________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 33 से 50 42. मिलक्खु अमिलक्खुस्स जहा वुत्ताणुभासती। ण हेउं से विजाणाति भासियं तऽणुभासती // 15 // 43. एवमण्णाणिया नाणं वयंता विसयं सयं / णिच्छयत्थं ण जाणंति मिलक्खू व अबोहिए // 16 / / 44. अण्णाणियाण वोमंसा अण्णाणे नो नियच्छती। अप्पणो य परं णालं कुतो अण्णेऽणुसासिउं? // 17 // 45. वणे मूढे जहा जंतु मूढणेताणुगामिए। दुहओ वि अकोविया तिव्वं सोयं णियच्छति // 18 // 46. अंधो अंधं पहं णितो दूरमद्धाण गच्छती। आवज्जे उप्पहं जंतु अदुवा पंथाणुगामिए // 16 // 47. एवमेगे नियायट्ठी धम्ममाराहगा वयं / अदुवा अधम्ममावज्जे ग ते सव्वज्जुयं वए॥ 20 // 48. एवमेगे वितकाहिं जो अण्णं पज्जुवासिया। __ अप्पणो य वितकाहि अपमंजू हि दुम्मसी // 21 // 46. एवं सक्काए साता धम्मा-धम्मे अकोविया। दुक्खं ते नाइतुट्टति सउणी पंजरं जहा // 22 // 50. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं बई / जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया // 23 // 33-34. जैसे परित्राण-संरक्षण से रहित अत्यन्त शीघ्र भागनेवाले मृग शंका से रहित स्थानों में शंका करते हैं और शंका करने योग्य स्थानों में शंका नहीं करते / सुरक्षित-परित्राणित स्थानों को शंकास्पद और पाश-बन्धन-युक्त स्थानों को शंकारहित मानते हुए अज्ञान और भय से उद्विग्न वे (मृग) उनउन पाशयुक्त बन्धन वाले) स्थलों में ही जा पहुंचते हैं। 35. यदि वह मृग उस बन्धन को लांघकर चला जाए, अथवा उसके नीचे होकर निकल जाए तो पैरों में पड़े हुए (उस) पाशबन्धन से छूट सकता है, किन्तु वह मूर्ख मृग तो उस (बन्धन) को देखता (ही) नहीं है। 36. अहितारमा अपना ही अहित करने वाला तथा अहितबुद्धि (प्रज्ञा) वाला वह मृग कूटपाशादि (बन्धन) से युक्त विषम प्रदेश में पहुंचकर वहां पद-बन्धन से बँध जाता है और (वहीं) वध को प्राप्त होता है। 37. इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण अशंकनीय-शंका के अयोग्य स्थानों में शंका करते हैं और शंकनीय-शंका के योग्य स्थानों में निःशंक रहते हैं-शंका नहीं करते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org