________________ 230 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन--उपसर्गपरिज्ञा यहाँ 'सातिपुत्त' शब्द का अर्थ गौतम बुद्ध विवक्षित हो तो इस शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'शाक्यपुत्र' करना चाहिए / परन्तु इसिभासियाई को टीका में अन्त में शारिपुत्रीयमध्ययनम् कहा गया है / यहाँ 'सातिपुत्र' शब्द का अर्थ यदि 'शारिपुत्र' अभीष्ट हो तो यहाँ बुद्ध का अर्थ बौद्ध (बुद्ध) शिष्य करना चाहिए, जैसा कि इसिभासियाइं को टीका में भी 'इति बौद्धषिणा भाषितम् कहा गया है। __ 'सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त प्रमाणों के अतिरिक्त, बौद्ध यह कुतर्क प्रस्तुत करते हैं-- न्यायशास्त्र का एक सिद्धान्त है --'कारण के अनुरूप हो कार्य होता है, इस दृष्टि से जिस प्रकार शालिधान के बीज से शालिधान का ही अंकुर उत्पन्न होता है, ' जौ का नहीं; उसी प्रकार इहलोक के सुख से ही परलोक का या मुक्ति का सुख मिल सकता है, मगर लोच आदि के दुःख से मुक्ति का सुख नहीं मिल सकता।' इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- 'समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख से सभी उद्विग्न हो उठते हैं, इसलिए सुखार्थी को स्वयं को (दूसरों को भी) सुख देना चाहिए सुख प्रदाता ही सुख पाता है। अतः मनोज्ञ आहार-विहार आदि करने से चित्त में प्रसन्नता (साता) प्राप्त होती है, चित्त प्रसन्न होने पर एकाग्रता (ध्यान विषयक) प्राप्त होती है, और उसी से मुक्ति की प्राप्ति होती है किन्तु लोच आदि काया कष्ट से मुक्ति नहीं हो सकती। इसी म्रान्त मान्यता के अनुसार उत्तरकालीन बौद्ध भिक्षुओं को वैषयिक सुख युक्त दिनचर्या के प्रति कटाक्ष रूप में यह प्रसिद्ध हो गया "मृद्री शय्या, पातरुत्थाय पेया, भक्त मध्ये पानकं चापराह्न। द्राक्षाखण्डं शर्करा चाद्ध रात्र, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्र ण दृष्टाः / " "भिक्षु को कोमल शय्या पर सोना चाहिए, प्रातःकाल उठते ही दूध आदि पेय पदार्थ पीना, मध्याह्न में भोजन और अपराह्न में शर्बत, दूध आदि का पान करना चाहिए, फिर आधी रात में किशमिश और मिश्री खाना चाहिए, इस प्रकार की सुखपूर्वक दिनचर्या से अन्त में शाक्यपुत्र (बुद्ध) ने मोक्ष देखा (बताया) है।१४ यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म की एक शाखा के भिक्षुओं में उपर्युक्त प्रकार का आचारशैथिल्य आ गया था। वृत्तिकार ने इस सूत्रगाथा (230) की वृत्ति में इस तथ्य का विशेष रूप से स्पष्ट उल्लेख किया है / सम्भव है, नौवीं-दसवीं सदी में बौद्ध भिक्षुओं के आचारशिथिल जीवन का यह आँखों देखा वर्णन हो। थेरगाथा में वौद्ध भिक्षुओं की आचारशिथिलता का वर्णन इसी से मिलता-जुलता है। सम्भव है-थेरगाथा के प्रणयन काल में बौद्ध भिक्षुओं में यह शैथिल्य 14 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 66 में उद्धृत (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 476-477 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org