव पापकर्म का बन्ध करता है, यह सत्य है।) (इस सम्बन्ध में) प्राचार्य (प्ररूपक) पुनः कहते हैं इसके विषय में भगवान महावीर ने वधक (हत्यारे) का दृष्टान्त बताया है-कल्पना कीजिए-कोई हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा 1. नागार्जुनीय सम्मत पाठ-'अपणो अक्खणयाए तस्स वा पुरिसस्स छिद्द अलभमाणे णो बहेइ,....मे से पुरिसे अवसं वहेयध्वे भविस्सइ एवं मणो पहारेमाणे' चूणि०-सूत्रकृ. वृत्ति पत्रांक 364 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रु तस्कन्ध गृहपति के पुत्र की अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करना चाहता है। (वह इसी ताक में रहता है कि) अवसर पाकर मैं घर में प्रवेश करूगा और अवसर पाते ही (उस पर) प्रहार करके हत्या कर दूगा / "उस गृहपति की, या गृहपतिपुत्र की, अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करने हेतु अबसर पाकर घर में प्रवेश करूगा, और अवसर पाते ही प्रहार करके हत्या कर दूगा;" इस प्रकार (सतत संकल्प-विकल्प करने और मन में निश्चय करने वाला) वह हत्यारा दिन को या रात को, सोते या जागते प्रतिक्षण इसी उधेड़बुन में रहता है, जो उन सबका अमित्र-(शत्रु) भूत है: उन सबसे मिथ्या (प्रतिकूल) व्यवहार करने में जुटा हुअा (संस्थित) है, जो चित्त रूपी दण्ड में सदैव विविध प्रकार से निष्ठुरतापूर्वक घात का दुष्ट विचार रखता है, क्या ऐसा व्यक्ति उन पूर्वोक्त व्यक्तियों) का हत्यारा कहा जा सकता है, या नहीं? आचार्यश्री के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर प्रेरक (प्रश्नकर्ता शिष्य) समभाव (माध्यस्थ्यभाव) के साथ कहता है--"हाँ, पूज्यवर ! ऐसा (पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट) पुरुष हत्यारा (हिंसक) ही है।" प्राचार्य ने (पूर्वोक्त दृष्टान्त को स्पष्ट करने हेतु) कहा--जैसे उस गृहपति या गृहपति के पुत्र को अथवा राजा या राजपुरुष को मारना चाहने वाला वह वधक पुरुष सोचता है कि मैं अवसर पा कर इसके मकान (या नगर) में प्रवेश करूगा और मौका (या छिद्र अथवा सुराग) मिलते ही इस पर प्रहार करके वध कर दूंगा; ऐसे कुविचार से वह दिन-रात, सोते-जागते हरदम घात लगाये रहता है, सदा उनका शत्रु (अमित्र) बना रहता है, मिथ्या (गलत) कुकृत्य करने पर तुला हुआ है, विभिन्न प्रकार से उनके घात (दण्ड) के लिए नित्य शठतापूर्वक दुष्टचित्त में लहर चलती रहती है, (वह चाहे घात न कर सके, परन्तु है वह घातक ही।) इसी तरह (अप्रत्याख्यानी) बाल (अज्ञानी) जीव भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का दिन-रात, सोते या जागते सदा वैरी (अमित्र) बना रहता है, मिथ्याबुद्धि से ग्रस्त रहता है, उन जीवों को नित्य निरन्तर शठतापूर्वक हनन करने (दण्ड देने की बात चित्त में जमाए रखता है, क्योंकि वह (अप्रत्याख्यानी बाल जीव) प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों में ओतप्रोत रहता है / इसीलिए भगवान् ने ऐसे जीव के लिए कहा है कि वह असंयत, अविरत, पापकर्मों का (तप आदि से) नाश एवं प्रत्याख्यान न करने वाला, पापक्रिया से युक्त, संवररहित, एकान्तरूप से प्राणियों को दण्ड देने (हनन करने) वाला, सर्वथा बाल (अज्ञानी) एवं सर्वथा सुप्त भी होता है। वह अज्ञानी जीव चाहे मन, वचन, काया और वाक्य का विचारपूर्वक (पापकर्म में) प्रयोग न करता हो, भले ही वह (पापकर्म करने का) स्वप्न भी न देखता हो, यानी उसकी चेतना (ज्ञान) बिलकुल अस्पष्ट ही क्यों न हो, तो भी वह (अप्रत्याख्यानी होने के कारण) पापकर्म का बन्ध करता रहता है। जैसे वध का विचार करने वाला घातक पुरुष उस गृहपति या गृहपतिपुत्र की अथवा राजा या राजपुरुष की प्रत्येक की अलग अलग हत्या करने का दुविचार चित्त में लिये हुए अहर्निश, सोते या जागते उसी धुन में रहता है, वह उनका (प्रत्येक का) शत्रु-सा बना रहता है, उसके दिमाग में धोखे देने के दुष्ट (मिथ्या) विचार घर किये रहते हैं, वह सदैव उनकी हत्या करने की धुन में रहता है, शठतापूर्वक प्राणि-दण्ड के दुष्ट विचार ही चित्त में किया करता है, इसी तरह (अप्रत्याख्यानी भी)समस्त प्राणों, भूतों-जीवों और सत्त्वों के, प्रत्येक के प्रति चित्त में निरन्तर हिंसा के भाव रखने वाला और प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के 18 ही पापस्थानों से अविरत, अज्ञानी जीव दिन-रात, सोते या जागते सदैव उन प्राणियों का शत्रु-सा Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 750] [139 बना रहता है, उन्हें धोखे से मारने का दुष्ट विचार करता है, एवं नित्य उन जीवों के शठतापूर्वक (दण्ड) घात की बात चित्त में घोटता रहता है। स्पष्ट है कि ऐसे अज्ञानी जीव जब तक प्रत्याख्यान नहीं करते, तब तक वे पापकर्म से जरा भी विरत नहीं होते, इसलिए उनके पापकर्म का बन्ध होता रहता है। विवेचन-प्रत्याख्यान क्रियारहितः सदैव पापकर्मबन्धकर्ता, क्यों और कैसे ? प्रस्तुत दो सूत्रों में प्रेरक द्वारा अप्रत्याख्यानी के द्वारा सतत पापकर्मबन्ध के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का प्ररूपक द्वारा सदृष्टान्त समाधान किया गया है / संक्षेप में प्रश्न और उत्तर इस प्रकार हैं प्रश्न—जिस प्राणी के मन-वचन-काया पापयुक्त हों, जो समनस्क हो, जो हिंसा-युक्त मनोव्यापार से युक्त हो, हिंसा करता हो, जो विचारपूर्वक, मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता हो, जो व्यक्तचेतनाशील हो, वैसा प्राणी ही पापकर्म का बन्ध करता है, मगर इसके विपरीत जो प्राणी अमनस्क हो एवं जिसके मन-वचन-काया पापयुक्त न हों, जो विचारपूर्वक इनका प्रयोग न करता हो, अव्यक्त चेतनाशील हो वह भी पापकर्मबन्ध करता है, ऐसा कहना कैसे उचित हो सकता है ? उत्तर--सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्वोक्त मन्तव्य हो सत्य है, क्योंकि षड्जीवनिकाय की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिसने तप आदि द्वारा नष्ट नहीं किया, न भावी पाप को प्रत्याख्यान द्वारा रोका, वह जीव चाहे कैसी भी अवस्था में हो, चाहे उसके मन, वचन, काया पापयुक्त न हों वह अमनस्क हो, अविचारी हो, अस्पष्ट चेतनाशील हो तो भी अप्रत्याख्यानी होने के कारण उसके सतत पापकर्म का बन्ध होता रहता है। जैसे कोई हत्यारा किसी व्यक्ति का वध करना चाहता है, सोते-जागते, दिन-रात इसी फिराक में रहता है कि कब मौका मिले और कब मैं उसे मारू। ऐसा शत्रु के समान प्रतिकूल व्यवहार करने को उद्यत हत्यारा चाहे अवसर न मिलने से उस व्यक्ति की हत्या न कर सके, परन्तु कहलाएगा वह हत्यारा ही / उसका हिंसा का पाप लगता रहता है। इसी प्रकार एकान्त अप्रत्याख्यानी जीव द्वारा भी किसी जीव को न मारने का, या पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया होने से, भले ही अमनस्क हो, मन-वचन-काया का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, सुषुप्त चेतनाशील हो, तब भी उसके अठारह ही पापस्थान तथा समस्त जीवों की हिंसा खुली होने से, उसके पापकर्म का बन्ध होता रहता है। प्रत्याख्यान न करने के कारण वह सर्वथा असंयत, अविरत, पापों का तप आदि से नाश एवं प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला, संवररहित, एकान्त प्राणिहिंसक, एकान्त बाल एवं सर्वथा सुप्त होता है / ' __फलितार्थ जिन प्राणियों का मन राग-द्वेष से पूर्ण और अज्ञान से प्रावृत होता है, उनका अन्य समस्त प्राणियों के प्रति दूषित भाव रहता है। इन दूषित भावों से जब तक विरति नहीं होती, तब तक वे प्रत्याख्यान क्रिया नहीं कर पाते, और प्रत्याख्यानक्रिया के अभाव में, वे सभी केन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के) प्राणियों का द्रव्य से चाहे (अवसर न मिलने के कारण या अन्य कारणों से) धात न कर पाते हों, किन्तु भाव से तो घातक ही हैं, अघातक नहीं, वे भाव से उन प्राणियों के वैरी हैं। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृति पत्रांक 363-364 का सारांश 2. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 364 के अनुसार Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध संज्ञी-असंज्ञो अप्रत्याख्यानी : सदैव पापकर्मरत ७५०--णो इण? सम?--चोदगो / इह खलु बहवे पाणा जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा नो सुया वा नाभिमता वा विण्णाया वा जेसि णो पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्च पसढविप्रोवातचित्तदंडे, तं०-पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले। ७५०-प्रेरक (प्रश्नकर्ता) ने (इस सम्बन्ध में) एक प्रतिप्रश्न उठाया-(आपकी) पूर्वोक्त बात मान्य नहीं हो सकती। इस जगत् में बहुत-से ऐसे प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व हैं, (जो इतने सूक्ष्म और दूर हैं कि हम जैसे अर्वाग्दी पुरुषों ने) उनके शरीर के प्रमाण को न कभी देखा है, न ही सुना है, वे प्राणी न तो अपने अभिमत (इष्ट) हैं, और न वे ज्ञात हैं। इस कारण ऐसे समस्त प्राणियों में से प्रत्येक प्राणी के प्रति हिंसामय चित्त रखते हुए दिन-रात, सोते या जागते उनका अभित्र (शत्रु बना रहना, तथा उनके साथ मिथ्या व्यवहार करने में संलग्न रहना, एवं सदा उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसामय चित्त रखना, सम्भव नहीं है, इसी तरह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों (पापस्थानों) में ऐसे प्राणियों का लिप्त रहना भी सम्भव नहीं है। ७५१-प्राचार्य प्राह तत्थ खलु भगवता दुवे दिढता पण्णत्ता, तं जहा-सन्निविट्ठ ते य असण्णिदिट्टते य / [1] से कि तं सणिदिढते ? सणिदिढते जे इमे सणिपंचिदिया पज्जत्तगा एतेसि णं छज्जीवनिकाए पडुच्च तं०-पुढविकायं जाव तसकायं, से एगतिलो पुढविकाएण किच्चं करेति वि कारवेति वि, तस्स णं एवं भवति–एवं खलु अहं पुढविकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवति इमेण वा इमेण वा, से य तेणं पुढविकाएणं किच्चं करेइ वा कारवेइ वा, से य तामो पुढविकायातो असंजयअविरयापडिहयपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवति, एवं जाव तसकायातो त्ति भाणियव्वं, से एगतिम्रो छहि जीवनिकाएहिं किच्चं करेति वि कारवेति वि, तस्स णं एवं भवति-एवं खलु हि जीवनिकाएहि किच्चं करेमि वि कारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवति--इमेहि वा इमेहि वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेति वि, से य तेहिं छहिं जोवनिकाएहि असंजय अविरयअपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, तं०-पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले, एस खलु भगवता अक्खाते प्रसंजते अविरते अपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सतो पावे य कम्मे से कज्जति / से तं सण्णिदिढतेणं। (2) से किं तं असण्णिदिढ़ते ? असणिदिढते जे इमे असण्णिणो पाणा, तं०-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया छट्ठा वेगतिया तसा पाणा, जेसि णो तक्का ति वा सण्णा ति वा पण्णा इ वा मणो ति वा वई ति वा सयं वा करणाए अण्णेहि वा कारवेत्तए करेंतं वा समणुजाणित्तए ते वि णं बाला सन्वेसि पाणाणं जाव सम्वेसि सत्ताणं दिया वा रातो बा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूता मिच्छासंठिता निच्चं पसढविमोबातचित्तदंडा, तं०--पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले, इच्चे जाण, Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 751] 141 जो चेव मणो णो चेव वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणताए सोयणताए जूरणताए तिप्पणताए पिट्टणताए परितप्पणताए ते दुक्खण-सोयण जाव परितप्पण-वह-बंधणपरिकिलेसाप्रो अप्पडिविरता भवंति / इति खलु ते असणिणो वि संता अहोनिसं पाणातिवाते उवक्खाइज्जति जाव अहोनिसं परिग्गहे उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति / ७५१---प्राचार्य ने (पूर्वोक्त प्रतिप्रश्न का समाधान करते हुए) कहा---इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने दो दृष्टान्त कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-एक संज्ञिदृष्टान्त और दूसरा असंज्ञिदृष्टान्त / [1] (प्रश्न--) यह संज्ञी का दृष्टान्त क्या है ? (उत्तर -) संज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है-जो ये प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं, इनमें पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक षड्जीवनिकाय के जीवों में से यदि कोई पुरुष पृथ्वीकाय से ही अपना आहारादि कृत्य करता है, कराता है, तो उसके मन में ऐसा विचार होता है कि मैं पृथ्वीकाय से अपना कार्य करता भी हूँ और कराता भी हूँ (या अनुमोदन करता हूँ), उसे उस समय ऐसा विचार नहीं होता (या उसके विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह इस या इस (अमुक) पृथ्वी (काय) से ही कार्य करता है, कराता है, सम्पूर्ण पृथ्वी से नहीं। (उसके सम्बन्ध में यही कहा जाता है कि) वह पृथ्वीकाय से ही कार्य करता है और कराता है। इसलिए वह व्यक्ति पृथ्वीकाय का असंयमी, उससे अविरत, तथा उसकी हिंसा का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है / इसी प्रकार त्रसकाय तक के जीवों के विषय में कहना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति छहकाया के जीवों से कार्य करता है, कराता भी है, तो वह यही विचार करता (या कहता है कि मैं छह काया के जीवों से कार्य करता हूँ, कराता भी हूँ। उस व्यक्ति को ऐसा विचार नहीं होता, (या उसके विषय में ऐसा नहीं कहा जाता) कि वह इन या इन (अमुक-अमुक) जीवों से ही कार्य करता और कराता है, (सबसे नहीं); क्योंकि वह सामान्यरूप से उन छहों जीवनिकायों से कार्य करता है और कराता भी है। इस कारण (यही कहा जाता है कि वह प्राणी उन छहों जीवनिकायों के जीवों की हिंसा से असंयत, अविरत है, और उनकी हिंसा आदि से जनित पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है। इस कारण वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के सभी पापों का सेवन करता है। तीर्थंकर भगवान् ने ऐसे प्राणी को असंयत, अविरत, पापकर्मों का (तप आदि से) नाश तथा प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला कहा है। चाहे वह प्राणी स्वप्न भी न देखता हो, अर्थात्- अव्यक्तचेतनाशील हो, तो भी वह पापकर्म (का बन्ध) करता है। यह है, संज्ञी का दृष्टान्त ! [2] (प्रश्न----) 'वह असंज्ञिदृष्टान्त क्या है ?' (उत्तर--) असंज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है-'पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक पाँच स्थावर एवं छठे जो ससंज्ञक अमनस्क जीव हैं, वे असंज्ञी हैं, जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है न प्रज्ञा (बुद्धि) है, न मन (मनन करने का साधन) है, न वाणी है, और जो न तो स्वयं कर सकते हैं और न ही दूसरे से करा सकते हैं, और न करते हुए को अच्छा समझ सकते हैं; Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] / सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध तथापि वे अज्ञानी प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के दिन-रात सोते या जागते हर समय शत्रु-से बने रहते हैं, उन्हें धोखा देने में तत्पर रहते हैं, उनके प्रति सदैव हिंसात्मक (भावमनोरूप-) चित्तवृत्ति रखते हैं, इसी कारण वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों में सदा लिप्त रहते हैं। इस प्रकार यद्यपि असंज्ञी जीवों के मन (द्रव्यमन) नहीं होता, और न ही वाणी होती है, तथापि वे (अप्रत्याख्यानी होने से) समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप कराने, रुलाने, पीड़ा देने, वध करने, तथा परिताप देने अथवा उन्हें एक ही साथ (सामूहिकरूप से) दुःख, शोक, विलाप, रुदन, पीड़न, संताप वध-बन्धन, परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते, अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं। इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहनिश प्राणातिपात में प्रवृत्त कहे जाते हैं, तथा मृषावाद आदि से लेकर परिग्रह तक में तथा मिथ्यादर्शनशल्य तक के समस्त पापस्थानों में प्रवृत्त कहे जाते हैं। ___७५२-सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सणिणो होच्चा असणियो होंति, असणिणो होच्चा सण्णिणो होंति, होज्ज सण्णी अदुवा असण्णी, तत्थ से अविविचिया अविधणिया असमुच्छिया अणणुताविया सण्णिकायाप्रो सपिणकार्य संकमंति 1, सण्णिकायायो वा असण्णिकायं संकमंति 2, असणिकायानो वा सण्णिकायं संकमंति 3, असण्णिकायानो वा असण्णिकार्य संकमंति 4 / जे एते सण्णी वा असण्णी वा सम्वे ते मिच्छायारा निच्चं पसढविप्रोवातचित्तदंडा, तं०पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले / एवं खलु भगवता अक्खाते असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमण-वयस-कायवक्के, सुविणमवि अपासओ पावे य से कम्मे कज्जति। ७५२-सभी योनियों के प्राणी निश्चितरूप से संज्ञी होकर असंज्ञी (पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं। वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग (पृथक) न करके, तथा उन्हें न झाड़कर (तप आदि से उनकी निर्जरा न करके), (प्रायश्चित्त आदि से) उनका उच्छेद न करके तथा (आलोचना-निन्दना-गर्हणा आदि से) उनके लिए पश्चात्ताप न करके वे संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में पाते (जन्म लेते हैं, अथवा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते (आते) हैं, अथवा असंज्ञीकाय से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं अथवा असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में आते (संक्रमण करते) हैं। जो ये संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सब मिथ्याचारी और सदैव शठतापूर्ण हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं। अतएव वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने वाले हैं। इसी कारण से ही भगवान महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान न करने वाले, अशुभक्रियायुक्त, संवर रहित, एकान्त हिंसक (प्राणियों को दण्ड देने वाले), एकान्त बाल (अज्ञानी) और एकान्त (भावनिद्रा में) सुप्त कहा है। वह अज्ञानी (अप्रत्याख्यानी) जीव भले ही मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता हो,—(अव्यक्तविज्ञानयुक्त हो) फिर भी पापकर्म (का बन्ध) करता रहता है। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 752] [143 विवेचन-असंजी-संज्ञी दोनों प्रकार अप्रत्याख्यानो प्राणी सदैव पापरत-प्रस्तुत तीन सूत्रों में शास्त्रकार ने प्रत्याख्यानरहित सभी प्रकार के प्राणियों को सदैव पापकर्मबन्ध होते रहने का सिद्धान्त दृष्टान्तपूर्वक यथार्थ सिद्ध किया है। इस त्रिसूत्री में से प्रथम सूत्र में प्रश्न उठाया गया है, जिसका दो सूत्रों द्वारा समाधान किया गया है। प्रेरक द्वारा नये पहलू से उठाया गया प्रश्न—सभी अप्रत्याख्यानी जीव सभी प्राणियों के शत्रु हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं जंचता; क्योंकि संसार में ऐसे बहुत-से प्राणी हैं, जो देश, काल एवं स्वभाव से अत्यन्त दूर, अतिसूक्ष्म एवं सर्वथा अपरिचित हैं, न तो वे आंखों से देखने में आते हैं, न ही कानों से उनके नाम सुनने में आते हैं, न वे इष्ट होते हैं न ज्ञात होते है।' अतः उनके साथ कोई सम्बन्ध या व्यवहार न रहने से किसी भी प्राणी की चित्तवृत्ति उन प्राणियों के प्रति हिंसात्मक कैसे बनी रह सकती है ? इस दृष्टि से अप्रत्याख्यानी जीव समस्त प्राणियों का घातक कैसे माना जा सकता है ? इसी प्रकार जो प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों के विषय में सर्वथा अज्ञात हैं, वे उन पापों से कैसे लिप्त हो सकते हैं ? यथार्थ समाधान-दो दृष्टान्तों द्वारा जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं, वह वध्य प्राणी भले ही देश-काल से दूर, सूक्ष्म, अज्ञात एवं अपरिचित हो; तो भी, अप्रत्याख्यानी प्राणी उसका घातक ही कहा जायगा। उसकी चित्त वृत्ति उनके प्रति हिंसक ही है। इसी प्रकार जो हिंसादि पापों से विरत नहीं, वह चाहे उन पापों से अज्ञात हो, फिर भी अविरत कहलाएगा, इसलिए उसके उन सब पापकर्मों का बन्ध होता रहेगा। ग्रामघातक व्यक्ति ग्राम से दूर चले गये प्राणियों का भले ही घात न कर पाए, किन्तु है वह उनका घातक ही, क्योंकि उसकी इच्छा समग्र ग्राम के घात की है। अतः अप्रत्याख्यानी प्राणी ज्ञात-अज्ञात सभी प्राणियों का हिंसक है, समस्त पापों में लिप्त है, भले ही वह 18 पापस्थानों में से एक पाप करता हो। प्रथम दृष्टान्त-एक संज्ञी प्राणी है, उसने पृथ्वीकाय से अपना कार्य करना निश्चित किया है / शेष सब कायों के प्रारम्भ का त्याग कर दिया है / यद्यपि वह पृथ्वीकाय में भी देश-काल से दूरवर्ती समग्र पृथ्वीकाय का आरम्भ नहीं करता, एक देशवी अमुक पृथ्वी विशेष का ही प्रारम्भ करता है, किन्तु उसके पृथ्वीकाय के प्रारम्भ या घात का प्रत्याख्यान न होने से समग्र पृथ्वीकाय की हिंसा (प्रारम्भ) का पाप लगता है, वह अमुक दूरवर्ती पृथ्वीकाय का अनारम्भक या अघातक नहीं, पारम्भक एवं घातक ही कहा जाएगा / इसी प्रकार जिस संज्ञी जीव ने छहों काया के प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह अमुक काय के जीव की या देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों की हिंसा न करता हुआ भी प्रत्याख्यान न होने से षट्कायिक जीवों का हिंसक या घातक ही है। इसी प्रकार 18 पापस्थानों का प्रत्याख्यान न करने पर उसे 18 ही पापस्थानों का कर्ता माना जाएगा, भले ही वह उन पापों को मन, वचन, काया व वाक्य से समझबूझ कर न करता हो। दूसरा दृष्टान्त-असंज्ञी प्राणियों का है-पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक तथा कोई कोई त्रसकाय (द्वीन्द्रिय आदि) तक के जीव असंज्ञी भी होते हैं, वे सम्यग्ज्ञान, विशिष्ट चेतना, या द्रव्य मन से रहित होते हैं। ये सुप्त प्रमत्त या मूच्छित के समान होते हैं। इनमें तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, वस्तु की आलोचना करके पहचान करने, मनन करने, शब्दों का स्पष्ट उच्चारण करने तथा शरीर से स्वयं करने, कराने या अनुमोदन करने की शक्ति नहीं होती, इनमें मन, वचन, काय का विशिष्ट Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध व्यापार नहीं होता। फिर भी ये असंज्ञी प्राणी प्राणिहिंसा एवं अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान न होने से दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं, दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी हिंसात्मक दुष्ट प्राशय इनमें रहता है, ये प्राणियों को दुःख, शोक, संताप एवं पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं कहे जा सकते / पाप से विरत न होने से ये सतत अठारह ही पापस्थानों में लिप्त या प्रवृत्त कहे जाते है। निष्कर्ष-यह है कि प्राणी चाहे संज्ञी यो या असंज्ञी, जो प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे जैसी अवस्था में हो, वध्य प्राणी चाहे देश-काल से दूर हो, चाहे वह (वधक) प्राणी स्वयं किसी भी स्थिति में मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी की घात न कर सकता हो, स्वप्न में भी घात की कल्पना न आती हो, सुषुप्त चेतनाशील हो या मूच्छित हो, तो भी सब प्राणियों के प्रति दुष्ट आशय होने से तथा अठारह पापस्थानों से निवृत्त न होने से उसके सतत पापकर्म का बन्ध होता रहता है।' संज्ञी-असंज्ञी का संक्रमण : एक सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण-शास्त्रकार ने सूत्र 752 में इस मान्यता का खण्डन किया है कि संज्ञी मर कर संज्ञी ही होते हैं, असंज्ञी असंज्ञी ही / जीवों की गति या योनि कर्माधीन होती है। अतः कर्मों की विचित्रता के कारण-(१) संज्ञी से असंज्ञी भी हो जाता है, (2) असंज्ञी से भी संज्ञी हो जाता है (3) कभी संज्ञी मर कर संज्ञी बन जाता है, (4) और कभी असंज्ञी मर कर पुनः असंज्ञी हो जाता है। इस दृष्टि से देवता सदा देवता ही बने रहेंगे, नारकी सदा नारकी है, यह सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं है / संयत, विरत पापकर्म प्रत्याख्यानी कौन और कैसे ? ___७५३–चोदकः-से कि कुव्वं कि कारवं कहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे भवति ? प्राचार्य प्राह तत्थ खलु भगवता छज्जीवणिकायाया हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया, से जहानामए मम अस्सातं डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलण वा कवालेण वा प्रातोद्विज्जमाणस्स वा जाव उविज्जमाणस्स वा जाव लोमक्खणणमातमवि विहिसक्कारं दुक्खं भयं पडि संवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा प्रातोडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा तालिज्जमाणा वा जाव उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमातमवि विहिसक्कारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं गच्चा सम्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतवा जाव ण उद्दवेयन्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते समेच्च लोग खेतहि पवेदिते / एवं से भिक्खू विरते पाणातिवातातो जाव मिच्छादसणसल्लातो / से भिक्ख णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, नो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणित्ति पि आइते / से भिक्खू प्रकिरिए अलसए अकोहे प्रमाणे जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे / - एस खलु भगवता अक्खाते संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुड एगंतपंडिते यावि भवति त्ति बेमि / // पच्चक्खाणकिरिया चउत्थमज्झयणं समत्तं // 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 366 से 368 का सारांश 2. वही, पत्रांक 369 का सारांश Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 753] [145 ७५३--(प्रेरक ने पुनः अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की-) मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा कैसे संयत, विरत, तथा पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला होता है ? ___ आचार्य ने (समाधान करते हुए) कहा- इस विषय में तीर्थंकर भगवान ने षड् जीवनिकायों को (संयम अनुष्ठान का) कारण बताया है / वे छह प्राणिसमूह इस प्रकार हैं-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीव / जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा डंडे से, हड्डियों से, मुक्कों से ढेले से या ठोकरे से मैं ताडन किया जाऊं या पीड़ित (परेशान) किया जाऊं, यहाँ तक कि मेरा केवल एक रोम उखाड़ा जाए तो मैं हिंसाजनित दुःख, भय और असाता का अनुभव करता हूँ, इसी तरह जानना चाहिए कि समस्त प्राणी यावत् सभी सत्त्व डंडे आदि से लेकर ठीकरे तक से मारे जाने पर एवं पीड़ित किये जाने पर, यहाँ तक कि एक रोम भी उखाड़े जाने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं। ऐसा जानकर समस्त प्राणियों यावत् सभी सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, यहाँ तक कि उन्हें पीड़ित (उपद्रवित) नहीं करना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म ही ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है, तथा लोक के स्वभाव को सम्यक् जानकर खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ तीर्थंकरदेवों द्वारा प्रतिपादित है / यह जान कर साधु प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों से विरत होता है / वह साधु दाँत साफ करने वाले काष्ठ आदि से दांत साफ न करे; तथा नेत्रों में अंजन (काजल) न लगाए, न दवा लेकर वमन करे, और न ही धूप के द्वारा अपने वस्त्रों या केशों को सुवासित करे। वह साधु सावधक्रियारहित, हिंसारहित, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित, उपशान्त एवं पाप से निवृत्त होकर रहे। ऐसे त्यागी प्रत्याख्यानी साधु को तीर्थकर भगवान् ने संयत, विरत, (हिंसादि पापों से निवृत्त पापकर्मों का प्रतिघातक, एवं प्रत्याख्यानकर्ता, अक्रिय (सावद्य क्रिया से रहित), संवत (संवरयुक्त) और एकान्त (सर्वथा) पण्डित (होता है, यह) कहा है। (सुधर्मास्वामी बोले- ) (जो भगवान् ने कहा है) 'वही मैं कहता हूं।' विवेचन –संयत, विरत एवं पापकर्मप्रत्याख्यानी कौन और कैसे ? प्रस्तुत सूत्र में प्रेरक के द्वारा सुप्रत्याख्यानी के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का प्राचार्यश्री द्वारा दिया गया समुचित समाधान अंकित है। प्रश्न--कौन व्यक्ति, किस उपाय से, क्या करके संयत, विरत, तथा पापकर्मनाशक एवं प्रत्याख्यानी होता है ? समाधान के पांच मुद्दे--(१) समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य जानकर उनकी किसी भो प्रकार से हिंसा न करे, न कराए, और न ही उसका अनुमोदन करे (2) प्राणातिपात से मिथ्यादर्शन शल्य तक के अठारह पापों से विरत हो, (3) दन्तमंजन, अंजन, वमन, धूपन आदि अनाचारों का सेवन न करे / (4) वह साधक सावधक्रियारहित, अहिंसक, क्रोधादिरहित, उपशांत और पापपरिनिवृत्त होकर रहे / (5) ऐसा साधु ही संयत, विरत, पापकर्मनाशक, पाप का प्रत्याख्यानी, सावद्यक्रियारहित, संवरयुक्त एवं एकान्त पण्डित होता है, ऐसा तीर्थंकर भगवान् ने कहा है।' ॥प्रत्याख्यान क्रिया : चतुर्थ अध्ययन समाप्त / 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 370 का सारांश Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन प्राथमिक - सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के पंचम अध्ययन का नाम 'अनाचारश्रुत' है। - किन्हीं प्राचार्यों के मतानुसार इस अध्ययन का नाम 'अनगारश्रुत' भी है।' जब तक साधक समग्र अनाचारों (अनाचरणीय बातों) का त्याग करके शास्त्रोक्त ज्ञानाचारादि पंचविध प्राचारों में स्थिर हो कर उनका पालन नहीं करता, तब तक वह रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का सम्यक् आराधक नहीं हो सकता। जो बहुश्रुत, गीतार्थ, जिनोपदिष्ट सिद्धान्तों का सम्यग्ज्ञाता नहीं है, वह पानाचार और आचार का विवेक नहीं कर सकता, फलतः आचार विराधना कर सकता है। आचारश्रुत का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। किन्तु उक्त प्राचार का सम्यक् परिपालन हो सके, इसके लिए अनाचार का निषेधात्मक रूप से वर्णन इस अध्ययन में किया गया है / इसी हेतु से इस अध्ययन का नाम 'अनाचारश्रुत' रखा गया है / 2 - प्रस्तुत अध्ययन में दृष्टि, श्रद्धा, प्ररूपणा, मान्यता, वाणी-प्रयोग, समझ आदि से सम्बन्धित अनाचारों का निषेधात्मक निर्देश करते हुए इनसे सम्बन्धित प्राचारों का भी वर्णन किया गया है। 0 सर्वप्रथम लोक-अलोक, जीव की कर्मविच्छेदता, कर्मबद्धता, विसदृशता, प्राधाकर्म दोषयुक्त आहारादि से कर्मलिप्तता, पंचशरीर सदृशता आदि के सम्बन्ध में एकान्त मान्यता या प्ररूपणा को अनाचार बताकर उसका निषेध किया गया है, तत्पश्चात् जीव-अजीव, पुण्य-पापादि की नास्तित्व प्ररूपणा या श्रद्धा को अनाचार बताकर प्राचार के सन्दर्भ में इनके अस्तित्व की श्रद्धा-प्ररूपणा करने का निर्देश किया गया है। अन्त में साधु के द्वारा एकान्तवाद प्रयोग, मिथ्या धारणा आदि को अनाचार बताकर उसका निषेध किया गया है / - इस अध्ययन का उद्देश्य है—साधु आचार-अनाचार का सम्यग्ज्ञाता होकर अनाचार के त्याग और आचार के पालन में निपुण हो, तथा कुमार्ग को छोड़ कर सुमार्ग पर चलने वाले पथिक की तरह समस्त अनाचार-मार्गों से दूर रहकर आचारमार्ग पर चल कर अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करे। - यह अध्ययन सूत्र गा. सं. 754 से प्रारम्भ होकर 786 में-३३ गाथाओं में समाप्त होता है। 1. सूत्रकृतांग शीलांक टोका-अनगारथ तमेत्येतन्नामभवति 2. सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 182,183 3. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 370-371 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायारसुतं : पंचमं अज्झयणं अनाचारश्रुत : पंचम अध्ययन अनाचरणीय का निषेध७५४–प्रादाय बंभचेरं च, प्रासुपण्णे इमं वय / अस्सिं धम्मे प्रणायारं, नायरेज्ज कयाइ वि // 1 // ७५४-याशुप्रज्ञ (सत्-असत् को समझने में कुशाग्रबुद्धि) साधक इस अध्ययन के वाक्य तथा ब्रह्मचर्य (ब्रह्म-आत्मा से सम्बन्धित प्राचार-विचार में विचरण) को धारण करके इस (वीतरागप्ररूपित सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूप) धर्म में अनाचार (मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्ररूप अनाचरणीय बातों) का आचरण कदापि न करे / विवेचन--अनाचरणीय का निषेध-प्रस्तुत सूत्रगाथा में शास्त्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन के सारभूत चार तथ्यों की ओर साधकों का ध्यान खींचा है / वे चार तथ्य इस प्रकार हैं (1) वीतरागप्ररूपित रत्नत्रयरूप धर्म में प्रवजित साधक सत्यासत्य को समझने में कुशाग्रबुद्धि हो। (2) प्रस्तुत अनाचारश्रुत अध्ययन के वाक्यों को हृदयंगम करे / (3) ब्रह्मचर्य (आत्मा से सम्बन्धित प्राचार-विचार) को जीवन में धारण करे / (4) मिथ्यादर्शनादित्रयरूप अनाचरणीय बातों का आचरण कदापि न करे / ' ब्रह्मचर्य--प्रस्तुत प्रसंग में ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ फलित होते हैं(१) सत्य, तप, इन्द्रियनिग्रह एवं सर्वभूतदया, ये चारों ब्रह्म हैं, इनमें विचरण करना। (2) आत्मा से सम्बन्धित चर्या-प्राचारविचार / (3) ब्रह्म (वीतराग परमात्मा) द्वारा प्ररूपित आगमवचन या प्रवचन अर्थात् (जैनेन्द्रप्रवचन)। अनाचार-प्रस्तुत प्रसंग में अनाचार का अर्थ केवल सम्यक् चारित्रविरुद्ध आचरण ही नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के विरुद्ध अाचरण करना अनाचार है। धर्म- वीतरागप्ररूपित एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग के उपदेशक जैनेन्द्रप्रवचन को ही प्रस्तुत प्रसंग में धर्म समझना चाहिए। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 371 / 2. वही, पत्रांक 371 में उद्धृत सत्यं ब्रह्म, तपो ब्रह्म, ब्रह्म इन्द्रियनिग्रहः / सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद् ब्रह्मलक्षणम् / Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र ७५५–अणादीयं परिण्णाय, प्रणवदग्गे ति वा पुणो / ____सासतमसासते यावि, इति दिद्धि न घारए // 2 // ७५६–एतेहिं दोहि ठाणेहि, धवहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणए // 3 // ७५५-७५६–'यह (चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवं धर्माधर्मादिषद्रव्यरूप) लोक अनादि (आदिरहित) और अनन्त है, यह जान कर विवेकी पुरुष यह लोक एकान्त नित्य (शाश्वत) है, अथवा एकान्त अनित्य (अशाश्वत) है; इस प्रकार को दृष्टि, एकान्त (प्राग्रहमयी बुद्धि) न रखे / ___ इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य) पक्षों (स्थानों) से व्यवहार (शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार) चल नहीं सकता। अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के प्राश्रय को अनाचार जानना चाहिए। ७५७-समुच्छिजिहिंति सत्थारो, सम्वे पाणा प्रणेलिसा। गंठीगा वा भविस्संति, सासयं ति च णो वदे // 4 // ७५८-~-एएहि दोहि ठार्गाह, ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणई // 5 // ७५७-७५८-प्रशास्ता (शासनप्रवर्तक तीर्थंकर तथा उनके शासनानुगामी सभी भव्य जीव) (एकदिन) भवोच्छेद (कालक्रम से मोक्षप्राप्ति) कर लेंगे। अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश (एक समान नहीं) हैं, या सभी जीव कर्मग्रन्थि से बद्ध (ग्रन्थिक) रहेंगे, अथवा सभी जीव शाश्वत (सदा स्थायी एकरूप) रहेंगे, अथवा तीर्थंकर, सदैव शाश्वत (स्थायी) रहेंगे, इत्यादि एकान्त वचन नहीं बोलने चाहिए। क्योंकि इन दोनों (एकान्तमय) पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक) व्यवहार नहीं होता / अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए। ७५६-जे केति खुड्डगा पाणा, अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेरं ति, असरिसं ति य णो वदे // 6 // ७६०–एतेहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए // 7 // ७५६-७६०-(इस संसार में) जो (एकेन्द्रिय आदि) क्षुद्र (छोटे) प्राणी हैं, अथवा जो महाकाय (हाथी, ऊँट, मनुष्य आदि) प्राणी हैं, इन दोनों प्रकार के प्राणियों (की हिंसा से, दोनों) के साथ समान ही वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन दोनों ('समान वैर होता है या समान वैर नहीं होता';) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता / अतः इन दोनों एकान्तवचनों को अनाचार जानना चाहिए। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र 754] [149 761 - अहाकडाई भुजति अण्णमण्णे' सकम्मणा। उवलित्ते ति जाणेज्जा, अणुवलिते ति वा पुणो // 6 // ७६२–एतेहि दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए // 6 // ७६१–७६२–प्राधाकर्म दोष युक्त आहारादि का जो साधु उपभोग करते हैं, वे दोनों (प्राधाकर्मदोष युक्त आहारादिदाता तथा उपभोक्ता) परस्पर अपने (पाप) कर्म से उपलिप्त होते हैं, अथवा उपलिप्त नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए। इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिये इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का प्राश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए। ७६३-जमिदं उरालमाहारं, कम्मगं च तमेव य / सव्वत्थ वोरियं अस्थि, णस्थि सव्वत्थ वीरियं // 10 // ७६४–एतेहि दोहि ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जती / एहि दोहि ठाणेह, प्रणायारं तु जाणए // 11 // ७६३-७६४–यह जो (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, और कार्मण शरीर है, तथैव वैक्रिय एवं तैजस शरीर है; ये पांचों (सभी) शरीर एकान्ततः भिन्न नहीं हैं, (एक ही हैं) अथवा ये पांचों सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं, ऐसे एकान्तवचन नहीं कहने चाहिए। तथा सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति (वीर्य) विद्यमान है, अथवा सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं ही है; ऐसा एकान्तकथन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों प्रकार के एकान्त विचारों से व्यवहार नहीं होता / अतः इन दोनों एकान्तमय विचारों का प्ररूपण करना अनाचार समझना चाहिए। विवेचन--प्राचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र-प्रस्तुत दस सूत्रगाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने दर्शन-ज्ञान-चारित्रसम्बन्धी अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र प्रस्तुत किये हैं / अनाचार का मूल कारण एकान्त एकपक्षाग्रही दृष्टि, वचन, ज्ञान, विचार या मन्तव्य है; क्योंकि एकान्त एकपक्षाग्रह से लोक व्यवहार या शास्त्रीय व्यवहार नहीं चलता। इन सब विवेकसूत्रों के फलितार्थ है-अनेकान्तवाद का आश्रय लेने का निर्देश / वे निषेधरूप नौ विवेकसूत्र-इस प्रकार हैं (1) लोक एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य, ऐसी एकान्त दृष्टि / 1. अण्णमण्णे--अन्योन्य का अर्थ चूर्णिकार की दृष्टि से----अन्य इति असंयतः, तस्मादन्यः संयतः / अर्थात् अन्य का अर्थ-असंयत-गृहस्थ और उससे अन्य संयत-साधु / दोनों एक दूसरे को लेकर (पाप) कर्म से लिप्त होते हैं या नहीं होते हैं। --सू. कृ. चूर्णि (मू. पा. टि.) पृ. 