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________________ क्रियास्थान: द्वितीय अध्ययन : सूत्र 700 ] [ 61 धासि वा अतेणं तेणमिति मन्नमाणे प्रतेणे हयपुम्वे भवइ, दिट्ठोविपरियासियादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविपरियासियादंडे त्ति प्राहिते। ६६६---इसके पश्चात् पाँचवाँ क्रियास्थान दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (1) जैसे कोई व्यक्ति अपने माता, पिता, भाइयों, बहनों, स्त्री, पुत्रों, पुत्रियों या पुत्रवधुनों के साथ निवास करता हया अपने उस मित्र (हितैषीजन) को (गलतफहमी से) शत्रु (विरोधी या अहितैषी) समझ कर मार देता है, इसको दृष्टि विपर्यासदण्ड कहते हैं, क्योंकि यह दण्ड दृष्टिभ्रमवश होता है। (2) जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मण्डप, द्रोण-मुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी पर घात के समय किसो चोर से भिन्न (अचोर) को चोर समझ कर मार डाले तो वह दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है / __ इस प्रकार जो पुरुष अहितैषी या दण्ड्य के भ्रम से हितैषी जन या अदण्ड्य प्राणी को दण्ड दे बैठता है, उसे उक्त दृष्टिविपर्यास के कारण सावद्यकर्मबन्ध होता है। इसलिए दृष्टिविपर्यास दण्डप्रत्ययिक नामक पंचम क्रियास्थान बताया गया है / विवेचन—पंचम क्रियास्थान-दृष्टिविपर्यासदण्ड-प्रत्यायक-स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में दृष्टिविपर्यासवश होने वाले दण्डसमादान (क्रियास्थान) को दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है - (1) हितैषी पारिवारिक जनों में से किसी को भ्रमवश अहितैषी (शत्रु) समझ कर दंड देना, (2) ग्राम, नगर आदि में किसी उपद्रव के समय चोर, हत्यारे आदि दण्डनीय व्यक्ति को ढूढने के दौरान किसी अदण्डनीय को भ्रम से दण्डनीय समझ कर दंड देना।' छठा क्रियास्थान-मृषावादप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ७००-अहावरे छ8 किरियाठाणे मोसवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहानामए केइ पुरिसे प्रायहेउं वा नायहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वति, अण्णेण वि मुसं वदावेति, मुसं वयंत पि अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, छ8 किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिते। ७००--इसके पश्चात छठे क्रियास्थान का वर्णन है, जो मृषाप्रत्ययिक कहलाता है / जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए. घर के लिए अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है. दसरे से असत्य बलवाता है, तथा असत्य बोलते हए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है। ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य प्रवत्ति-निमित्तक पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध होता है। इसलिए यह छठा क्रियास्थान मृषावादप्रत्ययिक कहा गया। विवेचन-छठा क्रियास्थान : मषावादप्रत्यायक-स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में मृषावाद प्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है। यह क्रियास्थान मन, वचन काय से किसी भी प्रकार का असत्याचरण करने, कराने एवं अनुमोदन से होता है / 1. मूत्रकृतांग शीलांकत्ति, पत्रांक 309 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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