________________ 214 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा अन्वेषण करके उसके उपकारार्थ लाकर देते हैं / 'च' शब्द से आचार्यादि की वैयावृत्य करने आदि उपकार परवादिकृत आक्षेप निवारण : कौन, त्रयों और कैसे करें? 214. अह ते परिभासेज्जा भिक्खू मोक्ख विसारए / एवं तुम्भे पभासेंता दुपक्खं चेव सेवहा // 11 // 215 तुब्भे भुजह पाएसु गिलाणाऽभिहडं ति य / तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देसादि जं कडं / / 12 / / 216, लित्ता तिव्वाभितावेण उज्जया असमाहिया। नातिकंडुइतं से अरुयस्सावरज्झतो // 13 // 217. तत्तेण अणुसिट्ठा ते अपडिण्णेण जाणया। ण एस णियए मग्गे असमिक्खा बई किती // 14 // 218. एरिसा जा वई एसा अग्गे वेणु व करिसिता। गिहिणो अभिहडं सेयं भुजितुन तु भिक्खुणो / / 15 / / 216. धम्मपण्णवणा जा सा सारंभाण विसोहिया। न तु एताहि दिट्ठीहि पुत्वमासि पकप्पियं / / 16 // 220. सव्वाहि अणुजुत्तोहिं अचयंता जवित्तए। ततो वायं णिराकिच्चा ते भुज्जो वि पगम्भिता !! 17 // 221. रागदोसाभिभूतप्पा मिच्छत्तेण अभिदुता। ... अक्कोसे सरणं जंति टंकणा इव पव्वयं // 18 // 222. बहुगुणप्पगप्पाई कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणऽण्णो ण विरुज्झज्जा तेण तं तं समायरे // 16 // 223 इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेइयं / कुज्जा भिक्ख्न गिलाणस्स अगिलाए समाहिते / / 20 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 90 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org