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________________ चतुर्थ उद्देशक / गाथा 80 से 13 की है कि हमारा मान्य अवतार या ईश्वर अपरिमित पदार्थों को जानता है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञाता है / दूसरी मान्यता यह है कि हमारा ईश्वर या अवतारी पुरुष अपरिमित पदार्थों का ज्ञाता अवश्य है, मगर वह सर्वज्ञ नहीं है-सर्वक्षेत्र-काल के सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं है / सीमित क्षेत्रकालगत पदार्थों को ही जानता-देखता है। कई अतीन्द्रिय द्रष्टा सर्वज्ञ एवं अपने मत के तीर्थकर कहलाते थे, तथापि वे कहते थे-जो अतीन्द्रिय पदार्थ उपयोगी हों, जिनसे कोई प्रयोजन हो, उन्हीं को हमारे तीर्थकर जानते हैं। जैसे कि आजीवक मतानुयायी अपने तीर्थकर मक्खली गोशालक के सम्बन्ध में कहते थे तीर्थकर सभी पदार्थों को देखे या न देखे, जो पदार्थ अभीष्ट एवं मोक्षोपयोगी हों, उन्हें देख ले, इतना ही काफी है। कीड़ों की संख्या का ज्ञान भला हमारे किस काम का? कीड़ों की संख्या जानने से हमें क्या प्रयोजन ? अतएव हमें उस (तीर्थकर) के अनुष्ठान सम्बन्धी या कर्तव्यावर्तव्य सम्बन्धी ज्ञान का विचार करना चाहिए। अगर दूर तक देखने वाले को ही प्रमाण मानेंगे तब तो हम उन दरदर्शी गिद्धों के उपासक माने जायेंगे।'' यह सर्वत्र को पूर्णज्ञता न मानने वालों का मत है। इस गाथा में प्रथम मत पौराणिकों का है, और द्वितीय मत है-आजीवक आदि मत के तीर्थंकरों का। एक प्रकार से सारी गाथा में पौराणिकों के मत का ही प्ररूपण है। पुराण के मतानुसार 'ब्रह्माजी का एक दिन चार हजार युगों का होता है' और रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है। ब्रह्माजी दिन में जब पदार्थों की सृष्टि करते हैं, तब तो उन्हें पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है, किन्तु रात में जब वह सोते है तब उन्हें परिमित ज्ञान भी नहीं होता। इस प्रकार परिमित अज्ञान होने से ब्रह्माजी में ज्ञान और अज्ञान दोनों की सम्भावना है। अथवा वे कहते हैं-ब्रह्माजी एक हजार दिव्य वर्ष सोये रहते हैं, उस समय वह कुछ भी नहीं देखते और जब उतने ही काल तक वे जागते हैं, तब वे देखते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं –'धीरोऽतिपासई' अर्थात् - धीर ब्रह्मा का यह (लोकवाद सूचित) अतिदर्शन है।१२ अपुत्रस्य गतिर् (लोको) नास्ति, स्वर्गो नेव च, नैव च-पुत्रहीन की गति (लोक) नहीं होती, स्वर्ग तो उसे हर्गिज नहीं मिलता। इस प्रकार की धारणाएँ लोकवाद है। लोकवाद युक्ति-प्रमाण विरुद्ध है-सूत्रगाथा 83 में लोकवाद के रूप में प्रचलित युक्ति-प्रमाण विरुद्ध मान्यताओं का निराकरण किया गया है। जैसे कि लोकवादी यह कहते हैं-यह लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत और अविनाशी है। इस विषय में जैनदर्शन यह कहता है कि अगर लोकगत पदार्थों को उत्पत्ति 10 सर्वपश्यतु वा मा वा, इष्टमथ तु पश्यतु / कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते // 1 // तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् / प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गद्धानुपास्महे // 2 // 11 "चतुर्युग सहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते / " 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 50 (ख) सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या 268-266 पुराण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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