________________ 62 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्तर-इसके पूर्व जो पांच क्रियास्थान कहे गए हैं, उनमें प्रायः प्राणियों का घात होता है, इसलिए उन्हें शास्त्रकार ने 'दण्डसमादान' कहा है, परन्तु छठे से ले कर तेरहवें क्रियास्थान तक के भेदों में प्रायः प्राणिघात नहीं होता, इसलिए इन्हें 'दण्डसमादान' न कह कर 'क्रियास्थान' कहा है।' सप्तम क्रियास्थान-- अदत्तादान प्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ___७०१-प्रहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे प्रायोउं वा जाव परिवारहेउं वा सयमेव अदिण्णं प्रादियति, अण्णेण वि अदिण्णं आदियावेति, अदिग्णं आदियंत अण्णं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए ति माहिते। ७०१-इसके पश्चात् सातवाँ क्रियास्थान अदत्तादानप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कोई व्यक्ति अपने लिए, अपनी ज्ञाति के लिए तथा अपने घर और परिवार के लिए अदत्त-वस्तु के स्वामी के द्वारा न दी गई वस्तु को स्वयं ग्रहण करता है, दूसरे से अदत्त को ग्रहण कराता है, और अदत्त ग्रहण करते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, तो ऐसा करने वाले उस व्यक्ति को अदत्तादान-सम्बन्धित सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है। इसलिए इस सातवें क्रियास्थान को अदत्तादानप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन-सप्तम क्रियास्थान : अदत्तादानप्रत्ययिक-स्वरूप और कारण- प्रस्तुत सूत्र में अदत्तादान से सम्बन्धित कृत-कारित-अनुमोदितरूप क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है। . अदत्तादान-वस्तु के स्वामी या अधिकारी से बिना पूछे उसके बिना दिये या उसकी अनुमति, सहमति या इच्छा के विना उस वस्तु को ग्रहण कर लेना, उस पर अपना अधिकार या स्वामित्व जमा लेना, उससे छीन, लूट या हरण कर लेना अदत्तादान, स्तेन या चोरी है / अष्टम क्रियास्थान-अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान : स्वरूप और विश्लेषण 702-- प्रहावरे अट्टमे किरियाठाणे अज्झथिए ति पाहिज्जति / से जहाणामए केइ पुरिसे, से स्थि णं केइ किचि विसंवादेति, सयमेव होणे दोणे दुट्ठ दुम्मणे प्रोहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपविट्ठ करतलपल्हत्थमुहे अट्टझाणोवगते भूमिगतदिट्ठीए झियाति, तस्स णं अज्झत्थिया प्रसंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जति, तं०-कोहे माणे माया लोभे, अज्झत्थमेव कोह-माण-माया-लोहा, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजे ति पाहिज्जति, अट्टमे किरियाठाणे प्रज्झथिए त्ति प्राहिते। ७०२-इसके बाद आठवाँ अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है। जैसे कोई ऐसा (चिन्ता एवं भ्रम से ग्रस्त) पुरुष है, किसी विसंवाद (तिरस्कार या क्लेश) के कारण, दुःख उत्पन्न करने वाला कोई दूसरा नहीं है फिर भी वह स्वयमेव हीन भावनाग्रस्त, दीन, दुश्चिन्त (दुःखित चित्त) दुर्मनस्क, उदास होकर मन में अस्वस्थ (बुरा) संकल्प करता रहता है, चिन्ता और शोक के सागर में 1. मूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 309 के अनुसार 2. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक, 310 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org