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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 211 से 213 213 कुछ आक्षेप इस प्रकार हैं :-(1) परस्पर उपकार्य-उपकारक सम्बन्ध से बँधे हुए गृहस्थों कासा इनका व्यवहार है, (2) ये परस्पर एक-दूसरे में आसक्त हैं, (3) रोगी साधु के प्रति अनुरागवश ये उसके लिए भोजन लाते हैं, और देते हैं। (4) आप लोग स्पष्टतः सरागी हैं, (5) परस्पर एक-दूसरे के वश---अधीन हैं / (6) सद्भाव और सन्मार्ग से दूर हैं, (7) आप संसार को पार नहीं कर सकते। परोक्ष आक्षेप की झांकी-कोई-कोई परोक्ष में आक्षेप करते हैं, जैसे-देखो तो सही ! ये लोग घरबार कुटुम्ब परिवार और रिश्ते-नाते छोड़कर साधु बने हैं, परन्तु इनमें अब भी एक-दूसरे साधुओं के साथ पुत्र कलत्र आदि स्नेह-पाशों से बन्धे हुए गृहस्थों का-सा व्यवहार है। गृहस्थ लोग परस्पर एक-दूसरे के सहायक उपकारक होते हैं, वैसे ही ये साधु भी परस्पर सहायक उपकारक होते हैं। जैसे गृहस्थ-जीवन में पिता-पुत्र में, भाई-भाई में, भाई-बहन में परस्पर गाढ़ अनुराग होता है, वैसे ही इन साधुओं में गुरुशिष्य का, गुरू भाइयों का तथा गुरु-भाईयों गुरु-बहनों का परस्पर गाढ़ अनुराग होता है। इन्होंने गृहस्थी के नाते-रिश्ते छोड़े, यहाँ नये रिश्ते-नाते बना लिये / आसक्ति तो वैसी की वैसी ही बनी रही, केवल आसक्ति के पात्र बदल गये हैं। फिर इनमें और गृहस्थों में क्या अन्तर रहा ? फिर ये परस्पर आसक्त होकर एक-दूसरे का उपकार भी करते हैं, जैसे कि कोई साधु बीमार हो जाता है तो ये उस रुग्ण साधु के प्रति अनुराग वश उसके योग्य पथ्ययुक्त आहार अन्वेषण करके लाते हैं और उसे देते हैं / यह गृहस्थ के समान व्यवहार नहीं तो क्या है ? “यही बात शास्त्रकार कहते हैं'--संबद्ध...."दलाहय / कोई आक्षेपकर्ता साधओं से कहते हैं-- "अजी ! आप लोग गृहस्थों की तरह परस्पर राग-भाव से ग्रस्त हैं, अपने माने हुए लोगों का परस्पर उपकार करते हैं, इसलिए रागयुक्त हैं-राग-सहित स्वभाव में स्थित (सरागस्थ) हैं / बन्धनबद्ध या एक-दूसरे के अधीन रहना तो गृहस्थों का व्यवहार है। इसी कारण आप लोग सत्पथ (मोक्ष के यथार्थ मार्ग) तथा सद्भाव (परमार्थ) से भ्रष्ट हैं। इसीलिए आप चतुर्गति परिभ्रमणरूप संसार के पारगामी नहीं हो सकते। मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। / पाठान्तर और व्याख्या-'जे तेउ (तेव) परिभासन्ति अन्तए ते समाहिए'-वृत्तिकार के अनुसार-'ये ते अपुष्टधर्माणः, एवं वक्ष्यमाणं परिभाषन्ते, त एवम्भूताः अन्तके पर्यन्ते-दूरे समाधेः मोक्षाख्यात् वर्तन्त इति / " वे अपुष्ट धर्मा (आक्षेपक) ऐसा (आगे कहे जाने वाला आक्षेपात्मक वचन)कहते हैं, वे मोक्ष नामक समाधि से दूर हैं। चूणिकार 'जे ते एवं भासन्ति, अन्तए (ते) समाहिते' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं -- अन्तए नाम नाभ्यन्तरतः, दूरतः ते समाहिए, णाणादिमोक्खा परमसमाधी, अत्यन्त असमाधौ वर्तन्ते, 'असमाहिए' अकारलोपं कृत्वा संसारे इत्यर्थः।" अर्थात्-अन्तए का अर्थ हैं--आभ्यन्तर से नहीं, अपितु वे समाधि से दूरतः हैं। ज्ञानादिमोक्षरूप परमसमाधि होती है। अतः ऐसा अर्थ सम्भव है कि वे अत्यन्त असामधि में हैं। असमाहिए पाठ में अकार का लोप करने से असमाहिए (असमाधि में) का फलितार्थ होता है-संसार में हैं। सारेह= अन्वेषयत=अन्वेषण करते हैं। दलाय-ग्लान के योग्य आहार का 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्राक 60 के आधार पर 8 वृत्तिकार के कथनानुसार यह चर्चा दिगम्बर पक्षीय साधुओं और श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं के बीच है। बृत्तिकार का यह कथन उपयुक्त प्रतीत होता है। -जैन साहित्यका बहत् इतिहास भा०१ पृ० 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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