________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 38. वे मूढ़ मिथ्यावृष्टि, धर्मप्रज्ञापना-धर्मप्ररूपणा में तो शंका करते हैं, (जबकि) आरम्भोंहिंसायुक्त कार्यों में (सत्शास्त्रज्ञान से रहित है, इस कारण) शंका नहीं करते / 39. सर्वात्मक- सबके अन्तःकरण में व्याप्त-लोभ, समस्त माया, विविध उत्कर्षरूप-मान और अप्रत्ययरूप क्रोध को त्याग कर ही जीव अकर्माश (कर्म से सर्वथा) रहित होता है। किन्तु इस (सर्वज्ञभाषित) अर्थ (सदुपदेश या सिद्धान्त अथवा सत्य) को मृग के समान (बेचारा) अज्ञानी जीव ठुकरा देतात्याग देता है। 40. जो मिथ्यादृष्टि अनार्यपुरुष इस अर्थ (सिद्धान्त या सत्य) को नहीं जानते, मृग की तरह पाश (बन्धन) में बद्ध वे (मिथ्यादृष्टि अज्ञानी) अनन्तवार घात-विनाश को प्राप्त करेंगे-विनाश को ढूंढ़ते हैं। 41. कई ब्राह्मण (माहन) एवं श्रमण (ये) सभी अपना-अपना ज्ञान बघारते हैं-बतलाते हैं / परंतु समस्त लोक में जो प्राणी हैं, उन्हें भी (उनके विषय में भी) वे कुछ नहीं जानते / 42-43- जैसे म्लेच्छ पुरुष अम्लेच्छ (आर्य) पुरुष के कथन (कहे हुए) का (सिर्फ) अनुवाद कर देता है। वह हेतु (उस कथन के कारण या रहस्य) को विशेष नहीं जानता, किन्तु उसके द्वारा कहे हुए वक्तव्य के अनुसार ही (परमार्थशून्य) कह देता है / इसीतरह सम्यग्ज्ञान-हीन (ब्राह्मण और श्रमण) अपना-अपना ज्ञान बघारते--कहते हुए भी (उसके) निश्चित अर्थ (परमार्थ)को नहीं जानते / वे (पूर्वोक्त) म्लेच्छों-अनार्यों की तरह सम्यक् बोधरहित हैं। 44. अज्ञानियों-अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञानपक्ष में मीमांसा-पर्यालोचना करना युक्त (युक्तिसंगत) नहीं हो सकता। (जब) वे (अज्ञानवादी) अपने आपको अनुशासन (स्वकीय शिक्षा) में रखने में समर्थ नहीं हैं, तब दूसरों को अनुशासित करने (शिक्षा देने) में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? 45. जैसे बन में दिशामुढ़ प्राणी दिशामुढ नेता के पीछे चलता है तो सन्मार्ग से अनभिज्ञ वे दोनों ही (कहीं खतरनाक स्थल में पहुंचकर) अवश्य तीव्र शोक में पड़ते हैं। ----असह्य दुःख पाते हैं, (वैसे हो अज्ञानवादी सम्यक् मार्ग के विषय में दिङ्मूढ़ नेता के पीछे चलकर बाद में गहन शोक में पड़ जाते हैं / ) 46. अन्धे मनुष्य को मार्ग पर ले जाता हुआ दूसरा अन्धा पुरुष (जहाँ जाना है, वहाँ से) दूरवर्ती मार्ग पर चला जाता है, इसमें वह (अज्ञानान्ध) प्राणी या तो उत्पथ (ऊबड़-खाबड़ मार्ग) को पकड़ लेता है-पहुँच जाता है, या फिर उस (नेता) के पीछे-पीछे (अन्य मार्ग पर) चला जाता है / 47. इसी प्रकार कई नियागार्थी-मोक्षार्थी कहते हैं हम धर्म के आराधक हैं, परन्तु (धर्माराधना तो दूर रही) वे (प्रायः) अधर्म को ही (धर्म के नाम से) प्राप्त-स्वीकार कर लेते हैं। वे सर्वथा सरल-अनुकूल संयम के मार्ग को नहीं पकड़ते- नहीं प्राप्त करते / 48. कई दुर्बुद्धि जीव इस प्रकार के (पूर्वोक्त) वितर्कों (विकल्पों) के कारण (अपने अज्ञानवादी नेता को छोड़कर) दूसरे-ज्ञानवादी की पर्युपासना-सेवा नहीं करते / अपने ही वितर्कों से मुग्ध वे यह अज्ञानवाद हो यथार्थ (या सीधा) है, (यह मानते हैं।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org