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________________ चतुर्थ उद्देशक : माथा 230 से 232 232. आप (सुख से सुख प्राप्ति के मिथ्यावाद के प्ररूपक) लोग प्राणातिपात (हिंसा) में प्रवत्त होते हैं, (साथ ही) मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन (अब्रह्मचर्य) सेवन आर परिग्रह में भी प्रवृत्त होते हैं, (इस कारण आप लोग) असंयमी हैं / विवेचन--'सुख से हो सुख प्राप्ति : एक मिथ्यामान्यता रूप उपसर्ग-प्रस्तुत तीन' सूत्रगाथाओं (230 स 232 तक) में मोक्षमार्ग से भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग का निदर्शन प्रस्तुत किया गया है। इस मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के सम्बन्ध में यहाँ दो तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं-(१) 'सुख से ही सुख मिलता है, इस मिथ्या मान्यता के शिकार मूढ़मति साधक रत्नत्रयात्मक अनन्त सुखात्मक मोक्ष मार्ग को छोड़ देते हैं, (2) ऐसे मिथ्यावाद के प्ररूपक तथा ऐसे उपसर्ग से पीड़ित लोग पांचों आस्रवों में प्रवृत्त होते देर नहीं लगाते / " __'सुख से ही सुख की प्राप्ति'---यह मान्यता किसकी, कैसे और क्यों? चूर्णिकार ने यह मत बौद्धों का माना है, वत्तिकार ने भी इसी का समर्थन किया है, किन्तु साथ ही यह भी बताया है कि कुछ जैन श्रमण, जो केशलोच, पादविहार, रात्रिभोजन-त्याग, कठोर तप आदि कष्टों से सन्तप्त हो जाते हैं, वे भी इस मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के प्रवाह में बह जाते हैं और मोक्षमार्ग से भटक जाते हैं। वे कहते हैं--सुख द्वारा सुख प्राप्त किया जा सकता है, अतः सुखप्राप्ति के लिए कष्ट सहन करने की आवश्यकता नहीं है / जो लोग सुख प्राप्ति के लिए तपरूप कष्ट उठाते है, वे भ्रम में हैं। बौद्धग्रन्थ 'सुत्तपिटक' मज्झिम निकाय के चूल दुक्खखंध सुत्त में निर्ग्रन्थों के साथ गौतम-बुद्ध का जो वार्तालाप हुआ है, उसमें निम्रन्थों के कथन का जो उत्तर दिया है, उस पर से यह बौद्धमत है, इतना स्पष्ट हो जाता है / 12 इसके अतिरिक्त 'इसिभासियाइ' के ३८वें अध्ययन-'साइपुत्तिज्ज' में इस मान्यता का स्पष्ट उल्लेख है-'जो सुख से सुख उपलब्ध होता है; वही अत्यन्त सुख है, सुख से जो दुःख उपलब्ध होता है, मुझे उसका समागम न हो।' सातिपुत्र बुद्ध का यह कथन है-"मनोज्ञ भोजन एवं मनोज्ञ शयनासन का सेवन करके मनोज घर में जो भिक्षु (मनोज्ञ पदार्थ का) ध्यान करता है, वही समाधि (सुख) युक्त है / अमनोज्ञ भोजन एवं अमनोज्ञ शयनासन का उपभोग करके अमनोज्ञ घर में (अमनोज्ञ पदार्थ का) जो भिक्षु ध्यान करता है, वह दुःख का ध्यान है।"१४ 11 सूत्र कृतांग शीलांक बृत्ति भाषानुवाद सहित भा० 2, पृ०७७ से 82 का सारांश 12 ..'न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगंतव्व, दुक्खेन खो सुखं अधिगंतव्य " / -सुत्तपिटक मज्झिमनिकाय चूलदुक्खखंध सूत्र पृ० 128/126 13 (क) "जं सुहेण सुहं लद्धं अच्चंत सुखमेव तं / जं सूखेण दुहं लद्धं मा मे तेण समागमो।" --सातिपुत्तण बुद्धण अरहता-बुइतं मणुष्ण भोयण भुच्चा, मणुष्णं सयणासणं / मषुण्ण सि अगारंसि झाति भिक्खु समाहिए // 2 // अमणुण्णं भोयणं भुच्चा, अमणुण्णं सयणासणं / अमणुण्ण सि गेहंसि दुक्खं भिक्खू झियायती // 3 // -इसिभासियाई अ० 3810 85 (ख) सूयगडंग मूलपाठ टिप्पण युक्त (जम्बूविजय जी) प्रस्तावना एवं परिशिष्ट पृ० 16 एवं 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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