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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाया 230 से 232 231 आचुका होगा, जिसकी प्रतिध्वनि थेरगाथा में स्पष्ट अंकित है। इसीलिए शास्त्रकार ने इस भ्रान्त मान्यता का उल्लेख किया है-'इहमेगेउ 'सातं सातेण बिज्जती / कितनी भ्रान्त और मिथ्या मान्यता है यह ?- इसी गाथा के उत्तरार्द्ध में इस मान्यता को भ्रान्त और मिथ्या बताया गया है। वृत्तिकार ने इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा है कि इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए बौद्धग्रन्थों में जो युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं, वे निःसार हैं / मनोज्ञ आहार आदि को, जो सुख का कारण कहा है, वह भी ठीक नहीं, मनोज्ञ आहार से कभी-कभी हैजा (विसूचिका), अतिसार एवं उदरशल आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए मनोज्ञ आहार एकान्ततः सुख का कारण नहीं है। न ही मनोज्ञ शयनासन ही सुख का कारण है, क्योंकि उससे प्रमाद, अब्रह्मचर्य आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, जो दुःख के कारण हैं। वास्तव में इन्द्रिय-विषयजन्य सुख दुःख के क्षणिक प्रतीकार का हेतु होने से वह सुख का आभास-मात्र है, उसमें अनेक दुःख गर्भित होने से, वह परिणाम में विष-मिश्रित भोजन के समान दुःख रूप ही है, दुःख का ही कारण है। फिर जो सुख इन्द्रियों या पदार्थों के अधीन है, वह पराधीन है। इन्द्रियों के विकृत या नष्ट हो जाने पर या पदार्थों के न मिलने या वियोग हो जाने से वह सुख अत्यन्त दुःख रूप में परिणत हो जाता है / अतः वैषयिक सुख परवश होने से दुःख रूप ही है।। इसके विपरीत त्याग, तप, वैराग्य, यम, नियम, संयम, ध्यान, साधना, भोजनादि परतन्त्रता से मुक्ति, स्वाधीन सुख हैं, ये ही वास्तविक सुख या मोक्षसुख हैं। अतः दुःखरूप विषयजन्य पराधीन सुख परमानन्दरूप, ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक स्वाधीन मोक्षसुख का कारण कैसे हो सकता है ? इसीलिए कहा है दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः; सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः / उत्कीर्णवर्णपदपक्तिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् // " अर्थात् - विवेकमूढ़ लोग अपनी विपरीत गति, मति और दृष्टि के कारण दुःखरूप पंचेन्द्रिय विषयों में सख मानते हैं। किन्तु जो यम-नियम, तप, त्याग आदि सुखरूप हैं, उन्हें वे दुःखरूप समझते किसी धातु पर उत्कीर्ण की (खोदी) हुई अक्षर, पद, एवं पंक्ति देखने पर उलटी दिखाई देती है, लेकिन उसे मुद्रित कर दिये जाने से वह सीधी हो जाती है। इसी तरह संसारी जीवों की सुख-दुःख के विषय में उलटी समझ होती है / अतः विषय-भोग को दुःखरूप और यम-नियमादि को सुखरूप समझने से उनका यथार्थरूप प्रतीत होता है। तथाकथित बौद्धभिक्षुओं ने केशलोच, प्रखरतप, भूमिशयन, भिक्षाटन, भूख-प्यास, शर्दी-गर्मी आदि 15 देखिये थेरगाथा में उत्तरकालीन बौद्ध भिक्षओं के शिथिलाचार की झांकी-- अञ्जथा लोयनाथम्हि तिढ़ते पुरिसुत्तमे। इरियं असि भिक्खूनं अञथा दानि दिस्सति // सब्वासवपरिक्खीणा महाझायी महाहिता / निब्धता, दानि ते थेरा परित्ता दानि तादिसा / / -थेरगाथा 121, 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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