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________________ 184 सूचकृतांग-मृतीय अध्ययन-उपसर्ग परिजा अनिपुण एवं अभी तक उपसर्गों से अछ ता नवदीक्षित साधु तभी तक अपने आपको उपसर्ग विजयी शुर मान सकता है, जब तक वह संयम का सेवन नहीं करता। उपसर्ग देखते ही सूराभिमानी के छक्के छूट जाते है-साधु का वेष पहन लेने और महावतों का एवं संयम का स्वीकार कर लेने मात्र से कोई उपसर्ग विजेता साधक नहीं हो जाता। उपसर्गों पर विजय पाना युद्ध में विजय पाने से भी अधिक कठिन है। उपसर्गों से लड़ना भी एक प्रकार का धर्मयुद्ध है। इसीलिए शास्त्रकार यहाँ दृष्टान्त द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि युद्ध में जब तक अपने सामने विजयशील प्रतियोद्धा को नहीं देखता, तभी तक वीराभिमानी होकर गर्जता है / जैसे माद्रीपुत्र शिशुपाल योद्धा के रूप में तभी तक अपनी प्रशंसा करता रहा, जब तक युद्ध में अपने समक्ष प्रण-दृढ़ महारथी प्रतियोद्धा श्रीकृष्ण को सामने जूझते हुए नहीं देखा / यह इस गाथा का आशय है। __ शिशुपाल श्रीकृष्ण जी की फूफी (बुआ) का लड़का था। एक बार माद्री (फूफी) ने पराक्रमी श्रीकृष्णजी के चरणों में शिशुपाल को झुकाकर प्रार्थना की-'श्रीकृष्ण ! यदि यह अपराध करे तो भी तू क्षमा कर देना। श्रीकृष्णजी ने भी सौ अपराध क्षमा करने का वचन दे दिया / शिशुपाल जब जवान हुआ तो यौवन मद से मत्त होकर श्रीकृष्ण को गालियां देने लगा। दण्ड देने में समर्थ होते हुए भी श्रीकृष्णजी ने प्रतिज्ञा बद्ध होने से उसे क्षमा कर दिया / जब शिशुपाल के सौ अपराध पूरे हो गए, तय श्रीकृष्णजी ने उसे बहुत समझाया, परन्तु वह नहीं माना। एक बार किसी बात को लेकर शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के साथ युद्ध छेड़ दिया। जब तक श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध के मैदान में नहीं आए, तब तक शिशुपाल अपने और प्रतिपक्षी सैन्य के लोगों के सामने अपनी वीरता को डींग हांकता रहा, किन्तु ज्यों ही शस्त्रास्त्र का प्रहार करते हुए श्रीकृष्ण को प्रतियोद्धा के रूप में सामने उपस्थित देखा, त्यों ही उसका साहस समाप्त हो गया, घबराहट के मारे पसीना छूटने लगा, फिर भी अपनी दुर्बलता छिपाने के लिए वह श्रीकृष्ण पर प्रहार करने लगा। श्रीकृष्णजी ने उसके सौ अपराध पूरे हुए देख चक्र से उसका मस्तक काट डाला। __इसी दृष्टि से शास्त्रकार कहते हैं | सूरंमन्नति""महारहं / अपने को शूरवीर मानने वाला घायल होते ही दीन बन जाता है-कई शूराभिमानी अपनी प्रशंसा से उत्तेजित होकर युद्ध के मोर्चे पर तो उपस्थित हो जाते हैं, किन्तु जब दिल दहलाने वाला युद्ध होता है, तब वे घबराने लगते हैं। युद्ध की भीषणता तो इतनी होती है कि युद्ध की भयंकरता से घबराई हुई माता को अपनी गोद से गिरते हुए प्यारे पुत्र का भी ध्यान नहीं रहता। और जब विजेता प्रतिपक्षी सुभटों द्वारा चलाए गए शस्त्रास्त्र से वे क्षत-विक्षत कर दिये जाते हैं, तब तो वे दीन-हीन होकर गिर जाते हैं, उनका साहस टूट जाता है। यह भाव इस गाथा में व्यक्त किया गया है 'पयाता सरा "परिविच्छए।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० 2 पृ० 5 से 6 तक का सार 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 78 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 404 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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