SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विनाश रहित, स्थिर, एक स्वभाव वाले कूटस्थ नित्य मानते हैं तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण विरुद्ध है। इस जगत् में जड़-चेतन कोई भी पदार्थ ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता, जो क्षण-क्षण में उत्पन्न न हो। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण पर्याय रूप से उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ दिखता है / अतएव लोकगत पदार्थ सर्वथा पर्याय रहित कटस्थ नित्य कैसे हो सकते हैं ? लोकवाद की इसी कूटस्थ नित्य की मान्यता को लेकर जो यह कहा जाता है कि नस सदैव त्रस पर्याय में ही होता है, स्थावर स्थावर पर्याय में ही होता है, तथा पुरुष मरकर पुरुष ही बनता है, स्त्री मरकर पुनः स्त्री ही होती है, यह लोकवाद सत्य नहीं है / आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है-“स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीव वस (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रसजीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं / अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं / अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं / "17 यदि यह लोकवाद सत्य हो कि जो मनुष्य इस जन्म में जैसा है, अगले जन्म में भी वह वैसा ही होता है, तब तो दान, अध्ययन, जप, तप, यम, नियम आदि समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जाएंगे, फिर क्यों कोई दान देगा यम नियमादि की साधना करेगा? क्योंकि उस साधना या धर्माचरण से कुछ भी परिवर्तन होने वाला नहीं है / परन्तु स्वयं लोकवाद के समर्थकों ने जीवों का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में उत्पन्न होना स्वीकार किया है स वै एष भृगालो जायते, यः सपुरोषो दह्यते / ' अर्थात्-'वह पुरुष अवश्य ही सियार होता है, जो विष्ठा सहित जलाया जाता है। तथा __ "गुरु तुकृत्य हुंकृत्य, विप्राग्निजित्य वादतः / श्मशाने जायते वृक्षः, कंक-गधोपसे वितः // " अर्थात्-जो गुरु के प्रति 'तु' या 'हुँ' कहकर अविनयपूर्ण व्यवहार करता है, ब्राह्मणों को वाद में हरा देता है, वह मरकर श्मशान में वृक्ष होता है, जो कंक, गिद्ध आदि नीच पक्षियों द्वारा सेवित होता है। इसलिए पूर्वोक्त लोकवाद का खण्डन उन्हीं के वचनों से हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि त्रस हो या स्थावर, सभी प्राणियों का अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न गतियों और योनियों के रूप में पर्याय परिवर्तन होता रहता है। स्मृतिकार ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है।१४ एक द्रव्यविशेष की अपेक्षा से कार्यद्रव्यों को अनित्य और आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को सर्वथा नित्य कहना भी लोकवाद का असत्य है क्योंकि सभी पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त होते हैं / ऐसा न मानने पर आकाश-कुसुमवत् वस्तु का वस्तुत्व ही नहीं रहेगा / पदार्थों -आचारांग 1, श्रु. 6, अ० 1, उ० गा० 54 12 अदु थावरा य तसत्ताए, तस जीवा य थावरत्ताए / अदुवा सन्च जोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो वाला।। 13 देखिये स्मृति में -“अन्तः प्रज्ञा भवन्त्येते सूख-दुःख समन्विताः / शारीरजः कर्मदोषैर्यान्ति स्थावरतां नरः / / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy