________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन प्राथमिक / सूत्रकृतांग सूत्र (द्वि. श्रु ) के द्वितीय अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है / सामान्यतया क्रिया का अर्थ है-हलन, चलन, स्पन्दन, कम्पन आदि प्रवृत्ति या व्यापार / जैनताकिकों ने इसके दो भेद किये हैं-द्रव्यक्रिया और भावक्रिया। सचेतन-अचेतन द्रव्यों की प्रयोगतः (प्रयत्नपूर्वक) एवं विस्रसात: (सहजरूप में) उपयोगपूर्विका एवं अनुपयोगपूविका, अक्षिनिमेषमात्रादि समस्त क्रियाएं द्रव्य क्रियाएं हैं / भावप्रधानक्रिया भावक्रिया है, जो 8 प्रकार की होती है(१) प्रयोग क्रिया (मनोद्रव्यों की स्फुरणा के साथ जहाँ मन, वचन, काया की क्रिया से आत्मा का उपयोग होता है, वहाँ मनःप्रयोग, वचनप्रयोग, कायप्रयोग क्रिया है), (2) उपायक्रिया (घटपटादिनिर्माण के लिए उपायों का प्रयोग), (3) करणीयक्रिया (जो वस्तु जिस द्रव्य सामग्री से बनाई जाती है उसके लिए उसी वस्तु का प्रयोग करना), (4) समुदान क्रिया (समुदायरूप में स्थित जिस क्रिया को ग्रहण कर प्रथमगुणस्थान से दशम गुणस्थान तक के जीव द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशरूप से अपने में स्थापित (5) ईपिथक्रिया (उपशान्तमोह से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होने वाली क्रिया), (6) सम्यक्त्वक्रिया (जिस क्रिया से जीव सम्यग्दर्शनयोग्य 77 कर्म प्रकृतियों को बांधता है), (7) सम्यङ मिथ्यात्वक्रिया (जिस क्रिया से जीव सम्यक्त्व-मिथ्यात्वयोग्य 74 कर्म प्रकृतियाँ बांधता है) तथा (8) मिथ्यात्वकिया (जिस क्रिया से जीव तीर्थकरप्रकृति एवं आहारकद्वय को छोड़ कर 117 कर्म प्रकृतियाँ बाँधता है) 0 इन द्रव्य-भावरूप क्रियाओं का जो स्थान अर्थात् प्रवृत्ति-निमित्त है उसे क्रियास्थान कहते हैं / विविध प्रकार की प्रवृत्तियों के विविध (निमित्त) कारण होने से क्रियास्थान विविध हैं। - सामान्यतया यह माना जाता है, कि क्रिया से कर्मबन्ध होता है। परन्तु इस अध्ययन में उक्त क्रियास्थानों से कई क्रियावानों के कर्मबन्ध होता है, कई क्रियावान् कर्ममुक्त होते हैं। इसी लिए प्रस्तुत अध्ययन में दो प्रकार के क्रियास्थान बताए गए हैं-धर्मक्रियास्थान और अधर्मक्रियास्थान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org