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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 348 से 351 उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्म किये हैं, उसे अपने अगले भव या जन्म में उसी तरह का फल मिलता है। अर्थात् -- तीव्र, मन्द या मध्यम जैसे अध्यवसायों (परिणामों से जो कर्म बांधे गए हैं, तदनुसार उनकी स्थिति बंधकर तीव्र, मन्द या मध्यम विपाक (फल) उत्पन्न करते हुए वे उदय में आते हैं। इस प्रकार यह कर्म सिद्धान्त इतना अकाट्य है कि इसमें किमी भी ईश्वर, देवी या देव शक्ति के हस्तक्षेप की, या किसी के पक्षपात की, अथवा किसी को कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं रहती। नरक दुःखों से बचने के लिए उपाय--पिछली दो सूत्रगाथाओं (350-351) में नरक गति तथा अन्य गतियो में मिलने वाले भयंकर दुःखों से बचने के लिए क्या करे और क्या न करे. इसका मष्ट मार्गदर्शन शास्त्रकार ने दिया है। इन दोनों सूत्रगाथाओं द्वारा नो प्रेरणास्त्र फलित होने हैं-(१) पूर्वगाथाओं में उक्त नरक दुःखों का वर्णन सुनकर धीर पुरुप नरक गमन के कारणों से बचने का उपाय योचे, (2) समग्र लोक में किसी भी जीव की हिंसा न करे, (3) परिग्रह रहित हो. ('3' शब्द से परिग्रह के अतिरिक्त मृषावाद, अदत्तादान एवं मैथुन सेवन से विरत होने की प्रेरणा भी परिलक्षित होती है।, (4) एकमात्र आत्मतत्त्व या जीवादि तत्त्वों पर दृष्टि या श्रद्धा रखे, (5) अशुभ कर्म करने तथा नाका फल भोगने वाले जीवलोक या कषायलोक को स्वरूपतः जाने, (6) किन्तु उस लोक के अधीन न हो, प्रवाहवश न बने। (7) चातुर्गतिरूप अनन्त संसार और चारों गतियो में कृतकर्मों के अनुरूप फल आदि का वस्तुस्वरूप जाने, (8) मोक्ष दृष्टि रखकर संयम या धर्म का आचरण करे, (8) मरण (पछिलतमरण) के काल (अवसर) की आकांक्षा (मनोरथ) करे। ईश्वरादि कोई भी शक्ति घोर पापी को नरक से बचा नहीं सकती--इस लोक में घोर पापकर्म करने वाले कुछ व्यक्ति यह सोचते हैं कि हम चाहे जितना पापकर्म कर ले, खुदा, गॉड ईश्वर या पैगम्बर या किसी शक्ति आदि से अन्तिम समय में प्रार्थना, मिन्नत, प्रशंसा, स्तुति, निवेदन, पाप-स्त्रीकृति (confess) या खुशामद आदि करने मात्र से हमारे सब पाप माफ हो जाएँगे, और हमें पाप से मुक्ति मिल जाने से नरक (दोजख) में नहीं जाना पड़ेगा। इस प्रकार पापकर्मों को करते हुए भी तथा उनका त्याग या आलोचना-प्रायश्चित्तादि से उनकी गुद्धि किये बिना ही हम पूर्वोक्त उपाय से नरक-गमन मे या नरकादि के दुःखों से बच जाएंगे। परन्तु यह निरी भ्रान्ति है, इसी भ्रान्ति का निराकरण करने हेतु शास्त्रकार स० गा० 350 द्वारा स्पष्ट कहते हैं-'एताणि सोच्चा नरमाणि ...."वसं न गच्छे / ' अगर नरकगति के कारणभूत दुष्कर्मों या हिंसादि पापकर्मों का त्याग नहीं किया जाएगा तो कोई भी शक्ति घोरपापी को नरक-गमन से या नरकदुःखों से नहीं बचा सकेगी। तिर्यञ्चादि गतियों में भी नारकीयदुःखमय यातावरण-कई लोग यह सोचते हैं कि इतने घोर द:ख तो नरकगति में ही मिलते हैं, दूसरी गतियों में नहीं। यह भी एक भ्रान्ति है, जो कई धर्म-सम्प्रदायों में चलती है। पूर्वकृत अशुभ कर्म जब उदय में आते हैं तो नरक के अतिरिक्त नियंत्रादि गतियों में भो तीव्रदुःख मिलते हैं। तिर्यंचगति में परवश होकर भयंकर द:ख उठाना पड़ता है, मनुष्यगति में इष्ट-वियोग अनिष्टसंयोग, रोग, शोक, पीड़ा, मनोवेदना, अपमान, निर्धनता, कलेश, राजदण्ड, चिन्ता आदि नाना 6 मुत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140 के आधार पर 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140-141 का सारांश Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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