________________ वीरियं : अटुमं अज्झयणं वीर्य : अष्टम अध्ययन वीय का स्वरूप और प्रकार-- 411 दुहा चेयं सुथक्खायं, वीरियं ति पवुच्चति / कि नु वीरस्स वीरत्त, केण वोरो ति बुच्चति // 1 / / 412. कम्ममेगे पवेदेति, अम्मं वा वि सुव्वता / एतेहि दोहि ठाणेहि, जेहिं दिस्संति मच्चिया // 2 // 413. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं। तब्भावादेसतो वा वि, बालं पंडितमेव वा / / 3 // 411. यह जो वीर्य कहलाता है, वह (तीर्थकर आदि ने) थुत (शास्त्र) में दो प्रकार का कहा है। (प्रश्न होता है-) वीर पुरुष का वीरत्व क्या है ? और वह किस कारण से वीर कहलाता है ? 412. (श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं-) हे सुब्रतो ! कई लोग कर्म को वीर्य कहते हैं अथवा कई अकर्म को वीर्य कहते हैं / मर्त्यलोक के प्राणी इन्हीं दो भेदों (स्थानों) में देखे जाते हैं। 413. (तीर्थंकर आदि ने) प्रमाद को कर्म कहा है, तथा इसके विपरीत अप्रमाद को अकर्म (कहा है)। इन दोनों (कर्म अथवा प्रमाद तथा अकर्म) की मत्ता (अस्तित्व) की अपेक्षा से बालवीर्य अथवा पण्डितवीर्य (का व्यवहार) होता है। विवेचन-तीर्थकरोक्त वीर्य : स्वरूप और प्रकार-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रथम गाथा में श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया गया है-भगवान् महावीर द्वारा उक्त दो प्रकार के वीर्य का स्वरूप (वीर पुरुष का वीरत्व) क्या है, वह किन कारणों (किन-किन वीर्यों) से वीर कहलाता है ? द्वितीय गाथा में कहा गया है-एकान्त कर्म प्रयत्न से निष्पादित और अकर्म को वीर्य बताने वाले अन्य लोगों का मत प्रदर्शित करके, इन्हीं दो (कर्म और अकर्म) में से तीर्थंकरोक्त दृष्टि से करण में कार्य का उपचार करके औदयिक भावनिष्पन्न अष्टविध कर्मजन्य को सकर्मवीर्य तथा जो कर्मोदय निष्पन्न न होकर जीव का वीर्यान्तरायजनित सहज वीर्य हो, उसे अकर्मवीर्य बताया है। सारे संसार के जीवों का वीर्य इन्हीं दो भेदो में विभक्त है। इसके पश्चात् ततीय गाथा में तीर्थंकरोक्त द्विविध वीर्य को विशेष स्पष्ट करने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org