________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 698 ] पुरिसे ममं वा ममि वा अन्न वा अनि वा हिसिसु वा हिसइ वा हिसिस्सइ वा तं दंडं तस-थावरेहि पाणेहि सयमेव णिसिरति, अण्णण वि णिसिरावेति, अन्न पिणिसिरतं समजाणति, हिंसावंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति प्राहिते / ६९७-इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कि कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए स्वयं दण्ड देता है कि इस (त्रस या स्थावर) जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा अथवा वह दूसरे से त्रस और स्थावर प्राणी को वह दण्ड दिलाता है, या त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए दूसरे पुरुष का अनुमोदन करता है। ऐसा व्यक्ति प्राणियों को हिंसारूप दण्ड देता है / उस व्यक्ति को हिंसाप्रत्ययिक सावद्यकर्म का बन्ध होता है / अतः इस तीसरे क्रियास्थान को हिंसादण्डप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन-ततीय क्रियास्थान : हिंसादण्डप्रत्ययिक-स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में हिंसा दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे होता है इसका दिग्दर्शन कराया गया है। हिंसादण्डप्रत्यायिक क्रियास्थान मुख्यतया हिमा प्रधान होता है। यह त्रैकालिक और कृतकारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से होता है। जैसे कि (1) कई व्यक्ति अपने सम्बन्धी की हत्या का बदला लेने के लिए क्रुद्ध होकर सम्बन्धित व्यक्तियों को मार डालते हैं, जैसे-परशुराम ने अपने पिता की हत्या से कुद्ध होकर कातवीय को मार डाला था / (2) भविष्य में मेरी हत्या कर डालेगा, इस आशंका से कोई व्यक्ति सम्बन्धित व्यक्ति को मार या मरवा डालते हैं, जैसे-कंस ने देवकी लने का उपक्रम किया था। कई व्यक्ति सिंह, सर्प या बिच्छ आदि प्राणियों का इसलिए वध कर डालते हैं कि ये जिदा रहेंगे तो मुझे या अन्य प्राणियों को मारेंगे / (3) कई व्यक्ति वर्तमान में कोई किसी को मार रहा है तो उस पर मारने को टूट पड़ते हैं / ये और इस प्रकार की क्रिया हिंसाप्रवृत्तिनिमित्तक होती हैं जो पाप कर्मबन्धका कारण होने से हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहलाती है / चतुर्थ क्रियास्थान-अकस्मादण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण 698-(1) प्रहावरे च उत्थे दंडसमादाणे अकस्माद् दंडवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहाणामए के इ पुरिसे कच्छंसि वा जाव बणविदुग्गंसि वा मियवित्तिए मिय संकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वधाए उसुआयामेत्ता णं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्सामि त्ति कठ्ठ तित्तिरं वा वट्टगं वा चडगं वा लावगं वा कवोतमं वा कवि का कबिजलं वा विधित्ता भवति ; इति खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ, अकस्माइंडे / (2) से जहाणामए केइ पुरिसे सालोणि वा वीहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा रालाणि वा शिलिज्जमाणे अन्नयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं मयणगं मुगुदगं वीहिरूसितं कालेसुतं तणं छिदिस्सामि त्ति कटठ्ठ सालि वा वोहिं वा कोहवं वा कंगु वा परगं वा रालयं 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 308 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org