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________________ 346 सूत्रकृतांग- अष्टम अध्ययन-वीर्य दृष्टि से दोनों की शास्त्रीय संज्ञा बता दी है। कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा गया है, अर्थात प्रमादजनित कर्मों से युक्त जीव का कार्य बालवीय और अप्रमाद जनित अकर्मयुक्त जीव का कार्य पण्डितवीर्य है।' पाठान्तर और व्याख्या-कम्पमेगे पति अकम्म वावि सुव्वता' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है'कम्ममेवं पभासंति अकम्मं वावि सुब्बता / ' अर्थात् - इस प्रकार सुव्रत तीर्थंकर कर्म को वीर्य कहते हैं और अकर्म को भी। दोनों वीर्यो का आधार : प्रमाद और अप्रमाद--जिसके कारण प्राणि वर्ग अपना आत्मभान भूलकर उत्तम अनुष्ठान से रहित हो जाता है, उसे 'प्रमाद' कहते हैं। वह पांच प्रकार का है-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा / तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्मबन्धन का एक विशिष्ट कारण बताया है। प्रमाद के कारण जीव आत्मभान रहित होकर कर्म बाँधता है, वह अपनी सारी शक्ति (वीर्य) धर्म-विषति, अधर्म या पापयुक्त कार्यों में लगाकर कर्मबन्धन करता रहता है। इसीलिए प्रमादयुक्त सकर्मा जीव का जो भी क्रियानुष्ठान होता है, उसे बालवीर्य कहा है। इसके विपरीत प्रमादरहित पुरुष के कार्य के पीछे मतत आत्मभान, जागृति एवं विवेक होने के कारण उसके कार्य में कर्मबन्धन नहीं होता, वह अपनी सारी शक्ति अप्रमत्त होकर कर्मक्षा करने, हिंसादि आस्रवों तथा कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहने एवं स्व-भावरमण में लगाता है। इसलिए ऐसे अप्रमत्त एवं अकर्मा साधक के पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है। निष्कर्ष यह है कि बालवीर्य और पण्डितवीर्य का मुख्य आधार क्रमशः प्रमाद और अप्रमाद है। बालजनों का सकर्मबीर्य : परिचय और परिणाम 414. सत्थमेगे सुसिक्खंति, अतिवायाय पाणिणं / एगे मंते अहिज्जति, पाणभूयत्रिहेडिणो // 4 // 415. माइणो कटु मायाओ, कामभोगे समारभे। हंता छेत्ता पत्तित्ता, आयसायाणुगामिणो / / 5 / / 416. मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो।। आरतो परतो यावि, दुहा वि य असंजता // 6 // 417. वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहि रज्जतो। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो // 7 // 418. संपरागं णियच्छति, अत्तदुक्कडकारिणो। रोग-दोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बहु॥८॥ 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 167-168 का सारांश 2 सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ०७४ 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 168 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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