218 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (2) सभी प्रशास्ता या भव्य एक दिन भवोच्छेद करके मुक्त हो जाएँगे, (संसार भव्य जीव शून्य हो जाएगा), ऐसा वचन / (3) सभी जीव एकान्ततः विसदृश हैं, ऐसा वचन / (4) सभी जीव सदा कर्मग्रन्थि से बद्ध रहेंगे, ऐसा एकान्त वचन / (5) सभी जीव या तीर्थकर सदा शाश्वत रहेंगे, ऐसा एकान्त वचन / (6) एकेन्द्रियादि क्षुद्र प्राणी की या हाथी आदि महाकाय प्राणी की हिंसा से समान वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता, ऐसा एकान्त वचन / (7) आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोक्ता और दाता एकान्त रूप से परस्पर पाप कर्म से लिप्त होता है, अथवा सर्वथा लिप्त नहीं होता, ऐसा एकान्त वचन / (8) औदारिक आदि पांचों शरीर परस्पर अभिन्न हैं, अथवा भिन्न हैं, ऐसा एकान्त कथन / (8) सब पदार्थों में सबकी शक्ति है, अथवा नहीं है, ऐसा एकान्त कथन / एकान्त दृष्टि या एकान्त कथन से दोष-(१) प्रत्येक पदार्थ द्रव्यरूप' से नित्य है, किन्तु पर्यायरूप (विशेषतः) से अनित्य है / एकान्त नित्य या अनित्य मानने पर लोक व्यवहार नहीं होता, जैसे 'लोक में कहा जाता है, यह वस्तु नई है, यह पुरानी है, यह वस्तु अभी नष्ट नहीं हुई, यह नष्ट हो गई है।' प्राध्यात्मिक व्यवहार भी नहीं हो सकता है, जैसे--प्रात्मा को एकान्त नित्य (कूटस्थ) मानने पर उसके बन्ध और मोक्ष का तथा विभिन्न गतियों में भ्रमण और एकदिन चतुर्गतिरूप संसार से मुक्त होने का व्यवहार नहीं हो सकता, तथा एकान्त अनित्य (क्षणिक) मानने पर धर्माचरण या साधना का फल किसी को न मिलेगा, यह दोषापत्ति होगी। लोक के सभी पदार्थों को कथंचित् नित्यानित्य मानना ही अनेकान्त सिद्धान्त सम्मत आचार है, जैसे सोना, सोने का घड़ा और स्वर्ण मुकुट तीन पदार्थ हैं / सोने के घट को गलवा कर राजकुमार के लिए मुकुट बना तो उसे हर्ष हुआ, किन्तु राजकुमारी को घड़ा नष्ट होने से दुःख ; लेकिन मध्यस्थ राजा को दोनों अवस्थाओं में सोना बना रहने से न हर्ष हुआ, न शोक ; ये तीनों अवस्थाएँ कथञ्चित् नित्यानित्य मानने पर बनती हैं / (2) भविष्यकाल भी अनन्त है और भन्यजीव भी अनन्त हैं, इसलिए भविष्यकाल की तरह भव्य जीवों का सर्वथा उच्छेद कदापि नहीं हो सकता / किसी भव्यजीव विशेष का संसारोच्छेद होता भी है। (3) भवस्थकेवली प्रवाह की अपेक्षा से महाविदेह क्षेत्र में सदैव रहते हैं, इसलिए शाश्वत किन्तु व्यक्तिगतरूप से सिद्धि को प्राप्त होते हैं, इस अपेक्षा से वे शाश्वत नहीं हैं। ऐसा ही व्यवहार देखा जाता है। (4) सभी जीव समानरूप से उपयोग वाले, असंख्यप्रदेशी और अमूर्त हैं, इस अपेक्षा से वे कथंचित् सदृश हैं, तथा भिन्न-भिन्न कर्म, गति, जाति, शरीर आदि से युक्त होते हैं, इस अपेक्षा से कथंचित् विसदृश भी हैं। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 372 से 373 तक का सारांश 2. “घट-मौलि-सुवर्णार्थी, नाशोत्पाद-स्थितिस्वयम् / शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् // " Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारश्रत: पंचम अध्ययन: सूत्र 754] [151 (5) कोई अधिक वीर्यसम्पन्न जीव कर्मग्रन्थि का सर्वथा छेदन कर देते हैं, कोई अल्पपराक्रमी जीव कर्मग्रन्थि का सर्वथा छेदन नहीं कर पाते / अतः एकान्ततः सभी जीवों को कर्मग्रन्थि से बद्ध कहना अनुचित है ; शास्त्रविरुद्ध है। (6) हिंस्य प्राणी बड़े शरीर वाला हो तो उसकी हिंसा से अधिक कर्मबन्ध होता है और क्षद्र शरीर वाला हो तो कर्मबन्ध अल्प होता है. यह कथन युक्त नहीं है। कर्मबन्ध की तरतमता हिंसक प्राणी के परिणाम पर निर्भर है। अर्थात् हिंसक प्राणी का तीवभाव, महावीर्यता, अल्पवीर्यता की विशेषता से कर्मबन्धजनित वैरबन्ध में विसदृशता (विशेषता) मानना ही न्यायसंगत है / वैरबन्ध का अाधार हिंसा है, और हिंसा आत्मा के भावों की तीव्रता-मंदता के अनुसार कर्मबन्ध का कारण बनती है। इसलिए, जीवों की संख्या या क्षुद्रता-विशालता वैरबन्ध का कारण नहीं है / घातक प्राणियों के भावों की अपेक्षा से वैर (कर्म) बन्ध में सादृश्य या असादृश्य होता है।' (7) प्राधाकर्मी आहार का सेवन एकान्ततः पापकर्म का ही कारण है, ऐसा एकान्तकथन शास्त्रविरुद्ध है। इस सम्बन्ध में प्राचार्यों का चिन्तन यह है कि “किसी अवस्थाविशेष में शुद्ध और कल्पनीय पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र, भैषज आदि भी अशुद्ध एवं अकल्पनीय हो जाते हैं, और ये ही अशुद्ध एवं अकल्पनीय पिण्ड आदि किसी अवस्थाविशेष में शुद्ध एवं कल्पनीय हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि किसी विशिष्ट अवस्था में न करने योग्य कार्य भी कर्तव्य और करने योग्य कार्य भी अकर्त्तव्य हो जाता है।" किसी देशविशेष या कालविशेष में अथवा किसी अवस्थाविशेष में शुद्ध (दोषरहित) अाहार न मिलने पर आहार के अभाव में कई अनर्थ पैदा हो सकते हैं, क्योंकि वैसी दशा में भूख और प्यास से पीड़ित साधक ईयापथ का शोधन भलीभांति नहीं कर सकता, लड़खड़ाते हुए चलते समय उससे जीवों का उपमर्दन भी सम्भव है, यदि वह क्षुधा-पिपासा या व्याधि की पीड़ा से मूच्छित होकर गिर पड़े तो त्रसजीवों की विराधना अवश्यम्भावी है, अगर ऐसी स्थिति में वह साधक अकाल में ही कालकवलित हो जाए तो संयम या विरति का नाश हो सकता है, आर्तध्यानवश दुर्गति भी हो सकती है। इसलिए पागम में विधान किया गया-"साधक को हर हालत में किसी भी मूल्य पर संयम की रक्षा करनी चाहिए, परन्तु संयम से भी बढ़कर (संयमपालन के साधनभत) स्वशरीर की रक्षा करना आवश्यक है। इसलिए प्राधाकर्मी आहारादि का सेवन एकान्ततः पापकर्म का कारण है, ऐसा एकान्तकथन नहीं करना चाहिए, तथैव आधाकर्मी आहार आदि के सेवन से पापकर्म का बन्धन नहीं ही होता है, ऐसा एकान्त कथन भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्राधाकर्मी आहारादि के बनाने में प्रत्यक्ष ही षट्कायिक जीवों की विराधना होती है, उससे पापकर्म का बन्ध होता है / अत: आधाकर्मी आहारादि-सेवन से किसी अपेक्षा से पापबन्ध होता है और किसी अपेक्षा से नहीं भी होता, ऐसा अनेकान्तात्मक कथन ही जैनाचारसम्मत है। 1. (क) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 372, 373 2. (क) किञ्चच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं वा, स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् / पिण्डः, शय्या, वस्त्र, पात्रं वा भेषजाद्य वा // (ख) "उत्पद्यत हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति / यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कायं च वर्जयेत् / / (ग) “सव्वत्थ संजमं, संजमामो अप्पाणमेव रक्खेज्जा।" -सूत्र कृ. शी. वृत्ति प. 374 से उद्ध त Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (8) औदारिक आदि पांचों शरीरों के कारणों तथा लक्षणादि में भेद होने से उनमें एकान्त अभेद नहीं है / जैसे कि औदारिक शरीर के कारण उदारपुद्गल हैं, कार्मण शरीर के कार्मण वर्गणा के पुद्गल तथा तेजस्शरीर के कारण तेजसवर्गणा के पुद्गल हैं / अतः इसके कारणों में भिन्नता होने से ये एकान्त अभिन्न नहीं हैं, तथैव प्रौदारिक आदि शरीर तैजस और कार्मण शरीर के साथ ही उपलब्ध होते हैं तथा सभी शरीर सामान्यतः पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं इन कारणों से भी इनमें सर्वथा अभेद मानना उचित नहीं है। इसी प्रकार उनमें एकान्त भेद भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि सभी शरीर एक पुदगल द्रव्य से निर्मित हैं। अतः अनेकान्त दष्टि से इन शरीरों में कथञ्चित भेद और कथञ्चित अभेद मानना ही व्यावहारिक राजमार्ग है: शास्त्रसम्मत प्राचार है। (6) सांख्यदर्शन का मत है-जगत् के सभी पदार्थ प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, अतः प्रकृति ही सबका उपादान कारण है, और वह एक ही है, इसलिए सभी पदार्थ सर्वात्मक हैं, सब पदार्थों में सबकी शक्ति विद्यमान है, यह एक कथन है। दूसरे मतवादियों का कथन है कि देश, काल, एवं स्वभाव का भेद होने से सभी पदार्थ सबसे भिन्न हैं, अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं, उनकी शक्ति भी परस्पर विलक्षण है, अत: सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं है। इस प्रकार दोनों एकान्त कथन हैं, जो उचित नहीं है / वस्तुतः सभी पदार्थ सत्ता रखते हैं, वे ज्ञेय हैं, प्रमेय हैं, इसलिए अस्तित्व, गेयत्व, प्रमेयत्व रूप सामान्य धर्म की दष्टि से भी पदार्थ कथञ्चित एक हैं, तथा सबके कार्य, गुण, स्वभाव, नाम एवं शक्ति एक दूसरे से भिन्न हैं, इसलिए सभी पदार्थ कथंचित परस्पर भिन्न भी हैं। अतएव द्रव्य-पर्यायदृष्टि से कथञ्चित् अभेद एवं भेद रूप अनेकान्तात्मक कथन करना चाहिए। इन विषयों में अथवा अन्य पदार्थों के विषय में एकान्तदृष्टि रखना या एकान्त कथन करना अनाचार है, दोष है / ' नास्तिकता और आस्तिकता के आधारभूत संज्ञाप्रधान सूत्र ७६५--णस्थि लोए अलोए वा, णेवं सण्णं निवेसए / अस्थि लोए अलोए वा, एवं सणं निवेसए // 12 // ७६५–लोक नहीं है या अलोक नहीं है ऐसी संज्ञा (बुद्धि-समझ नहीं रखनी चाहिए) अपितु) लोक है और अलोक (अाकाशास्तिकायमात्र) है, ऐसी संज्ञा रखनी चाहिए। ७६६----णस्थि जीवा अजीवा वा, गेवं सणं निवेसए / अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सण्णं निवेसए // 13 // ७६६–जीव और अजीव पदार्थ नहीं हैं, ऐसी संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, अपितु जीव और अजीव पदार्थ हैं, ऐसी संज्ञा (बुद्धि) रखनी चाहिए / ७६७-णत्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सण्णं निवेसए। अस्थि धम्में अधम्मे वा, एवं सण्णं निवेसए // 14 // 1. सूत्रकृतांग शीलांकवत्ति, पत्रांक 375-376 / Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र 768-774 ] [ 153 ७६७-धर्म-अधर्म नहीं है, ऐसी मान्यता नही रखनी चाहिए, किन्तु धर्म भी है और अधर्म भी है ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। ७६८–णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सणं निवेसए। अस्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सणं निवेसए // 15 // ७६८--बन्ध और मोक्ष नहीं है, यह नहीं मानना चाहिए, अपितु बन्ध है और मोक्ष भी है, यही श्रद्धा रखनी चाहिए। ७६६—णस्थि पुण्णे व पावे वा, जेवं सणं निवेसए / अस्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सण्णं निवेसए // 16 // ___७६६-पुण्य और पाप नहीं है, ऐसी बुद्धि रखना उचित नहीं, अपितु पुण्य भी है और पाप भी है, ऐसी बुद्धि रखना चाहिए। ७७०–णस्थि पासवे संवरे वा, णेवं सणं निवेसए / अस्थि पासवे संवरे वा, एवं सपणं निवेसए // 17 // ७७०-आश्रव और संवर नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु आश्रव भी है, संबर भी है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। 771 –णत्थि वेयणा निज्जरा वा, णेवं सणं निवेसए। अस्थि वेयणा निज्जरा वा, एवं सणं निवेसए // 10 // ७७१-वेदना और निर्जरा नहीं हैं, ऐसी मान्यता रखना ठीक नहीं है किन्तु वेदना और निर्जरा है, यह मान्यता रखनी चाहिए। ७७२-नत्थि किरिया अकिरिया वा, वं सण्णं निवेसए / अस्थि किरिया प्रकिरिया वा, एवं सणं निवेसए // 19 // ७७२--क्रिया और प्रक्रिया नहीं है, ऐसी संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, अपितु क्रिया भी है, प्रक्रिया भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। ७७३–नस्थि कोहे व माणे वा, णेवं सणं निवेसए / ____ अस्थि कोहे व माणे वा, एवं सणं निवेसए // 20 // 773 - क्रोध और मान नहीं हैं, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, अपितु क्रोध भी है, और मान भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। 774-- नत्थि माया व लोभे वा, णेवं सणं निवेसए / अत्थि माया व लोमे वा, एवं सणं निवेसए // 21 // Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध ७७४-माया और लोभ नहीं हैं, इस प्रकार की मान्यता नहीं रखनी चाहिए, किन्तु माया है और लोभ भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। ७७५–णत्थि पेज्जे व दोसे वा, णेवं सणं निवेसए। अस्थि पेज्जे व दोसे वा, एवं सणं निवेसए // 22 // ७७५---राग और द्वेष नहीं है, ऐसी विचारणा नहीं रखनी चाहिए, किन्तु राग और द्वष हैं, ऐसी विचारणा रखनी चाहिए। ७७६--णत्थि चाउरते संसारे, णेवं सणं निवेसए / अस्थि चाउरते संसारे, एवं सणं निवेसए // 23 // ७७६-~चार गति वाला संसार नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु चातुर्गतिक संसार (प्रत्यक्षसिद्ध) है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए / ७७७–णथि देवो व देवी वा, णेवं साणं निवेसए / अस्थि देवो व देवी वा, एवं सण्णं निवेसए // 24 // ७७७-देवी और देव नहीं हैं, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, अपितु देव-देवी हैं, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। ७७५-नस्थि सिद्धी प्रसिद्धी वा, णेवं सण्णं निवेसए / अस्थि सिद्धी प्रसिद्धी वा, एवं सणं निवेसए // 25 // ७७८-सिद्धि (मुक्ति) या प्रसिद्धि (अमुक्तिरूप संसार) नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, अपितु सिद्धि भी है और प्रसिद्धि (संसार) भी है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए। 776-- नत्थि सिद्धी नियं ठाणं, णेवं सण्णं निवेसए / अस्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सणं निवेसए // 26 // ७७६-सिद्धि (मुक्ति) जीव का निज स्थान (सिद्धशिला) नहीं है, ऐसी खोटी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, प्रत्युत सिद्धि जीव का निजस्थान है, ऐसा सिद्धान्त मानना चाहिए / ७८०-नस्थि साहू असाहू वा, णेवं सण्णं निवेसए / अस्थि साहू असाहू वा, एवं सणं निवेसए // 27 // ७८०-(संसार में कोई) साधु नहीं है और असाधु नहीं है, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, प्रत्युत साधु और असाधु दोनों हैं, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। ७८१–नस्थि कल्लाणे पावे वा, वं सणं निवेसए / अस्थि कल्लाणे पावे वा, एवं सणं निवेसए // 28 // Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र 781 ] [ 155 ७८१--कोई भी कल्याणवान् (पुण्यात्मा) और पापी (पापात्मा) नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए अपितु कल्याणवान् (पुण्यात्मा) एवं पापात्मा दोनों हैं, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। विवेचन–नास्तिकता और आस्तिकता के आधारभूत संज्ञाप्रधान सूत्र-प्रस्तुत 17 सूत्रगाथाओं में सम्यग्दर्शनाचार विरुद्ध नास्तिकता का निषेध करके उससे सम्मत आस्तिकता का विधान किया गया है। आस्तिकता ही प्राचार है, और नास्तिकता अनाचार। इस दृष्टि से आचारमाधक को निम्नलिखित विषयों सम्बन्धी नास्तिकता को त्याग कर उनके स्वतंत्र अस्तित्व को मानना, जानना और उस पर श्रद्धा करना चाहिए। जो इन पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व को नहीं मानते, वे प्राचीन युग की परिभाषा में नास्तिक, जैन धर्म की परिभाषा में मिथ्यात्वी और आगम की भाषा में अनाचारसेवी (दर्शनाचार रहित) हैं / वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण करते हुए इस पर प्रकाश डाला है कि कौन दार्शनिक इन के अस्तित्व को मानता है कौन नहीं, साथ ही प्रत्येक के अस्तित्व को विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध किया है।' मूल में 'संज्ञा' शब्द है, यहाँ वह प्रसंगानुसार समझ, बुद्धि, मान्यता, श्रद्धा, संज्ञान या दृष्टि प्रादि के अर्थ में प्रयुक्त है / वे 15 संज्ञासूत्र इस प्रकार हैं (1) लोक और अलोक-सर्वशून्यतावादी लोक और अलोक दोनों का अस्तित्व नहीं मानते। वे कहते हैं-स्वप्न, इन्द्रजाल और माया में प्रतीत होने वाले पदार्थों को तरह लोक (जगत) और अलोक सभी मिथ्या है। जगत के सभी प्रतीयमान दश्य मिथ्या हैं। अवयवों द्वारा ही अवयवी प्रकाशित होता है / जगत् (लोक या अलोक) के अवयवों का (विशेषत: अन्तिम अवयव =परमाणु का इन्द्रियातीत होने से) अस्तित्व सिद्ध न होने से जगत् रूप अवयवी सिद्ध नहीं हो सकता / परन्तु उनका यह सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक एवं युक्ति विरुद्ध है। अत: प्रत्यक्ष दृश्यमान चतुर्दशरज्ज्वात्मक या धर्मादिषड्द्रव्यमय लोक का अस्तित्व स्वतः सिद्ध है, और जहाँ धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्य नहीं हैं, केवल आकाश है, वहाँ अलोक का अस्तित्व है / यह भी अनुमान एवं आगम प्रमाण से सिद्ध है। (2) जीव और अजीव-पंचमहाभूतवादी जीव (आत्मा) का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते / वे कहते हैं-पंचभूतों के शरीर के रूप में परिणत होने पर चैतन्य गुण उन्हीं से उत्पन्न हो जाता है, कोई आत्मा नामक स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है / दूसरे आत्माद्वैतवादी (वेदान्ती) अजीव का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते, वे कहते हैं- सारा जगत् ब्रह्म (आत्मा) रूप है, चेतन-अचेतन सभी पदार्थ ब्रह्मरूप है, ब्रह्म के कार्य हैं। प्रात्मा से भिन्न जीव-अजीव आदि पदार्थों को मानना भ्रम है / परन्तु ये दोनों मत युक्ति-प्रमाण विरुद्ध हैं। जैनदर्शन का मन्तव्य है-उपयोग लक्षण वाले जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से सिद्ध है, वह अनादि है और पंचमहाभूतों का कार्य नहीं है, जड़ पंचमहाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अजीव द्रव्य का भी स्वतन्त्र अस्तित्व प्रत्यक्षादिप्रमाणों से सिद्ध है। यदि जीवादिपदार्थ एक ही आत्मा (ब्रह्म) से उत्पन्न होते तो उनमें परस्पर समानता होती, विचित्रता न होती। घट, पट आदि अचेतन अनन्त पदार्थ चेतनरूप आत्मा के परिणाम या कार्य होते तो, वे भी जीव की तरह स्वतन्त्ररूप से गति आदि कर सकते, परन्तु उनमें ऐसा नहीं देखा जाता / इसके अतिरिक्त संसार में प्रात्मा एक ही होता तो कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई बद्ध, कोई मुक्त आदि विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर न होती। एक जीव के सुख से 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 376, (ख) सूत्रकृ. नियुक्ति गा. 182. 2. स्थानांगसूत्र स्थान 10, उ. सू. अभयदेवसूरिटीका। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय 1 समस्त जीव सुखी और एक के दुःख से सारे दुःखी हो जाते / प्रत्येक जीव का पृथक् पृथक् / और अजीव (धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक) का उससे भिन्न स्वतन्त्र अस्तित्व ही अभीष्ट है।' (3) धर्म और अधर्म-श्रुत और चारित्र या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्म कहला प्रात्मा के स्वाभाविक परिणाम, स्वभाव या गुण हैं, तथा इनके विपरीत मिथ्यात्व, त्र प्रमाद, कषाय और योग; ये भी आत्मा के ही गुण, परिणाम हैं किन्तु कर्मोपाधिजनित होने मुक्ति के विरोधी होने से अधर्म कहलाते हैं। धर्म और अधर्म के कारण जीवों की विचिः इसलिए इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानना चाहिए / उपर्युक्त कथन सत्य होते हुए भी 4 निक काल, स्वभाव, नियति या ईश्वर आदि को ही जगत् की सब विचित्रताओं का का कर धर्म, अधर्म के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने से इन्कार करते हैं। किन्तु काल आदि धर्म, साथ ही विचित्रता के कारण होते हैं, इन्हें छोड़ कर नहीं। अन्यथा एक काल में उत्पन्न हुए में विभिन्नताएँ या विचित्रताएँ घटित नहीं हो सकतीं / स्वभाव आदि की चर्चा अन्य दार्शनिः से जान लेनी चाहिए। (4) बन्ध और मोक्ष-कर्मपुद्गलों का जीव के साथ दूध पानी की तरह सम्बः बन्ध है, और समस्त कर्मों का क्षय होना-प्रात्मा से पृथक् होना मोक्ष है। बन्ध और अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है / इन दोनों के अस्तित्व पर अश्रद्धा व्यक्ति / कुश पापाचार या अनाचार में गिरा देती है। अत: आत्मकल्याणकामी को दोनों पर अ त्याग कर देना चाहिए। कई दार्शनिक (सांख्यादि) आत्मा का बन्ध और मोक्ष नहीं मानते। हैं--प्रात्मा अमूर्त है, कर्मपुद्गल मूर्त / ऐसी स्थिति में अमूर्त आत्मा का आकाशवत् कर्मपुर साथ बन्ध या लिप्तत्व कैसे हो सकता है ? जब अमूर्त आत्मा बद्ध नहीं हो सकता तो उ .(मोक्ष) होने की बात निरर्थक है, बन्ध का नाश ही तो मोक्ष है। अतः बन्ध के अभाव में सम्भव नहीं / वस्तुतः यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं है / चेतना अमूर्त पदार्थ है, फिर भी मद्य अ पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने (सेवन) से उसमें में विकृति स्पष्टतः देखी जा सकती है। इस रिक्त संसारी आत्मा एकान्ततः अमूर्त नहीं-मूर्त है / अतः उसका मूर्त कर्म पुद्गलों के साथ सुसंगत है / जब बन्ध होता है, तो एक दिन उसका अभाव-मोक्ष भी सम्भव है। फिर अस्तित्व न मानने पर संसारी व्यक्ति का सम्यग्दर्शनादि साधना का पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाए। मोक्ष न मानने पर साध्य या अन्तिम लक्ष्य की दिशा में पुरुषार्थ नहीं होगा। इसलिए अस्तित्व मानना अनिवार्य है। (5) पुण्य और पाप-"शुभकर्म पुद्गल पुण्य है और अशुभकर्म पुद्गल पाप।" का पृथक्-पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व है। कई अन्यतीथिक कहते हैं-इस जगत् में पुण्य ना 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 376-377. 2. नहि कालादिहितो केवलएहितो जायए किंचि / __ इह मुग्गरंधणाइ वि ता सम्बे समुदिया हेऊ॥ 3. "पुद्गलकर्म शुभं यत् तत् पुण्यमिति जिनशासने दष्टम् / यदशुभमथ तत् पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्देशात // " Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सूत्र 781 ] [ 157 पदार्थ नहीं, एकमात्र पाप ही है / पाप कम हो जाने पर, सुख उत्पन्न करता है, अधिक हो जाने पर - दुःख, दूसरे दार्शनिक कहते हैं—जगत् में पाप नाम का कोई पदार्थ नहीं है, एकमात्र पुण्य ही है। पुण्य घट जाता है, तब वह दुःखोत्पत्ति, और बढ़ जाता है तब सुखोत्पत्ति करता है। तीसरे मतवादी कहते हैं-पुण्य या पाप दोनों ही पदार्थ मिथ्या हैं, क्योंकि जगत् की विचित्रता नियति, स्वभाव आदि के कारण से होती है। वस्तुत: ये दार्शनिक भ्रम में हैं, पुण्य और पाप दोनों का नियत सम्बन्ध है, एक का अस्तित्व मानने पर दूसरे का अस्तित्व मानना ही पड़ेगा। यदि सब कुछ नियति या स्वभाव आदि से होने लगे, तो क्यों कोई सत्कार्य में प्रवृत्त होगा? फिर तो किसी को शुभ-अशुभ क्रिया का फल भी प्राप्त नहीं होगा / परन्तु ऐसा होता नहीं। अतः पुण्य और पाप दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानना ही ठीक है। (6) पाश्रव और संवरजिसके द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं, अर्थात् जो बन्ध का कारण है, वह (प्राणातिपात आदि) आश्रव है, और उस आश्रव का निरोध करना संवर है। ये दोनों पदार्थ / अवश्यम्भावी हैं, शास्त्रसम्मत भी / किसी दार्शनिक ने आश्रव और संवर दोनों को मिथ्या बताते हए तर्क उठाया है कि यदि प्राश्रव प्रात्मा से भिन्न हो तो वह घटपटादि पदार्थों की तरह आत्मा में कर्म बन्ध का कारण नहीं हो सकता। यदि वह आत्मा से अभिन्न हो तो मुक्तात्माओं में भी उसकी सत्ता माननी पड़ेगी, ऐसा अभीष्ट नहीं / अतः पाश्रव की कल्पना मिथ्या है / जब आश्रव सिद्ध नहीं हुआ तो उसका निरोधरूप संवर भी नहीं माना जा सकता। कार ने इसका निराकरण करते हए कहा--"पाश्रव का अस्तित्व न मानने से सांसारिक जीवों की विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती और संवर न मानने से कर्मों का निरोध घटित नहीं हो सकता / अतः दोनों का अस्तित्व मानना ही उचित है / आश्रव संसारी आत्मा से न तो सर्वथा भिन्न है, न सर्वथा अभिन्न / पाश्रव और संवर दोनों को आत्मा से कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न मानना ड़ी न्यायोचित है। (7) वेदना और निर्जरा-कर्म का फल भोगना 'वेदना' है और कर्मों का प्रात्मप्रदेशों से झड़ जाना 'निर्जरा' है। : कुछ दार्शनिक कहते हैं—'ये दोनों पदार्थ नहीं हैं; क्योंकि प्राचार्यों ने कहा है-'अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों का अनेक कोटि वर्षों में क्षय करता है, उन्हें त्रिगुप्तिसम्पन्न ज्ञानीपुरुष एक उच्छवासमात्र में क्षय कर डालता है।' इस सिद्धान्तानुसार सैकड़ों पल्योपम एवं सागरोपम काल में भोगने योग्य कर्मों का भी (बिना भोगे ही) अन्तर्मुहूर्त में क्षय हो जाता है, अतः सिद्ध हुआ कि क्रमशः बद्धकर्मों का वेदन (फलभोग) क्रमश: नहीं होता, अतः 'वेदना' नाम का कोई तत्त्व मानने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार वेदना का अभाव सिद्ध होने से निर्जरा का अभाव स्वत: सिद्ध है।" परन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता / तपश्चर्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कतिपय कर्मों का ही क्षपण होता है, समस्त कर्मों का नहीं। उन्हें तो उदीरणा और उदय के द्वारा 1. "जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहि / तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेह, ऊसासमित्तण // " Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भोगना (अनुभव-वेदन करना) होता है। इससे वेदना तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध होता है / अागम में भी कहा है-'पहले अपने द्वारा कृत दुष्प्रतीकार्य दुष्कर्मों (पापकर्मों) का वेदन (भोग) करके ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं।' इस प्रकार वेदना का अस्तित्व सिद्ध होने पर निर्जरा का अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है / अत: वेदना और निर्जरा दोनों का अस्तित्व मानना अत्यावश्यक है। (8) क्रिया और प्रक्रिया-चलना, फिरना आदि क्रिया है और इनका प्रभाव प्रक्रिया / सांख्यमतवादी प्रात्मा को आकाश के समान व्यापक मान कर उसमें क्रिया का अस्तित्व नहीं मानते / वे आत्मा (पुरुष) को निष्क्रिय कहते हैं / बौद्ध समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं अतः पदार्थों में उत्पत्ति के सिवाय अन्य किसी क्रिया को नहीं मानते। अात्मा में क्रिया का सर्वथा अभाव मानने पर बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती / न ही वह आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता हो सकता है। अतः संयोगावस्था तक आत्मा में क्रिया रहती है, अयोगावस्था में आत्मा अक्रिय हो जाता है। (6) क्रोध, मान, माया और लोभ-अपने या दूसरे पर अप्रीति करना क्रोध है, गर्व करना मान है, कपट को माया और वितृष्णा को लोभ कहते हैं / इन चारों कषायों का अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। दसवें गुण-स्थान तक कषाय आत्मा के साथ रहता है, बाद में प्रात्मा निष्कषाय हो जाता है / (10) राग और द्वष–अपने धन, स्त्री, पुत्र प्रादि पदार्थों के प्रति जो प्रीति या प्रासक्ति होती है, उसे प्रेम, या राग कहते हैं। इष्ट वस्तु को हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति के प्रति चित्त में अप्रीति या घणा होना द्वेष है। कई लोगों का मत है कि माया और लोभ इन तथा क्रोध और मान, इन दोनों में द्वष गतार्थ हो जाता है फिर इनके समुदायरूप राग या द्वेष को अलग पदार्थ मनाने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि समुदाय अपने अवयवों से पृथक् पदार्थ नहीं है। किन्तु यह मान्यता एकान्ततः सत्य नहीं है; समुदाय (अवयवी) अपने अवयवों से कथञ्चिद् भिन्न तथा कथञ्चिद् अभिन्न होता है / इस दृष्टि से राग और द्वष दोनों का कथंचित् पृथक् पृथक् अस्तित्व है। चातुर्गतिक संसार--नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ हैं / जीव स्व-स्व कर्मानुसार इन चारों गतियों में जन्म-मरण के रूप में संसरण-परिभ्रमण करता रहता है, यही चातुर्गतिक संसार है / यदि चातुर्गतिक संसार न माना जाए तो शुभाशुभकर्म-फल भोगने की व्यवस्था नहीं हो सकती। इसलिए चार गतियों वाला संसार मानना अनिवार्य है / कई लोग कहते हैं--यह संसार कर्मबन्धनरूप तथा जीवों को एकमात्र दुःख देने वाला है, अत: एक ही प्रकार का है। कई लोग कहते हैं-इस जगत् में मनुष्य और तिर्यञ्च ये दो ही प्रकार के प्राणी दृष्टि 1. पूवि चिण्णाणं दुप्पडिक्कताणं वेइत्ता मोक्खो, णस्थि अवेइत्ता / -सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 377 से 379 तक से उद्ध त / 2. सत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 379-380. Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सूत्र 781 ] [ 159 गोचर होते हैं, देव और नारक नहीं / अत: संसार दो ही गतियोंवाला है, इन्हीं दो गतियों में सुखदुःख की न्यूनाधिकता पाई जाती है / अतः संसार द्विगतिक मानना चाहिए, चातुर्गतिक नहीं / परन्तु यह मान्यता अनुमान और पागम प्रमाणों से खण्डित हो जाती है। यद्यपि नारक और देव अल्पज्ञोंछद्मस्थों को प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं होते, परन्तु अनुमान और आगम प्रमाण से इन दोनों गतियों की सिद्धि हो जाती है / शास्त्रकार कहते हैं---'अस्थि चाउरते संसारे' / देव उत्कृष्ट पुण्यफल के भोक्ता और नारक उत्कृष्ट पापफल के भोक्ता होते हैं। इसलिए चारों गतियों का अस्तित्व सिद्ध होने से चातुर्गतिक संसार मानना चाहिए। (12) देव और देवी-यद्यपि चातुर्गतिक संसार में देवगति के सिद्ध हो जाने से देवों और देवियों का भी पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो जाता है तथापि कई मतवादी मनुष्यों के अन्तर्गत ही राजा, चक्रवर्ती या धनपति आदि पुण्यशाली पुरुष-स्त्रो को देव-देवी मानते हैं, अथवा ब्राह्मण या विद्वान् को देव एवं विदुषी को देवी मानते हैं, पृथक देवगति में उत्पन्न देव या देवी नहीं मानते / उनकी इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है—देव या देवी का पृथक् अस्तित्व मानना चाहिए / भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चारों प्रकार के देव पृथक्-पृथक् निकाय के होते हुए भी इन सबका देवपद से ग्रहण हो जाता है। ज्योतिष्कदेव तो प्रत्यक्ष हैं, शेष देव भी अनुमान एवं आगम प्रमाण से सिद्ध हैं। (13) सिद्धि, प्रसिद्धि और आत्मा की स्वस्थान-सिद्धि--समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य सुखरूप आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जाना सिद्धि है / इसे मोक्ष या मुक्ति भी कहते हैं / सिद्धि से जो विपरीत हो वह असिद्धि है, यानी शुद्धस्वरूप की उपलब्धि न होना-संसार में परिभ्रमण करना / असिद्धि संसाररूप है। जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है / जब असिद्धि सत्य है, तो उसकी प्रतिपक्षी समस्त कर्मक्षयरूप सिद्धि भी सत्य है क्योंकि सभी पदार्थों का प्रतिपक्षी अवश्य होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरणरूप मोक्षमार्ग की आराधना करने से समस्त कर्मों का क्षय हो कर जीव को सिद्धि प्राप्त होती है। अतः अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से, अंशतः प्रत्यक्षप्रमाण से तथा महापुरुषों द्वारा सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करने से सिद्धि सिद्ध होती है / कई दार्शनिक कहते हैं-हिंसा से सर्वथा निवृत्ति किसी भी साधक की नहीं हो सकती, क्योंकि जल, स्थल आकाश, आदि में सर्वत्र जीवों से पूर्ण लोक में अहिंसक रहना संभव नहीं है। परन्तु हिंसादि पाश्रव-द्वारों को रोक कर पांच समिति-त्रिगुप्तिसम्पन्न निर्दोष भिक्षा से जीवननिर्वाह करता हुआ एवं ईर्याशोधनपूर्वक यतना से गमनादिप्रवृत्ति करता हुआ साधु भावशुद्धि के कारण कर्मबन्ध नहीं करता, इस प्रकार के साधु को समस्त कर्मों का क्षय होने से सिद्धि या मुक्ति प्राप्त होती है। प्रसिद्धि का स्वरूप तो स्पष्टतः सिद्ध है, अनुभति का विषय है / सिद्धि जीव (शुद्ध-मुक्तात्मा) का निज स्थान है। समस्त कर्मों के क्षय होने पर मुक्तजीव जिस स्थान को प्राप्त करता है, वह लोकाग्रभागस्थित सिद्धशिला ही जीव का निजी सिद्धिस्थान है। वहां से लौट कर वह पुनः इस असिद्धि (संसार) स्थान में नहीं आता। कर्मबन्धन से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होती है, वह ऊर्ध्वगति लोक के अग्रभाग तक ही होती है, धर्मास्तिकाय का निमित्त न मिलने से आगे गति Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्य नहीं होती। अतः सिद्ध जीव जहाँ स्थित रहते हैं, उसे सिद्धि स्थान कहा जाता है / ' कुछ दार्शनिक कहते हैं—मुक्त पुरुष आकाश के समान सर्वव्यापक हो जाते हैं, उनका कोई एक स्थान नहीं होता, परन्तु यह कथन युक्ति-प्रमाणविरुद्ध है। आकाश तो लोक-अलोक दोनों में व्याप्त है / अलोक में तो आकाश के सिवाय कोई पदार्थ रह नहीं सकता, मुक्तात्मा लोकमात्रव्यापक हो जाता है इसमें कोई प्रमाण नहीं / सिद्ध जीव में ऐसा कोई कारण नहीं कि वह शरीरपरिमाण को त्याग कर समस्त लोकपरिमित हो जाए। (14) साधु और प्रसाधु-स्व-परहित को सिद्ध करता है, अथवा प्राणातिपात आदि 18 पापस्थानों से विरत होकर सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयरूप मोक्षमार्ग की या पंचमहाव्रतों की साधना करता है, वह साधु है ! जिसमें साधुता नहीं है, वह असाधु है। अतः जगत् में साधु भी हैं, असाधु भी हैं, ऐसा मानना चाहिए। कई लोग कहते हैं---"रत्नत्रय का पूर्णरूप से पालन असम्भव होने से जगत् में कोई साधु नहीं है / जब साधु ही नहीं तो उसका प्रतिपक्षी असाधु भी नहीं हो सकता।" यह मान्यता उचित नहीं है / विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिए। जो साधक सदा यतनापूर्वक समस्त प्रवृत्ति करता है, 'सुसंयमी चारित्रवान् है, शास्त्रोक्तविधि से शुद्ध निर्दोष आहार लेता है, ऐसे सुसाधु से कदाचित् भूल से अनजान में अनेषणीय अशुद्ध आहार ले भी लिया जाए तो भी सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का अपूर्ण अाराधक नहीं, अपनी शुद्ध दृष्टि से वह पूर्ण पाराधक हैं, क्योंकि वह शुद्धबुद्धि से, भावनाशुद्धिपूर्वक शुद्ध समझ कर उस आहार को ग्रहण करता है। इससे वह असाधु नहीं हो जाता, सुसाधु ही रहता है / भक्ष्याभक्ष्य, एषणीय-अनेषणीय, प्रासुक-अप्रासुक आदि का विचार करना राग-द्वेष नहीं, अपितु चारित्रप्रधान मोक्ष का प्रमुख अंग है / इससे साधु की समता (सामायिक) खण्डित नहीं होती। इस प्रकार साधु का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसके प्रतिपक्षी असाधु के अस्तित्व की भी सिद्धि हो जाती है। (15) कल्याण और पाप अथवा कल्याणवान् और पापवान्-अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति को कल्याण और हिंसा आदि को पाप कहते हैं, जिसमें ये हों, उन्हें क्रमशः कल्याणवान् तथा पापवान् 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 380 से 382 तक (ख) दोषावरणयोहानि निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी / __ क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः / / (ग) 'कर्मविमुक्तस्योवंगतिः' (घ) लाउ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुक्के / गइ पुज्वपओगेणं एवं सिद्धाण वि गई प्रो॥ उच्चालियम्मि पाए ईरियासमियरस संकमट्ठाए। बावज्जिज्ज कुलिंगी, मरिज वा तं जोगमासज्ज / ण य तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिनो समए / -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 381-382 में उद्धत Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सत्र 782-785 / [ 161 कहते हैं / जगत् में कल्याण और पाप दोनों प्रकार वाले पदार्थों का अस्तित्व है। इस प्रत्यक्ष दृश्यमान सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। बौद्धों का कथन है--जगत् में कल्याण नामक कोई पदार्थ नहीं है, सभी पदार्थ अशुचि और निरात्मक हैं। कल्याण नामक पदार्थ न होने से कोई भी व्यक्ति कल्याणवान नहीं है / परन्तु ऐसा मानने पर बौद्धों के उपास्यदेव भी अशुचि सिद्ध होंगे जो उन्हें अभीष्ट नहीं है। इसीलिए सभी पदार्थ अशुचि नहीं हैं, न ही निरात्मक हैं, क्योंकि सभी पदार्थ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से सत् हैं, परद्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की अपेक्षा से असत् हैं, ऐसा मानना ठीक है। आत्मद्वैतवादी के मतानुसार आत्मा से भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, सभी पदार्थ आत्म (पुरुष) स्वरूप हैं। इसलिए कल्याण और पाप नाम की कोई वस्तु नहीं है। किन्तु यह प्रत्यक्ष-बाधित है / ऐसा मानने से जगत की दृश्यमान विचित्रता संगत नहीं हो सकती।। अतः जगत् में कल्याण और पाप अवश्य है, ऐसा अनेकान्तात्मक दृष्टि से मानना चाहिए। कतिपय निषेधात्मक प्राचार सूत्र ७८२--कल्लाणे पावए वा वि, ववहारो ण विज्जई। जं बेरं तं न जाणंति, समणा बालपंडिया // 26 / / 782. यह व्यक्ति एकान्त कल्याणवान् (पुण्यवान्) है, और यह एकान्त पापी है, ऐसा व्यवहार नहीं होता, (तथापि) बालपण्डित (सद्-असद-विवेक से रहित होते हुए भी स्वयं को पण्डित मानने वाले) (शाक्य आदि) श्रमण (एकान्त पक्ष के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले); वैर (कर्मबन्धन) नहीं जानते। ७८३-असेसं अक्खयं वा वि, सवदुक्खे त्ति वा पुणो / वज्झा पाणा न वज्झ त्ति, इति वायं न नीसरे // 30 // 683. जगत् के अशेष (समस्त) पदार्थ अक्षय (एकान्त नित्य) हैं, अथवा एकान्त अनित्य हैं, ऐसा कथन (प्ररूपण) नहीं करना चाहिए, तथा सारा जगत् एकान्तरूप से दुःखमय है, ऐसा वचन भी नहीं कहना चाहिए एवं अमुक प्राणी वध्य है, अमुक अवध्य है, ऐसा वचन भी साधु को (मुह से) नहीं निकालना चाहिए। ७८४-दीसंति समियाचारा, भिक्खुणो साहुजीविणो। एए मिच्छोवजीवि त्ति, इति दिटुिं न धारए // 31 // 784. साधुतापूर्वक जीने वाले, (शास्त्रोक्त) सम्यक् प्राचार के परिपालक निर्दोष भिक्षाजीवी साधु दृष्टिगोचर होते हैं. इसलिए ऐसी दृष्टि नहीं रखनी चाहिए कि ये साधुगण कपट से जीविका (जीवननिर्वाह) करते हैं। ७८५–दविखणाए पडिलंभो, अस्थि नस्थि त्ति वा पुणो। ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमग्गं च वृहए // 32 // 785. मेधावी (विवेकी) साधु को ऐसा (भविष्य-) कथन नहीं करना चाहिए कि दान Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध का प्रतिलाभ (प्राप्ति) अमुक से होता है, अमुक से नहीं होता, अथवा तुम्हें आज भिक्षालाभ होगा या नहीं ? किन्तु जिससे शान्ति (मोक्षमार्ग) की वृद्धि होती हो, ऐसा वचन कहना चाहिए। विवेचन-कतिपय निषेधात्मक प्राचारसूत्र-प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं में साधुओं के लिए भाषासमिति, सत्यमहाव्रत, अहिंसा अनेकान्त आदि की दृष्टि से विभिन्न पहलुओं से कतिपय निषे. धात्मक आचारसूत्र प्रस्तुत किये गए हैं / वे इस प्रकार हैं (1) किसी भी व्यक्ति को एकान्त पुण्यवान् (कल्याणवान्) अथवा एकान्त पापी नहीं कहना चाहिए। (2) जगत् के सभी पदार्थ एकान्त नित्य हैं, या एकान्त अनित्य हैं, ऐसी एकान्त प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए। (3) सारा जगत् एकान्तरूप से दुःखमय है, ऐसा नहीं कहना चाहिए / (4) अमुक प्राणी वध्य (हनन करने योग्य) है, अमुक अवध्य है, ऐसा वचन मुह से न निकाले। (5) संसार में साधुतापूर्वक जीने वाले, प्राचारवान् भिक्षाजीवी साधु (प्रत्यक्ष) दीखते हैं, फिर भी ऐसी दृष्टि न रखे (या मिथ्याधारणा न बना ले) कि ये साधु कपटपूर्वक जीवन जीते हैं। (6) साधुमर्यादा में स्थित साधु को ऐसी भविष्यवाणी नहीं करनी चाहिए कि तुम्हें अमुक के यहाँ से दान मिलेगा, अथवा आज तुम्हें भिक्षा प्राप्त होगी या नहीं ? वह मोक्षमार्ग का कथन करे। ___ इनकी अनाचरणीयता का रहस्य-किसी को एकान्ततः पुण्यवान् (या कल्याणवान्) कह देने से उसके प्रति लोग आकर्षित होंगे, सम्भव है, वह इसका दुर्लाभ उठाए / एकान्तपापी कहने से वैर बन्ध जाने की सम्भावना है। जगत् के सभी पदार्थ पर्यायतः परिवर्तनशील हैं, कोई भी वस्तु सदा एक-सी अवस्था में नहीं रहती इसलिए अनेकान्तदृष्टि से पदार्थ को एकान्त नित्य कहने से उसकी विभिन्न अवस्थाएँ नहीं बन सकती, एकान्तनित्य (बौद्धों की तरह) कहने से कृतनाश और अकृतप्राप्ति आदि दोष होते हैं। सारा जगत एकान्तदःखमय है. ऐसा कह देना भी ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा ना कहने से अहिंसादि या रत्नत्रय की साधना करने का उत्साह नहीं रहता, तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय-प्राप्ति से साधक को असीम सुख का अनुभव होता है, इसलिए सत्यमहाव्रत में दोष लगता है। अहिंसाधर्मी साधु हत्यारे, परस्त्रीगामी, चोर, डाकू या उपद्रवी को देखकर यदि यह कहता है कि इन्हें मार डालना चाहिए तो उसका अहिंसा महाव्रत भंग हो जाएगा। यदि सरकार किसी भयंकर अपराधी को भयंकर दण्ड–मृत्युदण्ड (कानून की दृष्टि से) दे रही हो तो उस समय साधु बीच में पंचायती न करे कि इन्हें मारो-पीटो मत, इन्हें दण्ड न दो। यदि वह ऐसा कहता है, तो राज्य या जनता के कोप का भोजन बन सकता है, अथवा ऐसे दण्डनीय व्यक्ति को साधु निरपराध कहता है तो साधु को उसके पापकार्य का अनुमोदन लगता है। अतः साधु ऐसे समय में समभावपूर्वक मध्यस्थ वृत्ति से रहे / अन्यथा, भाषासमिति, अहिंसा, सत्य आदि भंग होने की सम्भावना है। किसी सुसाधु के विषय में गलतफहमी या पूर्वाग्रह से मिथ्याधारणा बना लेने पर (कि यह कपटजीवी है, अनाचारी है, साधुता से दूर है आदि) द्वेष, वैर बढ़ता है, पापकर्मबन्ध होता है, सत्यमहाव्रत में दोष लगता है। इसी प्रकार स्वतीथिक या परतीथिक साधु के द्वारा दान या Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र 786 ] [ 163 भिक्षा की प्राप्ति के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भविष्यवाणी कर देने से यदि उक्त कथन के विपरीत हो गया तो साधु के प्रति अश्रद्धा बढ़ेगी, एकान्त निश्चयकारी भाषा बोलने से भाषासमिति एवं सत्यमहाव्रत में दोष लगेगा। दान प्राप्त न होने का कहने पर प्रश्नकार के मन में अन्तराय, निराशा, दुःख होना सम्भव है। कहने पर प्रश्नार्थी में अपार हर्षवश अधिकरणादि दोषों की सम्भावना है / अतः साधु को प्रश्नकर्ता साधु के समक्ष शान्ति-(मोक्ष) मार्ग में वृद्धि हो ऐसा ही कथन करना चाहिए। एकान्तमार्ग का प्राश्रय अनाचार की कोटि में चला जाता है। जिनोपदिष्ट प्राचारपालन में प्रगति करे ७८६-इच्चेतेहि ठाणेहि, जिदिहि संजए। धारयंते उ अप्पाणं, प्रामोक्खाए परिव्वएज्जासि // 33 // त्ति बेमि // ॥