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________________ 312 सूत्रकृतांग-पचम अध्ययन-नरक विभक्ति स्थिति का आयुष्यबन्ध है, उतनी स्थिति तक उसे दुःखागाररूप नरक में रहना पड़ता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। अत: नारकों को दुःख भी उत्कृष्ट प्राप्त होते हैं, और वे दुःख भी निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं। कोई भी पल ऐसा नहीं रहता, जिसमें उन्हें दःख न मिलता हो। इसीलिए शास्त्रकार सू० गा० 348 के पूर्वार्द्ध में कहते हैं-'एआई फासाइनिरंतरं तत्य चिरद्वितीयं / ' जिस समय नारको पर दुख पर दःख बरसते रहते हैं, उस समय उनका कोई त्राता, शरणदाता रक्षक या सहायक नहीं होता, कोई भी प्राणी, यहाँ तक कि उन नारकों के निकटवर्ती परमाधार्मिक असुर भी उन्हें शरग, सहायता देना या बचाना तो दूर रहा, जरा-सी सान्त्वना भी नहीं देते, प्रत्युत वे उसकी पुकार पर और रुष्ट होकर उस पर बरस पड़ते हैं। उस दुःखपीडित दयनीय अवस्था में कोई भी उनके आंसू पोंछने वाला नहीं होता। एक बात और है- प्रायः नारकों की तामसी बुद्धि पर अज्ञान, मोह एवं मिथ्यात्व का आवरण इतना जबर्दस्त रहता है कि उन्हें उक्त दारुण दुःख को समभाव से सहने, या भोगने का विचार ही नहीं आता, किन्तु कोई क्षायिक सम्यम् ष्टि जीव वहाँ हो, तो वह उन दुःखों को समभाव से सह या भोग सकता हैं, इस कारण ऐसे नारकों को दुःख का वेदन कम होता है, परन्तु दु:ख तो उतना का उतना मिलता है या दिया जाता है, जितना उसके पूर्वकृत पापकर्मानुसार बंधा हुआ (निश्चित) है। निष्कर्ष यह कि प्रत्येक नारक के. निकाचित रूप से पाप कर्म बंधा होने से बीच में दःख को घटाने या मिटाने का कोई उपाय संवर-निर्जरा या समभाव के माध्यम से कामयाब नहीं होता। उतना (निर्धारित) दुःख भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं / यह आशय भी इस पंक्ति से ध्वनित होता है / दुःख भोगने में कोई सहायक या हिस्सेदार नहीं-जिन नारकों ने पूर्वजन्म में अपने परिवार या प्रियजनों के लिए अतिभयंकर दुष्कर्म किये, अब नरक में उनका दष्कर्मों का फल भोगते समय उन नारकों का कोई हिस्सेदार नहीं रहता जो उनके दुःख को वांट ले, न ही कोई सहायक होता है, जो उनके बदले स्वयं उस दुःख को भोग ले / बल्कि स्वयं अकेला वह उन दारुण दुःखों को विवश होकर भोगते समय पूर्व जन्मकृत दुष्कर्मों का स्मरण करके इस प्रकार पश्चात्ताप करता है 'मया परिजनस्वार्थ कृतं कर्म सुदारुणम् / एकाकी तेन दोऽह, गतास्ते फलभोगिनः / ' --"हाय ! मैंने अपने परिवार के लिए अत्यन्त भयंकर दुष्कर्म किये, किन्तु फल भोगते समय मैं अकेला यहाँ दुःख से संतप्त हो रहा हूँ इस समय सुखरूप फल भोगने वाले वे सब पारिवारिक जन मुझे अकेला छोड़कर चले गए।" इसी रहस्य का उद्घाटन शास्त्रकार करते हैं-'एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं / ' अर्थात्-जीव सदैव स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता (भोगता) है। __नरक में एकान्तदुःखरूप फल चिरकाल तक क्यों ? ---प्रश्न होता है -क्या किसी ईश्वर देव-देवी या शक्ति द्वारा नारकों को एकान्तदुःखरूप नरक मिलता है या और कोई कारण है ? जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से शास्त्रकार इसका समाधान करते हैं-'जं जारिसं पुष्व'""आगच्छति संपराए'-आशय यह है कि जिस प्राणी ने पूर्वजन्म में जैसे तीव्र, मन्द, मध्यम अनुभाग (रस) वाले, तथा जघन्य, मध्यम 17. सूत्र कतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 140-141 का सार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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