________________ 6.1 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा छिदित्ता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अवाए अन्न फुसति, अकस्मात दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जति, चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मात् दंडवत्तिए त्ति प्राहिते। ६९८-इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद् दण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (1) जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह (झील) पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जा कर मग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है मृग का वध करने के लिए चल पड़ता है; 'यह मृग है' यों जान कर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है, किन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण लक्ष्य (वध्यजीव मृग) को न लग कर तीतर, बटेर (बतक), चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिजल पक्षी को लग कर उन्हें बींध डालता है / ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है, वह दण्ड इच्छा न होने पर भी अकस्मात् (सहसा) हो जाता है इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड (प्रत्ययिक) क्रियास्थान कहते हैं। (2) जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव (कोदों), कंग, परक और राल नामक धान्यों (अनाजों) को शोधन (साफ) करता हुआ किसी तृण (घास) को काटने के लिए शस्त्र (हंसिया या दांती) चलाए, और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद अादि घास को काटू' ऐसा प्राशय होने पर भी (लक्ष्य चूक जाने से) शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है। इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दण्ड (प्राणिहिंसा) अन्य को स्पर्श करता है। यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है। इस प्रकार अकस्मात (किसी जीव को) दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को (उसके निमित्त से) सावद्यकर्म का बन्ध होता है / अतः यह चतुर्थ क्रियास्थान अकस्माद्दण्ड प्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन–चतुर्थ क्रियास्थान : अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक स्वरूप और विश्लेषण प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने चतुर्थ क्रियास्थान के रूप में अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे-कैसे हो जाता है, इसे दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया है- (1) किसी मृग को मारने के अभिप्राय से चलाये गये शस्त्र से अन्य किसी प्रारणी (तीतर अादि) का घात हो जाने पर, (2) किसी घास को काटने के अभिप्राय से चलाये गए औजार से किसी पौधे के कट जाने पर / ' पंचम क्रियास्थानः दृष्टि विपर्यासदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण 666-(1) ग्रहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविपरियासियादंडे ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे माईहि वा पिईहि वा भातोहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुत्तेहि वा धूताहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति मन्नमाणे मित्ते हयपुत्वे भवति दिट्ठीविष्परियासियादंडे / (2) से जहा वा केइ पुरिसे गामघायंसि वा गरघायंसि वा खेड० कब्बड० मडंबघासि वा दोणमुहघायंसि वा पट्टणघायंसि बा पासमघातंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निगमघायंसि वा रायहाणि 1. सूत्रकृतांगसूत्र शीलांकवृत्ति, पत्रांक 309 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org