प्रणायारसुयं : पंचमं अज्झयणं समत्तं // ७८६--इस प्रकार इस अध्ययन में जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट या उपलब्ध (दष्ट) स्थानों (तथ्यों) के द्वारा अपने आपको संयम में स्थापित करता हुआ साधु मोक्ष प्राप्त होने तक (पंचाचार पालन में) प्रगति करे / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-जिनोपविष्ट प्राचारपालन में प्रगति करे---प्रस्तुत गाथा में अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार इस अध्ययन में जिनोपदिष्ट अनाचरणीय मार्गों को छोड़कर आचरणीय पंचाचारपालन मार्गों में प्रगति करने का निर्देश करते हैं। / / अनाचारश्रुतः पंचम अध्ययन समाप्त / / Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन प्राथमिक .] सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के छठे अध्ययन का नाम 'आर्द्र कीय' है। 0 आर्द्र क (भूतपूर्व राजकुमार और वर्तमान में श्रमण भगवान् महावीर की परम्परा में स्वयं दीक्षित मुनि) से सम्बन्धित होने के कारण इस अध्ययन का नाम आर्द्रकीय रखा गया / नियुक्तिकार के अनुसार आद्रकपुर नगर में, आर्द्र कनामक राजा का पुत्र तथा प्रार्द्र कवती रानी का अंगजात 'पार्द्र ककुमार' बाद में आर्द्र क अनगार हो गया था। पाक से समुत्थित होने से इस अध्ययन का नाम 'पार्द्र कीय' है / प्रार्द्र ककुमार ने आर्द्र कपुर' नामक अनार्यदेशवर्ती नगर में जन्म लेकर मुनिदीक्षा कैसे ली ? और भगवान् महावीर के धर्म का गाढ़ परिचय उसे कैसे हुआ ? नियुक्तिकार के अनुसार वह वृत्तान्त संक्षेप में इस प्रकार है--आर्द्र कपुर नरेश और मगधनरेश श्रेणिक के बीच स्नेहसम्बन्ध था। इसी कारण अभयकुमार से प्रार्द्र ककुमार का परोक्ष परिचय हुआ। आर्द्र ककुमार को अभयकुमार ने भव्य और शीघ्रमोक्षगामी समझकर उसके लिए प्रात्मसाधनोपयोगी उपकरण उपहार में भेजे। उन्हें देखते ही उसे पूर्वजन्म का स्मरण हुअा। प्रार्द्र ककुमार का मन काम-भोगों से विरक्त हो गया / अपने देश से निकलकर भारत पहुँचा। दिव्यवाणी द्वारा मना किये जाने पर भी स्वयं पाहतधर्म में प्रवजित हो गया। भोगावलीकर्मोदयवश दीक्षा छोड़कर पुनः गृहस्थधर्म में प्रविष्ट होना पड़ा। अवधि पूर्ण होते ही पुनः साधुवेश धारण कर जहाँ भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ पहुँचने के लिए प्रस्थान किया। पूर्वजन्म का स्मरण होने से आर्द्र क को निर्ग्रन्थ महावीर एवं उनके धर्म का बोध हो गया था। मार्ग में प्राकमुनि की चर्चा किन-किन के साथ, क्या-क्या हुई ? यह इस अध्ययन के 'पुराकडं अद्द ! इमं सुणेह' 'पाठ से प्रारम्भ होने वाले वाक्य से परिलक्षित होती है। इस वाक्य में उल्लिखित 'अह' सम्बोधन से भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस अध्ययन में चचित वादविवाद का सम्बन्ध 'आर्द्रक' के साथ है। नियुक्ति एवं वृत्ति के अनुसार इस अध्ययन में आक के साथ पांच मतवादियों के वादविवाद का वर्णन है--(१) गोशालक, (2) बौद्धभिक्षु, (3) वेदवादी ब्राह्मण, (4) सांख्यमतवादी एकदण्डी, और (5) हस्तितापस / आर्द्रकमुनि ने सबको युक्ति, प्रमाण एवं निर्ग्रन्थ सिद्धान्त के अनुसार उत्तर दिया है, जो बहुत ही रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। / यह अध्ययन सू. गा. 787 से प्रारम्भ होकर सू. गा. 841 पर समाप्त होता है / 1. कुछ विद्वान् पार्द्रकपुर वतमान 'एडन' को बताते हैं।-सं. 2, (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 385 से 388. (ख) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 187, 190, 198, 199 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्दइज्ज : छठें अज्झयणं प्रादकीय : छठा अध्ययन भगवान महावीर पर लगाए गए आक्षेपों का आर्द्र कमुनि द्वारा परिहार ७८७-पुराकडं प्रद्द ! इमं सुणेह, एगंतचारी समणे पुरासी। से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, आइक्खतेण्हं पुढो वित्थरेणं // 1 // ७८७–(गोशालक ने आर्द्र कमुनि से कहा-) हे आड़क ! महावीर स्वामी ने पहले जो प्राचरण किया था, उसे मुझ से सुन लो ! पहले वे एकान्त (निर्जन प्रदेश में अकेले) विचरण किया करते थे और तपस्वी थे। अब वे (आप जैसे) अनेक भिक्षुओं को इकट्ठा करके या अपने साथ रख कर पृथक्-पृथक् विस्तार से धर्मोपदेश देते हैं। 788 ---साऽऽजीविया पट्टवियाऽथिरेणं, सभागतो गणतो भिक्खुमझे। प्राइक्खमाणो बहुजण्णमत्थं, न संधयाती प्रवरेण पुत्वं // 2 // ७८८-उस अस्थिर (चंचलचित्त) महावीर ने यह तो अपनी आजीविका बना (स्थापित कर) ली है। वह जो सभा में जाकर अनेक भिक्षों के गण के बीच (बैठ कर) बहुत-से लोगों के हित के लिए धर्मोपदेश देते (व्याख्यान करते हैं, यह उनका वर्तमान व्यवहार उनके पूर्व व्यवहार से मेल नहीं खाता; (यह पूर्वापर-विरुद्ध आचरण है।) ७५६-एगंतमेव अदुवा वि इण्हि, दोवऽण्णमण्णं न समेति जम्हा। पुचि च इण्हि च अणागतं वा, एगंतमेव पडिसंधयाति // 3 // ७८६-(पूर्वार्द्ध) इस प्रकार या तो महावीर स्वामी का पहला व्यवहार एकान्त (निर्जन प्रदेश में एकाकी) विचरण ही अच्छा (सम्यक् आचरण) हो सकता है, अथवा इस समय का अनेक लोगों के साथ रहने का व्यवहार ही अच्छा (सम्यक् आचरण) हो सकता है। किन्तु परस्परविरुद्ध दोनों आचरण अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों में परस्पर मेल नहीं, विरोध है। (उत्तरार्द्ध) [गोशालक के आक्षेप का आर्द्रकमुनि ने इस प्रकार समाधान किया-] श्रमण भगवान महावीर पूर्वकाल में, वर्तमान काल में (अब) और भविष्यतकाल में (सदैव एकान्त का ही अनुभव करते हैं। अत: उनके (पहले के और इस समय के) आचरण में परस्पर मेल है; (विरोध नहीं है)। ७६०-~समेच्च लोगं तस-थावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा। प्राइक्खमाणो वि सहस्समझे, एगंतयं साहयति तहच्चे // 4 // Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ७६०-बारह प्रकार की तपःसाधना द्वारा प्रात्मशुद्धि के लिए श्रम करने वाले (श्रमण) एवं 'जीवों को मत मारो' का उपदेश देने वाले (माहन) भ० महावीर स्वामी (केवलज्ञान के द्वारा) समन लोक को यथावस्थित (सम्यक्) जानकर त्रस-स्थावर जीवों के क्षेम - कल्याण के लिए हजारों लोगों के बीच में धर्मोपदेश (व्याख्यान) करते हुए भी एकान्तवास (रागद्वेषरहित आत्मस्थिति की साधना कर लेते हैं या अनुभूति कर लेते हैं। क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति उसी प्रकार की (सदैव एकरूप) बनी रहती है। 761 --धम्म कहेंतस्स उ पत्थि दोसो, खंतस्स दंतस्स जितेंदियस्स। भासाय दोसे य विवज्जगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्स // 5 // ७६१-श्रुत-चारित्ररूप धर्म का उपदेश करने वाले भगवान महावीर को कोई दोष नहीं होता, क्योंकि क्षान्त (क्षमाशील अथवा परीषहसहिष्णु), दान्त (मनोविजेता) और जितेन्द्रिय तथा भाषा के दोषों को वर्जित करने वाले भगवान् महावीर के द्वारा भाषा का सेवन (प्रयोग) किया जाना गुणकर है; (दोषकारक नहीं)। ७६२-महन्वते पंच अणुव्वते य, तहेव पंचासव संवरे य / विरति इह स्सामणियम्मि पण्णे, लवावसक्की समणे ति बेमि // 6 // ७६२-(घातिक) कर्मों से सर्वथा रहित हुए (लवावसी) श्रमण भगवान् महावीर श्रमणों के लिए पंच महाव्रत तथा (श्रावकों के लिए) पांच अणुव्रत एवं (सर्वसामान्य के लिए) पांच आश्रवों और संवरों का उपदेश देते हैं / तथा (पूर्ण) श्रमणत्व (संयम) के पालनार्थ वे विरति का (अथवा पुण्य का, तथा उपलक्षण से पाप, बंध, निर्जरा एवं मोक्ष के तत्त्वज्ञान का) उपदेश करते हैं, यह मैं कहता हूँ। विवेचन-भ. महावीर पर लगाए गए आक्षेपों का आद्रक मुनि द्वारा परिहार-प्रस्तुत 6 सूत्र गाथाओं में प्राजीवकमतप्रवर्तक गोशालक द्वारा भगवान् महावीर पर लगाए गए कतिपय प्राक्षेप और प्रत्येक बुद्ध आर्द्रक मुनि द्वारा दिये गये उनके निवारण का अंकन किया गया है / आक्षेपकार कौन, क्यों और कब?-यद्यपि मूल पाठ में आक्षेपकार के रूप में गोशालक का नाम कहीं नहीं आता, परन्तु नियुक्तिकार एवं वृत्तिकार इसका सम्बन्ध गोशालक से जोड़ते हैं, क्योंकि आक्षेपों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आक्षेपकार (पूर्वपक्षी) भ० महावीर से पूर्व परिचित होना चाहिए। वह व्यक्ति गोशालक के अतिरिक्त और कोई नहीं है, जो तीर्थंकर महावीर के पवित्र जीवन पर कटाक्ष कर सके / आक्षेप इसलिए किये गये थे, कि आर्द्र कमुनि भ. महावीर की सेवा में जाने से रुक कर पाजीवक संघ में आ जाएँ, इसीलिये जब पार्द्र कमुनि भ. महावीर की सेवा में जा रहे थे, तभी उनका रास्ता रोक कर गोशालक ने आर्द्र कमुनि के समक्ष भगवान् महावीर पर दोषारोपण किये।। 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 388 का सारांश (ग) जनसाहित्य का बहत् इतिहास भा-१ -165 (ख) सूत्रकृ. नियुक्ति गा-१९० Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 792 ] [ 167 आक्षेप के पहल-(१) पहले भ. महावीर जनसम्पर्करहित एकान्तचारी थे, अब वे जनसमूह में रहते हैं. अनेक भिक्षनों को अपने साथ रखते हैं। (2) पहले वे प्रायः मौन रहते थे, अब वे देव मानव और तिर्यञ्चों की परिषद् में धर्मोपदेश देते हैं / (3) पहले वे तपस्वी जीवन बिताते थे, अब बे उसे नीरस समझ कर छोड़ बैठे हैं, (4) महावीर ने पूर्वापर सर्वथा विरुद्ध प्राचार अपनी आजीविका चलाने के लिए ही अपनाया है, (5) इस पूर्वापरविरोधी प्राचार-व्यवहार को अपनाने से महावीर अस्थिरचित्त मालूम होते हैं, वे किसी एक सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रह सकते। अनुकूल समाधान—(१) श्रमण भगवान् महावीर अपनी त्रैकालिक चर्या में सदैव एकान्त का अनुभव करते हैं, अर्थात्-वे एकान्त में हों या जनसमूह में, सर्वत्र एकमात्र अपनी प्रात्मा (आत्मगुणों) में विचरण करते हैं। (2) विशाल जनसमूह में उपदेश देने पर भी श्रोताजनों के प्रति वे राग या द्वष नहीं करते हैं, सबके प्रति उनका समभाव है / पहले वे चतुर्विध घनघाती कर्मों का क्षय करने के लिए वाचिक संयम या मौन रखते थे, एकान्त सेवन करते थे, किन्तु अब घातिकर्मक्षयोपरान्त शेष चार अघातिक कर्मों के क्षय के लिए विशाल समवसरण में धर्मोपदेश की वाचिक प्रवृत्ति करते हैं / वस्तुतः पूर्वावस्था और वर्तमान अवस्था में कोई अन्तर नहीं है। (3) न वे सत्कार-सम्मान-पूजा के लिए धर्मोपदेश करते हैं न जीविकानिर्वाह के लिए और न राग-द्वेष से प्रेरित होकर ! अतः उन्हें अस्थिरचित्त बताना अज्ञान है / (4) सर्वज्ञता-प्राप्त होने से पूर्व वस्तुस्वरूप को पूर्णतया यथार्थ रूप से जाने बिना धर्मोपदेश देना उचित नहीं होता, इसलिए भ. महावीर मौन एकान्तवास करते थे। अब केवलज्ञान प्राप्त होने पर उसके प्रभाव से समस्त त्रस-स्थावर प्राणियों को तथा उनके अध:पतन एवं कल्याण के कारणों को उन्होंने जान लिया है। अतः क्षेमंकर प्रभु पूर्ण समभावपूर्वक सब के क्षेम-कल्याण का धर्मोपदेश देते हैं / कृतकृत्य प्रभु को किसी स्वार्थसाधन से प्रयोजन ही क्या ? (5) धर्मोपदेश देते समय हजारों प्राणियों के बीच में रहते हुए भी वे भाव से अकेले (रागद्वषरहित) शुद्ध स्वभाव में, अविकल बने रहते हैं / भगवान् स्वार्थ, रागद्वेष एवं ममत्व से सर्वथा रहित हैं। (6) भाषा के दोषों का ज्ञान भगवान में है, इसलिए भाषा संबंधी दोषों से सर्वथा रहित उनकी धर्मदेशना दोषरूप नहीं, गुणवर्धक ही है। वे प्राणियों को पवित्र एवं एकान्त हितकर मार्ग प्रदर्शित करते हैं। (7) फिर वे वीतराग परम तपस्वी घातिकर्मों से दूर हैं, इसलिए साधु, श्रावक तथा सामान्य जनों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप उपदेश देते हैं / अतः उन पर पापकर्म करने का दोषारोपण करना। गोशालक द्वारा सुविधावादी धर्म की चर्चा : आईक द्वारा प्रतिवाद७६३-सीप्रोदगं सेवउ बीयकायं, पाहाय कम्मं तह इत्थियारो। एगंतचारिस्सिह प्रम्ह धम्मे, तवस्सिणो णोऽहिसमेति पावं // 7 // 1. सूत्रकृ. शी. वृ. पत्रांक 389-390 का सारांश Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ७६३-(गोशालक ने अपने प्राजीवक धर्मसम्प्रदाय का आचार समझाने के लिए आर्द्रक डा-) कोई शीतल (कच्चा) जल, बीजकाय, प्राधाकर्म (यक्त आहारादि) तथा स्त्रियों का सेवन भले ही करता हो, परन्तु जो एकान्त (अकेला निर्जनप्रदेश में) विचरण करनेवाला तपस्वी साधक है, उसे हमारे धर्म में पाप नहीं लगता। ७६४–सीतोदगं या तह बीयकायं, आहाय कम्मं तह इथियाओ। एयाई जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति // 8 // ७६४-(प्राईक मुनि ने इस धर्माचार का प्रतिवाद किया-) सचित्त जल, बीजकाय, आधाकर्म (युक्त आहारादि ) तथा स्त्रियाँ, इनका सेवन करनेवाला गृहस्थ (घरबारी) होता है, श्रमण (अनगार) नहीं हो सकता। 765 - सिया य बीओदग इत्थियारो, पडिसेवमाणा समणा भवंति / अगारिणो वि समणा भवंतु, सेवंति जं ते वि तहप्पगारं // 9 // ७६५~-यदि बीजकाय, सचित्त जल एवं स्त्रियों का सेवन करने वाले पुरुष भी श्रमण हों तो गृहस्थ भी श्रमण क्यों नहीं माने जाएँगे? वे भी पूर्वोक्त विषयों का सेवन करते हैं / (तथा वे भी परदेश आदि में अकेले रहते या घूमते हैं, और कुछ तप भी करते हैं / ) 766- जे यावि बीप्रोदगभोति भिक्खू भिक्खं विहं जायति जीवियट्ठी। ते णातिसंजोगवि पहाय, काग्रोवगाणंतकरा भवंति // 10 // ७६६—(अतः) जो भिक्षु (अनगार) हो कर भी सचित्त, बीजकाय, (सचित्त) जल एवं प्राधाकर्मदोष युक्त आहारादि का उपभोग करते हैं, वे केवल जीविका (जीवन-निर्वाह) के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं। वे अपने ज्ञातिजनों (परिवार आदि) का संयोग छोड़कर भी अपनी काया के ही पोषक हैं, वे अपने कर्मों का या जन्म-मरण रूप संसार का अन्त करने वाले नहीं हैं। विवेचन-गोशालक द्वारा अपने सुविधावादी धर्म की चर्चाः पाक मुनि द्वारा प्रतिवादप्रस्तुत सूत्रगाथाओं में गोशालक ने प्रथम अपने सुविधावादी भिक्षुधर्म की चर्चा की है, और पाक मनि ने इसका यूक्तिपूर्वक खण्डन किया है। उन्होंने सचित्त जलादि सेवन करने वाले भिक्षु गृहस्थतुल्य, जीविका के लिए भिक्षावृत्ति अपनाने वाले, शरीरपोषक एवं (जीवोपमर्दक प्रारम्भ में प्रवृत्त होने से) जन्म-मरणरूप संसार का अन्त करने में असमर्थ बताया है।' ७६७-इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं, पावाइणो गरहसि सव्य एव / पावाइणो उ पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिट्टि करेंति पाउं // 11 // 767- (गोशालक ने पुनः आर्द्रक से कहा-) हे पाक ! इस वचन (भिक्षुधर्माचार का खण्डनात्मक प्रतिवाद) को कह कर तुम समस्त प्रावादुकों (विभिन्न धर्म के व्याख्याताओं) की निन्दा को 1. सत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 391 का सारांश Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 798-800] [169 करते हो। प्रावादुकगण (धर्मव्याख्याकार) अपने-अपने धर्म-सिद्धान्तों की पृथक-पृथक् व्याख्या (या प्रशंसा करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि या मान्यता प्रकट करते हैं / ७६८-ते अण्णमण्णस्स वि गरहमाणा, अक्खंति उ समणा माहणा य / सतो य प्रत्थी असतो य णत्थी, गरहामो दिढि ण गरहामो किंचि // 12 // ७६६-ण किचि रूवेणऽभिधारयामो, सं दिदिमागं तु करेमो पाउं। मग्गे इमे किट्टिते प्रारिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहि अंजू // 13 // ७६८-७६६----(आर्द्र क मुनि गोशालक से कहते हैं---) वे (अन्यधर्मतीथिक) श्रमण और ब्राह्मण परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं / अपने धर्म में कथित अनुष्ठान से ही पुण्य धर्म या मोक्ष होना कहते हैं, दूसरे धर्म में कथित क्रिया के अनुष्ठान से नहीं।' हम उनकी (इस एकान्त व एकांगी) दृष्टि की निन्दा करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष की निन्दा नहीं करते। हम किसी के रूप, वेष आदि की निन्दा नहीं करते, अपितु हम अपनी दृष्टि (अनेकान्तात्मक दर्शन) से पुनीत मार्ग (यथार्थ वस्तु स्वरूप) को अभिव्यक्त करते हैं / यह मार्ग अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) है, और आर्य सत्पुरुषों ने इसे ही निर्दोष कहा है। ८००-उड्ड़ अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। भूयाभिसंकाए दुगुछमाणा, णो गरहति वुसिमं किंचि लोए // 14 // ८००--ऊर्ध्व दिशा अधोदिशा एवं तिर्यक् (तिरछी-पूर्वादि) दिशाओं में जो जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं. उन प्राणियों की हिंसा (की आशंका) से घणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी को निन्दा नहीं करते / (अत: वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करना निन्दा नहीं है।) विवेचन-दार्शनिकों के विवाद के सम्बन्ध में गोशालक की दृष्टि का समाधान प्रस्तुत 4 सूत्र गाथाओं में पाक पर-निन्दा करने का आक्षेप और आर्द्र क द्वारा किया गया स्पष्ट समाधान अंकित है। गोशालक द्वारा पर-निन्दा का प्राक्षेप-"विभिन्न दार्शनिक अपनी-अपनी दृष्टि से सचित्त जलादि-सेवन करते हुए धर्म, पुण्य या मोक्ष बताते हैं, परन्तु तुमने उनकी निन्दा करके अपना अहंकार प्रदर्शित किया है।" प्रार्द्र क द्वारा समाधान -(1) समभावी साधु के लिए व्यक्तिगत रूप, वेष आदि की निन्दा करना अनुचित है। हम किसी के वेषादि की निन्दा नहीं करते। सत्य मार्ग का कथन करना हो हमारा उद्देश्य है। (2) अन्य धर्मतीथिक ही एकान्त दृष्टि से स्वमतप्रशंसा और परमतनिन्दा करते हैं। हम तो अनेकान्तदष्टि से वस्तुस्वरूप का यथार्थ कथन कर रहे हैं। मध्यस्थभाव से सत्य की अभिव्यक्ति करना निन्दा नहीं है।' जैसे नेत्रवान् पुरुष अपनी आँखों से बिल, काँटे, कीड़े और सांप 1. सूत्रकृतांग शीलांकवत्ति 392 का सारांश / Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध आदि को देख कर उन सबको बचा कर ठीक रास्ते से चलता है, दूसरों को भी बताता है। इसी तरह विवेकी पुरुष कुज्ञान, कुश्रुति, कुमार्ग और कुदृष्टि के दोषों का सम्यक विचार करके चलता-चलाता है, ऐसा करने में कौन-सी पर-निन्दा है ?"1 (3) वस्तुतः आर्यपुरुषों द्वारा प्रतिपादित सम्यग-दर्शनज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग ही कल्याण का कारण है, इससे विपरीत त्रस-स्थावर प्राणिहिंसाजनक, अब्रह्मचर्यसमर्थक कोई भी मार्ग हो, वह संसार का अन्तकारक एवं कल्याणकारक नहीं है / ऐसा वस्तु-स्वरूपकथन निन्दा नहीं है। भीर होने का आक्षेप और समाधान ८.१-प्रागंतागारे आरामागारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं। दक्खा हु संती बहवे मणूसा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य // 15 // ८०२-मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, सुत्तेहि अत्थेहि य निच्छयण्णू / पुच्छिसु मा णे अणगार एगे, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ // 16 // ८०१-८०२---(गोशालक ने पुनः आर्द्र कमुनि से कहा--) तुम्हारे श्रमण (महावीर) अत्यन्त भीरु (डरपोक) हैं, इसीलिए तो पथिकागारों (जहाँ बहुत-से आगन्तुक-पथिक ठहरते हैं, ऐसे गृहों) में तथा पारामगृहों (उद्यान में बने हुए घरों) में निवास नहीं करते, (कारण, वे सोचते हैं कि) उक्त स्थानों में बहुत-से (धर्म-चर्चा में) दक्ष मनुष्य ठहरते हैं, जिनमें कोई कम या कोई अधिक वाचाल (लप-लप करने वाले) होते हैं, कोई मौनी होते हैं। (इसके अतिरिक्त) कई मेधावी, कई शिक्षा प्राप्त, कई बुद्धिमान् प्रोत्पत्तिको आदि बुद्धियों से सम्पन्न तथा कई सूत्रों और अर्थों के पूर्ण रूप से निश्चयज्ञ होते हैं / अत: दूसरे अनगार मुझ से कोई प्रश्न न पूछ बैठे, इस प्रकार की आशंका करते हुए वे (श्रमण भ. महावीर) वहां नहीं जाते / 803- नाकामकिच्चा ण य बालकिच्चा, रायाभियोगेण कुतो भएणं / _ वियागरेज्जा पसिणं न वावि, सकामकिच्चेणिह आरियाणं // 17 // ८०३---(प्रार्द्र क मुनि ने उत्तर दिया-) भगवान् महावीर स्वामी (पेक्षापूर्वक किसी कार्य को करते हैं, इसलिए) अकामकारी (निरूद्देश्यकार्यकारी) नहीं हैं, और न ही वे बालकों की तरह (अज्ञानपूर्वक एवं अनालोचित) कार्यकारी हैं / वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते, फिर अन्य (लोगों के दबाव या) भय से करने की तो बात ही कहाँ ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते / वे इस जगत् में आर्य लोगों के लिए तथा अपने तीर्थकर नामकर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं। ८०४-गंता व तत्था अदुवा अगता, वियागरेज्जा समियाऽऽसुपण्णे। प्रणारिया दंसणतो परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ // 18 // 1. नेत्रनिरीक्ष्य बिल-कण्टक-कीट सान सम्यक्पथा व्रजति तान् परिहृत्य सर्वान् / कूज्ञान-कूश्र ति-कूमार्ग-कुदष्टि-दोषान, सम्यक विचारयत कोऽत्र परापवादः ? -सूत्रकृ. शो. वृत्ति में उद्घ त Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 804.806] [170 ८०४---सर्वज्ञ (प्राशुप्रज्ञ) भगवान महावीर स्वामी वहाँ (श्रोताओं के पास जाकर अथवा न जाकर समभाव से धर्मोपदेश करते हैं / परन्तु अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं, इस आशंका से भगवान् उनके पास नहीं जाते। विवेचन-भीर होने का प्राक्षेप और समाधान प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (801 से 804 तक) में से दो गाथाओं में गोशालक द्वारा भगवान् महावीर पर भीरु होने का आक्षेप है, और शेष दो गाथाओं में पाक मुनि द्वारा अकाट्य युक्तियों द्वारा किया गया समाधान अंकित है। गोशालक के आक्षेप : महावीर भय एवं राग-द्वेष से युक्त--(१) वे इस भय से सार्वजनिक स्थानों में नहीं ठहरते कि वहाँ कोई योग्य शास्त्रज्ञ विद्वान् कुछ पूछ बैठेगा, तो क्या उत्तर दूंगा? आर्द्र कमनि द्वारा समाधान--(१) भगवान् महावीर अकुतोभय हैं और सर्वज्ञ हैं, इसलिए किसी भी स्थान में ठहरने या न ठहरने में उन्हें कोई भय नहीं है। वे न राजा के भय से कोई कार्य करते हैं, न किसी अन्य प्राणी का उन्हें भय है। किन्तु वे निष्प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते, और न ही बालकों की तरह बिना विचारे कोई कार्य करते हैं। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं इसलिए उन्हें जिससे दूसरे का उपकार होता दिखता है, वही कार्य वे करते हैं। अपने उपकार से दूसरे का कोई हित होता नहीं देखते वहाँ वे उपदेश नहीं करते / प्रश्नकर्ता का उपकार देख कर भगवान उनके प्रश्न का उत्तर देते हैं, अन्यथा नहीं देते / वे स्वतन्त्र हैं, पूर्वोपाजित तीर्थकर नामकर्म का क्षय करने तथा आर्यपुरुषों के उपकार के लिए धर्मोपदेश करते हैं। चाहे चक्रवर्ती हो या दरिद्र, यदि वह भव्य हो, और उपकार होता ज्ञात हो तो वे किसी पक्षपात के बिना वहाँ जा कर भी समभाव से उपदेश देते हैं / अन्यथा, वहाँ रह कर भी उपदेश नहीं देते / इसलिए उनमें राग-द्वेष की गन्ध भी नहीं है।' गोशालक द्वारा प्रदत्त वरिणक की उपमा का पाक द्वारा प्रतिवाद ८०५-पण्णं जहा वणिए उदयट्टी, प्रायस्स हेउं पगरेंति संगं / तउवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होति मती वियवका // 19 // ८०५-(गोशालक ने फिर कहा-) जैसे लाभार्थी (उदयार्थी) वणिक् क्रय-विक्रय के योग्य (पण्य) वस्तु को लेकर प्राय (लाभ) के हेतु (महाजनों का) संग (सम्पर्क) करता है, यही उपमा श्रमण के लिए (घटित होती) है; ये ही वितर्क (विचार) मेरी बुद्धि में उठते हैं / ८०६-नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई तायति साह एवं / एत्तावया बंभवति त्ति वुत्ते, तस्सोदयठ्ठी समणे ति बेमि // 20 // ८०६-(प्राईक मुनि ने उत्तर दिया--) भगवान महावीर स्वामी नवीन कर्म (बन्ध) नहीं करते, अपितु वे पुराने (बंधे हुए) कर्मों का क्षषण (क्षय) करते हैं। (क्योंकि) षड्जीवनिकाय के त्राता, वे भगवान्) स्वयं यह कहते हैं कि प्राणी कुबुद्धि का त्याग करके ही मोक्ष को प्राप्त करता है। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 393 का सारांश Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्धं इसी दृष्टि से इसे ब्रह्म-पद या ब्रह्मवत (मोक्षव्रत) कहा गया है। उसी मोक्ष के लाभार्थी (उदयार्थी) श्रमण भगवान् महावीर हैं, ऐसा मैं कहता हूँ। ८०७-समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमीणा। ते गातिसंजोगमविप्पहाय, प्रायस्स हेउं पकरेंति संगं // 21 // ८०७-(और हे गोशालक ! ) वणिक (गृहस्थ व्यापारी) प्राणिसमूह (भूतग्राम) का प्रारम्भ करते हैं, तथा (द्रव्य-) परिग्रह पर ममत्व भी रखते हैं, एवं वे ज्ञातिजनों के साथ ममत्वयुक्त संयोग (सम्बन्ध) नहीं छोड़ते हुए, प्राय (लाभ) के हेतु दूसरों (संसर्ग न करने योग्य व्यक्तियों) से भी संग करते हैं। ८०८-वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्टा वणिया वयंति / वयं तु कामेसु अज्झोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धा // 22 // ८०८-वणिक धन के अन्वेषक और मैथुन (स्त्रीसम्बन्धी कामभोग) में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन (भोगों) की प्राप्ति के लिए इधर-उधर जाते रहते हैं / अतः हम तो ऐसे वणिकों (व्यापारियों) को काम-भोगों में अत्यधिक प्रासक्त, प्रेम (राग) के रस (स्वाद) में गृद्ध (ग्रस्त) और अनार्य कहते हैं / (भगवान् महावीर इस प्रकार के स्वहानिकर्ता वणिक् नहीं हैं / ) ८०६-प्रारंभयं चेव परिग्गहं च, अविउस्सिया पिस्सिय प्रायदंडा। तेसि च से उदए जं वयासो, चउरंतणंताय दुहाय ह / / 23 / / ८०६-(इसी प्रकार) वणिक् प्रारम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग (त्याग) नहीं करते, (अपितु) उन्हीं में निरन्तर बधे हुए (प्राश्रित) रहते हैं और (असदाचारप्रवृत्ति करके) प्रात्मा को दण्ड देते रहते हैं। उनका वह उदय (-लाभ), जिससे आप उदय (लाभ) बता रहे हैं, वस्तुत: उदय नहीं है बल्कि वह चातुर्गतिक अनन्त संसार (लाभ) या दुःख (रूप लाभ) के लिए होता है / वह (वास्तव में) उदय (लाभ) है ही नहीं, होता भी नहीं। ८१०–णेगंत णच्चंतिय उदये से, वयंति ते दो विगुणोदयंमि / से उदए सातिमणंतपत्ते तमुद्दयं साहति ताइ णाती॥२४॥ ८१०-पूर्वोक्त सावद्य अनुष्ठान करने से वणिक का जो उदय होता है) वह न तो एकान्तिक (सर्वथा या सार्वत्रिक) है और न आत्यन्तिक (सार्वकालिक)। विद्वान् लोग कहते हैं कि जो उदय इन दोनों गुणों (एकान्तिक एवं प्रात्यन्तिक सुखरूप गुणों से रहित है, उसमें कोई गुण (लाभ या विशेषता) नहीं है। किन्तु उनको (भगवान् महावीर को) जो उदय= लाभ (धर्मोपदेश से प्राप्त निर्जरारूप प्राप्त है, वह आदि और अनन्त है। (ऐसे उदय को प्राप्त अासन्न भव्यों के) त्राता (अथवा तायी = मोक्षगामी) एवं ज्ञातवंशीय या समस्त वस्तुजात के ज्ञाता भगवान् महावीर इसी (पूर्वोक्त) उदय केवलज्ञानरूप या धर्मदेशना से प्राप्त निर्जरारूप लाभ) का दूसरों को उपदेश करते हैं, या इसकी प्रशंसा करते हैं। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 811] [173 811- अहिसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे ठितं कम्मविवेगहेउं / तमायदंडेहि समायरंता, श्रबोहिए ते पडिरूवमेयं // 25 // ८११–भगवान् प्राणियों की हिंसा से सर्वथा रहित हैं, तथा समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा (दया) करते हैं / वे धर्म (शुद्ध-मात्मधर्म) में सदैव स्थित रहते हैं / ऐसे कर्मविवेक (कर्म-निर्जरा) के कारणभूत वीतराग सर्वज्ञ महापुरुष को, आप जैसे प्रात्मा को दण्ड देने वाले व्यक्ति ही वणिक के सदृश कहते हैं / यह कार्य आपके (तुम्हारे) अज्ञान के अनुरूप ही है। विवेचन–गोशालक द्वारा प्रदत्त वणिक् को उपमा का पाक द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं (805 से 811 तक) में से प्रथम गाथा में गोशालक द्वारा भगवान् को दी गई उदयार्थी वणिक की उपमा अंकित है, शेष छह गाथाओं में आद्रकमुनि द्वारा युक्तिपूर्वक उसका प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया है। गोशालक का आक्षेप : श्रमण महावीर लाभार्थी वणिक तुल्य-जैसे लाभार्थी वणिक् अपना माल लेकर परदेश में जाता है, वहाँ लाभ के निमित्त महाजनों से सम्पर्क करता है, वैसे ही महावीर भी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा तथा आहारादि के लाभ के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं, वहाँ राजा आदि बड़े-बड़े लोगों से सम्पर्क करते हैं / अतः वे वणिक् तुल्य हैं / प्राईक मुनि द्वारा सयुक्तिक प्रतिवाद--(१) लाभार्थी वणिक् के साथ भ. महावीर की एकदेशीय (अांशिक) तुल्यता तो संगत है, क्योंकि भ. महावीर भी जहाँ आत्मिक उपकारादि लाभ देखते हैं, वहाँ उपदेश करते हैं, अन्यथा नहीं। (3) किन्तु लाभार्थी वणिक् के साथ भ. महावीर की सम्पूर्ण तुल्यता निम्नोक्त कारणों से सर्वथा असंगत और अज्ञानमूलक है-(अ) भ. महावीर सर्वज्ञ हैं, वणिक् अल्पज्ञ, सर्वज्ञ होने से भगवान् सर्वसावद्यकार्यों से रहित हैं, इसी कारण वे नये कर्म बन्धन नहीं करते, पर्वबद्ध (भवोपनाही) कर्मों की निर्जरा या क्षय करते हैं, तथा कर्मोपार्जन की कूबुद्धि का सर्वथा त्याग करके वे मोक्ष की ओर अग्रसर होते जाते हैं, इस सिद्धान्त का वे प्रतिपादन भी करते हैं। इस दष्टि से भगवान् मोक्षोदयार्थी-मुक्तिलाभार्थी मोक्षवती अवश्य हैं, जबकि अल्पज्ञ वणिक न तो सावद्यकार्यो से रहित होते हैं, न ही नया कर्मबन्धन रोकते हैं, न पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय के लिए प्रयास करते हैं, इस दृष्टि से वणिकों का मुख मोक्ष की ओर नहीं है, न वे इस प्रकार से मोक्षलाभ कर सकते हैं। (आ) वणिक व्यापार, गृहकार्य आदि में प्रारम्भ करके अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं, परिग्रह पर ममत्व रखते हैं, धन एवं स्वार्थ के लिए स्वजनों-परिजनों के साथ आसक्तिमय संसर्ग रखते हैं, भ मटावीर निरारम्भी एवं निष्परिग्रही हैं, वे किसी के साथ किसी प्रकार का आसक्तिसंयोग नहीं रखते, वे अप्रतिबद्धविहारी हैं। सिर्फ धर्मवद्धि के लिए उपदेश देते हैं। अतः वणिक के साथ भगवान् का सादृश्य बताना सर्वथा विरुद्ध है। (इ) वणिक् एकमात्र धन के अभिलाषी, कामासक्त रहते हैं एवं भोजन या भोगों की प्राप्ति के लिए भटकते हैं / इसलिए कामभोग, रागद्वेष, पापकर्म, एवं कंचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी मोक्षलाभार्थी भगवान महावीर ऐसे रागलिप्त, काममढ़ एवं अनार्य वणिकों के सदृश कैसे हो सकते हैं ? (ई) वरिपक सावद्य प्रारम्भ और परिग्रह को सर्वथा छोड़ नहीं सकते, इस कारण आत्मा को कर्मबन्धन से दण्डित करते रहते हैं। इससे अनन्तकाल तक चतर्गतिपरिभ्रमण का लाभ होता है, जो वास्तव में अात्महानिकारक होने से लाभ ही नहीं है, जबकि Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भ. महावीर इन सबसे सर्वथा दूर होने से स्वपर-आत्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। (उ) वणिक को होने वाला धनादि लाभ ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक सुखरूप नहीं होता, इसलिए वह वास्तविक लाभ है ही नहीं, जबकि भ. महावीर को होने वाला दिव्यज्ञान रूप या कर्म निर्जरारूप लाभ एकान्तिक एवं प्रात्यन्तिक है। केवलज्ञान रूप लाभ सादि-अनन्त है, स्थायी, अनुपम एवं यथार्थ लाभ है। (ऊ) अतः सर्वथा अहिंसक, सर्व जीवों के प्रति अनुकम्पाशील, धर्मनिष्ठ एवं कर्मक्षयप्रवृत्त भगवान् की तुलना हिंसापरायण, निरनुकम्पी, धर्म से दूर एवं कर्मबन्धनप्रवृत्त वणिक् से करना युक्तिविरुद्ध एवं अज्ञानता का परिचायक है।' बौद्धों के अपसिद्धान्त का पाक द्वारा खण्डन एवं स्वसिद्धान्त-मण्डन ८१२-पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले, केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति / ___ अलाउयं वावि कुमारए ति, स लिप्पती पाणवहेण अम्हं // 26 // ८१२-(शाक्यभिक्षु आद्रक मुनि से कहने लगे-) कोई व्यक्ति खलो के पिण्ड को यह पुरुष है' यों मानकर शूल से बांध कर (आग में) पकाए अथवा तुम्बे को कुमार (बालक) मान कर पकाए' तो हमारे मत में वह प्राणिवध (हिंसा) के पाप से लिप्त होता है। ८१३-ग्रहवा वि विद्ध ण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्धोए णरं पएज्जा। कुमारगं वा वि अलाउए ति, न लिप्पती पाणवहेण अम्हं // 27 // 813. अथवा वह म्लेच्छ पुरुष मनुष्य को खली समझ कर उसे शूल में बींध कर पकाए, अथवा कुमार को तुम्बा समझ कर पकाए तो वह हमारे मत में प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता। ८१४--पुरिसं व विद्ध ण कुमारकं वा, सूलंमि केई पए जाततेए। पिण्णापिंडी सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कम्पति पारणाए // 28 // 814. कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मान कर उसे शूल में बींध कर आग में डाल कर पकाए तो (हमारे मत में) वह (मांसपिण्ड) पवित्र है, वह बुद्धों के पारणे के योग्य है। ८१५-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए भिक्खुगाणं / . ते पुण्णखधं सुमहऽज्जिणित्ता, भवंति प्रारोप्प महंतसत्ता // 26 // 815. जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि (पुण्यस्कन्ध) का उपार्जन करके महापराक्रमी (महासत्त्व) प्रारोप्य नामक देव होता है। ८१६---प्रजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं / ___अबोहिए दोण्ह वि तं असाहु, वयंति जे यावि पडिस्सुणंति // 30 // 1. सूत्रकृताग शीलांक वृत्ति पत्रांक 394-395 का सारांश Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्रकीय : छठा अध्ययन : सत्र 816-821] [175 816. (आर्द्र क मुनि ने बौद्ध भिक्षुओं को प्रत्युत्तर दिया-) आपके इस शाक्यमत में पूर्वोक्त सिद्धान्त संयमियों के लिए अयोग्यरूप है। प्राणियों का (जानबूझ कर) घात करने पर भी पाप नहीं होता, जो ऐसा कहते हैं और जो सुनते या मान लेते हैं; दोनों के लिए अबोधिलाभ का कारण है, और बुरा है। ८१७--उड्डे अहे य तिरियं दिसासु, विण्णाय लिंगं तस-थावराणं / भूयाभिसंकाए दुगुछमाणे, वदे करेज्जा ब कुप्रो विहऽत्थी // 31 // 817. 'ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में त्रस और स्थावर जीवों के अस्तित्व का लिंग (हेतु या चिह्न) जान कर जीवहिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचार कर बोले या कार्य करे तो उसे पाप-दोष कैसे हो सकता है ?' ८१८--पुरिसे त्ति विण्णत्ति ण एवमस्थि, प्रणारिए से पुरिसे तहा हु। को संभवो ? पिन्नपिडियाए, वाया वि एसा वुइया असच्चा // 32 // 818. खली के पिण्ड में पुरुष-बुद्धि तो मूर्ख को भी नहीं होती। अतः जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि रखता है, वह अनार्य है। खली के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि कैसे सम्भव है ? अतः आपके द्वारा कही हुई यह (ऐसो) वाणी भी असत्य है। . ८१६-वायाभियोगेण जया वहेज्जा, णो तारिसं यायमुदाहरेज्जा। अट्ठाणमेयं वयणं गुणाणं, जे दिक्खिते बूयमुरालमेतं // 33 // 816. जिस वचन के प्रयोग से जीव पापकर्म का उपार्जन करे, ऐसा वचन (भाषादोषगुणज्ञ विवेकी पुरुष को) कदापि नहीं बोलना चाहिए। (प्रवजितों के लिए) यह (आपका पूर्वोक्त) वचन गुणों का स्थान नहीं है। अतः दीक्षित व्यक्ति ऐसा निःसार वचन नहीं बोलता। ८२०-लद्ध प्रहढे अहो एव तुब्भे, जीवाणुभागे सुविचितिए य / पुव्वं समुद्दे प्रवरं च पुढे, प्रोलोइए पाणितले ठिते वा // 34 // 820. अहो बौद्धो ! तुमने ही (संसारभर के) पदार्थों को उपलब्ध कर (जान) लिया है ! ; तुमने ही जीवों के कर्मफल का अच्छी तरह चिन्तन किया है ! , तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैल गया है! , तुमने ही करतल (हथेली) पर रखे हुए पदार्थ के समान इस जगत् को देख लिया है। ८२१–जीवाणुभाग सुविचितयंता, पाहारिया अण्णविहीए सोही। न वियागरे छन्नपरोपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं // 35 // 821. (जैनशासन के अनुयायी साधक) (कर्मफल-स्वरूप होने वाली) जीवों की पीड़ा का सम्यक चिन्तन करके प्राहार ग्रहण करने की विधि से (बयालीस दोषरहित) शुद्ध (भिक्षाप्राप्त) आहार स्वीकार करते हैं; वे कपट से जीविका करने वाले बन कर मायामय वचन नहीं बोलते / जैनशासन में संयमीपुरुषों का यही धर्म है / Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ८२२-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नितिए भिक्खुयाणं / असंजए लोहियपाणि से ऊ, णिगच्छती गरहमिहेव लोए // 36 // 822. जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुत्रों को (पूर्वोक्त मांसपिण्ड का) भोजन कराता है, वह असंयमी रक्त से रंगे हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दापात्र होता है। ८२३-थूलं उरन्भं इह मारियाणं, उद्दिट्ठभत्तं च पकप्पइत्ता। तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पकरेंति मंसं // 37 // ८२४--तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, न उवलिप्पामो वयं रएणं / इच्चेवमासु प्रणज्जधम्मा, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा // 38 // 823-824. आपके मत में बुद्धातुयायी जन एक बड़े स्थल भेड़े को मार कर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के उद्देश्य से कल्पित कर (बना कर) उस (भेड़े के मांस) को नमक और तेल के साथ पकाते हैं, फिर पिप्पली आदि द्रव्यों (मसालों) से बधार कर तैयार करते हैं / (यह मांस बौद्धभिक्षुत्रों के भोजन के योग्य समझा जाता है, यही उनके पाहार ग्रहण की रीति है / ) अनार्यों के-से स्वभाव वाले अनार्य (कर्मकारक), एवं रसों में गद्ध (लुब्ध) वे अज्ञानी बौद्धभिक्षु कहते हैं कि (इस प्रकार से बना हुमा) बहुत-सा मांस खाते हुए भी हम लोग पापकर्म (रज) से लिप्त नहीं होते। ८२५–जे यावि भुजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा। मणं न एवं कुसला करेंति, वाया वि एसा बुइता तु मिच्छा // 36 // 825. जो लोग इस प्रकार के मांस का सेवन करते हैं, वे (पुण्य-पाप के) तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं / जो पुरुष कुशल (तत्त्वज्ञान में निपुण) हैं, वे ऐसे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते (मन में भी नहीं लाते)। मांस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है। ८२६–सम्वेसि जीवाणा दयट्ठयाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिभत्तं परिवज्जयंति // 40 // 826. समस्त जीवों पर दया करने के लिए, सावद्यदोष से दूर रहने वाले तथा (आहारादि में) सावध (पापकर्म) की आशंका (छानबीन) करने वाले, ज्ञातपुत्रीय (भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य) ऋषिगण उद्दिष्ट भक्त (साधु के निमित्त प्रारम्भ करके तैयार किये हुए भोजन) का त्याग करते हैं। ८२७-भूताभिसंकाए दुगुछमाणा, सम्वेसि पाणाणमिहायदंडं / तम्हा ण भुजति तहप्पकारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं // 41 // 827. प्राणियों के उपमर्दन को आशंका से, सावद्य अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निम्रन्थ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्र कीय: छठा अध्ययन : सूत्र 828] [177 श्रमण समस्त प्राणियों को दण्ड देने (हनन करने) का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त)आहारादि का उपभोग नहीं करते / इस जनशासन में संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म (अनुधर्म) है / ८२८-निग्गंथधम्मम्मि इमा समाही, अस्सि सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा। बुद्ध मुणी सीलगुणोववेते इच्चत्थतं पाउणती सिलोगं // 42 // 828. इस निर्ग्रन्थधर्म में इस समाधि (प्राचार-समाधि या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप समाधि) में सम्यक प्रकार से स्थित हो कर मायारहित हो कर इस निर्ग्रन्थ धर्म में जो विचरण करता है, वह प्रबुद्ध मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने–जानने वाला) शील और गुणों से युक्त होकर अत्यन्त पूजा-प्रशंसा (श्लोक को) प्राप्त करता है।। विवेचन-बौद्धों के अपसिद्धान्त का प्राक द्वारा खण्डन एवं स्वसिद्धान्त मण्डन–प्रस्तुत 17 सूत्रगाथाओं में पहली चार गाथाओं में आर्द्रक मुनि के समक्ष बौद्ध भिक्षुत्रों ने जो अपना हिसायुक्त प्राचार प्रस्तुत किया है, वह अंकित है / शेष 13 गाथाओं में से कुछ गाथाओं में प्रार्द्र क मुनि द्वारा बौद्धमत का निराकरण एवं फिर कुछ गाथाओं में जैनेन्द्रसिद्धान्त का समर्थन अंकित है। बौद्ध भिक्षत्रों द्वारा प्रस्तुत चार अपसिद्धान्त-(१) कोई व्यक्ति खली के पिण्ड को पुरुष एवं तुम्बे को कुमार समझ कर उसे शूल से बींध कर पकाए तो प्राणिवध के पाप से लिप्त होता है, (2) कोई व्यक्ति पुरुष को खली का पिण्ड एवं कुमार को तुम्बा समझकर पकाए तो प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता, (3) कोई पुरुष मनुष्य या बालक को खली का पिण्ड समझकर प्राग में पकाए तो वह भोजन पवित्र है और बौद्ध भिक्षुओं के लिए भक्ष्य है / और (4) इस प्रकार का (मांस) भोजन तैयार करके जो प्रतिदिन दो हजार भिक्षुत्रों को खिलाता है, वह महान् पुण्यस्कन्ध उपार्जित करके प्रारोप्य देव होता है।' प्राकमुनि द्वारा इन अपसिद्धान्तों का खण्डन-(१) प्राणिघातजन्य आहार संयमो साधुओं के लिए अयोग्य है (2) प्राणिधात से पाप नहीं होता, ऐसा कहने-सुनने वाले दोनों अबोधि बढ़ाते हैं / (3) खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि या पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि सम्भव नहीं है। अतएव उक्त ऐसा कथन आत्मवंचनापूर्ण और असत्य है / (4) पापोत्पादक भाषा कदापि न बोलनी चाहिए, क्योंकि वह कर्मबन्धजनक होतो है / (5) दो हजार भिक्षुओं को जो पूर्वोक्तरीति से प्रतिदिन मांसभोजन कराता है, उसके हाथ रक्तलिप्त होते हैं, वह लोकनिन्द्य है ; क्योंकि मांसभोजन तैयार होता है-पुष्ट भेड़े को मार कर नमक-तेल आदि के साथ पका कर मसालों के बधार देने से ; वह हिसाजनक है (6) जो बौद्धभिक्षु यह कहते हैं कि पूर्वोक्त रीति से गृहस्थ द्वारा तैयार किया हुआ भोजन करते हए हम पापलिप्त नहीं होते, वे पूण्य-पाप के तत्त्व से अनभिज्ञ, अनार्य प्रकृति अनार्य कर्मी, रसलोलुप एवं स्वपरवञ्चक है। अतः मांस हिंसाजनित, रौद्रध्यान का हेतु, अपवित्र, निन्द्य, अनार्यजन सेवित एवं नरकगति का कारण है। मांसभोजा, पात्मद्रोही और आत्म-कल्याणद्वेषी है। वह मोक्षमार्ग का पाराधक नहीं है / 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 396 का सारांश 2. वही, पत्रांक 397 से 399 का सारांश Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त का समर्थन--(१) निर्ग्रन्थ भिक्षु समस्त प्राणियों पर दयालु होने से प्रारम्भजनित या हिंसाजनित अाहारादि के त्यागी होते हैं / वे सात्त्विक आहार भी उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के 42 दोषों से रहित शुद्ध कल्पनीय ग्रहण करते हैं, इसलिए मांसभोजन तो क्या, उद्दिष्ट भोजन का भी त्याग करते हैं। वे कपटभाषा का (बौद्धों की तरह) प्रयोग करके अभक्ष्य आहारादि नहीं लेते / (2) इस निर्ग्रन्थ धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थों के यथार्थज्ञाता समस्त द्वन्द्वों से रहित मूलगुण एवं उत्तरगुणों से सम्पन्न साधक दोनों लोकों में प्रशंसनीय बन जाते हैं। 'अणुधम्मो'- इसके दो अर्थ हैं- (1) पहले तीर्थंकर ने इस निर्ग्रन्थ धर्म का प्रचारण किया, तत्पश्चात् उनके शिष्यगण इसका प्राचारण करने लगे, इसलिए इस धर्म को अनुधर्म कहते हैं / (2) अथवा यह अणुधर्म है, सूक्ष्मधर्म है, शिरीष पुष्प सम कोमल है, जरा-सा भी अतिचार (दोष) लगने पर नष्ट होने लगता है। __'निम्गंथधम्मो'-निर्ग्रन्थ का अर्थ यहाँ प्रसंगवश किया गया है--"जो सब प्रकार के ग्रन्थों - कपटों से रहित हो, उनका धर्म निर्ग्रन्थ धर्म है।"१ पशुवध-समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन का फल ८२६–सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहणाणं / ते पुण्णखंधं सुमहऽज्जिणित्ता, भवंति देवा इति वेयवानो // 43 // ८२६—(बौद्ध भिक्षुओं को परास्त करके आर्द्रकमुनि आगे बढ़े तो ब्राह्मणगण उनके पास प्रा कर कहने लगे—(हे पाक !) जो पुरुष प्रति-दिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता है, वह महान् पुण्यपुञ्ज उपाजित करके देव होता है, यह वेद का कथन है / ८३०--सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए कुलालयाणं / से गच्छति लोलुवसंपगाढे, तिव्वाभिताबी परगाभिसेवी // 44 // ८३०-(ब्राह्मणों के मन्तव्य का प्रतिकार करते हुए आर्द्रक ने कहा-) क्षत्रिय आदि कुलो में भोजन के लिए घूमने वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो (दाता) प्रतिदिन भोजन कराता है, वह व्यक्ति मांसलोलुप प्राणियों (पक्षियों) से व्याप्त (प्रगाढ़) नरक में जा कर निवास करता है, जहाँ वह तीव्रतम ताप भोगता रहता है। ८३१-दयावरं धम्म दुगुछमाणे, वहावहं धम्म पसंसमाणे। एग पि जे भोययती असोलं, णिवो णिसं जाति कतो सुरेहि ? // 45 // 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 399 (ख) निर्गतः ग्रन्थेभ्य: कपटेभ्यइति निर्ग्रन्थः / -सूत्रकृतांग शी. वृत्ति पत्रांक 399 में उद्धृत / 2. कुलालयाणं 'कुलानि गृहाण्यामिषान्वेषिणार्थिनो नित्य येऽटन्ति ते कुलाटा:-मार्जाराः, कुलाटा इव कुलाटा ब्राह्मणाः / यदि वा कुलानि क्षत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वे पिणां परतकुकाणामालयो येषां निन्द्यजीविकोपगतानां ते कुलालयाः / -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 400 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 831, 32] [179 ८३१--दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप (शासक) एक भी कुशील ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों (देवलोकों) में जाने की तो बात ही क्या है ? विवेचन-पशवध समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन : शंका-समाधान-प्रस्तुत तीन सूत्र गाथाओं में प्रार्द्र क कुमार के समक्ष ब्राह्मणों के द्वारा प्रस्तुत मन्तव्य एवं पार्द्रक-कुमार द्वारा किया गया उसका प्रतिवाद अंकित है। ब्राह्मण-मन्तव्य–'प्रतिदिन दो हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला पुण्यशाली व्यक्ति देव बनता है।' पाक द्वारा प्रतिवाद-(१) बिल्ली जैसी वत्ति वाले तथा मांसादि भोजन के लिए क्षत्रियादि कुलों में घूमने वाले दो हजार शील-विहीन ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराने वाला यजमान मांसलुब्धप्राणियों से परिपूर्ण अप्रतिष्ठान नरक में जाता है। जहाँ परमाधार्मिक नरकपालों द्वारा तीव्र यातना दी जाती है / (2) एक भी कुशील व्यक्ति को भोजन कराने वाला हिंसाप्रधान धर्म का प्रशंसक राजा तामस नरक में जाता है, देवलोक में जाने की बात कहाँ।' ब्राह्मणों को भोज और नरकगमन का रहस्य-उस युग में ब्राह्मण यज्ञ-यागादि में पशुवध करने की प्रेरणा देते थे, और स्वयं भी प्रायः मांसभोजी थे। मांसभोजन आदि की प्राप्ति के लिए वे क्षत्रिय आदि कुलों में घूमा करते थे। प्राचार से भी शिथिल हो गए थे। इसलिए ऐसे दाम्भिक ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले, मांसमय भोजन करने-कराने वाले व्यक्ति को नरकगामी बताया है / मनुस्मृति आदि वैदिक धर्मग्रन्थों में भी वैडालवृत्तिक हिंसाप्रेरक ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले तथा करने वाले दोनों को नरकगामी बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी ऐसे कुमार्गप्ररूपक पशुवधाादिप्रेरक ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल नरकगति बताया है। सांख्यमतवादो एकदण्डिकों के साथ तात्त्विक चर्चा ८३२-दुहतो वि धम्मम्मि समुट्टिया मो, अस्सिं सुठिच्चा तह एसकालं / __ अायारसीले वुइए[s]ह नाणे, ण संपरायंसि विसेसमत्थि // 46 // 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 400 का सारांश 2. (क) 'धर्मध्वजी सदालुब्धः छामिको लोकदम्भकः / वैडालवृत्तिक: ज्ञेयो हिस्र: सर्वाभिसंधिकः / ..."ये बकवतिनो विप्राः ये च मारिलिगिनः / ते पतन्त्यन्धतामिस्र, तेन पापेन कर्मणा // न वायपि प्रयच्छेत्त वडालतिके द्विजे / न बकवतिके विप्रनावेदविदि धर्मवित् / / ...." - मनुस्मृति अ. 4, श्लोक 95,97,98 (ख) ते हि भोजिता कुमार्गप्ररूपण --पशुवधादावेव कर्मोपचय-निबन्धनेऽशुभव्यापारे प्रवर्तन्ते, इत्यसत्प्रवर्तन तस्तभोजनस्य नरकगतिहेत त्वमेव ।'–उत्तराध्ययन अ.१४, गा. 12 टीका Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180) [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ८३३-अव्वत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमवयं च / सब्वेसु भूतेसु वि सव्वतो सो, चंदो व्व ताहि समत्तरूवो // 47 // ८३२-८३३–(इसके पश्चात् सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आद्रकमुनि से कहने लगे-) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित-उद्यत हैं। (हम दोनों) भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों कालों में धर्म में भलीभांति स्थित हैं / (हम दोनों के मत में) प्राचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है / आपके और हमारे दर्शन में 'संसार' (सम्पराय) के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। (देखिये, आपके और हमारे मत की तुल्यता-) यह पुरुष (जीवात्मा) अव्यक्तरूप (मन और इद्रियों से अगोचर) है, तथा यह सर्वलोकव्यापी सनातन (नित्य) अक्षय एवं अव्यय है / यह जीवात्मा समस्त भूतों (प्राणियों) में सम्पूर्ण रूप से उसी तरह रहता है, जिस तरह चन्द्रमा समस्त तारागण के साथ सम्पूर्ण रूप से (सम्बन्धित) रहता है। ८३४--एवं न मिजंति न संसरंति, न माहणा खत्तिय वेस पेस्सा। कोडा य पक्खी य सिरीसिवा य, नरा य सव्वे तह देवलोगा // 48 // ८३४-(आर्द्र क मुनि कहते हैं-) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर (सुखी, दुःखी आदि भेदों की) संगति नहीं हो सकती और जीव का (अपने कर्मानुसार नाना गतियों में) संसरण (गमनागमन) भी सिद्ध नहीं हो सकता। और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रष्य (शुद्र) रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं। तथा कीट, पक्षी, सरीसृप (सर्प-आदि) इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती। इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक के देव आदि सब गतियाँ भी सिद्ध नहीं होंगी। 835 लोयं प्रजाणित्तिह केवलेणं, कहेंति जे धम्ममजाणमाणा। नासेंति अप्पाण परं च णट्टा, संसार घोरम्मि अणोरपारे // 46 // ८३५-इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जान कर (वस्तु के सत्यस्वरूप से) अनभिज्ञ जो व्यक्ति धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं नष्ट जीव अपने आप का और दूसरे का भी अपार तथा भयंकर (घोर) संसार में नाश कर देते हैं। 836 लोयं विजाणंतिह केवलेणं, पुण्णेण गाणेण समाहिजुत्ता। धम्म समत्तं च कहेंति जे उ, तारेति अप्पाण परं च तिण्णा // 50 // ८३६--परन्तु जो व्यक्ति समाधियुक्त हैं, वे (प्रज्ञ अथवा) पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा इस लोक को विविध प्रकार से यथावस्थित रूप से जान पाते हैं, वे ही समस्त (समग्र शुद्ध, सम्यक्) धर्म का प्रतिपादन करते हैं / वे स्वयं संसारसागर से पार हुए पुरुष दूसरों को भी (सदुपदेश देकर) संसार सागर से पार करते हैं / ८३७–जे गरहितं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया। उदाहडं तं तु समं मतीए, अहाउसो विप्परियासमेव // 51 // Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आई कोय : छठा अध्ययन : सूत्र 838] [181 ८३७-~-इस लोक में जो व्यक्ति निन्दनीय स्थान का सेवन (निन्द्य आचारण) करते हैं, और जो साधक उत्तम आचरणों से युक्त हैं, उन दोनों के अनुष्ठानों (आचरणों) को असर्वज्ञ व्यक्ति अपनी बुद्धि (अपने मन या मत) से एक समान बतलाते हैं। अथवा हे आयुष्मन् ! वे (शुभ आचरण करने वालों को अशुभ आचरण करने वाले और अशुभ आचरण करने वालों को शुभ आचरण करने वाले बताकर) विपरीतप्ररूपणा करते हैं। विवेचन-- सांस्यमतवादी एकदण्डिकों के साथ तात्त्विक चर्चा-प्रस्तुत 6 सूत्रगाथाओं में प्रारम्भ की दो गाथाओं में एकदण्डिकों द्वारा आद्रक मुनि को अपने मत में खींचने के उद्देश्य से सांख्य और जैनदर्शन की दोनों दर्शनों में प्रदर्शित की गई समानता की बातें अंकित की गई हैं, श्री आर्द्रक द्वारा तात्त्विक अन्तर के मुद्दे प्रस्तुत करके जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों की की गई प्रस्थापना का शेष गाथाओं में उल एकदण्डिकों द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष के मुद्दे-(१) यम-नियम रूप धर्म को दोनों ही मानते है, (2) हम और आप धर्म में स्थित हैं, (3) आचारशील (यमनियमादि का आचरणकर्ता ) ही उत्कृष्ट ज्ञानी है (4) संसार का आविर्भाव तिरोभावात्मक स्वरूप जैनदर्शन के उत्पाद-व्यय धोव्य युक्त स्वरूप (अथवा द्रव्य) रूप नित्यपर्याय रूप से अनित्य रूप के समान ही है / (5) आत्मा अव्यक्त सर्वलोकव्यापी, नित्य अक्षय अव्यय, सर्वभूतों में सम्पूर्णत: व्याप्त है। प्राक द्वारा प्रदशित दोनों दर्शनों का तात्त्विक अन्तर-(१) धर्म को मानते हुए भी यदि उस धर्म का निरूपण अपूर्ण ज्ञानी करते हैं, तो वे स्वपर को संसार के गर्त में डालकर विनष्ट करते हैं। (2) सांख्यदर्शन में केवल 25 तत्वों के ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति की मान्यता के कारण धर्माचरण रहित केवल तत्त्वज्ञान बघारने वाले तथा धर्माचरणयुक्त तत्त्वज्ञ, दोनों को समान माना जाता है, यह उचित नहीं। (3) सांख्य एकान्तवादी हैं, जैन अनेकान्तवादी। (4) आत्मा को सांख्य सर्वव्यापी मानते हैं, जैन मानते हैं-शरीरमात्रव्यापी / (5) प्रात्मा सांख्यमतानुसार कटस्थ नित्य है, जैन मतानुसार कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य है। कूटस्थ नित्य या सर्वव्यापी प्रात्मा आकाशवत् कभी गति नहीं कर सकता, जबकि वह देव, नरक आदि गतियों में गमनागमन करता है, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई बालक, कोई युवक आदि अवस्थाभेद योनिभेद या जातिभेद वर्णभेद आदि कटस्थ नित्य आत्मा में नहीं बन सकते / (6) सांख्यमान्य, संसार के नित्य स्वरूप को भी जैन दर्शन नहीं मानता, वह जगत् को उत्पाद-व्ययसहित ध्रौव्यस्वरूप मानता है। (7) जैन दर्शन केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं मानता, जबकि सांख्य 25 तत्त्वों के ज्ञानमात्र से ही मोक्ष मान लेता है और वे तत्त्व भी वास्तव में तत्त्व नहीं हैं।' हस्तितापसों का विचित्र अहिंसामतः पाक द्वारा प्रतिवाद ८३८-संवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु / __ सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो // 52 // ८३८-(अन्त में हस्तितापस आई कमुनि से कहते हैं--) हम लोग (अपनी तापसपरम्परा 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 401 से 403 तक का सारांश Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध नुसार) शेष जीवों की दया के लिए वर्ष में एक बड़े हाथी को बाण से मार कर वर्ष भर उसके मांस से अपना जीवन-यापन करते हैं। ८३६-संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा। सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणो वि तम्हा // 53 // ८३६--(आर्द्र कमुनि सयुक्तिक प्रतिवाद करते हुए कहते हैं-.) जो पुरुष वर्षभर में भी एक (पंचेन्द्रिय) प्राणी को मारते हैं, वे भी दोषों से निवृत्त (रहित) नहीं हैं। क्योंकि ऐसा मानने पर शेष जीवों (क्षेत्र और काल से दूर प्राणियों) के वध में प्रवृत्त (संलग्न) न होने के कारण थोड़े-से (स्वल्प) जीवों को हनन करने वाले गृहस्थ भी दोषरहित क्यों नहीं माने जाएँगे? ८४०–संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणते समणवतेसु / प्रायाहिते से पुरिसे अणज्जे, न तारिसा केवलिणो भवंति // 54 // ८४०–जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्षभर में एक-एक प्राणी (और वह भी पंचेन्द्रिय त्रस) को मारता है, उस पुरुष को अनार्य कहा गया है। ऐसे पुरुष केवलज्ञानी (केवलज्ञान सम्पन्न) नहीं हो पाते। विवेचन- हस्तितापसों का अहिंसामत : प्राकमुनि द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रथम गाथा में हस्तितापसों की जीवों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर हिंसा के अल्पत्व-बहुत्व की मान्यता अंकित की है, शेष दो गाथाओं में प्रार्द्रक मुनि द्वारा इस विचित्र मान्यता का निराकरण करके वास्तविक अहिंसा की आराधना का किया गया संकेत अंकित किया है। हस्तितापसों की मान्यता-अधिक जीवों के वध से अधिक और अल्पसंख्यक जीवों के वध से अल्पहिसा होती है। वे कहते हैं—कन्दमूल फल आदि खाने वाले, या अनाज खाने वाले साधक बहुत-से स्थावर जीवों तथा उनके आश्रित अनेक जंगम जीवों की हिंसा करते हैं / भिक्षाजीवी साधक भी भिक्षा के लिए घूमते समय चींटी आदि अनेक प्राणियों का उपमर्दन करते हैं, तथा भिक्षा की प्राप्ति-अप्राप्ति में उनका चित्त रागद्वेष से मलिन भी होता है, अतः हम इन सब प्रपंचों से दूर रह कर वर्ष में एक वार सिर्फ एक बड़े हाथी को मार लेते हैं, उसके मांस से वर्ष भर निर्वाह करते हैं / अतः हमारा धर्म श्रेष्ठ है। अहिंसा की भ्रान्ति का निराकरण-पाकमुनि अहिंसा संबंधी उस भ्रान्ति का निराकरण दो तरह से करते हैं—(१) हिंसा-अहिंसा की न्यूनाधिकता के मापदण्ड का अाधार मृत जीवों की संख्या नहीं है। अपितु उसका आधार प्राणी की चेतना, इन्द्रियाँ, मन, शरीर आदि का विकास एवं मारने वाले की तीव्र-मन्द मध्यम भावना तथा अहिंसाव्रती की किसी भी जीव को न भावना एवं तदनुसार क्रिया है / अतः जो हाथी जैसे विशालकाय, विकसित चेतनाशील पंचेन्द्रिय प्राणी को मारता है, वह कथमपि घोर हिंसा दोष से रहित नहीं माना जा सकता / (2) वर्षभर में एक महाकाय प्राणी का घात करके निर्वाह करने से सिर्फ एक प्राणी का घात नहीं, अपितु उस प्राणी के आश्रित रहने वाले तथा उसके मांस, रक्त, चर्बी आदि में रहने या उत्पन्न होने वाले अनेक स्थावरत्रस जीवों का घात होता है। इसीलिए पंचेन्द्रिय जीव का वध करने वाले घोर हिंसक, अनार्य एवं Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्र कोय : छठा अध्ययन : सूत्र 841] [183 नरकगामी हैं। वे स्वपर अहितकारी सम्यग् ज्ञान से कोसों दूर हैं / अगर अल्प संख्या में जीवों का वध करने वाले को अहिंसा का आराधक कहा जाएगा, तब तो मर्यादित हिंसा करने वाला गृहस्थ भी हिंसादोष रहित माना जाने लगेगा (3) अहिंसा की पूर्ण आराधना ईर्यासमिति से युक्त भिक्षाचरी के 42 दोषों से रहित भिक्षा द्वारा यथालाभ सन्तोषपूर्वक निर्वाह करने वाले सम्पूर्ण अहिंसा महाव्रती भिक्षुत्रों द्वारा ही हो सकती है।' दुस्तर संसार समुद्र को पार करने का उपाय : रत्नत्रयरूप धर्म८४१-बुद्धस्स आणाए इमं समाहि, अंस्सि सुठिच्चा तिविहेण तातो। तरिउं समुदं व महाभवोघं आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जासि // 55 // त्ति बेमि॥ // अद्दइज्जं : छ प्रज्झयणं सम्मत्तं / / ८४१-तत्त्वदर्शी केवलज्ञानी भगवान की प्राज्ञा से इस समाधियुक्त (शान्तिमय) धर्म को अंगीकार करके तथा इस धर्म में सम्यक प्रकार से सुस्थित होकर तीनों करणों से समस्त मिथ्यादर्शनों से विरक्ति रखता हुआ साधक अपनी और दूसरों की आत्मा का त्राता बनता है। अतः महादुस्तर समुद्र की तरह संसारसमुद्र को पार करने के लिए आदान-(सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-) रूप धर्म का निरूपण एवं ग्रहण करना चाहिए। / / पाद्रकीय : छठा अध्ययन समाप्त / / 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 403-404 का सारांश Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन प्राथमिक 1 सूत्रकृतांग सूत्र (द्वि. श्रु.) के सप्तम अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' या 'नालन्दकीय' है / 0 इस अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' होने के दो कारण नियुक्तिकार एवं वृत्तिकार बताते हैं (1) नालन्दा में इस अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन होने के कारण, और (1) नालन्दा के निकट वर्ती उद्यान में यह घटना या चर्चा निष्पन्न होने के कारण / O नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान में भ. महावीर के पट्टशिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम के साथ पापित्यीय निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र की जो धर्मचर्चा हुई है, उसका वर्णन इस अध्ययन में होने से इसका नाम 'नालन्दीय' रखा गया है। 0 नालन्दा उस युग में जैन और बौद्ध दोनों परम्परात्रों में प्रसिद्ध (राजगह की) उपनगरी थी।' 'नालन्दा' का अर्थ भी गौरवपूर्ण है--जहाँ श्रमण, ब्राह्मण, परिव्राजक आदि किसी भी भिक्षाचर के लिए दान का निषेध नहीं है / राजा, श्रेणिक तथा बड़े-बड़े सामन्त, श्रेष्ठी आदि नरेन्द्रों का निवास होने के कारण इसका नाम 'नारेन्द्र' भी प्रसिद्ध हुआ, जो मागधी उच्चारण के अनुसार 'नालेंद' और बाद में ह्रस्व के कारण नालिंद तथा 'इ' का 'अ' होने से नालंद हुआ। भगवान् महावीर के यहाँ 14 वर्षावास होने के कारण इस उपनगरी के अतिप्रसिद्ध होने के कारण भी इस अध्ययन का नाम 'नालन्दकीय' रखा जाना स्वाभाविक है।' - प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम धर्मच स्थल बताने के लिए राजगह, नालन्दा, श्रमणोपासक लेप गाथापति, उसके द्वारा निर्मित शेषद्रव्या उदकशाला तथा उसके निकटवर्ती हस्तियाम वनखण्ड, तदन्तवर्ती मनोरथ उद्यान का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् श्री गौतमस्वामी और उदक निर्ग्रन्थ की धर्मचर्चा का प्रश्नोत्तर के रूप में वर्णन है। धर्मचर्चा मुख्यतया श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में है, जिसके मुख्य दो मुद्दे उदकनिर्ग्रन्थ की ओर से प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं -(1) श्रमणोपासक द्वारा ग्रहण किया जाने वाला प्रसवध प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है, उसका पालन सम्भव नहीं है। क्योंकि त्रस जीव मरकर स्थावर हो जाते हैं, और स्थावर जीव मरकर त्रस / ऐसी स्थिति में त्रसस्थावर का निश्चय करना कठिन होता है / इसलिए क्या त्रस के बदले 'त्रसभूत' शब्द का प्रयोग नहीं होगा? 'त्रसभूत' का अर्थ हैवर्तमान में जो जीव वस-पर्याय में है / उसकी हिंसा का प्रत्याख्यान तथा (2) सभी त्रस यदि कदाचित् स्थावर हो जाएँगे तो श्रमणोपासक का त्रसवधप्रत्याख्यान निरर्थक एवं निविषय हो जाएगा।" श्री गौतम द्वारा अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा दोनों प्रश्नों का विस्तार से समाधान किया गया है। अन्त में उदक निर्ग्रन्थ भ. महावीर के चरणों में स्व-समर्पण करके पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर लेते हैं / यह सब रोचक वर्णन है / 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्र संख्या 842 से प्रारम्भ होकर सू. सं. 873 पर समाप्त होता है। 1. (क) सूत्र कृ. शी. वृत्ति पत्रांक 407 (ख) सूत्र कृ. नियुक्ति गा. 204,205 2. सूत्र कृ. मूलपाठ टिप्पण (जम्बूविजय जी) पृ. 234 से 258 तक Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णालंदइज्जं : सत्तमं अज्झयणं नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन नालन्दानिवासी लेप श्रमणोपासक और उसकी विशेषताएँ ८४२--तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था, रिद्धिस्थिमितसमिद्धे जाव' पडिरूवे / तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं नालंदा नाम बाहिरिया होत्था अणेगभवणसयसन्निविट्ठा जावपडिरूवा / ८४२-~-धर्मोपदेष्टा तीर्थकर महावीर के उस काल में तथा उस समय में (उस काल के विभाग विशेष में) राजगृह नाम का नगर था / वह ऋद्ध (धनसम्पत्ति से परिपूर्ण), स्तिमित (स्थिरशासन युक्त अथवा स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित) तथा समृद्ध (धान्य, गृह, उद्यान तथा अन्य सुखसामग्री से पूर्ण) था, यावत् बहुत ही सुन्दर था। (इसका समस्त वर्णन औपपातिक सूत्र के नगरीवर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए।) उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में नालन्दा नाम की बाहिरिका-उपनगरी (अथवा पाडा या लघु ग्रामटिका) थी / वह अनेक-सैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् (वह प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूव एवं) प्रतिरूप (अतिसुन्दर) थी। ८४३–तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेए नाम गाहावती होत्था, अड्ढे दित्ते वित्ते विस्थिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधण-बहुजातरूवरजते आप्रोगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डितपउरभत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूते बहुजणस्स प्रपरिभूते यावि होत्था / से णं लेए गाहावती समणोवासए यावि होत्या अभिगतजीवा-ऽजीवे जाव' विहरति / ८४३-उस नालन्दा नामक बाहिरिका (बाह्यप्रदेश) में लेप नामक एक गाथापति (गृहपतिगृहस्थ) रहता था, वह बड़ा ही धनाढ्य, दीप्त (तेजस्वी) और प्रसिद्ध था। वह विस्तीर्ण (विशाल) 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पडिरूवे' तक 'राजगृहनगर' का शेष वर्णन औपपातिक सूत्र में वर्णित चम्पानगरी के वर्णन की तरह समझ लेना चाहिए। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पडिरूबा' तक का वर्णन यों समझना चाहिए 'पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा' 3. लेप श्रमणोपासक का वर्णन प्रस्तुत प्रति में 'अभिगतजीवाजीवे से आगे 'जाव विहरति' करके छोड़ दिया है, किन्तु वत्तिकार शीलांकाचार्य के समक्ष इसी शास्त्र के क्रियास्थान अध्ययन के 715 वें सत्र में वणित . सारा पाठ था, इसलिए प्रस्तुत मूलाथ में तदनुसार भावानुवाद किया गया है। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विपुल (अनेक) भवनों, शयन, आसन, यान (रथ, पालकी आदि) एवं वाहनों (घोड़े आदि सवारियों) से परिपूर्ण था। उसके पास प्रचुर धन सम्पत्ति व बहुत-सा सोना एवं चांदी थी। वह धनार्जन के उपायों (आयोगों) का ज्ञाता और अनेक प्रयोगों में कुशल था। उसके यहाँ से बहुत-सा आहार-पानी लोगों को वितरित किया (बांटा) जाता था। वह बहुत-से दासियों, दासों, गायों, भैंसों और भेड़-बकरियों का स्वामी था / तथा अनेक लोगों से भी पराभव नहीं पाता था (दबता नहीं था)। __ वह लेप नामक गाथापति श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ श्रमणों का उपासक) भी था। वह जीवअजीव का ज्ञाता था। (पुण्य-पाप का तत्त्व उसे भलीभांति उपलब्ध हो गया था / वह अाश्रव-संवर, वेदना, निर्जरा, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के तत्त्वज्ञान में कुशल था। (वह उपासकदशांग सूत्र में वणित श्रमणोपासक की विशेषताओं से युक्त था)। वह देवगणों से सहायता नहीं लेता था, न ही देवगण उसे धर्म से विचलित करने में समर्थ थे / वह लेप श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंकारहित) था, अन्य दर्शनों की आकांक्षा या धर्माचरण की फलाकांक्षा से दूर था, उसे धर्माचरण के फल में कोई सन्देह न था, अथवा गुणी पुरुषों की निन्दा-जुगुप्सा से दूर रहता था। वह लब्धार्थ (निर्ग्रन्थप्रवचनरूप या सूत्रचारित्ररूप धर्म के वस्तुतत्व को उपलब्ध कर चुका) था, वह गृहीतार्थ (मोक्ष-मार्ग रूप अर्थ स्वीकृत कर चुका) था, वह पृष्टार्थ (विद्वानों से पूछ कर तत्त्वज्ञान प्राप्त कर चुका) था, अतएव वह विनिश्चितार्थ (विशेष रूप से पूछ कर अर्थनिश्चय कर चुका) था। वह अभिगृहीतार्थ (चित्त में अर्थ की प्रतीति कर चुका) था। धर्म या निर्ग्रन्थप्रवचन के अनुराग में उसकी हड्डियाँ और नसें (रग) रगो हुई थी। (उससे धर्म के सम्बन्ध में कोई पूछता तो वह यही कहता था-) 'प्रायुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, यही परमार्थ है, इसके अतिरिक्त शेष सभी (दर्शन या धर्म लौकि प्रसर्वज्ञ कल्पित होने से) अनर्थरूप हैं। उसका स्फटिकसम निर्मल यश चारों ओर फैला हुआ था। उसके घर का मुख्यद्वार याचकों के लिए खुला रहता था। राजाओं के अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था इतना वह (शील और अर्थ के सम्बन्ध में) विश्वस्त था / वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्था और पणिमा के दिन प्रतिपूर्ण (ग्राहार, शरीर सत्कार,अब्रह्मचर्य एवं व्यापार से निवृत्तिरूप) पोषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता हुआ श्रावकधर्म का आचरण करता था। वह श्रमणोंनिर्ग्रन्थों को तथाविध शास्त्रोक्त 42 दोषों से रहित निर्दोष एषणीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप चतुर्विध के दान से प्रतिलाभित करता हुआ, बहुत से (यथागृहीत) शील (शिक्षाव्रत), गुणव्रत, तथा हिसादि से विरमणरूप अणुव्रत, तपश्चरण, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास आदि से) अपनी आत्मा को भावित करता हुआ धर्माचरण में रत रहता था। ८४४---तस्स णं लेयस्स गाहावतिस्स नालंदाए बाहिरियाए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एस्थ णं सेसदविया नाम उदगसाला होत्था प्रणेगखंभसयसन्निविट्ठा पासादीया जाव' पडिरूवा। तोसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरस्थिमे दिसोभाए, एत्थ णं हत्थिजामे नाम वणसंडे होत्था किण्हे, वण्णओ वणसंडस्स। 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पासादीया' से 'पडिरूवा' तक का पाठ यों समझना चाहिए t..."दरिसणिज्जा, अभिरुवा।" 2. वनखण्ड के 'वर्णक' के लिए देखिये--प्रौपपातिक सूत्र 3 में_ 'से गं वणसंडे किण्हे किण्होभासे...... अभिरुवा पडिरूवा" तक पाठ / Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 845] [187 844 - उस लेप गाथापति की वहीं शेषद्रव्या नाम की एक उदक शाला थी, जो राजगृह की बाहिरिका नालन्दा के बाहर उत्तरपूर्व-दिशा में स्थित थी। वह उदकशाला (प्याऊ) अनेक प्रकार के सैकड़ों खंभों पर टिकी हुई, मनोरम एवं अतीव सुन्दर थी। उस शेषद्रव्या नामक उदकशाला के उत्तरपूर्व दिग्विभाग (ईशानकोण) में हस्तियाम नाम का एक वनखण्ड था। वह वनखण्ड (सर्वत्र हराभरा होने से) कृष्णवर्ण-सा था। (इसका शेष वर्णन औपपातिक-सूत्र में किये हुए वनखण्ड के वर्णन के समान जान लेना चाहिए।) विवेचन-नालन्दानिवासी लेप श्रमणोपासक : उसकी विशेषताएँ उसके द्वारा निर्मित उदक, शाला एवं वनखण्ड–प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में भगवान् महावीर के युग के राजगृह नगर और तदन्तर्गत ईशानकोण में स्थित एक विशिष्ट उपनगरी नालन्दा का सजीव वर्णन किया गया है, वास्तव में राजगृह और नालन्दा भगवान् महावीर एवं तथागत बुद्ध दोनों की तपोभूमि एवं साधनाभूमि रही हैं / राजगृह को श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर के चौदह वर्षावासों का सौभाग्य प्राप्त हुअा था। वहीं गणधर श्री गौतमस्वामी एवं उदकनिर्ग्रन्थ का संवाद हुआ है। इसके पश्चात् नालन्दानिवासी गृहस्थ श्रमणोपासक 'लेप' की सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पदा का शास्त्रकार ने वर्णन किया है। इस वर्णन पर से लेप श्रमणोपासक की निर्ग्रन्थप्रवचन पर दृढ श्रद्धा, धर्मदृढ़ता, आचारशीलता तथा सबके प्रति उदारता एवं गुणग्राहकता का परिचय मिलता है। लेप श्रमणोपासक के द्वारा बनाई हुई उदकशाला का नाम 'शेषद्रव्या' रखने के पीछे भी उसकी अल्पारम्भी-अल्पपरिग्रही एवं असंग्रहीवृत्ति परिलक्षित होती है; क्योंकि लेप गृहपति ने आवासभवन के निर्माण के बाद बची हुई सामग्री (धनराशि आदि) से उस उदकशाला का निर्माण कराया था, उदकशाला के निकट ही एक वनखण्ड उसने ले लिया था, जिसका नाम 'हस्तियाम' था। महावीरशिष्य गणधर गौतम और पाश्वपित्य उदकनिर्ग्रन्थ का संवादस्थल यही वनखण्ड रहा है। इसलिए शास्त्रकार को इन दोनों स्थलों का वर्णन करना आवश्यक था।' उदकनिर्ग्रन्थ की जिज्ञासा : गणधरगौतम को समाधानतत्परता ८४५--तस्सि च णं गिहपदेसंसि भगवं गोतमे विहरति, भगवं च णं हे आरामंसि / अहे णं उदए पेढालपुत्ते पासाच्चिज्जे नियंठे मेतज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता भगवं गोतमं एवं वदासी-पाउसंतो गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च मे पाउसो! अहादरिसियमेव वियागरेहि / सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी -अवियाई पाउसो ! सोच्चा निसम्म जाणिस्सामो। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 407-408 का सारांश 2. सवायं—'शोभनबाक् सवाया सा विद्यते यस्यः सद्वाचः / चूणि मू. पा. 237 पृ. 'सह वादेन सवादः पृष्टः, सदाचं वा शोभनमारतीकं वा प्रश्न पृष्टः / " --सूत्र कृ. शी. वृत्ति पत्रांक 409 दोनों का भावार्थ 'मूलार्थ' में दिया जा चुका है। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158) [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ८४५–उसी वनखण्ड के गृहप्रदेश में (जहाँ घर बने हुए थे वहाँ) भगवान् गौतम गणधर (भगवान महावीर के पट्टशिष्य इन्द्रभूति गौतम) ने (ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए) निवास (विहार) किया। (एक दिन) भगवान् गौतम उस वनखण्ड के अधोभाग में स्थित पाराम (मनोरथ नामक उद्यान) में (अपने शिष्यसमुदाय सहित) विराजमान थे। इसी अवसर में मेदार्यगोत्रीय एवं भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी का शिष्य-संतान निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र जहाँ भगवान् गौतम विराजमान थे, वहाँ उनके समीप आए। उन्होंने भगवान् गौतमस्वामी के पास आकर सविनय यों कहा-"प्रायुष्मन् गौतम ! मुझे आप से कोई प्रदेश (शंकास्पदस्थल या प्रश्न) पूछना है, (उसके सम्बन्ध में) आपने जैसा सुना है, या निश्चित किया है, वैसा मुझे विशेषवाद (युक्ति) सहित कहें।" इस प्रकार विनम्र भाषा में पूछे जाने पर भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से यों कहा-'हे आयुष्मन् ! आपका प्रश्न (पहले) सुन कर और उसके गुण-दोष का सम्यक् विचार करके यदि मैं जान जाऊंगा तो उत्तर दूंगा। विवेचन-उदकनिर्ग्रन्थ की जिज्ञासा-गणधर गौतम की समाधान-तत्परता—गणधर गौतम के आवास स्थान पर उदक निग्रन्थ ने आकर कुछ प्रष्टव्यस्थल के सम्बन्ध में बताने के लिए उनसे निवेदन किया, तथा श्री गौतम स्वामी ने उसी सद्भाव से समाधान करने की तैयारी बताई, इसी का वर्णन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है।' उदकनिर्ग्रन्थ की प्रत्याख्यानविषयक शंका : गौतमस्वामी द्वारा स्पष्ट समाधान 846--(1) सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-ग्राउसंतो गोतमा ! अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुब्भागं पवयणं पवयमाणा गाहावति समणोवासगं एवं पच्चक्खाति-नम्नत्थ अभिजोएणं गाहावतीचरगहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि णिहाय दंड। एवण्हं पच्चवखंताणं दुपच्चक्खायं भवति, एवण्हं पच्चक्खावेमाणाणं दुपच्चक्खावियं भवइ एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं पइण्णं, कस्स णं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसावि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायातो विप्पमच्चमाणा तसकासि उचवज्जंति, तसकायातो विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति, तेसि च णं थावरकार्यसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं / (2) एवण्हं पच्चक्खंताणं सुपच्चरखातं भवति, एवण्हं पच्चक्खावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवति, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा णातियरंति सयं पतिण्णं, गण्णस्थ अभिप्रोगेणं गाहावतीचोरगहणविमोक्खणताए तसभूतेहिं पाणेहि णिहाय दंडं / एवमेव सति भासापरक्कमे विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोभा वा परं पच्चक्खाति, अयं पि णो देसे कि णो णेप्राउए भवति, प्रवियाइं पाउसो गोयमा ! तुम्भं पि एवं एतं रोयति ? 846-[1] वादसहित प्रथा सद्वचनपूर्वक उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-"आयुष्मन् गौतम ! कुमारपुत्र नाम के श्रमण निम्रन्थ हैं, जो आपके प्रवचन का (के अनुसार) उपदेश-प्ररूपण करते हैं। जब कोई गृहस्थ श्रमणोपासक उनके समीप प्रत्याख्यान (नियम) 1. सूत्रकृतांग शीलांकत्ति पत्रांक 409 का सारांश Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 847 ] [ 186 ग्रहण करने के लिए पहुँचता है तो वे उसे इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं-'राजा आदि के अभियोग (दबाव, या विवशीकरण) के सिवाय गाथापति-चोरविमोक्षण-न्याय से त्रस जीवों को दण्ड देने (घात करने) का त्याग है।' परन्तु जो लोग इस प्रकार से प्रत्याख्यान (नियम-ग्रहण) करते हैं, उनका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान (मिथ्याप्रत्याख्यान) हो जाता है तथा इस रीति से जो प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी दुष्प्रत्याख्यान करते हैं; क्योंकि इस प्रकार से दूसरे (गृहस्थ) को प्रत्याख्यान कराने वाले साधक अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते (प्रतिज्ञा में अतिचार-दोष लगाते) हैं। प्रतिज्ञाभंग किस कारण से हो जाता है ? (वह भी सुन लें;) (कारण यह है कि ) सभी प्राणी संसरणशील (परिवर्तनशील-संसारी) हैं। (इस समय) जो स्थावर प्राणी हैं, वे भविष्य में त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तथा (इस समय) जो सप्राणी हैं, वे भी (कर्मोदयवश समय पाकर) स्थावररूप में उत्पन्न तात्पर्य यह है कि) अनेक जीव स्थावरकाय से छूट कर त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं और त्रसकाय से छट कर स्थावरकाय में उत्पन्न हो जाते हैं। (अतः) त्रसप्राणी जब स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं, तब त्रसकाय के जीवों को दण्ड न देने की प्रतिज्ञा किये उन पुरुषों द्वारा (स्थावरकाय में उत्पन्न होने से) वे जीव घात करने के योग्य (वध्य) हो जाते हैं। [2] किन्तु जो (गृहस्थ श्रमणोपासक) इस प्रकार (आगे कहे जाने वाली रीति के अनुसार) प्रत्याख्यान करते हैं, उनका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है; तथा इस प्रकार से जो (श्रमण निर्ग्रन्थ) दूसरे (गृहस्थ) को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी अपनी प्रतिज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते / वह प्रत्याख्यान इस प्रकार है-'राजा आदि के अभियोग को छोड़ कर (आगार रख कर) 'गाथापति चोरग्रहण विमोचन न्याय' से वर्तमान में वसभूत (त्रसपर्याय में परिणत) प्राणियों को दण्ड देने (घात करने) का त्याग है।' इसी तरह 'त्रस' पद के बाद 'भूत' पद लगा देने से [भाषा में ऐसा पराक्रम (बल) पा जाता है कि उस (प्रत्याख्यान कर्ता) व्यक्ति का प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। ऐसे भाषापराक्रम के विद्यमान होने पर भी जो लोग क्रोध या लोभ के वश होकर दूसरे को ('त्रस' के आगे 'भूत' पद न जोड़ कर) प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हैं; ऐसा मेरा विचार है / क्या हमारा यह उपदेश (मन्तव्य) न्याय-संगत नहीं है ? प्रायुष्मन् गौतम ! क्या आपको भी हमारा यह मन्तव्य रुचिकर लगता है ? ८४७---सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी-नो खलु पाउसो उदगा ! अम्हं एवं एवं रोयति, जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति जाव परूवेति नो खलु ते समणा वा निम्गंथा वा भासं भासंति, प्रणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अन्भाइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए, जेहि वि अन्नेहिं पाणेहि भूएहि जीवेहि सत्तेहि संजमयंति ताणि वि ते अब्भाइक्खंति, कस्स णं तं हेतु ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति, थावरकायानो विष्पमुच्चमाणा तसकार्यसि उववज्जंति, तेसि च णं तसकार्यसि उववन्नाणं ठाणमेयं प्रघत्तं / ८४७–(इस पर) भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ से सद्भावयुक्तवचन, या वाद (युक्ति या अनेकान्तवाद) सहित इस प्रकार कहा-"आयुष्मन् उदक ! हमें आपका इस प्रकार का ('त्रस' पद के आगे 'भूत' पद जोड़कर प्रत्याख्यान कराने का) यह मन्तव्य अच्छा नहीं लगता। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध जो श्रमण या माहन इस प्रकार (आपके मन्तव्यानुसार) कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण या निम्रन्थ यथार्थ भाषा (भाषासमितियुक्त वाणी) नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी (सन्ताप या पश्चात्ताप उत्पन्न करने वाली) भाषा बोलते हैं / वे लोग श्रमणों और श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं, तथा जो (श्रमण या श्रमणोपासक) प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के विषय में संयम (ग्रहण) करते-कराते हैं, उन पर भी वे दोषारोपण करते हैं। किस कारण से (वह मिथ्या दोषारोपण होता है ? (सुनिये,) समस्त प्राणी परिवर्तनशील (परस्पर जन्म संक्रमण-शील संसारी) होते हैं। त्रस प्राणी स्थावर के रूप में आते हैं, इसी प्रकार स्थावर जीव भी बस के रूप में आते हैं। (तात्पर्य यह है-) त्रस जीव सकाय को छोड़कर (कर्मोदयवश) स्थावर काय में उत्पन्न होते हैं, तथा स्थावर जीव भी स्थावर काय का त्याग करके (कर्मोदयवश) त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं / अतः जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रसजीवघात-प्रत्याख्यानी पुरुषों द्वारा हनन करने योग्य नहीं होते / विवेचन--उदक निम्रन्थ की प्रत्याख्यान विषयक शंका एवं गौतम स्वामी का समाधानप्रस्तुत सूत्रद्वय में से प्रथम सूत्र में उदक निम्रन्थ द्वारा अपनी प्रत्याख्यानविषयक शंका तीन भागों में प्रस्तुत की गई है (1) अभियोगों का प्रागार रख कर जो श्रावक सप्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करते हैं, वे कर्मवशात् उन त्रसजीवों के स्थावर जीव के रूप में उत्पन्न होने पर उनका वध करते हैं, ऐसी स्थिति में वे प्रतिज्ञाभंग करते हैं, उनका प्रत्याख्यान भी दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है / (2) उन गृहस्थ श्रमणोपासकों को उस प्रकार का प्रत्याख्यान कराना भी दुष्प्रत्याख्यान है, तथा वे साधक अपनी प्रतिज्ञा का भी अतिक्रमण करते हैं; जो उन श्रमणोपासकों को उस प्रकार से प्रत्याख्यान कराते हैं। (3) मेरा मन्तव्य है कि 'वस' पद के आगे 'भूत' पद को जोड़ कर त्याग कराने से प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, और इस पद्धति से प्रत्याख्यान कराने वाला भी दोष का भागी नहीं होता / क्या यह प्रत्याख्यानपद्धति न्यायोचित एवं आपको रुचिकर नहीं है ? द्वितीय सूत्र में श्री गौतमस्वामी ने उदकनिर्ग्रन्थ की उपर्युक्त शंका का समाधान भी तीन भागों में किया है। (1) आपकी प्रत्याख्यान पद्धति हमें पसन्द नहीं है। अरुचि के तीन कारण ध्वनित होते हैं--(१) 'भूत' शब्द का प्रयोग निरर्थक है, पुनरुक्तिदोषयुक्त है, (2) 'भूत' शब्द सदशार्थक होने से 'ससदश' अर्थ होगा, जो अभीष्ट नहीं, और (3) भूतशब्द उपमार्थक होने से उसी अर्थ का बोधक होगा, जो निरर्थक है : (2) इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले श्रमण यथार्थ भाषा नहीं बोलते, वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं, प्राणिहिंसा पर संयम करने-कराने वाले श्रमण-श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं। (3) श्रमणोपासक को उसी प्राणी को मारने का त्याग है, जो वर्तमान में 'त्रस' पर्याय में है, वह जीव भूतकाल में स्थावर रहा हो या वर्तमान में बस से स्थावर बन गया हो, उससे Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 847] [191 उसका कोई वास्ता नहीं, न उससे उसका व्रतभंग होता है, क्योंकि कर्मवश पर्याय परिवर्तन होता रहता है। अभियोग-यहाँ अभियोग शब्द बलात् प्राज्ञा द्वारा या दवाव द्वारा विवश करने के संयोग (योग) के अर्थ में रूढ़ है। श्रावक को व्रत, प्रत्याख्यान, नियम या सम्यक्त्व ग्रहण करते समय इन छह अभियोगों का आगार (छूट) रखा जाता है, जैनागमों में ये छह अभियोग बताए गए हैं-(१) राजाभियोग, (2) गणाभियोग, (3) बलाभियोग, (3) देवाभियोग, (5) महत्तराभियोग, (6) आजीविकाभियोग / इसी विवशपरिस्थिति के आगार को छह-छंडी आगार भी कहते हैं / - गृहपति-चोरविमोक्षण न्याय-एक राजा की प्राज्ञा थी, समस्त नागरिक शाम को ही नगर के बाहर आकर कौमुदीमहोत्सव में भाग लें। जो नगर में ही रह जाएगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा। एक वैश्य के छह पुत्र अपने कार्य की धुन में नगर के बाहर जाना भूल गए / सूर्यास्त होते ही नगर के सभी मुख्यद्वार बन्द कर दिये गए। प्रातःकाल वे छहों वैश्य पत्र राजपुरुषों द्वारा पकड़ लिये गए / राजा के द्वारा मृत्युदण्ड की घोषणा सुनकर वैश्य अत्यन्त चिन्तित हो उठा। राजा से उसने छहों पुत्रों को दण्डमुक्त करने का अनुरोध किया। जब राजा ऐसा करने को तैयार न हुआ तो उसने क्रमश: पाँच, चार, तीन, दो और अन्त में वंश सुरक्षार्थ एक पुत्र को छोड़ देने की प्रार्थना की। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करके एक पुत्र को छोड़ दिया। यह इस न्याय (दृष्टान्त) का स्वरूप है / दार्टान्तिक यों है-वृद्धवैश्य अपने छहों पुत्रों को राजदण्ड से मुक्त कराना चाहता था, किन्तु जब यह शक्य न हुआ तो अन्त में उसने एक पुत्र को ही छुड़ाकर संतोष माना, इसी तरह साधु सभी प्राणियों (षटकायिक जीवों) को दण्ड देने का प्रत्याख्यान (त्याग) कराना चाहता है, उसकी इच्छा नहीं है कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणी का हनन करे; किन्तु जब प्रत्याख्यानकर्ता व्यक्ति सभी प्राणियों का घात करना छोड़ना नहीं चाहता या छोड़ने में अपनी असमर्थता अनुभव करता है, तब साधु उससे जितना बन सके उतना ही त्याग कराता है। श्रावक अपनी परिस्थितिवश षट्काय के जीवों में से त्रसकायिक प्राणियों के घात का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है। इसलिए त्रसकायिक जीवों के दण्ड (घात) का (प्रत्याख्यान) करने वाला साधु स्थावर प्राणियों के घात का समर्थक नहीं होता। उदकनिर्ग्रन्थ की भाषा में दोष-श्री गौतमस्वामी ने त्रिविध भाषादोष की ओर उदकनिर्ग्रन्थ का ध्यान खींचा है—(१) ऐसी भाषा जिनपरम्परानुसारिणी तथा साधु के बोलने योग्य नहीं है, (2) 'त्रसभूत' पद का प्रयोग न करने वाले श्रमणों पर व्यर्थ ही प्रतिज्ञाभंग का दोषारोपण करते हैं, इससे आप उन श्रमणों एवं श्रमणोपासकों के हृदय में अनुताप पैदा करते हैं, (3) बल्कि उन पर कलंक लगा कर उन श्रमण व श्रमणोपासकों को उन-उन प्राणियों के प्रति संयम करने कराने से हतोत्साहित करते हैं, प्रत्याख्यान करने-कराने से रोकते हैं, प्राणिसंयम करने वालों को संशय में डालते हैं, उनमें बुद्धिभेद पैदा करते हैं। 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 410 से 412 तक का सारांश (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ. 238-239 2. सूत्रकृतांम शीलांक वृत्ति पत्रांक 411 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाठान्तर और व्याख्यान्तर---'कुमारपुत्तिया नाम समणा' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'कम्मारउत्तिया णाम समणोवासगा', व्याख्या यों है--जो कर्म (शिल्प) करता है, वह कर्मकार (शिल्पी) है, कर्मकार के पुत्र कर्मकारपुत्र और कर्मकारपुत्र की संतान कर्मकारपुत्रीय हैं, इस नाम के श्रमणोपासक / 'अणुतावियं' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर 'अणगामियं' है, जिसका अर्थ होता है--'संसारानुगामिनी' / 'णो देसे...' के बदले पाठान्तर–णो उवएसे' है, अर्थ होता है--देश का अर्थ उपदेश है या दृष्टि है / 'णेयाउनो' मोक्ष के प्रति ले जाने वाला या न्याययुक्त / ' उदकनिम्रन्थ द्वारा पुनः प्रस्तुत प्रश्न और गौतमस्वामी द्वारा प्रदत्त सटीक उत्तर ८४८-सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वदासी–कयरे खलु पाउसंतो गोतमा ! तुब्भे वयह तसपाणा तसा पाउमण्णहा ? सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी-प्राउसंतो उदगा ! जे तुम्भे क्यह तसभूता पाणा तसभूता पाणा ते वयं वयामो तसा पाणा तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा तसा पाणा, ते तुम्भे वयह तसभूता पाणा तस मूता पाणा, एते संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुष्पणीयतराए भवति तसभूता पाणा, तसमूता पाणा, इमे मे दुष्पणीयतराए भवति-तसा पाणा तसा पाणा? भी एगमाउसो! पडिकोसह, एक्कं अभिणंदह, अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / ८४८--(इसके पश्चात्) उदक पेढालपुत्र ने (वादसहित या) सद्भावयुक्त वचनपूर्वक भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-"अायुष्मन् गौतम ! वे प्राणी कौन-से हैं, जिन्हें आप त्रस कहते हैं ? आप त्रस प्राणी को ही त्रस कहते हैं, या किसी दूसरे को ?" इस पर भगवान् गौतम ने भी सद्वचनपूर्वक (या सवाद) उदक पेढालपुत्र से कहा-"आयुष्मन् उदक ! जिन प्राणियों को आप त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम सप्राणी कहते हैं और हम जिन्हें त्रसप्राणी कहते हैं, उन्हीं को श्राप त्रसभूत कहते हैं / ये दोनों ही शब्द एकार्थक हैं / फिर क्या कारण है कि आप अायुष्मान् सप्राणी को 'त्रसभूत' कहना युक्तियुक्त (शुद्ध या सुप्रणीततर) समझते हैं, और त्रसप्राणी को 'बस' कहना युक्तिसंगत (शुद्ध सुप्रणीततर) नहीं समझते; जबकि दोनों समानार्थक हैं। ऐसा करके आप एक पक्ष की निन्दा करते हैं और एक पक्ष का अभिनन्दन (प्रशंसा करते हैं / अतः आपका यह (पूर्वोक्त) भेद न्यायसंगत नहीं है / ___८४६-भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति-नो खलु वयं संचाएमो मुडा भवित्ता अगारातो अणगारियं पन्धइत्तए, वयं णं अणुपुव्वेणं गुत्तस्स 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 410 से 413 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ-२३८-२३९ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 850] [193 लिसिस्सामो, ते एवं संखं सावेंति, ते एवं संखं ठवयंति, ते एवं संखं सोवाढवयंति--नन्नत्थ अमिजोएणं गाहावतीचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि निहाय दंडं, तं पि तेसि कुसलमेव भवति / ___८४६–आगे भगवान् गौतमस्वामी ने उदक पेढालपुत्र से कहा-आयुष्मन् उदक ! जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो साधु के निकट आ कर उनसे पहले ही इस प्रकार कहते हैं-"भगवन् ! हम मुण्डित हो कर अर्थात्-समस्त प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृहत्याग करके प्रागार धर्म से अनगारधर्म में प्रवजित होने (दीक्षा लेने) में अभी समर्थ नहीं हैं, किन्तु हम क्रमशः साधुत्व (गोत्र) का अंगीकार करेंगे, अर्थात्-पहले हम स्थूल (त्रस) प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करेंगे, उसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात (सर्व सावद्य) का त्याग करेंगे। तदनुसार वे मन में ऐसा ही निश्चय करते हैं और ऐसा ही विचार प्रस्तत करते हैं। तदनन्तर वे राजा अादि के अभियोग का आगार (छूट) रख कर गृहपति-चोर-विमोक्षणन्याय से त्रसप्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं। [प्रत्याख्यान कराने वाले निर्ग्रन्थ श्रमण यह जान कर कि यह व्यक्ति समस्त सावद्यों को नहीं छोड़ता है, तो जितना छोड़े उतना ही अच्छा है, उसे त्रसप्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान कराते हैं। वह (त्रस-प्राणिवध का) त्याग भी उन (श्रमणोपासकों) के लिए अच्छा (कुशलरूप) ही होता है। ८५०–तसा वि वुच्चंति तसा तससंभारकडेण कम्मुणा, णामं च णं प्रभवगतं भवति, तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवति, तसकायद्वितीया ते ततो पाउयं विप्पजहंति, ते तो पाउयं विष्पजहित्ता थायरत्ताए पच्चायति / थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा, णाम च णं अभुवगतं भवति, थावराउं च णं पलिक्खीणं भवति, थावरकायद्वितीया ते ततो पाउगं विप्पजहंति, ते ततो पाउगं विष्पजहिता भुज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्वितीया / ८५०--(द्वीन्द्रिय आदि) त्रस जीव भी त्रस सम्भारकृत कर्म (सनामकर्म के अवश्यम्भावी विपाक) के कारण त्रस कहलाते हैं। और वे त्रसनामकर्म के कारण ही असनाम धारण करते हैं। और जब उनकी त्रस की आयु परिक्षीण हो जाती है तथा त्रसकाय में स्थितिरूप (रहने का हेतुरूप) कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं; और त्रस का आयुष्य छोड़ कर वे स्थावरत्त्व को प्राप्त करते हैं। स्थावर (पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय) जीव भी स्थावरसम्भारकृत कर्म (स्थावरनामकर्म के अवश्यम्भावी विपाक-फलभोग) के कारण स्थावर कहलाते हैं; और वे स्थावरनामकर्म के कारण ही स्थावरनाम धारण करते हैं और जब उनकी स्थावर की आयु परिक्षीण हो जाती है, तथा स्थावरकाय में उनकी स्थिति की अवधि पूर्ण हो जाती है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं / वहाँ से उस आयु (स्थावरायु) को छोड़ कर पुनः वे त्रसभाव को प्राप्त करते हैं। वे जीव प्राणो भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय (विशाल शरीर वाले) भी होते हैं और चिरकाल तक स्थिति वाले भी। विवेचन--उदक निम्रन्थ द्वारा पुनः प्रस्तुत प्रश्न और गौतम स्वामी द्वारा प्रदत्त उत्तरप्रस्तुत सूत्रत्रय में से प्रथम सूत्र में उदकनिम्रन्थ द्वारा पुनः एक ही प्रश्न दो पहलुओं से प्रस्तुत किया है-(१) त्रस किसे कहते हैं ? (2) त्रसप्राणी को ही या अन्य को? शेष दोनों सूत्रों में श्री गौतम Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध स्वामी द्वारा प्रदत्त उत्तर अंकित है-(१) जिसे आप 'त्रसभूत' कहते हैं, उसे ही हम त्रस कहते हैं। अथवा जिसे हम बस कहते हैं, उसे ही आप त्रसभूत कहते हैं। दोनों एकार्थक हैं / (2) अत: जो गृहस्थ अपनी शक्ति और परिस्थितिवश सिर्फ त्रसकायघात का प्रत्याख्यान करना चाहता है, और साधु जितने प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो उतना ही अच्छा समझकर त्रस-प्राणिहिंसा का त्याग करता है / ऐसी स्थिति के उस साधु को शेष (स्थावर) प्राणियों के घात का अनुमोदक नहीं कहा जा सकता। (3) अस या स्थावर जो भी प्राणी एक दूसरी जाति में उत्पन्न होते हैं, वे अपने-अपने उदय प्राप्त नामकर्म का फल भोगने के लिए अपनी कायस्थिति, आयु आदि क्षीण होने पर कभी त्रसपर्याय को छोड़ कर स्थावरपर्याय में और कभी स्थावरपर्याय को छोड़कर सपर्याय में आते हैं / इससे त्रसजीवों की हिंसा का त्याग किये हुए श्रावक का व्रतभंग नहीं होता।' श्री गौतमस्वामी का स्पष्ट उत्तर-जो प्राणी वर्तमान में सपर्याय में हैं, वे भले ही स्थावरपर्याय में से पाए हों, उनकी हिंसा का त्याग श्रावक करेगा। परन्तु जो त्रस से स्थावर हो गए हैं, उनकी तो पर्याय ही बदल गई है, उनकी हिंसा से श्रावक का उक्त व्रतभंग नहीं होता।' त्रस ही क्यों और कहाँ तक-उदक निम्रन्थ के 'त्रसभूत पद क्यों नहीं ? तथा त्रस कहां तक कहा जाए ?' इन प्रश्नों का उत्तर 'णामं च णं प्रभुवगतं भवति' तथा 'तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवति' इन दो वाक्यों में आ जाता है। प्रथम उत्तरवाक्य का प्राशय है-लौकिक और लोकोत्तर दोनों में त्रस नाम ही माना जाता है, त्रसभूत नहीं, तथा जहाँ तक त्रस का आयु (कर्म) क्षीण नहीं हुआ है, वह उत्कृष्ट 33 सागरोपम तक एकभव की दृष्टि से सम्भव है, वहां तक वह त्रस ही रहता है, अस-पायु (कर्म) क्षीण होने पर अर्थात् त्रस की कायस्थिति समाप्त हो जाने पर उसकी त्रस-पर्याय बदल सकती है / उदक की आक्षेपात्मक शंका : गौतम का स्पष्ट समाधान-- ८५१--सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-पाउसंतो गोतमा ! नत्थि णं से केइ परियाए जण्णं समणोवासगस्स एगपाणातिवायविरए वि दंडे निक्खित्ते, कस्स गं तं हेतु? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसा वि पाणा यावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायातो विप्पमुच्चमाणा सब्वे तसकायंसि उववज्जति, तसि च णं थावरकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं धत्तं। ८५१--(पुन:) उदक पेढालपुत्र ने वाद (युक्ति) पूर्वक भगवान गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा--आयुष्मन् गौतम ! (मेरी समझ से) जीव की कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जिसे दण्ड न दे कर श्रावक अपने एक भी प्राणी के प्राणतिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान को सफल कर सके ! उसका कारण क्या है ? (सुनिये) समस्त प्राणी परिवर्तनशील हैं, (इस कारण) कभी स्थावर प्राणी भी त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और कभी त्रसप्राणी स्थावररूप में उत्पन्न हो जाते हैं / (ऐसी स्थिति ..... 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 412-413 का सारांश 2. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 414 का तात्पर्य 3. सूत्रकृतांग चूणि (भू. पा. टिप्पण) पृ. 240-241 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय ; सप्तम अध्ययन : सूत्र 852] [195 में) वे सबके सब स्थावरकाय को छोड़ कर त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, और कभी त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं / अतः स्थावरकाय में उत्पन्न हुए सभी जीव उन (वसकायजीववध-त्यागी) श्रावकों के लिए घात के योग्य हो जाते हैं। ८५२-सवायं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं एवं वदासी–णो खलु पाउसो! अस्माकं वत्तवएणं, तुभं चेव अणुष्पवादेणं अस्थि णं से परियाए जमि समणोवासगस्स सब्वपाणेहि सव्वभूहि सव्वजोवेहि सव्वसत्तेहि दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हेतुं ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायातो विप्पमुच्चमाणा सच्चे थावरकायंसि उववज्जंति, थावरकायानो विष्पमुच्चमाणा सव्वे तसकासि उववज्जंति, तेसि च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि बुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगरस सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पतरागा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, इति से महया तसकायानो उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जण्णं तुब्भे वा अन्नो वा एवं वदह--णस्थि णं से केइ परियाए जम्मि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते, अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / ८५२-(इस पर) भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से युक्तिपूर्वक (सवाद) इस प्रकार कहाआयुष्मन् उदक ! हमारे वक्तव्य (मन्तव्य) के अनुसार तो यह प्रश्न ही नहीं उठता (क्योंकि हमारा मन्तव्य यह है कि सबके सब बस एक ही काल में स्थावर हो जाते हैं, ऐसा न कभी हुआ है, न होगा और न है / ) आपके वक्तव्य (अनुप्रवाद) के अनुसार (यह प्रश्न उठ सकता है, परन्तु आपके सिद्धान्तानुसार थोड़ी देर के लिए मान लें कि सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जाएँगे तब) भी वह (एक) पर्याय (त्रसरूप) अवश्य है, जिसके रहते (त्रसघातत्यागी) श्रमणोपासक सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के घात (दण्ड देने) का त्याग सफल होता है / इसका कारण क्या है ? (सुनिये,) प्राणिगण परिवर्तनशील हैं, इसलिए त्रस प्राणी जैसे स्थावर के रूप उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्थावर प्राणी भी त्रस के रूप उत्पन्न हो जाते हैं / अर्थात् वे सब त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, तथैव कभी स्थावरकाय को छोड़ कर सबके सब त्रसकाय में भी उत्पन्न हो जाते हैं / अतः जब वे सब (स्थावरकाय को छोड़ कर एकमात्र) त्रसकाय में उत्पन्न होते है, तब वह स्थान (समस्त त्रसकायीय प्राणिवर्ग) श्रावकों के घात-योग्य नहीं होता। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं। वे विशालकाय भी होते हैं और चिरकाल तक की स्थिति वाले भी। वे प्राणी बहुत हैं, जिनमें श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल सुप्रत्याख्यान होता है / तथा (आपके मन्तव्यानुसार उस समय) वे प्राणी (स्थावर) होते ही नहीं जिनके लिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता। इस प्रकार वह श्रावक महान् त्रसकाय के घात से उपशान्त, (स्व-प्रत्याख्यान में) उपस्थित तथा (स्थूलहिंसा से) प्रतिविरत होता है। ऐसी स्थिति में आप या दूसरे लोग, जो यह कहते हैं कि (जीवों का) एक भी पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का एक भी प्राणी के प्राणातिपात (दण्ड देने) से विरतिरूप प्रत्याख्यान यथार्थ एवं सफल (सविषय) हो सके / अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है। विवेचन-उदक की प्राक्षेपात्मक शंका; गौतम का स्पष्ट समाधान–प्रस्तुत सूत्रद्वय में से Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथम सूत्र में उदक के द्वारा प्रस्तुत आक्षेपात्मक शंका प्रस्तुत की गई है, द्वितीय सूत्र में श्री गौतम स्वामी का स्पष्ट एवं युक्तियुक्त समाधान अंकित है / प्रत्याख्यान की निविषयता एवं निष्फलता का प्राक्षेप--उदक निर्ग्रन्थ द्वारा किये गये आक्षेप का आशय यह है कि श्रावक के प्रत्याख्यान है त्रस जीवों के हनन का, परन्तु जब सभी त्रसजीव त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावरपर्याय में आ जाएँगे, तब उसका पूर्वोक्त प्रत्याख्यान निविषय एवं निरर्थक हो जाएगा। जैसे सभी नगर निवासियों के वनवासी हो जाने पर नगरनिवासी को न मारने की प्रतिज्ञा निविषय एवं निष्फल हो जाती है, वैसे ही सभी त्रसों के स्थावर हो जाने पर श्रावक की त्रसघात त्याग की प्रतिज्ञा भी निरर्थक एवं निविषय हो जाएगी / ऐसी स्थिति में एक भी त्रस पर्याय का प्राणी नहीं रहेगा, जिसे न मार कर श्रावक प्रत्याख्यान को सफल कर सके / ' श्री गौतमस्वामी द्वारा स्पष्ट समाधान-दो पहलुओं से दिया गया है-(१) ऐसा त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है कि जगत् के सभी त्रस, स्थावर हो जाएँ, क्योंकि यह सिद्धान्त विरुद्ध है। (2) आपके मन्तव्यानुसार ऐसा मान भी लें तो जैसे सभी त्रस स्थावर हो जाते हैं, वैसे सभी स्थावर भी त्रस हो जाते हैं, इसलिए जब सभी स्थावर त्रस हो जाएँगे, तब श्रावक का सवध-त्याग सर्वप्राणीवधत्याग विषयक होने से सफल एवं सविषय हो जाएगा। क्योंकि तब संसार में एकमात्र त्रसजीव ही होंगे जिनके वध का त्याग श्रावक करता है। इसलिए आपका यह (निविषयता रूप) आक्षेप न्याय-संगत नहीं है। निम्रन्थों के साथ श्रीगौतमस्वामी के संवाद ८५३-भगवं च णं उदाहु-नियंठा खलु पुच्छियब्वा, प्राउसंतो नियंठा ! इह खलु संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुग्वं भवति-जे इमे मुडा भवित्ता अगारातो प्रणगारियं पन्वइया एसि च णं अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति एतेसि णं आमरणंताए दंडे णो णिक्खित्ते, केई च णं समणा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई अप्पतरो वा भुज्जतरो वा देसं दूतिज्जिता प्रगारं वएज्जा? हंता वएज्जा। तस्स गं तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भग्गे भवति ? णेति / एवामेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहि दंडे णिक्खित्ते, थावरेहि पाहि दंडे नो णिविखत्ते, तस्स णं तं थावरकायं वहेमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भग्गे भवति, से एवमायाणह णियंठा!, सेवमायाणियध्वं / ८५३-भगवान् गौतम (इसी तथ्य को स्पष्ट करने हेतु) कहते हैं कि मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-'आयुष्मान् निर्ग्रन्थो ! इस जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं; वे इस प्रकार वचनबद्ध (प्रतिज्ञाबद्ध) होते हैं कि 'ये जो मुण्डित हो कर, गृह त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हैं, इनको आमरणान्त (मरणपर्यन्त) दण्ड देने (हनन करने) का मैं त्याग करता हूँ ; परन्तु जो ये लोग गृहवास करते (गृहस्थ) हैं, उनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग मैं नहीं करता। (अब मैं पूछता हूँ कि उन प्रवजित श्रमणों 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 415 का सारांश 2. वही, पत्रांक 416 का सारांश Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 854 ] [ 197 में से कई श्रमण चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहवास कर (गृहस्थ बन) सकते हैं ? निर्ग्रन्थ---"हाँ, वे पुनः गृहस्थ बन सकते हैं / ' भगवान गौतम-"श्रमणों के घात का त्याग करने वाले उस प्रत्याख्यानी व्यक्ति का प्रत्याख्यान क्या उस गृहस्थ बने हुए (भूतपूर्व श्रमण) व्यक्ति का वध करने से भंग हो जाता है ? निर्ग्रन्थ---"नहीं, यह बात सम्भव (शक्य) नहीं है, (अर्थात्-साधुत्व को छोड़ कर पुनः गृहवास स्वीकार करने वाले भतपर्व श्रमण का वध करने से पूर्वोक्त प्रत्याख्यानी का प्रत्याख्यान भंग नहीं होता)।" श्री गौतमस्वामी-इसी तरह श्रमणोपासक ने त्रस प्राणियों को दण्ड देने (वध करने) का त्याग किया है, स्थावर प्राणियों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया। इसलिए स्थावरकाय में वर्तमान (स्थावरकाय को प्राप्त भूतपूर्व अस) का वध करने से भी उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। निर्ग्रन्थो ! इसे इसी तरह समझो, इसे इसी तरह समझना चाहिए। ८५४–भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा-पाउसंतो नियंठा! इह खलु गाहावती वा गाहावतिपुत्तो वा तहप्पगारेहि कुलेहिं प्रागम्म धम्मसवणवत्तियं उवसंक मेज्जा ?, हंता, उवसंकमज्जा / तेसि च णं तहप्पगाराणं घम्मे प्राइक्खियब्बे ?, हंता प्राइक्खियध्वे, कि ते तहप्पगारं धम्म सोच्चा निसम्म एवं वदेज्जा-'इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं याउयं [सं]-सुद्ध सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमगं निज्जाणमगं निवाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं, एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा निसीयामो तहा तुयट्टामो तहा भुजामो तहा भासामो तहऽन्भुट्ठामो तहा उठाए उ? इत्ता पाणाणं जाव सत्ताणं संजमेणं संजमामो ति वदेज्जा ? हंता वदेज्जा कि ते तहप्पगारा कप्पति पव्वावित्तए? हंता कष्पंति / कि ते तहप्पगारा कप्पंति मडावेत्तए? हंता कप्पंति / कि ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पंति / कि ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए ? हंता कप्पंति / कि ते तहप्पगारा कप्पति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पंति / कि ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए ? हंता कप्पंति / तेसिं च णं तहप्पगाराणं सम्वपाणेहिं जाव सत्वसहि दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते / से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई चउप्पंचमाई छद्दसमाणि वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा देसं दूइज्जित्ता अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा / तस्स णं सबपाणेहि जाव सध्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? णेति / सेज्जेसे जीवे जस्स परेणं सव्वयाहि जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, सेज्जेसे जीवे जस्स पारेणं सव्वपाणेहिं जाव सन्धसहि दंडे णिक्खित्ते, सेज्जेसे जीवे जस्स इदाणि सवपाणेहि जाव सध्वसत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवति, परेणं अस्संजए 1. तुलना-इणमेव निम्मथं पावयणं.........."सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / " -प्रावश्यक चणि-प्रतिक्रमणाध्ययन-पृ० 249 Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध पारेणं संजते, इयाणि अस्संजते, अस्संजयस्स णं सव्वपाहिं जाव सव्यसत्तेहि दंडे जो णिक्खित्ते भवति, से एवमायाणह णियंठा!, से एवमायाणितव्वं / ८५४-भगवान् श्री गौतमस्वामी ने आगे कहा कि निर्ग्रन्थों से पूछना चाहिए कि "आयुष्मान् निर्ग्रन्थो! इस लोक में गृहपति या गृहपतिपुत्र उस प्रकार के उत्तम कुलों में जन्म ले कर धर्म-श्रवण के लिए साधुओं के पास पा सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ–'हाँ, वे आ सकते हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या उन उत्तमकुलोत्पन्न पुरुषों को धर्म का उपदेश करना चाहिए ?" निर्गन्थ–'हाँ, उन्हें धर्मोपदेश किया जाना चाहिए।' श्री गौतमस्वामी-क्या वे उस (तथाप्रकार के) धर्म को सुन पर, उस पर विचार करके ऐसा कह सकते हैं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) है, केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, परिपूर्ण है, सम्यक् प्रकार से शुद्ध है, न्याययुक्त है (या मोक्ष की ओर ले जाने वाला है) 'माया-निदान-मिथ्या-दर्शनरूपशल्य को काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्याण (मुक्ति) मार्ग है, निर्वाण मार्ग है, अवितथ (यथार्थ या मिथ्यात्वरहित) है, सन्देहरहित है, समस्त दुःखों को नष्ट करने का मार्ग है ; इस धर्म में स्थित हो कर अनेक जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, तथा समस्त दु.खों का अन्त करते हैं। अतः हम धर्म (निर्ग्रन्थप्रवचन) की आज्ञा के अनुसार, इसके द्वारा विहित मार्गानुसार चलेंगे, स्थित (खड़े) होंगे, बैठेंगे, करवट बदलेंगे, भोजन करेंगे, तथा उठेंगे। उसके विधानानुसार घर बार आदि का त्याग कर संयमपालन के लिए अभ्युद्यत होंगे, तथा समस्त प्राणियों, भतों, जीवों और सत्त्वों की रक्ष संयम धारण करेंगे / क्या वे इस प्रकार कह सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ वे ऐसा कह सकते हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या इस प्रकार के विचार वाले वे पुरुष प्रवजित करने (दीक्षा देने) योग्य हैं ?" निर्गन्थ–'हाँ, वे प्रवजित करने योग्य हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या इस प्रकार के विचार वाले वे व्यक्ति मुण्डित करने योग्य हैं ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ वे मुण्डित किये जाने योग्य हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या वे वैसे विचार वाले पुरुष (ग्रहणरूप एवं आसेवनारूप) शिक्षा देने के योग्य हैं ?" निर्ग्रथ–'हाँ, वे शिक्षा देने के योग्य हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या वैसे विचार वाले साधक महाव्रतारोपण (उपस्थापन) करने योग्य हैं ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ, वे उपस्थापन योग्य हैं।' श्री गौतमस्वामी-"क्या प्रवजित होकर उन्होंने समस्त प्राणियों, तथा सर्वसत्त्वों को दण्ड देना (हनन करना) छोड़ दिया ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ, उन्होंने सर्वप्राणियों की हिंसा छोड़ दी।' रक्षा के लिए Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्धकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 855 ] श्री गौतमस्वामी--"वे इस प्रकार के दीक्षापर्याय (विहार) में विचरण करते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण कर क्या पुनः गृहस्थावास में जा सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ, वे जा सकते हैं।' श्री गौतमस्वामी----"क्या वे भूतपूर्व अनगार पुनः गृहस्थ बन जाने पर समस्त प्राणियों यावत् समस्त सत्त्वों को दण्ड देना (हनन करना) छोड़ देते हैं ?" निर्ग्रन्थ-'नहीं ऐसा नहीं होता ; (अर्थात्-वे गृहस्थ बनकर समस्त प्राणियों को दण्ड देना नहीं छोड़ते, बल्कि दण्ड देना प्रारम्भ कर देते हैं)। श्री गौतमस्वामी (देखो, निर्ग्रन्थो !) यह जीव वही है, जिसने दीक्षाग्रहण पूर्व समस्त प्राणियों यावत् सत्त्वों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया था, यह जीव वही है, जिसने दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को दण्ड देने का त्याग किया था, एवं यह जीव अब भी वही है, जो इस समय पुनः गृहस्थभाव अंगीकर करके समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को दण्ड देने का त्यागी नहीं है। वह पहले असंयमी था, बाद में संयमी हुआ और अब पुन: असंयमी हो गया है / असंयमी जीव समस्त प्राणियों यावत् सर्वसत्त्वों को दण्ड देने (हिंसा) का त्यागी नहीं होता। अतः वह पुरुष इस समय सम्पूर्ण प्राणियों यावत् समस्त सत्त्वों के दण्ड का त्यागी नहीं है / निर्ग्रन्थो ! इसे इसी प्रकार समझो, इसे इसी प्रकार समझना चाहिए / ८५५---भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छितव्या---प्राउसंतो णियंठा! इह खलु परिवाया वा परिवाइयाओ वा अन्नयरेहितो तित्थायय!हतो आगम्म धम्मसवणवत्तियं उवसंकमज्जा? हंता उवसंकमज्जा। कि तेसि तहप्पगाराणं धम्मे प्राइविषयच्चे ? हेता प्राइक्खियन्वे / ते चेव जाव उवट्ठावेत्तए / किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुज्जित्तए ? हंता कप्पंति / ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा तहेव जाव वएज्जा। ते णं तहप्पगारा कप्पंति संभुज्जित्तए ? नो तिण? सम?, सेज्जेसे जोवे जे परेणं नो कम्पति संभुज्जित्तए, सेज्जे से जीवे जे प्रारेणं कप्पति संभुज्जित्तए, सेज्जे से जीवे जे इदाणि णो कम्पति संभुज्जित्तए, परेणं अस्समणे, पारेणं समणे, इदाणि अस्समणे, अस्समणेणं सद्धि णो कप्पति समणाणं णिग्गंथाणं संभुज्जित्तए, सेवमायाणह णियंठा ? से एवमायाणितन्वं / ८५५--भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा-'मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-"आयुष्मान् निर्गन्थों ! (यह बताइए कि) इस लोक में परिव्राजक अथवा परिवाजिकाएँ किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों (तीर्थायतनों) (में रह कर वहाँ) से चल कर धर्मश्रवण के लिए क्या निम्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निग्रन्थ-'हाँ, आ सकती हैं। श्री गौतमस्वामी-"क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश देना चाहिए ?" निर्ग्रन्थ-'हाँ, उन्हें धर्मोपदेश देना चाहिए।' श्री गौतमस्वामी-~"धर्मोपदेश सुन कर यदि उन्हें वैराग्य हो जाए तो क्या वे प्रवृजित करने, मुण्डित करने, शिक्षा देने या महावतारोहण (उपस्थापन) करने के योग्य हैं ?" Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निर्ग्रन्थ–'हाँ, वे प्रवजित यावत् महावतारोपण करने योग्य हैं / ' श्री गौतमस्वामी-"क्या दीक्षा ग्रहण किये हुए तथाप्रकार के (उन समान समाचारी वाले) व्यक्तियों के साथ साधु को साम्भोगिक (परस्पर वन्दना, आसन प्रदान, अभ्युत्थान, आहारादि का आदान-प्रदान इत्यादि) व्यवहार करने योग्य हैं ?' निर्ग्रन्थ-'हाँ, करने योग्य है।' श्री गौतमस्वामी-'वे दीक्षापालन करते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक देशों में भ्रमण करके क्या पुनः गृहवास में जा सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ–'हाँ, वे जा सकते हैं। श्री गौतमस्वामी-साधुत्व छोड़ कर गृहस्थपर्याय में पाए हुए वैसे व्यक्तियों के साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य है ?" निर्ग्रन्थ-"नहीं, अब उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं रखा जा सकता।" श्री गौतमस्वामी-आयुष्मान् निर्ग्रन्थो! वह जीव तो वही है, जिसके साथ दीक्षाग्रहण करने से पूर्व साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित नहीं होता, और यह वही जीव है, जिसके साथ दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित (कल्पनीय) होता है, तथा यह वही जीव है, जिसने अब साधुत्व का पालन करना छोड़ दिया है, तब उसके साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य नहीं है। यह जीव पहले गृहस्थ था, तब अश्रमण था, बाद में श्रमण हो गया, और इस समय पुनः अश्रमण है। प्रश्रमण के साथ श्रमणनिर्ग्रन्थों को सांभोगिक व्यवहार रखना कल्पनीय (उचित) नहीं होता। निर्ग्रन्थो! इसी तरह इसे (यथार्थ) जानो, और इसी तरह इसे जानना चाहिए। विवेचन-निर्ग्रन्थों के साथ श्री गौतमस्वामी का संवाद-प्रस्तुत सूत्रत्रय में शास्त्रकार ने तीन दृष्टान्तात्मक संवाद प्रस्तुत किये हैं, जिनके द्वारा श्री गौतमस्वामी ने उदक आदि निर्ग्रन्थों को व्यावहारिक एवं धार्मिक दृष्टि से समझा कर तथा उन्हीं के मुख से स्वीकार करा कर त्रसकायवधप्रत्याख्यानी श्रावक के प्रत्याख्यान से सम्बन्धित उनकी भ्रान्ति का निराकरण किया है। तीन दृष्टान्तात्मक संवाद संक्षेप में इस प्रकार हैं (1) प्रथम संवाद का निष्कर्ष-कई मनुष्य ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं- “जो घरबार छोड़ कर अनगार बनेंगे, उनको हमें दण्ड देने (घात करने) का आजीवन त्याग है।" किन्तु गृहत्यागी अनगार बन जाने के बाद यदि वे कालान्तर में पुनः गृहवास करते हैं, तो पूर्वोक्त प्रतिज्ञावान् मनुष्य यदि वर्तमान में गृहस्थपर्यायप्राप्त उस (भूतपूर्व अनगार) व्यक्ति को दण्ड देता है तो उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं होती, वैसे ही जो श्रमणोपासक त्रसवध का प्रत्याख्यान करता है, वह वर्तमान में स्थावरपर्याय को प्राप्त (भूतपूर्व त्रस) प्राणी का वध करता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। (2) द्वितीय संवाद का निष्कर्ष-कई गृहस्थ विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करते हैं। दीक्षा ग्रहण से पूर्व उन्होंने समस्त प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं किया था, दीक्षाग्रहण के बाद उन्होंने सर्वप्राणिहिंसा का प्रत्याख्यान कर लिया, परन्तु कालान्तर में दीक्षा छोड़ कर पुनः गृहस्थावास में Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 856] [201 लौट पाने पर उनके समस्त प्राणिहिंसा का प्रत्याख्यान नहीं रहता; इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक के त्रसजीवों को हिंसा का प्रत्याख्यान है, उसके स्थावरपर्याय को प्राप्त जीवों का प्रत्याख्यान नहीं था, किन्तु जब वे जीव कर्मवशात् स्थावरपर्याय को छोड़ कर वसपर्याय में आ जाते हैं, तब वह उन वर्तमान में त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता, किन्तु जब वे ही त्रसजीव सपर्याय को छोड़ कर पुनः कर्मवश स्थावरपर्याय में आ जाते हैं, तब उसके वह पूर्वोक्त प्रत्याख्यान नहीं रहता। वर्तमान में स्थावरपर्याय प्राप्त जीवों की हिंसा से उसका उक्त प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। (3) तृतीय संवाद का निष्कर्ष-श्रमणदीक्षा ग्रहण करने से पूर्व परिबाजक-परिव्राजिकागण साधु के लिए सांभोगिक व्यवहारयोग्य नहीं थे, श्रमणदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे साधु के लिए सांभोगिक व्यवहार-योग्य हो चुके ; किन्तु कालान्तर में श्रमण-दीक्षा छोड़ कर पुन: गृहवास स्वीकार करने पर वे भूतपूर्व श्रामण्य-दीक्षित वर्तमान में गृहस्थपर्याय में होने से साधु के लिए सांभोगिक व्यवहारयोग्य नहीं रहते, इसीप्रकार जो जीव स्थावरपर्याय को प्राप्त थे, वे श्रमणोपासक के लिए हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य नहीं थे, बाद में कर्मवशात् जब वे स्थावरपर्याय को छोड़ कर त्रसपर्याय में आ जाते हैं, तब वे श्रमणोपासक के लिए हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य हो जाते हैं, किन्तु कालान्तर में यदि कर्मवशात् वे भूतपूर्व त्रस त्रसपर्याय को छोड़ कर पुनः स्थावरपर्याय में आ जाते हैं, तो श्रमणोपासक के लिए वे हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य नहीं रहते / अर्थात --उस समय वे जीव उसके प्रत्याख्यान के विषय नहीं रहते / इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य को अपेक्षा से नहीं। यानी अात्म (जीव) तो वही होता है किन्तु उस की पर्याय बदल जाती है / अतः श्रावक का प्रत्याख्यान वर्तमान सपर्याय की अपेक्षा से है।' दृष्टान्तों और युक्तियों द्वारा श्रमणोपासक-प्रत्याख्यान को निविषयता का निराकरण ८५६-भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुवं भवति–णो खलु वयं संचाएमो मुडा भवित्ता अगारातो प्रणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं चाउद्दसट्टमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसधं सम्म अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणातिवायं पच्चाइक्खिस्सामो, एवं थूलगं मुसावादं थूलगं अदिण्णादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिग्गहं पच्चाइक्खिस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु मम अट्ठाए किंचि वि करेह वा कारावेह वा, तत्थ वि पच्चाइक्खिस्सामो, ते अभोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता प्रासंदिपोढियानो पच्चोरुभित्ता, ते तहा कालगता कि वत्तव्वं सिया ? सम्म कालगत ति वत्तव्वं सिया / ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरदिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पय रागा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, इति से महयाप्रो० जण्णं तुम्भे वयह तं चेव जाव अयं पि मे देसे णो णेघाउए भवति / ८५६–भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (प्रकारान्तर से उदकनिर्ग्रन्थ को समझाने के लिए) कहा-“कई श्रमणोपासक बड़े शान्त होते हैं / वे साधु के सानिध्य में प्रा कर सर्वप्रथम यह कहते 1. सूत्रकृतांग शीलाक वृत्ति पत्रांक 418 का सारांश Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध हैं-(निर्ग्रन्थ गुरुवर !) हम मुण्डित हो कर गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं / हम तो चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णमासी के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक अनुपालन (विधि के अनुसार पालन) करेंगे तथा हम स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन, एवं स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) करेंगे। हम अपनी इच्छा का परिमाण करेंगे। हम ये प्रत्याख्यान दो करण (करूं नहीं, कराऊँ नहीं) एवं तीन योग (मन-वचन-काया) से करेंगे / (हम जब पौषधव्रत में होंगे, तब अपने कौटुम्बिकजनों से पहले से कहेंगे-) 'मेरे लिए कुछ भी (पचन-पाचन, स्नान, तेलमर्दन, विलेपन आदि प्रारम्भ) न करना और न ही कराना" तथा उस पौषध में (सर्वथा दुष्कर) अनमति का भी प्रत्याख्यान करेंगे। पौषधस्थित वे श्रमणोपासक बिना खाए (आहारत्याग पौषध) तथा बिना स्नान किये (शरीरसत्कारत्याग पौषध) एवं आरामकुर्सी, पलंग, या पीठिका आदि से उतर कर (ब्रह्मचर्य-पौषध या व्यापारत्याग-पौषध कर के दर्भ के संस्तारक पर स्थित) (ऐसी स्थिति में सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करते हुए) यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो उनके मरण के विषय में क्या कहना होगा ? यही कहना होगा कि वे अच्छी तरह से कालधर्म को प्राप्त हुए / देवलोक में उत्पत्ति होने से वे त्रस ही होते हैं। वे (प्राणधारण करने के कारण) प्राणी भी कहलाते हैं, वे (त्रसनामकर्म का उदय होने से) त्रस भी कहलाते हैं, (एक लाख योजन तक के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण) वे महाकाय भी होते हैं तथा (तैतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से) वे चिरस्थितिक भी होते हैं / वे प्राणी संख्या में बहुत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी थोड़े हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता / इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान् त्रसकायिकहिंसा से निवृत्त है। फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं / अतः आपका यह दर्शन (मन्तव्य) न्यायसंगत नहीं है। ८५७–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति, णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगारापो जाव पव्वइत्तए,' णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्टमुद्दिपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूस. णाझसिया मत्तपाणपडियाइविखया कालं प्रणवकंखमाणा विहरिस्सामो, सव्वं पाणातिवायं पच्चाइविखस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं पच्चाइविखस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु मम अढाए किंचि वि जाव प्रासंदिपेढियानो पच्चोरुहिता ते तहा कालगया कि वत्तव्वं सिया ? समणा कालगता इति बत्तव्वं सिया। ते पाणा वि वुच्चंति जाव अयं पि मे देसे नो नेयाउए भवति / ८५७-(फिर) भगवान् गौतम स्वामी ने (उदक निम्रन्थ से) कहा-कई श्रमणोपासक ऐसे भी होते हैं, जो पहले से इस प्रकार कहते हैं कि हम मुण्डित हो कर गृहस्थावास को छोड़ कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में अभी समर्थ नहीं हैं, और न ही हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूणिमा, इन पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करने में समर्थ हैं / हम तो अन्तिम समय में (मृत्यु का समय आने पर) अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना-संथारा के सेवन से कर्मक्षय करने की 1. यहाँ इतना अधिक पाठ और पाठान्तर चूणि में है—“णो खलु वयं अणुव्वताइ मूलगुणे अणुपालेत्तए, णो खलु उत्तरगुणे. चाउद्दसटमीसू पोसधं अण. वयण्णं सम्महसणसारा अपच्छिममारणंतिय...श्रणवकखेमाणा....।" Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 858 ] [ 203 आराधना करते हुए पाहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) करके दीर्घकाल तक जीने की या शीघ्र ही मरने की आकांक्षा न करते हुए विचरण करेंगे। उस समय हम तीन करण और तीन योग से समस्त प्राणातिपात, समस्त मुषावाद, समस्त अदत्तादान, समस्त मैथन और सर्वपरिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) करेंगे / (कौटुम्बिकजनों से हम इस प्रकार कहेंगे-) हमारे लिए (पचन-पाचनादि) कुछ भी प्रारम्भ मत करना, और न ही कराना।' उस संल्लेखनाव्रत में हम अनुमोदन का भी प्रत्याख्यान करेंगे। इस प्रकार संल्लेखनाव्रत में स्थित साधक बिना खाए-पीए, बिना स्नानादि किये, पलंग आदि प्रासन से उतर कर सम्यक् प्रकार से संल्लेखना की आराधना करते हुए कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ तो उनके मरण (काल) के विषय में क्या कहना होगा? यही कहना होगा कि उन्हें भावनाओं में मृत्यु पाई है। (मर कर वे देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होंगे, जो कि त्रस हैं) वे प्राणी भी कहलाते हैं, वे त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय और चिरस्थिति वाले भी होते हैं, इन (सप्राणियों) की संख्या भी बहुत है, जिनकी हिंसा का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक करता है, किन्तु वे प्राणो अल्पतर हैं, जिनकी हिंसा का प्रत्याख्यान वह नहीं करता है। ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक महान् त्रसकायिक हिंसा से निवृत्त है, फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निविषय बतलाते हैं। अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। ८५८-भगवं च णं उदाहु---संतेगतिया मणुस्सा भवंति महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुप्पडियाणंदा जाव सव्वातो परिग्गहातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, जेहि समणोवासगस्स प्रादाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते; ते ततो पाउगं विप्पजहंति, ते चइत्ता भुज्जो सगमादाए दुग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वच्चंति, ते महाकाया, ते चिरटुिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, प्रादाणसो इती से महताउ० जणं तुम्मे क्यह जाव अयं पि में देसे णो णेयाउए भवति / ___८५८-भगवान् श्री गौतमगणधर ने पुनः कहा-इस संसार में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो बड़ी-बड़ी इच्छाओं (अपरिमित आकांक्षाओं) से युक्त होते हैं, तथा महारम्भी, महापरिग्रही एवं अधार्मिक होते हैं। यहाँ तक कि वे बड़ी कठिनता से प्रसन्न (सन्तुष्ट) किये जा सकते हैं। वे जीवनभर अधर्मानुसारी, अधर्मसेवी, अतिहिंसक, अधर्मनिष्ठ यावत् समस्त परिग्रहों से अनिवृत्त होते हैं। श्रमणोपासक ने इन (त्रस) प्राणियों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है / वे (पूर्वोक्त) अधार्मिक मृत्यु का समय आने पर अपनी आयु (एवं शरीर) का त्याग कर देते हैं, और अपने पापकर्म अपने साथ (परलोक में) ले जा कर दुर्गतिगामी होते हैं। (वह दुर्गति नरक या तिर्यञ्च है। अत: वे अधामिक नरक या तिर्यञ्चगति में त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, तथा वे महाकाय और चिरस्थितिक (नरक में 33 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति तक होने से) भी कहलाते हैं / ऐसे त्रसप्राणी संख्या में बहुत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, वे प्राणी अल्पतर हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता / उन (त्रस) प्राणियों को मारने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक व्रतग्रहण समय से लेकर मरण-पर्यन्त करता है। इस प्रकार से श्रमणोपासक उस महती त्रसप्राणिहिंसा से विरत हैं, Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [सूत्र तांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध फिर भी आप श्रावक के प्रत्याख्यान को निविषय बतलाते हैं / आपका यह मन्तव्य न्याययुक्त महीं है। ८५६-भगवं च णं उयाहु-संतेतिया मणुस्सा भवंति अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुआ जाव सव्वानो परिग्गहातो पडिविरया जावज्जीवाए जेहि समणोवासगस्त प्रादाणसो प्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो पाउगं विष्पजहंति, ते ततो भुज्जो सगमादाए सोग्गतिगामिणो भवंति, ते पाणा वि बुच्चंति जाव णो णेयाउए भवति / ८५६-भगवान् श्री गौतम आगे कहने लगे—इस विश्व में ऐसे भी शान्तिप्रधान मनुष्य होते हैं, जो प्रारम्भ एवं परिग्रह से सर्वथा रहित हैं, धार्मिक हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं या धर्माचरण करने की अनुज्ञा देते हैं। वे सब प्रकार के प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से तीन करण; तीन योग से जीवनपर्यन्त विरत रहते हैं। उन प्राणियों (महाव्रती मिष्ठ उच्च साधकों) को दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त प्रत्याख्यान किया है / वे (पूर्वोक्त मिष्ठ उच्च साधक) काल का अवसर आने पर अपनी आयु (देह) का त्याग करते हैं, फिर वे अपने पुण्य (शुभ) कर्मों को साथ लेकर स्वर्ग आदि सुगति को प्राप्त करते हैं, (वे उच्चसाधक श्रमणपर्याय में भी त्रस थे और अब देवादिपर्याय में भी त्रस हैं;) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, और महाकाय तथा (देवलोक में) चिरस्थितिक भी होते हैं / (उन्हें भी श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता) अतः अापका यह कथन न्यायसंगत नहीं है कि त्रस के सर्वथा अभाव के कारण श्रमणोपासक का उक्त व्रत-प्रत्याख्यान निविषय हो जाता है। ८६०–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा–प्रप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाब एगच्चातो परिग्गहातो अप्पडिविरया जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए सोग्गतिगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो याउए भवति / ८६०-भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (अपने सिद्धान्त को स्पष्ट समझाने के लिए प्रागे) कहा-'इस जगत् में ऐसे भी मानव हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प प्रारम्भ और परिग्रह वाले, धार्मिक, और धर्मानुसारी अथवा धर्माचरण की अनुज्ञा देने वाले होते हैं, वे धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्माचरण ही उनका व्रत होता है, वे धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, धर्म करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं, वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक, एक देश से विरत होते हैं, और एक देश से विरत नहीं होते, (अर्थात्-वे स्थूल प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करते हैं।) इन (पूर्वोक्त) अणुवती श्रमणोपासकों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से मरणपर्यन्त किया होता है / वे (अणुव्रती) काल का अवसर प्राने पर अपनी आयु (या देह) को छोड़ते हैं और अपने पुण्यकर्मों को साथ लेकर (परलोक में) सद्गति को प्राप्त करते हैं / (इस दृष्टि से वे पहले अणुव्रती मानव थे, तब भी त्रस थे और देवगति में अब देव बने, तब भी त्रस ही हुए) वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस और महाकाय भी कहलाते हैं, तथा चिरस्थितिक भी होते हैं। अतः श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान त्रसजीवों की इतनी अधिक संख्या होने से निविषय नहीं है, आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 861 ] [ 205 ८६१-भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं०-आरणिया पावसहिया गामणियंतिया कण्हुइरहस्सिया जेहि समणोवासगस्स आयाणसो पामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरता पाण-भूत-जीव-सत्तेहि, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विपडिवेदेतिअहं हंतव्वे अण्णे हेतवा जाव कालमासे कालं किच्चा अण्णयराइं पासुरियाई किब्बिसाइं जाव उववत्तारो हति, ततो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवति / __ ८६१–भगवान् श्री गौतम ने फिर कहा- "इस विश्व में कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जो प्रारण्यक (वनवासी) होते हैं, आवसथिक (कुटी, झोंपड़ी आदि बना कर रहने वाले) होते हैं, ग्राम में जाकर किसी के निमंत्रण से भोजन करते हैं, कोई किसी गुप्त रहस्य के ज्ञाता होते हैं, अथवा किसी एकान्त स्थान में रह कर साधना करते हैं। श्रमणोपासक ऐसे प्रारण्यक आदि को दण्ड देने (हनन करने) का त्याग, व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त करता है। वे (पूर्वोक्त आरण्यक आदि) न तो संयमी होते हैं और न ही समस्त सावध कर्मो से निवृत / वे प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से विरत नहीं होते / वे अपने मन से कल्पना करके लोगों को सच्ची-झूठी बात इस प्रकार कहते हैं-'मुझे नहीं मारना चाहिए, दूसरों को मारना चाहिए। हमें आज्ञा नहीं देनी चाहिए, परन्तु दूसरे प्राणियों को आज्ञा देनी चाहिए ; हमें दास आदि बना कर नहीं रखना चाहिए, दूसरों को रखना चाहि दे।' इस प्रकार का उपदेश देने वाले ये लोग मृत्यु का अवसर प्राने पर मृत्यू प्राप्त करके (अज्ञानतप के प्रभाव से किसी असरसंज्ञकनिकाय में किल्विषी देव के रूप उत्पन्न होते हैं। (अथवा प्राणिहिंसा का उपदेश देने के कारण) वे यहाँ से शरीर छोड़ कर या तो बकरे की तरह तिर्यञ्च योनि में) मूक रूप में उत्पन्न होते हैं, या वे तामस जीव के रूप में नरकगति में) उत्पन्न होते हैं। (वे चाहे मनुष्य हों, देव हों या नारक, किसी भी अवस्था में सरूप ही होते हैं (अत: वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी, वे महाकाय भी होते हैं और चिरस्थिति वाले भी / वे संख्या में भी बहुत होते हैं। इसलिए श्रमणोपासक का त्रसजीव को न मारने का प्रत्याख्यान निविषय है, आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं है।' ८६२-भगव च णं उदाहु-संतेगतिया पाणा दोहाउया जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो जाव णिक्खित्ते, ते पच्छामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, [ते] तसा वि [वच्चंति], ते महाकाया, ते चिरद्वितीया, ते दोहाउया, ते बहुतरगा [पाणा] जेहि समणोवासगस्स प्रायाण[सो] जाव णो णेयाउए भवति / ८६२--(इसके पश्चात्) भगवान् श्री गौतम ने कहा- 'इस संसार में बहुत-से प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड (हिंसा) का प्रत्याख्यान करता है। इन प्राणियों की मृत्यु पहले ही हो जाती है, और वे यहाँ से मर कर परलोक में जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी ; एवं वे महाकाय और चिरस्थितिक (दीर्घायु) होते हैं। वे प्राणी संख्या में भी बहुत होते हैं, इसलिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान इन प्राणियों की अपेक्षा से सुप्रत्याख्यान होता है। इसलिए श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्यायोचित नहीं है। Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ८६३–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया पाणा समाउमा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो जाव णिविखत्ते, ते सममेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति ते, महाकाया, ते समाउया, ते बहुतरगा जाव णो णेयाउए भवति / ८६३–भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने (फिर) कहा-इस जगत् में बहुत-से प्राणी समायुष्क होते हैं, जिनको दण्ड देने (वध करने) का त्याग श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है / वे (पूर्वोक्त) प्राणी स्वयमेव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं / मर कर वे परलोक में जाते हैं / वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं और वे महाकाय भी होते हैं और समायुष्क भी। तथा ये प्राणी संख्या में बहुत होते हैं, इन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है / अतः श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषयक बताना न्यायसंगत नहीं है / ८६४–भगवं च णं-उदाहु-संतेगतिमा पाणा अप्पाउया जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो प्रामरणंताए डंडे जाव णिक्खित्ते, ते पुवामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वच्चंति, ते महाकाया, ते अप्पाउया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स पच्चक्खायं भवति, ते प्रप्पा जेहिं समणोवासगस्स प्रपच्चक्खायं भवति, इती से महया जाव णो ग्राउए भवति / ८६४–भगवान् गौतमस्वामी ने (प्रागे) कहा-इस संसार में कई प्राणी अल्पायु होते हैं / श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त जिनको दण्ड देने (हनन करने) का त्याग करता है / वे (पूर्वोक्त प्राणी अल्पायु होने के कारण) पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं / मर कर वे परलोक में जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय भी होते हैं और अल्पायु भी। जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान करता है, वे संख्या में बहुत हैं, जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता, वे संख्या में अल्प हैं। इस प्रकार श्रमणोपासक महान् जसकाय की हिंसा से निवृत्त है, फिर भी, आप लोग उसके प्रत्याख्यान को निविषय बताते हैं, अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। ८६५–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति-णो खलु वयं संचाएमो मुडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसधं अणुपालेत्तए णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिम जाव विहरित्तए, वयं णं सामाइयं देसावकासियं पुरत्या पाईणं पडोणं दाहिणं उदीणं एत्ताव ताव सव्वपाहि जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते सव्वपाण-भूय-जीव-सत्तेहि खेमंकरे अहमंसि / (1) तत्थ प्रारेणं जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो पामरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते ततो पाउं विप्पजहंति, विष्पजहित्ता तत्थ पारेणं चेव जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो पामरणंताए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते . Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 865] [ 207 पाणा वि बुच्चंति, ते तसा विधुच्चंती, ते महाकाया, ते चिरद्वितीया जाव अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / (2) तत्थ पारेणं जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो जाव दंडे गिक्खित्ते ते ततो पाउं विप्पजहंति, विष्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे प्रणिक्खित्ते अणट्टाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए दंडे णिक्खित्ते, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते चिरट्ठिइया जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति। (3) तत्थ जे ते आरेणं तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए बंडे णिविखत्ते, ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तस-थावरपाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो अामरणंताए [दंडे णिक्खित्ते] तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खातं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / (4) तत्थ जे ते आरेणं थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्टाए णिक्खित्ते ते ततो पाउं विप्पजहंति, विष्पजहित्ता तत्थ पारेणं जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स अायाणसो अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खातं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / (5) तत्थ जे ते पारेणं थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते, ते ततो पाउं विप्पजहंति, विष्पजहित्ता तत्थ पारेणं चेव जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति ते पाणा वि जाव अयं पि मे णो णेयाउए भवति / (6) तत्थ जे ते प्रारेणं थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स पढाए दंडे प्रणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते ते ततो प्राउ विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ परेणं चेव जे तस-थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो पामरणंताए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति तेसु समणोवासगस्स सुपच्चक्खातं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / (7) तत्थ जे ते परेणं तस-थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो प्रामरणंताए दंडे णिखित्ते ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ प्रारेणं जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स पायाणसो [आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते] तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / (8) तत्थ जे ते परेणं तस-यावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो [अामरणंताए दंडे णिक्खिते] ते ततो पाउं विष्पजहंति, विष्पजहिता तत्व पारेणं जे थावर पाणा जेहिं समणोवासगस्स अढाए दंडे प्रणिक्खित्ते प्रणढाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स [सुपच्चक्खायं भवति], ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (8) तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो [अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते] ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तत्थ परेणं चेव जे तस-थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो प्रामरणंताए [दंडे णिक्खित्ते] तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / ८६५-(अन्त में) भगवान गौतमस्वामी ने कहा-जगत में कई श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो इस प्रकार (साधु के समक्ष) प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं—(गुरुदेव !) हम मुण्डित होकर घरबार छोड़ कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं, न हम चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषधवत का विधि अनुसार पालन करने में समर्थ हैं, और न ही हम अन्तिम समय में अपश्चिममारणान्तिक संलेखना-संथारा की आराधना करते हुए विचरण करने में समर्थ हैं / हम तो सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों को ग्रहण करेंगे, हम प्रतिदिन प्रातःकाल पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में (अमुक ग्राम, पर्वत, घर या कोस आदि तक के रूप में) गमनागमन की मर्यादा करके या देशावकाशिक मर्यादाओं को स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के सर्वप्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दण्ड देना छोड़ देंगे। इस प्रकार हम समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के क्षेमंकर होंगे। (1) ऐसी स्थिति में (श्रमणोपासक के व्रतग्रहण के समय) स्वीकृत मर्यादा के (अन्दर) रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनको उसने अपने व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है, वे प्राणी (मृत्यु के समय) अपनी आयु (देह) को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्दर क्षेत्रों (प्रदेशों) में उत्पन्न होते हैं, तब भी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें (चरितार्थ हो कर) सप्रत्याख्यान होता है। वे श्रावक की दिशामर्यादा से अन्दर के क्षेत्र में पहले भी त्रस थे, बाद में भी मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं) इसलिए वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक के पूर्वोक्त प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना कथमपि न्याययुक्त नहीं है / (2) श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में रहने वाले जो स प्राणी हैं, जिनको दण्ड देना श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के समय से लेकर मरणपर्यन्त छोड़ दिया है। वे जब आयु (देह) को छोड़ देते हैं और पुनः श्रावक द्वारा गृहीत उसी मर्यादा के अन्दर वाले प्रदेश में स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं; जिनको श्रमणोपासक ने अर्थदण्ड (प्रयोजनवश हनन करने) का त्याग नहीं किया है, किन्तु उन्हें अनर्थ दण्ड (निरर्थक हनन) करने का त्याग किया है / अत: उन (स्थावरप्राणियों) को श्रमणोपासक अर्थ (प्रयोजन) वश दण्ड देता है, अनर्थ (निष्प्रयोजन) दण्ड नहीं देता / वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं। वे चिरस्थितिक भी होते हैं / अतः श्रावक का त्रसप्राणियों की हिंसा का और स्थावरप्राणियों की निरर्थक हिंसा का प्रत्याख्यान सविषय एवं सार्थक होते हुए भी उसे निर्विषय बताना न्यायोचित नही है / (३)-(श्रमणोपासक द्वारा गहीत मर्यादा के) अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग किया है; वे मृत्यु का समय आने पर अपनी आयु (देह) को छोड़ देते हैं, वहाँ से देह छोड़ कर वे (त्रसप्राणी) निर्धारित-मर्यादा Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 865] [206 के बाहर के प्रदेश में, जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके उत्पन्न होते हैं, जिनमें से त्रस प्राणियों को तो श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर ग्रामरणान्त दण्ड देने का और स्थावर प्राणियों को निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया होता है। अतः उन (बस-स्थावर) प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक का (किया हुअा) प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं यावत् चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं। अतः श्रावकों के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है। [4] (श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के) अन्दर वाले प्रदेश में जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिनको प्रयोजनवश (सार्थक) दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु बिना प्रयोजन के दण्ड (अनर्थदण्ड) देने का त्याग किया है। वे स्थावरप्राणी वहाँ से अपनी आयु (देह) को छोड़ देते हैं, आयु छोड़ कर श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, जिनको . दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से मरणपर्यन्त प्रत्याख्यान कर रखा है, उन (त्रस प्राणियों) में उत्पन्न होते हैं। तब उन (पूर्वजन्म में स्थावर और वर्तमान जन्म में त्रस) प्राणियों के विषय में किया हया श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; यावत् चिरस्थितिक भी होते हैं। अत: त्रस या स्थावर प्राणियों का प्रभाव मान कर श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। [5 श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको सार्थक दण्ड देने का त्याग श्रमणोपासक नहीं करता अपितु वह उन्हें निरर्थक दण्ड देने का त्याग करता है। वे प्राणी आयुष्य पूर्ण होने पर उस शरीर को छोड़ देते हैं, उस शरीर को छोड़ कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादित भूमि के अन्दर ही जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने सार्थक दण्ड देना नहीं छोड़ा है, किन्तु निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होता है / अतः इन प्राणियों के सम्बन्ध में किया हुआ श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान (सफल) होता है। वे प्राणी भी हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी हैं। अतः श्रमणोपासक के (पूर्वोक्त) प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्याययुक्त नहीं है / [6] श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिन की सार्थक हिंसा का त्याग नहीं किया, किन्तु निरर्थक हिंसा का त्याग किया है, वे स्थावर प्राणी वहां से प्रायुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ कर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर जो अस और स्थावर प्राणी हैं; जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से मरण तक त्याग किया हना है, उनमें उत्पन्न होते हैं। अतः उनके सम्बन्ध में किया हुया श्रमणोपासक का (पूर्वोक्तपद्धति से) प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं / अत: श्रपणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है। [7] श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि से बाहर जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिन को व्रतग्रहण-समय से मृत्युपर्यन्त श्रमणोपासक ने दण्ड देने का त्याग कर दिया है; वे प्राणी आयुक्षीण होते ही शरीर छोड़ देते हैं, शरीर छोड़कर वे श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो त्रस प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतारम्भ से लेकर प्रायुपर्यन्त त्याग किया हुआ है, उनमें उत्पन्न होते हैं। इन (पूर्वजन्म में त्रस या स्थावर, किन्तु इस जन्म में त्रस) प्राणियों के सम्बन्ध में (किया हुआ) श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। क्योंकि वे प्राणी Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कहलाते हैं, त्रस भी तथा महाकाय भी एवं चिरस्थितिक भी होते हैं / अतः आपके द्वारा श्रमणोपासक के उक्त प्रत्याख्यान पर निविषयता का आक्षेप न्यायसंगत नहीं है। श्रमणोपासक द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण काल से लेकर मृत्युपर्यन्त त्याग किया है। वे प्राणी वहाँ से आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर छोड़ कर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादित भूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होते हैं। अतः उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक द्वारा किया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वे प्राणी भी हैं, यावत् दीर्घायु भी होते हैं। फिर भी आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है। [8] श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहणारम्भ से लेकर मरणपर्यन्त त्याग कर रखा है; वे प्राणी श्रायुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ देते हैं। शरीर छोड़ कर वे उसी श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के बाहर ही जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण से मृत्युपर्यन्त त्याग किया हुया है, उन्हीं में पुन: उत्पन्न होते हैं। अतः उन प्राणियों को लेकर श्रमणोपासक द्वारा किया गया प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, यावत् चिरकाल तक स्थिति वाले भी हैं। ऐसी स्थिति में आपका यह कथन कथमपि न्याययुक्त नहीं कि श्रमणोपासक का (पूर्वोक्त) प्रत्याख्यान निविषय है। ८६६-भगवं च णं उदाहु-ण एतं भूयं ण एतं भव्वं ण एतं भविस्सं जण्णं तसा पाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छिज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति, प्रबोच्छिण्णेहि तस-थावरेहिं पाणेहि जण्णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वदहणस्थि णं से केइ परियाए जाव णो णेयाउए भवति / ___ ८६६--(अन्त में) भगवान गौतम ने कहा-(उदक निर्ग्रन्थ !) भूतकाल में ऐसा कदापि नहीं हुआ, न वर्तमान में ऐसा होता है और न ही भविष्यकाल में ऐसा होगा कि त्रस-प्राणी सर्वथा उच्छिन्न (समाप्त) हो जाएँगे, और सब के सब प्राणी स्थावर हो जाएँगे, अथवा स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएंगे और वे सब के सब प्राणी त्रस हो जाएंगे। (ऐसी स्थिति में) त्रस और स्थावर प्राणियों को सर्वथा उच्छेद न होने पर भी आपका यह कथन कि कोई ऐसा पर्याय (जीव की अवस्था) नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान (चरितार्थ एवं सफल) हो, यावत् आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। विवेचन-दृष्टान्तों और युक्तियों द्वारा श्रमणोपासक-प्रत्याख्यान की निविषयता का निराकरण-प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 856 से 865 तक) में शास्त्रकार ने श्री गौतमस्वामी द्वारा प्रतिपादित विभिन्न पहलुओं से युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान की निविषयता के निराकरण एवं सविषयता की सिद्धि का निरूपण किया है। इन दस सूत्रों में श्रमणोपासकों के दस प्रकार के प्रत्याख्यानों का क्रमशः उल्लेख Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 866 ] [211 करके उस प्रत्याख्यान की कहाँ-कहाँ किस प्रकार सविषयता एवं सफलता है, उसका प्रतिपादन किया गया है। (1) कई श्रमणोपासक पांच अणुव्रतों और प्रतिपूर्ण पौषध का पालन करते हैं। वे समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके देवलोक आदि सुगतियों में जाते हैं / त्रसवध-प्रत्याख्यानी श्रमणोपासक का उनके सम्बन्ध में किया गया हिंसा विषयक प्रत्याख्यान इहलोक और परलोक दोनों जगह सफल होता है, क्योंकि इस लोक में वे त्रस हैं ही, परलोक में भी त्रस होते हैं। (2) कई श्रमणोपासक अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा करके पांचों आश्रवों का सर्वथा प्रत्याख्यान करते हैं, वे भी मर कर सुगति में जाते हैं, दोनों जगह त्रस होने के नाते त्रसवध-प्रत्याख्यानी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (3) कई मनुष्य महारम्भी-महापरिग्रही, तथा पांचों आश्रवों से अविरत होते हैं। वे भी मरकर नरक-तिर्यंच आदि दुर्गतियों में जाते हैं। दोनों जगह त्रस होने के नाते श्रमणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (4) कई मनुष्य निरारम्भी, निष्परिग्रही तथा पंचमहाव्रती होते हैं, वे भी यहाँ से आयुष्य छूटने पर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अतः दोनों जगह त्रस होने के कारण श्रमणोपासक का सवधप्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। [5] कई मनुष्य अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही तथा देश विरत श्रावक होते हैं। वे भी मरने के बाद स्व-कर्मानुसार सुगतिगामी होते हैं / अतः उभयत्र त्रस होने के कारण श्रमणोपासक का सवधप्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (6) कई मनुष्य आरण्यक, पाश्रमवासी (कुटीवासी), ग्रामनिमन्त्रिक या राहस्यिक (एका. न्तवासी या रहस्यज्ञ) होते हैं, वे अज्ञानतप आदि के कारण मरकर या तो किल्विषिक असुरयोनि में उत्पन्न होते हैं या मूक, अन्ध या बधिर होते हैं, या अजावत् मूक पशु होते हैं। तीनों ही अवस्थाओं में वे त्रस ही रहते हैं। इस कारण श्रमणोपासक का प्रस-वध प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (7) कई प्राणी दीर्घायु होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब स प्राणी एवं महाकाय तथा दीर्घायु बनते हैं तब उभयत्र त्रस होने के नाते श्रमणोपासक का सवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थक-सविषय होता है। (8) कई प्राणी समायुष्क होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब स होते हैं, तब उभयत्र अस होने के कारण श्रणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थकसविषय होता है। (8) कई प्राणी अल्पायु होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब त्रस होते हैं, तब भी उभयत्र त्रस होने से श्रमणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थक-सविषयक होता है / (10) कई श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो न तो पर्वतिथियों में परिपूर्ण पौषध कर सकते हैं, न ही संल्लेखना-संथारा की आराधना, बे श्रावक का सामाजिक, देशावकाशिक एवं दिशापरिमाण व्रत अंगीकार करके पूर्वादि दिशाओं में निर्धारित भूमि-मर्यादा से बाहर के समस्त त्रस-स्थावर Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [सूत्रकृतगांसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्राणियों के वध से निवृत्त हो जाते हैं। ऐसे श्रमणोपासक त्रसवध का तो सर्वत्र और स्थावर-वध का मर्यादित भूमि के बाहर सर्वथा प्रत्याख्यान करते हैं, किन्तु मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर जीवों का सार्थक दण्ड खुला रख कर उसके निरर्थक दण्ड का प्रत्याख्यान करते हैं, उनका युक्त प्रत्याख्यान निम्नोक्त 6 प्रकार के प्राणियों के विषय में सार्थक-सविषयक होता है-- (1) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, और मरकर उसी मर्यादित भूमि के अन्दर वसरूप में उत्पन्न होते हैं। (2) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, किन्तु मरकर उसी मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं। (3) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, किन्तु मरकर उस मर्यादित भूमि के बाहर अस या स्थावर के रूप में उत्पन्न होते हैं। (4) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, किन्तु उसी मर्यादित भूमि के अन्दर मरकर त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (5) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, और मरकर भी पुनः उसी मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावरप्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (6) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, किन्तु मरकर मर्यादित भूमि के बाहर त्रस या स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (7) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस और स्थावर प्राणी होते हैं, किन्तु मर कर मर्यादित भूमि के अन्दर सप्राणियों में उत्पन्न होते हैं। (8) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस और स्थावर प्राणी होते हैं, किन्तु मर कर मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (8) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस अथवा स्थावर प्राणी होते हैं, और मर कर पुनः उसी मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस अथवा स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / प्रतिवाद का निष्कर्ष-(१) श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान के इतने (पूर्वोक्त) सब प्राणी विषय होते हुए भी उसे निविषय कहना न्यायसंगत नहीं है, (2) तीन काल में भी सबके सब त्रस एक साथ नष्ट होकर स्थावर नहीं होते, और न ही स्थावर प्रारणी तीन काल में कभी एक साथ नष्ट हो कर त्रस होते हैं, (3) त्रस और स्थावर प्राणियों का सर्वथा उच्छेद कदापि नहीं होता।' इन सब पहलुओं से श्री गौतमस्वामी ने उदक निर्ग्रन्थ के द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान पर किये गए निविषयता के आक्षेप का सांगोपांग निराकरण करके उन्हें निरुत्तर करके स्वसिद्धान्त मानने को बाध्य कर दिया है।' 1. सूत्रकृतांग शीलांक बत्ति पत्रांक 420 से 424 तक का सारांश / 2. "एवं सो उदओ अणगारो जाधे भगवता गोतमेण बहूहि हेतुहि निरुत्तो कतो....।" -सूत्र कृ. चू. (मू. पा. टि.) पृ. 254 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 866 ] [213 भगवं च णं उदाहु-'भगवान' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने गौतमस्वामीपरक किया है, जबकि चूर्णिकार ने 'भगवान्' का अर्थ—'तीर्थंकर' किया है। और 'च' शब्द से उनके शिष्य तथा अन्य तीर्थकर समझ लेना चाहिए / 'उदाहु' से अभिप्राय है-श्रावक दो प्रकार के होते हैं—साभिग्रह और निरभिग्रह / यहाँ 'साभिग्रह' श्रावक की अपेक्षा से कहा गया है।' ___'मा खलु मम प्रवाए......"तत्थ वि पच्चाइक्खिस्सामों' का तात्पर्य चूर्णिकार के अनुसार यह है.---'मेरे लिए कुछ भी रांधना, पकाना, स्नान, उपमर्दन, विलेपन आदि मत करना, यह बात अपनी पत्नी या अन्य महिला आदि से कहता है / तथा गृहप्रमुख महिला दासियों या रसोई बनाने वाले रसोइयों से ऐसा संदेश देने को कहती है-मत कराना / अथवा सामायिक में स्थित व्यक्ति द्वारा जो अकर्तव्य है, उसका भी प्रत्याख्यान करेंगे। 'ते तहा कालगता..... सम्म.."वत्तन्वं सिया' का तात्पर्य--चूणिकार के अनुसार इस प्रकार है-वे वैसी पोषधव्रत की स्थिति में शीघ्र प्रभावकारी किसी व्याधि या रोगाक्रमण से, उदरशूल आदि से अथवा सर्पदंश से, अथवा सर्वपौषध में भयंकर तूफान-झंझावात आदि से, या व्याघ्रादि के आक्रमण से, या दीवार के गिरने से कदाचित् कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो क्या कहा जाएगा? यही कहा जाएगा कि सम्यक् (समाधिपूर्वक) काल-मृत्यु को प्राप्त हुआ है; यह नहीं कहा जाएगा कि बालमरणपूर्वक मृत्यु हुई है। 'त्रस बहुतर, स्थावर अल्पतर' का रहस्य-वृत्तिकार के अनुसार-उदक निम्रन्थ के कथनानुसार सभी स्थावर जब वस के रूप में उत्पन्न हो जाएंगे, तब केवल त्रस ही संसार में रह जाएंगे, जिनके वध का श्रावक प्रत्याख्यान करता है, स्थावरप्राणियों का सर्वथा अभाव हो जाएगा। अल्प शब्द यहाँ अभाववाची है / इस दृष्टि से कहा गया है कि स बहुसंख्यक हैं, स्थावर सर्वथा नहीं हैं, इसलिए श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। 1. (क) 'भगवं' तिस्थगरो, 'च' शब्देन शिष्याः, ये चान्ये तीर्थकराः' -सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ. 245 / (ख) भगवं च णं उदाह-गौतमस्वाभ्येवाह—सूत्रकृ. शी. वृत्ति, 2 (क) मा खलु मम अट्ठाए किंचि-रंधण-पयण-हाणुम्मद्दण-विलेवणादि करेघ महेलियं अण्णं वा भणति / कारवेहित्ति-इस्सरमहिला दासीण महाण सियाण वा संदेसगं देति / तत्थ वि पविस्सामो ति एवं पगारे संदेसए दातब्बे, अधवा यदन्यत् सामाइअकडेणाकत व्यं तत्थ वि पच्चक्खाणं करिस्सामो।' --सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टि.) पृ. 245 (ख) “मदर्थं पचनपाचनादिकं पौषधस्थस्य मम कृते मा कार्षीः, तथा परेण मा कारयत, तत्रापि अनुमतावपि सर्वथा यदसम्भवि तत प्रत्याख्यास्यामः / " -सूत्र कृ. शीलांक वृत्ति, पत्रांक 420 3. जे पूण ते तथा पोसधिया चेव कालं करेज्ज, प्रासूक्कार गेलण्णेण सूलादिणा अहिडक्का य, णाणु पोसधकरणेण चेव दंडणिक्खेवो / एवं सध्वपोसधे विज्जणीवातादिएण वा बग्घादीण वा कुड्डपडणेण वा ते कि ति वत्तव्वा सम्म कालगता, न बालमरणेनेत्यर्थः / -सूत्रकृ. चूर्णि, (मू. पा. टिप्पण) पृ. 245 4. सूत्र कृ. शी. वत्ति पत्रांक 416 --सूत्र कृ. चूर्णि (मू. पा. टि) पृ. 246 . Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध कृतज्ञताप्रकाश को प्रेरणा और उदकनिर्ग्रन्थ का जीवनपरिवर्तन ८६७-भगवं च णं उदाहु-पाउसंतो उदगा! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासति मे त्ति मणति प्रागमेत्ता णाणं पागमेत्ता दंसणं आगमेत्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं प्रकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासति मे त्ति मण्णति प्रागमेत्ता णाणं प्रागमेत्ता दंसणं आगमेत्ता चरित्तं पावाणं प्रकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठति / ८६७--(उदक निम्रन्थ के निरुत्तर होने के बाद) भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे कहा"आयुष्मन् उदक ! जो व्यक्ति श्रमण अथवा माहन की निन्दा करता है वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुा भी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को प्राप्त करके भी, हिंसादि पापों तथा तज्जनित पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत वह (पण्डितम्मन्य) अपने परलोक के विधात (पलिमंथ या बिलोडन) के लिए उद्यत है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति श्रमण या माहन की निन्दा नहीं करता किन्तु उनके साथ अपनी परम मैत्री मानता है तथा ज्ञान प्राप्त करके, दर्शन प्राप्त कर एवं चारित्र पाकर पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत है, वह निश्चय ही अपने परलोक (सुगतिरूप या उसके कारणभूत सुसंयमरूप) की विशुद्धि के लिए उद्यत (उत्थित) है। ८६८–तते णं से उदगे पेढालपुत्ते भगवं गोयम प्रणाढायमाणे जामेव दिसं पाउन्भूते तामेव दिसं संपहारेत्थ गमणाए। ८६८-(श्री गौतम स्वामी का तात्त्विक एवं यथार्थ कथन सुनने के) पश्चात् उदक पेढालपुत्र निग्नन्थ भगवान् गौतम स्वामी को आदर दिये बिना ही जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में जाने के लिए तत्पर हो गये। ८६९-भगवं च णं उदाहु-प्राउसंतो उदगा! जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए प्रणुत्तरं जोयक्खेमपयं / लंभिते समाणे सो वि ताव तं प्राढाति परिजाणति वंदति नमसति सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासति / ८६६–(उदकनिर्ग्रन्थ की यह चेष्टा जान कर) भगवान् गौतम स्वामी ने (धर्मस्नेहपूर्वक) कहा-"आयुष्मन् उदक ! (श्रेष्ठ शिष्ट पुरुषों का परम्परागत प्राचार यह रहा कि) जो व्यक्ति (किसी भी) तथाभूत (सुचारित्र) श्रमण या माहन से एक भी आर्य (हेय तत्त्वों से दूर रखने वाला या संसारसागर से पार उतारने वाला) धार्मिक (एवं परिणाम में हितकर) सुवचन सुनकर उसे हृदयंगम करता है और अपनी सूक्ष्म (विश्लेषणकारिणी) प्रज्ञा से उसका भलीभांति निरीक्षण-परीक्षण (समीक्षण) करके (यह निश्चित कर लेता है) कि 'मुझे इस परमहितैषी पुरुष ने सर्वोत्तम (अनुत्तर) योग (अप्राप्त की प्राप्ति), क्षेम (प्राप्त का रक्षण) रूप पद को उपलब्ध कराया है,' (तब कृतज्ञता के नाते) वह (उपकृत व्यक्ति) भी उस (उपकारी तथा योगक्षेमपद के उपदेशक) का आदर करता है, उसे अपना उपकारी मानता है, उसे वन्दन-नमस्कार करता है, उसका सत्कार--सम्मान करता है, यहाँ तक कि वह उसे कल्याणरूप, मंगलरूप, देव रूप और चैत्यरूप मान कर उसकी पर्युपासना करता है। Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 870-873] [215 ___८७०-तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-एतेसि णं भंते ! पदाणं पुग्विं अण्णाणयाए प्रसवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अविट्ठाणं असुयाणं प्रमुयाणं अविण्णायाणं अणिगूढाणं अव्वोगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अणिसट्टाणं अणिजढाणं अवधारियाणं एयमट्ठ णो सद्दहितं णो पत्तियं णो रोइयं, एतेसि णं भंते ! पदाणं एण्णिं जाणयाए सवणयाए बोहीए जाव उवधारियाणं एयम४ सदहामि पत्तियामि रोएमि एवमेयं जहा णं तुम्भे वदह / ८७०–तत्पश्चात् (गौतम स्वामी के अमृतोपम उद्गार सुनने के पश्चात्) उदक निम्रन्थ ने भगवान् गौतम से कहा-"भगवन् ! मैंने ये (आप द्वारा निरूपित परमकल्याणकर योगक्षेमरूप) पद पहले कभी नहीं जाने थे, न ही सुने थे, न ही इन्हें समझे थे। मैने इन्हें हृदयंगम नहीं किये, न इन्हें कभी देखे (स्वयंसाक्षात् उपलब्ध, थे, न दूसरे से) सुने थे, इन पदों को मैंने स्मरण नहीं किया था, ये पद मेरे लिए अभी तक अज्ञात थे, इनकी व्याख्या मैंने (गुरुमुख से) नहीं सुनी थी, ये पद मेरे लिए गढ़ थे, ये पद निःसंशय रूप से मेरे द्वारा ज्ञात या निर्धारित न थे, न ही गरु द्वारा (विस्तत ग्रन्थ से संक्षेप में) उदधत थे, न ही इन पदों के अर्थ की धारणा किसी से की थी। इन पदों में निहित अर्थ पर मैंने श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, और रुचि नहीं की। भंते ! इन पदों को मैंने अब (आप से) जाना है, अभी आपसे सुना है, अभी समझा है, यहाँ तक कि अभी मैंने इन पदों में निहित अर्थ की धारणा की है या तथ्य निर्धारित किया है। अतएव अब मैं (आपके द्वारा कथित) इन (पदों में निहित) अर्थों में श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ। यह बात वैसी ही है, जैसी आप कहते हैं / " 871 -तते णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी-सद्दहाहि णं अज्जो!, पत्तियाहि गं प्रज्जो !, रोएहि णं प्रज्जो !, एवमेयं जहा णं अम्हे वदामो। ८७१-तदनन्तर (उदक निग्रन्थ के शुद्धहृदय से निःसृत उद्गार तथा हृदयपरिवर्तन से प्रभावित) श्री भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहने लगे-आर्य उदक! जैसा हम कहते हैं. (वह मनःकल्पित नहीं, अपित सर्वज्ञवचन है अत: उस पर पर्ण श्रद्धा रखो। आर्य ! उस पर प्रतीति रखो, आर्य ! वैसी ही रुचि करो।) आर्य! मैंने जैसा तुम्हें कहा है, वह (प्राप्तवचन होने से) वैसा ही (सत्य–तथ्य रूप) है। ८७२-तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहव्वतियं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ८७२–तत्पश्चात् (अपने हृदय परिवर्तन को क्रियान्वित करने की दृष्टि से) उदकनिम्रन्थ ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा-"भंते! अब तो यही इच्छा होती है कि मैं आपके समक्ष चातुर्याम धर्म का त्याग करके प्रतिक्रमणसहित पंच महाव्रतरूप धर्म अापके समक्ष स्वीकार करके (आपका अभिन्न-पाचार-विचार में समानधर्मा होकर) विचरण करू।" ___८७३–तए णं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेता वंदति नमसति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [सूत्रकृतांगसुत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इच्छामि गं भंते ! तुम्भ अंतियं चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहव्वतियं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि / तते णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहन्वतियं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति ति बेमि / नालंदइज्जं: सत्तमं प्रज्झयणं सम्मत्तं / / // सूयगडंगसुत्तं : बीनो सुयक्खंधो सम्मत्तो।। ॥सूयगडंगसुत्तं सम्मत्तं // ८७३-इसके बाद (भ. महावीर की परम्परा में अपनी परम्परा के विलीनीकरण की बात सुन कर उदकनिम्रन्थ की सरलता से प्रभावित) भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पहुंचे। भगवान् के पास पहुँचते ही उनसे प्रभावित उदक निम्रन्थ ने स्वेच्छा से जीवन परिवर्तन करने हेतु श्रमण भगवान महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, ऐसा करके फिर वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार के पश्चात इस प्रकार कहा- "भगवन् ! मैं आपके समक्ष चातुर्यामरूप धर्म का त्याग कर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाले धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।" इस पर भगवान् महावीर ने कहा "देवानुप्रिय उदक! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो, परन्तु ऐसे शुभकार्य में प्रतिबन्ध (ढील या विलम्ब) न करो।" तभी (परम्परा-परिवर्तन के लिए उद्यत) उदक ने (भगवान् की अनुमति पाकर) चातुर्याम धर्म से श्रमण भगवान महावीर से सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रतरूप धर्म का, अंगीकार किया और (उनकी आज्ञा में) विचरण करने लगा। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-कृतज्ञताप्रकाश की प्रेरणा और उदकनिर्ग्रन्थ का जीवन परिवर्तन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 867 से 873 तक) में शास्त्रकार ने उदकनिनन्थ के निरुत्तर होने के बाद से लेकर उनके जीवनपरिवर्तन तक की कथा बहुत ही सुन्दर शब्दों में अंकित की है। उदकनिम्रन्थ के जीवनपरिवर्तन तक की कथा में उतार-चढ़ाव की अनेक दशाओं का चित्रण किया गया है--- (1) श्री गौतम स्वामी द्वारा शिष्ट पुरुषों के परम्परागत प्राचार के सन्दर्भ में परमोपकारी श्रमण-माहन के प्रति वन्दनादि द्वारा कृतज्ञताप्रकाश की उदक निम्रन्थ को स्पष्ट प्रेरणा / (2) उदक निर्ग्रन्थ द्वारा श्री गौतमस्वामी के सयुक्तिक उत्तरों से प्रभावित होकर कृतज्ञताप्रकाश के रूप में योगक्षेम पदों की अपूर्व प्राप्ति का स्वीकार तथा इन पदों के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखने की वाणी द्वारा अभिव्यक्ति / (3) श्री गौतमस्वामी द्वारा इन सर्वज्ञकथित पदों की सत्यता पर, प्रतीति, रुचि रखने का उदक निम्रन्थ को प्रात्मीयतापूर्वक परामर्श / Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 873] [217 (4) उदक निर्ग्रन्थ का हृदयपरिवर्तन, तदनुसार उनके द्वारा चातुर्यामधर्म का विसर्जन करके सप्रतिक्रमणपंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार करने की इच्छा प्रदर्शित करना। (5) उदक की इस भव्य इच्छा की पूर्ति के लिए श्री गौतमस्वामी द्वारा उन्हें अपने साथ लेकर भगवान महावीर स्वामी के निकट जाना। (6) भगवान् महावीर के समक्ष वन्दन-नमस्कार आदि करके उदक द्वारा सप्रतिक्रमण पंचमहावतरूप धर्म स्वीकार करने की अभिलाषा व्यक्त करना / (7) भगवान् द्वारा स्वीकृति / (8) उदक द्वारा पंचमहाव्रतरूप धर्म का अंगीकार और भगवान महावीर के शासन में विचरण / ' गौतम स्वामी द्वारा उदक निर्ग्रन्थ को कृतज्ञताप्रकाश के लिए प्रेरित करने का कारण चूणिकार के शब्दों में इस प्रकार है-इस प्रकार भगवान के द्वारा बहुत-से हेतुओं द्वारा उदक अनगार निरुत्तर कर दिया गया था, तब अन्तर से तो जैसा इन्होंने कहा, वैसा ही (सत्य) है' इस प्रकार स्वीकार करते हुए भी वह बाहर से किसी प्रकार की कायिक या वाचिक चेष्टा से यह प्रकट नहीं कर रहे थे, 'आपने जैसा कहा, वैसा ही (सत्य) है, बल्कि इससे विरक्त होकर दुविधा में पड़ गये थे। तब भगवान् गौतम ने उन्हें (कृतज्ञताप्रकाश के लिए) ऐसे (मूलपाठ में उक्त) उद्गार कहे / '2 // नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन समाप्त / / / सूत्रकृतांग-द्वितीयश्रुतस्कन्ध सम्पूर्ण // // सूत्रकृतांग सम्पूर्ण // 1. सूत्रकृतांम शीलांकवत्ति पत्रांक 424 से 427 तक का सारांश / 2. एवं सो उदयो “निरुत्तो कतो, "बाहिर चे ण पउंजत्ति .. वीरत्तण दोण्हिक्को अच्छति गौतमे उदगं एवं वदासि / " --सूत्रकृ. चू. (मू. पा. टि.) पृ. 254 / Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সুনসু-faনীয় স্থানগুপ্ত परिशिष्ट O गाथाओं को अनुक्रमणिका [] विशिष्ट शब्दसूची Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 सूत्रकृतांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्धान्तर्गत गाथानामकारादिक्रम सूत्रांक 772 776 766 2984 768 1774 0 780 778 776 गाथा सत्रांक गाथा 1. अजोग रूपं इह संजयाणं 816 28. णत्थि कोहे व माणे वा 2. अणादीयं परिणाय 26. णस्थि चाउरते संसारे 3. असेसं अवक्खंवयं वावि 783 30. णत्थि जीवा अजीवा वा 4. अहवा वि विद्ध ण मिलक्ख सूले 813 31. पत्थि देवो व देवी वा 5. ग्रहाकडाइं भुति 761 32. णत्थि धम्मे अधम्मे वा 6. अहिंसयं सव्व पयाणकंपी 811 33. पत्थि पुण्णे व पावे वा 7. प्रागंमागारे पारामागारे 801 34. पत्थि पेज्जे व दोसे वा 8. आरंभयं चेव परिग्गहं च 806 35. णत्थि बंधे व मोक्खे वा 9. इच्चेतेहिं ठाणेहि 786 36. पत्थि माया व लोभे वा 10. इमं वयं तु तुम पाउकुवं 797 37. णत्थि लोए अलोए वा 11. उड्ढं अहेय तिरियं दिसासु 800 38. णत्थि साहू असाहू वा 12. एएहिं दोहि ठाणेहि 758 36. णत्थि सिद्धी प्रसिद्धी वा 13. एगंतमेव अदुवा वि इण्हि 786 40. पत्थि सिद्धी नियं ठाणं 14. एतेहि दोहिं ठाणेहिं 756, 758, 760, 41. तं भुजमाणा पिसितं पभूतं 762, 764 42. ते अण्णमण्णस्स वि गरहमाणा 15. एवं न मिज्जति न संसरंति 834 43. दक्खिणाए पडिलंभो 16. कल्लाणे पावए वावि 782 44. दयावरं धम्म दुगुछमाणे 17. गंता व तत्था अदुवा अगता 804 45. दीसंति समियाचारा 18. गोमेज्जए य रुयए अंके 745 46. दुहतो वि धम्ममि समुठ्ठिया मो। 16. चंदणं गेरुयं हंसगब्म 745 47. धम्म कहतस्स उ पत्थि दोसो 20. जमिदं उरालमाहार 763 48. नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं / 21. जे केति खुड्डगा पाणा 756 46. नाकाम किच्चा ण य बाल किच्चा 22. जे गरहितं ठाणमिहा वसंति 837 50. निग्गंथ धम्ममि इम समाही 23. जे यावि बीयोदग भोति भिक्खू 766 51. पण्णं जहा वणिए उदयट्ठी 24. जे यावि भुजंति तहप्पगारं 825 52. पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले 25. णत्थि पासवे संवरे वा 770 53. पुढवी य सक्करा बालुगा य 26. गस्थि कल्लाणे पावे वा 781 54. पुराकडं अद्द ! इमं सुणेह 27. णत्थि किरिया प्रकिरिया वा 772 55. पुरिसे त्ति विण्णत्ति ण एवमस्थि 824 803 999 595 805 812 745 787 Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक 760 222 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय थ तस्कन्ध गाथा सूत्रांक गाथा 56. पुरिसं व वेद्ध ण कुमारकं वा 814 66. सते सते उवट्ठाणे 730 57 बुद्धस्स अणाए इमं समाहिं 841 70. समारभंते वणिया भूयगामं 807 58. भूताभिसंकाए दुगुछमाणा 827 71. समेच्च लोगं तस थावराण 56. महव्वते पंच अणुव्वते य 762 72. समुच्छि जिहिति सत्थारो 757 60. मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता 802 73. सव्वेसि जीवाण दयट्ठयाए 826 61. लद्ध अहठे अहो एव तुब्भे 820 74. साऽऽजीविया पट्ठवियाऽथिरेणं 788 62. लोयं अजाणित्तिह केवलेणं 835 75. सिणायगाणं तु दुवे सहस्सो 815, 822, 63. लोयं विजाणंतिह केवलेण 826 64. वायाभियोगेण जयावहेज्जा 816 76. सियाय बीअोदग इत्थियाओ 65. वित्तेसिणो मेहुण संपगाढा 808 77. सीओदगं सेवउ बीयकायं 763 66. संवच्छरेणावि य....पाणं... अणियत्त ... 839 78. सीतोदगं वा तह बीयकायं 764 67. संवच्छरेणावि य"पाणं.. समणव्व.... 745 68. संवच्छरेणावि य एगमेग Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 सूत्रकृतांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्धार्गत विशिष्ट शब्दसूची विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अकम्मभूमगाणं 732 अगंथा अकम्म 707 अग्गबीया 722 अकम्हादंडे 664 अम्गि 650 अकस्माद 698 अग्गिथंभणयं 718 अकिरिए 682 अग्गे 713 अकिरिया 651, 655 अघत्तं 847, 852 अकिरियाकुसले 747 प्रचित्त 685,738-736, 743, 745 अकिरियावादीणं 717 अचियत्तंतेउरधरपवेसा 715 अकुसल 640, 641 अच्चीए 714 अकेवले 710, 712, 713 अच्चंतविसुद्धरायकुलवंसप्पसूते 646 अकोह 682, 714 अच्छराए अकंटयं 646 अच्छेज्ज अकते 666 अछत्तए अक्खोवंजण-वणलेवणभूयं अजिणाए अखेय(त)ण्ण (न्न) 640, 641, 642, 643 अजीवा अगणि 704 अजोगरूवं अगणिकाएण (णं) 704,710 अज्जवियं 686 अगणिकायत्ताए 743 अज्जो (आर्य) 871 अगणिकायं 666 अझथिए (आध्यात्मिक) 664, 702 अगणिज्झामिते 648 अज्झयणे 638, 664 अगणीण 74-744 अज्झोरुहजोणिएसु 724 अगार 853, 856 अज्झोरुहजोणिय (अध्यारोह योनिक) 724, 731 अगारपरिबूहणताए 666 अज्झोरुहत्ताए 724 अगारपोसणयाए 666 अज्झोरुहसंभवा 724 अगारहे 665,700, 706 724, 726, 731 अगारिणो 764-765 अज्झोरुहेसु 724 अगिलाए 660 अज्झोववण्णा (ना) 706, 713, 800 अगंता 804 अट्ट झाणोवगते 702 9999 ords-wrows 688 अज्झो Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O w w w w 8.xx005 ग्राहे 0 0 अणत्तर 224] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ਬਸੇ 702, 414 अणिजूढाणं (अनि! ढ) 870 अट्ठाए 856, 857 अणिज्जाणमग्गे अट्ठाण अणिठे अट्ठादण्डवत्तिए अणिधण अट्ठादण्डे 666 अणिम्मित (म्मेय) अट्ठि 650, 676, 666, 704, 753 अणियत्तदोस अद्विमिजपेम्माणुरागरत्ता 715 अणिरए 655, 658 अद्विमिजाए 666 अणिसट्ठ 687, 870 अछे 828 अठैसे 646 अणुगमियाणुगमिय अड्ढे 843 - अणुगामिए अणगार 653, 707,714, 802 अणुगामियभावं 706 अणगारियं 848, 853, 856 अणुठ्ठिता 710 अणज्जधम्मा 824 अणुतावियं 847 अणज्जे 840 764,854, 866 अणठाए 865 अणु दिसातो अणट्ठादंडे 664, 666 अणठे 715 अणुधम्मो 821, 827 अणणुताविया 752 अणुप्पगंथा अणतिवातियं 686 अणुप्पण्णसि 714,715 अणभिगमेणं 870 अणुप्पवादेणं 852 प्रणवकखमाणा 857 अणुवट्ठिता 677,686 अणवद (य)ग्ग 716, 720, 755 अणुवधारियाणं अणवलित्ते 761 अणुवरया 677 अणसणाए 714-715 अणुवसंते 664 अणागतं 786 अणुसूयत्ताए-अणुसूयाणं 738 अणाढायमाणे 868 प्रणयाउए 710 अणातिय 720 अणेगभवणसयसन्निविट्ठा 842 अणादि(दी)य 656, 755 अणलिसा 757 अणायारं 754, 756, 758, 760, 764 अणोरपारे 835 प्रणारिय 646, 667,664, 705,710 अणोवाहणए 714 711, 712, 804,818 अणंतकरा प्राणारंभ 713-714,856 अण्णमण्ण 761, 786 अणासव 714 अण्णातिर अण्णविहीए 821 अणिगूढाणं 870 अण्णणयाए 870 Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसची] [225 विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अण्णाणियवादीण 717 अन्न( = अन्न) 688,660,708, 710 अण्णातचरगा 714 अन्न(अन्य) 667 अतिप्रातरक्खे 710 अन्नहा 105 अतिउटटंति 661 अन्नि (अन्याम्) 667 अतिय रंति 846 अपच्चक्खाणी 747 अतीत 80, 707 अपच्चक्खायं 852,856, 858,864 प्रतेणं 66 अपच्छिममारणंतियसंलेहणाभूसिया 857, 865 अत्थी 817 अपडिबद्धा 714 अत्थेहि 802 अपडिविरता 710 अथिर 788 अपत्तियबहले 713 अदि 870 अपरिग्गह 677,713, 714,860 अदिठ्ठलाभिया 714 अपरिभूते 843 अदिण्णादाण 856 अपसू अदिण्णं 701 अपस्सतो 748, 746, 751 अदुक्खं 682 अपासो 752 अदुत्तरं 708, 714 अपुठ्ठलाभिया अदंतवणगे 714 अपुत्ता अद्धमास 713 अपुरोहिता अद्धमासिए 714 अपेच्चा अद्धवेतालि अपंडित 640, 641 अधम्मक्खाइ अप्पकंपा 714 अधम्मपक्खस्स 664,710,713, 717 अप्पडिविरता(य 713, 715, 858, 860 अधम्मपलोइणो 713 अप्पडिहयगती अधम्मपायजीविणो 713 अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे 747, 746, 751 अधम्मलज्जणा 713 अप्पत(य)र(रा)गा 852, 856,858 अधम्मसीलसमुदायारा 713 अप्पणा 861 अधम्माणुया 713 अप्पणो 866 अधम्मिया अप्पतरो 713, 853,854 अधम्म 664,713, 767 अप्प(प)त्त 636, 640, 641, 642, 643 अनिरए 651 अप्पपरिग्गहा 715, 860 अनिव्वाणमग्गे 710 अप्पमत्ता अन्नउत्थिया 645 अप्पयरा अन्नकाले (अन्नकाल) 688,710 अप्पाउया अन्नगिलातचरगा 714 अप्पाण(णं) 714,786, 835, 836 अन्नयर 855 अप्पारंभा 715, 860 ord www. . 714 667 864 Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध Known 00MANN Kn विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अप्पाहर्ट्स 645 अमुत्तिमम्ग 710 अप्पिए 666 अमुयाणं 870 अप्पिच्छा 715, 860 अमेहावी 640-641 अप्पियसंवासाणं 716 अमोक्खाए अबाले 636, 640, 641, 643 अय (अयस्) प्रबोहिए 811, 816 अयगराणं अबोहीए 870 अयगोले अब्भक्खाणायो 683 अयोमएणं अब्भपडल 745 अरई अभितरिया 713 अरणीतो अब्भुट्ठामो 854 अरतीरतीयो 683 अब्भुवगतं 850 अरसाहारा 714 अभियोगेणं 846 अरहंता 680,707 अभिक्कमे 636, 640, 643 अलसगा 710 अभिक्कतकूरकम्मे 710 अलाउयं (अलाबुक:) 812 अभिक्खलाभिया 714 अलूसए 682 अभिगत(य)जीवाऽजीवा 715, 843 अभिगतला 715 अलोभ 682,714 अभिजोएणं 848 अवएहिं अभिझझाउरा 710 अवगजोणियाण अभिणंदह 848 अवगाणं अभिभूय 660 अवगुन्तदुवारा अभिरूवा अवर अभिहडं 687 अवाउडा अभोच्चा 856 अविउस्सिया प्रमई 806 अविण्णायाणं अमज्जमंसासिणो 714 अवितह अमणक्खस्स 748, 746 अविधूणिया अमणामे 666 अविष्पहाय 807 अमणुण्णे 666 प्रवियत्त 640, 641 प्रमाण 682,714 अवियाई 845, 846 अमाया अवियारमण-वयस-काय-बक्क 747,746, 752 अमायं 718 अवियं(अं)तसो आ 655, 657 अमित्तभूत 746-751 अविरए 752 अमुच्छिए 683 अविरति 715 0 xxG00 WWW Wook Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 227 सूत्राङ्काः 748,746 648, 646 747,746, 752 702 714 710 852 764, 855 676, 753 746,854 854 820 748, 846 द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः अविरती 716 असंतएणं अविरते 747,746, 751 असंविज्जमाणे अविविचिया 752 असंवुडे अविसंधि 854 असंसइया अवंझा 656 असंसठ्ठचरगा अव्वत्तरूवं 833 असंसुद्ध अव्वयं 833 अस्माक अव्वोगडाणं 870 अस्समण अव्वोच्छिण्णो 866, 870 अस्सायं(तं) असच्चा 818 अस्सिंपडियाए असण-पाण-खाइम-साइमेणं 715 अस्संजते(ए) असणण 652 अस्संजयस्स असण्णिकाय 752 अहट्ठे असणिणो 751-752 अहणतस्स असण्णिदिटठते 751 अहमंसि असमाहडसुहलेसे 705 अहतवत्थपरिहिते असल्लगत्तणे 710 अहम्मिया असवणयाए 870 अहाकडाई असिलक्खणं 708 अहादरिसियमेव असुभ 666, 713 ग्रहापरिग्गहितेहिं असमुच्छिया 752 अहाबीएणं असव्वदुक्खपहीणमग्गे 710,712, 713, 716 अहारिहं असाहु 816 अहालहुगंसि असाहू(धू) 615, 651, 710, 712, 713 अहालहुसगंसि 716, 780 अहावका(गा)सेणं असिणाइत्ता 856 अहासुहं असिद्धिमग्गे 710 अहिए(ते) असिद्धी 651, 655, 778 अहिंसयं असील अहियासिज्जति असुभा 713 अहिसमेति असूयाणं 870 अहीणं असूई 713 अहे असेसं अहेभागी असंजते (ए) 747,751,752, 822 / अहोनिसं असंजयअविरयापडिहयपच्चक्खायपावकम्मे 751 आइक्खतेण्हं x was w 845 715 723, 732-737 705 704 723, 732-737 873 704,713 800, 817 751 787 Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध आइक्खामि आइक्खियव्व आइगरे आउए पाउं आउत्तं पाउमण्णहा आउयं पाउसरीरं पाउसिणेहं पाउसो पाउसंतेण पाउसंतो 0 KI RKWS 644 प्राता 705, 854, 855 प्रादहणाए 648 आदा (या) णसो 858-862, 865 846 आदाणातो 860, 865 आदाणेणं 707 आदाय 848 आदिकरा 850, 858,859 आदियति / 723 प्रादेसाए 733 आबाहंसि 837, 845, 847, 852 आभागिणो 716, 720 638,664 आभागी 666 845, 848, 841 आमयकरणि 708 853-855, 866, 866 आमरणताए 853, 858, 856, 860, *656, 675 आमलए 650 646, 843 आमलक 650 680, 707 आयछट्ठा 656 710, 713 आयजीविया 788 714 प्रायजोगी 721 680 आयजोणियाणं 640-643, 954, 855 आयते आयत्ताए प्रायदंड 806, 811, 827 पायनिप्फेडए 721 716, 720 पायपज्जवे 648 716, 720 प्रायमणि 708 746, 751, 753 आयरक्खिते 721 866 प्रायरियं 653 प्रायस्स 805, 807 आया 747 721 आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमित (य) 707, 714 721 प्रायाणवं 841 721 आयाणह 853, 855 721 आयाणियब्वं 853, 855 665 आयाणुकंपए 440 आऊ आएहिं आयोगपयोगसंपउत्ते आगमि (मे) स्सा प्रागमिस्साणं प्रागमेस्सभद्दया आगमेस्सा आगम्म पागासे प्रागंतागारे आगंतु आगंतु छेयाए आगंतु भेयाए आचार्य आढाति आणाए आणवेमाणस्स आतगुत्ते आतट्ठी आतपरक्कमे आतहिते आतहेउं 728 721 Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची ] [226 708,861 856, 857 682 840 708 763, 764 747 (746) 722 821 723 710 675 748 718 ग्राहंस 647 मायाणं 731 आसुरियाई आयामेत्ता प्रासंदिपेढियायो आयारसीले 832 प्रासंसं आयारो 661 ग्राहट्ट द्दसियं पायावगा 714 पाहव्वणि आयाहिणं 873 पाहाय कम्म आयाहिते आहारगुत्ते पायबिलिया 714 आहारपरिणा आरणिया 706,712, 861 पाहारिया पारामागारे 801 आहारेंति नाराहेति 714 आहरेमो आरिए (आर्य) 714,715, 716 आहारोवचियं आरिय (आर्य) 646, 667,705, 711, 732, 803 इगालाण पारेण 854, 855 इक्कड़ा आरोप्प (प्रारोप्य) इक्खागपुत्ता प्रारंभठाणे 716 इक्खागा आरंभयं इञ्चत्थतं प्रारंभसमारंभ 710,713 इच्चेवं प्रारंभसमारंभट्ठाणे 716 इच्छापरिमाण प्रारमेणं 710 इच्छामो पालावग 711, 728, 726, 743, इड्ढीए प्रालिसंदग 713 आलु पह इन्हि पालोइयपडिक्कता इत्तरिए पावसहिया 706,861 इस्थिकामभोगेहिं आवसंति इथिकामेहि आविट्ठवेमो इत्थित्ताए आविद्धमणिसुवण्णे इत्थियाओ प्रासण इथिलक्खणं प्रासमस्स इत्थीए आसव-संवर-वेयण-णिज्जर-किरिया-ऽहिकरण- इत्थिगुम्मसंपरिवुडे बंध-मोक्खकुसला 715 इदा (या) णि प्रासालियाणं 735 इमे आसुप्पण्णे 754 इरियावहिए आसुरिएसु 706 इरियावहिया 828 753 856 872, 873 714 इणठे 750 786 703 653 Urmy owowa Wo 064 732, 734 763, 765 708 732-735 854, 855 766 664 707 Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इरियासमित (य) 706, 714 उदगपोक्खले इसि 663, 826 उदगबुब्बुए इसोयं 650 उदगसाला 844 इस्सरकारणिए 656, 662 उदगसंभवा 726, 730 इस्सरियमद 703 उदय (उदक) 636, 640, 641, 645 उक्कापाय 708 726, 730, 731, 740 उक्कंचण 713 741,748 उक्खित्तचरगा 714 उदय 806.810 उक्खित्तणिक्खित्तचरगा 14 उदय (पेढालपुत्रः) 845, 847,848 उक्खूतो 650 851, 870-873 उदयट्ठी 805,806 उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं 688 उदर 675 उग्गह (हि) ए 714 उदसी 650 उग्गा उदाहडं उच्चागोता (या) 646, 667,664 / / उदीण उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणिया- उदीरिया 707 समित (य) 706, 714 उदय उच्चावया 714 उद्दिभत्तं 823, 826 उज्जया उद्धियसत्तू 646 उज्झिउं उद्धियकंटक उठाए 854 उन्निक्खिस्सामि 636-641, 643 उड्ढभागी 736 उन्निक्खेय (त) व्वं 640, 641, 642 उड्ढसालाग्रो 643 उड्ढाण 710 उप्पणि उड़द 800, 817 उप्पायं उण्णिविखस्सामो 642, 643 उब्भिज्जमाणे 635, 733 उत्तरपुरस्थिमे 842, 844 उत्तरातो उरप्परिसप्पथलचरप्पचिदियतिरिक्ख जोणियाणं उदग (= उदक) 713, 726, 740, 741 742 उरपरिसप्पाणं 736, 737 उदग (पेढालपुत्रः) 847, 848, 852, उरभिए 706 867-866 उरभियभावं 706 उदगजाए उरब्भं (उरभ्र) 823 उदगजोणिय 726, 730, 740, 741 / / उरालमाहारं 742 उलूगपत्तलहुया 705 उदगतलमतिवतित्ता 713 उल्लंविययं 713 उदगत्ताए 730, 740, 741 उवकरणं 667 708 642 0ii Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसची ] [231 854 732 0 0 6 GGG 0 0 675 उवचरगभावं (उपरवभाव) 706 एत्ताव उवचरित्त 706 एत्थं उवजीवणिज्जे 710 एलमूयत्ताए (एलमूकत्व) 706, 712, 861 उवजोवंति 718 एवंगुणजातीयस्स 748 उवधारियाणं 870 एसकालं 832 उवलद्धपुण्णपावा 715 एसणासमित (य) 707,714 उववन्ना(ण्णा) णं 846, 847, 851, 852 एसियं 688 उदबाइए 646 प्रोयणं उसिणे 646 प्रोयं (प्रोजस्) 732, 733 उसिणोदगवियडेण 704 अोलोइए 820 उसु (इषु) 668 अोलंबितयं (अवलम्बित) उस्सणं ओवणि हिता उस्सासनिस्सासेहि 714 ओवतणि ग्रोसहभेसज्जेणं ऊसविय (उच्छित्य) 666 प्रोसहि 710, 726, 726, 731 ऊसितफलिहा (उच्छितफलका) ओसहिजोणियाणं ऊसिया ओसा एककारसमे 705 प्रोसोवणि 708 एगखुराणं 734 मोहयकंटक 646 एमच्चा 714,715, 860 ओहयमणसंकप्पे एगजाया 714 ओहयसत्त 646 एगट्ठा 664, 848 अकडुया 714 एगदेसेणं 732, 733 अंके 745 एगपाणाए 852 अंग 708 एगपाणातिवायविरए 841 अंजणं 681 एगंतचारी 787 अंज 677, 766 एगंतदंडे 747, 746, 752 अंड 733, 735 एतबाले 747, 746, 752 अंडए 714 एगंतमिच्छे 710,712,713, 716 अंतचरगा 714 एगंतमेव 789 अंतजीवी 714 एगतयं 760 अंतद्धाणि 708 एगतसम्मे 714, 715,716 अंतरदीवगाणं 732 एगंतसुत्ते 747, 746, 752 अंतरा 636, 640, 641, 643 एतारूव 714, 854, 855 अंतलिक्खं 708 एताव 657 अंताहारा 714 एतावया (एतावता) 806 अंतिए 661,866, 872, 873 702 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध कम्मे ww 714 713 अंतो 713 कम्मभूमगाणं 732 अंतोसल्ले 705 कम्मविवेगहे 811 अंतं 720, 721, कम्मुणा 713, 746, 850 अंदुबंधणाणं 716 740, 748 अंदुयबंधणं (अन्दुकबन्धन) कम्मोवगा 732 अंबिले (आम्ल) कम्मोववण्णगा 723 कक्कसं कम्मोववन्ना 723, 725 कक्खडफासा (कर्कशस्पर्श) 713 कम्मता 713, 715 कक्खडे 646 कयकोउयमंगलपायच्छित्ते 710 कच्छ० भाणियत्ताए 730 कयरे 848 कच्छंसि 666,668 कयविक्कय कट्ठसेज्जा (काष्ठशय्या) 714 कयाइ 754 कडगतुड़ितथंभितभुया करए करणकारवणातो कडगा 713 करतल कडग्गिदड्ढयं (कटाग्निदग्धक) 650 करतलपल्हत्थमुहे कडुए 646 कलम कड़य कलहाओ कढिणा 666 कलुसं कणग 668 कलंबुगत्ताए 730 करणच्छिण्णय __ कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा कण्हपक्खिए 710, 713 कल्लाण 651, 655, 781, 782, 866 कण्हुइराहुस्सिता (या) 706 कबड (कपट) 713 कतबलिकम्मे 710 कवालेण 676, 704, 753 कब्बड० 666 कवि (कपि) 668, 710 कम्म 645, 850, 867 कविजलं 668, 710, 713 कम्मकडाए 732 कवोत (य) ग 668, 710, 713 कम्मकराणं 688,713 कवोतवण्णाणि कम्मकरीणं 688 कसाए 646 कम्मगतिया कसिणं . कम्मगं कसेण 704 कम्मठितिया 746 काऊअगणिवण्णाभा 713 कम्मणिज्जरठ्ठताए 660 काअोवगा 766 कम्मणियाण (निदान) 723, 724, 728, कागणिमंसखावितयं 726, 730, 740, कागिणिलक्खणं (काकिणी लक्षण) 708 741-745 कामभोग 745 कम्मबितिए 703 कामे 808 714 713 Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शन्दसूची] [233 काय 1704, 731, 732,748, 746 कुमुदत्ताए 730 कायगुत्त 707, 714 713, 714 कायजोणियाण 731 कुम्मासं 732 कायमंता 646, 667,664,711 कुराण कायसमित (य) 707,714 कारणछा 688 कुलत्थ (कुलत्थ) काल 857, 861-864 कुलमदेण कालगत (य) 856, 857 कुलालयाणं कालमास 706, 713, 714, 861 कुसल 640, 641, 643, 825, कालेणं 842 कुसा कालेसुतं 668 कुहणत्ताए (कुहनत्व) किचि 856, 857 कड 686 कूडतुल 657 कूडमाणामो 646, 844 कूडागारसालाए कित्तिमा 656 कुरजोणियाणं किब्बिसिय 706, 708 कूरेहि किब्बिसाई 861 केउकरे किब्बिसं 732 केवलिणो 840 किमणगा 710 केवलियं 854 किरिया 651,655, 658, 772 केवलेण 835,836 किरियाठाण 664,700, 702,703, केवलवरनाण-दसणं 705-707 केसग्गमत्थया 648 किरियं 664 केसलोए 714 किलामिज्जमाणस्स 676 केसवुट्ठि 708 कीडा 834 केसा 675 कीतं 687 कोकणत (कोकनद) 714 कोण्डलं कुडल 710 कोद्दवं (कोद्रव) कुक्कडलक्खणं 708 कोरव्वत्ता कुच्चका 666 कोरब्वा 647 713 कोसितो 650 कुमारए 812 कोह 683,702, 713, 746, कुमारकं (गं) 813, 814 773, 846 कुमारपुत्तिया 846 कोहणे 704 कुमारेण 713 कंगूणि 999 Sur 9999 rss Www 0 0 0 moc WWWMMMM.www किट्टए किणं किण्हे 714 O O कुजरो Commu कुट्टण Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 $ $ & खणं 708 गरुयं खलु 234 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध कंटका (ग) बोंदियाए (कटक बोंदिया-देशी) 710 खंधाणं 722 कंठमालकर्ड गगणतलं 714 कंदजोणियाणं गणतो 788 कदत्ताए 723 गणिपिडग कंदाणं गतिकल्लाणा 714 कंदुकत्ताए 728 गतिपरक्कमण्णु 636, 641-643 कंबल 652, 707 गद्दभसालायो कंसपाई 714 गद्दभाण कंसं गब्भ खग्गविसाणं 714 गब्भकरं खणह गमा 746 गयलक्खणं खत्तिए 646 गरहणामो 714 खत्तिय 834 गरुए 646,713 खत्तियविज्ज 708 704, 713 खलदाणेणं 710 गहणविदुग्गंसि 676 गहणंसि खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाण 737 गहाय 718, 873 खाइमेण 652 गहियट्ठा 715 खारवत्तियं 713 गाउसिणं 737 खिसणाप्रो 675 खुड्डगा 756 गामकंटगा (ग्रामकण्टक) 714 खुद्दा 713 गामघायंसि खुरप्पसंठणसंठिता 713 गामणियंतिया 712, 861 खुरुदुगत्ताए 738 गामंतिया 706 खेत्त (य) ण्ण(न) 636, 640, 641 गारस्थ (अगारस्थ) 853 643, 680 गाहावइ (ति) पुत्त 710, 746, 854 खेतवत्थु (त्थू) शि 667, 711 गाहावति 710,746, 843, 844 खेत्तं 846, 854, खेमंकरे 646, 760, 865 गाहावतीचोरग्गहणविमोक्खणयाए 846, 846 खेमंधरे 646 गिद्धा 713,808,824 खोतरस (इक्षुरस) 650 खोराणं गिहपदेसंसि 845 खंत 663, 761 गिहिणो 836 खंधत्ताए 723 गुणे 710, 761816 खंधबीया 722 गुत्त 663, 707,714, 846 714 गाते 666 or mro गिल्लि Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेरुय 745 714 COM Wor or or orm P द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्टशब्दसूची ] [235 गुत्तबंभचारि 707,714 चउप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं गुत्तिदिय 707,714 चउम्मासिए 714 गढायारा 705 चउरतणंताय 206 चउरंस 646, 713 गोधातगभावं 706 गोण चउम्बिहे 706, 710 गोणलक्खणं चक्कलक्खणं 708 गोणसालानो (गोशाला) 710 चक्खु 675 गोत (य) म 245, 846, 848, 051, चक्खुपम्हणिवातं 707 852,868, 870-873 चडग 668 गोत्तेणं 845 चत्तारि 643, 702, 710 गोपालए चम्मकोसं गोपालगभाव 704 चम्मगं गोमेज्जए चम्मच्छेदणगं गोरि (गौरी) 708 चम्मपक्खीणं गोह (गोधा) 713, 736 चम्मलक्खणं 708 गंठिच्छेदए 706 चरणकरणपारविदु (चरण-करण-पारवेत्ता) गंठिच्छेदगभावं 709 चरणोववेया गंठोगा 757 चरित्तं गंडीपदाणं 734 चाउद्दसट्ठदिट्ठपुण्णमासिणीसु 715, 856 857, 865 गंधमंत चाउप्पाइयाणं गंधा 668, 713, चाउरंत (चतुरंत) 720, 776 गंधारि चाउरंतसंसारकंतारं गंधेहिं चारगबंधणं गंभीरा 714 चाउज्जामातो 872, 873 घत्तं 846 चितासोगसागरसंपविट्ठ घरकोइलाणं (गृहकोकिला) 736 चित्त 746, 750 घाण 675 चिरट्ठिती (इ) या 850, 852, 856 घातमाणे 858,862, 865 घराओ 710 चिलिमलिगं (देशो-परदा) 710 घोडगसालानो (घोटकशाला) चेतियं 687, 866 घोरम्मि चेलगं 710 घोलणाणं 716 चोए 650 चउत्थे 642, 647, 668 चोद (य) ए (चोदक) 748,746 चउपंचमाई 706, 713, 853, 854 चोदग (क) 748, 750 G 867 गंडे WM Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छलसे 236 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध चोइसमे 714 जातिमदेण 703 चंडा 713 जायामातावुत्तिएणं 682 चंड 713 जायामाया वित्ती (यात्रामात्रावृत्ति) 714 चंदचरियं 08 जामेव 868 चंदण 745 जाव-जावं 636-641 चंदणोक्खित्तगायसरीरे 710 जावज्जीवाए 713,858,856 चंदप्पभ 745 जिदि॰हिं चंदो 714,833 जितेंदियस्स छज्जीवणि (नि) काय 676, 746, 751 जिब्भा 675 छट्टे 714 जिब्भुप्पाडिययं 713 छणह 651 जीव 648, 676, 714. 838, छत्तगत्ताए 836, 854 छत्तगं 710 जीवनिकाएहिं 746, 751 छद्दसमाई(णि) 713, 853, 854 जीवाणुभाग 820, 821 छन्नपनोपजीवी 821 जीवियट्ठी छम्मासिए 714 जुग्ग (युग्म) 646 जुतीए 714 छहिं 751 जूरण छातायो 675 जूरणताए छाया 675 जोइणा छायाए 714 जोणीए छिन्नसोता 714 जोत्तेण छिवाए 704 जोयक्खेमपय जए 747 जोहाणं जच्चकणगं 714 जतगा 666 जण-जाणवय 645, 667 जंभणि 708 जणवदपिया (जनपदपिता) 646 झंझा (झंझा) 674 जणवदपुरोहिते 646 ठाण 756, 758, 760, 764, 776, जणा 786,837, 846,847, 848, जम्म 713 851,852 जलचरपंचिदियतिरिक्खिजोणियाणं 733 ठाणादीता जहाणा (ना) मए 638, 744 ठितिकल्लाणा 714 जाइमूयत्ताए 706 ठित (य) 811,854 जाततेए 814 डहरगा 737 जातत्थामा 714 डहरा 732, 734,735 जातरूवा 714 णगरघायंसि wr Wornvrrorm M. M0.ru Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची] [ 237 mmm Mr 714 754 666 णपुसगत्ताए 732 णिप्फाव (निष्पाव) गपुसगं 732 णियडि (निकृति) णयणुप्पाडिययं 713 णियडिबहुले णरग 703, 713 णियतिवातिए णरगतलपतिल्टाणे 713 __णियागपडिवन्न (नियागप्रतिपन्न) णरगाभिसेवी 830 णियामरसभोई (निकामरसभोजी) णरं 813 णि (नि)यंठा 845, 853, 854, 855 णवणीयं 50 णिरए णवमें 703 णिरवसेसं णहाए 96 णिरंगणा णाइणं पिलिज्जमाणे 698 णाइहे 665 णिस्साए 706 णाण 836, 837 णीयागोता(या) 667, 664,711 णाणज्भवसाणसंजुत्ता 666 णीले 646 णाणाछंदा णेत्तण 704 णाणादिट्ठी 666 णेयाउए (नैर्यात्रिक) 848, 852, 854, 856 जाणापन्ना णाणारुई 666 सज्जिया (नैषधिक) 714 णाणारंभा 666 णो-किरियं 664 णाणावण्णा 723, 724, 729, 736, 743 मोहवाए 639, 640, 641 745 ___ हाणुम्मद्दणवण्णग 713 णाणाविहजोणिएसु 726, 720 ___ हारुणीए (स्नायु) 696 णाणाविहजोणिय 723, 725, 743, 745 तउय (पुक) 745 णाती 810 तउवमे 805 णातिसंजो (यो) गं 674, 766,806 तक्क 751 णाते 644 तच्चे 641, 667 गायओ 667, 671 तज्जण 713,714, 716 णा(ना)यहे 700, 704 तज्जातसंसटठचरगा णिक्खित्तचरगा (निक्षिप्त चरक) 714 तज्जिज्जमाणस्स 676 णिक्खिवमाणस्स 707 तज्जीव-तस्सरीरिए 653 णिग्गंथ 661 तज्जेह 713 / णिच्चरति तज्जोणिय 723-725-731, 738 णिच्चंधकारतमसा तण 696,668,725, 726, 731 णिज्जिण्णा 707 तणजोणिएस 726. णितिए 680, 815, 826, 830 तणत्ताए णिद्ध 646 तणमातमवि 655,657 714 705 Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..in 6 841 SUPSS) . ou no .. 6 तल 238] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तताओ 675 तहच्चे ततियसमए 707 तहप्पगार 795, 825, 854, 855 तत्थवकम्म(क्कम) 723, 724, 728726, तहाभूत 730, 740-745 ताई (बायी) तत्था 804 ताडिज्जमाणस्स तदुभयं 732 ताणाए तप्पढमयाए 732 ताती (बायी) तमअंधयाए 708 तामरसत्ताए (तामरसत्व) तमोकासिया (तमःकाषिक) 705 तामेव तमोरूवत्ताए 861 ताराहि तयत्ताए (त्यक्त्व) तारिस 816, 840 तयपरियंते 648 तारिसगा (तादृशक्) तया (त्वचा) 674, 704, 723 तालतुडियघण तयाहारियं 723 तालण 713, 714, 716 तरिउं 841 तालुगधाडणि (तालोद्घाटिनो) 708 710 तालेह 713 तव 682,714 ताव तावं तवोमएण 703 तिक्खुत्तो तवोकम्म 705, 715 तिणठे तव्वक्कम्मा(मा) 723 तिपणा तस 676, 846, 851,852,856, 863 तिणि 642, 731 865 तित्तिर 668, 710, 713 तसकाइ (यि) या 746, 753, 779 तित्तिरलक्खणं 308 तसकाय 751,846,851,852 तित्ते 646 तसकायद्वितीया 850 तित्थाययण 855 तसत्ताए 846, 851, 852 तिरिक्खजोगिएस 664 तसथावर 665,684,665,667, 723, तिरियभागी '736 817, 866 तिरियं 800, 817 तसथावरजोणियाणं 738-340, 743, 745 तिविहं 857 तसपाणघाती 713 तिविहेणं 841,856, 857 तसपाणत्ताए 731, 742 तिब्वाभितावी तसभूता 848 तिव्वं तससंभारकडेण 850 तीरट्ठी 663 तसाउयं 50 तुच्छाहारा 714 तस्संकिणो 826 तुब्भ 852, 866, 873 तस्संभवा 723,724, 738 तुभाग 846 855 Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची (236 650 696 तेणं तुला (तुला) 718 दहह 651 तुल्ला (तुल्य) 64,848 दहीग्रो तेउसरीरं 723 दहसि तेऊ 656 दाढाए दामिलि (द्राविड़ी) 708 तेमासिए 714 दारिहाणं तेयसा 714 दास 688,713 तेरस 694, 707 दासीणं तेरसमे 707 दाहिणगामिए 710, 713 तेल्ले (ल्लं) 650 दाहिणं तंती 710 दित्ततेया (दीप्त तेजस्) 714 तंब 745 दित्त (दीप्त) 646, 843 तंसे 649 दिठ्ठलाभिया 714 थावरकाय 851, 852 दिट्ठा 750 थावरकायद्वितीया 850 दिठिवातो थावरत्ताए८४६, 847, 850, 851, 755, 784,797, 798 थावरसंभारकडेणं 865 दिट्ठिविप(प्प)रियासियादंडे 694-666 थावरा 676, 846, 850, 851, 852 दिह्रण 682 थावराउं 850 दिळंत 749 थिल्लि (देशी०) 713 दिया (दिवा) 749-751 थूल 823 दिसा 640,641,643, 714,714, थलग 817 थंभणि 708 दिसोदाह दक्खा दिसीभाए 842,844 दक्षिण 640, 785 दिसं 689,868 दढ्डे दिस्सा दब्भवत्तियं दीणे दयठ्ठयाए 826 दीसंति दयप्पत्ते 646 दीहमद्ध 719, 720 दयावरं दीहे 646 दरिसणीया 638 दीहाउया 862 दविएणं 706 दुक्कडे 651, 655 दवियंसि 666 दुक्ख 713, 718, 753 दव्वहोमं (द्रव्य होम) 708 दुक्खण 710,713 दसणुप्पाडययं 713 दुक्खणताए 751 दसमे 714 दुक्खदोमणसाणं 716 720 708 9 दिस 784 Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रतस्कन्ध 702 दोच्चे दुखुराणं 734 देवी 777 दुगुछमाण 800, 817, 827, 831 देसावकासियं दुग्गइगामिणो 858 देसे 638,846, 848, 852, 853, दुग्गं (दुर्ग) 854, 856, 857, 858, 865 दुट्टे (दुष्ट) 640 दुद्धरिसा (दुर्धर्ष) 714 दोणमुहघायंसि 366 दुपच्चक्खायं-दुपच्चक्खावियं दोमासिए 714 दुप्पडियाणंदा 713, 858 दोस 683, 775, 761 दुप्पणीयतराए (दुष्प्रणीततर) 848 दोहम्गाणं 716 दुब्बलपच्चामित्ते 646 दंडगुरुए 704 दुब्भगाकरं दंडगं 710 दुभिगंधे 646 __ दंडणाणं 716, 720 दुम्मण 702, 704 दंडपासी (दण्डपाशिन) 704 दुरहियास (दुरध्यास, दुरधिसह) 713 दंडपुरक्खडे (दण्डपुरस्कृत) 704 दुरूवसंभवत्ताए 738 दंडलक्खणं 708 दुरुवा 646, 667, 664, 711 दंडवत्तिए 667 दुल्लभबोहिए दंडसमादाण 664-666 दुवण्णा 646, 667, 664. 711 दंडायतिया (दण्डायतिक) 714 दुवालसमे 714 दंडेण 676, 704 दुवालसंग दंडेह 713 दुविहं 713, 846. 851-854, 865 दुवे 751 दंत 663, 666, 761 दुव्वत्ता (दुवता) 713 दंतपक्खालणणं 681 दुस्सीला 713 दंभबहुले 713 732, 734 सण 804, 867 दुहाय धण 668,713 668 धण्णं 668, 713 देव 664, 710, 777 धम्म 652,664,754, 791, 811 देवगणेहिं 715 831, 832,835, 836. 841, 714, 715 854, 872, 873 714, 715 धम्मकहं 645 देवयं 866 धम्मटठी 662 देवलोगा 834 धम्मतित्थं 645 देवसिणाए (देवस्नात) 710 धम्मपक्खस्स 711, 714,715 देवा 826 धम्मविद् देवाणुप्पिया 710, 873 धम्म सवणवत्तियं 854, 855 दंड or xxxa.orm arror दुहत्तो दूसं देवत्ताए देवलोएस Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवे द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची ] [241 धम्माणुगा (या) 714, 715, 856, 860 नाणारुई 708, 718 धम्मिट्ठा 14 नाणारंभा 708, 718 धम्मिय 714, 715, 856,860, 866 नाणावण्णा 723, 724, 730, 738 धरणितलपइट्ठाणे 713 740-742 धरणितलं 713 नाणाविहजोणियाणं 725, 828, 730 धाईणं 688 738, 739, 743 धारए 755 744, 746 धारयते 786 नाणाविहवक्कमा 738, 746 धिज्जीवितं (धिग्जीवितं) नाणाविहसरीरपोग्गलविउविता 723 धिति 713 नाणाविहं 708 धुतकेस-मंसु-रोम-नहा 714 नाणाविहाणं 723, 735, 739 नाणासीला 708, 718 धूणमेत्तं नाणासंठाणसंठिया 723 धूता 671, 699, 713 नाणे 832 धून बहुले 713 नातिसंयोगा 674 धूय मरणाणं 716 नाभिमता ध्या (दुहित) 688, 704 नायो 667 नउलाणं 636 नायगं नक्क-उच्छिण्णयं 713 नायपुत्त 647, 805, 826 नक्षत्त 713 नायहेउ नगर 842 नाया 647 नग्गभाव . 714 नालदाए 843, 844 नपुसगं 733-735 निंदणानो 714 नलिणत्ताए 730 निगमघायंसि 699 नवनीतं निगंथ 644, 715, 846, 847, 806 854, 855 नाकामकिच्चा 803 निग्गंथधम्मम्मि 828 नाणत 735, 737 निग्गंथीयो 644 नाणविहसंभवा 738, 746 निच्चं 750 नाणागंधा 723 निच्छयष्णू नाणाछंदा 708,718 निज्जरा नाणाझवसाणसंजुत्त 618, 708 निज्जारगमग्गं 854 नाणादिट्ठी 708, 718 निज्जियसत्तू नाणापण्णा 708,718 नितिए (नित्य) नाणाफासा 723 निदाए (निदात) नाणारसा 723 निदाणेणं 708 नवं Prom Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध नियम 682 पडिपुण्णुकोसकोट्ठागाराउहधरे नियलजयलसंकोडियमोडियं 713 पडिपुण्णं 714, 713, 854, 856, 865 नियं 779 पडिपेहित्ता 710 निरए 651 पडिबद्धसरीरे 710 निरालंबणा 714 पडिबंध निरावरणं 714 पडिमट्ठादी (प्रतिमास्थायी) 714 निरूवलेवा 714 पडिरूव 638, 640, 641, 642, निरंतररायलक्खणविरातियंगमंगे 643, 811, 842 निलयबंधणं 713 पडिलेहाए निव्वाघातं 714 पडिलंभो 785 निव्वाण 689, 717 पडिविरत (य) 683, 852, 859 निव्वाणमग्गं 854 पडीणं 646, 865 निवेसए 765-781 पडुच्च निम्विगतिया 714 पडुप्पण्णा (ना) 680, 707 निवितिगिछा (निर्विचिकित्सा) 715 पढमसमए 707 निवेहलियत्ताए पणगत्ताए 730 निसणे 641,642 पण्ण 388, 792, 805 निसम्म 845, 854, 869 पण्णत्तारो 647 निस्संकिता 715 पण्णवर्ग (प्रज्ञापक) 748, 846 निहयकंटकं 646 पण्णा 751 निहयसत्तू 646 पण्णामदेण (प्रज्ञामदेन) नेरइए 710 पतत्ताए नेव्वाणं 645 पत्तिय 870, 871 पइण्णं 846 पत्तेयं 674, 749, 750 पउमवरपोंडरीय 638-643, 692 पदाणं 270 पक्कमणि (प्रक्रमणी) 708 पदुद्दे सेणं पक्खी (पक्षी) 834 पदेसे पगाढ 713 पन्नगभूतेणं पच्चक्खाणकिरिया 747 पभाए पच्चस्थिमाओ 641 पभूतं पच्छा (पश्चात्) 732 पमाणजुतं पच्छामेव 862 पयाणे 718, 719 पज्जत्तगा 751 पयलाइयाणं पट्टणधायंसि 699 पयह पडिकोसह 848 पयाहिणं (प्रदक्षिण) 873 पडिग्गह 652, 707 पयं 657 ANG X KKA 687 Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची। [ 243 परिग्गह परकड-परणि द्वितं 688 पलिपागमणचिन्ना 732, 733 परकारणं 664 पलिमोक्खं 717 परग 696, 698 पलिमंथगमादिएहि परधरपवेसे पलिमंथणं परदत्तभोइणो पलंबवणमालाधरा 714 परधम्मियवेयावडियं पवयणं परपरिवायातो पवाल 723, 745 परपाणपरितावण करा 713, 714, 715 पव्वगा 696 [2] परमठे 715 पन्वतग्गे 713 परमदुब्भिगंधा 713 पन्वयगुरुया 705 परलोए 651 पसज्झ 816 परलोगपलिमंथत्ताए 867 पसढविप्रोवातचित्तदंड 749, 750, 752 परलोगविसुद्धिए 867 पसत्थपुत्ता 647 परविद्धत्थं 723 पसत्थारो पराइयसत्त 647 पसवित्ता 713 713, 749, 751,807, पसारेह 856-860 पसासेमाणे परिग्गहियाणि 711 पसिणं परिणायसंगे पसुपोसणयाए परिणातकम्मे 678, 693 पसंतडिंबरमरं 646 परिण्णाय 755 पसंता 714 परिण्णायगिहवासे 693 पहीण 639, 643 परित्ता 804 पहीणपुव्वसंजोगा 666 परिनिव्वड 682, 711 पाईणं 646, 865 परिमितपिंडवातिया 714 पाउकव्वं परिमंडले 646 पाउं 797 परियागं 665 पागब्भिया 652 परिवारहे 695, 701, 708 पागासासणि 708 परिविद्धत्थं 723 पाडिपहिए 709 परिव्वाया, परिवाइया (परिव्राजक) 855 पाडिपहियभावं 709 परिसा (परिषद्) 646, 713 पाण 652,684,688,690, 708, परिसहोवसग्गा 718, 816,847, 852, 856, परेणं 855 857, 863, 865 पलालए 696 पाणकाले 688,710 पलिक्खीणं (परिक्षीण) 850 पाण-भूत-जोव-सत्त 861 पलिता 675 पाणवहेण 7yo murar Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 705 244 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाणाइ(ति)वात(य) 681, 713-715, पितिमरणाणं 716 749-751, 856, 857 पाणि 718 पित्ताए पाणितले 820 पिन्नागबुद्धीए पाण 688,710, 839, 840 पियविप्पोगाणं पातरासाए (प्रातराश) 688 पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं 715 पाति 718 पुडरीगिणी पादतला 648 पु (पो) क्खरणी पामिच्चं 687 पुक्खरपत्तं 714 पायच्छिण्णयं 713 पुक्खलत्ताए 730 पायच्छितं 705 पुक्खलस्थिभएहि 731 पायपूछणं 652, 707 पुक्खलस्थिभगजोणियाणं पाया पुक्खलस्थिभगत्ताए 730 पारविदु 693 पुक्खलथिभगाणं 730, 731 पाव 747,748, 766, 781, 725, 867 पुलाभिया 714 पावकम्मे पुट्ठा पावयणं 715,854 पुढविकाइ (यि) या 676, 746, 751 पावसुयज्झयणं 753 पावाइणो पावाइयसताई पुढविकाय 717 पावइया 718 पुढविजोणिया 723, 725, 728, 726 पावियाए 748 731 पासो 748 पुढवित्ताए 745 पासाई 704 पुढविवक्कमा पासादि (दी) या पुढविसरीरं 723, 724, 733, 735 पासावच्चिज्जे (पापित्यीय) 845 पुढविसंभवा 723, 725, 725 पिईहिं 666 पुढवी 656, 723, 725, 728 पिउं सुक्कं 734 पुढवीजाते 696 पुढवीसंवुड्ढा 660 पिट्ट(ड्ड)ण 713 पुढो 688 पिट्टणताए 751 पुढोभूतसमवातं 656 पिट्ट (ड्ड) ति (ते) 710 पुण्णखधं 815, 826 पिट्ठिमंसि 704 पुण्ण 766,836 पिण्णागपिंडी (पियापिडी) 812 पुत्त 671, 688, 666, 704, 713 पिण्णाए 650 [6] पुत्तमरणाणं 716 पिण्णायपिंडी 214 पुत्तपोसणयाए 666 [2] पिता 671, 713 पुष्फत्ताए 723 पिच्छाए Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AWW 714 708 पंचमे 646 पंजरं द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची ] | 245 पुरत्था 865 पेमरसेसु 808 पुत्थिमातो 636 पेसुण्णायो 683 पुराकडं 787 पेसा (से) (प्रष्य) 671, 71 पुराणं पेस्सा 834 पुरिमड्ढिया 714 पोंडरिय 638, 711,730 पुरिस 636, 732-736, 812, 813, पोयए 818, 833, 840 पोयं पुरिसअभिसमण्णागता 16. पोरबीया 722 पुररिसयासीविसे पोसह (ध) 715, 856, 865 पुरिसज्जा (जा) ए(ते) 336, 640, 641 पकबहुले 704,713 पंच 710, 762 पुरिसत्ताए 732, 734 पंच पंचमहन्भूतिए 654, 658 पुरिसपज्जोइत्ता 660 पंचमहव्वतियं 872, 873 पुरिसप्पणीया 660 पंचमासिए 714 पुरिसलक्खणं 666 पुरिसवरगंधहत्थी 646 पंचासव 792 पुरिसवरपोंडरीए 661 पूरिसवरे 646 पंडित (य) 636, 640, 643, 716 पुरिसविजियविभंग पंतचरगा 714 पुरिससीहे पंतजीवी 714 पुरिसादीया पंताहारा 714 पुरिसोत्तरिया 660 पंसुवुट्ठि (पांशु वृष्टि) पुलए 745 फरिस पुब्बकम्मावसेसेणं फरसं पुव्वसंयोगं फलगसेज्जा 714 पुवामेव फलत्ताए 723 पुवाहारितं (यं) फलिऐ 745 पुव्विं 870 फासमंता पुव्वुत्तं फासा 668, 675, 683,714 पुव्वं 820 फासुएसणिज्जेणं 715 पूयणाए 652 बद्धा 707 पेगता 732-735 बल 683, 715 बलमदेण पेज्जाओ 366 बलवं पेढालपुत्तं 845-848,851, 852 बहवे 638,750,801 868,870-873 बहस्सइचरियं 161616 GW.MR0 पेज्ज 708 Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वहिया 842,844 बुइय 638, 645 814, 821, 828 816 768 677, 754 682, 714 806 803 671, 619, 704, 713 اللهم To 853 671, 666, 704, 713 716 647 647 बहुउदगा 638 बुद्धिमंता बहुजणबहुमाणपूतिते 646 व्य बहुजणस्स 843 बोहीए बहुजण्णमत्थं 788 बंधणपरिकिलेसातो बहुतरगा 852, 856, 858, बंधे 862-864 बंभचेर वहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूते 646 बंभचरेवासं 843 भवति बहुपडिविरया 706, 861 भएणं वहुपुक्खला 638 भगिणी बहुसेया 638 भगिणीमरणाणं बहुसंजया 706,861 भग्गे बहूण भज्जा वाणेण 38 भज्जामरणाणं बादरकाए / 745 भट्टपुत्ता बारसमे 706 भद्रा बाल 640, 641,664,716, भत्तपाणनिरूद्धियं 746, 752, 824 भत्तपाणपडियाइक्खिया बालकिच्चा 803 भत्तीए बालपंडिते 716 भत्त बावीसं 714 भयए वाहा 675 भयं बाहिरगमेतं 671, 675 भयंतारो बाहिरिया 713, 842, 843, 844 भवित्ता बाहि 713 भव्य 707 भाइमरणाणं 688 भाइल्ले (भागिक) बीएहिं 731 भाईहिं बीओदग 765 भाणियव्व बीओदगभोति 766 भातीहिं बीयकाया 722 भाया बीयकायं 763, 794 भारोक्ता बीयजोणियाणं 731 भारंडपक्खी बीयाणं 723, 724 भासुरबोंदी 9 9 xmox बितीयसमए बिलं 753 647 856, 857, 865 ওওও 719 713 704 726, 736 666 671, 713 710, 714 714 714 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिरिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची ] 247 713 714 WI भासंति भासं भासाम्रो भासापरक्कमे भासामो भासाय भासासमित (य) भिद भिक्खलाभिया भिक्खायरियाए भिक्खगाणं भिक्खुणो भिक्खुमज्झे भिक्खयाणं भिक्ख भिक्खं भिसिग भीते भुयमोयग भूएहि भूताभिसंकाए भूमिगतदिट्ठीए भूमिसेज्जा भूय भूयगाम (भूतग्राम) भूयाभिसंकाए भे (भो:) भेत्ता 708, 847 भोयणटठा 505 847 भोयणपवित्थरविहीतो 713 705 भंडगं 710 846 भंते 870, 872, 873 854 मउए 646 791 मउली 707,714 मए 648 मक्खायं 723, 724 मग्ग 636, 799 667, 668 मग्गविद् (ऊ) 636, 640, 641, 643 815 मग्गत्थ 636, 640, 641, 643 784 मच्छाण मच्छियभावं 706 मच्छं 706 643, 693, मडंबघासि 796 मण 751, 825 710 मणगुत्त 707,714 801 मगवत्तिए 748 745 मणसमित (य) 707, 714 847 मणि 668,710, 713 827 मणुस्स 646, 706, 713, 732 702 734, 846, 858-860 714 646 मणूसा 801 807 मणेणं 748, 746 800, 817 मणोसिला 745 848 मण्ण 641, 674 013, 805 848 मत्तगं 710 713 मत्त 703 706, 710,713 मदाणेणं 647 मद्दवियं 689 713 मन्न (गणे) 640, 641, 642, 643 647 मम 856, 857 708 मम 667 815, 822, 829, 830 ममि 667 __ मणुस्सिदे मति भो भोग भोगभोगाई भोगपुत्ता भोगपुरिसे भोगा भोम्म भोयए Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध 714 मयणग 618 महंत 636, 640, 641. 833 मर 674 महंतसत्ता 815 मरयग 745 माइमरणाणं 716 मलियकंटक माईहिं 668 मलियसत्तू 646 माउं प्रोयं मल्लालंकारातो 713 माउं गाउसिणं 737 मसारगल्ले 745 माणवत्तिए 664, 703 मसूर 713 माणाम्रो महज्जुतिएसु 714, 715 माणी 703 महज्जुतिया माणे 702, 773 महब्बलेसु 714 माणुस्सगाई 710 महन्भूत 655 मातपणे 686 महताउ माता 671, 713 महतिमहालयसि 710 मातुपायं 732 महया 864 मातु खोरं 732-734 महयानो 857 मातीहि 704 महब्बते 762 मामगं 652 महाकाया 850, 852, 857, 858 862-865 माया 683, 702, 713,774 महागयं 838 मायामोसायो 683 महाजसेसु 714 मायावत्तिए 664, 705 महाणुभावेसु 714 मार 703, 713 महापरक्कमेसु 714 मारियाणं 823 महापरिग्गहा 713, 858 मारेउ 838 महापोंडरिय मास 713 महाभवोघ मासिए 714 महारंभा 713, 858 माहण 647, 663, 706, 710, 711, 768 महावीर 644, 873 826, 834, 847, 867, 866 महासुक्खा 714,715 माहणपुत्ता 647 महासोक्खेसु 714 मिढलक्खणं 708 महिच्छा 713, 858 मिगं 704 महिड्ढिय 714, 715 748 महिया 736 मिच्छादंड 713 महिस मिच्छादसणसल्ल 683,713, 746-751 646 मिच्छायारा 752 महोरगाणं 735 मिच्छासंठिए 747 640 मिच्छोवजीवि 785 & ww x मिच्छा महुर महं Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मियवहाए 715 لي و و द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शन्दसूची ] [ 249 मित्त 666 मूलाणं 723,724, 731 मित्तदोसत्तिए (मित्रदोष-प्रत्यया) 664, 704 मूलं 713, 731 मूसगाणं मित्तहे मेतज्जे 845 मिय 698,713 मियचक्क (मृगचक्र) 708 मेधा (हा) वी 636-641, 643, 664, 785 मियपणिहाणे .668 मेहाविणो 801 668 मेहुण 256 मियवित्तिए (मृगवित्तिक) 668 मेहुणवत्तिए 732 मिलक्खु (म्लेच्छ) 732, 813 मोक्खं 768,717 मिस्सगस्स मोत्तिय 668, 710, 713 मीसगस्स मोरका मियसंकप्पे मोसवत्तिए 664, 700 मुइंगपडुप्पवाइतरवेणं मोहणकरं मुएण 682 मंगल मुक्कतोया 714 मंगुसाणं 736 मुग्ग मंडलिबंध 717 मुगुदग (मुकुन्दक) मंदरो मुच्छिया 650, 713, 823 मुजानो (मुजा) मंसाए मंसानो 650, 653 मुट्ठीण 676, 704, 753 मंसवुट्ठि मुडणाणं 716 रएणं 824 मुडभावे 714 रण्णो 746 मुंडा 846, 853,856, 857, 865 रात मुणी 663, 828 रत्त मुत्तिमांग 854 रयण मुत्त 663 रस 668, 683,713, 8 824 मुद्धाभिसित्ते रसभोई मुदिए रसमंत मुसावाद 856 रसविहीरो (विगईओ) 732 700 रह मुहुत्तगं 736 राईणं 688 मूलजोणियाणं 731 राम्रो 746 मूलत्ताए 723-725 रागदोसत्ता मूलबीया 722 रातो 750, 751 له م له و 713 मंस و मुजो 650 o WM 15 99 or ur Or,, arrrrrr 15 मुस 713 Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 0 646 लिग Hill door रायगिह 842 लावग 668,710, 713 रायपुर 746 लावगलक्खणं राया लिंग रायाभियोगेण 803 लुक्खे रालयं लूहचरगा रिद्धिस्थिमितसमिद्ध लहाहारा रुइला (ले) (रुचिर) 643, 663 रुक्ख (रुक्ख-वृक्ष) 660, 713, 723, 726 लेए 843 730 लेच्छइपुत्ता (लिच्छविपुत्र) रुक्खत्ताए 723, 726 लेच्छई (लिच्छवि) रुक्खजोणि 723, 724, 736 लेण (लयन) 688, 660, 708, 710 रुक्खजोणिय 723, 724, 721 / लेणकाले 688,710 रुक्खवक्कमा 723, 724 लेयस्स रुक्खसंभवा 723, 724 लेलूण (लेष्टु) 676, 704, 753 लेसणि (श्लेषणी) 708 रुप्प 745 लेसाए रुयए 746 लोए 765, 800, 837 रुहिरवुट्ठि 708 लोग 645, 760 रूव 668, 683, 713, 714, 766 लोभ 783, 774, 8.46 रूवमएण 703 लोभवत्तिए 664, 706 रूवगसंववहारामो 713 लोमपक्खीण 737 रोइयं 870 लोमुक्खणणमातं 676, 753 रोएमि 870 लोय 645,835, 836 रोएहि 871 लोलुवसंपगाढे 830 रोगातं (यं) क 666, 672, 673 लोहित (य) पाणि 713, 822 लपंडसाईणो (लगण्डशायी) 714 लोहिते 646 लग्गा 836 लोहियक्खे 746 लट्ठि 710 751 लद्धपुन्वं 672 वइगुत्त 707,714 लद्धावलद्ध-माणावमाणणाओ 714 वइरे लयाए 745 704 लवालवा वइवत्तिए 748 लवावसक्की 762 वइसमित (य) 707,714 लहुए 646 वग्घारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे 710 लहुन्भूया 714 वच्चा (उक्त्वा) 636, 718 लावियं 686 लाभमदेण 703 वज्भ (वध्य) 783 55 Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nur wwwwww द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची ] [ 251 वज्झा 783 वाउसरीरं 723 वट्टग (वर्तक) 668, 710, 713 वाऊ वट्टगलक्खण 708 वागुरियभावं (वागुरिकभाव) वणलेवणभूयं 688 वातपरिगतं वणविदुग्गसि (वनविदुर्ग) 666, 698 वातसंगहितं वणसंड (वनषण्ड) वातसंसिद्ध 736 वणस्सइ (ति) सरीरं 723 वाय (वात) 818, 816, 825 वणस्सतिकाइया 751 वायत्ताए वणस्सतिकायं 733-737 वायसपरिमंडलं वणिया (वणिक) 807-808 वायाभियोगेण वष्ण 675, 714 वण्णमंत 638 वालाए वतीए 748, 746 वालुग वत्तियहेउं (वृत्तिकहेतु प्रत्ययहेतु) 666 वालयत्ताए 745 वत्थ 652, 688, 663, 708, 710 वास 713, 801, 838,853, 854 वत्थकाले 688,710 वासाणियत्ताए 728 वत्थपडिग्गहकंबलपायपुछणेणं 715 वाहण वत्थ 668 विगत्तगा (विकर्तक) वधाए 668 विगुणोदयंमि 713 वब्भवत्तियं 713 विचित्तमालामउलिमउडा 714 वमण 681 विचित्तहत्थाभरणा 714 वम्मिए 660 विच्छड्डित (य) पउरभत्तपाणे 646, 843 वयणिज्जे 663 विज्जायो वयणं विणिच्छियट्ठा (विनिश्चितार्थ) 715 वयं 838 विण्णाएण 682 वराह 713 विण्णु (विज्ञ) 674, 664 वसणुप्पाडिययं 713 विततपक्खीणं 736-737 वलयंसि 666 वित्ति (वृत्ति) 713, 745, 838 वलितरंगे 605 वित्ते (वित्तवान्) 646, 843 ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं 646 वित्तेसिणो वसलगा (वृषलक) 710 विदू (विद्वस्) वसवत्ती 682 विद्ध 812, 813 बसाए 666, 714 विपरामुसह वहबंधणं 713 विपरियणं 723 वाउकायं 735 विपुलं वाउक्कायत्ताए 744 विपरियास (विपर्यास) WWWAKRc 708 816 713 Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेर 252 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विभंगे 664,710-713,715,717 वेत्तण 704 वियक्का (वितर्क) 805 वेदणा 674, 713 वियत्त (व्यक्त) 636, 640, 641, 643 वेमाया (विमात्रा) 707 वियंजियं (व्यजित) 661 वेयणा 771 वियंतिकारए (व्यन्तकारक) वेयणं 664 विरताविरति 716 वेयवानो (वेदवाद) 829 विरति 716, 762 वेरबहुले विरसाहारा 666,782 विरालियाणं (विरालिका) 736 वेरायतणाई 713 विरुद्ध 710 वेरूलिए (वैडूर्य) 746 विरूवरूव 651, 708,710 / वेस (वैश्ये) 834 विलेवण 713 वेसियं (वैशिक) 688 विवज्जगस्स 761 वंचण 713 विवेगं 665 वंजणं 708 विवेयकम्मे 678 सपट विसण्ण 636, 640, 743 सउणी (णि) (शकुनि) विसमं सकामकिच्चेण 803 विसल्लकरणि (विशल्यकरणी) सकारणं 664 विसंधी 675 सकिरिए 747, 746, 755 विस्संभ राण 736 सक्करा (शर्करा) 742 विग 714 सगड (शकट) 713 विहाण 665 सचित्त 685, 737, 739, 743, 744, विहारेणं 714,854, 755 745 विहिंसक्काई 753 सच्चं 854 विहुणे 806 सच्चामोसाई 706, 861 वीरासणिया 714 सछत्ताए 728 वीसा 713 सज्झत्ताए 728 वीहासेणिया 714 सड्ढी (द्धिन्) 647, 654, 656 वीहि (ब्रीहि) 668 सणप्फयाणं (सनखपद) 734 वीहिरूसितं सणातणं वुड्ढ 733, 734, 735 सण्णा 674, 751 बत्तपूव्वं 846, 853, 856, 857, 865 सण्णिकायापो 752 वसिम (वृषिमत्) 800 सण्णिकाय 752 वेगच्छ (च्छि) प्रणयं 713 सणिणो वेण इवादीणं 717 सण्णिदिठं 751 वेतालि 708 सण्णिधिसंणिचए Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [253 हित्तीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची] सद्द 664 समं न) 523 सणिचिदिया 751 समाउमा (समायुष्का) सण्णं 765,781 समादाए 746-750 सतंता 656 समाहि (समाधि) 841, 842 सत्तमे 700 समाहिजुत्ता सत्थपरिणामितं (शस्त्रपरिणमित) 688 समाहिपत्ता 715 सत्यातीतं 688 समित (य) 707, 747, (746), 804, सत्थारो (शास्तारः) 757 समियाचारा 784 सदा जते 747 (746) समुक्कसे 703 643, 668, 683, 713 समुग्गपक्खीणं (समुपक्षी) 737 सद्धि (सार्द्ध म्) 666, 704 समुदाणचरगा 714 सनिमित्त 644 समुद्द 820, 841 सन्निवेसघायंसि 837 सपडिक्कमणं 872, 873 सयण 688, 660, 708,710, 713 सपरिग्गहा 677, 678 सयणकाले 688, 710 सपुवावरं 710 सरडाणं (स सप्पि 732, 734 सरथाण 736 सपिप्पलीयं सरलक्खणं 708 सप्पुरिसेहि 764 सरीरजोणिया 746 सभागतो 788 सरीरवक्कमा 746 समएणं 842 सरीरसमुस्सएणं 750 समठे 750,855 सरीसंभवा 745, 746 समण 644, 647, 693, 706, 710, सरीराहारा 746 719, 787, 790, 792,795, सरीरे 768, 805, 806,846, 847, सल्ल 855, 857, 867, 869, 873 सल्लकतणं 854 समणक्ख (समनस्क) 748 सवाय 840, 845-848, 851, 852 समणगा सव्वजीव 852 समणमाहणपोसणयाए 696, 699 सव्वजोणिया 752 समणमाहणवत्तियहेउं सव्वत्ताए समणव्वतेसु 840 सव्वदुक्ख 720, 721, 783, 854 समणोपासग 846, 851, 852. 853 सव्वपाण ___ 852, 854, 865 856-865 सव्वपाण-भूत-जीव-सत्त हिं 706, 865 समणोवासए (श्रमणोपासक) 843, 847 सवपयाणुकंपी 811 समणोवासगपरियागं सव्वप्पणताए 723 समत्तरूवो सव्वप्पणाए 723 समत्त सव्वफासविसहा 714 Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध 710 718 854 682 00 orm Yw 646 सव्वभूत साहम्मिय 687 सब्वरातिएणं साहम्मियवेयावडिय सव्वसत्त 852, 854, 565 साहसिया सस्साई 710 साहुजीविणो 784 सहपासियं 709 साहम्मियं 687 सहसक्कारेह 651 साहू (धू) 651,655, 714, 715, 780 सहस्से 815, 822, 826 सिंगाए (ग) सहेउं 644 सिणायगाणं 815, 822, 826, 830 साइबहुलं 713 सिणेह (स्नेह) 723, 734,741 साइमेण 652 सिते साउणिए (शाकुनिक) 709 सिद्धि 651, 778, 776 साउणियभावं 709 सिद्धिमग्गं सागणियाणं 718 सिद्ध ' सागरो 714 सिरसाहाते सातिमणंतपत्ते 810 सिरीसिव सातिसंपयोगबहुला 713 सिलोग साबरि 708 सीओ(तो)दगं सामगं 698 सीमंकरे सामण्णपरियागं 714 सीमंधरे 646 सारदसलिलं 714 सीय 713. सामाइयं 865 सीलगुणोववेते 828 सामुदाणियं 688 सिलप्पवाल 668, 713 सायं 713 सीलं सारयति सीसग 745 सारूविकडं 723, 724, 732, 736 सोसं 675 सालत्ताए 723 सोहपुच्छियगं (सिंहपुच्छितक) 713 सालाण 723 सोहासणंसि 710 सालि 698 सीहो सावइसारो 717 सुइब्भूया सावगा सावज्ज 666, 701-707,713-715 सुसुमाराणं सावज्जदोसं सकडे सावतेयं (स्वापतेय) सुक्किले सासगंजणं 745 सठिच्चा सासत 528, 832, 841 656, 680 सॅणगं 709 सासतमसासते 755 Kण्हा 671,688, 666, 704,713 99999) www mr >> هل لدم सुएण 826 सक्करियं 708 Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दसूची] [255 714 orlmmom 714 सुवण्ण सुण्हामरणाणं 716 सेज्जेसे 854, 855 सुत्त 746, 750, 751, 802 सेणावतिपुत्ता 647, 654, 656 सुद्धहियया सेणावती 647 सद्ध सणिया 114 सेयकाले 707 सुद्धोदगाणं सेलगोल (शैलगोल) 852, 857, 858,865 सेवउ सुप्पडियाणंदा 714-715 सेवालत्ताए सुप्पणीयताए सेसदवियाए (शेषविका) सुब्भिगंधे 646 सेहाण सभगाकरं 708 सोंडीरा सुमणा 704 सोगंधिए 745 सुमह 815, 826 सोगंधियत्ताए 730 सुयमदेण (श्रुतमदेन) 703 सोग्गतिगामिणो 856, 860 सुया 750 सोच्चा 845, 866 सुराथालएणं सोणइए 706 सुरूवा 646,667, 664 711, सोणियाए 646,667, 668, 694, 711 सोतायो 713, 745 सोमलेसा 714 सुवयणं (सवचन) 866 सोयण (शोचन) 710, 713 708, 747, 746, 751, 752 सोयणताए (शोचनता) 751 सुव्वता (या) 714, 715 सोयरियभावं (सौदर्यभाव) 706 सुसंधोता 675 सोवियं (शौच) 686 सुसाहू 714 सोयं (श्रोत्र) 675 सुसीला 714, 715 सोवणियभावं (शौवनिकभाव) 706 सुस्सूसमाणेसु 686 सोवणियंतिए सही सोवणियंतिय (शौवनिकान्तिक) 706 सुहुतहुयासणो 714 सोवरिए 706 सुहुमा 707,866 सोवागि (श्वपाकी) 708 सूर 714,831 सोही 821 सूरकंतत्ताए संख 668, 713 संखाए 670 संखादत्तिया (संख्यादत्तिका) 714 714 713 संखं 713,849 सूलाभिण्णयं 713 संगइयंति (सांगतिक) सेउकरे 646 संग 807 सेए 636, 640, 641 संघाएण 714 सुविणं مر مر सूरकते सूरचरियं संखो सूलाइयं Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 730 WWW 0 . xKM 256] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय तस्कन्ध संघायं 664 ससुद्ध 854 संजए (ते) 786, 854 हडिबंधणं (हडिबन्धन) 713 संजमजातामातावुत्तियं (संयम यात्रा मात्रा वृत्तिका) हढत्ताए (हठत्व) 688 हत्था संजमेण 714-854 हत्थच्छिण्णयं 713 संजलण 704 हत्थिजामे (हस्तियाम) संजूहेणं (संयूथेन) हयलक्खणं संजो(यो)गे 732, 724 हरतणुए (हरतनुक) संडासगं (संदंशक) हरिए(ते)हि संडासतेणं हरियजोणियाणं 731 संतसार हरियाण(ण) 727, 726, 731 संता संतिमगं (शान्तिमार्ग) हरियाले 745 हव्वाए 636,640 संतिविरति संदमाणिया (स्यन्दमानिका) हस्समंता 667 हारविराइतवच्छा संधिच्छेदगभावं 714 हालिद्दे 646 संधी संपराइयं हिंगुलए 747 संपरायंसि हिंसादण्डवत्तिए 667 संपहारेत्थ हिंसादंडे 664, 667 818 हिमए (हिमक) 736 संभारकडेण हियइच्छितं 710 संवच्छरेण 838-840 हिययाए संवरे ওও हिययुप्पाडिययं 713 संवसमाणे 704 हिरण 668, 713 संबडस्स 706 हीणे संसठ्ठचरगा 714 हीलणाग्रो 714 संसठ्ठ 732 हेउ 676, 746, 807 संसार 835 हंता( = हन्ता) संसारकंतारं 720 हंता (हन्त !) 853-855 संसारिया (सांसारिक) 846, 851, 852 हंसगब्भ 745 संसारियं 718 ह्रस्समंता (हस्ववत्) 646, 664, 711 संसारे 776 हस्से (ह्रस्व) 746 .9 Purpurur U19 murror संभवो Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए प्रागमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है / मनुस्मृति प्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्त, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्धाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा--अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चरहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पडिमाते, पच्छिमाते, भज्झण्हे, अड्ढ रत्त / कप्पड़ निम्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा--पुव्वण्हे, अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण को हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-4. गजित-विद्य त्--गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः पार्दा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्यात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है / 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 6. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। प्रौदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार पास पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि ---मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ,मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्य ग्रहण होने पर भी क्रमश: पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. पतन--किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-पाषाढपूणिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वालो प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ो आगे तथा एक घड़ो पोछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष मद्रास कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष ब्यावर गोहाटी जोधपुर उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष मद्रास उपाध्यक्ष ब्यावर मेड़ता सिटी ब्यावर पाली महामन्त्री मन्त्री मन्त्री सहमन्त्री कोषाध्यक्ष कोषाध्यक्ष ब्यावर ब्यावर मद्रास सदस्य नागौर 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरडिया 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी 3. श्रीमान् कँवरलालजी बैताला 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख 5. श्रीमान् रतनचन्दजी चोरडिया 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7. श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चांदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा 11. श्रीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरडिया 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरड़िया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् वादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान् माणकचन्दजी बैताला 20. श्रीमान् भवरलालजी गोठी 21. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरडिया 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरड़िया 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 26. श्रीमान् भंवरलालजी मूथा 27. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल सदस्य मद्रास सदस्य बैगलौर सदस्य ब्यावर सदस्य सदस्य इन्दौर सिकन्दराबाद. बागलकोट सदस्य सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य (परामर्शदाता) भरतपुर जयपुर ब्यावर Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1, श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, व्यावर 2. श्री सेठखीवराजजी चोरडिया, मद्रास 2. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 3. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर 3. श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली 4. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 4. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 5. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 5. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 6. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी 6. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा. 7. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर टोला 8. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 7. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, 6. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, व्यावर सिकन्दराबाद 8. शी प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता 10. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 11. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास बागलकोट 12. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (K.G. F.) एवं जाडन 11. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तालेरा, पाली स्तम्भ 12. श्री नेमीचंदली मोहनलालजी ललवाणी, 1. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर चांगाटोला 2. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 13. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तालेरा, पाली 3. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा,बालाघाट 14. श्री सिरेकँवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचंद 4. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी जी झामड़, मदुरान्तकम 5. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 15. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर 6. श्री हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 16. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 7. श्री वर्द्धमान इन्डस्ट्रीज, कानपुर 17. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 8. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री भेरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, धोबड़ी 6. श्री एस. रिखवचन्दजी चोरडिया, मद्रास तथा नागौर 10. श्री आर. परसनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 11. श्री अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास बालाघाट 12. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 20. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 13. श्री मिश्रीलालजी तिलोकचन्दजी संचेती, दुर्ग 21. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] [ सदस्य-नामावली 22. श्री मोहनराजजी बालिया, अहमदाबाद 7. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्याव 23. श्री चेनमलजी सुराणा, मद्रास 8. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 24. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, नागौर 6. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 25. श्री बादलचंदजी मेहता, इन्दौर 10. श्री के. पुखराजजी बाफना, मद्रास 26. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 11. शी पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 27. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 12. श्री चम्पालालजी बुधराजजी बाफणा, ब्यावर 28. श्री इन्दरचंदजी बैद, राजनांदगांव 13. श्री नथमलजी मोहनलाल लूणिया, चण्डावल 26. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा- 14. श्री मांगीलाल प्रकाशचन्दजी रुणवाल, बर टोला 15. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, राय, 30. श्री भंवरलालजी मुलचंदजी सुराणा मद्रास 16. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 31. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला कुशालपुरा 32. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 17. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 33. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास - कुशालपुरा 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, अजमेर 18. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 35. श्री घेवरचंदजी पुखराज जी, गोहाटी 16. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 36. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, आगरा 20. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सूराणा, पाली 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 21. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेडतासिटी 38. श्री गुणचंदजी दल्लीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 22. श्री माणकराजजी किशनराजजी, मेडतासिटी 34. श्री अमरचंदजी बोथरा. मद्रास 23. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 40. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा मेडतासिटी 41. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, 24. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम बैंगलोर 25. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 42. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास विल्लीपुरम् 43. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 26. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 44. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कुप्पल 27. श्री हरकराजजी मेहता, जोधपुर 46. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 28. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 26. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोध सहयोगी सदस्य 30. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 1. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 31. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 2, श्री अमरचंदजी बालचंदजी मोदी, ब्यावर जोधपुर 3. श्री चम्पालालजी मीठालालजी सकलेचा, 32. श्री मोहनलालजी चम्पालाल गोठी, जोधपुर जालना 33. श्री जसराजजी जंवरीलाल धारीवाल, जोधपुर श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 5. श्री भंवरलालजी चोपड़ा, ब्यावर 35. श्री आसुमल एण्ड कं०, जोधपुर 6. श्री रतनलालजी चतर, ब्यावर 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [ 263 37. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 68. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुलि 38. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 66. श्री प्रेमराजजी मिट्ठालालजी कामदार, __ जोधपुर चांवडिया 36. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 70. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 40. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 71. श्री भंवरलालजी नवरतनमलजी सांखला, 41. श्री मिश्रीलालजी लिखमीचंदजी साँड, जोधपुर मेटूपालियम 42. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 72. श्री सूरजकरणजी सुराणा, लाम्बा 43. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 73. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 14. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 74. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 5. श्री सरदारमल एन्ड कं., जोधपुर / 75. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर '. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 76. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर . श्री नेमीचंदजी डाकलिया, जोधपुर 77. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 5. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 78. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 46. श्री मुन्नीलालजी, मूलचंदजी, पुखराजजी 76. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता गुलेच्छा, जोधपुर 80. श्री बालचंदजी थानमलजी भुरट (कुचेरा), 50. श्री सुन्दरबाई गोठी, महामन्दिर कलकत्ता 51. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा 81. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 52. श्री पुखराजजी लोढ़ा, महामंदिर 82. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 53. श्री इन्द्रचन्दजो मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 83. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 54. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 84. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरड़िया भैरुदा 55. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 85. श्री माँगीलालजी मदनलालजी, चोरड़िया भैरुदा 56. श्री भीकचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 86. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता धलिया सिटी 57. श्री सुगनचंदजी संचेती, राजनांदगाँव 87. श्री भीवराजजी बागमार, कुचेरा 18. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गोलेच्छा, राज- 88. श्री गंगारामजी इन्दरचंदजी बोहरा, कुचेरा नांदगाँव 86. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, .6. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग कुचेरा 60. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 60. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 61. श्री अोखचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 61. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर (भरतपुर) 62. श्री भंवरलालजी मूथा, जयपुर 62. श्री भंवरलालजी रिखवचंदजी नाहटा, नागौर 63. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 63. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन 64. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 14. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन भिलाई नं. 3 65. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 65. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई नं. 3 कोठारी, गोठन / 66. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई नं. 3 66. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 67. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी, भिलाई नं. 3 67. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [ सदस्य-नामावली 18. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 114. श्री कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास दल्ली-राजहरा 115. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 66. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 116. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बुलारम 117. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलो 100. श्री फतेराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 118. श्री इन्दरचंदजी जुगराजजी बाफगा, बैंगलोर 101. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 116. श्री चम्पालालजी माणकचंदजी सिंघी, कुचेरा 102. श्री जुगराजजी बरमेचा, मद्रास 120. श्री संचालालजी बाफना, औरंगाबाद 103. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, 121. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता बुलारम सिटी 104. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, नागौर 122. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड, 105. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास सिकन्दराबाद 106. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भण्डारी, 123. श्रीमती रामकुवर धर्मपत्नी श्रीचांदमलजी बैंगलोर / लोढ़ा, बम्बई 107. श्री रामप्रसन्न ज्ञान प्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 124. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाबिया, 108. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास (कुडालोर), मद्रास 106. श्री अमरचंदजी चम्पालालजी छाजेड़, पादु 125. श्री जीतमलजी भंडारी, कलकत्ता बड़ी 126. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 110. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, 127. श्री. टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास हरसोलाव 127. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 111. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 128, श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, पारसमलजी ललवाणी, गोठन सिकन्दराबाद 112. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 126. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, कुचेरा बिलाड़ा 113. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 130. श्री वर्द्धमान स्था. जैन श्रावक संघ बगड़ीनगर Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________